मुर्गे की पहली बाँग के साथ-साथ सुदामी का फेरा शुरू हो जाता था। माथे पर नगर पालिका की ओर से मिला हत्थेदार कनस्तर, दाहिनी बाँह में दबा टोकरा और टोकरे से झूलती हुई सींकों की बनी नोंकदार झाड़ू।
दुआर खोल मलकिनी।
बाहरी फाटक का ताला खोलने का जिम्मा माई का था -
काहे रे सुदमिया, तोहार देहिया पाथर के बनल लिया। एतना भोरे-भोर उठि जालू ...
सुदामी के मिस्सी रंगे दाँत एक बार अपनी भरपुर झलक दिखा कर तुरत छिप जाते ...
एक टोला से दोसरा टोला फेरा लगावत साँझ हो जाला ए मउजी, घरे जाइले त तीनों बचवन बाट जोहत रहेला -
माई आई, चाउर ले आई, भात पकाई।
उन दिनों मेरे पूरे परिवार ने सुबह-सुबह टहलने का अभ्यास प्रारंभ किया था - बाबूजी, छोटा भाई और मैं ...। प्रात:कालीन हवा मिले तो स्वास्थ्य पर कभी कोई आँच नहीं आती।
छिगुनी तिरपाठी ने हमें सुबह-सुबह दौड़ते देखकर अपनी आह्लाद पूर्ण सहमति व्यक्त की थी -
लेकिन बंधुवर। इधर निचली टोली की ओर क्यों?
* * *
शिव, शिव। जाना ही है तो गोपाली चौक की और जाइए। वहाँ से आगे बढ़ने की इच्छा हो तो गांधी नदी का पुल एकदम निकट है।
...सिर पर मैला ढोने वाले इन लोगों की गली के पास कौन-सी इतर-फुलेल की खुशबू लेने आए हैं आप लोग ?
त्रिपाठी जी सुदामी को देखते ही जल भुन जाते थे।
कुछ मनचलों ने वह दृश्य देखा था और कानोंकान पूरे मुहल्ले में यह बात फैल गई थी। हो सकता है कहने वालों ने अपनी ओर से कुछ नमक मिर्च भी मिलाया हो, लेकिन बात सच थी।
सुदामी के सिर पर भरे हुए कनस्तर का बोझ था और त्रिपाठी जी शिवाले में शिमहिमन्स्तोत्र का जप पूर कर तेजी से लौट रह थे। गली के दो मुहाने पर दोनों की जोरदार टक्कर हो गई थी।
सुदामी डर के मारे पीपल के पत्ते की तरह काँप उठी थी।
विचित्र आलम था।
त्रिपाठी जी ललाट का चौड़ा लाल त्रिपुंड, गले की दोहरी रूद्राक्ष माला, पैरों की चंदनी खड़ाऊँ, उनका सर्वांग मानव मल से सराबोर था। अपने जबड़ों को मजबूती से भींच कर वे काठ हो गए थे। उनका सुलगता हुआ ब्राह्मणत्व ऐसे अप्रत्याशित प्रहार के लिए कतई तैयार नहीं था। अपने क्रोद्यानल को भीतर ही भीतर जब्त करते हुए उन्होंने वामनी मुद्रा में झपट कर गली के मोड़ से अपने घर तक का बाकी रास्ता तय किया था। उसके बाद उन्होंने प्रायश्चित के कौन-कौन प्रयोग पूरे किए, यह तो किसी को भी ठीक-ठीक पता नहीं लेकिन सुदामी को सशरीर भस्मीभूत कर देने की भंगिमा से अपनी छिगुनी उँगली उठा कर जो कुपित दृष्टिपात उन्होंने किया था उसके साक्षी अपनी मुँडेर से औचक झाँकते रामधनी मिस्त्री के दोनों ऊधमी बेटे सुरेश और रमेश थे। उनकी पोर-पोर में बेपनाह उत्कंठा उग आई थी। उन दोनों ने बेतार के तार का काम किया था।
