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निबंध

मकान उठ रहे हैं

कृष्णबिहारी मिश्र


मेरे ग्रामांचल में इधर निर्माण-कार्य बड़ी तेजी से चल रहा है। छप्परोंवाली ढाही का इलाका पक्के मकानों से समृद्ध होता जा रहा है। लगता है, ढाही के लोगों को सरकार ने आश्वस्त कर दिया है कि गंगा के रूद्र रूप का मुकाबला करने में वह पूरी तरह सक्षम है, ढाही कुछ बिगाड़ नहीं सकती, और शहरी डिजाइन के घर बनने लगे हैं। गाँव का चेहरा बदल रहा है, शोभा निखर रही है। झूठे लोग शिकायत करते हैं कि गाँववालों का गाँव से मन उचट रहा है। साफ दीख रहा है कि झोंपड़ी और माटी के घरों को ढाहकर लोग पक्का मकान बना रहे हैं, उसे नागर शैली में सजा-सँवार रहे हैं। जिस तेज रफ्तार से मेरे ग्रामांचल की रुचि बदल रही है, लागता है नीम-पाकड़ को काटकर हर दरवाजे पर अब जूही-कामिनी रोपी जाएगी, बबूल-बाँस को वन में खेद दिया जाएगा। नागर रुचि की गिरफ्त में उलझते, गँवई आदमी में प्रकृति-परिसर के प्रति अरुचि बढ़ती जाएगी। अपने नफीस घरों की हिफाजत में लोग अपने-अपने घरों में सिमट जाएँगे। बिजली की सुविधा चौपाल-अलाव की सामाजिकता को मार देगी, अपने-अपने टी.वी. सेट से लोग बँध जाएँगे। इक्कीसवीं सदी के पहुँचते-पहुँचते, लगता है, मेरे ग्रामांचल का चेहरा-चरित्र पूरी तरह बदल जाएगा।

मेरे जनपद के गंगा तटीय गाँव का मेरा विद्यार्थी पुरुषोत्तम बताता है कि बलिया का पानी बड़ा तेज है, माटी जरखेज है। राष्ट्रीय मसलों पर अगुआ की भूमिका पर रहता है बलिया। पुरुषोत्तम के धरती-स्वाभिमान पर मैं लाठी चलाना नहीं चाहता। किंतु सामाजिक विकृति से क्षत हो रही चारित्रिक संपदा के बारे में जब सवाल उठाता हूँ, पुरुषोत्तम मेरा मुँह ताकने लगता है, तथापि उसका जनपदीय स्वाभिमान मुझे ठीक लगता है। अपने हिसाब से वह ठीक ही सोच रहा है। राहुलजी जैसे महापंडित ने बागी बलिया की प्रशंसा की है। सन 1942 के जातीय आंदोलन के पन्ने बाँच-बाँचकर नई पीढ़ी गर्व-स्फूर्त है, तो मन में आश्वास-बोध जगता है कि अपनी विरासत के प्रति लोग सजग हैं। पुरुषोत्तम खुश है कि मड़ई-छप्परवाले ढाही के गाँव सँवर रहे हैं। ताबड़तोड़ उठने वाले पक्के मकान मेरे जवार की समृद्धि का स्पष्‍ट संकेत दे रहे हैं। दहेज-दैत्य का समृद्ध होता आतंक और गाँव-गाँव में चलनेवाले अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बढ़ती भीड़ गाँव की नई करवट की सूचना दे रही है कि जल्दी से जल्दी आधुनिक बन जाने को गाँव व्याकुल हो उठे हैं कि नए-नए मादक द्रव्यों से मेरे अंचल की तरुणाई का परिचय हो रहा है, और नई-नई पक्की सड़कें क्षीर के बड़े-बड़े पात्रों को बात की बात में शहरों में पहुँचाने लगी हैं। बेशक नई रोशनी का ढाही के गाँवों में प्रवेश हो गया है। साफ दीख रहा है कि नागर सभ्यता की लीला-भूमि बनने जा रही है मेरी करइल माटी। अभी हलके-से स्पर्श किया है और गँवई आबोहवा मरुआ गई है। टोल-पड़ोस तो दूर, अपने आँगन-ओसारे से लोग आतंकित रहने लगे हैं।

