हर कहानी या कविता की खूबी होती है कि वह अपने शीर्षक से आपको तुरंत खींचे और गुलेरी जी का यह शीर्षक - 'उसने कहा था' - इस खूबी को बखूबी पूरा करता है। मैंने हिंदी कहानियों का ऐसा चुंबकीय शीर्षक बहुत कम देखा है। 'उसने कहा था?' किसने कहा था? क्या कहा था? मन में उठे इन सवालों का जवाब, वह भी स्वप्न की हालत में एकदम अंत में जाकर मिलता है, जब कहानी खत्म होने को है और वह जवाब, स्वप्न चल रहा था, घायल-मरणासन्न लहनासिंह पड़ा हुआ है और रह-रहकर के मूर्च्छित होता है।
सूबेदारनी कह रही है - 'मैंने तेरे को आते ही - तेरे को भाषा पर जरा ध्यान दीजिएगा - मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ, मेरे तो भाग्य फूट गए, सरकार ने बहादुरी का खिताब - एक काम कहती कहती हूँ कहते ही काम तुरंत नहीं बताया। क्या काम कहती हूँ? एक काम कहती हूँ, मेरे तो भाग्य फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है। आज नमकहलाली का मौका आया है तो सरकार ने हम स्त्रियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती। एक बेटा है, फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ है। उसके पीछे चार हुए पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग्य, तुम्हें याद है एक दिन ताँगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़ों की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्तों पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। ये मेरी इच्छा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ। ये कहा था कहानी में। जैसे गीत की टेक होती है, ध्रुवक जिसे कहते हैं, ये बार-बार गूँजता है - चार बार - उसने कहा था, उसने कहा था बल्कि एक जगह पंजाबी में कहा है 'उननूँ कहा था' बदले हुए संदर्भ में आवृत्ति होती है - उसने कहा था, उसने कहा था, उसने कहा था - मँडराता है ये वाक्य।
इसलिए इस कहानी को पढ़ने से पहले यहाँ से शुरू करें आप कि, उसने कहा था जो शीर्षक रखा गया है, वह बार-बार जो रिपोर्ट करता है, हॉण्ट करता है, एक कहे हुए को - आदमी जिंदगी भर कैसे निभाता है? क्या रिश्ता है? मुझे अच्छी तरह याद है - इस कहानी का मंचन - मैं जब पढ़ रहा था। इत्तिफाक से 1952 या 53 का वर्ष रहा होगा या उसके कुछ समय पहले या बाद में। दो-तीन महीने का फर्क होगा। इलाहाबाद युनिवर्सिटी में कन्वोकेशन हो रहा था और कन्वोकेशन के अवसर पर ये हुआ कि हिंदी विभाग के लोग कोई नाटक खेलेंगे। जो एक छोटा सा नाटक सिनेट हॉल में हुआ था वह था 'उसने कहा था'। नाट्य रूपांतर धर्मवीर भारती ने किया था। धर्मवीर भारती लहनासिंह बने थे, विजयदेव नारायण साही ने वजीरा सिंह को रोल प्ले किया था। सूबेदारनी का रोल किसने किया मुझे याद नहीं। संभवतः सरोजनी वर्मा, केशव वर्मा की पत्नी, उन्होंने किया था। इन दो को चूँकि मैं जानता था - भारती को और विजयदेव नारायण साही को और वो नाटक उन लोगों ने किया था। सोचिए, तमाम चीजों के रहते ये भी कि वो ही कहानी नाटक के लिए चुनी थी और संभव है कि एक ही स्थिति से शायद दोनों गुजर रहे थे। तब तक भारती की शादी नहीं हुई थी और साही की भी नहीं हुई थी। उनकी शादी तो और बाद में हुई कंचन जी से। ये दोनों कुँवारे जो हैं, वह अपनी जिंदगी में 'उसने कहा था' कहानी खेल रहे थे। इसलिए इस कहानी के साथ जो मेरे अनुषंग हैं, जुड़े हुए एसोसिएशन हैं, उस एसोसिएशन के कारण ये कहानी हॉण्ट करती है और मैं बार-बार इस कहानी की ओर लौटता हूँ। मैं पहले ही एक बात बता दूँ, जो कायदे से अंत में बताना चाहिए - ये कहानी 1915 में लिखी गई थी, पहला महायुद्ध चल रहा था, 1914 में शुरू हुआ था। 1917-18 में खत्म हुआ था। ये कहानी युद्ध शुरू होने के ठीक बाद ही लिखी गई थी,छपी है 1915 में। तो हो सकता है कि 1914 के अंत में लिखी गई हो। 'सरस्वती' में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इसे छापा था। इस कहानी के पाठ के बारे में, पाठालोचन की दृष्टि से भी विचार किया जाना चाहिए। जिस रूप में छपी है कहानी 'सरस्वती' में, उस पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की कलम चली है। कहीं-कहीं उन्होंने बदल दिया है। मूलपाठ, जो 'गुलेरी ग्रंथावली' में छपा है, मनोहरलाल जी ने उसमें नीचे टिप्पणियाँ दी हैं कि गुलेरी जी ने ये-ये वाक्य लिखा था और उसको थोड़ा बदला है, ज्यादा नहीं।
हुआ यह है कि बाद में कहानी में कुछ चीजें छोड़ भी दी गई हैं। वह पंजाबी गीत है जिसे घरबारी लुच्चे सिंह गाते हैं। कहानी को पाठ्यपुस्तक में तो रख लिया, लेकिन अश्लीलता के कारण उस गीत को हटा दिया गया है, जिससे उस कहानी का बहुत सारा मजा गायब हो जाता है, जो सेंस ऑफ ह्यूमर है। कुछ जगहों पर पाठ-भेद भी है। मूलपाठ, जो गुलेरी जी का था, उसे मिलाकर देखिए। तो छपे हुए खंड में और मूल जो गुलेरी जी ने लिखा था उसमें कहीं-कहीं पंडित जी की शुद्ध हिंदी वाली कलम चली है।