सुदामी हफ्ता भर काम पर नहीं आई थी और त्रिपाठी जी महिने भर के काशी वास के बाद वापस लौटे थे, तब मुहल्ले भर के बच्चों ने उनके नए नाम का एलान कर डाला था - छोटे लाल त्रिपाठी नहीं, छिगुणी तिरपाठी।
अस्सी घाट पर एक हजार एक डुबकियाँ लगाकर अपनी देह से भभकती दुर्गंध से भले ही त्रिपाठी ने मुक्ति पा ली हो लेकिन अपने मन की सात परतों में छिपी हुई उस अघोर स्मृति को वे एक क्षण के लिए भी नहीं मिटा पाए थे। लाल कपड़े को देखते ही खूँटा तुड़ा कर भागने वाली मरखंडी बछिया की तरह निचले टोले का नाम सुनते ही छिगुनी तिरपाठी का एक ब एक भड़क उठना टोले भर के बाल गोपालों के लिए मनोविनोद का सर्वोच्च साधन था।
तिरपाठी काका, आपको पता है, हम निचले टोले की ओर क्यों घूमने जाते हैं?
* * *
वहाँ सुदामी फुआ है। उसने आपके बारे में क्या बताया है, सुनाएँ ?
मेरे छोटे भाई की चुहल सुनते ही त्रिपाठी जी का मिजाज उखड़ गया था। वे धीरे से कन्नी काटते हुए अपनी गली की ओर मुड़ गए थे।
सुदामी की झोपड़ी नहर के उस पार निचली टोली के सबसे आखिरी छोर पर थी। मिट्टी के गिलावे से उठाई गई नन्हीं-नन्हीं तीन तरफा दीवारों के ऊपर ताड़ के चौड़े चकले पत्रों का दो-चार बर्तन, थोड़ी-सी पुआल और मूँज की गाँठदार पुरानी रस्सी पर झूलते कुछ चिथड़ानुमा कपड़े।
पहली बार अपनी झोपड़ी के सामने सुदामी को गुमसुम बैठी देख कर नन्हा मनु बेतहाशा दौड़ पड़ा था - दीदी, जल्दी आओं। सुदामी फुआ का घर यहाँ है।
अरे बबुआ, तु....
हाँ, सुदामी फुआ, हमलोग तुम्हारा घर देखने आए हैं।
मनु की उम्र के अपने नँग-धड़ँग बच्चे को फटे आँचल के छोर में छिपाने की कोशिश करती सुदामी फुआ एक-ब-एक उठ खड़ी हुई थी।
साथे मालिक जी बानीं ?
वह झटपट माथे तक आँचल सहेजती झुक कर छाजन की ओट चली गई थी।
नम्रता, मनु, चलो, वापस चलो, वापस चलें।
बाबूजी की आवाज सुन कर हम दोनों को लौटना पड़ा था।
उस दिन आजी की पुजा में मनु ने अच्छा-खासा विघ्न डाला था - आजी, आपके भगवान जी ने सुदामी को ऐसा क्यों बना दिया ?
* * *
सुदामी फुआ कहती है - यह सब उसके पिछले जन्मों का कर्मफल है।
?
* * *
आजी, बताओं ना, यह कर्म फल क्या होता है ? और यह पिछला जन्म...। यह क्या चीज है?
मनु, ये बातें अपने बाबा से पूछे। मेरी पूजा में बिघिन मत डालो।
मनु, बगीचे में बैठे बाबा के पास दौड़ कर पहुँच गया था।
तुमसे किसने कहा कि सुदमिया के भगवान दूसरे हैं मनु?
बिलटू ने बाबा, जानते हैं, कल उसे सुदामी फुआ ने बहुत मारा था। उसके हाथों से भात की तसली उलट गई थी न, इसीलिए ...