और नई शैली के मकान बड़ी तेजी से उठ रहे हैं। ढाही की संहार-लीला एकबारगी रुक नहीं गई है, सुस्ता रही है। जब कभी उग्र रूप धारण कर सकती है। बड़ा मुश्किल है काल देवता के महीन इशारे को समझना! और जागतिक महत्वकांक्षा का वेग समझदारों की भी समझ को मार देता है। मोह का प्रताप बड़ा सांघातिक होता है। अच्छे-अच्छे लोग धृतराष्ट्र बन जाते हैं। मेरे गाँव-जवार में धृतराष्ट्रों की अंधी पलटन खड़ी हो गई है, जिनकी करनी-करतूत की कथा सुनना पीड़क ही नहीं, अपने दुर्भाग्य का सबूत है। लोगों की प्रखर स्पर्धा के दो ही बिंदु हैं - दहेज और मकान। मकान के लिए दहेज का स्तर ऊँचा हो रहा है, और दहेज का भाव बढ़ाने के लिए नई डिजाइन के मकान उठ रहे हैं। नागर तहजीब से उसे अलंकृत किया जा रहा है। संतति को शहरी मुहावरे बलात रटाए जा रहे हैं ताकि सभ्यता की दौड़ में वह पिछड़ न जाए। ग्राम्य सहजता की धुरी को क्षत करने का कारबार बड़े जोर से चल रहा है। भौतिक वैभव अर्जित करने की व्याकुल स्पृहा बड़ों को इतना भी विचार नहीं करने देती कि बच्चों की रुचि और निजी क्षमता क्या है! सनकी आवेग में लोग अपने बच्चों को उस विद्या-व्यापार की ओर झोंक रहे हैं जिसकी सनद मिलते ही पैसे की वर्षा होने लगती है। पॉलीटेकनिक स्कूल में भर्ती होने और पुलिस की नौकरी पाने पर समान उल्लास से गाजे-बाजे के साथ देवता पूजे जाते हैं, कीर्तन-अनुष्ठान आयोजित होते हैं, छोटा-मोटा भोज दिया जाता है। बड़ी तेजी से शिक्षा फैल रही है! गाँव-गाँव में अँग्रेजी माध्यम के स्कूल, उच्चतर विद्यालय और महाविद्यालय खुल रहे हैं। भोजपुरी किसान भी अपने घर के दूल्हे को अँग्रेजी पोशाक से सज्जित करना जरूरी मानने लगा है। गाँव अपना मुहावरा बड़ी तेजी से छोड़ने लगा है। गाँव को खबर हो गई है कि इक्कीसवीं सदी दरवाजे पर दस्तक देने लगी है। जड़ वस्तुओं का भाव ऊँचा उठनेवाला है, और गाँव के सिवान-बथान उसके स्वागत की तैयारी में लग गए हैं।

अपने गाँव के वाचासिद्ध रामनरेशजी से बतियाने का अपना अलग सुख है। उनकी बतकही में छंद का लालित्य बराबर बना रहता है। मेरी चिंता को टोकते रामनरेशजी कहते हैं, "मकान नहीं उठ रहे हैं ककऊ, गाँव की रहनि मटियामेट हो रही है। गाँव का गला घोंटने शहर अपनी मोहिनी मुद्रा लिये गाँव में घुस गया है। हर दरवाजे दुकान खुलेगी। प्रत्येक बस अड्डे पर सिनेमा घर खुलेगा। प्रेमचंद के घीसू-माधव की शैली में बाप-बेटे एक साथ दारू पीकर नाचेंगे? देखते रहिए; गाँव मरकर रहेगा।" आहत गँवई संवेदना रामनरेशजी के कंठ से मुखर है। बदल रहे गाँव के चेहरे-चरित्र से रामनरेशजी की जाति के कुछ खाँटी ग्रामीण मानुष उदास हैं। उदासी का कारण यह नहीं है कि तरक्की के स्वागत की उदारता की उनमें कमी है। उदासी का कारण उनका विश्वास है कि रहनि बिगड़ रही है। अपनी चारित्रिक पहचान से सुख का सौदा करना केवल उसी के लिए संभव है जिसके संस्कार की जड़ें गहराई तक नहीं पहुँची हैं। ग्रामीण परिदृश्य ऐसे ही सौदागरों से भरता जा रहा है। वे कितने सुखी हैं, यह तो ज्वरमापक यंत्र की तरह कोई यंत्र होता तो सही अंदाज मिलता! जो कुछ दीख रहा है, वह भौतिक समृद्धि से सँवरता गाँव का चेहरा है और गाँव में घुसती शहर की बीमारी है। रईसों के रोग के दंश से दहकते गाँव के लोगों पर नजर पड़ती है तो चिंता होती है कि कहीं कुछ गोलमाल है। व्याधि-कवच का काम करनेवाली मनःलोक की सहजता संक्रांत हो गई जान पड़ती है और लोग दुख से दहकने लगे हैं। विनोबा की स्वतंत्र निदान दृष्‍टि है, "आखिर आज के जमाने में कौन-सी ऐसी घटना घटी, जिससे इसे 'दुख का जमाना' कहना पड़े? सुख के साधन बढ़े, आराम और मौज-शौक की ढेरों चीजें बनीं - यही वह घटना है जिसने इतने बड़े दुख को जन्म दिया है। सुख का जन्म जब होगा तब होगा, पर इस समय तो हम दुख का जन्मोत्सव मना रहे हैं।" इसका प्रधान कारण है करण-विरति और उपकरण-संसक्ति। नए-नए मकान जो उठ रहे हैं, उपकरण से प्रीति जिस मात्रा में प्रगाढ़ होती है, संवेदना उसी मात्रा में शिथिल होती है और निजी सुख की अनियंत्रित आकांक्षा से लोग पागल हो जाते हैं। यह विकास नहीं, विनाश का रास्ता है। इस राह पर भी भीड़ बढ़ रही है। दरिद्र मनु को सुख की दिशा दिखाते श्रद्धा कहती है :

अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,

यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।

औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ,

अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।

मगर भोग-सुख का वेग विवेक की आवाज नहीं सुनता। गाँव-जवार के सुख की चिंता चेष्टा तो दूर, अपनी संतान के सुख को हड़पकर ययाति-शैली में अपनी भोग-भूख तृप्त करने को लोग धृष्‍ट हो गए हैं। रुपये के थैलों से घर को भरने वाले बेटों से बाप उस स्रोत के बारे में कभी नहीं पूछता, जो साधारण नौकरी में लगे बेटे की थैली को भरते हैं। शायद तब भोग में बाधा पड़ेगी, शायद तब मकान नहीं खड़े हो पाएँगे। और मकान धड़ल्ले से उठ रहे हैं। हल्ला है, गाँव से 'दलिद्दर' भाग रहा है, समृद्धि गाँव की परिणीता बनकर आ रही है। मगर उन असंख्य आँगनों में सगुन गीत नहीं गूँजते जो आर्थिक अभाव से उदास हो गए हैं और वर्षों से कुँआरी युवतियाँ अपने सिंदूर की मूक प्रतीक्षा करते आँगन की उदासी को सघन बना रही हैं। इस श्रीहीन आँगनों पर किसी की नजर नहीं पड़ती। दूसरे के दुर्भाग्य से जुड़ने का सीधा अर्थ है - अपने विलास-वैभव में कटौती करना। इसके लिए कोई तैयार नहीं है। समूह-साधना गाँव के चरित्र की ज्वलंत पहचान थी, जो बुझ रही है। विनोबा अपनी सिद्ध शैली में गाँव को ही नहीं, दुनिया को सचेत करते हैं, "आपके सामने दो ही पर्याय हैं - सामूहिक साधना या सर्वनाश। दोनों में से एक चुन लें - या तो आध्यात्मिक साधना कर पृथ्वी पर स्वर्ग उतारें या पृथ्वी के साथ स्वयं और स्वयं के साथ पृथ्वी को लेकर खतम हो जाएँ।" मेरे ग्रामांचल का ही नहीं, दुनिया का रुझान दूसरे विकल्प की ओर है। राम जानें, इस प्रवृत्ति का परिणाम क्या होगा? विवेकानंद तो इसका परिणाम अशुभ ही बताते हैं। उनकी धारणा है कि "जिनका जीवन संपूर्ण जगत को व्याप्त किए हुए हैं, वे ही जीवित हैं, और हम जितना ही अपने जीवन को शरीर आदि छोटे-छोटे सात पदार्थों में बद्ध करके रखेंगे, उतना ही हम मृत्यु की ओर अग्रसर होंगे। जितने क्षण हमारा जीवन समस्त जीवन में व्याप्त रहता है, दूसरों में व्याप्त रहता है, उतने ही क्षण हम जीवित रहते हैं," तो क्या हमारे ग्रामांचल की मृत्युमुखी यात्रा शुरू हुई है? चिंता होती है।

