अहदे अकबर में हिन्दुस्तान की हालत

[मुगल साम्राज्य का काल भारतीय इतिहास का वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कालखण्ड है जिसमें समस्त क्षेत्रों में समाजोत्थान, लोकहित तथा लोककल्याण के व्यापक कार्य हुए। इसके अतिरिक्त फारसी एवं भारतीय स्थापत्य के सम्मिश्रण से जिस मुगल स्थापत्य का विकास हुआ वह अपने में अनूठा है।
वैसे तो मुगल साम्राज्य की स्थापना जहीरुद्दीन बाबर ने की थी, लेकिन उसे स्थायित्व प्रदान करने का कार्य मुगले आजम जलालुद्दीन अकबर की सर्वधर्म समभाव, विश्व-बन्धुत्व, शान्तिप्रियता और कुशल प्रशासनिक क्षमता ने ही सम्पादित किया। यही कारण है कि लगभग आधी सदी का अकबर का शासन-काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहलाता है। यहाँ यह उल्लेख करना भी सर्वथा समीचीन होगा कि मुगले आजम अकबर की अद्वितीय संगठन क्षमता ने ही अखंड भारत के भौगोलिक मानचित्र का निर्माण किया था, जिसमें से कुछ भूभाग अंग्रेजों ने कूटनीतिक कारणों से पृथक् कर दिया था। अतः भारतवर्ष के वर्तमान मानचित्र को भी यदि अकबर महान् की देन कहा जाय तो कुछ अतिशयोक्ति न होगी। अकबर के युग की चमत्कारिक विशेषताओं से प्रेमचंद जैसे प्रखर देशभक्त रचनाकार का प्रभावित होना स्वाभाविक ही है।
मुंशी प्रेमचंद के लेखकीय जीवन का प्रारम्भ वैसे तो सन् 1901 में ही हो गया था, परन्तु जब 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा किए गए बंगाल के विभाजन के विरुद्ध समूचा देश एकता के सूत्र में बँधकर देशभक्ति की भावनाओं से उफन रहा था, उस समय प्रेमचंद जैसा संवेदनशील रचनाकार जनभावनाओं से निस्पृह नहीं बना रह सकता था। परन्तु ब्रिटिश साम्राज्यवाद की निपट निरंकुश नीतियों से भी सरकारी शिक्षा विभाग में कार्यरत प्रेमचंद सुपरिचित थे, अतः अपनी देशभक्ति की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेमचंद ने भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अध्याय - अकबर के युग के माध्यम से ही जनता को आन्दोलित करने का निर्णय लिया, जिसका परिणाम था उनका लेख ‘अहदे अकबर में हिन्दुस्तान की हालत’।
प्रेमचंद का यह ऐतिहासिक महत्त्च का लेख सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी शायर मौलाना हसरत मोहानी के सम्पादन में अलीगढ़ से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ के अक्टूबर-नवम्बर 1907 के संयुक्तांक में पृष्ठ संख्या 36 से 49 तक नवाबराय के लेखकीय नामोल्लेख के साथ प्रकाशित हुआ था। आश्चर्य का विषय है कि प्रेमचंद का बहुत-सा ‘अप्राप्य’ साहित्य प्रकाशित कराने वाले बहुप्रचारित ‘प्रेमचंद-विशेषज्ञ’ डा. कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद के इस लेख का पाठ प्रकाशित कराने की दिशा में तनिक भी सचेष्ट दिखाई नहीं देते और इसे ‘अप्राप्य’ बताकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। प्रेमचंद जैसे सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य रचनाकार की रचना का एक शताब्दी से भी अधिक समय तक अप्राप्य बने रहना प्रेमचंद-विशेषज्ञों के सुविधाभोगी शोध का ज्वलन्त प्रमाण है।
इस महत्त्वपूर्ण लेख में प्रेमचंद ने अकबरकालीन शासन-प्रशासन के समस्त अंगों पर संक्षेपतः परन्तु पूर्णता के साथ विचार किया है, जो उनकी सुस्पष्ट जनोन्मुखी चिन्तन-धारा का प्रबल प्रमाण है। इस लेख से यह भी स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद राज्य के उस कल्याणकारी स्वरूप के पक्षधर थे जिसमें लोककल्याण और लोकहित सर्वोच्च होता है, प्रजा सुख-समृद्धि के साथ जीवनयापन करती है और अर्थव्यवस्था विकासोन्मुखी होती है। प्रेमचंद का यह लेख जहाँ एक ओर विदेशी गुलामी से होने वाली दुर्दशा की ओर परोक्ष रूप से इंगित करता है, वहीं दूसरी ओर स्वाधीन भारत को विकास के मार्ग पर अग्रसर करने की दिशा भी निर्धारित करता है। वर्तमान में समूचा देश धार्मिक उन्माद, कट्टरता, कठमुल्लापन, वैमनस्य और साम्प्रदायिकता के निरन्तर व्यापक होते तिलिस्म से आजाद होने के प्रश्नों से जूझ रहा है। इन नितान्त प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रेमचंद का यह दुर्लभ लेख इस समस्या का तार्किक समाधान प्रस्तुत करता हुआ बतलाता है कि इस तिलिस्म को तोड़ने की एकमात्र चाबी अकबरकालीन सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था ही है। और इस दृष्टि से यह लेख प्रेमचंद के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लेखों में निश्चित रूप से सम्मिलित होने योग्य है।]
अब यह बात पक्की हो गई है कि हिन्दुस्तान के इतिहासकार इतिहास-लेखन की कला से अनभिज्ञ थे। हिन्दू तो हिन्दू प्रायः यूनान से शिक्षा लेकर आने वाले मुस्लिम इतिहासकार भी शाही अभियानों और सफलताओं का वर्णन करना ही इतिहास का अन्तिम ज्ञान समझते थे। यद्यपि अकबर के युग के अनेक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध हैं, तथापि उनके अनुशीलन से लोकतांत्रिक सांस्कृतिक परम्परा, जीवन शैली और स्पष्ट वैचारिकता पर बहुत मद्धम सा प्रकाश पड़ता है। लेकिन क्योंकि राज्य-विधान और सांस्कृतिक शैली में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए उनके अनुशीलन से हम देश की दशा का पर्याप्त अनुमान कर सकते हैं।
हिन्दुओं के धार्मिक विचार
