माँ की ममता न होती, तो यह धरती कैसी होती? बिन ममता के घर कैसा होता? कैसी होती यह दुनिया? नरम कपोलों पर ढुलकते आँसुओं को आँचल से कौन पोंछता? कौन जानता मन की
बात? कौन सुनता दुधमुँहे अधरों के तुतलाते शब्दों के अर्थ? पगथलियों में लगी धूल के सौंदर्य को शिशुता का शृंगार कौन कहता? कौन मिलाता चूल्हे की आँच और पेट की
आग के समीकरण? कौन स्वप्न-जागृति के पार जाकर ठुमक-चलते जीवन को धूप-स्नान करते हुए देखता? कौन हरसिंगार के फूलों में अपने शिशु के नयनों के बिंब देख
मुस्कुराता? कौन गौ-वत्स को अपनी माता का स्तन-पान करते देख अपने मातृत्व को दुधियाते हुए उत्फुल्ल होता? कौन चीटीं के मुँह में सँजोए हुए कणों का संबंध
माँ-ममता-पोषण और संसृति के विस्तार से जोड़ पाता? कौन धरती और किसान के संबंधों में माँ-बेटे की भावमयी महनीयता की दूध-मिश्री घोल पाता? कौन वनपाखी की आकाश-भेदी
उड़ान में अपनी ममता की अंडज निष्पत्ति पाकर आकाश-सा निस्सीम होता? कौन अपने कोख-जन्मा को छाती से लगाकर लोरी के स्वरों से जीवन की भूमि में संस्कार बोता?
माँ की गोदी हरी होती है। स्वप्न आँखें खोलकर जागते हैं। अभिलाषाएँ पाँव-पाँव चलने लगती हैं। धरती बहुत रसवंती लगने लगती है। आकाश-पुरुष के माथे पर सूरज की पगड़ी
सज उठती है। चँदरमा सुहाग की टिकी-सा रजनी के भाल पर फब उठता है। हरी पत्तियों की चमकती आँखों में रेशा-रेशा दूध उतर आता है। नदी की लहर-लहर तट पर आकर रेत पर
लकीर-लकीर स्वागत गीत लिख जाती है। देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा मिलकर खूब खिलखिलाती हैं। वन से निकलकर गाँव को जल-उत्सव का उपहार देती अनाम नदी के जल पर
नन्हा दीपक तैरता है। खेत से चलकर आए पाँवों में लगे माटी-कण आँगन तक आते-आते गेहूँ की बाली और बाजरे की कलगी की अन्नगंधी सुवास बिखेरकर निःशेष हो जाते हैं। एक
तितली पुष्प-पुष्प को संदेशा देकर निहाल हो जाती है। कैरियों से लदे-लदे, झुके-झुके आम्रतरु से ठिठोली करते शुक-सारिका अपने संवादों को भूलकर सोहर गाने लगते
हैं। बादर में बिजुरी चमकती है और शिशु की आँखों में काजर आँज जाती है। शिशु की स्मित-किलकारी माँ की छाती को गर्व और जीवन को अनिर्वचनीय सुख दे जाती है। माँ
चित्त का विस्तार आनंद के अतल में खोजने लगती है।
बालक का जन्म होता है। बालक हँसता है; माँ वारी-वारी जाती है। बालक रोता है; माँ अविचल-विचलित हो जाती है। बालक की पलकों पर नींद बिछौना बिछाती है। माँ लोरी
गाती है। छाती से लगाती है। छाती पर सुलाती है। थपकियाँ देती हैं। क्यों गाती है माँ लोरी? भौरे क्यों गुनगुनाते हैं? कोयल क्यों गीत सुनाती है? समुद्र क्यों
बादल बनता है? घटाएँ क्यों घिरती हैं? चपला क्यों चमकती है? बादल से बूँदें टपककर धरती में क्यों समा जाती हैं? हजारों-हजारों बूँदें मिलकर नदी-नद-सर-सागर क्यों
बन जाती हैं? बीज अंकुरित होकर क्यों पादप-तरु बनता है? कर्म की रेख को गाढ़ी और चारों फलों की उपलब्धता का आधार क्यों बनाया गया है? श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की
युद्धभूमि पर ही अनुपम ज्ञानयोग, निष्काम कर्मयोग और परम-पावन भक्तियोग का संदेश क्यों दिया है? योगी त्रिकुटी-मध्य इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना को क्यों साधता है?
