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व्यंग्य

लौट के उद्धव मथुरा आए

संजीव निगम


जब कृष्ण उद्धव की ज्ञान भरी बासी बातों से ऐसे ही बोर हो गए जैसे कि एम.ए. के छात्र अपने गुरुओं के रटे रटाए ज्ञान से होते हैं तो उन्होंने उद्धव से कहा, 'हे सरकारी वेतनधारी पंडित, आपने गोपियों की माया मोह से मुझे छुड़ाने हेतु अपने इस देह रुपी आस्था चैनल से 24 x 7 लगातार अनेक धार्मिक प्रवचनों का प्रसारण किया पर एक छोटी सी बात फिर भी बताना भूल गए। जैसे किसी भी साधारण छात्र की सीधी किंतु मौलिक जिज्ञासा पीएचडी, डीलिट प्रोफेसर को उलझा देती है, वैसा ही उद्धव के साथ हुआ। उन्हें लगा कि सारे वेद पुराण को इंपोर्टेंट क्वेश्चन्स के साथ समझाने के बाद भी कुछ बताने से रह गया, यह तो विश्विद्यालयों के पाठ्यक्रमों की भाँति सालों से अपरिवर्तनीय उनके पॉवर पॉइंट आधारित ज्ञान का घोर अपमान है। पर चूँकि उनके मासिक वेतन का चेक कृष्ण के हस्ताक्षर से जारी होता था, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए वे अपने अपमान का घूँट पी गए। उन्होंने कृष्ण से पूछा, 'आखिर वो कौन सी बात है जिसे मैं बताना भूल गया।' कृष्ण ने कहा, 'बरसाने के दौरे की बात।'

कृष्ण के मुँह से इस तरह का सामान्य प्रश्न सुन कर उद्धव को घोर आश्चर्य हुआ। कृष्ण के ऊपर कुछ क्रोध भी आया। इतना साधारण प्रश्न, और इतने महान पंडित से। पर चूँकि बॉस से बहस करके अपना ही एनुअल एप्राइसल खराब होता है, इसलिए उद्धव जी अपने गुस्से को पान की पीक की तरह से पी गए और कार्यालयीन विनम्रता से जवाब दिया, 'जी, उस क्षेत्र में अभी तक कभी न सूखा पड़ा, और न बाढ़ आई है। इसलिए वहाँ का दौरा करने का अवसर अभी नहीं मिला है।' कृष्ण ने कहा, 'तो ठीक है, आप कुछ दिवस के लिए सरकारी दौरे पर बरसाने चले जाइए।' किसी घिसे हुए सरकारी बाबू की तरह से उद्धव को भी राजधानी का आनंद छोड़ कर बरसाने जैसे पिछड़े इलाके के दौरे का यह प्रस्ताव बड़ा घातक लगा। सबसे बड़ा खटका यह लगा कि 'कहीं पीछे से वहीं परमानेंट पोस्टिंग न हो जाए।' उन्होंने 'न-नुकुर' करना शुरू किया, 'प्रभु, बिना किसी कारण सरकारी दौरा किया तो साल के आखिर में ऑडिटर क्वेरी लगा देगा।' कृष्ण ने कहा, 'आप वहाँ के निवासियों के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व् राजनैतिक चिंतन के अध्ययन के बहाने निकल जाइए।' कृष्ण द्वारा कारण भी दे दिए जाने पर उद्धव और घबरा गए कि कहीं ये निकल जाइए बाद में वहीं रह जाइए में न बदल जाए। बचने के लिए उन्होंने बीवी की बीमारी, बच्चों की पढ़ाई वगैरह का हवाला भी दिया पर कृष्ण ने सारे बहानों को खारिज कर दिया। जब बात नौकरी जाने या बरसाने जाने में से एक के चुनने की आ गई तो उद्धव ने बरसाने जाना ही श्रेष्ठ समझा।