क्योंकि राष्ट्रीय जीवन का सर्वाधिक कार्यकारी तत्त्व धर्म है, इसलिए हम सबसे पहले इसकी चर्चा करते हैं। अकबर के युग से कुछ पहले ही हिन्दू रिफार्र्मेशन (जिसका आशय एक ईश्वर की पूजा और कर्मकाण्डों से पृथक् रहना है) शुरू हो गया था। स्वामी रामानुज, रामानंद, कबीर, चेतन और वल्लभ स्वामी जैसे-जैसे महान्, शुद्ध अन्तःकरण वाले, अध्यात्म में रुचि रखने वाले पूर्वजों ने मूर्खतापूर्ण मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड के अंधानुकरण के विरुद्ध शंखनाद कर दिया था, फिर भी अकबर के युग में उन सामंजस्यपूर्ण विचारों का प्रभाव सम्भवतः इससे भी कम था जो आजकल जनता पर आर्य समाज या ब्रह्म समाज का है। उस काल की सामान्य बोलचाल की भाषा में कहे गए कबीर के भजन और साखियाँ उस समय भी लोकप्रिय हो चुकी थीं और प्रायः गाई जाती थीं। लेकिन उनसे जनता उसी सीमा तक प्रभावित होती थी जितनी आजकल होती है क्योंकि इन भजनों और गीतों से आत्मा को एक आश्चर्यजनक आनन्द का अनुभव होता है। लेकिन उसका प्रभाव इतना शक्तिशाली नहीं होता कि उस झूठे आचरण को मिटा दे जो दीर्घ काल से चले आते रहने के कारण हमारा स्वभाव बन गया है। ध्यातव्य है कि प्रत्येक सभ्य देश में श्रेष्ठ तथा सामान्य जनों के धर्मों का पृथक्-पृथक् रूप पाया जाता है। श्रेष्ठजनों की श्रद्धा दार्शनिक विचारों पर आधारित होती है और जनता मात्र अपने बाप-दादा के पदचिह्नों पर चलने को ही धर्म मानती है। इसलिए अकबर के दरबार में निरन्तर वैचारिक स्वतन्त्रता की चर्चा होते रहने पर भी अकबर ने हिन्दुओं से आत्मीय सम्बन्ध जोड़ने के लिये जो ढंग अपनाया उससे ज्ञात होता है कि उस काल में जनता पर ब्राह्मणों का प्रभाव उससे कहीं अधिक था जो आजकल है। उसने दाढ़ी मुँड़वा ली थी और उसके दरबारी उमरा भी प्रायः बिना दाढ़ी के रहना पसन्द करते थे। वह ब्राह्मणों का सम्मान करता था, हिन्दू विद्वानों को सर-आँखों पर बैठाता था, हिन्दुओं को ऊँचे-ऊँचे पद प्राप्त थे, सूर्य की पूजा करता था, अग्नि के समक्ष नतमस्तक होता था, गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, स्वयं मांसाहार नहीं करता था। किसी अभियान पर निकलता तो ब्राह्मणों से मुहूर्त निकलवाता। विष्णु भगवान् ने जिन-जिन रूपों में अवतार लिया था, वे पवित्र समझे जाते थे, यहाँ तक कि सूअर भी पवित्र था। तुलादान होता था, यज्ञ किए जाते थे, हवन होते थे, यहाँ तक कि वह साधुओं और योगियों को अपने बराबर में बैठा लिया करता था।
मुसलमानों की धार्मिक दशा
आलिमों और शेखों की तूती बोलती थी। उनके विरुद्ध बादशाह भी चूँ तक न कर सकता था कि कहीं उस पर भी काफिर होने का फतवा न सुना दिया जाए। हरेक बात में चाहे धार्मिक हो या शासकीय, उनमें धार्मिक आधार पर दिए गए निर्णयों तथा आदेशों का पालन किया जाता था। अदालत के सभी विषय उनके ही हाथों में थे। शिया व सुन्नी, हनफी व शाफईं प्रायः वाद-विवाद और छींटाकशी किया करते थे जिनसे उनकी मूर्खता और अन्यायप्रियता ही प्रकट होती थी। अन्ततः जब बादशाह उनके अज्ञान से बहुत अप्रसन्न हो गया तो धीरे-धीरे उनको दरबार से निकालना आरम्भ कर दिया जिस पर मुल्लाओं ने बादशाह को काफिर बताया और बंगाल प्रान्त में विद्रोह फैला दिया। उस समय के मुल्लाओं की हालत बहुत खराब हो गई थी जो हजरत आजाद देहलवी की अनमोल रचना ‘दरबारे अकबरी’ के एक अद्भुत लेख से स्पष्ट होती है।
एक समारोह में कोई मुल्ला साहब ही आ गए। बात यह चल रही थी कि मौलवियों में गणित की योग्यता कुछ कम होती है। मुल्ला साहब उलझ गए। एक व्यक्ति ने कहा, ‘अच्छा बताओ, दो और दो क्या?’ मुल्ला घबराकर बोले, ‘चार रोटियाँ!’
पनाहे खुदा! ये मस्जिदों के आज्ञापालक! दिन का खाना दोपहर ढले और रात का खाना आधी रात गए खाते हैं कि शायद कोई अच्छी चीज आ जाए, और शायद कोई बुलाने ही आ जाए। रात की घड़ियाँ गिनते हैं और बैठे रहते हैं। हवा से कुंडी हिली और दरवाजे को देखने लगे कि कोई कुछ लाया। मस्जिद में बिल्ली की आहट हुई और चौकन्ने हुए कि देखें क्या आया। ऐसे लोग राज्य की समस्याओं को क्या समझें, उन्हें तो अपने हलवे-मांडे से काम है। यद्यपि हजरत आजाद ने हास्यपूर्ण अतिशयोक्ति से काम लिया है लेकिन इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि उस समय के धार्मिक नेताओं की दशा इससे कुछ ही अच्छी थी और वे ही देश के वास्तविक शासक थे। बादशाह और उसके उमरा हथेली पर जान लेकर लड़ते थे और शासन का आनन्द मुल्ला लूटते थे। अन्ततः अकबर ने उनकी रगें ढीली कर दीं।
दरबार के उच्च विचारवान उमरा - धार्मिक निर्णय से पृथक् रहने वाले राज्य के कार्यकर्ता कुछ और ही रंग में डूबे दिखाई देते हैं। उनका व्यवहार शान्तिप्रियता का प्रतीत होता है। इस वर्ग का नेता अकबर है फिर भी उसका प्रभाव दरबार की चहारदिवारी के अन्दर ही सीमित है।
हिन्दुओं की सांस्कृतिक पद्धति
सांस्कृतिक सुधार के लिए अकबर ने जो विधान लागू किए उनसे स्पष्ट होता है कि हिन्दुओं में वे समस्त सामाजिक बुराइयाँ विद्यमान थीं जिन्हें दूर करने के लिए आज इतने प्रयास किए जा रहे हैं। सती प्रथा आम थी यद्यपि अधिकांश असहमत महिलाएँ बलात् सती होने के लिए विवश की जाती थीं। सामान्य रूप से प्रत्येक वर्ग में अल्पायु में विवाह हो जाया करते थे। विवाह से पूर्व दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे से बिल्कुल अपरिचित रहते थे। ये वही बुराइयाँ है जो आज भी पूरे संसार में हमारी संस्कृति को बदनाम कर रही हैं। यद्यपि अकबर ने उनकी विधिक वर्जना की, लेकिन उसका बहुत कम प्रभाव पड़ा।
किसानों की दशा
हिन्दुस्तान विशेष रूप से कृषि प्रधान देश है और किसानों की दशा परखने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं है कि उस समय के कृषि कानूनों का विहंगावलोकन किया जाय। अकबर के युग से पहले खेती की दशा बहुत खराब थी। न लगान का कोई नियत शुल्क था, न उसे वसूल करने का कोई निश्चित समय था। अकबर के युग में ये सभी असंगतियाँ दूर कर दी गईं। जमीन की पैमाइश की गई, उसे उपज की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया गया और औसत निकालकर प्रत्येक भूखण्ड पर लगान की धनराशि निर्धारित की गई। गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के माध्यम से वसूली होती थी। ईख और अन्य ऐसी जिन्सों पर जिनमें अधिक मेहनत लगती है, लगान औसत उपज का पाँचवाँ, छठा या सातवाँ भाग निर्धारित किया गया। शेष रबी तथा खरीफ की अन्य जिन्सों पर राज्याधिकार एक चौथाई से अधिक नहीं था। स्थान-स्थान पर कुँए बनवाए गए। अकाल के समय में किसानों की सहायता करने का प्रबन्ध किया गया। किसानों को अधिकार था कि लगान चाहे उपज के रूप में दें अथवा नकद। उन कानूनों की जब हम आज के कानूनों से तुलना करते हैं तो सिद्ध होता है कि उस समय के किसानों की दशा इतनी बिगड़ी हुई नहीं थी। विशेषकर इस कारण से कि उनकी आवश्यकताएँ तुलनात्मक रूप से बहुत सीमित थीं और वे भी बहुत आसानी से पूरी हो जाती थीं क्योंकि आज की तुलना में वस्तुओं के दाम बहुत कम थे।
