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रचनावली

अज्ञेय रचनावली
खंड : 3
संपूर्ण कहानियाँ

अज्ञेय

संपादन - कृष्णदत्त पालीवाल

अनुक्रम हीली-बोन् की बत्तखें पीछे     आगे

हीली-बोन् ने बुहारी देने का ब्रुश पिछवाड़े के बरामदे के जँगले से टेककर रखा और पीठ सीधी करके खड़ी हो गयी। उसकी थकी-थकी-सी आँखें पिछवाड़े के गीली लाल मिट्टी के काई-ढँके किन्तु साफ फर्श पर टिक गयीं। काई जैसे लाल मिट्टी को दीखने देकर भी एक चिकनी झिल्ली से उसे छाये हुए थी; वैसे ही हीली-बोन् की आँखों पर कुछ छा गया जिसके पीछे आँगन के चाचों ओर तरतीब से सजे हुए जरेनियम के गमलों, दो रंगीन बेंत की कुर्सियों और रस्सी पर टँगे हुए तीन-चार धुले हुए कपड़ों की प्रतिच्छवि रह कर भी न रही। और, कोई और गहरे देखता तो अनुभव करता कि सहसा उसके मन पर भी कुछ शिथिल और तन्द्रामय छा गया है, जिससे उसकी इन्द्रियों की ग्रहण-शीलता तो ज्यों-की-त्यों रही है पर गृहीत छाप को मन तक पहुँचाने और मन को उद्वेलित करने की प्रणालियाँ रुद्ध हो गयी हैं...

किन्तु हठात् वह चेहरे का चिकना बुझा हुआ भाव खुरदरा होकर तन आया; इन्द्रियाँ सजग हुईं, दृष्टि और चेतना केन्द्रित, प्रेरणा प्रबल - हीली-बोन् के मुँह से एक हल्की-सी चीख निकली और वह बरामदे से दौड़कर आँगन पार करके एक ओर बने हुए छोटे-से बाड़े पर पहुँची; वहाँ उसने बाड़े का किवाड़ खोला और फिर ठिठक गयी। एक और हल्की-सी चीख उसके मुँह से निकल रही थी, पर वह अधबीच में रव-हीन होकर एक सिसकती-सी लम्बी साँस बन गयी।

पिछवाड़े से कुछ ऊपर की तरफ पहाड़ी रास्ता था; उस पर चढ़ते व्यक्ति ने वह अनोखी चीख सुनी और रुक गया। मुड़कर उसने हीली-बोन् की ओर देखा। कुछ झिझका, फिर ज़रा बढ़कर वाड़े के बीच में छोटे-से बाँस की फाटक को ठेलता हुआ भीतर आया और विनीत भाव से बोला, ‘‘खू-ब्लाई!’’

हीली-बोन् चौंकी। ‘खू-ब्लाई’ खासिया भाषा का ‘राम-राम’ है, किन्तु यह उच्चारण परदेसी है और स्वर अपरिचित - यह व्यक्ति कौन है? फिर भी खासिया जाति के सुलभ आत्म-विश्वास के साथ तुरन्त सँभलकर और मुस्कराकर उसने उत्तर दिया, ‘‘खू-ब्लाई!’’ और क्षण-भर रुककर फिर कुछ प्रश्न-सूचक स्वर में कहा, ‘‘आइए! आइए!’’

आगन्तुक ने पूछा, ‘‘मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ? अभी चलते-चलते-शायद कुछ।’’

‘‘नहीं, वह कुछ नहीं’’ - कहते-कहते हीली का चेहरा फिर उदास हो आया। ‘‘अच्छा, आइए, देखिए।’’

बाड़े की एक ओर आठ-दस बत्तखें थीं। बीचोबीच फर्श रक्त से स्याह हो रहा था और आस-पास बहुत-से पंख बिखर रहे थे। फर्श पर जहाँ-तहाँ पंजों और नाखूनों की छापें थीं।

आगन्तुक ने कहा, ‘‘लोमड़ी!’’

‘‘हाँ। यह चौथी बार है। इतने बरसों में कभी ऐसा नहीं हुआ था; पर अब दूसरे-तीसरे दिन एक-आध बत्तख मारी जाती है और कुछ उपाय नहीं सूझता। मेरी बत्तखों पर सारे मंडल के गाँव ईर्ष्या करते थे - स्वयं ‘सियेम’ के पास भी जैसे निर्णय करता हुआ बोला, ‘‘आप ढिठाई न समझें तो एक बात कहूँ?’’

