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निबंध

कन्या है सुहागिन है जगत माता है

बुद्धिनाथ मिश्र


मिथिला के लोगों के लिए राजा जनक की दुलारी सीता रूप-शील-गुण की अप्रतिम आदर्श हैं। मिथिलावासी सीता को कन्या, सुहागिन और जगन्माता के रूप में देखते हैं। मेरा जन्म मिथिला में जरूर हुआ, मगर मिथिलावासी होने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला। तथापि, मैं स्वीकार करता हूँ कि आदरणीया सरला जी को जब मैने पहली बार बालीगंज स्थित बिरला पार्क में देखा था, तो मुझे सहसा लगा कि मैं साक्षात सीता को देख रहा हूँ। लव-कुश की माँ सीता, जिन्हें लोकगीतों में राम से भी अधिक पूज्य माना गया है। वही अप्रतिम रूप, वही शील-गुण, वही मर्यादा, जो सीता के चरित्र में हम कल्पना करते रहे हैं।

सीताजी का प्रादुर्भाव सीतामढ़ी (भारत) के पास पुनौरा गाँव में हुआ था और पालन-पोषण जनकपुर नगर (नेपाल) में। सन 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल नरेश के बीच हुई सुगौली संधि के बाद मिथिला का आधा भारतीय हिस्सा नेपाल में चला गया। राष्ट्र पृथक हुआ, पर दोनों ओर के मिथिलावासी सांस्कृतिक दृष्टि से एक रहे। दोनों ओर के लोग इस आसानी से सीमा पार आते-जाते हैं, जैसे खेतों की मेड़ लाँघ रहे हों। उन्हें भगवान राम के रूप में प्रतापी दामाद पाने का बहुत गौरव है। यहाँ तक कि आज भी लोकगीतों में हर दूल्हे में राम की ही छबि देखी जाती है। लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है कि अवध-नरेश राम जो कुछ हैं, वह मिथिला की बेटी जनक-दुलारी के प्रताप से। जनकपुर के लोग सीता को जगज्जननी मानते हैं और जनकपुर को सभी जाति-वर्ग के लोगों की ननिहाल। इसलिए उनका मानना है कि जो यहाँ नहीं आता, वह अगले जन्म में कौआ होता है! यहाँ तक कि जो जगन्नाथपुरी जाते हैं, उन्हें जनकपुर जाना ही पड़ता है, क्योंकि वहाँ अँटका (जूठन प्रसाद) खाने से जो दोष लगता है, उसका निवारण वहीं होता है। मिथिलावासियों की मान्यता है कि श्रीराम की जननी कौसल्या तो इस लोक को छोड़कर पतिलोक में चली गयीं, मगर श्रीकिशोरी जी की माता पृथ्वी जन कल्याण के लिए कल्पांत तक यहीं रहेगी; यह पत्थर की लकीर है।

