धरती के भीतर सदियों से जलने वाली आग जब कभी सतह को चीरकर बाहर आ जाती है तो वह ज्वालामुखी बन जाती है, उसमें से निकलने वाली आग, लावा आदि से दूर दूर तक पहाड़
तो बनता ही है वहाँ की जमीन लंबे समय के लिए अनुर्वर बन जाती है। आस पास के मनुष्यों के लिए ही नही, जीव-जंतुओं और यहाँ तक कि वनस्पतियों के लिए भी गंभीर खतरा
पैदा हो जाता है। दलित साहित्य की स्थिति भी ज्वालामुखी से फूटने वाली आग की तरह ही है। सदियों से दबाए और कुचले गए लोगों को जब वाणी नसीब हुई और उन्हें अपने
अनुभवों को बयान करने का मौका मिला तो उनके साहित्य में उनका सदियों से दबा हुआ आक्रोश मुखरित हुआ। उनकी भाषा से शालीनता गायब होती गई। आत्मालोचन उनकी प्रकृति
का हिस्सा नहीं रह गया है, असहनशीलता उनकी सामान्य विशेषता है। आज कल हिंदी साहित्य में दलित विमर्श की चर्चा चरम पर है।
दलित विमर्श के ज्यादातर रचनाकारों की मान्यता है कि दलित साहित्य उसे ही माना जाएगा जिसका लेखन दलित कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति ने किया हो, क्योंकि दलितों
की उस पीड़ा को अनुभव करने वाला एक दलित ही हो सकता है। दलितों के सृजन में ही दलित जीवन के अनुभव का यथार्थ अभिव्यक्त हो सकता है। इस तरह दलित लेखक स्वानुभूति
के साहित्य को ही अपना दलित साहित्य मानता हैं और सहानुभूति के साहित्य को नही। उल्लेखनीय है कि दलित लेखकों ने प्रेमचंद जैसे साहित्यकार को सामंत का मुंशी कहकर
संबोधित किया और उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'रंगभूमि' को वर्ष 2004 में, दिल्ली में सार्वजनिक रूप से विरोधस्वरूप जलाया। दलित रचनाकार गैर दलित लेखकों को बाहर वाला
मानते हैं और उनके द्वारा की गई आलोचना को भी एक सिरे से खारिज करते हैं। वे गैर दलितों की उन टिप्पणियों को सहज ही अस्वीकार कर देते हैं जिनमें उनकी रचनाओं की
प्रशंसा न की गई हो। गैर दलित लेखकों से वे सिर्फ अपने लिए प्रशंसा की अपेक्षा करते हैं। ऐसी दशा में सवाल यह है कि क्या उनके लेखन में सवर्ण चरित्र नहीं आते?
और यदि आते हैं तो उनके बारे में दलित लेखकों का अंकन भला कैसे प्रामाणिक माना जा सकता है? क्योंकि सवर्णों का अनुभव तो उनके पास होता नहीं। इस तर्क के आधार पर
तो प्रगतिशील रचनाकारों द्वारा मजदूरों के जीवन पर केंद्रित सारा साहित्य खारिज कर देने के लायक है क्योंकि उन रचनाकारों के पास मजदूरों के जीवन का कोई अनुभव
नहीं होता। 'वह तोड़ती पत्थर' और 'भिक्षुक' जैसी कविताओं की व्यर्थ प्रशंसा की जाती है क्योंकि निराला के पास न तो भिखारी का अनुभव था और न पत्थर तोड़ने वाली
महिला का। इस सिद्धांत के अनुसार तो मजदूरों के जीवन के यथार्थ का अंकन सिर्फ मजदूर लेखक ही कर सकता है। इसी तर्क के आधार पर संस्कृत साहित्य का अधिकांश हिस्सा
हमें अप्रामणिक मान कर त्याग देना चाहिए क्योंकि वह सब राजाओं-महाराजाओं के जीवन पर केंद्रित है, जबकि उसके रचयिता राजा महाराजा नहीं बल्कि उनके दरबारों से
वृत्ति पाने वाले रचनाकार होते थे।
इतना ही नहीं, साहित्य की तरह कला के अन्य रूप मसलन संगीत कला, चित्र कला, मूर्ति कला आदि के बारे में दलित चिंतकों का क्या ख्याल है? क्या इन कलाओं को भी
दलितों और गैर दलितों के खाँचे में बाँटने की योजना है?