न्याय व्यवस्था
जिस समय अकबर ने सिर पर राजमुकुट पहना था, उसकी अवस्था तेरह वर्ष से अधिक नहीं थी। राज्य का भला-बुरा बैरम खान (खाने खानखाँ) के हाथों में था। वह शासन करने की योग्यता रखता था लेकिन शासन के सिद्धान्तों से उतना ही परिचित था जितने उसके अयोग्य सहायक। प्रत्येक बात में पहले के शाहों के अनुकरण की अदालत के सभी विवाद काजियों और मुफ्तियों के हाथों में थे। ये जिसे चाहते बनाते, जिसे चाहते बिगाड़ते। उनकी अपील कहीं नहीं हो सकती थी। हिन्दुओं के मुकदमे भी उन्हीं के दरबार में निर्णीत होते थे और उनके मामलों में भी हदीस और शरीयत का पालन किया जाता था। हिन्दुओं पर किये जाने वाले पीरों के अत्याचार अकबर देखता था और दाँत पीसकर रह जाता था।
अन्ततः जब बैरम खान के काल का पतन हुआ और अकबर ने हाथ-पाँव सँभाले तो उसने धार्मिक विद्वानों की खूब किरकिरी की, कितने ही लोगों को देशनिकाला दे दिया, कितनों को कैदखाने में भिजवा दिया और हिन्दुओं के मुकदमों के फैसले ब्राह्मण विद्वानों के हाथों में दे दिए ताकि शास्त्र के आदेशों के अनुसार व्यवहार करें।
राजनीतिक पद्धति पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि उस समय अपराधियों के साथ बड़ी सख्ती की जाती थी। आजकल बेंत मारना बुरा समझते हैं, उस जमाने में शपथ की यह परम्परा थी कि जलते तवे पर हाथ रखा जाता था और कुछ अपराधों का दण्ड यह था कि हाथ काट डाला जाए या नाक या कान। लेकिन उस काल में लगभग प्रत्येक देश में ऐसे ही कठोर दण्ड लागू थे, यहाँ तक कि इसी देश में आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व बहुत से अपराधों का दण्ड मृत्यु था।
सेवा कार्य
प्रतिष्ठित लोगों की आर्थिक सहायता के दो उपाय थे - एक वजीफा, दूसरे नौकरी। वजीफा जागीर थी जो मस्जिदों के इमामों और श्रेष्ठ धार्मिक जनों के लिए होती थी। इसमें सेवा क्षम्य थी, नौकरी में सेवा भी होती थी। यह दस सरदारों से लेकर पाँच हजारी तक। जो मुलाजिम होते थे सब तलवार वाले होते थे। दस सरदारों को दस, बीसी को बीस आदि-आदि सिपाही रखने होते थे। इसी प्रकार दो बीसी, पाँच नायक, तीन बीसी, चार बीसी, सौ बीसी आदि-आदि पाँच हजारी तक। वेतन की पद्धति यह थी कि हिसाब के अनुसार उतनी जमीन का भाग या इलाका या देहात या प्रान्त मिल जाता था जिसके राजस्व से वह अपने लिए निर्धारित सेना रखें और अपनी हैसियत और इज्जत तथा दशा को ठीक रखें। उपर्युक्त मुलाजिमों में से जिसकी जैसी योग्यता देखते थे वैसा काम लिखित में भी देते थे। युद्ध का अवसर आता तो जिन-जिनके नाम प्रस्तावित होते क्या तलवार वाले, क्या लेखक; उनके नाम आदेश पहुँचते। वे सरदारों से लेकर सौ-दो सौ आदि-आदि तक सभी मनसबदार अपने-अपने जिम्मे की सेना पोशाक, हथियार और सामान से सुसज्जित करते और उपस्थित होते।
बदनीयत मनसबदारों ने यह ढंग अपना लिया कि सिपाही तैयार करके मुहिम पर जाते। जब लौटकर आते तो अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ आदमी रख लेते, बाकी निकाल देते। उनके वेतन आप हजम। रुपये से मौज मस्ती करते या घर भरते। जब मुहिम की फिर आवश्यकता होती और ये इस भरोसे पर बुलाए जाते कि सुसज्जित सेनाएँ, लड़ाकू सिपाही लेकर उपस्थित होंगे, वे कुछ अपने दस्तरख्वानों के पुलाव, कुछ कुँजड़े, भटियारे, धुनिये, जुलाहे, पक्के जंगली मुगल, पठान, तुर्क, जो हजारों की संख्या में बाजारों में फिरते थे और सरायों में पड़े रहते थे, उन्हीं को पकड़ लाते थे। कुछ अपने सेवक, कुछ साईस, शागिर्द पेशा आदि लेते। घसियारों के घोड़ों, भटियारों के टट्टुओं पर बैठाते, किराए के हथियार, माँगे-ताँगे के कपड़ों से लिफाफा चढ़ाते और जा उपस्थित होते। लेकिन तोप-तलवार के सामने उन लोगों से क्या होता था। ठीक लड़ाई के समय बड़ी दुर्दशा होती थी।
उस समय के जागीरदारों का कैसा सच्चा चित्र है। और ये बेईमानियाँ कोई विशेष रूप से हिन्दुस्तान के साथ ही जुड़ी हुई नहीं हैं, योरुप में भी सेनाएँ रखने का पहले यही तरीका था और ऐसी ही धोखेबाजियाँ होती थीं। अकबर ने इनकी रोकथाम के लिए दाग का कानून जारी किया। योरुप वालों ने उनका अधिक ठोस उपाय किया। उन्होंने जागीरों की परम्परा ही समाप्त कर दी और स्थायी सेना रखने लगे। उस समय अकबर चाहता तो भी ऐसा न कर सकता, क्योंकि विद्रोह हो जाने की आशंका थी।
जागीरें देने की परम्परा चाहे निरंकुश बादशाहों की जिम्मेदारियों को कम करती हो लेकिन प्रजा के लिए अत्यंत हानिकर थी क्योंकि जब किसी को जागीर मिलती तो केवल उसके युद्ध व संघर्ष की क्षमता के विचार से। और ऐसे लोग जब जागीरों पर जाते तो शान्त न बैठते, सदा ऊधम मचाया करते। ऐसा बहुत कम होता है कि हर व्यक्ति में लड़ाई के साथ शासन की योग्यता भी पाई जाए। ऐसे उदाहरण अप्राप्य भले ही न हों लेकिन दुष्प्राप्य अवश्य हैं।
कभी-कभी ये लोग जागीरों की ओर मुँह नहीं करते थे, केवल विश्वासपात्र कारिन्दों के भरोसे शासन करते थे। जैसे स्वामी वैसे ही उनके नौकर, बल्कि उनसे भी दो अंगुल ऊँचे। ये कारिन्दे प्रजा को सताते और अपने घर भरते थे।
ज्ञान के कार्य
जिस काल में फैजी जैसा कालजयी कवि और अबुल फजल जैसा चमत्कारिक लेखक हो उस काल के ज्ञान के विकास का क्या पूछना। क्या शिल्प की कसावट की दृष्टि से और क्या रोचकता की दृष्टि से केवल ‘अकबरनामा’ एक ऐसी अनुपमेय पुस्तक है जो संसार की अत्यन्त प्रसिद्ध रचनाओं के बराबर रखे जाने योग्य है।