रघुनाथस्य या माता पतिलोके गता तु सा।

जानक्यास्तु धरा माता निश्चला ब्रह्मवाक्यतः॥

मिथिला में परमेश्वर की तुलना में पराशक्ति की विशेष मान्यता है। प्रत्येक व्यक्ति की कुलदेवता दशमहाविद्या में से कोई विद्या होती है। ये दशमहाविद्याएँ हैं : काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भैरवी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, धूमावती, मातंगी और कमला। इन दस सिद्धविद्याओं का तादात्म्य विष्णु के दस महाविद्याओं से है। वहाँ पराशक्ति के रूप में ईश्वर माता-पिता के रूप में, पति-पत्नी के रूप में, भाई-बहन के रूप में, पुत्र और मित्र के रूप में यहाँ तक कि अनुचर के रूप में (विद्यापति के उगना को स्मरण करें) रहकर भी पूज्य और उपास्य हैं। यहाँ कुमारी और सुहागिन की पूजा जगदंबा के रूप में की जाती है। प्रत्येक गृहस्थ के रसोईघर या पश्चिमी ओर के घर के दक्षिण-पूर्व कोण में, कुलदेवता के रूप में गोसाउनि (भगवती) यानी मिट्टी की पिंडी पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थापित रहती है। वह मिट्टी हथिसार, घोड़सार, राजद्वार, नदी-संगम, समुद्र, गौशाला, चौराहा और दीमक के घर से एकत्र की जाती है। पिंडी के ऊपर दीवाल पर चावल के घोल और सिंदूर से अष्टदल कमल, नवग्रह आदि मांगलिक चिह्न अंकित होते हैं। जगदंबा की पूजा परिवार की सबसे ज्येष्ठ महिला करती हैं। विशेष अवसरों पर खीर आदि की 'पातरि' गोसाउनि को दी जाती है। घर की बेटी ससुराल जाते समय गोसाउनि के आशीष के रूप में अपने आँचल में दूब-धान-हल्दी और सिक्का बाँधकर विदा होती है, जिसे वह वहाँ की भगवती के समक्ष प्रणाम कर अर्पित करती है। यही कृत्य वह ससुराल से नैहर लौटते समय करती है। पुरुष भी गोसाउनि और तुलसी चौरा के महावीर को प्रणाम करके ही यात्रा करते हैं। नववधू जब द्विरागमन के बाद ससुराल आती है,तो उसे चार दिनों तक गोसाउनि के घर में ही वर के साथ भूमि-शयन करना होता है। हर रोज साँझ में वर-वधू का चुमाओन होता है, जिसमें माँ, चाची, भाभी आदि ज्येष्ठ सुहागिनें अक्षय सौभाग्य और वंशवृद्धि का आशीर्वाद देती हैं। मांगलिक अवसरों पर आभ्युदयिक श्राद्ध से पूर्व गणेश और दुर्गा की पूजा के बाद सोलह मातृकाओं का पूजन पिंडी के ऊपर दीवार पर गोबर-दूब से कौड़ी के आकार की मातृकाएँ बनाकर किया जाता है। ये सोलह मातृकाएँ हैं : गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, माता, लोकमाता, हृष्टि, पुष्टि, तुष्टि और आत्मकुलदेवता। इनके बाद मिट्टी की बनी श्री को परिछा और पूजा जाता है।