इसलिए यह पूरी कहानी दूसरे महायुद्ध के बारे में लिखी गई थी, 1914 में। कहानी का सारा का सारा लोकेल लड़ाई का मैदान है और फ्रांस औ जर्मनी की सीमा का माहौल है। अधिकांश कहानी घटित होती है विदेश के परिवेश में और विदेश का वो परिवेश... गुलेरी जी ने उस परिवेश को ध्यान में रखते हुए यह कहानी लिखी है। उस परिवेश को ध्यान में रखना जरूरी है। जहाँ पर आदमी गया न हो, उसका वर्णन करता है। उस विदेश के परिवेश में लिखी गई कहानी है - युद्ध के माहौल में। हिंदी में युद्ध संबंधी बहुत कम कहानियाँ लिखी गई हैं। दूसरा महायुद्ध भी हुआ। उसके बारे में कोई उल्लेखनीय हिंदी की कहानी मुझे याद नहीं आती।
मैंने जान-बूझकर 1914 और 15 कहा। उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि 1916 में 'लखनऊ कांग्रेस' हुई थी और लगभग देशप्रेम का और आजादी की लड़ाई का आंदोलन आगे चलकर जो 1916 से 18, 29, 21, 22, असहयोग तक पहुँचा था; तब तक कुछ नहीं हुआ था। देश में लगभग ब्रितानी हुकूमत का दबदबा बाकायदा था। भारतीय आर्मी विदेश में भेजी गई थी। यह सच्चाई है। यहाँ के लोग लड़ने गए थे। इसलिए पहले महायुद्ध में अँग्रेजों की ओर से लड़ने गए थे जो लोग, उसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी पंजाब आर्मी की जिसमें सिख लोग थे। गुलेरी जी सिख नहीं थे, पंजाबी नहीं थे। क्यों सिख गए थे, आप जान सकते हैं। क्योंकि 1857 में बंगाल आर्मी ने जहाँ विद्रोह किया था, वहाँ अकेले सिख रेजीमेंट थी, जो बाकायदे अँग्रेजों के साथ थी। अंग्रेज जिस पर पूरी तरह निर्भर कर सकते थे कि ये गद्दारी नहीं करेंगे, बगावत नहीं करेंगे। इसलिए पहले महायुद्ध में मोर्चे पर जो आर्मी भेजी गई थी वह सिख बटालियन थी।
चूँकि जर्मनी और फ्रांस के बीच लड़ाई थी, इंग्लैंड फ्रांस की तरफ था। यह लहना सिंह के लिए भारत की ओर से राजभक्ति की लड़ाई थी और राजभक्ति और देशभक्ति कैसे मिली-जुली एक साथ एक आदमी में हो सकती है - ये बात देखना चाहें तो लगभग हिंदी साहित्य में एक दौर पूरा का पूरा है, जिस पर आज भी बहस होती रहती है और कई लोगों को तकलीफ भी होती है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र तक में राजभक्ति और देशभक्ति दोनों एक साथ मिलती है और दोनों में कोई विरोध नहीं था।
गुलेरी जी की पूरी की पूरी कहानी में आप उस राजभक्ति और देशभक्ति दोनों तत्वों को देखिएगा, कैसे सहअस्तित्व है राजभक्ति और देशभक्ति का। लहना सिंह और वजीरा से बातचीत होती है तो वो कहता है कि मैं तो लड़ाई के बाद सरदार से दस खुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा। सरकार पर इतना भरोसा है कि हम लड़ रहे हैं तो उससे जमीन माँग लेंगे और यहाँ खेती करेंगे। अपनी सरकार से भी फायदे उठाएँगे, लेंगे - यह नहीं कि पहले राजभक्ति थी। गुलेरी जी स्वयं लॉ-कॉलेज, अजमेर में थे। अपनी रियासत के राजा के साथ उनके शिक्षक के रूप में, सांस्कृतिक सलाहकार के रूप में थे। बहुत दिनों तक गुलेरी जी 'मेओ कॉलेज' में अध्यापक रहे थे। मेओ कॉलेज राजाओं के लिए कायम किया था। अब भी है अजमेर में।
इसलिए इस कहानी के बारे में तमाम बातें की जाती हैं। इस पहलू पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि वह 1914 की लिखी हुई लड़ाई में, युद्ध के माहौल में-यहाँ के लोग लड़ने के लिए गए हैं, उनकी कहानी लिखी जा रही है; और उस कहानी को लिखने के माध्यम के बारे में ये राजभक्ति और देशभक्ति का नमूना है। ये बात मुझे-कहानी जब मैं पढ़ रहा था-तो 1952 में नहीं सूझी थी। फिर मैं इतने दिनों के बाद इस कहानी को पढ़ने लगा तब मुझे लगा कि आखिर इस लड़ाई को थीम बनाकर और इस लड़ाई में जर्मनों को हराना मुख्य मुद्दा है और जो आदमी शहीद हुआ है, उसकी कहानी लिखी जा रही है और अँग्रेजों की ओर से लड़ने वाला इसका जो हीरो है, वह अँग्रेजों की ओर से जर्मनी के खिलाफ लड़ रहा है। अपने देश की आजादी के लिए नहीं, बल्कि अँग्रेजी राज की रक्षा में लड़ी जाने वाली लड़ाई में लड़ा - वो हीरो है लहना सिंह - और लहना सिंह गुलेरी जी का होरो है। ये राजभक्ति दिखाते हैं।