हकीकत तो यह है कि हमारे साहित्य का अधिकांश हिस्सा स्वानुभूति का नहीं बल्कि सहानुभूति का है और इतिहास ने प्रमाणित कर दिया है कि सहानुभूति का साहित्य
स्वानुभूति के साहित्य से किसी भी तरह कमतर नहीं है। हमारे यहाँ अभिनय करने वालों या साहित्यकारों के लिए परकाया प्रवेश की परिकल्पना की गई है।
साहित्यशास्त्रियों ने साधारणीकरण के सिद्धांत की परिकल्पना भी इसी समस्या को हल करने के लिए की है। भट्टनायक से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक सभी ने
साधारणीकरण की प्रक्रिया को रसानुभूति के लिए अनिवार्य माना है। वस्तुत: साहित्य रचने वालों के लिए सिर्फ अनुभव ही जरूरी नहीं होता अपितु उनमें भाषा पर अधिकार,
लेखन क्षमता और रचना के लिए अपेक्षित कल्पनाशीलता की भी जरूरत होती है। अकारण नहीं है कि स्वानुभूति पर अतिरिक्त बल देने के कारण दलित लेखकों में आत्मकथाएँ
लिखने की तो होड़ मची है मगर अन्य विधाओं के साहित्य के प्रति उदासीनता है।
दलित लेखकों की दूसरी बड़ी कमजोरी यह है कि वे आत्मालोचन भूलकर भी नहीं करते। एक दिन मेरे एक परिचित और सरकारी विद्यालय में शिक्षक अपने अनुज का प्रमाणपत्र
सत्यापित कराने आए जिनके पास अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र था। जब मैने उनसे पूछा कि वे तो सामान्य वर्ग में आते हैं और उन्हीं का छोटा भाई अनुसूचित जाति का
कैसे हो गया तो उन्होंने ईमानदारी से मुझे बताया कि वे अपना प्रमाणपत्र बनवा पाने में सफल नहीं हो सके थे। उन्होंने ही बताया कि उन्हीं के अपने एक पट्टीदार
पड़ोसी के पास एस.टी. का सर्टिफिकेट है और वे उसका लाभ भी ले चुके हैं। एक दूसरा उदाहरण। उत्तर प्रदेश सरकार ने संभवतः नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख करना
अनिवार्य कर दिया है। मेरे गाँव में मेरे पड़ोसी के घर के दरवाजे पर उनका नाम राधेश्याम गोड़ लिखा हुआ है और उसी के नीचे लिखा है अनुसूचित जन जाति। वे कई
पुश्तों से मेरे पड़ोसी हैं। मेरी तरह उनके पास भी खेती है और उनके घर के लोग भी छोटी मोटी नौकरियाँ और रोजगार करते हैं। कभी भी कबीलाई जिंदगी उन्होंने नहीं जी,
मगर सरकार की कृपा से वे अनुसूचित जन जाति के हो गए। मुझे अच्छी तरह पता है कि राजस्थान की एक जाति है मीणा। उसका नाम अनुसूचित जन जाति की सूची में हैं, जिसका
परिणाम है कि अनुसूचित जन जाति के लिए निर्धारित आरक्षण का अधिकांश लाभ इसी मीणा जाति को मिल रहा है दूसरी जन जाति के जो लोग जंगलों पहाड़ों में रहते हैं और सही