पर्व-त्योहारों में भी विभिन्न देवियों की ही पूजा-आराधना होती है। सावन की मौनापंचमी (नागपंचमी) के दिन दूध, धान की खील आदि से विषहरा भगवती (मनसा देवी) की मौन रहकर पूजा की जाती है। मधुश्रावणी में नवविवाहिताएँ अखंड सौभाग्य की कामना से गौरी और नाग की पूजा तेरह दिनों तक करती हैं और कथा सुनती हैं,जो घर-परिवार की श्रेष्ठ महिलाएँ सुनाती हैं। भाद्रकृष्ण चतुर्थी को स्त्रियाँ संतति के कल्याण के लिए बहुला (धेनु) की पूजा करती हैं और गोग्रास अर्पित करती हैं। भाद्र्शुक्ल तृतीया को स्त्रियाँ हरितालिका पूजन करती हैं, जिसमें गौरी-शंकर की पूजा और पार्वती द्वारा की गई तपस्या की कथा कही जाती है। आश्विन के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन सभी माताएँ जितिया पाबनि (व्रत) अपनी संतानों के दीर्घायुष्य के लिए करती हैं, जिसमें वे एक दिन पहले मरुवे की रोटी और मछली खाती हैं और भोर में सूर्योदय से पूर्व चूड़ा-दही का ओठगन करती हैं। नवमी मातृनवमी कहलाती है, जिस दिन परिवार की दिवंगत महिलाओं के निमित्त ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। अमावस्या की महालया के बाद शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवरात्र आरंभ होता है, जिसमें भगवती दुर्गा की सविधि पूजा धूमधाम से होती है। आश्विन की पूर्णिमा की रात 'कोजागरा' पर्व में लक्ष्मी की पूजा और सुखरात्रि (दीपावली) की रात कालीपूजा होती है। कार्तिक शुक्ल नवमी यानी अक्षयनवमी की रात जगद्धात्री की पूजा होती है। चूँकि आँवले को मिथिला में 'धात्री' कहते हैं, इसलिए इस रात आँवले के वृक्ष के नीचे सामूहिक भोजन का विशेष महत्व है। कुमारियों का सामा-चकेबा पर्व भ्रातृद्वितीया से कार्तिकी पूर्णिमा तक चलता है, जिसमें वे सामा (जांबवती और कृष्ण की पुत्री) की पूजा सूर्यास्त के बाद गलियों में समूहगान करते हुए संपादित करती हैं। अच्छे घर-वर की कामना करनेवाली कुमारियाँ कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अगहन शुक्ल प्रतिपदा गौरी की उपासना (हरिसौं पूजा) करती हैं। इतना ही नहीं, कुमारियाँ श्रेष्ठ पति और संतान के लिए तुषारि पूजा भी करती हैं, जिसमें माघ भर कौआ के बोलने से पहले स्नान कर गौरी-पूजन करती हैं। माघ शुक्ल पंचमी को (श्रीपंचमी) विद्या की देवी सरस्वती की आराधना सोल्लास की जाती है। होली के अगले दिन भोर में नववर्षारंभ के अवसर पर स्त्रियाँ सूर्यपूजा कर अपनी बाँहों में सपता-बिपता का डोरा (लाल-पीले रंग का धागा) बाँधती हैं जो बैसाख शुक्ल पक्ष के रवि को खोलती हैं। इसकी एक कथा भी कही जाती है, जिसमें इस डोरे के बाँधने का माहात्म्य है। ज्येष्ठ कृष्ण अमावास्या को बड़िसाति के दिन सुहागिनेण वट की पूजा करती हैं और सती सावित्री की कथा सुनती हैं। सामान्यतः विवाहिताएँ प्रतिदिन स्नान के बाद जिस 'गौरी' की पूजा सिंदूर से करती हैं, वह समूची सुपारी (पूगीफल) होती है। इस प्रकार मिथिला में स्त्री-पुरुष साल भर कुलदेवता की नित्यपूजा के अतिरिक्त विभिन्न देवियों की नैमित्तिक पूजा करते हैं। इन सभी अवसरों पर स्त्रियाँ जिन लोकगीतों को गाती हैं, वे साहित्य की दृष्टि से तो समृद्ध हैं ही, संगीत की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनका गायन उन ग्रामीण राग-रागिनियों में होता है, जिन्हें शास्त्रीय संगीत ने भी अपना लिया है। साँझ में विलंबित गाए जानेवाले गीत शास्त्रीय आलापों से भरे होते हैं।

पौराणिक और तांत्रिक देवताओं के अलावा समय-समय पर लोक देवताओं की पारंपरिक पूजा भी होती है। ये लोकदेवता विभिन्न जातियों के अलग-अलग होते हैं, मगर उनकी पूजा में सभी शामिल होते हैं और सभी मिलकर निर्धारित लोकगीत गाते हैं। मल्लाहों की देवी कमला (नदी) हैं, मालियों की शीतलामाता, जबकि दुसाधों के देवता सलहेस हैं, जिनकी ख्याति वीर के रूप में है। इनके गीत भी आराधना के सतरंगी स्वर देते हैं। मिथिला में स्त्री-शक्ति की प्रधानता के कारण ब्राह्मण भोजन से अधिक कुमारियों और सुहागिनों को भोजन कराने की परंपरा है। सुहागिनों (सधवा) का शृंगार नए रंगीन वस्त्र, नई लहठी या चूड़ी पहनाकर और आँखों में काजल, माँग में सिंदूर तथा पाँवों में आलता (महावर) लगाकर किया जाता है। मिथिला का लोकजीवन तपोमय जीवन है, जिसमें जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत विभिन्न व्रत, उत्सव, अनुष्ठान और उपनयन-विवाह आदि संस्कार के अवसरों पर स्त्रियों द्वारा लोकगीत गाए जाते हैं। उनमें अधिकांश गीत महाकवि विद्यापति के होते हैं, जिन्हें तिरहुता, बिदापत आदि के नाम से मिथिला, बंगाल, नेपाल ही नहीं, असम से मणिपुर तक गाया जाता है।