अकबर स्वयं तो अनपढ़ था लेकिन उसने ज्ञान तथा उसकी महत्ता का जितना सम्मान किया वैसा किसी अन्य ने बहुत कम किया होगा। और जितनी पुस्तकें और संकलन उसके युग में हुए उतने शायद ही किसी दूसरे बादशाह के समय में हुए हों। अंग्रेजी इतिहास में सम्राज्ञी एलिजाबेथ का युग ज्ञान के विकास की दृष्टि से स्मरणीय समझा जाता है। लेकिन वहाँ जो पुस्तकें लिखी गईं वे रसज्ञता और सामान्य गुणग्राहकता का परिणाम थीं, न कि एलिजाबेथ के प्रयासों का। इसके प्रतिकूल अकबर के युग में जितनी पुस्तकें लिखी गईं सभी उसकी गुणग्राहकता तथा उत्साहवर्धन का परिणाम थीं। जितने भी लेखक थे सभी समुचित पदों पर प्रतिष्ठित थे। यदि उस काल की सभी पुस्तकें इकट्ठी की जाएँ तो एक अच्छा बड़ा पुस्तकालय ही बन जाए। उनमें अधिकांशतः संस्कृत पुस्तकों के फारसी अनुवाद हैं। ‘सिंहासन बतीसी’, ‘अथर्ववेद’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘नलदमन’, ‘लीलावती’, ‘अय्यार दानिश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं और आज तक रुचिपूर्वक पढ़ी जाती हैं। इन अनुवादों के अतिरिक्त मुल्ला अब्दुल कादिर बदायुँनी ने कश्मीर के प्रसिद्ध व प्रामाणिक संस्कृत इतिहास ‘राजतरंगिणी’ का फारसी में अनुवाद किया। हकीम हमाम, मुल्ला शीरीं और अब्दुर्रहीम खानखाना भी प्रसिद्ध लेखकों में हैं। अब्दुर्रहीम खानखाना तो संस्कृत की अच्छी योग्यता रखता था और प्रायः हिन्दी भाषा में लिखा करता था। उसके लिखे हुए दोहे हिन्दी में अब तक बहुत लोकप्रिय हैं। समीक्षकों का विचार है कि वे तुलसीदास के दोहों से टक्कर लेते हैं।
सत्कलाएँ (निर्माण एवं मूर्तिकला)
अकबर के युग में ये कलाएँ अपने उत्कर्ष पर पहुँच गई थीं। अकबराबाद1 का किला, फतहपुर सीकरी के भवन और हुमायूँ का मकबरा वे अद्वितीय निर्माण हैं जिन्हें देखने वालों की आँखें पथरा जाती हैं लेकिन दृष्टि नहीं थकती। विश्व-यात्री कहते हैं कि संसार में ऐसे भवन अत्यल्प हैं। इन्हीं शिल्पियों के वंशजों ने दिल्ली के वे भवन बनाए जो आज तक इस कला का पूर्ण तथा अनुपम उदाहरण स्वीकार किए जाते हैं।
1. अकबर ने आगरा का नाम बदलकर अकबराबाद रखा था।
चित्रकला
उस युग में चित्रकला भी अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची हुई थी। चित्रकला के सामान पर बहुत ध्यान दिया जाता था। चित्रण और रंजन का भी विकास हो गया था। मीर सैयद अली तबरेजी और अब्दुस्समद शीरीं, कलम शीराजी और दसवंत हिन्दी बड़े उच्च कोटि के कलाकार थे। इन्हीं चित्रकारों ने अकबर और उसके दरबार के जो चित्र चित्रित किए थे, वे जिन्होंने देखे हैं वे स्वीकार करते हैं कि वे अपने आप में निराले हैं। उस काल के अमीर और प्रतिष्ठित व्यक्ति शिक्षा की पूर्णता के लिए इस कला को सीखना आवश्यक समझते थे। अकबर स्वयं कहता है, ‘जो लोग चित्रकला के कार्य की निन्दा करते हैं मैं उन्हें पसन्द नहीं करता। मैं समझता हूँ कि ईश्वर को पहचानने के लिए एक चित्रकार बहुत से व्यक्तियों से कहीं अच्छा होता है।’
दीनों की सहायता
अकबर के युग की एक विशेषता यह है कि असहाय तथा बेरोजगारों की सहायता भी की जाती थी ताकि ये लोग आवश्यकताओं से विवश होकर धनोपार्जन के अनुचित साधन न अपना लें। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित चार वर्ग शाही सहायता के अधिकारी माने जाते थे -
1. वे लोग जो अपना समय लेखन तथा संकलन में लगाएँ।
2. जो लोग संसार से विरक्त होकर इन्द्रिय-शुद्धि और ईश्वराराधन में व्यस्त हों।
3. जो लोग फटेहाल हों लेकिन श्रम करने के योग्य न हों।
4. जिन लोगों की नसों में शराफत का खून हो लेकिन अज्ञान या अयोग्यता के कारण धनोपार्जन न कर पाते हों।
जो सरकार इतनी उदार हो उसकी प्रजा की समृद्धि और सम्पन्नता के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है। कुछ लोगों का विचार है कि अकबर के काल में प्रजा को चाहे कैसा भी सुख-चैन क्यों न हो मगर अंग्रेजी राज का उससे क्या मुकाबला! शायद ऐसा ही हो, मगर अन्तर केवल यह है कि अकबर की प्रजा के मन में बादशाह के प्रति सच्चा विश्वास उत्पन्न हो गया था, वह उसे अपना बादशाह समझती थी। मगर इसके प्रतिकूल अंग्रेजी राज चाहे कितना भी सुख-सुविधा क्यों न पहुँचाए, अभी तक एक पराया शासन माना जाता है क्योंकि वह प्रजा से अपनत्व उत्पन्न करने का प्रयास नहीं करता।
शिक्षा
प्राचीन काल में न कोई यूनिवर्सिटी थी न आजकल जैसे मदरसे और कालेज। विद्यार्थियों को विद्वान् अपने मकानों पर या मस्जिदों में बैठकर पढ़ाते थे। अकबर ने शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया। उसके आदेश से शिक्षा की ऐसी पद्धति लागू की गई कि लड़के थोड़े ही दिनों में लिखना-पढ़ना सीखने लगे। मगर सच्चाई यह है कि शिक्षा नये जमाने के उच्च विचारों की देन है। आज प्रायः शासन अपनी कुल आय का सातवाँ या आठवाँ भाग इस भलाई के काम पर व्यय करना भी अपव्यय नहीं मानते।
अकबर के युग में प्रारम्भ में गणित हिन्दी में प्रचलित था। टोडर मल ने हिन्दी के स्थान पर फारसी में प्रचलित किया। पहले तो हिन्दू लोगों को यह परिवर्तन अरुचिकर लगा लेकिन बहुत शीघ्र इसका अच्छा प्रभाव प्रकट हुआ क्योंकि हिन्दुओं को फारसी पढ़ने की आवश्यकता पड़ी और वे विद्वान् होकर मुसलमानों के साथ उच्च पदों पर प्रतिष्ठित होने लगे।
जनता के मनोरंजन
उस काल में क्योंकि मारकाट का बोलबाला रहता था, जनता की रुचि के काम भी इसी प्रकार के होते थे। कहीं चीते से हाथी लड़ रहा है, कहीं भैंसे लड़ाए जा रहे हैं, कही मेंढ़ों के जोड़ छूटे हुए हैं। उमरा हाथियों की लड़ाइयों और उनकी रेलपेल में आनन्द लेते थे। हाथियों, शेरों, चीतों, भैंसों, हिरणों को फँसाने के विचित्र-विचित्र उपाय किए जाते थे। मुर्गाबियों का शिकार करने का तरीका ऐसा अनोखा है कि हम उसका वर्णन किए बिना नहीं रह सकते। पहले क्या करते कि एक ढाँचा बनाते, उस पर मुर्गाबी की खाल मँढ़ते जिसमें पर, चोंच तथा खून लगा रहता था। उसमें दो छिद्र रखते थे जिनसे शिकारी देखता था। ढाँचा अन्दर से खोखला होता था। उसमें शिकारी सिर रखता, गले तक पानी में डूब जाता और सावधानी से मुर्गाबियों के पास जाकर एक-एक को पकड़ता जाता। क्या बात है!