और खूबी की बात यह है कि उस जमाने में राजभक्ति के साथ एक और चीज थी जो आजकल बढ़ गई है। देशभक्ति की मजबूत नींव कैसे कायम होती है, इस कहानी में बताया गया है। जिन शब्दों और कस्बों का नाम आया है, जिससे जुड़ाव है उस आदमी का, कहानी अमृतसर से शुरू होती है, जगाधरी जिले का नाम आता है, चंबे का पानी आता है, शिमला आता है, काँगड़ा आता है, एक-एक करके जो नाम आते हैं, जिन जगहों के नाम है, वे पंजाब के खास कस्बा-शहर हैं (गुलेरी जी पंजाब के नहीं थे) लेकिन कहानी में जब तक काँगड़ा न आए तब तक लगे कैसे कि हमारी कहानी है। लड़ाई के मैदान में सिपाही लड़ने जाते हैं तो उनको पूरा हिंदुस्तान नहीं जिस गाँव के जिस कस्बे के हों उसके साथ जोड़कर देखा जाता है। बटालियनों के नाम रखे गए थे। 'राजपूताना बटालियन' थी। अलग-अलग इलाकों से जुड़े हुए बटालियन के नाम थे। किसी के धर्मों के नाम थे। इसलिए बंगाल आर्मी कहा गया था। यद्यपि रहने वाले अवध के थे वो जब बगावत की उन लागों ने तो बाकायदे अवध को केंद्र बनाया गया था। इसलिए अपने शहर, अपने कस्बे, अपने इलाके से जमीन पर उसके जो पाँव होते हैं, धरती जहाँ की है, जहाँ पैदा हुए हैं - उससे आपकी पहचान बनती है, आइडेंटिटी बनती है।
हम हिंदुस्तान कब जाएँगे। हिंदुस्तान दो बार आता है पूरी कहानी में। लेकिन हिंदुस्तान से ज्यादा जो लगाव और आत्मीयता से भरे शब्द निकलते हैं, वो अमृतसर के निकलते हैं, काँगड़ा के निकलते हैं, चंबा के निकलते हैं। इन कुछ कस्बों के, छोटी जगहों के नाम निकलते हैं और जीवंत होकर चीजें आती हैं। मसलन, कहानी शुरू ही होती है पूरे हिंदुस्तान से नहीं - अमृतसर से। जैसे बनारस के बारे में... कोई अब दिल्ली या विदेश भी जाएँ तो आपको गोदौलिया या कमच्छा याद आए और बाद में - अब तो रहे नहीं वो बनारसी इक्का जिससे आप जा रहे हैं, कस्बे याद आ रहे हैं - ये लगाव। सहसा कहानी लोगों को अपनी पकड़ में ले लेती है बनारस का मतलब कुछ लोगों के लिए भात होगा, कुछ लोगों के लिए लँगड़ा आम होगा, कई लोगों के लिए दाल-मंडी होगी - अलग-अलग चीजें होंगी। लेकिन बनारस के बारे में, जो ठेठ बनारसी लोग हैं- बेढब बनारसी ने बनारसी इक्का को ही बनारसी पहचान माना और शायद इक्का जिन जगहों से होकर गुजरता है इसीलिए। इस पूरी कहानी में सबसे जीवंत हिस्सा इसीलिए अमृतसर की वह गलियाँ है जहाँ से इक्का गुजरता है।
पहला ही वाक्य पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सुधार दिया था। गुलेरी जी ने लिखा था, "जबकि बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जुबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि अमृतसर में बंबूकाट वालों का मलहम लगाएँ।" पंडित जी ने सपाट कर दिया है - "जबकि बड़े-बड़े शहरों के इक्के गाड़ी वालों की जबान से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं।" जुबान से पीठ न छिलती है, न असल में तो कान पकते हैं। लेकिन जबान के कोड़ों से पीठ छिलती है, कान पकते हैं - ये ध्यान दें, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकाट वालों का मलहम लगाएँ। क्येांकि चोट लगी है न, तो मलहम उस पर लगाना बहुत जरूरी है।
जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए उनके मालिक इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट संबंध कायम करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं। माँ-बहन की गाली देते हैं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी ने फिर संशोधन किया है। संकेतों में द्विवेदी जी ने रहने दिया। गुलेरी जी ने कुछ और लिखा था। ज्यादा हिम्मत दिखाई थी। गुलेरी जी अमूर्त चीज में नहीं विश्वास करते थे। मूर्त में वे घोड़ों से किसी का निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं। कभी उनके गुरिया-गुप्तांगों से डॉक्टरों द्वारा लगाए जाने वाले इंजेक्शन से परिचय दिखाते हैं। आचार्य द्विवेदी ने गोल कर दिया है। उनके सात्विक विचारों के लिए सही नहीं था कि घोड़ो निकट यौन-संबंध स्थापित करें और गुरिया-गुप्तांगों की बात रहने दें।
कहानी केवल पढ़ने की चीज नहीं होती। कहानी में दृश्य और श्रव्य दोनों गुण होने चाहिए। इस कहानी ने दिखाया कि आपकी आँखों के सामने जो तक दृश्य खड़ा किया गया है और आपके कानों ने जो सुना है वह कितना विश्वसनीय है।
हरिशंकर परसाई में एक गुण था, कहानी सुनाते थे। कृश्न चंदर कहानी सुनाते थे। मुझे अच्छी तरह याद है सज्ज़ाद जहीर साहब बंबई से निकले थे और इप्टा के लिए कोई चंदा इकट्ठा करना था, तब पाँच शहर उन्होंने चुने थे और उन्होंने शाम-ए-अफसाना नाम का एक आंदोलन चलाया था जिसमें कृश्न चंदर को बनारस भेजा और बनारस के बेनिया बाग में और कृश्न चंदर ने अपनी कहानी पढ़ी नहीं, बल्कि पूरी की पूरी कहानी सुनाई थी। 'सरदार जी' नामक कहानी सुनाई थी उन्होंने। कहानी के शब्द गूँज के साथ ही उसका चित्र, पूरा का पूरा अमृतसर बाजार, हठो बाच्छाजी, हठो भाई जी, वो बंबूकाट वाले बीच से गुजरते हुए - कहानी बिल्कुल चित्र की तरह से - यानी जैसे फि़ल्म की स्क्रिप्ट लिखी गई हो, सिनेरिया हो। 'उसने कहा था' कहानी की खूबी है, जो बहुत कम कहानियों में है, जो चित्र प्रस्तुत कर देती हों, जहाँ जिस भाषा में हों - हट जा जोगेवालिये, हट जा करमावालिये, हट जा पुत््तांवालिये, बच जा लंबीवालिये। समष्टि में इसका अर्थ यह है कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है तू पुत्रों को प्यारी है, लंबी उम्र तुम्हारे सामने है। तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा। ये प्यार और मोहबत से भी, ये नहीं कि माँ और बहन की गालियाँ देते हुए निकल जाएँ।
