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संस्मरण

बना रहे बनारस

विश्वनाथ मुखर्जी

अनुक्रम

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                 बनारस 

                 और 
                 बनारस की मिट्टी से 
                 जिन्हें प्यार है!

 

 

 

मैंने कहा

खुदा को हाजिर-नाजिर जानकर मैं इस बात को कबूल करता हूँ कि बनारस को मैंने जितना जाना और समझा है, उसका सही-सही चित्रण पूरी ईमानदारी से किया है। प्रस्तुत पुस्तक जिस शैली में लिखी गयी है, आप स्वयं ही देखेंगे। जहाँ तक मेरा विश्वास है, किसी नगर के बारे में इस प्रकार की व्यंग्यात्मक शैली में वास्तविक परिचय देने का यह प्रथम प्रयास है। इस संग्रह के कुछ लेख जब प्रकाशित हुए तब उनकी चर्चा वह रंग लायी कि लेखक सिर्फ हल्दी-चूने के सेवन से वंचित रह गया। दूसरी ओर प्रशंसा के इतने पत्र प्राप्त हुए हैं कि अगर समझ ने साथ दिया होता तो उन्हें रद्दी में बेचकर कम-से-कम एक रियायती दर वाला सिनेमा शो तो देखा ही जा सकता था।

इन लेखों में कहीं-कहीं जन-श्रुतियों का सहारा मजबूरन लेना पड़ा है। प्रार्थना है कि इन ‘श्रुतियों’ और स्मृतियों को ऐतिहासिक सत्य न समझा जाए। हाँ, जहाँ सामाजिक और ऐतिहासिक प्रश्न आया है, वहाँ मैंने धर्मराज बनकर लिखने की कोशिश की है। पुस्तक में किसी विशेष व्यक्ति, संस्था या सम्प्रदाय को ठेस पहुँचाने का प्रयत्न नहीं किया गया है, बशर्ते आप उसमें जबरन यह बात न खोजें। अगर कहीं ऐसी बात हो गयी हो या छूट गयी हो तो कृपया पाँच पैसे से पन्द्रह नये पैसे के सम्पत्ति-दान की सनद मेरे पास भेज दें ताकि अगले संस्करण में अपने आभार का भार आप पर लाद कर हल्का हो सकूँ।

ग़ालिब के शेरों के लिए आदरणीय बेढबजी का, जयनारायण घोषाल की कविताओं के लिए पं. शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ जी का, संगीत सम्बन्धी जानकारी के लिए पारसनाथ सिंह का, पांडुलिपि संशोधन, धार्मिक-सांस्कृतिक जानकारी के लिए तथा प्रूफ संशोधन के लिए केशर और भाई प्रदीप का आभारी हूँ।

अन्त में इस बात का इकबाल करता हूँ कि मैंने जो कुछ लिखा है, होश-हवास में लिखा है, किसी के दबाव से नहीं। ये चन्द अल्फाज़ इसलिए लिख दिये कि यह सनद रहे और वक्त-जरूरत पर आपके काम आये। बस फकत—

                                                                        बकलम खुद 
                                                                        —विश्वनाथ मुखर्जी
                                                                        सिद्धगिरि बाग
                                                                        बुद्ध पूर्णिमा, 2015 वि.
                                                                        (सन 1958)

 

 

 

 

बना रहे बनारस

जिस प्रकार हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है पता नहीं चलता ठीक उसी प्रकार काशी कितनी प्राचीन है, पता नहीं लग सका। यद्यपि बनारस की खुदाई से प्राप्त अनेक मोहरें, ईंट, पत्थर, हुक्का, चिलम और सुराही के टुकड़ों का पोस्टमार्टम हो चुका है फिर भी सही बात अभी तक प्रकाश में नहीं आयी है। जन-साधारण में अवश्य काशी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व काशी को शंकर भगवान अपने त्रिशूल पर लादे घूमते-फिरते थे। जब सृष्टि की उत्पत्ति हो गयी तब इसे त्रिशूल से उतारकर पृथ्वी के मध्य में रख दिया गया।