‘‘कहिए।’’

‘‘मैं यहाँ छुट्टी पर आया हूँ और कुछ दिनों नाङ्-थ्लेम ठहराना चाहता हूँ शिकार का मुझे शौक है। अगर आप इजाजत दें तो मैं इस डाकू की घात में बैठूँ-’’

फिर हीली की मुद्रा देखकर जल्दी से, ‘‘नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं होगा, मैं तो ऐसा मौका चाहता हूँ। आपके पहाड़ बहुत सुन्दर हैं, लेकिन लड़ाई से लौटे हुए सिपाही को छुट्टी में कुछ शग़ल चाहिए।’’

‘‘आप ठहरे कहाँ हैं?’’

‘‘बंगले में। कल आया था, पाँच-छह दिन रहूँगा। सवेरे-सवेरे घूमने निकला था, इधर, ऊपर जा रहा था कि आपकी आवाज़ सुनी। आपका मकान बहुत साफ़ और सुन्दर है-’’

हीली ने एक रूखी-सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘हाँ, कोई कचरा फैलानेवाला जो नहीं है! मैं यहाँ अकेली रहती हूँ।’’

आगन्तुक ने फिर हीली को सिर से पैर तक देखा। एक प्रश्न उसके चेहरे पर झलका, किन्तु हीली की शालीन और अपने में सिमटी-सी मुद्रा ने जैसे उसे पूछने का साहस नहीं दिया। उसने बात बदलते हुए कहा, ‘‘तो आपकी इजाजत है न? मैं रात को बन्दूक लेकर आऊँगा। अभी इधर आस-पास देख लूँ कि कैसी जगह है और किधर से किधर गोली चलायी जा सकती है।’’

‘‘आप शौकिया आते हैं तो जरूर आइए। मैं इधर को खुलनेवाला कमरा आपको दे सकती हूँ।’’ कहकर उसने घर की ओर इशारा किया।

‘‘नहीं, नहीं मैं बरामदे में बैठ लूँगा-’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? रात को आँधी-बारिश आती है। तभी तो मैं कुछ सुन नहीं सकी रात! वैसे आप चाहें तो बरामदे में आरामकुर्सी भी डलवा दूँगी। कमरे में सब सामान है। हीली कमरे की ओर बढ़ी, मानो कह रही हो, ‘‘देख लीजिए।’’

‘‘आपका नाम पूछ सकता हूँ?’’

‘‘हीली-बोन् यिर्वा। मेरे पिता सियेम के दीवान थे।’’

‘‘मेरा नाम दयाल है-कैप्टन दयाल। फौजी इंजीनियर हूँ।’’

‘‘बड़ी खुशी हुई। आइए-अन्दर बैठेंगे?’’

‘‘धन्यवाद-अभी नहीं। आपकी अनुमति हो तो शाम हो आऊँगा। खू-ब्लाई।’’

हीली कुछ रुकते स्वर में बोली, ‘‘खू-ब्लाई!’’ और बरामदे में मुड़कर खड़ी हो गयी। कैप्टन दयाल बाड़े में से बाहर होकर रास्ते पर हो लिए और ऊपर चढ़ने लगे, जिधर नयी धूप में चीड़ की हरियाली दुरंगी हो रही थी ओर बीच-बीच में बुरूंस के गुच्छे-गुच्छे गहरे लाल फूल मानो कह रहे थे-पहाड़ के भी हृदय है, जंगल के भी हृदय है...

2

दिन में पहाड़ की हरियाली काली दीखती है, ललाई आग-सी दीप्त; पर साँझ के आलोक में जैसे लाल ही पहले काला पड़ जाता है। हीली देख रही थी; बुरूस के वे इक्के-दुक्के गुच्छे न जाने कहाँ अन्धकार-लीन हो गये हैं, जबकि चीड़ के वृक्षों के आकार अभी एक-दूसरे से अलग स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। क्यों रंग ही पहले बुझता है, फूल ही पहले ओझल होते हैं, जबकि परिपार्श्व की एकरूपता बनी रहती है?