दूसरे शहरों के लोग जब गाली का रिश्ता स्थापित करते हैं, उसमें माँ-बहन की सीधी बात एक वाक्य में लिखते हैं। ये अमृतसर वाले इस बोली में बात करते हैं कि हठ जा पुत्तां प्यारिये। वो भी व्यंग में कि तू मर जाएगी, तू हट जा, बच जा, पुत्रों को प्यारी है, उनकी प्यारी है - वे अंदाज! एक कल्चर है यहाँ। इसलिए पूरा का पूरा विवरण केवल विवरण नहीं है बल्कि समूची जाति, उस माहौल में रहने वाले लोग और उस महिला के बीच से कहानी शुरू होती है।
वे आठ साल की लड़की और बारह साल का लड़का। अचानक दोनों एक जगह मिलते हैं। और वे मशहूर डॉयलॉग है, हिंदी में इसके पहले मैं न जानता था और न बाद में कभी सुना कि 'तेरी कुड़माई हो गई'। अब 'कुड़माई' शब्द इस्तेमाल करना, दूसरा कोई भी शब्द मँगनी कहने पर वो बात नहीं बनेगी। वो शायद मँगनी भूल भी जाती है - लोगों की हुआ करती है मँगनी। बहुतों की, आप लोगों की, सबकी हुई होगी। मँगनी न कहकर कुड़माई हो गई है। एक लफ्ज पूरी उस संस्कृति को, समाज की परंपराओं को, एक शब्द व्यक्त करता है। कुड़माई हो गई और वह 'धत्तू' कहकर भाग जाती है। और एक दिन ऐसा हुआ कि हाँ हो गई। देखते नहीं, रेशम का कढ़ा हुआ शालू? और फिर उसके बाद तो पता लगते ही कुत्तों को मारता हुआ, सड़क को ठोंकता हुआ, वो प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।
इसलिए कहानी को भी कविता की तरह, उसके पाठ को उतनी ही सावधानी से पढ़ना होता है। कहानी पढ़ने का एक तरीका है कि कहानी का सारांश और उसका निष्कर्ष बता दीजिए, ये नींबू निचोड़ वाला पाठन है। वह यही कहना चाहते हैं अंत में क्या हुआ?
कहानी के अंत में बहुत से लोग परिभाषा देते है हैं कि कहानी का अंत महत्वपूर्ण होता है कि आप कहाँ अंत करते हैं? सुखांत कहानी है या दुखांत कहानी है? यह जानकर निश्चिंत हो जाना चाहते हैं। जी, नहीं। आदि और अंत महव्तपूर्ण नहीं होता है। पूरा पाठ जो उसी रूप में पिरोया हुआ है उसे उतने ही ध्यान से एकाग्रता के साथ, जैसे कविता पढ़ी जाती है, कहानी भी पढ़ी जानी चाहिए, केवल अपनी भाषा में सारांश बताकर और अपनी भाषा में निष्कर्ष बता कर, मोरोलिज्म, बताकर, आप सब कहानी पढ़ते हैं। उस कहानी के पढ़ने से आपका कोई ताल्लुक नहीं होता है। आपके लिए प्लाट महत्वपूर्ण है और एक प्लाट पर एक दर्जन क्या, बीस कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। एक ही पैटर्न होता है उस प्लाट का। बने हुए हैं। कुछ लोगों ने दुनिया की सारी कहानियों पर सात प्लाट बनाए हैं और कहा कि इसी पैटर्न पर सारी कहानियाँ होती हैं। अजीब बात है कि यदि सात हों भी इत्तिफाक से - जो नहीं होते - तो फिर लोग एक ही चीज अलापते चले जा रहे हैं और कहानी एक ही तरह की है। ऐसा नहीं है। आपके दिमाग का, हमारे आपके दिमाग का साँचा एक बना हुआ है। उस साँचे से हम अपने को ढाल देते हैं और तृप्त हो जाते हैं कि चलो, हमने कहानी पढ़ ली। अनुभव से मैंने सीखा और जाना है कि एक साँचे को दिमाग से अलग करने कहानी को पढ़ो और हर कहानी कुछ ऐसा लेकर आती है जो दूसरी जगह नहीं होता। अच्छा लेखक दुहराने के लिए नहीं बना है।
इस कहानी में महत्वपूर्ण है आँचलिकता। एक आँचलिक आंदोलन चला तो फणीश्वरनाथ रेणु का डंका बज गया और लगा कि हिंदी में पहली बार आँचलिकता की धूम मची हुई है। आप देखें, तो रेणु जी के पहले, पचास साल पहले, गुलेरी जी की यह कहानी जिस अर्थ में आँचलिक भाषा, आँचलिक जीवन, आँचलिक गीत। तो इस कहानी की भाषा के कई लेबल हैं, जो गद्य है उसके बारे में बाद में बात करूँगा। मैं समझता हूँ कि गुलेरी जी हिंदी के उन थोड़े से गद्यकारों में से हैं जो संस्कृत के पंडित होते हुए बोलता हुआ गद्य लिखते हैं। 'आम फहम गद्य' जो संस्कृत नहीं जानते, आमतौर से वही बड़ी कठिन हिंदी लिखते हैं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे। इलाहाबाद वाले नाराज न हो जाएँ, इलाहाबादी जो हिंदी लिखते हैं - संस्कृत जानते नहीं और संस्कृत का बहुत प्रयोग करते हैं। बोलचाल वाले गद्य से बहुत दूर हैं। जबकि उनको अवधी से लेना चाहिए। जैसे वे स्वयं कहते थे - मैं तो भोजपुरी से लेता हूँ।
