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निबंध

पूर्व और पश्चिम

निर्मल वर्मा


मैं अपनी बात एक स्मृति से आरंभ करना चाहूँगा। कुछ वर्ष पहले मुझे एक सम्मेलन में कोलोन जाने का अवसर मिला था। बात 1982 या 83 की है, जब एक ओर पश्चिम और दूसरी ओर सोवियत संघ के बीच तनाव चरमोत्कर्ष पर था। जर्मनी की एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने विश्व के लेखकों को आमंत्रित किया था, ताकि शीत-युद्ध के स्थान पर शांति का विमर्श आरंभ किया जा सके। संयोग से उस सम्मेलन में मैं जिस लेखक के पास बैठा था, वह नोबेल पुरस्कार विजेता हाइनरिख ब्योल थे... उनके व्यक्तित्व ने मुझे सहज रूप से आकर्षित कर लिया... सीधे-सादे मजदूर-से दीखनेवाले व्यक्ति, जिनका चेहरा झाड़-झंखाड़-सी दीखनेवाली झुर्रियों से अँटा था। उनका भाषण भी उनके व्यक्तित्व की ही तरह इतना सहज मानवीय गरिमा से भरा था कि उसके कुछ अंश मुझे आज भी याद रह गए हैं...बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा, कि जिस विषय पर मैं आज जो कुछ कहने जा रहा हूँ, उसके बारे में सोचते हुए मुझे अनायास उनके वे वाक्य याद हो आए हैं, जिन्हें मैं लगभग भूल चुका था-'दुनिया के लोग एक-दूसरे से कितने अलग हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है,' उन्होंने कहा था, 'यदि आप पश्चिम के किसी मेट्रोपोलिटन शहर - लंदन, पेरिस या न्यूयॉर्क के कैफे में बैठकर सड़क पर चलते हुए लोगों को देखें, तो आप उनकी चाल-ढाल, उनकी भाव-भंगिमाओं, उनके हँसी-ठहाकों, उनके इशारों, उनके नाज-नखरों को देखकर पता चला सकते हैं, कि कौन किस देश का है... अंग्रेज, फ्रांसीसी, रूसी, आइसलैंडी... जब यूरोप निवासी ही अपने व्यवहार और बोलचाल में इतना एक-दूसरे से अलग हैं तो पूर्वी देशों के निवासी तो उन्हें किसी दूसरे प्लेनेट के प्राणी ही जान पड़ेंगे...' और तब मुझे किपलिंग महाशय का प्रसिद्ध वाक्य याद आया जो उन्होंने पूर्व और पश्चिम के बारे में कहा था - 'East is East & West is West' - पूर्व में भी कितने पूर्व हैं, और पश्चिम में कितने पश्चिम-जिसकी किपलिंग महोदय ने कल्पना भी न की थी...

इस दृष्टि से साहित्य अन्य समाजशास्त्रीय अनुशासनों से थोड़ा अलग हो जाता है... वह मनुष्य के सरोकारों और भावावेगों से संबंधित होता हुआ भी मनुष्य की एकाश्मिक छवि प्रस्तुत नहीं करता। हर साहित्यिक कृति अपना एक निजी 'मनुष्य' रचती है, जो दुनिया में चलते-फिरते मनुष्यों की ही तरह दिखता है, किंतु उसके स्वभाव में एक अजीब-सी ऐंठ या अनोखापन, अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल करें, तो एक तरह की ideosyncray होती है, जो उसे सामान्य मनुष्य से 'व्यक्ति' में परिणत करती है। एक उपन्यास के पात्र अपनी रुचियों और रुझानों में कितने एक-दूसरे से भिन्न जान पड़ते हैं-हर व्यक्ति अपनी एक विशेष दुनिया लेकर चलता दिखाई देता है। पर अगर हम जरा ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इस दुनिया के कुछ नियम हैं, जिसका अनुसरण एक विशिष्ट समुदाय, जाति या धर्म-संप्रदाय के सदस्य एक 'अलिखित समझौते' के तहत करते हैं। डिकेंस के उपन्यासों के पात्र चाहें एक-दूसरे से वैयक्तिक स्तर पर क्यों न भिन्न हों, वे एक सामान्य भाषाई अस्मिता, नैतिक संहिता और ऐतिहासिक स्मृति से जुड़े हैं, जो उन्हें प्रेमचंद अथवा लू शुन के पात्रों की दुनिया से बहुत दूर जा फेंकती है। वे सिर्फ उपन्यासों के पात्र नहीं हैं, एक खास संस्कृति के सदस्य भी हैं।