* * *
उस की माँ का कहना था कि बिलटू ने अन्न भगवान का निरादन कर दिया। कल उसे दिन भर भूखा रहना पड़ा।
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यह अन्न भगवान क्या हैं ?
मनु के सवाल का कोई उत्तर दादाजी के पास नहीं था। अलबत्ता उन्होंने धीमी आवाज में मना ही जरूर की थी -
बिलटुवा के साथ इतना मेल-जोल बढ़ाना ठीक नहीं मनु, वह पढ़ता-लिखता नहीं, सारा दिन अपनी टोली के आवारा लड़कों की सोहबत में गुजारता है।
नहीं बाबा, बिलटू बहुत अच्छा लड़का है। मेरा पक्का दोस्त बन गया है। कितनी सुंदर लिखावट है उसकी। हमें कबड्डी के दाँव-पेंच सिखाता है। उसका दिमाग चकरघिन्नी की तरह तेज है। वह स्कूल क्यों नहीं जाता?
माई ने मनु की पुरानी कमीज-पैंट बिलटू के लिए निकाल दी थी। सुदामी के लिए उसकी हिदायत थी -
साँझ को अपने टोले की तरफ लौटने के पहले सुदामी हमारे दरवाजे पर एक बार हाँक जरूर लगा दिया करती थी - लौटत बानी भउजी, कवनो हुकुम बाद
माई आजी की नजर बचा कर दिन की बची हुई रोटियाँ चुपके से उसकी टोकरी में डाल देती।
मालिक के जस बढ़े भउजी, तहार बाल-गोपाल बेला-चमेली अइसन फुलाइल रहसु।
पूरे मुहल्ले में नई डिजाईन का संडास बनाने की होड़ मची थी। गाँव के बिलासी मिस्त्री ने बाबूजी को हिसाब समझाया था - ईंट, बालू, सीमेंट, सरिया, गिट्टी, मजदूरी आदि सब मिलाकर दस-बारह हजार के भीतर फरिया जाएगा। आगे आप जैसा कहें मालिक।
कहना क्या है भाई, भंगी मुक्ति अभियान है। सिर पर मैला ढोने वाला काम कितना अमानुषिक है न। हमारी तो बहुत दिनों से यही इच्छा थी। तुम कल से ही काम लगवा दो।
सुदामी फुआ ने दबी आवाज में माई से पुछा था - इ का बनत बा भउजी?
भगवान ने चाहा तो तुम माथे पर यह गलीज ढोने से बच जाओंगी सुदामी। अब तो हर घर में...।
सुदामी अपनी टोकरी और झाडू वहीं रखकर धम्म से बैठ गई थी -
जमादार साहेब भी इहे बतिया कहले रहलन। दू भंगी मुकुति के अरथ हमरा समुझ में ना आइल। सरकार के हाथ में कवनो जादू के छड़ी बा का? सुनत लानी कि रहे खातिर पक्का मकान, नय का रोजगार आ बचवन के मुफुत पढ़ाई-लिखाई।
भंगी मुक्ति आंदोलन के विषय में दादाजी ने उसे विस्तार से समझाया था -
सरकार तुम लोगों को पक्के मकान बना कर देगी और सुदामी, तुम्हारे लिए नया रोजगार भी ....। यह समझो, तुम्हारे टोले के दिन पलट गए।
छिगुनी तिरपाठी के चेहरे पर विद्रूपात्मक मुसकान थी- अब सुदमिया का मिजाज सातवें आसमान पर रहेंगा। कहो सुदामी देवी, अब तो पानी पीढ़े का इंतिजाम करके तुम्हारी अगवानी करना होगी।
सुदामी सकुचा गई थी -
अइसन पाप-भारवा मत बोली देवता, बाकी हमार बाल बचवन के जिनगी बन जाए, एतना उम्मीद जरूर ....