सरकारी बैलगाड़ी से बरसाने जाते हुए उद्धव ने रास्ते में ही सब सोच लिया कि गाँव की सुंदर गोपियों और अनपढ़ ग्वालों पर प्रभाव डालने के लिए अपने पद की शान और मस्तिष्क के ज्ञान के अनुरूप क्या क्या कहा जाएगा।

उद्धव की शहरी छटा धजा को देख कर गाँव के बच्चों ने पहले ही शोर मचा कर मथुरा से मेहमान का शोर मचा दिया। गोप गोपियाँ 'कान्हा कान्हा' करते हुए दौड़े चले आए पर वहाँ आकर उद्धव को देख कर तब वे लोग ऐसे ही निराश हुए जैसे कि आज के समय में लोग 'ए' सर्टिफिकेट वाली फिल्मों में हीरोइन को कपडे पहने देख कर होते हैं। गोपियों ने तो उन्हें देखते ही ऐसे मुँह बनाया जैसे कि आजकल घर के टीवी पर सास बहु का सीरियल आता देख कर घर के पुरुष मुँह बिचका लेते हैं। सरकारी बाबू की मुफ्त सेवा करने के डर से गोप ग्वाले भी एक एक करके सटकने लगे। पर उद्धव सरकारी प्रशासन के साथ साथ एक एनजीओ भी चलाते थे। इसलिए उन्हें लोगों को बातों के जाल में फँसाने का व्यावहारिक तजुर्बा था। वे सट से भागते हुए लोगों के आगे खड़े हो गए और बोले, 'हे, बरसाने वासियों मैं कोई वसूली इंस्पेक्टर नहीं हूँ, जिसे देख कर आप भाग रहे हैं। मैं तो आपके प्रिय कृष्ण का परम प्रिय मित्र हूँ। यहाँ पर वे जिस तरह से आप लोगों के साथ टाइम पास किया करते थे, मथुरा ठीक वैसे ही मेरे साथ टाइम पास करते हैं। इस बराबरी के रिश्ते से आप और मैं भी मित्र हुए। है कि नहीं।' ये कहते कहते उन्होंने तपाक से अपने पास खड़े एक बुजुर्ग गोप से हाथ मिलाया। एक सरकारी अधिकारी के इतने प्यार से हाथ मिलाते ही वह गोप उसी क्षण से अपने आप को अति महत्वपूर्ण समझने लगा। उसने अपनी लाठी के बल पर बाकी सभी गोप-गोपियों को वहीं बैठने के लिए प्रेमपूर्वक समझा दिया। उद्धव को लगा कि अपने रुतबे को जमाने का यही माकूल अवसर है। उन्होंने एक पेड़ के नीचे बने चबूतरे को को अपने पिछवाड़े से धन्य किया और कहना शुरू किया, 'देखिए हम हैं प्रकांड प्रतिभाधारक, उच्च प्रशासक, कृष्ण उपदेशक श्री उद्धव यानि कि मथुरा नरेश के सबसे विश्वस्त साथी। श्री कृष्ण ने मुझे एक अत्यंत आवश्यक मिशन पर यहाँ भेजा है। और वह यह है कि आप लोगों के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व् राजनैतिक चिंतन का अध्ययन करना और उसकी रिपोर्ट तैयार करके देश के बुद्धिजीवियों के सामने रखना। वे बुद्धिजीवी उस रिपोर्ट को पढ़ कर उस पर बहस करेंगे फिर उस बहस पर देश के मंत्री बहस करेंगे, उसके बाद देश का दरबार बहस करेगा और तब उसके बाद तय होगा कि आप लोगों के आर्थिक, सामाजिक व् राजनैतिक चिंतन का सूचकांक क्या है।'