यह सृष्टि कितनी प्राचीन है, इस सम्बन्ध में उतना ही बड़ा मतभेद है जितना यूरोप और एशिया में या पूर्वी गोलार्ध और दक्षिणी गोलार्ध में है। सृष्टि की प्राचीनता के सम्बन्ध में एक बार प्रसिद्ध पर्यटक बर्नियर को कौतूहल हुआ था। अपनी इस शंका को उसने काशी के तत्कालीन पंडितों पर प्रगट की, नतीजा यह हुआ कि उन लोगों ने अलजबरा की भाँति इतना बड़ा सवाल लगाना शुरू किया जिसे देखकर बर्नियर की बुद्धि गोल हो गयी। फलस्वरूप उसका हल बिना जाने उसने यह स्वीकार कर लिया कि काशी बहुत प्राचीन है। इसका हिसाब सहज नहीं। अगर हजरत कुछ दिन यहाँ और ठहर जाते तो सृष्टि की प्राचीनता के सम्बन्ध में सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि उनकी डायरी से सारे संसार को यह बात मालूम हो जाती।

चूँकि पृथ्वी के जन्म के पूर्व काशी की उत्पत्ति हो गयी थी, इसलिए इसे ‘अपुनर्भवभूमि’ कहा गया है। एक अर्से तक शंकर के त्रिशूल पर चक्कर काटने के कारण ‘रुद्रावास’ कहा गया। प्राचीन काल में यहाँ के जंगलों में भी मंगल था, इसीलिए इसे ‘आनन्दवन’ और ‘आनन्द-कानन’ कहा गया। इन्हीं जंगलों में ऋषि-मुनि मौज-पानी लेते थे, इसीलिए इसे ‘तप:स्थली’ कहा गया। तपस्वियों की अधिकता के कारण यहाँ की भूमि को ‘अविमुक्त-क्षेत्र’ की मान्यता मिली। इसका नतीजा यह हुआ कि काफी तादाद में लोग यहाँ आने लगे। उनके मरने पर उनके लिए एक बड़ा श्मशान बनाया गया। कहने का मतलब काशी का नाम ‘महाश्मशान’ भी हो गया।

प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह पता चलता है कि काश्य नामक राजा ने काशी नगरी बसायी; अर्थात इसके पूर्व काशी नगरी का अस्तित्व नहीं था। जब काश्य के पूर्व यह नगर बसा नहीं था तब यह निश्चित है कि उन दिनों मनु की सन्तानें नहीं रहती थीं, बल्कि शंकर के गण ही रहते थे। हमें प्रस्तरयुग, ताम्रयुग और लौहयुग की बातों का पता है। हमारे पूर्वज उत्तरी ध्रुव से आये या मध्य एशिया से आये, इसका समाधान भी हो चुका है। पर काश्य के पूर्व काशी कहाँ थी, पता नहीं लग सका।

काशी की स्थापना

काश्य के पूर्वज राजा थे इसलिए उन्हें राजा कहा गया है अथवा काशी नगरी बसाने के कारण उन्हें राजा कहा गया है, यह बात विवादास्पद है। ऐसा लगता है कि इन्हें अपनी पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा नहीं मिला, फलस्वरूप ये नाराज होकर जंगल में चले गये। वहाँ जंगल आदि साफ कर एक फर्स्ट क्लास का बँगला बनवाकर रहने लगे। धीरे-धीरे खेती-बारी भी शुरू की। लेकिन इतना करने पर भी स्थान उदास ही रहा। नतीजा यह हुआ कि कुछ और मकान बनवाये और उन्हें किराये पर दे दिया। इस प्रकार पहले-पहल मनु की सन्तानों की आबादी यहाँ बस गयी। आजकल जैसे मालवीय नगर, लाला लाजपतराय नगर आदि बस रहे हैं ठीक उसी प्रकार काशी की स्थापना हो गयी।