संन्यासी इस संसार को समझ-बूझकर भी इस पर क्यों हँसता है? बैरागी इस संसार को असार क्यों मानता है? साधक नर्मदा तीरे गुफा में बैठकर अचल समाधि में क्यों चला
जाता है? रेवा अमरकंटक से सागर-संगम तक रव करती क्यों बह रही है? चिड़िया तिनका-तिनका जोड़कर घोंषला क्यों बनाती है और संसृति का उत्सव क्यों मनाती है?
तीर्थयात्राओं में उस अलख को लखने की चाहत क्यों हर जनम में धमोड़ा-सी फूटती-लहकती है? अमृत न मिलने पर भी अमर हो जाने की इच्छा दूब-जैसी अपनी जड़ों में क्यों हरी
बनी रहती है? यह सत्य है कि यहाँ रहना नहीं, यह देश विराना है; फिर यह भूमि क्यों स्वर्ग से भी ज्यादा प्यारी और सुंदर लगती है? पत्ते क्यों झरते हैं? तरुवर
क्यों निपात हो जाते हैं? वसंत क्यों आता है? निपत्र वनांचल क्यों पल्लवित-कुसुमित हो जाता है? सूरज रोज निकलता है। हर रोज नया होता है। चंद्रमा कई बार उगता है।
हर बार अभिनव होता है। माँ चंदा मामा को और शिशु को लोरी में दुलराती है।
स्वर, संगीत और संस्कार लोरी के अंतर्वासी रूप हैं। माँ धरती पर मानवता का संस्कार-संपन्न स्वरूप है। आत्मा उसकी चंद्रमंडल के क्षीर सागर में रहती है। वह जहाँ
भी जाती है, दूधिया उजास उसके साथ रहती है। उसकी डाँट घटाओं में इंद्रधनुष-सी छिटकती है। उसकी प्रसन्नता फूलों के हृदय से निकलती है। जब वह अपनी संतति को
निहारती है, तो उसके सामने सारे रूप-कुरूप सुंदर हो जाते हैं। वह कुरूपताओं पर भी ममतामयी दृष्टि के शंख-चूर्ण की वृष्टि करती है। जब वह अपने बच्चे से बोलती है,
तो बोलियों का काव्य-सत्व निचुड़ कर झरने लगता है। जब वह गाती है तो कालिदास का शृंगार और भवभूति की करुणा थाह ढूँढ़ने लगती है। जब माँ लोरी गाती है, बालक के
अनखुले मनोजगत में संगीत के संस्कार पलकें खोलते हैं। बालक की पलकें झपकती हैं। नींद का मोहक स्वप्न-देश आँखों में उतर आता है। नाद बिंदु के झूले में झूलने लगता
है। लोरी के स्वर-शब्द बालक के हृदय में बैठकर विलक्षणताओं के रहस्य खोलते हैं। सद्यजात शिशु नींद में मुस्कुराता है। विस्मित होता है। चौंकता है। आँखें खुलती
हैं। एक नई दुनिया सामने होती है। उसी दुनिया की रीत माँ लोरी में गा-गाकर सुनाती है। फूलों के गान गाती है। स्वाद के मंच पर जिह्वा और वनफलों की जुगलबंदी करने
के संस्कार देती है।
नाना-सा भाई का नाना-नाना पाँय,
नाना-नाना पाँय - सऽवाड़ी म जाय।
वाड़ी का वनफळ तोड़ी-तोड़ी खाय,
एतरा म आई गई माळेण माय।।
(निमाड़ी बोली की लोरी का एकांश)
माँ अपने अतीत को, अपने दुख निपजे करुणार्द्र भूतकाल को अपनी स्मृतियों की माप से मापकर उसमें आशाएँ-आकांक्षाएँ भर लेती है। वह अपने बालक के भविष्य को मणिपूरक
चौक पर कलश-सा रख देती है। इसलिए कि उसका जन्मना शिशु विश्व की कटीली और खुरचीली सीमाओं के पार अमरता नापते चरणों का प्रतिनिधित्व कर सके। वह बचपन का निर्माण
करती है। निर्माण के बचपन को संस्कार देती है। उसके स्वर-रागों में नर्मदा की उत्कल धारा का ध्वनन सुना जा सकता है। हाथों की थपकियों में नींद की एक-एक तह की