गुलेरी जी के गद्य को पढ़ते हुए बिल्कुल नहीं लगता है कि संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ाते थे कभी। लेकिन उपयोग करते हैं। एक जगह उन्होंने कहानी में भीषण सर्दी की रात में चाँद के निकलने का वर्णन करते हुए 'क्षयी' शब्द का प्रयोग किया है। 'लड़ाई के समय, चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृत के कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में दंतवीणोपदेशाचार्य कहलाती है।' ये दंतवीणोपदेशाचार्य सीधे कह सकते थे कि दाँत कटकटाने लगता है सर्दी में तो दाँतों की वीणा बजने का उपदेश। 'क्षयी' और 'दंतवीणोपदेशाचार्य' दो का प्रयोग करके ये बता दिया कि ये पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ही ये उपमा दे सकते थे। इसलिए इसमें भाषा के कई रजिस्टर मिलेंगे। पंजाबी के शब्द, ठेठ पंजाबी संस्कृति से निकले हुए शब्दों के अलावा - यानी ठेठ आँचलिकता है और आँचलिकता के अनेक शब्द हैं, भरे पड़े हैं। तेरी कुड़माई हो गई तो है ही, बादशाह को बादशाह, अपने हाथों हम झटका करेंगे। दो तरह का गोश्त पकाया जाता है न, एक रेत कर बनाते हैं और एक झटका कहते हैं, तो झटका करेंगे। बकरा काटने को कहते हैं झटका। 10 खुमा जमीन, बीघा नहीं है, ये ठेठ पंजाबी का है। उठ उदमी-उद्यमी को उदमी। यहाँ मुरब्बे नहीं मिला करते हैं। मुरब्बा मिठाई नहीं है, ये जमीन जो किनारे होती है, जो गज से नापी जाती है - वो इतने मुरब्बे नहीं मिलेंगे - जमीन नापने का, इतनी जमीन इतने मुरब्बे। इस तरह भरे पड़े हैं आँचलिकता के शब्द, जो फैशन के लिए नहीं है।
एक जगह एक शब्द मिलता है - गनीम। मुझे डिक्शनरी लेनी पड़ी। 'गनीम' दिखते भी नहीं हैं, ये गनीम क्या होता है? गनीमत तो हम जानते हैं। गनीम क्या होता है। तुरंत मैंने शब्दकोश निकाला तो मालूम हुआ कि दुश्मन को गनीम कहतें हैं। जो विपक्ष में लड़ रहा है उस आदमी को गनीम कहते हैं। अरबी शब्द है। हो सकता है कि पंजाबी में भी बोला जाता हो गनीम। जो रात में गोली दागते हैं तो कहते हैं सब गनीम दिखते भी नहीं विद्रोही दिखाई नहीं पड़ते हैं। गनीम शब्द का प्रयोग किया है, संस्कृत, पंजाबी, अरबी - इन तमाम शब्दों के द्वारा वो कहानी कहते हैं।
और सबसे बड़ी जान! कहानी में पूरा का पूरा संगीत पंजाबी का; जिसे कुछ लोगों ने अश्लील समझकर निकाल दिया था। गीत से आप भलीभाँति परिचित हैं। उसके गीत को एक बार पढ़ देना तो जरूरी है। वजीरा सिंह ने त्यौरी चढ़ाकर कहा क्या मरने-मारने की बात लगाई है। मरें जर्मन और तुरक! हाँ, भाइयों। कैसे! और सर्दियों की खाइयों में उसे जाड़े से बचने के लिए, लड़ाई के वातावरण में भी गा रहे हैं। ये साबित करता है कि इनसान दुख में, संघर्षों के दौरान भी ताकत हासिल करता है अपने लोकजीवन के गीतों से और उन गीतों में से - 'दिल्ली शहर... दूँ / की... दूँ जानिये/ करले नां लांगा दा अपार मड़िये / करले नां नाड़े दा सौदा अड़िये / ओए नाड़ा छटाका कड़िये नूं / कद्दू बनिड़ेगा मजेदार गोरिये/ लाड़ां चटाका करिए नूं। नीचे अनुवाद भी उन्होंने दे दिया है। आप लोग जानते होंगे, फिर भी दोहरा देता हूँ - अरी ओय, अरी दिल्ली शहर से पेशावर को जाने वाली! लोगों का व्यापर कर ले। और यार! बंदों का सौदा कर ले। जभी चटचटाकर कद्दू खाना। गोरी कद्दू मजेदार बना है, अब चटचटाकर उसे खाना है। अरे, ये कद्दू है। बाकी सब चीजें सिंबोलिक हैं। लोग वैसी चीजों को जानते हैं और कभी-कभी गालियों में भी इस्तेमाल किया करते हैं।
और इस पर टिप्पणी करते हैं गुलेरी जी। कौन जानता था कि दाढ़ियों वाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे। इससे लाख टके का शब्द है 'घरबारी सिख'। पढ़े-लिखे नहीं कहा। श्रेष्ठ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। घरबारी, जिसकी माँ हैं, बहनें, बीवियाँ हैं। जिनके घर में ये औरतें हैं। मैंने हिंदी में घरबारी शब्द का इस्तेमाल नहीं देखा है। अब नहीं होता। एक टिप्पणी में उस गीत की अश्लीलता को सारा का सारा धोकर -पोंछकर बराबर कर दिया।
तो इसे कहते हैं सुरुचि। इस 'सुरुचि' शब्द को याद रखिएगा। इसी के कारण इसके उपयोग के आधार पर आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में इस कहानी पर टिप्पणी की है। दो-बार, तीन-बार उस छोटी-सी टिप्पणी में सुरुचि के उत्कर्ष पर चरम मर्यादा की चर्चा की है। बार-बार सुरुचि शब्द का प्रयोग किया है। यानी किसी अश्लीलता की सीमा को छू लेने वाला श्रृंगारी गीत लोकगीत गाते हुए भी कैसे गुलेरी जी निर्वाह करते हैं, सँभाल ले जाते हैं कि फील नहीं होने पाता। ये कला है इसलिए उस आँचलिकता के साथ भाषा की वीरता - यानी इन तमाम चीजों को देखते हुए, इस तरह ये कहानी का ताना-बाना बनाया गया है। भाषा का रजिस्टर बहुत महत्वपूर्ण है। ये भाषा की कला है और भाषा के कई स्तर हैं, कई रूप हैं। पूरी की पूरी कहानी वर्णनात्मक कम है। सारी कहानी संवादों में लिखी गई है। भारती जी ने जब इसे नाटक में बदला, तो एक बहुत बड़ी सुविधा थी और ध्यान था कि संवादों में कहानी लिखी गई है - डायलॉग है, नाटक है कहानी। इसमें अनावश्यक वर्णन नहीं है, यही कहानी का गुण है जिसे कहते हैं आख्यान। नैरेशन नहीं है, इसमें डिस्क्रिप्शन है और कहानी का कथानक डायलॉग से, संवादों से बढ़ता है। स्वयं लेखक अपनी ओर से बोलता ही नहीं कहीं।