ऐसा अनुमान किया जाता है कि उन दिनों काशी की भूमि किसी राजा की अमलदारी में नहीं रही वरना काश्य को भूमि का पट्टा लिखवाना पड़ता, मालगुज़ारी देनी पड़ती और लगान भी वसूल करते। चूँकि इस नगरी को आबाद करने का श्रेय इन्हीं को प्राप्त हुआ था, इसलिए लोगों ने समझदारी से काम लेकर इसे काशी नगरी कहना शुरू किया। आगे चलकर इनके प्रपौत्र ने इसे अपनी राजधानी बनाया। कहने का मतलब परपोते तक आते-आते काशी नगरी राज्य बन गयी थी और उस फर्स्ट क्लास के बँगले को महल कहा जाने लगा था।

इन्हीं काश्य राजा के वंशधर थे, दिवोदास। सिर्फ दिवोदास ही नहीं, महाराज दिवोदास। कहा जाता है कि एक बार इन पर हैहय वंशवाले चढ़ आये थे। लड़ाई के मैदान से रफूचक्कर होकर हजरत काशी से भाग गये। भागते-भागते गंगा-गोमती के संगम पर जाकर ठहरे। अगर वहाँ गोमती ने इनका रास्ता न रोका होता तो और भी आगे बढ़ जाते। जब उन्होंने यह अनुभव किया कि अब पीछा करनेवाले नहीं आ रहे हैं तब वे कुछ देर के लिए वहीं आराम करने लगे। जगह निछद्दम थी। बनारसवाले हमेशा से निछद्दम जगह जरा अधिक पसन्द करते हैं। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने वहीं डेरा डाल दिया। कहने का मतलब वहीं एक नयी काशी बसा डाली।

कुछ दिनों तक च्यवनप्राश का सेवन करते रहे, डंड पेलते रहे और भाँग छानते रहे। जब उनमें इतनी ताकत आ गयी कि हैहय वंशवाले से मोर्चा ले सकें, तब सीधे पुरानी काशी पर चढ़ आये और बात की बात में उसे ले लिया। इस प्रकार फिर काशीराज बन बैठे। हैहयवालों के कारण काशी की भूमि अपवित्र हो गयी थी, उसे दस अश्वमेध यज्ञ से शुद्ध किया और शहर के चारों तरफ परकोटा बनवा दिया ताकि बाहरी शत्रु झटपट शहर पर कब्ज़ा न कर सकें। इसी सुरक्षा के कारण पूरे 500 वर्ष यानी 18-20 पीढ़ी तक राज्य करने के पश्चात इनका वंश शिवलोकवासी हो गया।

काशी से वाराणसी

इस पीढ़ी के पश्चात कुछ फुटकर राजा हुए। उन लोगों ने कुछ कमाल नहीं दिखाया, अर्थात न मन्दिर बनवाये, न स्तूप खड़े किये और न खम्भे गाड़े। फलस्वरूप, उनकी खास चर्चा नहीं हुई। कम-से-कम उन भले मानुषों को एक-एक साइनबोर्ड जरूर कहीं गाड़ देना चाहिए था। इससे इतिहासकारों को कुछ सुविधा होती।

ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में ब्रह्मदत्त वंशीय राजाओं का कुछ हालचाल बौद्ध-साहित्य में है, जिनके बारे में बुद्ध भगवान ने बहुत कुछ कहा है, लेकिन उनमें से किसी राजा का ओरिजनल नाम कहीं नहीं मिलता।

पता नहीं किसमें यह मौलिक सूझ उत्पन्न हुई कि उसने काशी नाम को सेकेंडहैंड समझकर इसका नाम वाराणसी कर दिया। कुछ लोगों का मत है कि वरुणा और असी नदी के बीच उन दिनों काशी नगर बसी हुई थी, इसलिए इन दोनों नदियों के नाम पर नगरी का नाम रख दिया गया, ताकि भविष्य में कोई राजा अपने नाम का सदुपयोग इस नगरी के नाम पर न करे। इसमें सन्देह नहीं कि वह आदमी बहुदूरदर्शी था वरना इतिहासकारों को, चिट्ठीरसों को और बाहरी यात्रियों को बड़ी परेशानी होती।