जमावट को अनुभव किया जा सकता है। अँगुलियों की चुटकियों में कलियों की चटक का समतोल अनुमाना जा सकता है। उसकी छाती के बिछौने पर ममता के रोम-रोम की नम्रता
धन्यता को प्राप्त कर सकती है। माँ के हृदय की धड़कन से शिशु की धड़कन का अनाहद नाद अपने प्राणत्व की सार्थकता ढूँढ़ सकता है। उस सुखानुभूमि में हिमालय, विन्ध्य,
सतपुड़ा, सह्याद्रि और अरावली की ऊँचाई-निचाई सब डूब जाती है। स्वप्नों की जागरण वेला में इच्छाओं के पुष्प खिलते हैं। वर्तमान की स्फूर्ति के प्रकाश में
अतीत-भविष्य दोनों चमक उठते हैं।
नर्मदा का अविरल-अविराम निर्मल प्रवाह, प्राची की गोद में अरुणोदय, राका-नभ के अजिर में विधु की रजत-क्रीड़ाएँ, संझा-वेला में वनपाखियों का अपने-अपने नीड़ों में
लौटना, वन से लौटती अपने बछड़े को दूध पिलाने की आतुरता ली हुई गाय की दौड़, कली का खिलना, घनालि का घिरकर रूखी-सूखी धरती पर बरसना, गंगा की लहरों पर नन्हें दीपक
को नृत्यमय भंगिमा में दूर तक बहते-बलते देखना, किसी तरुवर में मौसम का, उम्र के जीवन का पहला फल फलित होना, बढ़ती फसल की बालियों में पहले दाने का छिलके की ओट
से झाँकना, उमड़-घुमड़ घिर आई घटाओं से सौदामिनी का चमकना, अपने श्रम के समर्पण में कृषक के भाल से पसीने की बूँदों का मातृभूमि की गोद में गिरना, लेह-लद्दाख के
हिम-मंडित शिखरों पर बर्फ धुली हवाओं से दो-दो हाथ करते-करते अपनी भूमि के पग-पग, कण-कण की रक्षार्थ हिमालय बन जाना, कीड़ों की कुलबुलाहट भरे किसी आतंकी के
गँदैले मस्तिष्क में दिन के चटक उजाले में सरेआम गोली दाग देना, संस्कृति के सुदर्शन चक्र से अपसंस्कृति के असुर का शिरोच्छेदन करना, वेणु की धुन पर निकुंज-वन
में चाँदनी की रुनझुन का अविकल नृत्य जाग उठना, सतपुड़ा के वनों की हरियाली में मृदंग की थापों की घुमक का पहाड़ों से उतरकर दूर ताप्ती के जल तक फैल-फैल जाना,
श्रीमद्भागवत कथा की व्यास गादी के चहुँओर बोए जवारों का भागवत-वेला में अंकुरित हो आना, यह माँ की ममता के ही अनेक अवतार हैं।
हिमालय से गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, चिनाब, झेलम, व्यास, सिंधु निकलती हैं। मेकल से रेवा, सतपुड़ा से ताप्ती, ऋष्यमूक से गोदावरी, महाबलेश्वर की
पहाड़ियों से कृष्णा, कोयना और सह्याद्रि से कावेरी निकलकर जल की चिकनाई से तृण-तृण के आत्मतत्व को सिंचित कर अलख देव की अभ्यर्थना में अपना कर्म-अनुष्ठान संपन्न
करती हैं। वनस्पतियाँ किसके प्रति अपनी कृतज्ञता में पुष्प-फल अर्पित कर निःशेष हो जाती हैं? महामानव के प्राणों का आत्मबल विस्तारित होकर विश्व के अनेक
राष्ट्रों को पराधीनता और आतंक से मुक्ति की राह दिखाता हुआ किसकी स्वाधीन चेतना की प्रतिष्ठा करता है? करुणा के सिंधु में उल्लास की तरंगों पर बैठकर कवि किसके
अनुरंजन हेतु जीवन की अमर कथा लिखता है? किसकी महामाया को गौरव देने के लिए स्त्री माँ बनकर एक सनातन प्यास को बुझाने का उपक्रम करती हुई धरती हो जाती है?