मैथिली लोकगीतों में आराध्य दंपति के रूप में शिव-पार्वती और राम-सीता के जीवन के मनोरम चित्र आँके गए हैं। ये चित्र शास्त्रीय वृत्तान्तों से बिलकुल भिन्न हैं। अधिकतर पार्वती और सीता की व्यथा और सामर्थ्य पर ही ध्यान दिया गया है। एक गीत में गौरी को उस पर्वतीय माँ के रूप में चित्रित किया गया है, जो घर का सारा काम करती है, दोनो बेटों का झगड़ा छुड़ाती है और इस क्रम में समय पर भाँग न पीसे जाने से नाराज होकर घर से भाग गए बौराहे पति को दौड़-दौड़ कर ढूँढ़ती भी है :

कातिक गनपति झगड़ा कैअलनि

आपस मे दुनू भाइ।

भाँग छोड़ि हम झगड़ा छोड़ैलहुँ

ततबहि गेला पड़ाय।

हे बौरहवा रूसल जाय।

विवाह के बाद गौरी की गृहस्थी कैसे चलती है? महादेव माँग-चाँगकर दो तम्मा धान लाते हैं और उसे बाघछला पर पसार देते हैं; बसहा (नंदी) आकर उसे खा जाता है। गौरी अदहन चढ़ाकर नगर में चावल उधार माँगने जाती हैं, मगर भिखारी की पत्नी को कोई उधार नहीं देता है। गौरी को दिन भर यही चिंता सालती है कि शाम को जब महादेव आएँगे, तो उन्हें क्या खाने को देगी!

माँगि-चाँगि अयलन्हि महादेव तुम्मा दुइ धान।

बाघ छाल देलनि पसारि, बसहा फुजि खायल।

अधन जे देलनि चढ़ाय कि पैंचि जोहे गेलन्हि

केहन नगर केर लोक, पैंचि नहि देलन्हि।

अदहन जे देलनि उतारि, बैसल मन मारि

आहे साँझ खने अओता महादेव, की लए बोधव हे।

पति या पुत्र चाहे कितना निकम्मा हो, उसके भरण-पोषण की चिंता भारतीय स्त्रियाँ अगर आज भी करती हैं, तो इसका कारण उनका गौरी को अपनी आराध्य आदर्श मानना भी है।

पार्वती की माँ मैना नारद को कोसती हुई कहती हैं कि गौरी मात्र आठ बरस की है, जबकि शिव अस्सी बरस के बूढ़े हैं। दोनों का विवाह कैसे हो? केवल उम्र ही नहीं, पहनावा और खानपान भी भिन्न है :

हमरो गौरी छथि आठे बरस के

बुड़हा के असी उमेरिया हो।

हमरो गौरी पहिरथि पीयर पितांबर

बूढ़ के सोभै बघंबर हे।

हमरो गौरी खाथि पूरी जिलेबी

बूढ़ के आक धथूर हे।

माँ पार्वती शिशु कार्तिकेय और गणपति को छाती से चिपकाकर लेटी हैं कि शिव उन्हें उठकर भाँग पीसने का आग्रह करते हैं। पार्वती दोनो शिशुओं को छोड़कर भाँग पीसने से मना कर देती हैं :

भै गेल भाँग क बेरा, उठू हे गौरा।

हम कोना उठब ईसर महादेव

कार्तिक गनपति मोरा कोरा।

आसन खसाय दिय' कार्तिक सुताय दिय'

पीसि दिय' भाँग क गोला।

ने घर सासु, ननदियो नहि छथि

के राखत कार्तिक कोरा?

एक लोकगीत में सीता को काली के रूप में दर्शाया गया है :

बाम लेलनि बल्लम बरछी

दहिन लेलनि खड्‌ग

राम लछमन संग लेलनि

चलली बन के सिधारि हे।

वन में सीता जब पुत्र को जन्म देती है, तो सर्वत्र हरियाली छा जाती है, क्योंकि वह धरती की बेटी है। लेकिन सीता की चिंता है कि इस तपोवन में शिशु का गर्भनाल कौन काटेगा और कौन अयोध्या जाकर राम को सूचना देगा? उसकी यह भी इच्छा है कि वह माँ बनने के बाद पियरी पहनकर, शिशु को गोद में लेकर अपने पति राम के बगल में बैठती और सास कौसल्या उसका चुमान करती, जो चक्रवर्ती सम्राट राम की पत्नी होते हुए भी पूरी नहीं हो पाती :