मैंने अभी ऊपर कहा कि पश्चिम में भी अनेक पश्चिम हैं। आखिर फ्रांसीसी साहित्य अपने इतिहास, भाषाई तेवर और कलात्मक संवेदनाओं में अंग्रेजी या जर्मन या रूसी साहित्य से बहुत भिन्न है - यूरोप का कोई ऐसा देश नहीं, जिसका साहित्य हम पर अपनी विशिष्ट छाप न डालता हो... किंतु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन जातीय और ऐतिहासिक भिन्नताओं के बावजूद उनके भीतर एक ही सांस्कृतिक चेतना स्पंदित होती है, यूरोपीय या पश्चिमी चेतना, जो पूर्व की सांस्कृतिक चेतना के आधारभूत बिंबो और प्रत्ययों से बुनियादी तौर पर अलग जान पड़ती है।

अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पेनिश भाषाएँ एक-दूसरे से अलग होते हुए भी चेतना के स्तर पर एकसूत्रित संदर्भों से बँधी है-यूनानी सभ्यता की पीठिका और ईसाई-यहूदी धार्मिक परंपराओं ने यूरोप को एक ऐसी सांस्कृतिक इकाई में ढाला है, जो एशिया-विशेषकर भारत की जीवन-दृष्टि और आध्यात्मिक चरित्र से बहुत अलग हो जाती है। यही कारण है कि संस्कृत में रचे अनेक दार्शनिक प्रत्ययों का यूरोपीय भाषाओं में कोई पर्याय नहीं मिलता... या उनका अनुवाद अशुद्ध होता है। यह अकारण नहीं था कि कुमारस्वामी जैसे विद्वान भारतीय दर्शन और उसके धर्म-ग्रंथों के यूरोपीय अनुवादों और टीकाओं के प्रति इतनी गहरी वितृष्णा रखते थे। यों भी किसी साहित्यिक कृति का विदेशी भाषा में अनुवाद अपना मर्म और सौंदर्य खो देता है और यदि वह भाषा किसी नितांत अलग सांस्कृतिक संदर्भों से संबंध रखती है - तब तो अर्थ का अनर्थ हो जाने की आशंका और भी अधिक बढ़ जाती है। अभी हाल में मैं रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यास 'गोरा' का अंग्रेजी अनुवाद देख रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि अनुवाद अपने में अच्छा होते हुए भी उपन्यास के हिंदी अनुवाद की तुलना में, जिसे वर्षों पहले अज्ञेय ने किया था, बहुत ही शिथिल और रसहीन जान पड़ा। यह अंग्रेजी अनुवादक की कमजोरी नहीं थी, बल्कि हिंदी में जितनी सुगमता और सहजता से बाँग्ला भाषा की अर्थ-ध्वनियाँ अनूदित हो जाती हैं - दोनों भाषाओं के समान सांस्कृतिक संदर्भों के कारण, उतना अंग्रेजी में उपलब्ध हो पाना असंभव है। यूरोपीय भाषाओं की तरह भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक समान सांस्कृतिक स्मृति और परंपरा के कारण अपने अंतर्निहित स्वभाव में समान-रूपा हैं। यह संयोग नहीं, कि भारतीय कविता यूरोपीय भाषा में अनुदित होते ही अपनी लय, रसमयता, संगीत-ध्वनि जिस हद तक खो देती है, उतनी एक यूरोपीय भाषा में लिखी कविता किसी दूसरी यूरोपीय भाषा में अवतरित होकर नहीं। भाषा किसी जाति के भावनात्मक संवेगों का सबसे प्रामाणिक मानदंड है। यदि किसी जाति का भूगोल उसकी देह को चित्रित करता है, तो उसकी भाषा उसकी आत्मा की अंतरतम आकांक्षाओं को वाणी देती है। जिस भाषा में एक जाति अपना आत्म-बोध अर्जित करती है, वही अंतत: उसकी साहित्यिक कृतियों में लक्षित होती है... यही एक मूलभूत कारण है, कि कैसे ग्रीक महाकाव्य और नाटक मनुष्य को जो छवि प्रक्षेपित करते हैं, वह पूर्वी क्लासिकी ग्रंथों-विशेषकर संस्कृत के महाकाव्यों-महाभारत और रामायण की मानुष-अवधारणा से थोड़ा अलग दिखाई देती है। यह नहीं कि मनुष्य की मानवीय homosapien प्रक्रति में कोई अंतर आता है, सिर्फ साहित्य में उसका 'रूपांतरण' भिन्न हो जाता है। यह अंतर किस तरह आता है, इसकी चर्चा बाद में करूँगा।