माँ ने पाया कि गमले में रोज एक लोटा पानी डालने से रजनीगंधा खिल आई है। उसने जाना कि पक्षियों की भाषा मनुष्य और मनुष्य की भाषा तोता-मैना सीख गए हैं। कितनी
चिड़िया प्रकृति से ही संगीत के संस्कार लेकर आती है और निसर्ग में अपने स्वर से वाणी का दूधिया-स्वर अतंरिक्ष में तैरा देती है। सूरज-किरणें अपनी आभ और ताप
मिश्रित स्वरांजलि प्रकृति के प्रत्येक शिव-वृक्ष पर बेलपत्र-सी चढ़ाती हैं; तो प्रत्येक तरुवर ऊर्जा-स्फूर्त होता हुआ अपने संस्कार-भार से विनम्र हो उठता है।
माँ ने देखा कि इस महादेश के जीवन का कोई संस्कार, कोई कर्म, कोई अनुष्ठान गीत-संगीत के बिना पूरा नहीं होता। जन्म-मृत्यु की रेशमी डोर पर चलता जीवन अपनी
अंतर्लय की खोज में ही ढलता-गिरता-सँभलता अपने गंतव्य पर पहुँचता है। अपने बालक को संगीत के संस्कार देने के लिए माँ गाती है। जीवन-दुखों की गठरी के बोझ को
हल्का करने के लिए माँ अपने नौनिहाल को राग-रागनियों से गठरी की गाँठ खोलने का कौशल सिखाती है। वह अपने शिशु को अपने चित् की सद्वृत्ति से आनंद के अनुपम भावमय
संस्कार से संस्कृत करती है। माँ है ना वह। धरती के संपूर्ण रसबोध को धारण करने वाली माँ। माँ की लोरी रस की गागर है।
माँ प्रकृति को देखती है। सूरज लय में उगता है। चाँदनी की अपनी लय है। नदी एक लय के साथ प्रवाहित होती है। वर्षा की बूँदें लय-ताल के साथ बादल से धरती पर झरती
हैं। फूलों के खिलने में लय है। हल में जुते बैलों के चलने की एक लय होती है। और तो और किसी कारखाने में चलती हुई मशीनों की भी एक लय होती है। माँ प्रकृति को
गाते हुए सुनती है। धरती गाती है। मौसम गाते हैं। ऋतुएँ गाती हैं। मजदूर गाता है। किसान गाता है। गृहलक्ष्मी गाती है। तुलसी-वृंदावन गाता है। मीरा गाती है। कोयल
गाती है। पपीहा गाता है। तोता-मैना गाते हैं। गौरैया गाती है। हवा गाती है। आम्रकुंज गाते हैं। मोर नाचते-नाचते गाता है। बाँसवन गाते हैं। वसंत में जंगल गाते
हैं। बादल गाते हैं। वर्षा में नदियाँ गाती हैं। गगन में घन गाते हैं। भौंरे गाते हैं। झींगुर गाते हैं। चरवाहा गाता है। हलवाहा गाता है। मिट्टी का कण-कण गाता
है। मिट्टी की देह बनी है। माटी की उदास प्रतिमा को माँ लोरी सुनाकर, संगीत सिखाकर उसे उत्फुल्ल-स्फूर्त कर देती है। वह जीवन में रस घोलती है। शरीर में प्राण
फूकती है। आँखों की दृष्टि को माँजती है। कोनों को श्रवणीय बनाती है। लोरी के संस्कार-दोने उसके श्रवण-रंध्रों में उँड़ेल देती है। माँ लोरी गाती है, क्योंकि
प्रकृति गाती है। प्रकृति अपने पादप-तरुओं को अनगाई लोरी गाकर बड़ा करती है। माँ अपनी आत्मा के स्वर से शिशु के जीवन-तरु को सींचती है। वह सींचते-सींचते गाती है
और गाते-गाते सींचती है।
