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आलोचना

'उसने कहा था' : गुलेरी की व्यापक विचार-भूमि

प्रांजल धर


कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं जिनकी ख्याति उनकी एक ही रचना के कारण बहुत अधिक होती है। उदाहरण के लिए हम फणीश्वरनाथ रेणु का नाम ले सकते हैं जिनका जिक्र आते ही जेहन में उनके उपन्यास 'मैला आँचल' का नाम कौंध उठता है। इसी तरह जब चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की बात होती है तो उनकी कहानी 'उसने कहा था' का जिक्र अनिवार्य रूप से होता है। यह कहानी 'सरस्वती' में सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी। आज इस कहानी के प्रकाशन को सौ वर्ष पूरे हो गए हैं और आज भी यह कहानी हिंदी कथा-जगत में मील के पत्थर की तरह कीर्तिमान बनाते हुए स्थापित है। गौरतलब है कि प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' भी इसी 'सरस्वती' पत्रिका में छपी थी लेकिन एक साल बाद यानी सन् 1916 में। 'उसने कहा था' को हिंदी की पहली कहानी भी माना जाता है। 'सुखमय जीवन' और 'बुद्ध का काँटा' समेत मात्र तीन कहानियाँ लिखकर हिंदी कथा साहित्य को नई दिशा और नया आयाम देने वाले गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' आज सौ साल बाद भी शिल्प, संवेदना और विषय-वस्तु की दृष्टि से उतनी ही चर्चित और प्रेरणास्पद है, जितनी उन दिनों में थी। लोकजीवन में यह कहानी और इसके पात्र या संवाद (जैसे- तेरी कुड़माई हो गई) इस तरह रच, बस और पच गए हैं कि सामान्य लोग इसे लोककथा की तरह सुनते-सुनाते हैं। किसी कथाकार के कथा-कौशल का इससे बड़ा उत्कर्ष भला और क्या हो सकता है! हालाँकि बाद के दिनों में अनेक लोगों ने अपने महत्वपूर्ण शोधों के जरिए उनकी कहानियों की संख्या अधिक बताई है लेकिन यह बात उल्लेखनीय है कि नेशनल बुक ट्रस्ट से सन् 2009 में प्रकाशित पुस्तक 'चंद्रधर शर्मा गुलेरी की चर्चित कहानियाँ' के संपादक पीयूष गुलेरी और प्रत्यूष गुलेरी ऐसी स्थापनाओं से सहमत नहीं हैं।

गुलेरी की इस कहानी को आधार बनाते हुए 'उसने कहा था' नाम से ही मोनी भट्टाचार्जी ने सन् 1960 में एक हिंदी फिल्म भी निर्देशित की थी जिसमें सुनील दत्त और नंदा के साथ राजेंद्रनाथ, दुर्गा खोटे और लीला मिश्रा ने भी अपना शानदार अभिनय पेश किया था। फिल्म में नंदू यानी सुनील दत्त एक छोटे-से कस्बे में अपनी विधवा माँ के साथ रहता है। उसका व्यवहार कमली यानी नंदा के साथ बेहद दोस्ताना है। कमली के पिता बीमार पड़ते हैं और उनका परिवार एक बड़े शहर अंबाला में जाकर रहने लगता है। बरसों बाद कमली के पिता का देहांत हो जाता है और उनका परिवार फिर उसी छोटे-से कस्बे में लौट आता है। गरीबी के कारुणिक दुष्चक्र को देखकर नंदू सेना में भर्ती हो जाता है, यह सोचकर कि शायद तब कमली का विवाह उससे हो जाएगा। पर जब नंदू लौटकर आता है तो देखता है कि कमली की शादी कहीं और तय हो गई है। तब वह सेना में वापस चला जाता है। वहाँ वह पाता है कि उसका वरिष्ठ अधिकारी कोई और नहीं, बल्कि स्वयं कमली का पति ही है। युद्ध की घोषणा होने पर नंदू को लड़ाई में मोर्चे पर जाना पड़ता है और कमली नंदू से इस बात का वचन लेती है कि वह कमली के पति की रक्षा करेगा। मोहम्मद रफी ने इस फिल्म में शैलेंद्र का लिखा एक गीत 'चलते ही जाना' गाया था, जिसे सलिल चौधरी ने संगीतबद्ध किया था।