उस काल में चौगान1 भी उमरा का एक प्यारा खेल था। कभी-कभी पलाश की लकड़ी की गेंद बनाकर उन्हें जलाते और रात में चौगान का आनन्द उठाते थे। कबूतरबाजी, चौपड़, गंजिफा2 भी सामान्य रूप से प्रचलित थे, ताश तो नये युग की खोज है।
1. गेंद-बल्ले का खेल जो पोलो से मिलता-जुलता है।
2. ताश से मिलता-जुलता एक खेल जिसमें 96 गोल पत्ते होते हैं और जिसे तीन खिलाड़ी खेलते हैं।
एक अंग्रेज पर्यटक के यात्रावृत्त से संचयन
प्रायः ऐसा होता है कि जब किसी देश के इतिहासकार उसका इतिहास लिखते हैं तो रोजाना की सोशल बातों को मामूली समझकर विस्मृत कर जाते हैं। लेकिन जो पर्यटक अपरिचित देशों में जाते हैं वे प्रत्येक बात को, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो, लिपिबद्ध कर देते हैं। यही कारण है कि किसी देश की जीवन-शैली की दशा जानने के लिए हमें वहाँ के पर्यटकों के यात्रावृत्तों की आवश्यकता पड़ती है। अकबर के युग में सम्राज्ञी एलिजाबेथ से सिफारिशी चिट्ठियाँ लेकर कुछ अंग्रेज पर्यटक व्यापार करने की इच्छा से हिन्दुस्तान में आए थे। उनमें से एक ने संक्षिप्त सा यात्रावृत्त लिखा है। हम उस पुस्तक से आवश्यकतानुसार थोड़ा सा चयन करते हैं।
ये व्यापारी 13 फरवरी 1513 ई. को इंगलिस्तान से रवाना हुए और अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में स्याम देश में त्रिपोली स्थान पर उतरे। कोलम्बस ने नयी दुनिया खोज ली थी लेकिन उस समय तक केप आफ गुड होप होकर आने का मार्ग किसी को ज्ञात नहीं हुआ था। त्रिपोली से ये लोग पैदल बसरा होते हुए फारस की खाड़ी के बंदरगाह हुर्मुज तक आए। उस समय वहाँ पुर्तगाली व्यापारियों ने व्यापार प्रारम्भ किया था। वे जब किसी यूरोपियन को देखते तो ईर्ष्या से तत्काल गिरफ्तार कर लेते और भाँति-भाँति के कष्ट पहुँचाते। उन्होंने इन पर्यटकों पर भी जासूस होने का आरोप लगाया और बंदी बना लिया। एक माह तक बंदी रखने के पश्चात् उन्हें गोवा के लिए चलता कर दिया।
उस समय गोवा पुर्तगालियों के अधिकार में था और आज चार शताब्दियों के बाद भी वहाँ उनका आधिपत्य विद्यमान है। इस स्थान पर उनकी जाँच-पड़ताल की गई और अन्ततः हजारों दिक्कतों और परेशानियों के बाद उन्हें मुक्ति मिली। उनमें से तीन आदमियों ने कपड़े और रत्नों का व्यापार प्रारम्भ किया। लेकिन जब उनका काम चमका तो पुर्तगाली घबराए और फिर उन पर हाथ डालने की घात में लगे। अन्ततः ये लोग भयभीत होकर भागे और बीजापुर तथा गोलकुंडा की सैर करते हुए बुरहानपुर पहुँचे। इस नगर को अकबरी प्रताप ने कुछ ही दिनों पूर्व अपने अधिकृत क्षेत्रों में सम्मिलित कर लिया था। इस जगह तक का विवरण कुछ उखड़ा-पिछड़ा सा है, लेकिन यहाँ से आगे का विवरण क्रमबद्ध है। इन रिमार्कों के पढ़ने से हमको अकबर के युग की समृद्धि, सम्मान, व्यापार, उत्साह और जीवन-शैली की विशेषताएँ ज्ञात हो जाएँगी।
"बुरहानपुर से हम उमड़ी हुई नदियों को पार करते आगरा पहुँचे। मार्ग में बड़ा कष्ट हुआ। कई बार तो चौड़ी नदियों पर कोई पुल नहीं होता था। विवश होकर हम उस समय तैरकर पार होते थे। आगरा बड़ा आबाद और विस्तृत शहर है। मकान बड़े सुन्दर तथा साफ-सुथरे हैं और गलियाँ भी साफ-सुथरी तथा चौड़ी। शहर के ठीक मध्य में एक नदी बहती है जो बंगाल की खाड़ी में गिरती है (यमुना)। यहाँ एक सुन्दर किला है जिसके चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई है। यहाँ मुसलमान बहुलता से बसे हैं और बादशाह का नाम जलालुद्दीन अकबर है। उसे लोग मुगले आजम भी कहते हैं। यहाँ से हम फतहपुर सीकरी पहुँचे जहाँ बादशाह दरबार करता है। शहर आगरा से बड़ा है लेकिन गलियाँ और मकान इतने सुन्दर और स्वच्छ नहीं है। यहाँ भी मुसलमान बहुलता से बसे हुए हैं। लोग कहते हैं कि यहाँ पर बादशाह ने एक हजार हाथी, बीस हजार घोड़े, बारह सौ पालतू हिरण रखे हैं और मुर्गों, बाजों और अन्य शिकारी चिड़ियों की संख्या इतनी अधिक है कि देखकर आश्चर्य होता है। अन्तःपुर में आठ सौ बेगमें हैं। बादशाह का दरबार बड़ा प्रतिष्ठित है। उसको दारखाना कहते हैं। आगरा और फतहपुर, दोनों शहर लंदन से बहुत बड़े हैं और इन दोनों शहरों के बीच बारह मील की दूरी है लेकिन यह बीच का पूरा रास्ता खाने-पीने और अन्य वस्तुओं के बाजारों से ऐसा आबाद है कि लगता है शहर का ही सिलसिला है और आदमी इतने अधिक आते-जाते रहते हैं कि मानो बाजार हो। यहाँ रईसों की सवारी छोटी-छोटी बहलियाँ होती हैं जिन पर सुनहरे बेल-बूटे बने रहते हैं। इसमें दो पहिये होते हैं और दो बैल जोते जाते हैं जो इंगलिस्तान के बड़े कुत्तों जितने कद के होते हैं और ऐसे तेज होते हैं कि घोड़ों से शर्त लगाकर दौड़ सकते हैं। इसमें दो या तीन आदमी सवार होते हैं। ये सवारियाँ सुन्दर रेशमी कपड़ों से सजी होती हैं। इस शहर में फारस और तिब्बत और सारे हिन्दुस्तान और अन्य देशों के व्यापारी हजारों की संख्या में इकट्ठे होते हैं और रेशम, कपड़े, मूल्यवान रत्नों जैसे हीरे, मोती, लाल आदि का खूब क्रय-विक्रय होता है।"
दोनों शहरों का यह संक्षिप्त वर्णन करने के पश्चात् लेखक बादशाह के बहुमूल्य वस्त्रों की चर्चा करता है, जिसका उल्लेख करना निरर्थक है।
ये तीनों व्यापारी यहाँ कुछ समय तक रहे। इसके पश्चात् एक तो विदेश चला गया, दूसरे ने शाही दरबार में नौकरी कर ली और तीसरा, जिसका नाम फिंच था, कुछ हिन्दुस्तानी व्यापारियों के साथ हो लिया जो अपनी नावें लेकर बंगाल की ओर जा रहे थे। उन नावों में नमक, हींग, केसर, अफीम, सीसा, कालीन आदि वस्तुएँ लदी हुई थीं। बंगाल के शहरों का वर्णन दृष्टव्य है। फिंच लिखता है-
"पटना से मैं टांडा को गया जो पहले स्वयं एक राज्य था लेकिन अब जलालुद्दीन अकबर के अधिकृत क्षेत्रों में सम्मिलित है। यहाँ रुई और रुई के कपड़े की बड़ी मण्डी है। जनता एक पतली सी धोती कमर में बाँधे नंगे शरीर इधर-उधर घूमती रहती है। यहाँ चीते, जंगली भैंसे और जंगली चिड़ियाएँ बड़ी प्रचुरता से पाई जाती हैं। लोग बड़़े मूर्तिपूजक हैं। आगरा से यहाँ तक आने में पाँच महीने लगे लेकिन यह यात्रा इससे कम समय में हो सकती है।