हीली का मन उदास होकर अपने में सिमट आया। सामने फैला हुआ नाङ्-थ्लेम का पर्वतीय सौन्दर्य जैसे भाप बनकर उड़ गया; चीड़ और बुरूंस, चट्टानें, पूर्व पुरुषों और स्त्रियों की खड़ी और पड़ी स्मारक शिलाएँ, घास की टीलों-सी लहरें दूर नीचे पहाड़ी नदी का ताम्र-मुकुट, मखमली चादर में रेशमी डोरे-सी झलकती हुई पगडंडी-सब मूर्त आकर पीछे हटकर तिरोहित हो गये। हीली की खुली आँखें भीतर को ही देखने लगीं-जहाँ भावनाएँ ही साकार थीं, और अनुभूतियाँ ही मूर्त...

हीली के पिता उस छोटे-से मांडलिक राज्य के दीवान रहे थे। हीली तीन सन्तानों में सबसे बड़ी थी, और अपनी दोनों बहिनों की अपेक्षा अधिक सुन्दर भी। खासियों का जाति-संगठन स्त्री-प्रधान है; सामाजिक सत्ता स्त्री के हाथ में है और वह अनुशासन में चलती नहीं, अनुशासन को चलाती है। हीली भी मानो नाङ्-थ्लेम की अधिष्ठात्री थी। ‘नाङ्क्रेम’ के नृत्योत्सव में, जब सभी मंडलों के स्त्री-पुरुष खासिया जाति के अधिदेवता नगाधिपति को बलि देते थे और उसके मर्त्य प्रतिनिधि अपने ‘सियेम’ का अभिनन्दन करते थे, तब नृत्य-मंडली में हीली ही मौन-सर्वसम्मति से नेत्री हो जाती थी, और स्त्री-समुदाय उसी का अनुसरण करता हुआ झूमता था, इधर और उधर, आगे और दायें और पीछे... नृत्य में अंगसंचालन की गति न द्रुत थी न विस्तीर्ण; लेकिन कम्पन ही सही, सिहरन ही सही, वह थी तो उसके पीछे-पीछे; सारा समुद्र उसका अंग-भंगिमा के साथ लहरें लेता था...

एक नीरस-सी मुस्कान हीली के चेहरे पर दौड़ गयी। वह कई बरस पहले की बात थी... अब वह चौंतीसवाँ वर्ष बिता रही है; उसकी दोनों बहिनें ब्याह करके अपने-अपने घर रहती हैं; पिता नहीं रहे और स्त्री-सत्ता के नियम के अनुसार - उनकी सारी सम्पत्ति सबसे छोटी बहिन को मिल गयी। हीली के पास है यही एक कुटिया और छोटा-सा बगीचा - देखने में आधुनिक साहबी ढंग का बंगला, किन्तु उस काँच और परदों के आडम्बर को सँभालने वाली इमारत वास्तव में क्या है? टीन की चादर से छूता हुआ चीड़ का चौखटा, नरसल की चटाई पर गारे का पलस्तर और चारों और जरेनियम, जो गमले में लगा लो तो फूल हैं, नहीं तो निरी जंगली बूटी...

यह कैसे हुआ कि वह ‘नाङ्क्रेम’ की रानी, आज अपने चौंतीसवे वर्ष में इस कुटी के जरेनियम के गमले सँवारती बैठी है, और अपने जीवन में ही नहीं, अपने सारे गाँव में अकेली है?

अभिमान? स्त्री का क्या अभिमान! और अगर कहे ही तो कनिष्ठा करे जो उत्तराधिकारिणी होती है - वह तो सबसे बड़ी थी, केवल उत्तरदायिनी! हीली के ओंठ एक व्रिदूप की हँसी से कुटिल हो आये। युद्ध की अशान्ति के इन तीन-चार वर्षों में कितने ही अपरिचित चेहरे दीखे थे, अनोखे रूप; उल्लसित, उच्छ्वसित, लोलुप, गर्वित, याचक, पाप-संकुचित, दर्पस्फीत मुद्राएँ... और वह जानती थी कि इन चेहरों और मुद्राओं के साथ उसके गाँव की कई स्त्रियों के सुख-दुख, तृप्ति और अशान्ति, वासना और वेदना, आकांक्षा और सन्ताप उलझ गये थे, यहाँ तक कि वहाँ के वातावरण में एक पराया और दूषित तनाव आ गया था। किन्तु वह उससे अछूती ही रही थी। यह नहीं कि उसने इसके लिए कुछ उद्योग किया था या कि उसे गुमान था - नहीं, यह जैसे उसके निकट कभी यथार्थ ही नहीं हुआ था।