यह किसी भी साहित्यप्रेमी के लिए रुचि का और शोध का विषय हो सकता है कि आखिर 'उसने कहा था' में ऐसी कौन-सी बात है, जिसके कारण यह कालजयी कहानियों की श्रेणी में शुमार होती है। क्या इस कहानी की कथा योजना ऐसी है जो आम पाठक को स्पर्श करती है या फिर यह गुलाम भारत में ब्रिटिश शासन और सेना तथा युद्ध आदि को पृष्ठभूमि में रखते हुए आगे बढ़ने के कारण प्रसिद्ध हुई? या इसके पात्रों के संवाद बड़े सरल, सीधे, सपाट और सच्चे हैं? इस कहानी में एक रोचक बात यह भी है कि यहाँ अनकही बातें कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका में पाठकों के सामने आती हैं। बाद में जो अज्ञेय ने लिखा था कि 'मौन भी अभिव्यंजना है', वह यहाँ बहुत पहले ही चरितार्थ होता दिखाई पड़ता है। इसमें हिंदी की जातीय स्मृति है, गाँव और कस्बों की गरीबी का एक रफ स्केच है, सामाजिक प्रतिमानों के अदृश्य स्तंभ हैं और सबसे बड़ी बात कि देशकाल और वातावरण के साथ कहानीकार की विद्वता का गजब का समायोजन है। असल में, गुलेरी का जीवनकाल भले ही छोटा रहा हो, पर उनकी बहुपठितता, बहुज्ञता और उनकी बहुआयामिता कहीं से भी छोटी नहीं रही। जानी-मानी फिल्म 'आनंद' के एक संवाद को उधार लें तो कहना चाहिए कि 'जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए, बाबू मोशाय!'

मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 की जुलाई में चंद्रधर को जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन और धार्मिक कर्मकांड का वातावरण मिला। आगे चलकर उन्होंने अँग्रेजी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफ.ए. (प्रथम श्रेणी में) और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. (प्रथम श्रेणी में) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख सके। हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की चर्चित वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे संबंधित शोधकार्य के लिए गठित मंडल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्जरवेटरी एंड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अँग्रेजी ग्रंथ की रचना की। अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में भूमिका निभाई और सन् 1902 से मासिक पत्र 'समालोचक' के संपादन का दायित्व सँभाला। कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के संपादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का संपादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।

जयपुर के राजपंडित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ संबंध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामंत-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से संबद्ध मनींद्र चंद्र नंदी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। मदन मोहन मालवीय को हाल ही में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी गुलेरी को झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितंबर को पीलिया के बाद तेज बुखार से मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिंदी और अँग्रेजी के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, बांग्ला मराठी, जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष, इतिहास, पुरातत्व, दर्शन, भाषा-विज्ञान, शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत विचारभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में आज भी बराबर मिलता रहता है।

पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी के साथ एक बहुत बड़ी विडंबना यह है कि व्यापक रुचि और ज्ञान के क्षेत्र के बावजूद आम हिंदी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें सिर्फ अमर कहानी 'उसने कहा था' के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। जबकि उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है, जिसके बारे में चर्चा अवश्य की जानी चाहिए। इससे हमें 'उसने कहा था' का संपूर्ण आनुभविक संदर्भ समझने में मदद मिलती है। वास्तव में, इस कहानी की प्रखर चौंध ने उनके बाकी विविध रचना संसार को धुँधला कर दिया है। उनके प्रबल प्रशंसक और प्रखर आलोचक भी अमूमन इसी कहानी को लेकर उलझते रहे हैं। प्राचीन साहित्य, संस्कृति, हिंदी भाषा, समकालीन समाज, राजनीति आदि विषयों से जुड़ी इनकी विद्वता का जिक्र भले ही यदा-कदा होता रहता हो, पर 'कछुआ धरम' और 'मारेसि मोहि कुठाऊँ' जैसे एक-दो निबंधों और पुरानी हिंदी जैसी लेखमाला के उल्लेख को छोड़कर उस विद्वता की चर्चा आम पाठक तक शायद ही पहुँची हो। व्यापक हिंदी समाज उनकी प्रकांड विद्वता और सर्जनात्मक प्रतिभा से लगभग अनजान है। अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी ने किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना तो नहीं की लेकिन फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है और उनकी शास्त्रज्ञता तथा पांडित्य का परिचायक है, वहीं उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म, राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी 'पुरानी हिंदी' जैसी अकादमिक और 'महर्षि च्यवन का रामायण' जैसी शोधपरक रचनाओं तक में दिखाई देता है। छोटी-सी जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ, कथाएँ, आख्यान, ललित निबंध, गंभीर विषयों पर विवेचनात्मक निबंध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, संपादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्व, भाषा आदि पर प्रबंध, लेख तथा टिप्पणियाँ - सभी कुछ - सम्मिलित हैं।

विषय-वस्तु की व्यापकता की दृष्टि से गुलेरी जी का लेखन गंभीर विषयों से लेकर काशी की नींद जैसे हलके-फुलके विषयों तक को समान भाव से समेटता है। विषयों का इतना वैविध्य लेखक के अध्ययन, अभिरुचि और ज्ञान के विस्तार की गवाही देता है। असल में 'उसने कहा था' का असीमित यश भी इसी गवाही का ही अंग है। हर विषय पर इतनी गहराई से समकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार अपने समय और नए विचारों के प्रति उसकी सजगता को रेखांकित करता है। राज ज्योतिषी के परिवार में जन्मे, हिंदू धर्म के तमाम कर्मकांडों में विधिवत दीक्षित, त्रिपुंडधारी निष्ठावान ब्राह्मण की छवि से यह रूढ़िभंजक यथार्थ शायद मेल नहीं खाता, मगर उस सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक उत्तेजना के काल में उनका प्रतिगामी रुढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाना स्वाभाविक ही था। यह याद रखना जरूरी है कि वे रूढ़ियों के विरोध के नाम पर केवल आँख मूँदकर तलवार नहीं भाँजते। खंडन के साथ ही वे उचित और उपयुक्त का मंडन भी करते हैं। धर्म, समाज, राजनीति और साहित्य में उन्हें जहाँ कहीं भी पाखंड या अनौचित्य नजर आता है, उस पर वे जमकर प्रहार करते हैं। इस क्रम में उनकी वैचारिक पारदर्शिता, गहराई और दूरदर्शिता इसी बात से सिद्ध है कि उनके उठाए हुए अधिकतर मुद्दे और उनकी आलोचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। ये भंगिमाएँ हमें 'उसने कहा था' में स्पष्ट नजर आती हैं।