लगभग छह महीनों तक सुदामी का कहीं कोई अता-पता नहीं चल सका था। त्रिपाठी जी और मुहल्ले के दो चार लोग अपने कमाऊ पा खाने की समस्या सुलझाने के लिए निचले टोले की दूसरी औरत को तय कर आए थे।
उस दिन माई ने उसे बुला कर सुदामी की बाबत पूछताछ की थी -
नासपीटा जमादार मेहतर टोली के मरद-मेहरारू को हाँक कर पटना ले गया है।
कह रहा था - कागद पर अँगूठे की टीप देनी होगी, तभी एक कोठरी अपने नाम हो सकेगी। सरकारी काम में अबेर-सबेर तो होती ही है। सुदमिया सबसे आगे-आगे कूद रही थी। अब देख लीजिए, उसका कहीं कोई अता-पता नहीं है। एक दिन मनु ने देवी मंडप के पिछवाड़े बिलटू को देखा था -
अरे, बिलटू, तुम यहाँ ?
रामू पेड़े वाले की दुकान के सामने वाले धूरे पर से खोए की जली खुरचन बटोरतते बिलटू ने उसे देखकर आँखे झुका ली थीं। -
हमारी माई पटना गई है। सुगनी और मुनिया उसके साथ गई हैं। हम रोज आसरा देखते रहते हैं मनु भइया, वह कब आएगी, पता नहीं।
सुदामी लौट आई थी। उसकी बुझी हुई आँखों झुका ली थीं - हमारी माई पटना गई है। सुगनी और मुनिया उसक साथ गई हैं। हम रोज आसरा देखते रहते हैं मनु भइया, वह कब आएगी, पता नहीं।
सुदामी लौट आई थी। उसकी बुझी हुई आँखों में छह महीनों के निष्फल भटकाव की गहरी यातना थी।
मउजी, बड़ी भूख लागल बाद। कुछ होखे त....
माई कुछ पूछतीं, इसके पहले उसकी आँखे झर-झर बरसने लगी थी -
जमादार ने पाँच सौ रुपए माँगे थे - हुक्काम ठहरे, उन्हें खुश करना जरूरी है। उनकी पान पत्री के लिए ...
सुदामी के पास कुल तीन सौ रुपए थे। उसने अपनी बच्चियों के साथ स्टेशन किनारे बैठ कर भीख माँगी थी, जमादार के आगे हाथ-पैर जोड़े थे, फिर भी वह ...
आपन बचवन के सुख खातिर कवन-कवन करम ना कइलीं भउजी, बाकी के राच्छद टस-से-मस ना भइल।
गंगा जी की पावन धार और कर्मनाशा में सनातन फर्क है। सारे ढोर-डांगर आदमी बन जाएँ तब तो...
बगल से गुजरते त्रिपाठी की टिप्पनी सुनकर सुदामी धीरे से उठ खड़ी हुई थी - चलत बानी भउजी।
बिलटू को कबाड़ी दुकान में नौकरी मिल गई थी।
दो सौ रुपए माहवारी और एक जुन का खाना। लोहे के पत्तर, शीशे की ढेरी, नए पुराने कपड़ों की चिथड़ी अलग करने का काम...
उसकी आँखों में उछाह की एक नई चमक थी।
कूड़ा-करकट के पहाड़ में दिन भर आँखे फोड़ने रहते हो, तुम्हें थकान नहीं होती, तुम्हारा जी नहीं ऊबता बिलटू?
हमारे बाबू कहा करते थे, मेहनत मजूरी से कभी नहीं भागना चाहिए। आठ पहर की कड़ी तपस्या के बाद दो जून की रोटी...
तुम्हारे बाबू कहाँ चले गए बिलटू?