इसलिए शुक्ल जी ने कहा है कि इसमें लेखक कुछ नहीं बोलता, घटनाएँ स्वयं बोलती हैं। जो संवाद है, वही घटना की कहानी कहता है। उन्हीं में कहानी निहित है। प्लॉटिंग नहीं है इस कहानी में। इसके बावजूद बहुत कठिन काम है कि एक आदमी कोई छोटा-सा चुटकुला भी लिख जाए तो उसे बयान करने के बजाय आप दो आदमियों की बातचीत लिख दें और उसमें से कहानी निकल आए। कहानी वो है। कला की परीक्षा यहाँ से वहाँ तक, जैसे नाटक में होता है। आप संवाद करते चले जाएँ और कथानक उसमें से अपने आप प्रकट हो जाए। कहना न पड़े कि कौन कह रहा है, बोलने वाला कौन है, घटना क्या है। इसलिए अधिकांश कहानी डॉयलॉग में भरी हुई है।
इस कहानी के दो पक्ष हैं, जिस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। जैसे कविता के बारे मैंने कहा था एक बनावट होती है और एक बुनावट होती है। बनावट को मैं संरचना या स्ट्रक्चर कहता हूँ। प्लाट है, कथानक है जिसको ढाँचा कहते हैं आप। हर कहानी का कहते हैं आदि होता है, मध्य होता है, अंत होता है; उसमें एक क्रम होता है। गुलेरी जी ने इस क्रम को तोड़ दिया है। ये कहानी पहले खंड के साथ ही जब पहली बार दोनों मिलते हैं,शुरू होती है और अचानक कहानी पच्चीस वर्ष की छलाँग लगाती है युद्ध के मैदान में, अमृतसर के बंबूकाट वाले गाड़ी की तरह से, दूसरा खंड जहाँ शुरू होता है ठीक लड़ाई के मैदान में।
यह जो छलाँग है, कहते हैं कि छलाँग लगाने वाली जो बात है, वो द्विवेदी जी ने कहीं लिखा है अपने उपन्यासों के सिलसिले में कि मैं जो उपन्यास लिखता हूँ, तो जैसे पहाड़ी नदी पार करने की कला उसमें होती है, पहाड़ी नदी है, बीच-बीच में चट्टानें होती हैं तो आप नदी को तैरकर पार नहीं करते हैं। एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर छलाँग लगाया, फिर तीसरी चट्टान पर छलाँग लगाया, छलाँग लगाकर आप वो नाला पार करते हैं; उसी तरह से मैं अपनी कहानियों को सीधी रेखा में डायरेक्ट नहीं करता, बल्कि छलाँग लगाते हुए आप एक से दूसरे पर, दूसरे से तीसरे पर। ये छलाँग लगाने का जो मजा है न, पहाड़ों का मजा ये ही है कि आप नदियों में तैरकर नदी पार करते हैं। जैसे नाला पार करते हैं मैदानों में, बल्कि छलाँग लगाते हुए चलते हैं। तो पहाड़ पर चढ़ने का भी मजा आता है, वरना आप सीधे रेंगते हुए चले जा रहे हैं, तो आप में और कीड़े में क्या फर्क है! पहाड़ों पर गए और कीड़े की तरह आप रेंगते चले आ रहे हैं। छलाँग लगाकर ही आइए।
इस कहानी में पहली ही लंबी छलाँग अमृतसर से जर्मनी का मैदान, जहाँ वो चीज-देखते नहीं है रेशम का कढ़ा हुआ सालू - गुलेरी जी ने कही। लड़की भाग गई। ध्यान देने की बात, राम-राम! ये भी कोई लड़ाई है। दूसरा खंड यहाँ से शुरू होता है - 'राम-राम! ये भी कोई लड़ाई है।ʼ दिन रात खंदकों में बैठे हड्डिया अकड़ गई - ये दूसरा खंड शुरू होता है - लंबी छलाँग और छलाँग कथानक में ही नहीं है टाइम में, काल में छलाँग है। वो घटना जो घटी थी, जो बाद में चलकर मालूम होता है, जब एक लड़का बारह साल का था और लड़की आठ साल की थी। युद्ध हो रहा है, वो पच्चीस साल बाद हो रहा है, क्योंकि आर्मी में भरती होकर के वह हवलदार बन चुका है। यानी 37 साल का वो हो चुका है - लड़का। 25 जोड़िए 12 में, तो 37 हुआ। सीधे 25 साल की छलाँग लगाकर कहानी वहाँ पहुँचती है। बीच में क्या हुआ? ये कहानी बाद में कहती है। यानी धागा तोड़कर के कथानक को ताश की गड्डी की तरह फेंटकर और फिर इसके बाद उस बीच की घटना बहुत बाद में सुनाते हैं। बाद वाली घटना पहले सुनाते हैं। फ्लैश बैक आमतौर पर इसे कहा जाता है। कहानी फ्लैश बैक में लौटती रहती है। बार-बार लौटती है और फ्लैश बैक में उस बीच में उसकी शादी हुई। एक बेटा हुआ। बाद में बताया जाता है कि तीन और हुए, मर गए थे। ये भी आर्मी में भरती हो गया। फिर ये हुआ, ये हुआ, ये हुआ है। यह बात बाद में बताई जाती है।
मैं जानना चाहता हूँ, उस समय ये कहानी की कला किसके पास थी कि कथानक सीधी रेखा में न चले, कथानक टेढ़ी रेखा में न चले, कथानक तोड़कर छलाँग लगाकर बढ़े। ये किसने कहा था कि पहले की घटना बाद में बताई जाए और बाद की घटना पहले बताई जाए? कहाँ कहा था? किस किताब में लिखा हुआ है प्लॉटिंग के बारे में? यह गुलेरी जी का प्रयोग था - गुलेरी जी कहानी कहने की कला में नया प्रयोग कर रहे थे, जिसकी ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता। हम सहज भाव से 25 साल की छलाँग लगाकर लड़ाई के मैदान में पहुँचते हैं और भूल ही जाते हैं क्या हुआ था और जो हुआ अब वो इस 25 साल के बाद - आखिरी में।