अभी मैंने जो कहा, उससे यह निष्कर्ष निकालना बिल्कुल भ्रामक होगा कि पूर्वी और पश्चिमी साहित्य के बीच कोई 'लौह दीवार' खड़ी है, जिसे लाँघा नहीं जा सकता। सच पूछा जाए तो साहित्य का पूर्व और पश्चिम में विभाजन ही एक सीमा के बाद कुछ अटपटा-सा जान पड़ता है। क्या टॉलस्टॉय या दॉस्तोएवस्की उसी अर्थ में 'पश्चिमी' लेखक हैं, जिस अर्थ में हम बाल्जाक और फ्लाबे को मानते हैं?... क्या एक समकालीन भारतीय लेखक की चिंताएँ और सरोकार वैसे ही हैं, जो एक चीनी और ईरानी या जापानी लेखक के होंगे, यद्यपि दोनों ही भौगोलिक दृष्टि से पूर्वी या एशियाई लेखक माने जाएँगे और लातिन अमरीका लेखकों को किस कोटि में रखा जाएगा, जिनका भौगोलिक परिवेश अमेरिका का महाद्वीप है, किंतु सांस्कृतिक जड़ें यूरोप में हैं?... क्या साहित्य के बारे में इस तरह की सामान्यीकृत धारणाएँ थोड़ा भ्रामक और अति-सरलीकृत नहीं जान पड़ती?

यह एक सार्थक प्रश्न है, किंतु इसे पूछते ही अनेक शंकाएँ आ घेरती हैं, जिनका संबंध भूगोल की बाह्य सीमाओं से नहीं, आत्मा के अंदरूनी भूगोल से है, जिसे हर संस्कृति अपने भीतर लेकर चलती है। यदि यूरोपीय सभ्यता की मान्यताएँ और मर्यादा, उसका नैतिक मूल्यबोध, उसकी जीवन-दृष्टि पूर्व या भारत के भाव-बोध से भिन्न है - जैसा कि माना जाता रहा है तो क्या उनके साहित्य की मूल संवेदनाएँ भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं होंगी? यह नहीं कि हम अपनी संस्कृति के बाहर रचे गए साहित्य का रसास्वादन नहीं कर पाएँगे, एक स्तर पर साहित्य की अपील सार्वभौमिक होती ही है, किंतु हम उसमें मनुष्य की जो छवि, जो चेहरा देखेंगे वह उससे कुछ भिन्न होगा, जो हम अपनी साहित्यिक कृतियों में देखते आए हैं। शायद यह संयोग ही था कि कलकत्ता आने से पूर्व मैं होमर की अमर कृति इलियड अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ रहा था। आप सब जानते ही हैं कि वह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसने समूची यूरोपीय परंपरा और संस्कृति को गहनतम स्तरों पर प्रभावित किया है। युद्ध की विभीषिका इलियड में उतनी ही भयानक और हृदयद्रावक है जितनी हम महाभारत में देखते हैं... दोनों ही महाकाव्यों में प्रतिहिंसा और विजय पाने की लालसा एक जैसी बलवती और विनाशकारी है, किंतु ट्रॉय के मैदान में सैनिकों के वध के ब्यौरे जितनी बारीक सूक्ष्मता और क्रूर जीवंतता के साथ होमर देता है, उतना महाभारत का कवि-लेखक नहीं....पश्चिमी महाकाव्य में एक तरह की ठंडी वस्तुपरकता है, जहाँ खून में सने सैनिकों के शव उसी तरह धूल में लोटते हैं, जैसे किसी भीषण आँधी में पेड़ों के धड़ गिरते हैं। भारतीय महाकाव्य में भी युद्ध की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है, किंतु वहाँ कुरुक्षेत्र सिर्फ लड़ाई का मैदान नहीं है, वह धर्मक्षेत्र भी है; नीति और न्याय के परिप्रेक्ष्य में ही महाभारत अपनी काव्यात्मक गरिमा अर्जित करता है। पश्चिम के महाकाव्य में नायकों के प्राकृतिक संवेग-अचिलीस का क्रोध, पैरिस की कामुक वासना अधिक मुखर होकर आती है, ऐसा नहीं कि ये पाश्विक प्रवृत्तियाँ महाभारत में नहीं हैं, किंतु धर्म और अधर्म को लेकर जो नैतिक शंकाएँ उठती हैं, स्वयं युद्ध के औचित्य को लेकर जो पीड़ायुक्त बहसें और आत्म-मंथन होता है, उसका लेश-मात्र भी ग्रीक महाकाव्य में दिखाई नहीं देता। क्यों? ऐसा क्यों है? दोनों महाकाव्य हमें अभिभूत करते हैं, क्योंकि वे जीवन के किसी अनुभव से - वह चाहे कितना ही भयावह, कटु और जघन्य क्यों न हो, आँखें नहीं चुराते। ऑल्डस हक्सले ने अपने सुंदर निबंध 'Epic and the whole truth' में बहुत सुंदर व्याख्या की है - दोनों काव्य महान हैं, क्योंकि वे जीवन के संपूर्ण सत्य को व्यक्त करते हैं... फिर क्यों हमें इन दोनों के बीच इतना गहरा अंतर दिखाई देता है?

