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निबंध

शब्द-शब्द झरते अर्थ

श्रीराम परिहार


पुस्तकें सच्ची मित्र हैं। पुस्तकें ज्ञानराशि की धरोहर हैं। पुस्तकें अनुभव की अकूत संपदा की धारक हैं। पुस्तकें शब्द-शब्द में संस्कृति और घटना में इतिहास-पुराण का जीवन-बोध लिए हैं। पुस्तकें मनुष्य की विकास यात्रा का शब्दांकन हैं। पुस्तकें मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती हैं। पुस्तकें विचार को विकास और वाणी को विलास देती हैं। पुस्तकें ज्ञान-साधना की फसल हैं। पुस्तकें मनुष्य की मानसिक भूख की तृप्ति हैं। पुस्तकें पृथ्वी पर ज्ञान का शब्द-रूप आकार हैं।

जब हमने शैशव में आँखें खोली थीं, शेष सृष्टि से हमारा परिचय वाचिक और लिखित पद्धति के पठन-पाठन के माध्यम से ही हुआ था। हमने पुस्तकों के पृष्ठों पर देखते हुए कल्पना की आँखों से हिमालय के हिममंडित शिखरों का सौंदर्य निहार लिया था। समुद्र की अतल गहराई और असीम विस्तार को भाप लिया था। हमने यह भी जाना कि विद्या मुक्त करती है - जड़ता से। यह भी समझा कि ज्ञान मुक्त करता है - कर्मपाश से। यह पाया कि अपने ही भीतर अविचल, अस्थिर, सुस्मित कोई बैठा है। कौन है वह? उसे जानने की एक अंतःसाधना प्रारंभ हुई और जानते-जानते, स्वयं को समझते-समझते पूरी सृष्टि का रहस्य हथेली पर रखे आँवले की तरह समझ गए।

क्या थे वे लोग? कैसे थे वे पुरखे? कैसे धुनी थे वे अपनी धुन के? कैसे गुणी थे वे अपने गुणों से आपूरित? थे तो वे भी पंच भौतिक तत्वों से सृजित। पर अपनी खोज में अपना ही कैसा निस्सीम विस्तार किया कि देश-काल सब ज्ञान के क्षीरसागर में डूब गए और शेष रह गया परम तत्व। परम ज्ञान। परम प्रकृति और उसका अनुलोम-विलोम। पठन-पाठन की स्रोतस्वनी का ऐसा प्रवाह कि उसमें जिसने डुबकी लगाई, मनीषी होकर निखर आया।

राष्ट्रनिर्माण का प्रथम सोपान है चरित्रनिर्माण। 'कोई राष्ट्र समृद्ध है', से आज तात्पर्य उसकी वैज्ञानिक और भौतिक प्रगति से है। यह अर्थ अधूरा है। यह दृष्टि ही खंडित है। समृद्धि यदि आंतरिक नहीं है, तो वह अधूरी है। साहित्य-कलाओं के बिना यदि जीवन की पूर्णता और चेतना की चमक पाई जा सकती थी, तो अरस्तू जैसा पश्चिम का भरतमुनि अपने 'पॉलिटिक्स' और 'पोइटिक्स' में 'अनुकरण', 'विरेचन' और 'त्रासदी' की चर्चा करते समय काव्य-कला को 'जीवन का पुनर्सर्जन' नहीं कहता। पठन-पाठन भी प्रकारांतर से जीवन का पुनर्सर्जन करता है। वह ज्ञान-चक्षु खोलता है। वह आभ्यंतर को झंकृत करता है। सोए को जगाता है। वह करुणा की प्यास जगाता है। वह बार-बार कहता है कि जीवन यदि सौभाग्य है, तो उसमें करुणा का विस्तार और चेतना का संस्कार परम उपलब्धि है। इसलिए 'उठो-जागो और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो'। फ्रांसिस बेकन ने अपने पके अनुभव से कहा - 'पठन एक पूर्ण मनुष्य बनाता है, विमर्श एक तत्पर मनुष्य बनाता है और लेखन एक सटीक मनुष्य बनाता है।' पूर्णत्व की अवधारणा मनुष्य को कर्म और संस्कार दोनों ही ध्रुवों की संपन्न धवलता देती है। अधूरापन न ज्ञान का ठीक होता है और न ही जीवन का। जीवन की रिक्तता के भराव में पुस्तकों से निकले शब्द-शब्द झरते अर्थ कांतासम्मित बोलते हैं। इन्हें थोड़ा समझ के साथ बैठकर सुनो तो।