हम बंगाल से कूचबिहार की ओर चले। यह स्थान टांडा से पच्चीस मील पर स्थित है। सुनने में आया है कि लड़ाई के दिनों में नोकदार बाँस की मेखें जमीन में गाड़कर पानी से भर देते हैं ताकि कोई आदमी या घोड़ा उधर से न गुजर सके। जब शत्रु चढ़ आता है तो ये लोग कुँओं में जहर मिला दिया करते हैं। यहाँ रेशम और रुई की बहुतायत है। यहाँ लोग कभी जानवर को नहीं मारते और भेड़, बकरी, कुत्ते, बिल्ली, चिड़ियों और अन्य जीवों के लिये औषधालय और दानशालाएँ बनी हुई हैं। जब ये जीव बूढ़े या लँगड़े हो जाते हैं तो उन्हीं दानशालाओं में भोजन पाते हैं। लोग चींटियों को खाद्य सामग्री बाँटते फिरते हैं। जब मीरे शिकार1 कोई चिड़िया या जानवर फँसा कर लाता है तो लोग उसे खाना देकर चिड़िया छुड़ा लेते हैं और उन अस्पतालों में रखते हैं या उड़ा देते हैं।
यहाँ से मैं हुगली को गया। इस शहर में पुर्तगाली लोग बसे हैं। हमने आम रास्ता छोड़ दिया था क्योंकि डाकुओं का भय था। रास्ते में गाँव बहुत कम थे और जंगली सूअर और हिरण और चीते ऊँची-ऊँची घास में टहल रहे थे।"
यह पर्यटक हुगली से अन्य स्थानों को गया। उड़ीसा का हाल इस प्रकार लिखता है -
"यहाँ चावल बहुतायत से होता है और एक प्रकार की घास उत्पन्न होती है जो रेशम के समान होती है। इससे सुन्दर कपड़े बनते हैं। इस बन्दरगाह में नगापट्टन, मलाका द्वीपसमूह, सुमात्रा और अन्य स्थानों से अनगिनत जहाज हिन्दुस्तान आते हैं और चावल, ऊन, सूती कपड़े, शक्कर, लाल मिर्च, मक्खन और अन्य कृषि उत्पाद लादकर ले जाते हैं।
1. वह शाही सेवक जो शिकारी जानवरों की निगरानी हेतु नियुक्त होता था।
बंगाल में प्रतिदिन कहीं न कहीं पैंठ लगती है जिसे ‘चाँदू’ कहते हैं। लोगों के पास बड़ी-बड़ी नावें होती हैं जिन पर सवार होकर इधर-उधर क्रय-विक्रय करते फिरते हैं। यहाँ हिन्दू गंगा-जल का बड़ा सम्मान करते हैं और कुएँ का पानी पास हो, फिर भी दूर से गंगा-जल लाते हैं। यदि वह पीने भर को पर्याप्त न हो तो उसकी कुछ बूँदें छिड़ककर घड़ों को पवित्र किया करते हैं।
उड़ीसा से मैं बाकला (बाकरगंज) को गया जहाँ हिन्दू राजा है और बन्दूक के शिकार का बहुत शौक रखता है। यह देश बहुत विस्तृत और उपजाऊ है। यहाँ चावल, रुई और हर प्रकार के कपड़े बहुत बनते हैं। मकान बड़े और ऊँचे होते हैं, गलियाँ चौड़ी लेकिन जनता अर्धनग्न होती है। कमर में केवल एक धोती होती है। औरतें गले और पाँव में चाँदी के गहने पहनती हैं। पैरों में चाँदी, तांबे या हाथी दाँत के कड़े होते हैं।"
यहाँ से फिंच श्रीपुर को गया। वह लिखता है कि इस जगह भी सूती कपड़े बहुत बनते हैं। श्रीपुर से श्रीरामपुर को आया और कहता है यहाँ हिन्दुस्तान के सभी स्थानों से अच्छा कपड़ा बनता है। बादशाह अफगानी है। सामान्य रूप से मकान छोटे होते हैं और लोग धनी तथा सम्पन्न हैं। मांसाहार नहीं करते। यहाँ से सूती कपड़ा, चावल और रेशम प्रचुरता से हिन्दुस्तान, लंका, पेगू, मलाका द्वीपसमूह, सुमात्रा आदि को जाता है।
इस पर्यटक के ये रिमार्क हमारे लिए अर्थपूर्ण हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि हिन्दुस्तान में उस समय सम्पन्नता का बोलबाला था। मलाका द्वीपसमूह, सरनदीप, सुमात्रा, चीन, तिब्बत, फारस, काबुल आदि से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। रेशमी और सूती कपड़ा सभी दिशाओं में भेजा जाता था। माल की ढुलाई के लिये नावों और जहाजों का प्रयोग किया जाता था। मांस का प्रयोग कम था और जनता प्रत्येक दृष्टि से तृप्त तथा संतुष्ट थी।
इत्तिफाक ताकत है

[1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने जिस क्रूरता, नृशंसता और अमानवीयता से कुचला था, उसकी प्रेतछाया से मुक्त होने में देश की जनता को आधी सदी लग गई। 1857 के पश्चात् अखिल भारतीय स्तर पर गुलामी की जंजीरें काट फेंकने की जनता की बेकरारी लार्ड कर्जन द्वारा 1905 में किए गए बंग-भंग के विरुद्ध आन्दोलन के रूप में ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ी।
बंग-भंग के विरुद्ध आन्दोलन में रवीन्द्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में बंगाल के सभी साहित्यकार उठ खड़े हुए तो देश का समूचा साहित्यिक वातावरण उससे अछूता न रह सका और उस समय नवाबराय के लेखकीय नाम से लिखने वाले प्रेमचंद भी पीछे नहीं रहे। कानपुर के उर्दू मासिक ‘जमाना’ के जून 1905 के अंक में ‘देशी अशिया को क्यों कर फरोग हो सकता है’ तथा बनारस के उर्दू साप्ताहिक ‘आवाजा-ए-खल्क’ के 16 नवम्बर 1905 के अंक में ‘स्वदेशी तहरीक’ शीर्षक से दो लेख प्रकाशित कराकर प्रेमचंद ने अपनी भावनाएँ सार्वजनिक करने में कोई संकोच नहीं किया। 1905 का कांग्रेस अधिवेशन बनारस में आयोजित हुआ जिसमें गोपाल कृष्ण गोखले कांग्रेस अध्यक्ष बने। ‘जमाना’ के नवम्बर-दिसम्बर 1905 के संयुक्तांक में प्रकाशित प्रेमचंद का लेख ‘आनरेबल गोपाल कृष्ण गोखले’ कांग्रेस में उनकी गहरी निष्ठा का प्रबल प्रमाण है।
बंग-भंग के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन ने उस मजबूत आधारशिला का कार्य किया जिस पर असंख्य देशभक्तों ने स्वतंत्रता संघर्ष के भव्य भवन का निर्माण किया। इसी आन्दोलन ने कांग्रेस के अन्दर गरम दल तथा नरम दल के रूप में आन्तरिक संघर्ष को भी जन्म दिया। यह आन्तरिक संघर्ष दो वर्ष तक अन्दर ही अन्दर पनपता रहा और अन्ततः सूरत कांग्रेस के दूसरे दिन 28 दिसम्बर 1907 को मंच पर ही दोनों पक्षों के मध्य खुला संघर्ष हुआ, जो कांग्रेस के समूचे इतिहास की अभूतपूर्व घटना है। इस संघर्ष में मंच पर दोनों पक्षों के मध्य खुले वाक्युद्ध के साथ-साथ कुर्सियाँ और बेंत आदि भी चली। इस सारे हाय बवेले में कांग्रेस दो फाड़ हो गई जिससे अन्य देशभक्तों की भाँति प्रेमचंद भी आहत हुए।
प्रेमचंद की दृष्टि में नरम दल और गरम दल की एकता होने से ही कांग्रेस मजबूत होकर देश की आजादी के लिये संघर्ष कर सकती थी और देश की जनता को गुलामी से मुक्ति दिला सकती थी। अपनी इसी भावना को वाणी देने के लिये प्रेमचंद ने एक लेख लिखकर लाहौर से मुंशी बिशन सहाय आजाद के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘आजाद’ के मार्च 1908 के अंक में नवाबराय के लेखकीय नामोल्लेख के साथ प्रकाशित कराया था जिसका शीर्षक है ‘इत्तिफाक ताकत है।’ प्रेमचंद का बहुत सा ‘अप्राप्य’ साहित्य प्रकाशित कराने वाले प्रेमचंद साहित्य के बहुप्रचारित ‘विशेषज्ञ’ डा. कमल किशोर गोयनका इस लेख का नामोल्लेख तो करते हैं परन्तु इसका पाठ प्रकाशित कराने की दिशा में तनिक भी सचेष्ट दिखाई नहीं देते और इसे ‘अप्राप्य’ बताकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर देते हैं।