उस युग के कई अन्य निबंधकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव की एक रसधारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धांत, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गंभीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जिन्होंने 'उसने कहा था' को गौर से पढ़ा है, वे इस झंकार से नावाकिफ नहीं होंगे। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है, जैसे शिक्षा, सामाजिक रूढ़ियों तथा राजनीति संबंधी लेखों में उनकी रचनाएँ कभी गुदगुदाकर और कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं। गुलेरी जी की शैली मुख्यतः वार्तालाप की शैली है जहाँ वे किस्साबयानी के लहजे़ में मानो सीधे पाठक से मुखातिब होते हैं। यह शैली 'उसने कहा था' में भी बेहद बारीकी के साथ व्याप्त है। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली के सँवरने का काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर समरसता और परिमार्जन की कहीं-कहीं कमी भी नजर आती है। कहीं वे पृश्णि, क्लृप्ति और आग्मीघ्र जैसे अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कहीं बेर, बिछोड़ा और पैंड़ जैसे ठेठ लोकभाषा के शब्दों का। अँग्रेजी-अरबी-फारसी आदि के शब्द ही नहीं, पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में चले आते हैं। पर भाषा के इस मिले-जुले रूप और बातचीत के लहजे से उनके लेखन में एक अनौपचारिकता और आत्मीयता भी आ गई है। अपने लेखन में उन्होंने उद्धरण और उदाहरण बहुत दिए हैं। इन उद्धरणों और उदाहरणों से आमतौर पर उनका कथ्य और अधिक स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है, पर कई जगह यह पाठक से उदाहरण की पृष्ठभूमि और प्रसंग के ज्ञान की माँग भी करता है। आम पाठक से प्राचीन भारतीय वाङ्मय, पश्चिमी साहित्य, इतिहास आदि के इतने ज्ञान की अपेक्षा करना बहुत उचित नहीं है। इसलिए यह उनके लेखन के सहज रसास्वाद में कहीं-कहीं बाधक भी होता है।

बहरहाल गुलेरी जी की अभिव्यक्ति में जो भी कमियाँ रही हों, हिंदी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे खड़ी बोली का प्रयोग अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में कर रहे थे, शायद किसी भी अन्य समकालीन विद्वान से कहीं बढ़कर। साहित्य, पुराण-प्रसंग, इतिहास, विज्ञान, भाषा-विज्ञान, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए गुंजाइश बना रही थी। यह विभिन्न विषयों को अभिव्यक्त करने में हिंदी की सक्षमता का जीवंत प्रमाण है। हर संदर्भ में उनकी भाषा आत्मीय तथा सजीव रहती है, भले ही कहीं-कहीं वह अधिक जटिल या अधिक हल्की क्यों न हो जाती हो। गुलेरी जी की भाषा और शैली उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं थी। वह युग-संधि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का भी प्रामाणिक दस्तावेज है। इसी ओर इंगित करते हुए प्रो. नामवर सिंह का भी कहना है, "गुलेरी जी हिंदी में सिर्फ एक नया गद्य या नई शैली नहीं गढ़ रहे थे बल्कि वे वस्तुतः एक नई चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नई चेतना का सर्जनात्मक साधन है।"

गुलेरी जी की टिप्पणियाँ उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नजरिए के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में वे अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मजबूर करती हैं। 'खेलोगे कूदोगे होगे खराब' की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किंतु पूरे देश के संदर्भ में और यहाँ फैले अशिक्षा और अंधविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमजोरियों का वे लगातार जिक्र करते रहते हैं, विशेषकर सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है- "यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है" (डिनामिनेशन कॉलेज : 1904)। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार : 1920)। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकांडों और ज्योतिष से जुड़े अंधविश्वासों का वे जगह-जगह जोरदार खंडन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकांड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए 'सार्वजनिक प्रीतिभाव' है, "जो सांप्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है" (श्री भारतवर्ष महामंडल रहस्य : 1906)। उनके अनुसार उदारता सौहार्द्र और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद जरूरी है, "आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिंदू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान आदि सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किंतु संकीर्ण धर्मशिक्षा... (आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।" (डिनामिनेशनल कॉलेज : 1904)। गुलेरी की यह समग्रतावादी दृष्टि और व्यापक विचार-भूमि आज भी बहुत प्रासंगिक है और बताती है कि कोई कालजयी रचना रचने के लिए कितनी बड़ी विचार-भूमि की दरकार होती है। इसका अहसास मुझे व्यक्तिगत रूप से तब भी होता है, जब उनके परिवार के सदस्यों से बातचीत होती है।


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