एते दिन छल बन झाँझर आब बन हरियर रे

ललना सीता दाइ रहलि गरभ से सब मन हरषित रे

के मोरा मरुअन काटत, के खिरहर बुनत रे

ललना के मोरा जायत अजोध्या कि राम जनायत रे

रिसि लोग मरुअन काटत खिरहर बुनत रे

हनुमंत जायत अजोध्या कि राम जनायत रे

मन छल पीयर पहिरतहुँ होरिला के गोदी लेतौं रे

ललना राम दहिन भए बैसितहुँ कौसल्या रानी चुमबितथि रे

रामायण में लक्ष्मण सीता को रथ पर चढ़ाकर वाल्मीकि आश्रम पहुँचाते हैं, मगर लोकगीत की सीता वन में पैदल जाती है। रास्ते में उन्हें प्राणांतक प्रसव-पीड़ा शुरू हो जाती है, वनवासी स्त्रियाँ उन्हें सहारा देती हैं। शिशु का जन्म होता है। सीता का पत्र लेकर, वन का हजाम अयोध्या जाता है और राजा दशरथ, रानी कौसल्या, भाई लक्ष्मण को दिखाता है, मगर राम को नहीं दिखाता। निछावर में दशरथ धोती का जोड़ा, कौसल्या आभरण और लक्ष्मण सिर से पाग उतारकर उसे देते हैं। दतुवन करते हुए राम की नजर हजाम पर पड़ती है। वह बताता है कि वह सीता का पत्र लेकर आया है, जिसमें पुत्र होने की सूचना है। इसके बाद का चित्रण बहुत मार्मिक है। अत्यंत दुखी होकर राम अपने हाथ की उस मुद्रिका को देखते हैं, जिसे उन्होने कभी सीता का पता लगाने के लिए हनुमान को दिया था और युद्ध समाप्त होने के बाद सीता ने पुनः उनकी उँगली में पहनाया था। वे राम के दोषों को भूलकर सीता से अयोध्या लौट जाने का संदेश भेजते हैं, मगर अपमानित सीता अपने पत्र लिखने पर ही पछताने लगती है :

हँसि कए देखलनि लोचन हाथ क मुद्रिका रे

ललना रे गुन अवगुन सीता बिसरथु आबथु अवधपुर रे

कौने पाप लागल, इहो पत्र लिखल, लिखि पठाओल रे

ललना रे गुन अवगुन कोना बिसरब, जायब अवधपुर रे

रुक्मिणी को सामान्यतः द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की पटरानी के रूप में जाना जाता है। उसकी मानवीय संवेदना को महर्षि व्यास कहीं चित्रित नहीं कर पाए, मगर लोकगीतकार की दृष्टि वहाँ तक गई है। एक गीत में विवाह के बाद रुक्मिणी अपनी माँ से यह कहकर विदा होती है कि माँ, मेरा कहा - सुना भूल जाइएगा, क्योंकि अब आपकी बेटी पराई हो गई है (कहल सुनल अमा मन जनु राखब, आब बेटी पाहुन तोहार)। बिदाई के समय माँ के रोने से गंगा की धार बहने लगी, पिता के आँसू से हिलोरें उठने लगी, भैया के रोने से धोती भींग गई, मगर कठोर भौजी नहीं रोई। इसी प्रकार माँ रोज आ जाने के लिए कहती है, पिता छह मास पर, भैया विशेष अवसरों पर, मगर भौजी कुछ नहीं बोलती है :

अम्मा के कानबै गंगाधार बहि गेल, बाबा के कानबै हिलोर

भैया के कानबै जोड़ धोती भीजि गेल, भौजी के हृदय कठोर।

अमा कहथि रे बेटी नित रे आबथु, बाबा कहथि छबे मास

भैया जे कहथि काज-परोजन, भौजी मुखहु ने बोल।

चूँकि अधिकतर लोकगीत स्त्रियों द्वारा ही सामूहिक रूप से रचे और गाए जाते हैं, इसलिए उनमें स्त्री-जीवन का विस्तार बहुत है। एक गीत में प्रसव-पीड़ा का जैसा सांगोपांग वर्णन मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। पति के पूछने पर कि दर्द कैसा हो रहा है, स्त्री कहती है :