लेकिन यह कहना कि वरुणा और असी नदी के कारण इस नगरी का नाम वाराणसी रखा गया बिलकुल वाहियात है, गलत है और अप्रामाणिक है। जब पन्द्रहवीं शताब्दी में, यानी तुलसीदासजी के समय, भदैनी का इलाक़ा शहर का बाहरी क्षेत्र माना जाता था तब असी जैसे बाहरी क्षेत्र को वाराणसी में मान कैसे लिया गया? दूसरे विद्वानों का मत है कि असी नहीं, नासी नामक एक नदी थी जो कालान्तर में सूख गयी, इन दोनों नदियों के मध्य वाराणसी बसी हुई थी, इसलिए इसका नाम वाराणसी रखा गया। यह बात कुछ हद तक क़ाबिलेगौर है, लिहा़ज़ा हम इसे तसदीक कर लेते हैं।

भगवान बुद्ध के कारण काशी की ख्याति आधी दुनिया में फैल गयी थी। इसलिए पड़ोसी राज्य के राजा हमेशा इसे हड़पना चाहते थे। जिसे देखो वही लाठी लिये सर पर तैयार रहने लगा।

नाग, शुंग और कण्व वंशवाले हमेशा एक दूसरे के माथे पर सेंगरी बजाते रहे। इन लोगों की जघन्य कार्यवाही के प्रमाण-पत्र सारनाथ की खुदाई में प्राप्त हो चुके हैं।

ईसा की प्रथम शताब्दी में प्रथम विदेशी आक्रमक बनारस आया। यह था-कुषाण सम्राट् कनिष्क। लेकिन था बेचारा भला आदमी। उसने पड़ोसियों के बमचख में फ़ायदा जरूर उठाया पर बनारस के बहरी अलंग सारनाथ को खूब सँवारा भी।

कनिष्क के पश्चात भारशिवों और गुप्त सम्राटों का रोब एक अर्से तक बनारसवालों पर ग़ालिब होता रहा। इस बीच इतने उपद्रव बनारस को लेकर हुए कि इतिहास के अनेक पृष्ठ इनके काले कारनामों से भर गये हैं।

मौखरी वंशवाले भी मणिकर्णिका घाट पर नहाने आये तो यहाँ राजा बन बैठे। इसी प्रकार हर्षवर्द्धन के अन्तर में बौद्ध धर्म के प्रति प्रेम उमड़ा तो उन्होंने भी बनारस को धर दबाया।

आठवीं शताब्दी में इधर के इलाक़े में कोई तगड़ा राजा नहीं था, इसीलिए बंगाल से लपके हुए पाल नृपति चले आये। लेकिन कुछ ही दिनों बाद प्रतिहारों ने उन्हें खदेड़ दिया और स्वयं 150 वर्ष के लिए यहाँ जम गये।

कन्नौज से इत्र की दुकान लेकर गाहड़वाले भी एक बार आये थे। मध्यप्रदेश से दुधिया छानने के लिए कलचुरीवाले भी आये थे। कलचुरियों का एक साइनबोर्ड कर्दमेश्वर मन्दिर में है। यह मन्दिर यहाँ ‘कनवा’ ग्राम में है। यही बनारस का सबसे पुराना मन्दिर है। इसके अलावा जितने मन्दिर हैं सब तीन सौ वर्ष के भीतर बने हुए हैं।