लोग कहते थे कि हीली सुन्दर है, पर स्त्री नहीं है। वह बांबी क्या, जिसमें साँप नहीं बसता? ...हीली की आँखें सहसा और घनी हो आयीं - नहीं, इससे आगे वह नहीं सोचना चाहती! व्यथा मारकर भी व्यथा से अन्य कुछ हो जाती है? बिना साँप की बीवी - अपरूप, अनर्थक मिट्टी का ढूह! यद्यपि, वह याद करना चाहती तो याद करने को कुछ था - बहुत-कुछ था-प्यार उसने पाया था और उसने सोचा भी था कि-

नहीं, कुछ नहीं सोचा था। जो प्यार करता है, जो प्यार पाता है, वह क्या कुछ सोचता है? सोच सब बाद में होता है, जब सोचने को कुछ नहीं होता।

और अब वह बत्तखें पालती है। इतनी बड़ी, इतनी सुन्दर बत्तखें खासिया प्रदेश में और नहीं हैं। उसे विशेष चिन्ता नहीं है, बत्तखों के अंडों से इस युद्धकाल में चार-पाँच रुपये रोज की आमदनी हो जाती है, और उसका खर्च ही क्या है? वह अच्छी हैं, सुखी है निश्चिन्त है-

लोमड़ी... किन्तु वह कुछ दिन की बात है - उनका तो उपाय करना ही होगा। वह फौजी अफसर जरूर उसे मार देगा - नहीं तो कुछ दिन बाद थेङ्क्यू के इधर आने पर वह उसे कहेगी कि तीर से मार दे या जाल लगा दे... कितनी दुष्ट होती है लोमड़ी क्या रोज दो-एक बत्तख खा सकती है? व्यर्थ का नुकसान - सभी जन्तु जरूरत से ज्यादा घेर लेते और नष्ट करते हैं-

बरामदे के काठ के फर्श पर पैरों की चाप सुनकर उसका ध्यान टूटा। कैप्टन दयाल ने एक छोटा-सा बैग नीचे रखते हुए कहा, ‘‘लीजिए, मैं आ गया।’’ और कन्धे से बन्दूक उतारने लगे।

‘‘आपका कमरा तैयार है। खाना खाएँगे?’’

‘‘धन्यवाद - नहीं। मैं खाना खा आया हूँ। रात काटने को कुछ ले भी आया बैग में! मैं जरा देख लूँ, अभी आता हूँ। आपको नाहक तकलीफ दे रहा हूँ लेकिन।’’

हीली ने व्यंग्यपूर्वक हँसकर कहा, ‘‘इस घर में न सही, पर खासिया घरों में अक्सर पलटनिया अफसर आते हैं - यह नहीं हो सकता कि आपको बिलकुल मालूम न हो।’’

कैप्टन दयाल खिसिया-से गये। फिर धीरे-धीरे बोले, ‘‘नीचेवालों ने हमेशा पहाड़वालों के साथ अन्याय ही किया है। समझ लीजिए कि पातालवासी शैतान देवताओं से बदला लेना चाहते हैं!’’

‘‘हम लोग मानते हैं कि पृथ्वी और आकाश पहले एक थे - पर दोनों को जोड़नेवाली धमनी इनसान ने काट दी। तबसे दोनों अलग हैं और पृथ्वी का घाव नहीं भरता।’’

‘‘ठीक तो है।’’

‘‘कैप्टन दयाल बाड़े की ओर चले गये। हीली ने भीतर आकर लैम्प जलाया और बरामदे में जाकर रख दिया; फिर दूसरे कमरे में चली गयी।

3

रात में दो-अढ़ाई बजे बन्दूक़ की ‘धांय!’ सुनकर हीली जागी और उसने सुना कि बरामदे में कैप्टन दयाल कुछ खटर-पटर कर रहे हैं। शब्द से ही उसने जाना कि वह बाहर निकल गये हैं, और थोड़ी देर बाद लौट आये हैं। तब वह उठी नहीं; लोमड़ी ज़रूर मर गयी होगी और उसे सवेरे भी देखा जा सकता है, यह सोचकर फिर सो रही।