ध्यान से देखें, तो यह अंतर सिर्फ दो काव्य-कृतियों का नहीं है, बल्कि दो सांस्कृतिक परंपराओं के बीच है, जिसमें मनुष्य की अवधारणा ही एक दूसरे से थोड़ी भिन्न है। मनुष्य का 'मनुष्यत्व' क्या है, यह सिर्फ एक दार्शनिक प्रश्न नहीं रहता, बल्कि उन मूल प्रेरक-शक्तियों, motive forces की ओर संकेत करता है, जो किसी महाकाव्य के नायकों-इलियड में अगमिमनॉन, महाभारत में अर्जुन, वाल्मीकि रामायण में राम के निर्णयों को संचालित करती है। इन कृतियों में मनुष्य की छवि कैसी उभरकर आती है, यह इस पर निर्भर करता है कि मनुष्य अपने 'आत्म' self को केवल दूसरे मनुष्यों से नहीं, बल्कि बाहरी शक्तियों से कैसे जोड़ पाता है... भारतीय परंपरा में मनुष्य का 'आत्म' उसके अहं (इगो) की तुलना में बहुत बृहत्तर है, जो अपने को जीव-जगत की समस्त सत्ताओं से अंतर्संबंधित पाता है। हर व्यक्ति, अच्छा हो या बुरा, उच्च जाति का हो या निम्न जाति का, राजा हो या प्रजा का साधारण सदस्य-दायित्वों की पूरी श्रंखला में बँधा है। वह उस तरह से निजी संकल्प का वाहक नहीं है, जैसे यूरोपीय परंपरा में 'व्यक्ति' की अवधारणा है - अपेक्षाकृत स्वायत्त प्राणी, जो दूसरों के बीच रहता हुआ भी अपना निज सुरक्षित रखता है...एक अहंकेंद्रित जीवात्मा, जो दूसरों से संबंधित होती हुई भी अपने को कहीं बहुत अधूरी और आरक्षित पाती है।