हम नहीं कह सकते कबीर जैसे चित्र में दिखाए जा रहे हैं, वास्तविक जीवन में भी कबीर की देह वैसी ही रही हो। तुलसीदास का संतत्व और साधुता उनके कवित्व से मिलकर पाठक के मन पर एक छवि गढ़ते हैं, जिसे चित्रकार तीसरे सत्य के रूप में अपनी ओर से बहुत कुछ मिलाकर प्रस्तुत करता है। सूर को उनके दिव्य सूरदासत्व के साथ किसने देखा? देखा भी हो तो वह छवि पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाचिक परंपरा के साथ उनकी चित्र-छवि में कितना अंतर भर चुकी है। प्रत्येक समझदार पाठक पुस्तक के पीछे बैठे हुए कवि-लेखक को भी पढ़ता है। उसके रचना-सत्व से उसके व्यक्ति-सत्य का अनुमान कर अपनी ओर से छवि-अर्थ का निर्माण करता है। जिस तरह एक सच्चा पाठक दो शब्दों या दो वाक्यों या दो पंक्तियों के बीच के अर्थ को खोजता और भरता है; उसी तरह आस्थावान पाठक रचना और कवि के बीच में से कवि-व्यक्तित्व को खोजकर, गढ़कर अपने मानस में उसकी छवि निर्मित करता है। कवि शब्द-शब्द में बोलता है। कवि अर्थ-अर्थ में स्वयं को ही खोलता है। कवि रचना की संपूर्णता में अपने व्यक्तित्व को तौलता भी है। भारतीय पाठकीय दृष्टि ने रचना और रचनाकार को समान और सम-सात्विक धरातल पर आसीन पाया है। कथनी-करनी की एकरूपता सदैव मानक बनी रही है। हरबर्ट रीड का कथन याद आता है - 'पुस्तक पढ़ते समय पुस्तक के पीछे बैठे आदमी को भी पढ़ना चाहिए। प्रत्येक पुस्तक के पीछे उसका कवि या लेखक बैठा रहता है'।

एक अच्छी पुस्तक पढ़ना और एक श्रेष्ठ रचना लिखना समान है। बल्कि परस्पर पूरक है। अच्छी पुस्तक का पाठ रचनात्मक वृत्ति वाले व्यक्ति के भीतर सर्जन की उर्वर शक्ति की समेट करता है। अच्छी पुस्तक प्रकृति-प्रदत्त प्रतिभा को नहरबद्ध भी करती है। नदी के उद्दाम वेग को बाँध से रोककर नहरों में मोड़ा जाता है, जिससे सूखी धरती का चेहरा खिलता है और खेत हँसने-गाने लगते हैं। उसी तरह सर्जन की उदात्त और श्रेष्यकर स्थिति की अंतःप्रेरणा भी कोई अच्छी किताब बन सकती है। किताब अनुभवों की गाड़ी है, जिसमें विचार के बैल जुते होते हैं। सृष्टि में जितने और जैसे जीव हैं, किताब ने अपने सुई-धागे में सबको गाँठकर, सीकर गुदड़ी बनाई है, जिसे ओढ़ना-बिछाना सुखकर और स्वास्थ्यवर्धक है। कितनी भटकी जिंदगियों को अपेक्षित राह और व्याकुल आत्माओं को अभीप्सित ठौर पुस्तक की कोई पंक्ति, कोई कथा, कोई चरित्र, कोई शब्द दिखाता रहा है। पुस्तकें मनुष्य की ज्ञान-यात्रा की साक्षी, सहयात्री और प्रवक्ता हैं। इनसे प्रेरणा-विभूषित जीवन सबसे अलग, सबसे न्यारा, सबसे प्यारा और सबसे विशिष्ट लगता है। यदि ऐसा मानें कि अच्छे संस्कार, अच्छी संगत, अच्छी पुस्तकें पढ़ने का सुयोग भी नियति के इशारे से ही प्राप्त होता है, तो भाग्यवादी होने का खतरा है। पर भाग्य तो होता है। उसे कर्म से प्रभावित और बहुत कुछ परिवर्तित किया जा सकता है। आवश्यकता यह है कि कर्म पुण्यमय हो। सद्इच्छा-वेष्टित हो। उस कर्म में पूजाभाव का अनुष्ठान हो। महाकवि भारवि ने चिंतन-समझ के उच्चाकाश में बैठकर कहा -

विविक्तवर्णा भरणा सुखश्रुतिः, प्रसादयन्ति हृदयन्यपि द्विवाम्।

प्रवर्ततेनकृतपुण्यकर्मणाम्, प्रसन्न गंभीर पदा सरस्वती।। (किरातार्जुनीयम्)

