'सलाम अम्मीजान।' घर में कदम रखते ही अकरम जोर से चहका। वह सफेद कुर्ता, पाजामा और टोपी पहने हुए था और उसके चेहरे पर खुशी फूली न समा रही थी। लेकिन जब उसको
सलाम का जवाब नहीं मिला, तो उसके चेहरे की चमक फीकी पड़ गई। वह भागता हुआ सीधे आँगन में पहुँचा। उसने देखा कि अम्मी चारपाई पर लेटी हुई कराह रही हैं।
'क्या हुआ अम्मी? आप...' कहते हुए अकरम चारपाई के पास पहुँच गया।
अम्मी ने सिर घुमाकर अकरम की ओर देखा और फिर धीरे से बोलीं, 'नमाज पढ़ आए बेटा?'
'हाँ, पर आप...?'
'कुछ नहीं बेटा, अचानक पैरों में दर्द होने लगा। तुम फिक्र न करो, जाओ सिवइंया खा लो, प्याले में निकाली रखी हैं। ये दर्द थोडी देर में अपने आप ठीक हो जाएगा।'
'मैंने आपसे कितनी बार कहा कि ज्यादा चला-फिरा मत करें, लेकिन आप मानती ही नहीं। बिलावजह...' कहते हुए वह अम्मी के पैर दबाने लगा।
'रहने दे बेटा, अभी ठीक हो जाएगा। जा, अपने दोस्तों के साथ घूम-फिर आ। आज मेला भी तो लगा होगा? लो, एक रुपया रख लो, कुछ लेकर खा लेना।' तकिए के नीचे से एक रुपए
का नोट निकाल कर देते हुए अम्मी ने कहा, '...और हाँ, आज के दिन तो तुझे पुरस्कार भी मिलने वाला है, सरकार की तरफ से। दौड़ में अव्वल आया था तू।'
'नहीं, मैं आपको छोड़कर नहीं जा सकता।' अकरम ने प्रतिरोध किया।
'अरे, क्यों नहीं जाएगा?' अम्मी ने प्यार से डाँटा, 'वहाँ सब लोग तेरा इंतजार कर रहे होंगे, तू नहीं जाएगा तो...'
अकरम ने अम्मी की बात बीच में ही काट दी, '...मैंने कह दिया न, मुझे नहीं जाना पुरस्कार-वुरस्कार लेने। आप कभी अपनी भी फिक्र कर लिया करो।'
अकरम पुनः अम्मी के पैर दबाने लगा। एक रुपए का नोट उसके हाथ में ज्यों का त्यों फँसा रहा। अम्मी ने इस बार कुछ नहीं कहा। उन्हें मालूम था कि जब इसने जिद कर ली,
तो फिर कहने से कोई फायदा नहीं।
'क्या कर रहे हो अकरम? जल्दी करो, प्रधान जी तुमको बुला रहे हैं।' यह आवाज अकरम के दोस्त शफीक की थी, जो दालान के पास से अकरम को आवाज दे रहा था।
अकरम की ओर से कोई जवाब न मिलने पर शफीक उसके पास आ गया। वह उसकी अम्मी को सलाम करने के बाद बोला, 'जल्दी चलो, वहाँ पर सब लोग आ गए हैं। बस थोडी देर में
कार्यक्रम शुरू होने वाला है।'
'नहीं, मुझे नहीं जाना पुरस्कार-वुरस्कार लेने।' अकरम ने शफीक से अपना कंधा छुड़ाते हुए कहा, 'तुम्हें मालूम है, मेरी अम्मी की तबियत खराब है और तुम्हें पुरस्कार
की पड़ी है।'
यह देखकर अम्मी से रहा न गया। वे बिस्तर से उठते हुए बोलीं, 'नहीं बेटे, तू मेरी फिक्र न कर। मैं बिलकुल ठीक हूँ।' कहते हुए उन्होंने शफीक की ओर देखा, 'शफीक
बेटा, तू इसे अपने साथ ले जा।'
'चलो यार।' शफीक ने अकरम का हाथ पकड़कर उसे उठाने की कोशिश की।
अकरम का मन मेला जाने के लिए स्वयं ही कितने दिनों से उतावला था। आखिर ईद का मेला साल में एक बार ही तो आता है। कितनी सारी दुकानें लगती हैं वहाँ। आसपास के दस
गाँवों से लोग आते हैं। और फिर इतने सारे लोगों के बीच नेताजी के हाथों पुरस्कार मिलना कितने गर्व की बात है। पिछले एक महीने से वह इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहा
था। कितनी योजनाएँ बनाई थीं उसने। लेकिन आज अम्मी की तबियत अचानक खराब हो जाने से उसका मूड उखड़ गया था। भला वह ऐसी हालत में उन्हें अकेला छोड़कर कैसे चला जाए?