अर्थों में आरक्षण के लिए पात्र हैं उन तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुँच रहा है। दलितों के भीतर एक क्रीमीलेयर पैदा हुआ है। दलित लेखकों की नजर अपने भीतर की इन
विसंगतियों पर नहीं पहुँच रही है। इन विषयों पर दलित लेखकों द्वारा लिखी गई कहानियाँ, कविताएँ या लेख हमें देखने को नहीं मिलते। हाँ, दलित लेखक इस बात के लिए
जरूर चिंतित हैं कि, 'प्रेम और अंतरजातीय विवाह के नाम पर दलितों की सबसे अच्छी और पढ़ी लिखी लड़की गैरदलित ले उड़ते हैं। यूँ कहिए दलित लड़की दहेज में दलितों
का आरक्षण लेकर चली जाती है।' ( लहक, कोलकाता, दिसंबर-जनवरी, पृष्ठ-104) इतना ही नहीं, 'वे नौकरियाँ जो केवल साक्षात्कार के आधार पर बाँटी जाती हैं, उनमें
आरक्षित पदों पर उन दलित लड़कियों का चयन किया जाता है जो गैर दलित से प्रेम विवाह कर बैठी हैं।' ( लहक, कोलकाता, दिसंबर-जनवरी, पृष्ठ-105)
हम यह मान कर चले थे कि जाति की घृणित व्यवस्था को खत्म करने का सबसे कारगर हथियार प्रेम विवाह ही हो सकता है है। जिस दिन प्रेम विवाह होने लगेगा उस दिन जाति
प्रथा और दहेज दोनों पर निर्णायक चोट पड़ेगी, किंतु हमारे दलित लेखक तो इस प्रेम विवाह पर भी प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं और इसकी वकालत करने वाले बाबा साहब डॉ.
भीमराव अंबेडकर को भी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। डॉ. धर्मवीर को 'आज के सबसे बड़े चिंतक' और 'महान आजीवक चिंतक' बताने वाले कैलाश दहिया लिखते है, 'दलित कौम को
ऐसे विवाहों से नुकसान और केवल नुकसान होता है। इस नुकसान के लिए अगर कोई जिम्मेवार है तो वह हैं डॉ. भीमराव अंबेडकर जिन्होंने जाति टूटने के भ्रम के नाम पर
अंतरजातीय विवाह के चक्कर में अपनी जान तो गँवाई ही, साथ ही दलितों को भी गहरे दलदल में छोड़ गए।' और 'उन्हें जाति के विनाश का भ्रम हो चला था। अब इसी भ्रम के
शिकार हमारे दलित होनहार लड़के लड़कियाँ हो रहे हैं।' ( लहक, कोलकाता, दिसंबर-जनवरी, पृष्ठ-105)
दलित चिंतक कैलाश दहिया को डॉ. अंबेडकर से यह भी शिकायत है कि 'डॉ. अंबेडकर की एक और भूल पूना पैक्ट में दलित हिंदू मान लिए गए। इससे दलितों के घरों में जारकर्म
ने पाँव पसार लिए।' ( लहक, उपर्युक्त, पृष्ठ-106) स्पष्ट है, दलित लेखकों का एक हिस्सा जाति प्रथा की यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है और अपने दलित भाइयों को
सीख देता हैं कि, 'दलितों को अपनी कौम बचाने के लिए इस लड़ाई के लिए कमर कस लेनी चाहिए।' ( वही, पृष्ठ-106 ) यानी, दलित चिंतकों का एक हिस्सा जाति पाँति बनाए
रखने के पक्ष में है। ऐसे लोगों से संवाद की कहाँ गुंजाइश बची है?