किन्तु पौ फटते-न-फटते वह फिर जागी। खासिया प्रदेश के बँगलों की दीवारें असल में तो केवल काठ के परदे ही होते हैं; हीली ने जाना कि दूसरे कमरे में कैप्टन दयाल जाने की तैयारी कर रहे हैं। तब वह भी जल्दी से उठी, आग जलाकर चाय का पानी रख, मुँह-हाथ धोकर बाहर निकली। क्षण-भर अनिश्चय के बाद वह बत्तखों के बाड़े की तरफ़ जाने को ही थी कि कैप्टन दयाल ने बाहर निकलते हुए कहा, ‘‘खू-ब्लाई, मिस यिर्वा; शिकार जख्मी तो हो गया पर मिला नहीं, अब खोज में जा रहा हूँ।’’

‘‘अच्छा? कैसे पता लगा?’’

‘‘खून के निशानों से। ज़ख्म गहरा ही हुआ - घसीट कर चलने के निशान साफ़ दीखते थे। अब तक बचा नहीं होगा - देखना यही है कि कितनी दूर गया होगा।’’

‘‘मैं भी चलूँगी। उस डाकू को देखूँ तो-’’ कहकर हीली लपक कर एक बड़ी ‘डाओ’ उठा लायी और चलने को तैयार हो गयी।

खून के निशान चीड़ के जंगल को छूकर एक ओर मुड़ गये, जिधर ढलाव था और आगे जरैंत की झाड़ियाँ, जिनके पीछे एक छोटा-सा झरना बहता था। हीली ने उसका जल कभी देखा नहीं था। केवल कल-कल शब्द ही सुना था - जरैंत का झुरमुट उसे बिलकुल छाये हुए था। निशान झुरमुट तक आकर लुप्त हो गये थे।

कैप्टन दयाल ने कहा, ‘‘इसके अन्दर घुसना पड़ेगा। आप यहीं ठहरिए।’’

‘‘उधर ऊपर से शायद खुली जगह मिल जाये - वहाँ से पानी के साथ-साथ बढ़ा जा सकेगा-’’ कहकर हीली बायें को मुड़ी, और कैप्टन दयाल साथ हो लिये।

सचमुच कुछ ऊपर जाकर झाड़ियाँ कुछ विरल हो गयी थीं और उनके बीच में घुसने का रास्ता निकाला जा सकता था। यहाँ कैप्टन दयाल आगे हो लिए, अपनी बन्दूक के कुन्दे से झाड़ियाँ इधर-उधर ठेलते हुए रास्ता बनाते चले। पीछे-पीछे हीली हटाई हुई लचकीली शाखाओं के प्रत्याघात को अपनी डाओ से रोकती हुई चली।

कुछ आगे चलकर झरने का पाट चौड़ा हो गया - दोनों और ऊँचे और आगे झुके हुए करारे, जिनके ऊपर जरैंत और होली की झाड़ी इतनी घनी छायी हुई कि भीतर अँधेरा हो, परन्तु पाट चौड़ा होने से मानो इस आच्छादन के बीच में एक सुरंग बन गयी थी जिसमें आगे बढ़ने में विशेष असुविधा नहीं होती थी।

कैप्टन दयाल ने कहा, ‘‘यहाँ फिर खून के निशान हैं - शिकार पानी में से इधर घिसटकर आया है।’’

हीली ने मुँह उठाकर हवा को सूँघा, मानो सीलन और जरैंत की तीव्र गन्ध के ऊपर और किसी गन्ध को पहचान रही हो। बोली, ‘‘यहाँ तो जानवर की-’’

हठात् कैप्टन दयाल ने तीखे फुसफुसाते स्वर से कहा, ‘‘देखो-श्-श्!’’

ठिठकने के साथ उनकी बाँह ने उठकर हीली को भी जहाँ-का-तहाँ रोक दिया।

अन्धकार में कई-एक जोड़े अंगारे-से चमक रहे थे।

हीली ने स्थिर दृष्टि से देखा। करारे में मिट्टी खोद कर बनायी हुई खोह में - या कि खोह की देहरी पर - नर-लोमड़ी का प्राणहीन आकार दुबका पड़ा था - कास के फूल के झाड़ू-सी पूँछ उसकी रानों को ढँक रही थी, जहाँ गोली का ज़ख्म होगा। भीतर शिथिल-गत लोमड़ी उस शव पर झुकी खड़ी थी, शव के सिर लोमड़ी के पाँवों से उलझते हुए तीन छोटे-छोटे बच्चे कुनमुना रहे थे। उस कुनमुनाने में भूख की आतुरता नहीं थी; न वे बच्चे लोमड़ी के पेट के नीचे घुसड़-पुसड़ करते हुए भी उसके थनों को ही खोज रहे थे... माँ और बच्चों में किसी को ध्यान नहीं था कि गैर और दुश्मन की आँखें उस गोपन घरेलू दृश्य को देख रही हैं।