देश की राजनीति और स्वतन्त्रता संघर्ष को कहीं दूर तक प्रभावित करने वाली घटना पर प्रेमचंद का यह ऐतिहासिक महत्त्व का लेख एक सदी तक अप्राप्य बना रहना आश्चर्य के साथ-साथ खेद का भी विषय है।]
एक जमाने में हिन्दुस्तान के लोग इस सीमा तक युद्धप्रिय थे कि बात-बात पर तलवारें चलती और खून की नदियाँ बहती थीं। या अब लोग ऐसे शान्तिप्रिय हो गए हैं कि पत्तों के खड़कने से भी कान खड़े हो जाते हैं और हाय बवेला मच जाता है। यह अंग्रेजी राज की बड़ी अनुकम्पा है। जब से सूरत कांग्रेस कुछ अदूरदर्शी देशभक्तों की अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों से छिन्न-भिन्न हो गई है, नेशनलिस्ट और माडरेट - दोनों पक्ष एक दूसरे के जानी दुश्मन हो गए हैं और जिम्मेदार हलकों से यह आवाज लगातार सुनाई देती है कि अब दोनों पक्षों में एकता होनी कठिन है। यहाँ तक कि दोनों ओर से अलग-अलग अधिवेशन किए गए और आगे भी किए जाने की तैयारियाँ हो रही हैं।
हिन्दुस्तान अपने विचार-स्वातंत्र्य और विशाल-हृदयता के लिए सदा प्रसिद्ध रहा है। यह बात इसी देश में देखने में आती है कि मामूली पत्थरों के समक्ष श्रद्धा से नतमस्तक होने वालों से लेकर उच्च कोटि के स्वतंत्र विचार दार्शनिक तक सभी हिन्दू-धर्म की विस्तृत सभा के सदस्य समझे जाते हैं। मगर धर्म के बन्धन से मुक्त होने पर भी कांग्रेस समान विचार के पक्षों को अपनी मंडली में जगह नहीं दे सकती, और वह भी इस हालत में जबकि दोनों का विरोध वास्तविक नहीं है। हम मानते हैं कि अबकी कांग्रेस में कुछ दीवाने नौजवानों ने बहुत शोर मचाया और कुछ बड़े-बड़े नेताओं को बोलने भी नहीं दिया। उनकी यह हरकत सरासर गलत थी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी उच्छ्रंखलता का पक्ष नहीं ले सकता, मगर ऐसी हालत में देशभक्ति का दावा करने वाले महानुभावों को खुश होना चाहिए था कि नौजवानों में कांग्रेस के साथ व्यावहारिक दिलचस्पी लेने का शौक तो पैदा हुआ। और उन्हें इस कोशिश में अपनी पूरी ताकत लगानी चाहिए थी कि किस प्रकार इस नये उत्साह का बेहतरीन इस्तेमाल किया जा सकता है, बनिस्बत इसके कि उसे एक झटके से अलग कर देने की जरूरत समझी जाती। जरूरत इस बात की थी कि जब कांग्रेस बर्खास्त की गई तो मैम्बरों के चुनाव के अनुरूप देश के सभी रहनुमा नये उपाय और कानून प्रस्तावित करते। हरेक प्रान्त और शहर को उसकी आबादी और व्यापारिक महत्त्व के आधार पर मैम्बरों की एक निश्चित संख्या चुनने का अधिकार दिया जाता और अगले साल कांग्रेस दोगुनी शानो शौकत के साथ दोनों पक्षों के मैम्बरों सहित इकट्ठी आयोजित होती। उस समय किसी दल को यह शिकायत न होती कि एक पक्ष ने एक स्थान विशेष के सैकड़ों डेलीगेट भरती कर दिये।
मानवीय विचारों में सदा विरोध रहा है और रहेगा। यह लगभग असम्भव है कि सभी मनुष्य एक ही विचार के हों। दुनिया में जहाँ कहीं भी राष्ट्रीय दल हैं वहाँ मतभेदों को हमेशा प्रतिद्वंद्विता की दृष्टि से देखा जाता है। इस समय तो नरम दल वाले खुश हैं कि हमने अपने दल को घास-फूस से साफ कर लिया और अब हम पूरी तसल्ली से हर साल अधिवेशन करते रहेंगे। मगर क्या ये लोग इस बात की जिम्मेदारी ले सकते हैं कि भविष्य में इन लोगों में फिर किसी समस्या पर मतभेद नहीं होगा। और क्या उस हालत में फिर कन्वेंशन भी दो फाड़ नहीं हो जायेगा। और क्या यह अन्तहीन सिलसिला उस समय तक जारी नहीं रहेगा जब तक कि कट-छँटकर कांग्रेस कुछ बूढ़े आदमियों की एक मंडली रह जायेगी।
बुद्धिमानों की परम्परा है कि जब उनसे कोई गलती हो जाती है तो बहुत जल्दी शर्मिन्दा हो जाते हैं और उस गलती को सुधारने का प्रयास करते हैं। मिस्टर तिलक ने सबसे पहले मेल-मिलाप की आवाज उठाई है और उसकी आवश्यकता स्वीकार की है। इसके प्रतिकूल नरम दल के नेता, जो धृष्टताओं के कम से कम उसी सीमा तक जिम्मेदार हैं जिस सीमा तक मिस्टर तिलक, एकता के नाम से घबराते हैं। मानो यह उनके कई महीने के सत्प्रयासों का परिणाम है। उन्हें न केवल अपनी गलती पर पछतावा है बल्कि उस गलती को सही ठहराने की कोशिश में लगे हुए हैं और कांग्रेस की इस गलती को मिस्टर मार्ले के यादगार शब्दों में ‘तयशुदा बात’ समझते हैं। मिस्टर तिलक जानते हैं कि कांग्रेस से बाहर उनका कुछ अस्तित्व नहीं, मगर मिस्टर गोखले इस विचार से भ्रमित हैं कि हमारी इस हरकत से खुश होकर सरकार अब हम पर कृपाओं की भरमार कर देगी। वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि नेशनलिस्टों की जमात कुछ दिनों से ही अस्तित्व में आई है, उससे पहले सब लोग नरम दली ही थे। उस समय सरकार ने उनके साथ क्या रियायत कर दी थी। भगवान् नेशनलिस्टों का भला करे कि उनके शोर शराबे ने सरकार को नरम दल वालों की माँगों पर वरीयता देने का वादा तो किया मगर यह ध्यान रहे कि यह वादा उस समय हुआ था जब दोनों पक्ष प्रकट रूप में इकट्ठे थे। और यदि उनका अलगाव किसी सैद्धांतिक विषय पर सद्भावनापूर्वक हुआ होता तो सम्भव था कि इस विचार से कि नरम दल नेशनलिस्टों से अलग रहे और इकट्ठा न होने पावे, सरकार अपना वादा पूरा करती। मगर अब जबकि दोनों वर्गों में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया है, अभिमान और व्यक्तित्व का विष फैल गया है और देखती आँखों उनके इकट्ठा होने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती, तो सरकार को वादा पूरा करने की कोई जरूरत नहीं रही। क्योंकि अब वह यह समझेगी कि मनमुटाव व पारस्परिक स्तुतिगान के जोश में ये दोनों अपने आप ठंडे पड़ जाएँगे, हमें क्या आवश्यकता है कि एक को दबाने के लिये दूसरे की पीठ सहलाएँ और थपकियाँ दें। अब उसे नेशनलिस्टों की प्रगति का कुछ भी भय नहीं रहा क्योंकि वे महानुभाव जो अब नरम दली बन रहे हैं, अगर किसी सिद्धान्त से नहीं तो केवल अकड़ और स्वाभिमान के विचार से नेशनलिस्टों के दल से परहेज रखेंगे और चाहे सरकार की तरफ से निराश भी हो जायें, मगर नरम दली बने रहेंगे। पिछले दो बरसों में कांग्रेस को जो प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हुआ है वह उससे पहले के बीस बरसों में भी