नए उठनेवाले मकान का शिल्प अशुभ संकेत दे रहा है। पुराने मकान का छंद, चाहे छोटे हों या बड़े, माटी के हों या पक्के, आँगन और ओसारे से समृद्ध होता था। नागर शिल्पवाले मकान में आँगन सिकुड़ गया है और लंबे ओसारे को खुशनुमा ड्राइंग रूप में रूपांतरित कर दिया गया है। तर्क समझ में आता है कि कम जगह में उपयोगी और सुंदर घर बनाना समय का तकाजा है। और बात स्पष्‍ट होती है कि हर प्रकार की लघुता ही युग धर्म की पहचान या लाचारी बन गई है, जो आदमी को समष्टि से विलग कर रही है। संयुक्त परिवार का बोध और आग्रह था, तब आपस में लड़ते-झगड़ते, एक-दूसरे के दुख-सुख में शरीक होते पूरा गाँव एक परिवार था। तब मकान में आँगन-ओसारे का न होना अमंगल माना जाता था, दारिद्र्य का परिचायक। रात-बिरात आनेवाले अतिथियों की बाट जोहते रहते थे ओसारे और भाई-भवद्द की उल्लास-मुखर उपस्थिति से समृद्ध रहते थे आँगन। पुरानी चाल को नई रोशनी ने धक्का दिया है। 'ड्राइंग रूम' का कपाट खास के लिए खुलता है। ओसारे की उन्मुक्तता उसके स्वभाव के विपरीत है। अचरज नहीं, आँगनविहिन नागर शैली के मकानों से जब गाँव की शोभा बदल जाएगी, शहरों की तरह गाँवों में भी भोजन-परिवेशन के लिए किराये के लोग बुलाये जाएँगे। भवद्दी का; समष्टि-सूत्र का कुछ भी मतलब नहीं रह जाएगा। और तब गाँव की स्वकीयता बिला जाएगी। निजी सुख की संकीर्ण परिधि में सिमटने की लालसा सुख के मूल आस्वाद को ही चबा जाएगी। शहर की आबोहवा ने गाँव को हलके से स्पर्श किया है और लोग बेचैन हो गए हैं।

जैसे-जैसे गाँव में भोग-सुविधाएँ बढ़ रही हैं, गाँववालों का गाँव से मन उचट रहा है। यह दुर्भाग्य की हद है कि गाँव की संतान का अपनी जन्मभूमि से मन फट रहा है। क्या कारण है कि शहरी सुविधा से संपन्न होते अपने गाँव से नाता तोड़कर लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं? मुझे लगता है और मेरे गाँव के रामनरेशजी भी बताते हैं कि गाँव की रहनि बिगड़ गई है, वह शहर का नकलची बन गया है। आदमी और आदमी को माँ की तरह एक संवेदना-सूत्र में बाँधे रहनेवाले गाँव में दोगली बयार बहने लगी है। सुरक्षा और भाव-पोषण का आश्वासन कमजोर हो गया है। धरती, माँ, और अपने टोल-पड़ोस, घर-आँगन के लोगों से कृत्रिम, सुचिक्कन, किंतु निहायत अनात्मीय मुद्रा में व्यवहार करना गँवई संस्कार के प्रतिकूल है। मगर यही प्रतिकूल व्यवहार-शैली आज गाँवों में क्रियाशील है। गाँव की विपथगामी यात्रा से रामनरेशजी की जाति के लोग क्षुब्ध हैं। पुरुषोत्तम की कैशोर मति प्रसन्न है कि उसके अंचल की प्रगति की रफ्तार तेज हो रही है। एकाएक मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति याद आती है; 'हम तेल ढुलकाकर दीये को हैं जलाना चाहते, काटे हुए तरु में मनोहर फल फलाना चाहते।' ग्रामीण संवेदना का गला घोंटकर लोग सुखी होने को व्याकुल हैं। मानवीय गुणवत्ता को तिलांजलि देकर भौतिक उपकरणों से अधिकाधिक समृद्ध होने की स्पर्द्धा में लोग क्या-क्या नहीं कर रहे हैं और ले डूबनेवाला बोझा भारी हो रहा है।