वाराणसी से बनारस

अब तक विदेशी आक्रमक के रूप में वाराणसी में कनिष्क आया था। जिस समय कलचुरी वंश के राजा गांगेय कुम्भ नहाने प्रतिष्ठान गये हुए थे, ठीक उसी समय नियालतगीन चुपके से आया और यहाँ से कुछ रकम चुराकर भाग गया। नियालतगीन के बाद जितने विदेशी आक्रमक आये उन सबकी अधिक कृपा मन्दिरों पर ही हुई। लगता है इन लोगों ने इसके पूर्व कहीं इतना ऊँचा मकान नहीं देखा था। देखते भी कैसे? सराय में ही अधिकतर ठहरते थे जो एक मंजिले से ऊँची नहीं होती थी। यहाँ के मन्दिर उनके लिए आश्चर्य की वस्तु रहे। उनका खयालथा कि इतने बड़े महल में शहर के सबसे बड़े रईस रहते हैं, इसीलिए उन्हें गिराकर लूटना अपना कर्तव्य समझा।

नियालतगीन के बाद सबसे जबर्दस्त लुटेरा मुहम्मद गौरी सन 1194 ई. में बनारस आया। उसकी मरम्मत पृथ्वीराज पाँच-छह बार कर चुके थे, पर जयचन्द के कारण उसका शुभागमन बनारस में हुआ। नतीजा यह हुआ कि उस खानदान का नामोनिशान हमेशा के लिए मिट गया।

सन 1300 ई. में अलाउद्दीन खिलजी आया। उसके बाद उसका दामाद बार्बकशाह आया, जिसे ‘काला पहाड़’ भी कहा गया है। सन 1494 ई. में सिकन्दर लोदी साहब आये और बहुत कुछ लाद ले गये। जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब की कृपा इस शहर पर हो चुकी है। फर्रुखसियर और ईस्ट इंडिया कम्पनी की याद अभी ताजा है। पता नहीं, इन लोगों ने बनारस को लूटने का ठेका क्यों ले रखा था? लगता है, उन्हें लूटने की यह प्रेरणा स्वनामधन्य लुटेरे महमूद गजनबी से प्राप्त हुई थी। सम्भव है, उन दिनों बनारस में काफी मालदार लोग रहा करते थे अथवा ये लोग बहुत उत्पाती और खतरनाक रहे हों। इसके अलावा यह सम्भव है कि बनारसवाले इतने कमजोर रहे कि जिसके मन में आया वही दो धौल जमाता गया। खैर, कारण चाहे जो कुछ भी रहे हों बनारस को लूटा खूब गया है, इसे धार्मिक और इतिहास के पंडित दोनों ही मानते हैं। बनारस को लूटने की यह परम्परा फर्रुखसियर के शासनकाल तक बराबर चलती रही। इन आक्रमणों में कुछ लोग यहाँ बस गये। उन्हें वाराणसी नाम श्रुतिकटु लगा, फलस्वरूप वाराणसी नाम घिसते-घिसते बनारस बन गया। जिस प्रकार रामनगर को आज भी कुछ लोग नामनगर कहते हैं। मुगलकाल में इसका नाम बनारस ही रहा।

बनारस बनाम मुहम्मदाबाद

औरंगजेब जरा ओरिजनल टाइप का शासक था। सबसे अधिक कृपा उसकी इस नगर पर हुई। उसे बनारस नाम बड़ा विचित्र लगा। कारण बनारस में न तो कोई रस बनता था और न यहाँ के लोग रसिक रह गये थे। औरंगजेब के शासनकाल में इसकी हालत अत्यन्त खराब हो गयी थी। फलस्वरूप उसने इसका नाम मुहम्मदाबाद रख दिया।

मुहम्मदाबाद से बनारस

मुगलिया सल्तनत भी 1857 के पहले उखड़ गयी। नतीजा यह हुआ कि सात समुद्र, सत्तर नदी और सत्ताइस देश पार कर एक हकीम शाहजहाँ के शासन काल में आया था, उसके वंशधरों ने इस भूमि को लावारिस समझकर अपनी सम्पत्ति बना ली।

