बहुत साल पहले मैंने पुणे से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'राष्ट्रवाणी' में मराठी लेखक की पर्यटन कथा पढ़ी थी - उपन्यास और यात्रावृत्त का अद्भुत सम्मिश्रण -
जिसमें एक नदी के किनारे बसने वाले लोगों की जीवनगाथा बुनी गई थी। नदी का प्रवाह और मनुष्य की नियति - दोनों कुछ इस प्रकार से जुड़े थे कि एक को दूसरे से अलग
करना अस्म्भव था। कुछ ऐसा ही अविस्मरणीय अनुभव शोलोखोव के अमर उपन्यास 'और चुपचाप डान बहती रही' पढ़कर हुआ था। इन पुस्तकों को पढ़ते हुए मैं सोचा करता था कि अब तक
अपनी हिंदी में इस तरह की 'नदी गाथा' पढ़ने को नहीं मिली जो उपन्यास की तरह लोगों के जीवन को अपने चिरंतन प्रवाह में प्रतिबिंबित कर सकें।
तब मुझे क्या मालूम था कि मेरी यह प्रच्छन्न आकांक्षा भोपाल की एक उनींदी दुपहर में अचानक पूरी हो जाएगी। याद नहीं आता कौन मुझे वह छोटी-सी दुबली-पतली किताब दे
गया था, जिसके पन्नों पर कहीं-कहीं रेखाचित्र खिंचे थे, किंतु जो चीज आज भी याद रह गई है, वह था, पुस्तक का प्रांजल विनोद भरा, स्वच्छ प्रवाह, प्रवाह में बहता
गद्य्। मानो जिस नदी का जादू भरा विवरण उसमें था, स्वयं उस नदी का स्पर्श लेखक की कलम को एक अजीब-सी पवित्रता प्रदान कर गया हो।
हिंदी में यात्रावृत्त पहले भी पढ़े थे, पर अमृतलाल बेगड़ की नर्मदा गाथा की रसमयता का स्वाद कुछ अनोखा ही था। यह एक अनूठा अनुभव था, जहाँ देखनेवाली आँख और दिखाई
देनेवाला परिदृश्य इस तरह एकात्म हो जाते थे कि पता नहीं चलता था कहाँ लेखक के शब्द पढ़ते हुए हम स्वयं नर्मदा की स्वर-लहरी में उसकी अपनी आत्मगाथा सुनने लगते
हैं।
यह यात्रावृत्त कदाचित् बेगड़जी की नर्मदा-यात्रा का पहला चरण था। इसके बाद जब कभी पत्र-पत्रिकाओं में किसी यात्रालेख या संस्मरण पर बेगड़जी का नाम दिखाई दे जाता,
मैं उसे एक साँस में आद्योपांत पढ़कर ही दम लेता। जिस तरह बेगड़जी को नर्मदा परिक्रमा करते हुए खोए हुए यात्री मिल जाते थे, वैसे ही हर अंतराल के बाद मैं भी एक
अदृश्य तट यात्री की तरह चुपचाप उनके साथ हो जाता। क्या वह विश्वास करेंगे कि जब वह नदी के किनारों पर गिरते-पड़ते चल रहे थे, दुर्गम चट्टानों को पार कर रहे थे,
ठंडी रातों में किसी मंदिर के आँगन में लेटे हुए आकाश में टिमकते हुए तारों को निहार रहे थे - मैं उनके साथ था !