यह महज ऐतिहासिक संयोग नहीं था कि पश्चिमी साहित्य में 'ट्रेजडी' जैसी सशक्त, सांद्र, विस्फोटक विधा का आविर्भाव इसलिए संभव हो सका क्योंकि वहाँ मनुष्य और मनुष्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्म और अन्य के बीच की खाई इतनी अँधेरी और अलंघ्य जान पड़ती है। यह नहीं कि भारतीय साहित्यिक कृतियों में हमें ऐसे पात्र नहीं मिलते, जो आत्म-छलनाओं के घटाटोप से विमूढ़ित नहीं होते, हमारी पौराणिक कथाओं में माया और यथार्थ की लीला अनवरत चलती है, किंतु ऐसी स्थितियाँ दुर्लभ हैं जहाँ हैमलेट या किंग लियर की तरह मनुष्य स्वयं अपने यथार्थ के प्रति सशंकित हो जाता है, अपने निर्णयों के औचित्य के बारे में ही आश्वस्त नहीं हो पाता। भारतीय परंपरा में 'धर्म' की अवधारणा - वह चाहे अपने में कितनी अस्पष्ट और उभयभावी न हो, मनुष्य के समूचे जीवन को आप्लावित करती है... पश्चिम की एकेश्वरवादी संस्कृतियों में मनुष्य और ईश्वर का संबंध आस्था से बनता है और ज्यों ही ईश्वरीय सत्ता में आस्था क्षीण पड़ती है, स्वयं मनुष्य को अपना 'मैं' संदिग्ध और अपने कर्म 'स्वेच्छाचारी' arbitrary जान पड़ने लगते हैं। वह या तो ईडीपस की तरह नियति का बेबस पुतला बन जाता है या दॉस्तोएवस्की के अंडरग्राउंड प्राणी की तरह अभिशप्त, जिसे स्वयं अपने कार्यों के बीच किसी तरह की अर्थपूर्ण संगति दिखाई नहीं देती। वह हर दिशा में जाने के लिए स्वतंत्र है, पर कौन-सी दिशा उसे अपने 'आत्म' की ओर ले जाती है, इस बारे में दिग्भ्रमित है। यह कैसा विरोधाभास है कि जिस पश्चिमी परंपरा में मनुष्य बड़े दर्प, अभिमान और आक्रामक-भाव से अपने को सृष्टि के केंद्र में अवस्थित करता है, वहीं वह अपनी 'प्रकृति' के समक्ष स्वयं को इतना वध्य और वेध्य पाता है।

पूर्वी संस्कृतियों में विशेषकर भारतीय परंपरा में भी मनुष्य को यदि पृथ्वी और प्रकृति की जीव-सत्ताओं से 'ऊपर' माना गया, तो वह उसकी पाशविक शक्ति या ब्रूट फोर्स के कारण नहीं, बल्कि स्व-चेतना के आधार पर, जो उसे समूची सृष्टि में एक विशिष्ट दर्जा देती है। मनुष्य की आत्म-चेतना ही उसका स्वधर्म बन जाती है ताकि वह प्राकृतिक जगत की चर-अचर सत्ताओं के प्रति अपना दायित्व संपन्न कर सके। पश्चिमी परंपरा में 'संस्कृति' का आविर्भाव ही 'आदिम' शक्तियों को अपदस्थ करने में होता है। प्रकृति की बीहड़ अराजकता और मनुष्य के भीतर दबी आदिम प्रवृत्तियों के बीच अद्‍भुत समानता दिखाई देती है। किंगलियर के भीतर गूँजता हुआ मर्मभेदी हाहाकार बाहर गरजते हुए झंझावात की तरह ही उन्मत्त और तर्कातीत जान पड़ता है। इसके विपरीत वाल्मीकि रामायण और कालिदास के नाटकों में प्रकृति के प्रति किसी प्रकार का डर , अनिष्ट, आशंका या युयुत्सा-भाव दिखाई नहीं देता। समूचा प्राकृतिक परिवेश ऐसी पवित्र और जीवंत प्राणवत्ता में स्पंदित होता है कि हमारी स्मृति में केवल घटनाएँ ही नहीं, बल्कि घटना-स्थल, चित्रकूट का रमणिक परिदृश्य, पंचवटी का आरण्यक एकांत, अभिज्ञान शाकुंतल में कण्व ऋषि का तपोवन हम पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। प्रकृति उपभोग की वस्तु न होकर एक आंतरिक पवित्रता प्राप्त कर लेती है, जो भारतीय काव्य-परंपरा का प्रमुख लक्षण है... प्रकृति ही क्यों, क्या किसी महाकाव्य में पशु, पक्षियों का इतना जीवंत 'व्यक्तित्व' - मनुष्यवत, पर मानवीकृत नहीं, उभरकर आता है, जितना वाल्मीकि रामायण में, जहाँ हनुमान, बाली, सुग्रीव, जटायु, काग भुषुंडि की अविस्मरणीय भूमिकाएँ राम-कथा को नया आयाम देती हैं।