शफीक ने दुबारा अकरम का हाथ पकड़ कर घसीटा। इस बार वह बेमन से उठ गया। उसने एक बार अम्मी की ओर देखा। जैसे जाने से पहले आखिरी इजाजात माँग रहा हो।
'मैं बिलकुल ठीक हूँ बेटा, तू आराम से जा।' अम्मी ने उसे आश्वासन दिया।
अकरम ने पुनः एक बार अम्मी की ओर देखा और फिर शरीफ के साथ बाहर निकल गया। अकरम के जाते ही उसकी अम्मी अपने पति के बारे में सोचने लगीं। वे किराने की एक दुकान
चलाते थे। उनकी इच्छा थी कि अकरम खूब पढ़े और बड़ा होकर कोई बड़ा अफसर बने। लेकिन दुकान से जितनी आमदनी होती थी, उससे तो घर का खर्च भी मुश्किल से चल पाता था।
इसलिए वे अकरम को किसी अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा पा रहे थे। अकरम के अब्बू का एक दोस्त विदेश में नौकरी लगवाने का काम करता था। अपने दोस्त से कहकर उन्होंने दुबई
में एक नौकरी का जुगाड़ किया और फिर इधर-उधर से पैसे उधार लेकर विदेश चले गए।
अभी कुछ दिनों पहले ही अकरम के अब्बू ने खर्चे के लिए कुछ रुपए भेजे थे। हालाँकि घर में पैसों की सख्त कमी थी, लेकिन फिर भी अम्मी ने वे सारे रुपए उन लोगों को
दे दिए, जिनके वे कर्जदार थे। आज जो एक रुपया उन्होंने अकरम को दिया था, उसे उन्होंने कई दिनों से सँभाल कर रखा था। ईद के अवसर पर बच्चों में 'ईदी' के रूप में
पैसे देने की परंपरा है। अगर आज अकरम को ईदी न मिलती, तो उसके कोमल मन को ठेस लगती और वह अन्य बच्चों के सामने स्वयं को हीन महसूस करता।
अचानक उनके पैरों का दर्द बढ़ गया। वे पुनः चारपाई पर लेट गईं। धीरे-धीरे दर्द बढ़ता ही गया। और जब उनसे रहा न गया, तो उनके मुँह से चीख निकल ही गई, 'अकरम
बेटे।'
और तभी जैसे चमत्कार हो गया। अकरम बाहर से 'जी अम्मी' कहता हुआ आया और उनसे लिपट गया।
मेले जाते समय अकरम को बराबर ऐसा लग रहा था कि कहीं अम्मी की तबियत बिगड़ न जाए। ऐसे में उन्हें उसकी सख्त जरूरत पड़ेगी। बस यही सोचकर वह रास्ते से ही घर लौट
आया। ईदी के रुपए से उसने अम्मी के लिए दवा खरीदी और उसे लेकर वापस घर आ गया।
एक गिलास में पानी लेकर अकरम ने अम्मी की तरफ दवा बढ़ाई, 'लीजिए अम्मी, दवा खा लीजिए। अभी आराम मिल जाएगा।' कहते हुए उसने सहारा देकर अम्मी को उठाया।
अकरम की बातें सुनकर अम्मी स्नेह से नहा उठीं। लेकिन तभी उनकी नजर अकरम के हाथ में थमी दवा की गोली पर चली गई। भला ये दवा इसे कहाँ से मिली? और जब उनसे रहा न
गया, तो उन्होंने पूछ ही लिया, 'लेकिन बेटे, तू ये दवा कहाँ से लाया?'
'आप ही ने तो पैसे दिए थे।' कहते हुए अकरम ने अम्मी को दवा खिलाई और फिर उन्हें लिटा दिया।
अपने प्रति बेटे का यह प्रेम देखकर वे गदगद हो गईं। उनका मन चाहा कि वे अकरम को सीने से लगा लें और उसे जी भर कर प्यार करें। लेकिन तभी उनके मन में पुरस्कार
वाली बात कौंध गई। वे बोलीं, 'लेकिन बेटे, तुम तो पुरस्कार लेने...?'
'मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार तो आपकी सेवा है। आपने मुझे पाल-पोसकर इस काबिल बनाया है। आपकी दुआ से मैं ऐसे कई पुरस्कार जीतूँगा। ...आज आपकी तबियत ठीक नहीं है, आपको
मेरी जरूरत है, तो क्या ऐसे में मैं आपको छोड़कर पुरस्कार लेने चला जाता? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। आप यहाँ दर्द से तड़पती रहें और मैं वहाँ अपना सम्मान
करवाऊँ, यह मुझसे नहीं हो सकता। कभी नहीं हो सकता।' कहते हुए अकरम की आँखें भर आईं।
हृदय में उठते स्नेह के ज्वार को अम्मी ज्यादा देर तक थाम न सकीं और उन्होंने अपने बेटे को सीने से लगा लिया। आँसू रूपी मोती उनकी आँखों से झर-झर झर रहे थे।