यह अजीब बात है कि कहानी सपनों में चलती है। कहानी पूरा का पूरा सपना है और सपनों में वजीरा पानी पिला, वजीरा पानी पिला, ये आवृत्ति जो बार-बार आती है, वो हॉण्ट करती है, सारी चीजें भूल जाएँ, लेकिन वजीरा पानी पिला... उसने कहा था...। उसने क्या कहा था? - इन दोनों को बचाना। ये वाक्य तीन बार आया है कहानी के पाँचवें खंड में, छठवें खंड में, चौथे खंड में - वजीरा पानी पिला - बार-बार जैसे लेखक दुख में किसी स्थिति में बात करते हैं तो प्यास - यानी बात कहते समय सूख जाता है गला। कहता है पानी पिला। फिर इसके बाद चालू हो जाते हैं - पानी पिला। कहानी की खूबी ये है कि जिस व्यंग्य, हास्य और विनोद से कहानी ठहाके लगाती हुई शुरू होती है, कहानी का अंत करुण होता है। संस्कृत कविता में एक शब्द चलता है - भाव सबलता। दो भावों में विरोधी चीजों का मिश्रण। काव्यशास्त्र में लिखा गया है और रस सिद्धांत में बताया गया है कि किन-किन भावों का मेल हो सकता है। हास्य और करुण का मेल हो सकता है कि नहीं, ये कहीं नहीं बताया गया है। संस्कृत काव्यशास्त्र के आचार्य गुलेरी जी हास्य और करुणा का मेल करते हैं, क्योंकि इस मेल का मुख्य उद्देश्य है करुण रस उत्पन्न करना और करुण रस को थीम में बनाने के ठीक उसके उल्टा हास्य को मिलाया जाएगा तो करुणा और भी गहरी और तीव्र होगी। 'हम तुमसे मोहब्बत करके सनम हँसते भी रहे रोते भी रहे' और ये प्यार में ही हो सकता है। प्यार की कहानी हँसते और रोते हुए दोनों तरह अगर नहीं कही गई, तो वह प्यार की कहानी नहीं है।
इसलिए इस कहानी में एकदम दो विरोधी भावों को एक जगह सबलता के रूप में रखा गया है। हँसते हैं, रोते हैं, कुड़माई हो गई। धत्त से शुरू होता है। ये ही नहीं, इस कहानी का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र वजीरा सिंह है। जर्मन लोगों का मजाक करता हुआ वजीरा। वजीरा के मजाक से पूरी की पूरी खंदक जो है, ठहाके लगाती चली आ रही है। वही वजीरा अंत में कहानी में घायल पड़ा हुआ है और वो स्वप्न में बर्राता जा रहा है। जब यह कह रहा था कि हाँ, अब ठीक है, पानी पिला दे। बस अब दिहाड़ में आम खूब फलेगा, चाचा-भतीजे दोनों बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही बड़ा यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था। वजीरासिंह के आँसू टप-टप गिर रहे थे, लहना के नहीं। ये आम वाली, बच्चे वाली, बेटे वाली घटना है। पर वजीरा सिंह बच जाता है। कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा मैदान में घावों से मरा नम्बर-77 सिख राइफल सरदार लहनासिंह। ये है ऐसे आदमी के करुण जीवन के अंत की कहानी, तथ्यात्मक बुलेटिन में जिस तरह से छपती है उस तरह से छपकर कहानी खत्म।
आमतौर से समझा जाता है कहानी शुरू करना लोग कहते हैं कि मुश्किल है। कैसे शुरू करें? अब कहानी यहाँ से शुरू हो गई बंबूकाट वालो से। सबसे मुश्किल होता है कहानी खत्म कहाँ आप करते हैं, कैसे करते हैं। क्योंकि जहाँ अंत करते हैं, सारी कामयाबी पूरी ताकत के साथ कहानी वहाँ पाई जाती है। कई लोगों ने लिखा है कि अंत सबसे महत्वपूर्ण होता है। जैसे हम सबको अपना अंत मालूम है कि एक दिन मरना है। अंत ज्ञात है। लेकिन वो अंत कैसे लिखा जाता है, कैसे बयान किया जाता है, ये महत्वपूर्ण है। इसे कहानी कला कहते हैं। मैंने कहा कि उसका टैक्सचर - घनी बुनावट का महत्व होता है जिसको कोई भी कैमरे की फिल्म के द्वारा पूरे घनत्व के साथ उतार सकता है। दृश्व, एक-एक करके, टुकड़े-टुकड़े में हैं। पुनरावृत्तियाँ जैसे हॉण्ट करती हैं। आवृत्तियाँ होती हैं, जैसे गीत में होती हैं।
अब इस कहानी को भारतीय कहानी के परिप्रेक्ष्य में देखिए और विश्व कहानी के परिप्रेक्ष्य में देखिए। एक बार - क्योंकि आलोचकों के काम का विश्लेषण यही है - आलोचक का और पाठक का, जो कहानी पढ़ता है, तो पढ़ने के बाद उसको कहीं स्थित करना चाहता है। उसकी जगह कहाँ होगी? भारत में रवींद्रनाथ अपनी समस्त कहानियाँ लगभग लिख चुके थे 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में। एकाध उपन्यास लिख चुके थे। रूस में चेखव लिख चुके थे। टॉलस्टॉय लिख चुके थे। दॉस्तोवॅस्की लिख चुके थे। सारी दुनिया में पश्चिम देशों में जहाँ से शुरू हुई है - हम लोगों के पास संस्कृत के पुराने ढंग की लिखी हुई वो कहानियाँ तो थी, लेकिन जिसे आधुनिक कहानी कहते हैं वो कहानी प्रेमचंद जी उर्दू में लिखते थे उस समय। 'सरस्वती' में 'पंच परमेश्वर' इसके कुछ बाद ही आई।