दलित आंदोलन का उद्देश्य क्या होना चाहिए? - एक ऐसे समाज की स्थापना जिसमें सामाजिक-आर्थिक विषमता न हो, जो ऊँच-नीच की अवधारणा से रहित हो और जो सामाजिक समानता
पर आधारित हो। किसी भी सिद्धांत को परखने की कसौटी उसका व्यवहार है। दलित आंदोलन से जुड़े सिद्धांतकार और लेखक अपना संबंध महाराष्ट्र से जोड़ते हैं। उन्हें बाबा
साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और महात्मा ज्योतिबा फुले से शक्ति मिलती है। वे बंगाल के नवजागरण से अपना संबंध नहीं जोड़ते और वास्तविक नवजागरण महाराष्ट्र से मानते
हैं। मैं दलित सिद्धांतकारों और लेखकों का ध्यान खास तौर पर बंगाल की ओर दिलाना चाहता हूँ। बंगाल का समाज भारत के शेष समाज से अलग और आगे बढ़ा हुआ समाज है। यहाँ
लगभग 60 से 70 प्रतिशत वैवाहिक संबंध अंतरजातीय होते हैं, जिनमें से कम से कम 50 प्रतिशत तो प्रेम विवाह होता है। यह तो दलित भी स्वीकार करेंगे कि जाति प्रथा
खत्म करने का सबसे कारगर तरीका अंतरजातीय विवाह ही होता है। इस दृष्टि से भारत के अन्य प्रांतों की तुलना में बंगाल में जाति प्रथा का बंधन सबसे कमजोर है। यहाँ
जिन शादियों का आधार प्रेम नहीं होता अर्थात जो शादियाँ लड़के-लड़की के माता-पिता की इच्छा और प्रयास से होती हैं वहाँ भी अमूमन जाति बाधक नहीं बनतीं। यहाँ
चुनाव के वक्त टिकट देने के लिए यू.पी. और बिहार की तरह जातीय समीकरण आधार नहीं बनते।
बंगाल का यह परिवर्तन बंगला नवजागरण का परिणाम है। उल्लेखनीय है कि बंगला नवजागरण के लगभग सभी महापुरुष सवर्ण थे। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, बंकिमचंद्र
चट्टोपाध्याय, माइकेल मधुसूदन दत्त, केशवचंद्र सेन, रवींद्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद विद्यासागर, राजा राममोहन राय, राजेंद्र लाल मित्र, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि
सभी सवर्ण थे जिन्होंने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच के साथ ही बाल-विवाह, सती-प्रथा आदि के खिलाफ और विधवा-विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि के पक्ष में निर्णायक
आंदोलन चलाया और बंगाल के समाज को काफी हद तक बदलने में कामयाब हुए। आज बंगाल की दशा यह है कि यहाँ जाति के आधार पर टिकट लेने और वोट माँगने वालों की जमानत जप्त
हो जाएगी। इस दृष्टि से बंगाल का समाज महाराष्ट्र से बहुत आगे है, यहाँ का समाज उत्तर प्रदेश और बिहार से भी बहुत आगे है जहाँ मायावती जैसी दलित महिला तीन बार
मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और जीतन राम माँझी मुख्यमंत्री हैं। उक्त तीनों ही प्रांतों में जातीय समीकरण अत्यंत घिनौने रूप में व्याप्त हैं, जातियों-उपजातियों के
भेद अपने वीभत्स रूप में दिखाई देते हैं। इन प्रांतों में जाति प्रथा को राजनीति ने गोद ले लिया है। राजनीतिज्ञ जाति प्रथा को पाल रहे हैं और उसका इस्तेमाल वोट
के ध्रुवीकरण के लिए कर रहे है। यू.पी. में जातियों के संगठनों को प्रश्रय देने और इस तरह जातिवाद को बढ़ावा देने से रोकने के लिए कुछ वर्ष पहले कोर्ट को
हस्तक्षेप करना पड़ा। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और महात्मा ज्योतिबा फुले की विरासत को ढोने का दावा करने वालों ने आज वहाँ जातिगत भेद भाव को बढ़ाया है,
ध्रुवीकरण मजबूत किया है, उनके बीच असहिष्णुता बढ़ी है। उक्त अनुभवों से सबक न लेना और बंगाल के समाज से अपने को विरत रखना कहाँ तक समझदारी है? यदि जातिगत
भेद-भाव समाप्त करना दलित आंदोलन का उद्देश्य है तो उसे बंगला नवजागरण से सबक लेना ही पड़ेगा।
बहुचर्चित दलित लेखक धर्मवीर ने लिखा है, 'जिस दिन ब्राह्मण को जाति व्यवस्था में नुकसान दीखने लगेगा उस दिन इस देश से जाति विलुप्त हो जाएगी।' धर्मवीर की उक्त