पहले कम्पनी आयी, फिर यहाँ की मालकिन रानी बनी। रानी के बारे में कुछ रामायण प्रेमियों को कहते सुना गया है कि वह पूर्व जन्म में त्रिजटा थी। सम्भव है उनका विश्वास ठीक हो। ऐसी हालत में यह मानना पड़ेगा कि ये लोग पूर्व जन्म में लंका में रहते थे अथवा बजरंगबली की सेना में लेफ्ट-राइट करते रहे होंगे।

गौरांग प्रभुओं की ‘कृपा से’ हमने रेल, हवाई जहाज, स्टीमर, मोटर, साइकिल देखा। डाक-तार, कचहरी और जमींदारी के झगड़े देखे। यहाँ से विदेशों में कच्चा माल भेजकर विदेशों से हजारों अपूर्व सुन्दरियाँ मँगवाकर अपनी नस्ल बदल डाली।

ये लोग जब बनारस आये तब इन्होंने देखा - यहाँ के लोग बड़े अजीब हैं। हर वक्त गहरे में छानते हैं, गहरेबाजी करते हैं और बातचीत भी फर्राटे के साथ करते हैं। कहने का मतलब हर वक्त रेस करते हैं। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने इस शहर का नाम ‘बेनारेस’ रख दिया।

बनारस से पुनः वाराणसी

ब्राह्मणों को सावधान करनेवाले आर्यों की आदि भूमि का पता लगानेवाले डॉक्टर सम्पूर्णानन्द को यह टेढ़ा नाम पसन्द नहीं था। बहुत दिनों से इसमें परिवर्तन करना चाहते थे पर मौका नहीं मिल रहा था। लगे हाथ बुद्ध की 2500वीं जयन्ती पर इसे वाराणसी कर दिया। यद्यपि इस नाम पर काफी बमचख मची, पर जिस प्रकार संयुक्त प्रान्त से उत्तर प्रदेश बन गया, उसी प्रकार अब बनारस से वाराणसी बनता जा रहा है।

भविष्य में क्या होगा?

भविष्य में वाराणसी रहेगा या नहीं, कौन जाने। प्राचीन काल की तरह पुनः वाराणसी नाम पर साफा-पानी होता रहे तो बनारस बन ही जाएगा इसमें सन्देह नहीं। जिन्हें वाराणसी बुरा लगता हो उन्हें यह श्लोक याद रखना चाहिए -

खाक भी जिस जमीं का पारस है

शहर मशहूर यही बनारस है।

पाँचवीं शताब्दी में बनारस की लम्बाई आठ मील और चौड़ाई तीन मील के लगभग थी। सातवीं शताब्दी आते-आते नौ-साढ़े नौ मील लम्बाई और तीन साढ़े-तीन मील चौड़ाई हो गयी।

ग्यारहवीं शताब्दी में, न जाने क्यों, इसका क्षेत्रफल पाँच मील में हो गया। इसके बाद 1881 ई. में पूरा जिला एक हजार वर्ग मील में हो गया।

अब तो वरुणा असी की सीमा तोड़कर यह आगे बढ़ती जा रही है; पता नहीं रबड़ की भाँति इसका घेरा कहाँ तक फैल जाएगा। आज भी यह माना जाता है कि गंगा के उस पार मरनेवाले गदहा योनि में जन्म लेते हैं, जिसके चश्मदीद गवाह शरच्चन्द्र चटर्जी थे। लेकिन अब उधर की सीमा को यानी मुगलसराय को भी शहर बनारस में कर लेने की योजना बन रही है। अब हम मरने पर किस योनि में जन्म लेंगे, इसका निर्णय शीघ्र होना चाहिए, वरना इसके लिए आन्दोलन-सत्याग्रह छिड़ सकता है।

बनारस में शहरी क्षेत्र उतना ही माना जाता है जहाँ कि नुक्कड़ पर उसके गण अर्थात चुंगी अधिकारी बैठकर आने-जानेवालों की गठरी टटोला करते हैं। इस प्रकार अब बनारस शीघ्र ही मेयर के अधिकार में आ जाएगा।


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