एक अच्छी यात्रा-पुस्तक का यह लक्षण है - उसका जादुई चमत्कार कि लेखक के साथ सिर्फ उसके सहयात्री ही नहीं, पाठकों का एक लंबा काफिला भी साथ हो लेता है, और यदि
रास्ता दिखानेवाला बेगड़जी जैसा गाइड हो, तब तो सोने में सुहागा है क्योंकि तब वह नर्मदा के अतुल सौंदर्य को - उसके झरनों, प्रपातों, चट्टानों को - एक निपट नई
निगाह से देखने लगता है। क्या कभी हमने सोचा था कि - "प्रवाह नदी का प्रयोजन है। अपने अस्तित्व के लिए उसका बहना ही उसकी अनिवार्यता है, लेकिन प्रपात उसका
ऐश्वर्य है, उसका अतिरिक्त प्रदाय है... यह अतिरिक्त प्रदाय ही किसी चीज को सौंदर्य प्रदान करता है। जहाँ प्रयोजन समाप्त होता है, वहाँ सौंदर्य शुरू होता है।"
(जोर मेरा)
यह प्रपात के अनुपम सौंदर्य का बखान तो है ही, स्वयं 'सौंदर्य' की अवधारणा के बारे में एक उज्जवल अंतर्दृष्टि देता है, जो शायद हमारे साहित्य के 'प्रयोजनवादी'
आलोचकों को कुछ सिखा सके। बेगड़जी के यात्रा-संस्मरणों में सहज ज्ञान और समझदारी के इस तरह के अनमोल रत्न हर जगह बिखरे दिखाई दे जाते हैं और तब पता चलता है कि
नर्मदा हो या हिमालय, जो लोग प्रकृति के सान्निध्य में रहते हैं, उन्हें जीवन के गहन सत्य बूझने के लिए किसी कॉलेज, विश्वविद्यालय में जाने की जरूरत नहीं,
उन्हें पत्थरों में पारस, सर्मंस ऑन द स्टोन मिल ही जाते हैं।
नदी, पहाड़, झरने अपने में ही सुंदर नहीं होते, वे अपने 'होने' से आसपास की दुनिया को भी एक अलौकिक आभा से आलोकित कर देते हैं। दिन-भर की यात्रा के बाद जब बेगड़जी
थके-माँदे किसी धर्मशाला या मंदिर के बरामदे में लेट जाते थे तो भी प्रकृति का सम्मोहन उनका पीछा नहीं छोड़ता था। मुझे वे स्थल विशेष रूप से प्रिय लगते हैं जब
बेगड़जी की नींद-भरी आँखों पर आकाश अपनी सौंदर्य छटा लेकर उतर आता था।
"वैसे तो सर्वव्यापी चाँदनी में सब कुछ दिखाई दे रहा था, नदी का प्रवाह, सामने का किनारा, कुंड में गिरते प्रपात, पर धवल कुंड की बात कुछ और थी, वह किसी
प्रकाश-पुंज की तरह चमक रहा था। धावली कुंड में पूर्णिमा की रात को चाँद डोली से उतरता है और सवेरा होते ही चला जाता है।"
बेगड़जी के यात्रावृत्त पढ़ते हुए एक और बात मन में आती है-केवल भारतीय परंपरा में रसा-पगा व्यक्ति ही प्रकृति की नैसर्गिक सत्ता को इतने आत्मीय सगेपन और श्रद्धा
से देख सकता है। नदी, पहाड़, झरने सिर्फ भूगोल के उपमान मात्र नहीं हैं, वे मनुष्य के समूचे मिथक-संस्कारों को अपने में प्रतिबिंबित करते हैं। दुनिया में किस नदी
को यह सौभाग्य प्राप्त है जिसकी परिक्रमा करने में यात्री स्वयं अपने भीतर एक तरह की अटल पवित्रता का स्पर्श पा लेते हैं। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, हिमालय
अटल रहता है, ताकि उससे निकली हुई नदियाँ प्रवाहमान रह सकें। एक की शाश्वत अटलता, दूसरे की चिरंतन प्रवाहमयता, दोनों ही एक भारतीय के लिए 'पवित्रता की ऐसी
स्पेस' निर्मित करते हैं...जिन्हें हम 'तीर्थस्थल' कहते हैं, पृथ्वी पर 'परम' का आवास-स्थल।
इसीलिए बेगड़जी की नर्मदा यात्रा सिर्फ एक नदी की परिक्रमा नहीं है, वह एक पुरातन संस्कृति की अटलता को उसकी सतत प्रवाहमयता में आँकने का 'आँखों देखा' वृत्तांत
भी है। पुस्तक पढ़ते हुए मुझे गाँधीजी की बात याद आती रही कि पश्चिमी सभ्यता ने सिर्फ भारत के नगरीय कगारों को ही कलुषित किया है, उसके अंदुरूनी हृतस्थल को नहीं,