अवधारणा सही नहीं है। सच यह है कि जाति के आधार पर लाभ लेने का कानून जब तक बना रहेगा तब तक जातियाँ भी बनी रहेंगी। एक अन्य लेखक कैलाश दहिया की टिप्पणी है, 'तो
अभी जो दूबे, चौबे, वाजपेयी, शर्मा, कौशिक आदि नाम से दुमछल्ले लगे हैं, देखना यह है ये कब विलुप्त होते हैं...? इसके बाद ही खंडित समाज अखंड हो पाएगा।' दहिया
जी, सिंह, चौहान जैसे ये दुमछल्ले तो दलित समाज के लोग भी बढ़-चढ़ कर लगा रहे हैं, उनके बारे में आप का क्या ख्याल है? अगर अखंड समाज बनाना है तो बंगाल के
नवजागरण से सबक लेना ही होगा।
मार्क्सवादियों के यहाँ एक शब्द प्रचलित है डिक्लास होना। दलित लेखकों को डिक्लास होने का अनुभव नहीं होता। प्रायः सभी दलित लेखक अभावों से समृद्धि की ओर बढ़े
हैं। उनके सुख में इजाफा हुआ है। मैं डिक्लास होने की एक छोटी सी घटना का जिक्र करना चाहूँगा जो मुझसे संबंधित है। यह 1982-83 की घटना है जब मैं गोरखपुर के एक
कालेज में प्राध्यापक हुआ करता था और प्रगतिशील विचारों की एक संस्था 'चेतना सांस्कृतिक मंच' का सचिव था। मार्क्सवाद से हमारा परिचय हो चुका था और संस्था से
जुड़े हमारे साथियों के भीतर और बाहर तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। हमने आपस में महीनों विचार विमर्श के बाद तय किया कि यदि हम जाति व्यवस्था के खिलाफ हैं और उस
बंधन से मुक्त होना चाहते हैं तो हमे सबसे पहले खुद को बदलना पड़ेगा और हमने तय किया कि हम अपने नाम के साथ जुड़े जातिसूचक सरनेम हटा लें साथ ही अपने अपने जनेऊ
तोड़ दें क्योंकि यदि जनेऊ पहनने से फायदे हैं तो उसका विधान सभी वर्णो के लिए होना चाहिए। इतना ही नहीं, महिलाओं को उक्त लाभ से वंचित क्यों कर दिया गया?
बहरहाल हमने एक साथ मिलकर फैसला लिया और अपने अपने जनेऊ एक साथ तोड़े। जनेऊ तोड़ने वाली उसी बैठक में बी.एच.यू. के प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप भी थे। उक्त घटना का पता
जब हमारे माता-पिता को चला तो उनके तेवर देखने लायक थे। अपने संबंधियों और मित्रों द्वारा भी मैं तरह तरह की टिप्पणियों का शिकार होता रहा। मैंने अपने और अपने
बच्चों के नाम के साथ जुड़ा सरनेम (तथाकथित दुमछल्ला) भी हटा दिया है।
उक्त छोटे से संस्कार से निपटने में मुझे बहुत वक्त लगा और तरह तरह की सामाजिक टिप्पणियों का सामना भी करना पड़ा। आज मेरी दशा यह है कि दलित वर्ग के लोग सवर्ण
समझकर मेरी भावनाओं की उपेक्षा करते हैं और मेरे प्रति हेय भाव रखते हैं जबकि दूसरी ओर समाज का एक बड़ा हिस्सा मुझे दलित वर्ग का समझता है। मेरी अपनी पहचान ही
जैसे खो गई है।
अँग्रेजी का अंध समर्थन दलित चिंतकों की सामान्य प्रवृति है। राजधानी दिल्ली के दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद अंग्रजी के इतने भक्त हैं कि सुना हैं उन्होंने
लखीमपुर खीरी में अँग्रेजी माई का मंदिर बनवाया है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में आयोजित एक सेनिनार में दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय ने वहाँ के छात्रों को अँग्रेजी
में फ्लूएंट होने की बार बार सलाह दी और यूरोप में रहने वाले अपने बेटे की इसलिए प्रशंसा की कि वह बराक ओबामा की तरह अँग्रेजी बोलता है। उन्हें दलितों की मुक्ति
अँग्रेजी सीखने में ही दिखाई देती है। क्या उन्हें नहीं पता कि हमारे देश के सरकारी स्कूलों में औसतन 42 छात्रों पर एक शिक्षक हैं, 80 हजार स्कूलों में ब्लैक
बोर्ड तक नहीं हैं, 10 प्रतिशत के पास पीने का पानी तक नहीं है? इतना ही नहीं, हमारे देश में लगभग एक चौथाई बच्चे स्कूल जाने की उम्र में चाय की दुकानों, ढाबों
और अमीरों के घरों में काम करने को विवश हैं - पेट के लिए। इनके लिए शिक्षा एक सपना है। इनके लिए अँग्रेजी में फ्लूएंट होने की सीख देना किस तरह की सोच का नतीजा
है?