मुझे गलत न समझा जाए... यहाँ मेरा अभिष्ट दो विभिन्न परंपराओं में जन्मी साहित्यिक कृतियों की कलात्मक तुलना करना नहीं, सिर्फ उनकी मूल चालक शक्तियों की भिन्नता को निर्देशित करना है...मनुष्य और प्रकृति के बीच के अंतर्संबंध किसी कृति को उत्कृष्ट या निकृष्ट नहीं बनाते - सिर्फ उनकी विशिष्ट पहचान गढ़ने में सहायक होते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि अंतर्संबंधों का यह पैटर्न समूची कला की भाषा, शिल्प और मुहावरे पर गहरा प्रभाव डालते हैं। कभी-कभी तो काव्य के अंतर्निहित चरित्र को ही बदल डालते हैं। जिन संस्कृतियों में मनुष्य और प्रकृति दो विरोधी सत्ताएँ नहीं हैं, वहाँ काव्य और दर्शन उस तरह अलग-अलग कोटियों में विभाजित नहीं होता, जैसी प्लेटो की धारणा थी। भाषा पर तर्क या रीजन का प्रभुत्व कम होता है और वह अपने स्वभाव में रूपात्मक (metaphorical) अधिक होता है। गीता, जैसे उसके नाम से स्पष्ट होता है, गीत भी है, दर्शन भी, इसी तरह का सम्मिश्रण हम उपनिषदों और वैदिक ग्रंथों में भी देख सकते हैं। महाभारत न तो ईलियड की तरह सेक्यूलर काव्य है, न बाइबिल की तरह धर्मग्रंथ-उसमें दोनों के ही तत्व विद्यमान हैं। पश्चिमी परंपरा की तरह भारतीय मानस में दिव्य और लौकिक, धार्मिक और सेक्यूलर के बीच कोई स्पष्ट विभाजन-रेखा नहीं है। भक्ति-काव्य इसका सर्वोत्त्म उदाहरण है - कबीर, तुलसीदास, मीरा के काव्यात्मक सौष्ठव को क्या उनकी गहन आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से अलग किया जा सकता है? अचरज की बात तो यह है कि स्वयं यूरोप की महान साहित्यिक रचनाएं जिनके सरोकार शुद्ध रूप से संसारी और लौकिक जान पड़ते हैं-अपने सृजनात्मक चरमोत्कर्ष पर तभी पहुँच पाते हैं, जब वे पृथ्वी पर मनुष्य होने की अर्थवत्ता पर पीड़ायुक्त शंकाएँ प्रकट करते हैं...मैकबेथ की ये चिर-परिचित पँक्तियाँ क्या मनुष्य की घोर आध्यात्मिक पीड़ा को व्यक्त नहीं करतीं - Tomorrow, and Tomorrow… कभी-कभी मनुष्य का ईश्वर से अलगाव, उसकी पीड़ा, जीवन की क्षणभंगुरता का बोध, प्रेम की निस्सारता और बीहड़ अरक्षित अकेलापन, जैसा कि हम पश्चिम की साहित्यिक कृतियों में देखते हैं, अपनी सच्चाई और चुभन में हमें अधिक सच्ची जान पड़ती हैं-सेक्यूलर दुनिया के मरुस्थल को उसकी अर्थहीनता में उजागर करना, क्या यह अपने में एक आध्यात्मिक आभा उत्पन्न नहीं करता, जो झूठी धार्मिकता से कहीं ज्यादा हमारे अंतस्तल को आलोकित करती है?