निसर्ग की जन्म-स्थली परम प्रकृति का हृदय होती है। ब्रह्मांड के फलक पर तो वह चित्रित होता है। हरे-नीले बाँस की बाँसुरी का जन्म स्थल कलाकार का कुशल मस्तिष्क
और सुघड़ कौशल होता है। वेणु के स्वर बाँसुरी के छिद्रों से नहीं; वेणु वादक की स्वाँस के आरोह-अवरोह से जन्मते हैं। पुस्तक के पृष्ठों पर टँके शब्द रचनाकार की
कलम से नहीं; अनुभव की आँच में ढलकर निकलते हैं। 11/9 पेंटागन और 26/11 को ताज होटल के विध्वंस की चिन्गारी बंदूकों से नहीं; किसी दाड़ीजार के मस्तिष्क की
हड्डियों की रगड़ से पैदा होती है। नाश और निर्माण के अप्रतिहत-अनिर्णित क्षणों में धमन-भट्टियों से धधकते जीवन का जन्म स्थल संस्कार हीनता की उसर भूमि होती है।
पसरा और गहराता हुआ सन्नाटा कातर-चीत्कार या दिगंत-भेदी हुँकार के बिना नहीं टूटता है। अमर्यादा और अमानुषिकता के चिकने फर्श पर नंगा नाच करते मोम के पुतलों-सा
जीवन यौनाचार की हड्डियों के चूर्ण से मंजन करता है। स्त्री-विमर्श भ्रूण हत्याओं के पावन पाप की ज्वाला में जलकर भस्म हो जाता है। सहनशीलता घर-परिवार के
रिश्तों को ठेंगा दिखाती हुई सरेआम चौपाल पर कपड़े उतार रही है। बच्चे माता-पिता की भाव-रज्जू को तोड़कर उनकी पहुँच से बाहर हो चुके हैं। यमुना के पानी में सड़ांध
पैदा हो गई है। आँगन पत्थरों के बिछौना वाला हो गया है। तुलसी खुली जमीन से गमले में रोपी जा रही है। अब वह एक लोटा अर्ध-जल के अभाव में सूख गई है। उसकी ओट में
बैठे शालिग्राम धूल-धूसरित गुमसुम बैठे हैं। माँ अब भी लोरी गा रही है।
हमारे समय के मनुष्य को पंख लग गए हैं। जब चिटिंयों के पंख लग जाते हैं, भारी वर्षा होती है; और सर्वनाश हो जाता है। हमारे समय के दो नहीं; तीन-तीन पंख फूट गए
हैं। मनी, माइंड और मसल्स। धन, बुद्धि और बल से वह प्रकृति और सारी संस्कृति की रेखाओं को मिटाकर अंधकार और पाप का काला रंग भरने को आतुर-व्याकुल है। मातृत्व के
साफल्य की धारणा के पवित्र संदर्भ समाप्त हो रहे हैं। देहराग, यौन, विकार, विषाद और अवसाद में घिरता जीवन कूलर के जल सरीखा-उड़ता, समाप्त होता जा रहा है।
बेटा-बेटी पैसे कमाने वाली मशीन सरीखे देश-विदेश दर-बदर भटक-खट रहे हैं। माता-पिता, दफ्तर-दुकान, खेत-खलियान, शहर-संस्थान, एटीएम कार्ड बने बदहवास लुट रहे हैं।
घर-परिवार पर इतना गुरिल्ला आक्रमण कभी नहीं हुआ था। संस्कार, संगीत, साहित्य, संस्कृति धनमद और बुद्धिबल के आगे घुटने टेक खड़े हैं। अब पिता क्या सोचें? माता
क्या करे? संबंध कैसे निर्वहें? घर कैसे बचे? परिवार कैसे बने? कुटुंब कैसे बसे? एक आस फिर भी कि नाना-नानी, दादा-दादी,, भाई-बहन, पिता-माता, बेटा-बेटी के
संबंध-संबोधन अपने विकास में नूतन महक लेकर खिलेंगे। माँ सप्त-स्वरों में लोरी गा रही है।