इसलिए हिंदी कहानी की दुनिया में किस ऊँचे शिखर से हमने शुरू किया है 'उसने कहा था' उसका सबसे शानदार नमूना है। पहली कहानी इस ऊँचे पाये की कहानी है और एक ऐसे आदमी की, जिसने कुल मिलाकर चार कहानियाँ लिखीं। कहानी लिखी ही नहीं, वो तो निबंध लेखक थे। पंडित थे। उन्होंने और चीजें लिखीं। शोध संबंधी चीजें लिखी। दुनिया में कहानी की दुनिया बन चुकी थी। उसके बावजूद दूर-दूर तक इस कहानी को पढ़ने से पता नहीं चलता है कि इस कहानी का लेखक, चेखव, टॉलस्टॉय, मोपाशां आदि को पढ़ा है, ठेठ भारतीय लिखी हुई कहानी है। दूर-दूर तक नहीं लगता कि इस आदमी ने जो कहानी लिखी है रवींद्रनाथ की भी कोई कहानी इसने पढ़ी है। नहीं मालूम! इस पूरी कहानी में कहीं भी दूर-दूर तक इस पर छाप और छाया नहीं मिलेगी किसी भी पूर्ववर्ती लेखक की, किसी भी भाषा के लेखक की छाँव तक इस पर नहीं है और उस दौर में जब 20वीं शताब्दी में पत्रकारिता का भी बहुत विकास नहीं हुआ था। खड़ीबोली हिंदी की भाषा थी। उस भाषा को 'पंच परमेश्वर' जो 'पंचायत' नाम से उर्दू में छपी थी और 'पंच परमेश्वर' नाम से महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उसे छापा था। आप उसकी भाषा के साथ इसकी भाषा मिला लीजिए, तो आपको फर्क मालूम होगा कि हिंदी गद्य बन रहा था कथानक में।
इसलिए भले ही यह कहानी उस दौर के मूड के अनुसार लगे कि, वह राष्ट्रप्रेम जो स्वाधीनता संग्राम के गरम होने पर, गरमाने पर 1920-21 के आसपास शुरू हुआ, उसके पहले लिखी हुई कहानी के रूप में है। इस कहानी के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है - "इसके पक्के यथार्थवाद के बीच सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है। घटना में कोई विलक्षणता नहीं है।" 'सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष'। दो-दो बार 'चरम'। शुक्ल जी सुपरलेटिव बहुत कम इस्तेमाल करते थे।
दरअसल, कुल मिलाकर शुक्ल जी की नजर में घटना है कि एक लड़़का है, एक लड़की है, दोनों मिले, आकर्षण हुआ। वह तो होता ही रहता है। शादी दूसरे से हो जाती है। ये भी होता है। उससे नहीं होती, किसी और से हो जाती है और जीवन भर उसकी याद बनी रहती है। घटना इसकी ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती है। पर उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय आदर्श रूप झाँक रहा है। केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता से पुकार या कराह नहीं रहा है। निर्लज्जता से बाहर है। मर्यादावादी हैं आचार्य जी। कहानी भर में कहीं प्रेमी की निर्लज्जता शब्द का प्रयोग नहीं है। कहीं भी निर्लज्जता, प्रगल्भता, वाचालता जिसको कहते हैं - वेदना की वीभत्स विवृत्ति वह नहीं है। मसलन, झार-झार के कोई रोने लगे तो बेशर्म समझिए कि वीभत्स विवृत्ति है - बहुत आँसू बहाना। बार-बार। पर वो रूमाल, देखिए, पोंछ रहे हैं। वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं हैं, सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचा है। इसमें घटनाएँ यही बोल रही हैं। पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं है। ठहर के, तुला हुआ, चुना हुआ है। चुना हुआ एक-एक शब्द रखा गया है।
और जैसा मैने कहा सुपरलेटिव में चरम उत्कर्ष, सुरुचि की मर्यादा की तमाम चीजों की जो बात है - क्या यही है इस कहानी में या कुछ ऐसा भी है आचार्य शुक्ल ने जिसको नहीं लिया है, क्योंकि इस कहानी को लेकर प्रेम का यही आदर्श रखा गया है। वे भूल जाते हैं कि प्रेम के कई रूप इसमें हैं। केवल लहना सिंह और सूबेदारनी का ही प्रेम नहीं है। लहना सिंह का प्रेम जगहों से भी है, अपने घर से भी है, देश से भी है, वजीरा से है, और ये प्रेम होते हुए ये ध्यान रखें कि जिस तरह लपटन साहब के साथ की जो नोंक-झोंक दिखाई गई है, बिल्कुल हलवा-हलवा ही नहीं है कहानी, बल्कि इस कहानी में जीवन के कुछ कड़वे और भी सत्य हैं। अनकहे सत्य। सबको मिलाकर के सौंठ-मिर्च की तरह से ऐसा घोल तैयार किया गया है, जिसमें कहीं-कहीं वो खटास अगर न हो और थोड़ी काली मिर्च न डाली जाए तो ये मिठास अपच पैदा करेगी, मन भर जाएगा।
केवल ये एक लड़के-लड़की की प्रेम कहानी नहीं है, बल्कि ये प्रेम ज्यादा समृद्ध है, व्यापक है। शुक्ल जी का ध्यान इसकी ओर जाना चाहिए था। और भी कई पहलू हैं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं - तब तक, 1928 तक शुक्ल जी ने अपने इतिहास में और किसी कहानी की ऐसी प्रशंसा नहीं की है - मेरी जानकारी में।
इसलिए अब आप सबसे उम्मीद है कि ऐसा एक लेख लिखें, जिससे लगे कि 'उसने कहा था' पर अभी भी गुंजाइश है विचार करने की।
('पक्षधर' से साभार)