भौतिक समृद्धि का निषेध नहीं करता भारत। बहुमुखी समृद्धि को हाँक लगाते ऊँची आवाज टेरता है भारत का पुरा साहित्य। जागतिक शोभा का मोल वह किसी से कम नहीं आँकता। सौंदर्य की उद्दाम लहरों से समृद्ध है भारत का वाड़्मय-सिंधु। विशिष्‍टता है भारत की कि अल्प और महत् के भेद-विवेक को उसने कभी शिथिल नहीं होने दिया। भारत की प्रज्ञा भूमा को ही वास्तविक सुख मानती है, उसी के लिए भारत का मन लालायित रहता है। जागतिक वैभव और जड़ वस्तुओं के संग्रह-सुख को वह अल्प सुख मानता है और उससे तुष्ट नहीं होता। सनातन काल से भारतीय प्रज्ञा चिल्लाती रही है, 'नाल्पे सुखमस्ति भूमा वै सुखम्' भूमा का सुख ही वास्तविक सुख है। अल्प के सुख के प्रति जो मोहासक्त है, वह जैसे-जैसे अपना बोझा बढ़ा रहा है, उसकी व्याकुलता बढ़ती जाती है। साफ दिखाई पड़ रहा है कि विपुल भौतिक संपदा के स्वामियों का मन बड़ा अशांत है। मेरे ग्रामांचल के लोग भी भूमा की राह छोड़कर दूसरी दिशा में धावन करने लगे हैं। जड़ वस्तुओं की मोहासक्ति बोझा को न फेंकने देती है और न बोझे का भारीपन ढोया जाता है। बड़ी त्रासद और दयनीय दशा है उनकी। इसी को लोग प्रगति और समृद्धि कह रहे हैं! पदार्थवादियों की भाषा का तेवर भी खूब होता है। रामनरेशजी की भाषा का लालित्य बड़ा व्यंजक है। संस्कृति के ज्वलंत प्रश्न से जूझती है उनकी भाषा।

मेरे साथ अध्यापन करनेवाली कांचन कुंतला मुखोपाध्याय का तेवर भी बड़ा व्यंजक है। फूहड़ प्रसंगों पर तीखा क्षोभ प्रकट करती हैं। भगिनी प्रतिम बाँग्ला कवयित्री डॉ. कांचन कुंतला मुखोपाध्याय प्रख्यात कथाशिल्पी तारा शंकर बंद्योपाध्याय की नातिन हैं। कक्षा-विरति के क्षणों में कुंतला से गपशप करने का अवसर पाना सुखद लगता है। वह भी प्राध्यापक-कक्ष में बैठे संस्कृति-चर्चा के लिए मेरे अवकाश के क्षणों की प्रतीक्षा करती रहती हैं। नई संवेदना की कवयित्री हैं, मगर रवींद्रनाथ को हमेशा गाती रहती हैं। मनुष्य के संस्कृति-बोध पर छा रहे व्यवसायवाद के प्रदूषण से खीजती रहती हैं। वस्तु-संग्रह की सनकी स्पर्द्धा को कुंतला मनुष्य के दुख का सबसे बड़ा कारण मानती हैं। वस्तु-समृद्धि का अनिवार्य परिणाम भाव-दारिद्र्य होता है, यह सत्य लोगों की समझ में आ जाए तो शायद अधिकांश लोग इस सौदे से मुँह फेर लें। कुंतला इस रास्ते सोचती हैं। और वह रवींद्रनाथ को गाती हैं :

तुमी जतो भार दियेछो से भार करिया दियेछो सोजा।

आमी जतो भार जमिये तुलेछी सकली होयेछे बोझा।

ए बोझा आमार नामाओ बंधु नामाओ -

भारेर बेगेते चलेछी कोथाय ये यात्रा तुमी थामाओ॥

आपनी जे दुःख डेके आनी सेजे जालाय बज्रानले।

अंगार करे रेखे जाय सेथा कवनो फल नाही फले॥

तुमी जाहा दाव से जे दुखेर दान,

श्रावन धाराय वेदनार रसे सार्थक करे प्रान।

जे खाने जा किछु बोयेछी केबल सकली करेछी जामा।

जे देखे से आज माँगे जे हिसाब...