पिछले दिनों दलित लेखकों का जो चिंतन सामने आया है उसमें अपने अधिकारों की माँग की बात कम अपनी अलग परंपराओं, अपने अलग इतिहास को रेखांकित और चिह्नित करने
प्रवृति अधिक दिखाई दे रही है। उनकी मान्यता है कि एक समान भारतीय संस्कृति कभी नहीं रही। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर भी मानते हैं कि हमारे यहाँ तीन भारत रहा
- ब्राह्मण भारत, बौद्ध भारत और हिंदू भारत। मुसलमानों के आगमन के पहले का इतिहास ब्राह्मणों और बौद्धों के संघर्ष का इतिहास रहा है। हम उक्त अवधारणा से सहमत
हैं किंतु क्या हम चाहते हैं कि आगे भी वही तीन भारत बना रहे? क्या हम नहीं चाहते कि हम एक अखंड भारत का निर्माण करें जिसमें सामाजिक असमानता न हो? यदि समानता
पर आधारित समाज हम बनाना चाहते हैं तो हमे अपने अतीत से असमानता के साथ साथ समानता के सूत्र भी ढूँढ़ने चाहिए। असमानता बढ़ाने वाले मूल्यों की जहाँ निंदा करनी
चाहिए वहीं समानता के मूल्यों की प्रशंसा भी करनी चाहिए और इसमे हम तभी सफल हो सकेंगे जब सहानुभूति के साहित्य को भी पर्याप्त महत्व देंगे। हमारी परंपरा में संत
रविदास को अपना गुरु मानने वाली राज परिवार की मीरा भी हैं। 'जाति पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई' का गीत गाने वाले जुलाहा कबीर भी हैं। संत
रज्जब, धन्ना और पीपा भी है, बंगाल का नवजागरण भी है और प्रेमचंद का प्रचुर साहित्य भी। हमारी परंपरा में ही 'सरस्वती' के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हैं
जिन्होंने एक ओर सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की मशहूर कविता 'जूही की कली' को छापने से मना करते हुए वापस कर दिया था तो दूसरी ओर हीरा डोम की मशहूर कविता 'अछूत
की शिकायत' को प्रमुखता से छापा था, जिसे दलित चिंतक हिंदी की पहली दलित कविता के रूप में बार बार रेखांकित करते हैं।
दलित आंदोलन भटकाव का शिकार तो है ही, वह अमीरी-गरीबी की खाई को और अधिक बढ़ाने में अनजाने ही मदद पहुँचा रहा है। समाज के चिंतकों का ध्यान वर्ग-संघर्ष की हकीकत
से हटकर दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की भूलभुलैया में भटक गया है जबकि जाति पाँति और छुआ छूत एक मरणासन्न सामंती मूल्य है और वर्ग-संघर्ष एक जिंदा हकीकत।