जहाँ उसकी आत्मा बसती है। हमें बार-बार इस 'आत्मा' के दर्शन उन सैकड़ों परिक्रमावासियों में होते हैं जो घर-बार की सुख-सुविधाओं को त्यागकर आए हुए वानप्रस्थी,
गृहस्थ, साधु, भिक्षुक, देश के सुदूर कोनों की भाषाओं को बोलते हुए गरीब, अमीर तीर्थयात्री, नदी की धारा के साथ बहता हुआ एक लंबा जुलूस जिसके अलग-अलग चेहरों,
विभिन्न भाव और भंगिमाओं, आचार-व्यवहारों को बेगड़जी ने अपनी औपन्यासिक उत्सुकता और कलात्मक सुघड़ता से उकेरा है। एक चलती-फिरती पूरी 'पोर्ट्रेट गैलरी' सामने से
गुजरती दिखाई देती है। कभी-कभी तो लगता है कि बेगड़जी पुस्तक में अपने रेखाचित्र न भी दें, तो भी कुछ खास नहीं बिगड़ेगा क्योंकि जो वे दिखाना चाहते हैं, वह तो
अपनी हाड़-मांस की जीवंतता में इतनी सजीव उच्छलता के साथ उनके 'शब्दचित्रों' में भी उतर आया है। उनकी अंतर्भेदी, संवेदनशील दृष्टि के उजाले में हम घर बैठे न जाने
कितनी विचित्र विभूतियों के सम्पर्क में आ जाते हैं, डोंगर गाँव के परमहंसी साधु, गाय और उनके बछड़ों को भी अपने साथ ले जानेवाले परिक्रमावासी, स्कैंडेनेवियन
वृद्ध महिला, जो रोज सात किलोमीटर चल लेती थीं, जिनका विदेशी साधु गाइड उनके पैसे और पासपोर्ट चुराकर गायब हो गया और वह क्षण भर के लिए भी विचलित नहीं हुई।
पुतलीखोह की चट्टानों के चित्र, नर्मदा के घाटों पर भजनों, लोकगीतों, कथा-कहानियों का अंतहीन, अविस्मरणीय खजाना। बेगड़जी से गहरी ईर्ष्या होती है कि उन्होंने एक
यात्रा में भारत की कितनी छवियाँ, दृश्य, लोग एक समूची संस्कृति की रासलीला का अमृतरस छक लिया है। किंतु आदमी भरपूर छक सके उसके लिए सच्ची प्यास होनी चाहिए ऐसी
अकथ प्यास जो बेगड़जी को बार-बार नर्मदा की ओर खींच ले जाती थी। नर्मदा के नदी कगारों, उत्ताल तरंगों, बीहड़ मोड़ों को देखकर जिस तरह बेगड़जी की काव्य-चेतना जाग
जाती थी, वैसे ही नर्मदा के परिक्रमावासियों, तीर्थयात्रियों, साधु-संयासियों को देखकर उनका कहानीकार आँखें खोल देता था। दोनों का अद्भुत मिलन ही बेगड़जी को न
केवल हिंदी का अनूठा पर्यटक और यात्रा-लेखक बना देता है, बल्कि भारतीय लोक-संस्कृति का घूमता-फिरता संदेशवाहक भी।
एक तीर्थयात्री को नर्मदा इससे अधिक सुंदर उपहार और क्या दे सकती है !
अमृतलाल बेगड़जी ने नर्मदा परिक्रमा का अंतिम चरण सत्तर वर्ष की आयु में पूरा किया था। 2624 किलोमीटर की लंबी यात्रा पूरी करने के बाद बेगड़जी को शायद वैसी ही कुछ
अनिर्वचनीय अनुभूति हुई होगी जैसी जर्मन पर्वतारोही हरजौग को अन्नपूर्णा के शिखर पर पहुँचकर हुई थी - "मुझे लगा, जैसे मैं और पर्वत अलग नहीं हैं, मैं ही
अन्नपूर्णा हूँ, जैसा अन्नपूर्णा मुझमें हैं।" ऐसा दुर्लभ अद्वैतिक, अलौकिक अनुभव यदि एक विदेशी को हो सकता है तो एक भारतीय यात्रिक के लिए तो वह सहज-सुलभ ही
होगा -क्या हम बेगड़जी को नर्मदा से और नर्मदा को बेगड़जी से अलग करके देख सकते हैं?
बेगड़जी की पुस्तक पढ़कर मुझे लगा, जैसे मैं भी एक अदृश्य और अनिमंत्रित यात्री की तरह बराबर बिना उनके जाने, उनके साथ नदी, नाले, चट्टानें पार करने का सुख उठाता
रहा हूँ। यदि गणेशजी अपने माता-पिता के इर्द-गिर्द घूमकर धरती की परिक्रमा कर सकते हैं तो क्या हम बेगड़जी की पुस्तक के पन्नों पर 'चलते' हुए घर की चौखट से बाहर
कदम रखे बिना, नर्मदा माई की परिक्रमा करने का पुण्य-लाभ नहीं उठा सकते?