के हो नाही करे खमा।

ऐ बोझा आमार नामाओ बंधु नामाओ।

भारेर बेगेते ठेलिया चलेछी ये यात्रा मोर थामाओ।

प्रदूषित प्रवाह में बहते लोक-जीवन की वेदना को रवींद्रनाथ की संवेदना ने महसूस किया था। जो कुछ निसर्ग प्रदत्त है, सहज है, वही सोझा है और इसीलिए सुखद है, मगर जो कुछ हमने बटोरा है, अपने वैभव के प्रदर्शन के लिए वह बोझा बन गया है। इतना भारी बोझा कि समय रहते उसे उतार नहीं फेंकते तो गर्दन के टूटने का डर है। मगर रवींद्रनाथ की चेतावनी पर कहाँ किसी ने ध्यान दिया? ध्यान दिया होता तो वस्तु-संग्रह की ऐसी उत्कट स्पर्द्धा कम-से-कम भारत की धरती पर नहीं दिखाई पड़ती! उपभोक्ता संस्कृति की लहर से गाँव बच गए होते तो बड़ा भारी आश्वासन बचा रहता है मगर किसे चिंता है टूटते आश्वासन की! वस्तु-तृषा के कायल लोग अपना सबकुछ गँवाकर धन को बचाने-बढ़ाने के लिए व्याकुल हैं। पाप-विद्ध समाज उसी को महत्व दे रहा है, धर्म मान रहा है। वह बेटा सबसे लायक समझा जाता है जिसकी पापबुद्धि ज्यादा पुष्ट और प्रखर है। मकान उठने का वही हेतु है। और गाँवों की छाती पर (कैसे कहूँ कि पाप की नींव पर!) शहरी शैली के मकान उठ रहे हैं। मेरा स्नेहभाजन पुरुषोत्तम अपने अंचल की समृद्धि देखकर खुश है। इच्छा होती है, अपने गाँव के वाचासिद्ध रामनरेशजी के अंदाज में उसे टोकूँ कि मकान नहीं उठ रहे हैं, ग्रामीण संस्कृति की नींव हिल रही है। उसकी भावना घायल हो जाएगी, सोचकर चुप लगा जाता हूँ। मगर चिंता होती है, किस अशुभ बयार की गिरफ्त में आ गई है मेरे ग्रामांचल की संवेदना कि सांस्कृतिक भूकंप के आतंक को लोग महसूस नहीं कर रहे हैं? रामनरेशजी की जाति के कुछ लोग जरूर उदास हैं, मूल्यों की भयावह ढाही को देखकर। इतना ही आश्वासन बचा है कि कुछ लोग प्रवाह से दूर खड़े उस पर बेलाग टिप्पणी कर रहे हैं। वे लकीर के फकीर नहीं हैं, लोक-चरित्र के जागरूक पहरुए हैं। ढाही से जूझ रहे हैं।

मनुष्य चूँकि रचनात्मक ऊर्जा का मालिक है, इसलिए वह यथास्थिति को आँख मूँदकर स्वीकार नहीं कर सकता। जीर्ण दीवारों के प्रति मोहासक्ति निश्चय ही प्रतिभा और पुरुषार्थ का लक्षण नहीं है। मनुष्य की संघर्षप्रियता और संस्कृति-सुमुखता को बहुमान देते स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि "हम प्रकृति के सहायक होकर नहीं जन्मे हैं, वरन हम तो प्रकृति के प्रतियोगी होकर जन्मे हैं। हम बाँधने वाले होकर भी स्वयं बँधे जा रहे हैं। यह मकान कहाँ से आया? प्रकृति ने दिया नहीं। प्रकृति कहती है, 'जाओ, जंगल में जाकर बसो।' मनुष्य कहता है, 'नहीं' मैं मकान बनाऊँगा और प्रकृति के साथ लड़ूँगा।' और वह ऐसा कर भी रहा है। मानव-जाति का इतिहास तथाकथित प्राकृतिक नियमों के साथ लगातार संग्राम का इतिहास है और अंत में मनुष्य की प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है।" इसलिए जीर्ण दीवारों के साथ नई रोशनी की लड़ाई अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन पुरानी दीवारों के साथ मूल्यों के धरातल का ढहना आतंक पैदा करनेवाले अमंगल का संकेत है। इसलिए मनुष्य के अंतर्जगत में निरंतर क्रियाशील पाशव भाव और मानुष भाव के संघर्ष में मनुष्य जब हारने लगे तो मूल्यों के प्रहरी को सहज ही चिंता होती है। पापविद्ध बयार संवेदना का संहार करने पर आमादा है। रामनरेशजी की चिंता सहज है। पुरुषोत्तम का उल्लास भी स्वाभाविक है। पुरानी दीवारों का गिरना भी बुरा नहीं है। नए मकानों का उठना भी शुभ है। अशुभ है गँवई पहचान को मारकर गाँवों की शोभा बढ़ाना, संवेदना से छूँछ होकर समृद्धि का दंभ ढोना। दुर्भाग्यवश मेरा ग्रामांचल आज इसी अशुभ बयार की चपेट में आ गया है। रामनरेशजी इसीलिए उदास और क्षुब्ध हैं।


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