नन्हें मनु का सवाल बिलटू को एक बारगी उदास कर गया था। माई ने उसे आँखों के संकेत से आगे कुछ भी पूछने से मनाही कर दी थी।
उन दिनों सुदामी का नया-नया गौना हुआ था। जलेसर के खुले बदन पर मोटिया की हल्दी रँगी उटुंग धोती और कंधे पर चारखाने की नई लाल गमछी थी। पीली छापेदार साड़ी का हाथ भर घूँघट काढ़े लाज से दोहरी होती हरी बेंतसी लचकदार नई नोहर बहुरिया उसके पीछे खड़ी थी।
गोड़ लागीं दादाजी।
अरे वाह जलेसर। नई कनिया लेकर बड़ी जल्दी चले आए।
हाँ दादा जी, अब कल से इसकी डूटी लगेगी। हमें बिहटा मिल में काम लग गया है। हफ्ता दस दिन पर फुरसत पाते ही हाजिरी देने चले आवेंगे। आज इसको साथे ले आए। हर दुआर की पहिचान करवा देंगे, तबे न ....
नई नवेली सुदामी के पैरों में गिलट की अँगूठे भर मोटी झाँझ थी, गले में गिलट की बूटेदार हँसली, माथे पर तेल में घुले भरवरा सिंदूर की चवनिया बिंदी...। दादाजी से मुँह दिखाई के पचास रुपए और माई से नए पहिरन की सौगात पा कर सुदामी पुलकिन थी।
एक महिने तक जलेसर का कोई पता नहीं चल सका था -
दादाजी के सामने निहोरा कती हुई सुदामी फूट-फूटकर रो पड़ी थी -
कवनों उपाय लगाई दादाजी, तीन-तीन गो दुध मुँहवन के लेके हम कहँवा खोजत फिरब?
महिनों पूछताछ जारी रही थी। बिहटा मिल के पुराने मेठ जतरूराम ने खबर भिजवाई थी।
जड़इया बुखार से बेहार जलेसर कई हफ्ते काम पर नहीं जा सका था। मुंशीने उसे काम से निकाल दिया था। एक सुबह ताड़ी खाने के पासवाली नाली में मुंशी बालचरन औंघे मुँह गिरे पाए गए थे -
दोनों हाथ कोहनी से झूल गए थे। मुँह के कई दाँत भुरकुस, जबड़ा भयंकर रूप से सूजा हुआ...
बेहोशी से उबर कर मुंशी ने जलेसर का नाम लिया था। पुलिस उसके पीछे पड़ गई थी। तब से आज तक छह महीने बीतने जा रहे हैं, उसका कोई अता-पता नहीं।
जलेसर को गए चौथा साल तक रहा था। कोटर में घँसी सुदामी की आँखों में खारे जल कतरलता उमड़ आती थी -
अइसन निरमोही बिलटू के बाप कब हूँ ना रहलन भउजी। जरूर कवनों दुसमन घात लगा के ...
छिगुनी तिरपाठी ने मंतव्य दिया था - जलेसर प्रेतयोनि में भटक रहा है। तूने उसका किरिया-करम तक नहीं किया। अपनी बिरादरी के पाँच दस सवाँगों को पक्की रसोई राँघ कर खिला देती, कुछ दान-पुण्य कर देती, तब भी छुटकारा हो जाता।
सुदामी का विरोध उसके उबलते हुए आँसुओं के रूप में बाहर फूटा था।
हम कबहूँ बिसवास ना करब। हमार मन गवाह बाड। ऊ जरूर लवटिहें।
निचले टोले के विधुर बिजुरी राम ने संकेत से प्रस्ताव रखा था - कब तक जलेसर की बाट जोहेगी ?
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हमारी बात मान ले। तीनों बचवन को कबूलने के लिए हम तैयार बैठे हैं। तू हाँ कहे तो ...
