दिन के ऍंधेरे में
पसरता है बियाबान
सोचती हूँ मैं तितलियों के बारे में
उनके पँखों में
क्यों-कर हैं रंगों की लकीरें
नहीं मालूम
ये आवेग
उमड़ता है क्यों
ऑंखों में
पोरों में
सनातन स्वप्न
न टूटेगा कभी
ज़िंदगी के बियाबान में
झुण्ड से बिछुड़े शावक की मानिंद
ओह! वह अबोध एहसास
भारी है अनुभवों पर
ज्ञान की बातें
शब्दों का संसार
कितना कमतर है
अकेले आवेग के बरक्स
बार-बार उठता है सवाल
क्यों नहीं हम भयमुक्त
आहार-निद्रा-भय
शताब्दियों से ज्यों के त्यों क्यों
क्या भय ही है
जीवन-ऊर्जा का आधार
जो है ज्ञात
उसी को पाने की तड़प