उद्धव की ज्ञान भरी बातों की गर्मी से वातानुकूलित कमरे में बैठे कृष्ण को भी पसीना आ जाता था फिर वे बेचारे गाँववाले तो खुले बदन, खुली जगह पर बैठे थे। उनके तो होश उड़ गए। उन्हें समझ ही नहीं आया कि अपनी छोटी सी बुद्धि से इतनी बड़ी बात का क्या जवाब दें इसलिए उनमे से कुछ फौरन उद्धव जी के लिए दूध, छाछ, मक्खन लाने के नाम पर निकल लिए। गोपियाँ अभी भी इस आस में खड़ी थीं की शायद उद्धव कृष्ण के बारे में कुछ बात करेंगे पर उद्धव ने पेशेवर विद्वान की तरह से तुरंत पैड और पेन निकाल अपना राष्ट्रीय महत्व का शोध कार्य शुरू कर दिया, उन्होंने पूछा, 'बताइए आप लोगों का आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व् राजनैतिक चिंतन क्या है?' जब किसी से इसका जवाब देते न बना तो राधा सामने आईं और बोलीं, 'हमारा आर्थिक चिंतन है कृष्ण के लिए दूध, दही, मक्खन बनाना, हमारा सामाजिक चिंतन है कि कृष्ण के साथ रास, होली खेलना, हमारा धार्मिक चिंतन है कृष्ण के नाम की माला जपना और राजनैतिक चिंतन है मथुरा के राजा कृष्ण की याद में रात दिन आँसू बहाना।' इस उत्तर से उद्धव जी बड़े परेशान हुए उन्होंने बाकी गोप-गोपियों से भी पूछा तो सबने यही उत्तर दिया। इससे निराश और क्रोधित उद्धव जी बोले, 'आप लोग कृष्ण के अलावा और कुछ नहीं करते? इस तरह से तो आप हमारे राष्ट्रीय मानव और सामाजिक संसाधनों की बड़ी हानि कर रहे हैं। आप लोगों की वजह से ही देश की जीडीपी नीचे चल रही है।'

इसी अवसर पर एक भँवरा कहीं से उड़ता हुआ वहाँ आ गया। राधा जी को लगा कि इस बुद्धिजीवी की बुद्धि ठिकाने लगाने का मौका हाथ आ गया। उन्होंने फौरन अपनी गोपी गायन मंडली को इशारा किया और गाना शुरू कर दिया। उनके गानों में भँवरे के माध्यम से उद्धव को बताया गया कि हमारी जमीन बंजर हो रही है, मवेशी चारे के अभाव में सूख रहे हैं, गाँव के छोटे उद्योग धंधे चौपट हो गए हैं, काम की तलाश में युवक शहरों को पलायन कर गए हैं, इसलिए हे सरकारी अधिकारी हमारे पास कृष्ण का नाम रटने के अलावा रास्ता ही क्या है? अगर तुम्हे हमारी बहुत चिंता है तो हमारे लिए सड़क, पानी और रोजगार की व्यवस्था करो। और सालों में दर्शन देने की बजाय, साल में एक बार तो दर्शन दिया करो।'

अब उद्धव के समझ आया कि कृष्ण क्यों ब्रज, बरसाने और गोप गोपियों को याद करके आँसू बहाते रहते हैं। मथुरा के राजमहल की सुविधाओं के बीच कृष्ण के मन में ब्रज के लोगों के कष्ट भरे जीवन के तीर चुभते रहते हैं। मथुरा के राजपथों पर रथ पर चलते हुए उन्हें ब्रज की टूटी फूटी गलियों पर नंगे पैर चलने वालों की पीड़ा का दंश दुख देता रहता है। पर आँकड़ों से प्रगति दिखाने वाले उनके अधिकारियों ने जन कल्याण की जमीनी योजनाओं को कभी कागज की जमीन से आगे ही नहीं बढ़ने दिया। बरसाने के लोगों के दुख के बारे में राधा के व्यंग्य गीतों से विचलित उद्धव से वहाँ रुकना संभव नहीं हो सका और वे खुद 'राधे-राधे' करते हुए मथुरा को वापस चल पड़े।


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