विविध वर्णों से अलंकृत, सुनने में सुखप्रद, यहाँ तक कि शत्रु के भी हृदय को प्रसन्नता से आप्लावित कर देने वाली, प्रसन्न एवं गंभीर पदों से अलंकृत वाणी बिना पुण्य-कर्म के प्राप्त नहीं होती।

आज कर्म-संस्कृति का अभाव हो चला है। बिना कर्म किए ही व्यक्ति सब-कुछ पा लेना चाहता है। पहले बाजार में बैठकर भी पुरुषार्थ करना पड़ता था, तब अर्थ-संपन्नता आती थी। वह अर्थ-संपन्नता अनुभव और कर्मनिष्ठा के साथ होती थी। अब सारे लोग, मजदूर से लेकर किसान तक, व्यापारी से लेकर नेता तक और चपरासी से लेकर अधिकारी तक बिना श्रम के रातों-रात मालामाल हो जाना चाहते हैं। खेती किसान के पुरुषार्थ को अन्न-संपन्नता के रूप में सम्मानित करती थी। अब खेती व्यापारियों-उद्योगपतियों के व्यापार का आकर्षण हो गई है। वह खरीदी-बिक्री का खेल हो गई है। जमीनों के भाव आसमान छू गए और सड़कों के किनारों की कोई जमीन किसान के पास नहीं बची है। भूमि के व्यापार ने कृषिभूमि को लील लिया है। नगरों और महानगरों में भू-माफिया सरकार को ठेंगा दिखा रहे हैं। न्याय पर उन्हें पूरा भरोसा हो गया है कि चाहे कोई भी कुछ कर लें, न्याय उन्हीं के पक्ष में होगा। सब बिना श्रम किए कुबेर का पद और वैभव पाना चाह रहे हैं। तब ऐसे कलिकाल में पुस्तकों से माथापच्ची कर अपने भोगप्रिय जीवन को पसीने से तरबतर कौन करना चाहेगा? पर क्या पसीने के गीलेपन के बिना देह-राग गाया जा सकता है? यह देह साधना के धाम और मोक्ष के द्वार तक ले जाने वाली है।

कर्म का पाठ सृष्टि के आदि-बिंदु पर मनुष्य को उसकी जैविक-प्रकृति ने पढ़ाया। फिर माँ ने पढ़ाया। पिता ने उस पाठ को कर्म की पंक्तियों में फसल-फसल उगाया। गुरु ने पढ़ाया। गुरु ने सबद के गुह्य से अर्थ के प्रकाश में कर्म के ताप की उज्ज्वल धरती के दर्शन कराए। एक पुस्तक ग्रंथ बनती है। ग्रंथ के रूप में वह जीवन को गाते हुए जीवन में कर्म का आवाहन करती है। वह 'गीता' बन जाती है। उस आवाहन में कर्म के साथ ज्ञान, भक्ति, योग के अनंत अंतरपाठ और पुनर्पाठ चले आते हैं। जीवन का 'मोल' और सृष्टि-व्यापार का 'निमित्त' फलित और अर्थायित हो उठता है। पार्थ जीवन-रथ पर सवार होकर कर्मक्षेत्र के साथ धर्मक्षेत्र को भी सृजन, प्रवाह और अविराम जीवन-प्रक्रिया का अर्थ-संकल्प देने में सक्षम हो जाते हैं। कर्म का पाठ अमित-तोष उपजाता है, जिसमें सारी इच्छाएँ अनिर्वाच्य-विश्राम पाती हैं। मेरे युग के पार्थ को कर्म की गीता किस तरह पढ़ाई जाए? जबकि कर्म का पारायण और पुस्तक का पाठ उतना ही अनिवार्य है, जितना जीवन को सँभालकर जीना।

मनुष्य के पास पुस्तकों के रूप में सभ्यता और संस्कृति का एक सुपाठ है। एक समय था कि पठन-पाठन से मनुष्य का नाभि-नाल संबंध था। मनुष्य को प्राकृत से सुसंस्कृत बनाने में पठन-पाठन का आधार-मूल था। यह पठन-पाठन वाचिक और अध्ययन-अध्यापन दोनों से जुड़ा था। आज भी है, लेकिन उद्देश्य बदल गए हैं? पठन-पाठन का आधार लेकर जो संस्कार और जीवनानुभव हमारे पूर्वजों ने प्राप्त कर उन्हें पीढ़ियों की अमराइयों के रूप में सींचा, वे आज सूख चली हैं। आज पठन-पाठन मतलब-पूरता रह गया है। सब और सारी क्रियाओं-कर्मों के बीच 'अर्थ' आ धमका है। विद्यार्थी सिर्फ उतना ही पढ़ना चाहता है, जितने में वह परीक्षा पास हो सके। पढ़ने का संबंध रोजगार मात्र से जुड़ गया है। रोजगार या नौकरी प्राप्त होते ही पठन-पाठन पीछे, बहुत पीछे छूट जाता है। इसीलिए हमारे घरों में फालतू चीजें अधिक हैं। पुस्तकों के लिए या तो स्थान है नहीं, है तो अत्यल्प।