देह मोरा काँपै गहन जकाँ, केस मोरा भुइयें लोटु रे

आठो अंग चहकि उठु डाँड़ सँ लहरि छूटू रे

भारतीय परिवारों की परंपरा है कि बेटी का पहला प्रसव मायके में ही हो। एक सोहर में ऐसे ही एक नई-नवेली माँ का वर्णन है,जिसकी पहली संतान नैहर में जनमती है। नवजात शिशु को देखने ससुराल से तमाम लोग आते हैं, पर पति नहीं आता है। वह बारह साल के बाद आता है, तो नायिका मुँह फेर लेती है। पति उसे सोने के गहने देकर फुसलाना चाहता है, मगर वह गर्वीली उसे धिक्कारते हुए कहती है :

कँगना पहिरतौ तोहर माय आओर बहिन लोक रे

हम धनि बचनक भूखल दरसन चाहिय रे

स्त्री जीवन का चरमोत्कर्ष उसका मातृत्व में प्रवेश है। एक दुबली-पतली युवती प्रसव-पीड़ा से आर्त होकर सोचती है कि पिताजी ने मुझे दूसरे घर में क्यों ब्याह दिया? अपने घर रहती तो इस वेदना से मुक्त रहती। लेकिन जब शिशु को देखती है, तब उसका सारा कष्ट दूर हो जाता है और वह पिता को धन्यवाद देती है कि ब्याह कर उन्होंने मेरा बड़ा उपकार किया। कुमारी जो रहती तो अपने शिशु का मुँह कैसे देखती!

पानहि सन धनि पातर फूल सन सुंदर रे

ललना तिल भरि अन्न न खाथि

बेदन कोना सहती रे।

कथी लै बाबा बियाहलन्हि, पर घर देलन्हि रे

ललना रहितहुँ बारि कुमारि, बेदन नहिं जनितहुँ रे

साँझे राति बीतल पहर राति आर भिनसर राति रे

ललना पौ फटैत बाबू जन्म भेल सब मन हरषित रे

भल कैलन्हि बाबा बियाहलन्हि पर घर देलन्हि रे

ललना रहितहुँ बारि कुमारि, होरिल कहाँ पबितहुँ रे।

जिस ग्रामीण स्त्री को रात में प्रसव-पीड़ा उठे और पास में कोई न हो, उसकी मनःस्थिति क्या होगी, इसका बहुत मार्मिक चित्रण इस गीत में है :

सासु जे सुतली मुनहर घर, ननदो कोहबर घर रे

गोतनी जे सुतली अपन घर, कौने जगाएब रे

गाँव-घर की लड़कियाँ आपस में बतियाते हुए माँ के प्रसव की सूचना कैसे देती हैं? एक सखी पूछती है कि किसके बाग में जीरा-आजमाइन उपजा और किसकी कोख से सोने जैसा भाई पैदा हुआ? दूसरी सखी जवाब देती है कि कोइरी के बाग में जीरा-आजमाइन उपजा और माँ की कोख से सोने जैसा भाई पैदा हुआ :

ककरा बाड़ी उपजल जीर जमाइन

ककरा कोखि जन्म लेल सोन सन भाइ

कोइरी बाड़ी उपजल जीर रे जमाइन

अम्मा कोखि जन्म भेल सोन सन भाइ।

मिथिला में पुत्र के विवाह से भी महत्वपूर्ण उपनयन होता है। वैदिक काल में इस संस्कार के बाद बटु विद्याध्ययन करने गुरुकुल जाता था। वैसे, मिथिला स्वयं संस्कृत विद्या का महान केंद्र थी, मगर उपनयन के बाद बरुआ 'काशी जाकर विद्या पढ़ने' के लिए सर्वप्रथम अपनी माँ से भिक्षा माँगता है। किसी भी माँ के लिए वह क्षण बहुत कारुणिक होता है :