इसमें संदेह नहीं कि कला और साहित्य की कृतियाँ एक विशिष्ट संस्कृति के उपादानों द्वारा ही अपने को हम तक पहुँचाती हैं, किंतु एक बार जन्म लेने के बाद वे उसकी बंदी नहीं रहतीं। हर महान कलाकृति अपनी ऐतिहासिक सीमाओं का अतिक्रमण करने की क्षमता रखती है-अपनी संस्कृति के स्मृति-संकेतों, मिथकों और भाषाई प्रत्ययों से गुजरते हुए हर कविता और उपन्यास मनुष्य के समग्र और सार्वभौमिक अनुभव को अलोकित कर पाते हैं... उसके सामने सहसा इतिहास, समय और संस्कृति की दीवारें ढह जाती हैं। यह सही है कि रामायण, महाभारत, भक्तिकाल के कवि मुझे जितने आत्मीय जान पड़ते हैं, उतना पश्चिमी साहित्य नहीं, किंतु यह भी सच है कि हमारे संवेदन-तंत्र के कुछ हिस्से ऐसे हैं, जिनसे हमारा साक्षात्कार तभी हो पाता है, जब हम किसी अन्य संस्कृति के कलात्मक अनुभव में आते हैं... और तब हमें सुखद आश्चर्य होता है कि जिसे हम बाहर का अनुभव समझते थे, वह हमारे भीतर पहले ही मौजूद था। यदि ऐसा न होता तो मैं यूनानी नाटककार सोफोक्लीज की एंटीग्नी, गोएटे के फाउस्ट और शेक्सपीयर के हैमलेट की शंकाओं, अंतर्द्वंद्वों से अपने को एकात्म कैसे कर पाता? क्या समय, संस्कृति और भाषाओं की सीमाओं को लाँघकर कालिदास के नाटकों और उपनिषदों के वेदांतिक दर्शन ने गोएटे, जर्मन रोमांटिकों और शॉपनहार को चमत्कृत नहीं कर दिया था - जैसे किसी ने उनके भीतर के बंद दरवाजों को खोल दिया हो, जो शताब्दियों से बंद पड़े थे, किंतु जिसे खोलने की चाभी किसी दूसरे के पास न थी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे मैं 'पश्चिम' कहता हूँ, वह कहीं पहले से ही मेरे भारतीय अनुभव संसार के भीतर बर्फ की तरह जमा है, जो यूरोपीय कलाकृति की थोड़ी-सी-धूप और गरमाई पाते ही पिघल कर हमारे भीतर बहने लगता है, कुछ वैसे ही जैसे पूर्वी संस्कृतियों का अवदान यूरोपीय मानस की परतों को उघाड़कर एक नई अंतर्दृष्टि देता है। हर उत्कर्ष कलाकृति अपने चरम क्षणों में अपनी संस्कृति की सीमाओं को भेदकर मानव प्रकृति के ऐसे अँधेरे, अज्ञात और आदिम कोनों को उजागर करती है जहाँ मनुष्य मात्र मनुष्य है - प्रेम, मृत्यु, ईर्ष्या, वासना और बलिदान की अनुभूतियों से लिथड़ा हुआ - महज पूर्व और पश्चिम का प्राणी नहीं।

यह सही है, किंतु जिस काल-गति से मनुष्य अपने जीने, अनुभव करने आदि की लय निर्धारित करता है, अवकाश के वे क्षण, जहाँ पर वह अपने से अपना रिश्ता बनाता है, क्या हर संस्कृति में एक जैसा ही रहता है? मनुष्य रहता एक ही दुनिया में है, किंतु उसके काल-खंड, समय व द्वीप एक साथ बहते हुए एवं दूसरे से कितने अलग दिखाई देते हैं। क्या एक आदिवासी कलाकार का 'समय' वही है, जिसमें 'आधुनिक' कलाकार रहता है? पश्चिमी सभ्यता में समय की अवधारणा अतीत, वर्तमान, भविष्य जैसी साफ-सुथरी कोटियों में विभाजित रहती हैं-जबकि अनेक पूर्वी संस्कृतियों के मानस में इस तरह का विभाजन कोई अर्थ नहीं रखता। हर संस्कृति का स्वरूप उसके काल-बोध द्वारा निर्धारित होता है और वही उसकी साहित्यिक विधाओं और कलाकृतियों को प्रभावित करता है। चीन, जापान और भारत में कुछ परंपरागत कथ्यात्मक शैलियों का विकास हुआ, जो यूरोप की उपन्यास विधा से बहुतभिन्न थी। यदि हम पिछले दो सौ वर्षों में यूरोप के इतिहास के काल-बोध के बंदी न होकर अपनी काल-प्रतीति को सुरक्षित रख पाते तो विक्टोरियन यथार्थवादी ढाँचे से अलग अपने ही ढंग की 'जादुई' कथ्यात्मक विधाओं की पड़ताल कर सकते थे... अपनी काल-चेतना से टूटकर आज हम जिस इतिहास-बोध से आक्रांत हैं, क्या वह स्वयं हमारी सृजनशील संभावनाओं को अवरूद्ध नहीं करता?