कैप्टन दयाल ने धीमे स्वर से कहा, ‘‘यह भी तो डाकू होगी-’’

हीली की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला। उन्होंने फिर कहा, ‘‘इसे भी मार दें - तो बच्चे पाले जा सकें-’’

फिर कोई उत्तर न पाकर उन्होंने मुड़कर देखा और अचकचा कर रह गये।

पीछे हीली नहीं थी।

थोड़ी देर बाद, कुछ प्रकृतिस्थ होकर उन्होंने कहा, ‘‘अजीब औरत है!’’ फिर थोड़ी देर वह लोमड़ी को और बच्चों को देखते रहे। तब ‘‘ऊँह, मुझे क्या!’’ कह कर वह अनमने-से मुड़े और जिधर से आये थे, उधर ही चलने लगे।

4

हीली नंगे पैर ही आयी थी; पर लौटती बार उसने शब्द न करने का कोई यत्न किया हो, ऐसा वह नहीं जानती थी। झुरमुट से बाहर निकलकर वह उन्माद की तेज़ी से घर की ओर दौड़ी, और वहाँ पहुँचकर सीधी बाड़े में घुस गयी। उसके तूफ़ानी वेग से चौंककर बत्तखें पहले तो बिखर गयीं, पर जब वह एक कोने में जाकर बाड़े के सहारे टिककर खड़ी अलपक उन्हें देखने लगी तब वे गरदनें लम्बी करके उचकती हुई-सी उसके चारों ओर जुट गयीं और ‘क-क्! क-क्’ करने लगीं।

वह अधैर्य हीली को छू न सका, जैसे चेतना के बाहर से फिसलकर गिर गया। हीली शून्य दृष्टि से बत्तखों की ओर ताकती रही।

एक ढीठ बत्तख ने गरदन से उसके हाथ को ठेला। हीली ने उसी शून्य-दृष्टि से हाथ की ओर देखा। सहसा उसका हाथ कड़ा हो आया, उसकी मुट्ठी डाओ के हत्थे पर भिंच गयी। दूसरे हाथ से उसने बत्तख का गला पकड़ लिया और दीवार के पास खींचते हुए डाओ के एक झटखे से काट डाला।

उसी अनदेखते अचूक निश्चय से उसने दूसरी बत्तख का गला पकड़ा, भिंचे हुए दाँतों से कहा : ‘‘अभागिन!’’ और उसका सिर उड़ा दिया। फिर तीसरी, फिर चौथी, पाँचवीं... ग्यारह बार डाओ उठी और ‘खट्’ के शब्द के साथ बाड़े का खम्भा काँपा; फिर एक बार हीली ने चारों ओर नज़रे दौड़ायी और बाहर निकल गयी! बरामदे में पहुँचकर जैसे अपने को सम्भालने को खम्भे की ओर हाथ बढ़ाया और लड़खड़ाती हुई उसी के सहारे बैठ गयी।

कैप्टन दयाल ने आकर देखा, खम्भे से सहारे एक अचल मूर्ति बैठी है जिसके हाथ लथपथ हैं और पैरों के पास खून से रँगी डाओ पड़ी है। उन्होंने घबराककर कहा, ‘‘यह क्या, मिस यिर्वा?’’ और फिर उत्तर न पाकर उसकी आँखों का जड़ विस्तार लक्ष्य करते हुए उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए, धीमे-से ‘‘क्या, हुआ, हीली?’’

हीली कन्धा झटककर, छिटककर परे हटती हुई खड़ी हो गयी और तीखेपन से थर्राती हुई आवाज़ से बोली, ‘‘दूर रहो, हत्यारे!’’

कैप्टन दयाल ने कुछ कहना चाहा, पर अवाक् ही रह गये, क्योंकि उन्होंने देखा, हीली की आँखों में वह निर्व्यास सूनापन घना हो आया है जो कि पर्वत का चिरन्तन विजय सौन्दर्य है।

(इलाहाबाद, 1947)


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