मकई के पके भूए जैसे बालों वाली सोहागी काकी का नेह-छोह उमड़ आया था - दिन-रात खटती रहती है। अकेली तिरिया की जिनगी भी कोई जिनगी हुई भला। बिना डाँट पतवार की नइया जैसी।
बिजुरी ठीक कह रहा है। बिलटुवा को बाप की छाँह मिलेगी और तुझे जिनगी का भरोसा...।
सुदामी के मौन तिरस्कार ने सबका मुँह बंद कर दिया था -
बिलटू बड़ा हो रहा है। दोनों धिया सयानी हो जाएँ। उनका लगन करा देने के बाद सुदामी को कोई चिंता नहीं रहेगी। बिलटू का ब्याह हो जाए, झुनुर मुनुर कनिया घर में आ जाए तो वह भी सोहागी काकी की तरह ओसारे पर बैठी पंचायत करती रहेगी।
पटने से लौटे जमादार ने उसे दो टूक जवाब दिया था - तू क्या समझती है? तू क्या कोई रानी-महारानी है। बैठे-बिठाए सरकार तुझे जिमींदारी बख्श देगी क्या?
सुदामी की आशंका भरी आँखों में सहसा एक सवाल उछल आया था-
और मेरी जिनगी भर की कमाई? गहने, रुपए?
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तुमने तो कहा था कि साहेब के खुश होने की देरी नहीं, चुटकी बजाते काम हो जाएगा।
जमादार ने मुँह बिचका दिया था -
एक हाकिम हो तो बतावें। यहाँ तो बीसियों कंस के औतार बैठे हुए हैं। एक की छुछा भरो तब तक दूसरा मुँह बाए तइयार है।
* * *
देख सुदामी, तेरा ही नहीं, हम सबका पइसा लगा है। रोने-पीटने से कुछ नहीं होने का। डूबेंगे तो सब एक साथ।
सुदामी ने अपनी दोनों बेटियों के ब्याह का सपना देखा था। चाँदी के दो जोड़ी कनपासे, चाँदी की लड़ी वाली माला, कमरधनी और बाकी गहने गिलट के।
जलेसर के भेजे रुपयों में-से किसी तरह वह थोड़ी-सी रकम सहेज पाई थी।
हम ना जानत रहलीं एक भउजी कि सरकारी मकान के सपना सेमर के फूल अइसन लदरंग हो के उधिला जाई। बिलटुआ के बाप रहितेत... जलेसर रहता तो क्या होता, क्या वह सुदामी की जिंदगी को कर्मनाश की पंकिल धार होने से बचा लेता?
अपना एक छोटा-सा छप्पर बंद मकान होने के सपने को सेमल के लदरंग फूलों की तरह हवा में यूँ ही बिखर जाने देता?
मटमैले मुड़े-तुडे कागज पर पेंसिल से उकेरे गए टेढ़े-मेढ़े हरफों वाली जलेसर की आखिरी चिट्ठी सुदामी के जीवन की सबसे बड़ी निधि थी। जब कभी मन उचाट होता, उस मुड़ी-तुड़ी चिट्ठी के घुँघले अक्षरों को माई के पास पसार देती।
बिलटू की अम्मा को मालूम कि अगले दसहरे तक हम अवश्य आएँगे। तुम्हारे लिए नखलउवा सुरमा, पटनहिया चोटी, बनारसी छापे की साड़ी, बिलटू के लिए नई काट की कमीज, सुगनी, मुनिया के लिए छींटदार फराक। रामजी ने चाहा तो अगले साल तक अपना पक्का मकान जरूर बन जाएगा। हमारी पगार जो बढ़ने वाली है।
उस दिन सुदामी का बावलापन अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था। निचले टोले के मुखिया रामपलट को नगरनिगम की ओर से फरमान मिला था - अपनी-अपनी झोपड़ी नहर किनारे से हटा कर कहीं दूसरी जगह ले जाओ। सरकार इस जमीन का इस्तेमाल मुरगी फारम के लिए करेगी।