अंत में मैं सिर्फ एक प्रश्न आपके सामने रखकर अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा। क्या मेरे लिए, एक भारतीय के लिए, पश्चिमी साहित्य से मेरा संबंध वैसा ही है, जैसा पश्चिमी सभ्यतासे है, जिसने पिछले दो सौ वर्षों से एक औपनिवेशिक सत्ता के रूप में हमारी जीवन-शैली और चिंतन-पद्धति में प्रवेश किया है? मुझे लगता है अंग्रेजों की गुलामी ने हमारी मानसिकता को जिस तरह विकृत और विखंडित करके छोड़ा है, उसके घाव आज भी हमारी आत्मा में नासूर की तरह रिस रहे हैं। पश्चिमी सभ्यता ने जिस तरह दम्भीहोस्वयं हमें अपनी जड़ों से उन्मूलित कियाहै, उसके कारण हमारी स्वयं अपने बारे में पहचान तो विकृतहुई ही है, पश्चिमी साहित्यका सही आकलन करने के रास्ते में भी अवरोध उत्पन्न किया है। यदि हम पश्चिमी जगत से बराबरी के आधार पर अपनासंवाद बनाते, तो न तो हम स्वयं अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति हीन-भावना से ग्रस्त होते, न पश्चिमी सभ्यता की वह छवि हमारे सामने आती, जो औपनिवेशिक चौखटे के भीतर दिखाई देती है।

हम पश्चिम के साथ एक सत्य, संतुलित रिश्ता कायम कर सकते... यूँ मुझे एक साथ पूरे पश्चिम के दो चेहरों की विरोधी छवियों के संदर्भ में कहना पड़ा, एक वह जिसने एक लोलुप लुटेरी सभ्यता के रूप में अपना आतंकवादी प्रभुत्व स्थापित किया था, दूसरी वह जो मैं उसके संगीत, साहित्य और कला में पाता था... क्या इन दो चेहरों के बीच किसी तरह का सादृश्य बनाना संभव था? अँग्रेजी राज के जमाने में मैंने अपना बचपन शिमला में बिताया था-जहाँ स्कूल से लौटते हुए हमें हमेशा डर लगा रहता था कि कहीं रास्ते में अंग्रेज लड़कों से मुठभेड़ न हो जाए। हमें देखते ही वह या तो पत्थरों की बौछार शुरू कर देते थे या मारपीट शुरू कर देते थे। उन दिनों मैं अक्सर सोचता था कि क्या वे वही अंग्रेज हैं, जिनकी करुण गाथाएँ मैं डिकेंस के उपन्यासों - Oliver Twist या David Copperfield में पढ़ता था। यह प्रश्न कि यूरोपीय सभ्यता का सही प्रतिनिधित्व कौन करता है - साहित्य और कला की अमर कृतियाँ अथवा उसकी अहंग्रस्त लिप्साओं में डूबी आक्रामक भूमिका-या शायद उन दोनों के बीच एक गहरा संश्लिष्ट विरोधी संबंध है। इस अँधेरे और आलोक का संबंध जाने बिना।

हमारा पश्चिमी सभ्यता का ज्ञान एकांगी और अधूरा बना रहेगा। भारतीय दार्शनिक जड़ाऊलाल मेहता ने कहा था कि पूर्वी देशों के लिए यूरोपीयकरण की लंबी यात्रा स्वयं अपने आत्म (Selfhood) तक पहुँचने के लिए जरूरी है।

यह यात्रा तभी संपूर्ण और सार्थक हो सकेगी जब हम यूरोप के इन दो चेहरों से सीधा सामना करने की सामर्थ्य जुटा पाएँगे।


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