आगे माइ भिखियो न लै छै दुलरुआ, मुखहु ने बोल

आगे माइ कानहु के सोना माँगै गला गिरमल हार।

इन गीतों के अलावा विभिन्न उत्सवों और पर्वों पर लोकदेवताओं के निमित्त गीत गाए जाते हैं, जिनमें सबसे उग्र रोग शीतला (चेचक) को 'माता' या शीतला माइ के रूप में पूजा जाता है। कुछ स्थानों पर देवी शीतला की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजा भी जाता है। लोग इस रोग से इतना भयभीत होते हैं कि इसका नाम भी नहीं लेते। बस 'बच्चे को माता हो गई' कहकर काम चला लेते हैं। बच्चे की माँ एक गीत में 'माता' से यों अरदास करती है :

तोहें सीतलि आमुन, तोहें सीतल जामुन

सितला कदम जुड़ि छाहरि हे।

ओहि तर आहे मैया पलँगा ओछाओल

सुति रहलें गाम सँ निचिन्त हे।

विषहरि नागिन पाँच बहनें हैं। सभी बहनें ब्रजनारी को पूजने के लिए माली, पटवा, कुम्हार और गुआर के आँगन में खडी होकर क्रमशः बेली-चमेली फूल, पाट सूत, कलश और गाय का दूध माँगती हैं। नदियों में प्रायः सभी को माँ का दर्जा दिया गया है, मगर माँ भागीरथी का स्थान सर्वोपरि है। एक गीत में गंगा को सिर पर बाँस की छितनी में उठाकर चलते हुए किशोर वय के भगीरथ का मनोरम वर्णन किया गया है :

छोट मोट भगीरथ, छितनी कपार।

सेहो पुनि लओलाह सुरसरि धार।

तिरहुत की नदियों में कमला और बलान की धार कोसी की भाँति ही उग्र है। एक गीत में दोनों को मनाने के लिए तांत्रिक उपाय किए जाते हैं, यानी कमला को खुश करने के लिए छागर और बलान के लिए कबूतर की बलि दी जाती है :

कथी दए बोधबन्हि मैया कमलेश्वरी

कथी दए बोधबन्हि बलान।

पाठी दए बोधबन्हि मैया कमलेश्वरी

परवा दए बोधबन्हि बलान।

अंग्रेजी साहित्यकार रुडयार्ड किप्लिंग ने एक जगह कहा है कि ईश्वर सभी जगह नहीं रह सकता था, इसीलिए उसने माँ को बनाया। उर्दू कविता में माँ का गुणगान तो इधर बहुत हुआ है, मगर समर्पित और निष्ठावान पत्नी का अस्तित्व नहीं है। यह उस सामंतवादी व्यवस्था की देन है, जिसमें पुरुष संतानोत्पति के लिए पत्नी रखता है और प्रेम करने के लिए प्रेमिकाएँ अलग रखता है। भारतीय परिवेश के परिवारों के लिए आदर्श दंपति गौरी-शंकर और सीता-राम हैं। ये दोनो आदर्श पति-पत्नी भी हैं और प्रेमी-प्रेमिका भी। इसलिए इन परिवारों में माँ सभी कार्य-कलापों के केंद्र में होती हैं। वह त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति माँ, जो कभी कुलवधू होकर आई थी, फिर असह पीड़ा सहकर संतानों को जन्म दिया और उसके बाद अभिभावक के रूप में अगली पीढ़ी को स्नेहसिक्त मार्गदर्शन करती है। वह परिवार की मंगलविधायिनी प्रतिमा है, जिसे अमर लोकगाथा 'आल्हा' में सिर्फ एक पंक्ति में यों उकेरा गया है : 'पान पुरान सुहागिन सुंदर गोद खिलावत सुंदर बाला'। नवविवाहिता माँ के इस रूप को भारतीय संस्कारों में रचे-बसे शायर रघुपति सहाय 'फ़िराक' ने जिस खूबसूरती से आँका है, वह सभी उर्दू शायरों की प्रेमिकाओं पर भारी है :

है ब्याहता पर रूप अभी कुँवारा है

माँ है पर जो भी अदा है वो दोशीजा है

वो माँग भरी मोदभरी गोद भरी

कन्या है सुहागिन है जगत माता है।


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