देखलू भउजी, मुरगा मुरगी के मोल आदमी के मोल से बेसी ना। बताई भला, इ कवन बेवहार भइल ? बिलटू के बाप हमरा के जहँवा छोड़ के गइलन, हम ओहिजे रहब, हम कहीं ना जाइब भउजी।
माई के पास सुदामी के किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था। सुदामी का अकाट्य विश्वास दादाजी के समाने एक चिरौरी के रूप में था -
जमादार परले दरजे का झूठा है। सारा पइसा जरूर वही हड़प गया होगा। जलेसर के साथ भी उसने यही किया था -
नौकरी दिलवाने के नाम पर खूब फरेब किया था जालिम ने। जलेसर ने बड़े हाकिम के पास सीधे अपनी अरजी भिजवाई थी और छह महीने बाद सरकारी मोहरबंद लिफाफे में उसकी चिट्ठी का जवाल आ गया था। तभी तो उसकी नौकरी का बुलावा मिला था।
सुदामी को पूरा भरोसा था -
दादाजी चिट्ठी लिख देंगे तो शहर का बड़ा हाकिम उसके नाम पक्के मकान का ऑडर जरूर करेगा।
सिर छुपाने के लिए छोटी-सी-कोठारी, झिंझरीदार खुली खिड़की से झाँकता नीला आसमान झुकी छत वाली नन्हीं दीवारों के स्वामित्व दर्प से अधाया सुदामी का मन संभावनाओं के निस्सीम क्षितिज की ओर उभड़ चला था।
उसने सुन रखा था -
लापता लोगों की खोज-खबर लेने की जिम्मेदारी सरकार उठाती है। पहले मकान वाली अरजी का जवाब आ जाए फिर वह जलेसर का पूरा हुलिया लिखवाकर नेताजी से बिनती करेंगी। उनकी दया होगी तो उसका सुख-सुहाग दुबारा पलट आएगा।
दादाजी की मार्फत दरख्वास्त भिजवाने के बाद सुदामी की आकांक्षाएँ नहर के पानी में चोंच डुबो कर किलोलें करती जलमुर्गियों की तरह पंख फड़काती एक नई जिंदगी का आबदार खाका सहेजने लगी थीं।
पंद्रह दिन हो गए थे, सुदामी काम पर नहीं आई थी।
छिगुनी तिरपाठी ने दादाजी पर बोल कसे थे -
आपने भी अवधेश भाईं, नए जमाने की अहिल्या सुदामा देवी का भवतारण भार उठा ही लिया।
ससूर गली की मोरी यहाँ से वहाँ तक वैतरणी बनी हुई है और यह सुदमिया काम-घाम छोड़ कर...।
सारी बातें बाद में मालूम हुई थीं -
बिलटू अचानक कहीं गायब हो गया था। सुदामी गोपाली चौक, स्टेशन, बाबू बाजार, शीतल टोला हर जगह खोजकर थहरा गई थी। फिर एक दिन सुना सुदामी मर गई।
उसकी बेटी मुनिया रोती-बिलखती हमारे घर पहुँची थी -
माई बहुत बीमार थी। समूची देह में खूब तपन..., रात भर अंट-संट बकती रही। भोर हुई तो देह एकदम पाला। हिलाने डुलाने पर भी माई एकदम चुप पड़ी रही। फिर, सोहागी दादी ने देह छूकर बताया -
हमारी माई मर गई।
सुदामी मर गई लेकिन उसक आस सुबह-सुबह हाँक लगाने वाली मुनिया के रूप में अभी भी जीवित है। उसे उम्मीद है कि देर-सबेर माई की अरजी का जवाब उसे जरूर मिलेगा।
देश के किसी बड़े महात्मा ने कहा था न - राम की बनाई इस धरती पर कोई ऊँची नीच नहीं।
मुनिया को आशा है इसीलिए तो उसकी झिलमिलाती आँखों में एक ही सवाल कौधता रहता है -
कोई खबर आई दादाजी ?