पठन-पाठन से दूर होकर हम क्या बनेंगे और कहाँ पहुँचेंगे? जिस पीढ़ी को पठन-पाठन में अपने किशोर-युवा जीवन का सर्वोत्तम लगाना चाहिए, वह हाथ में बातपेटी (मोबाइल), कान में फूहड़ संगीत के तार और पाँवों के नीचे मोटर साइकिल दबाकर बेतहाशा और बेमतलब सड़कों पर दौड़ रही है। कैसे युग में हम और हमारी संतान जा रही है कि हमारी जातीय स्मृतियाँ, परंपराएँ, सामाजिकताएँ, संबंधों की ऊष्माएँ और भावों की पावनताएँ हमसे विदा हो रही हैं। नालंदा और तक्षशिला जैसे वाचनालयों की न रक्षा कर सके और न ही उनके सरीखा दूसरा बना पाए। पुस्तकें घर से बिदा हुईं और अब तो अच्छी पुस्तकें बड़े पुस्तकालयों में भी मिलना दुर्लभ है, क्योंकि उन्हें पढ़ने से किसी को सरोकार नहीं रह गया है।

अति प्रदर्शनप्रियता ठीक नहीं होती। यह एक अंतहीन घुप्प सुरंग है, जिसमें लक्ष्यहीनता के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता है। यह कैसा आत्मघाती नशा है कि पूरी नई पीढ़ी फैशन के पीछे पागल है और उस पागलपन की आँच में तथाकथित पढ़े-लिखे एलिट वर्ग के अधेड़ बूढ़े लोग भी पिघल रहे हैं। यह कैसी पीढ़ी और कैसा युग है कि जिसने अपने महाविद्यालयीन जीवनकाल में 'गोदान' नहीं पढ़ा। 'गुनाहों का देवता' नहीं पढ़ा, और अपने समग्र जीवन के अशेष होते क्षणों तक भी 'रामचरितमानस', 'गीतगोविंद', 'कामायनी', 'कनुप्रिया', 'अंधायुग', 'मैला आँचल', 'उर्वशी' नहीं देख-पढ़ पाए। अपने परंपरा-बोध को समझना तो दूर उसके प्रति सम्मान प्रकट करने भर की चुटकी भर आस्था भी जिसके पास नहीं बच पाई है। संगीत को आत्मा के द्वारा ईश्वर की प्रार्थना कहा गया है। नृत्य को आंगिक चेष्टाओं की सात्विकता के माध्यम से ईश्वर की आराधना माना गया है। यह कौन-सा कानफाडू संगीत और कमरतोडू नृत्य है, जो जीवन में कामेच्छाएँ जगाकर विचलन पैदा करता है। ये बेसुध लोग और बेसुध क्रियाएँ किस तरह का व्यक्ति, समाज और राष्ट्र बना सकेंगी? कुछ नहीं कह सकते।

पठन-पाठन से दूर होते हम और हमारी लाख टके की जिंदगी बिन मोल बिकने को बाजार में प्रस्तुत है। परिणामतः एक कामचलाऊ भाषा हमारे पास रह गई है। हमारी भाषा से मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियाँ गायब होती जा रही हैं। भाषा का संस्कार एक तरह से हमारे व्यक्तित्व का भी संस्कार करता है। पठन-पाठन से दूर होते जाने के कारण भाषा का संस्कार भी हमारे पास नहीं आ पा रहा है। भाषा केवल वर्णों का समुच्चय और शब्दों-पदों की रचना मात्र नहीं है, वह संस्कृति की संवाहक और संस्कृति की आख्यायिका भी है। पठन-पाठन से जुड़कर ही हम मानव-विकास की सुसंस्कृत परंपरा का विकास कर सकेंगे।

हे मेरे समय देवता! अपने अंतरिक्ष के शून्य में और हवाओं के स्पर्श में मेरे युग के पार्थ के लिए नया किंतु अनुकूल वसंत न्यौतिए। पाँत-पाँत, शब्द-शब्द के झरते संदर्भों में नव-जीवन के नए अर्थ भरिए।


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