नहीं मिला था और यह इसी नये दल का प्रभाव था। अब क्योंकि दोनों दल अलग हो गए हैं, सरकार की दृष्टि में कांग्रेस का वही प्रभाव और प्रतिष्ठा रह गई जो दो बरस पहले थी। वे महानुभाव जो इस अलगाव से खुश होकर बगलें बजा रहे हैं और शर्मिन्दा होने तथा एकता का प्रयास करने के बजाय इस मामूली फटन को गहरा गढ़ा बनाने की धुन में हैं, उन्हें ठीक से समझ लेना चाहिये कि सरकार का वादा उसी समय तक के लिए था जब तक दोनों दल एक थे। उसका उद्देश्य अब पूरा हो गया और उसे पिछले बाईस बरसों से पता है कि माडरेट लोगों की प्रार्थना को क्या भाव देना चाहिये। यदि मिस्टर गोखले, बैनर्जी, मेहता आदि वास्तव में राष्ट्रहित के पक्षधर हैं तो उन्हें एकता और मेल-मिलाप के इस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए और मिस्टर तिलक के उदाहरण से शिक्षा लेकर पुरानी बातों को भूल जाना चाहिए। धैर्य, साहस, दृढ़ता और क्षमा - ये देशभक्ति की पहली शर्तें हैं। जो लोग अपने ही भाइयों के शोर शराबे और मतभेद से झल्लाकर आपा खो बैठें और उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दें, वे इससे ज्यादा नाजुक अवसरों पर जनता का क्या साथ देंगे। मिस्टर बैनर्जी जैसे देशभक्त से क्या यह कहने की आवश्यकता है कि अपनी राष्ट्रीय सभा में गालियाँ खाना और अपमानित होना इतना बुरा नहीं है जितना जनता के एक भाग को यह जानते हुए घर से निकाल देना कि सरकार बहुत जल्द उनकी हस्ती खाक में मिला देगी। वह दिन हमारे नरम दली भाइयों के लिए डूब मरने का होगा जब इस पारस्परिक वैमनस्य का परिणाम यह होगा कि सरकार का सख्त हाथ नेशनलिस्टों की गर्दन में होगा। और वह अवसर इससे भी अधिक शर्मनाक होगा जब नेशनलिस्ट लोग सरकार के जालिम हाथ के नीचे दबे बावेला मचाएँगे और हमारे नरम दली भाई तालियाँ बजाएँगे।
आबशारे न्याग्रा

[जिस समय प्रेमचंद ने साहित्य-संसार में पदार्पण किया उस समय देश की तरुणाई अँगड़ाई लेकर उठ रही थी और समूचे देश में देशभक्ति की प्रबल लहर चल रही थी। प्रेमचंद भी उससे अछूते न रहे और जून 1908 में प्रकाशित अपने पहले कहानी संकलन ‘सोजे वतन’ की कहानियों के देशभक्तिपूर्ण स्वर के कारण उन्हें अपने लेखकीय नाम ‘नवाबराय’ को छोड़ना पड़ा। नवाबराय से प्रेमचंद का नाम ग्रहण करने तक के संक्रमण काल में प्रेमचंद ने कई छद्म तथा संक्षिप्त नामों के अन्तर्गत अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराईं, जिनमें से उनके वास्तविक नाम धनपतराय का संक्षिप्त रूप दाल-रे विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
दाल-रे के संक्षिप्त लेखकीय नामोल्लेख के साथ प्रकाशित होने वाला प्रेमचंद का सर्वप्रथम लेख ‘आबशारे न्याग्रा’ शीर्षक से मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘जमाना’ के जुलाई 1908 के अंक में पृष्ठ संख्या 41 से 45 तक प्रकाशित हुआ था। दाल-रे के लेखकीय नामोल्लेख से प्रेमचंद की अनेकानेक रचनाएँ प्रकाशित होने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं, परन्तु ‘आबशारे न्याग्रा’ पर इस नाम में आश्चर्यजनक रूप से ‘अज अम्बाला’ शब्दों की वृद्धि कर दी गई थी, जिसके कारणों पर निम्नांकित पंक्तियों में विचार प्रस्तुत है।
अपने आत्मकथात्मक लेख ‘जीवन-सार’ में प्रेमचंद ‘सोजे वतन’ प्रकाशित होने के पश्चात् की घटनाओं का उल्लेख करते हुए लिखते हैं -
"उस वक्त मैं ‘नवाबराय’ के नाम से लिखा करता था। मुझे इसका कुछ-कुछ पता मिल चुका था कि खुफिया पुलीस इस किताब के लेखक की खोज में है।"1
स्पष्ट है कि यह तथ्य प्रेमचंद के संज्ञान में आ चुका था कि ‘सोजे वतन’ के लेखक को खुफिया पुलिस खोज रही है। संकलन की कहानियों के सम्बन्ध में तो उन्हें पता ही था कि वे देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत हैं और इस तथ्य का उल्लेख प्रेमचंद ने ‘जमाना’ में छपे इस संकलन के उस विज्ञापन में भी स्पष्ट रूप से किया था, जो उन्होंने स्वयं लिखकर ‘जमाना’ में प्रकाशनार्थ भेजा था। ऐसी दशा में सरकारी शिक्षा विभाग में कार्यरत धनपतराय के लिए यह अनुमान करना कुछ कठिन नहीं था कि यदि पुलिस उन तक पहुँच गई तो उन्हें क्या-क्या और कैसी-कैसी कठिनाइयों से दो-चार होना पड़ेगा।
1. जीवन-सार; हंस, आत्मकथा अंक,
अतः प्रेमचंद ने अपने लेखों आदि पर नवाबराय का नाम देना उचित नहीं समझा और अपने वास्तविक नाम धनपतराय के उर्दू आद्याक्षरों दाल-रे का प्रयोग करने का निर्णय लिया। अपनी पहचान और अधिक गोपनीय बनाए रखने के लिए उन्होंने दाल-रे के साथ ‘अज अम्बाला’ शब्दों की वृद्धि करके यह भ्रम उत्पन्न करने का प्रयास किया कि यह लेखक पंजाब प्रान्त के अम्बाला नगर का निवासी है, ताकि पुलिस-प्रशासन उन तक पहुँचने में सफल न हो सके।
1. जीवन-सार; हंस, आत्मकथा अंक,
इस लेख का नामोल्लेख डा. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद विश्वकोश’ भाग-1, पृ. 321 पर किया अवश्य, परन्तु इसे अशुद्ध रूप से ‘जमाना’ के जुलाई 1907 के अंक में प्रकाशित बताया है। आश्चर्य की बात है कि डा. गोयनका ने प्रेमचंद के इस लेख का कोई उल्लेख न तो ‘प्रेमचंद विश्वकोश’ के द्वितीय भाग में किया, न ही ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ में प्रस्तुत प्रेमचंद की शेष अप्राप्य रचनाओं की सूची में इसे स्थान दिया। इसका कारण तो कुछ बुद्धिगम्य नहीं है, परन्तु प्रेमचंद के एक अप्राप्य लेख के प्रति उनकी अतिशय उदासीनता और उपेक्षा अवश्य ही खटकती है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के पर्यटन स्थल न्याग्रा जल-प्रपात के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने एक संक्षिप्त से लेख में जितनी प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है, वह अपने में अनूठी है। और, इस लेख की यही विशेषता इसे प्रेमचंद के महत्त्वपूर्ण लेखों में सम्मिलित कराने के लिए पर्याप्त है।]
प्रकृति ने जहाँ मानव को बहुत से उपहार प्रदान किए हैं, वहीं उनमें वे रंगबिरंगे पहाड़ भी हैं जिन्हें प्रकृति के उदार हाथों ने फूलों के गुलदस्तों की भाँति उत्तरोत्तर सजाया है। जहाँ ऊँचे-ऊँचे वृक्ष आकाश से बातें करते हैं, सुन्दर युवा उद्यान अपनी प्रेयसी शीतल मन्द हवा से आलिंगनबद्ध होकर आत्ममुग्ध और आत्मविस्मृत हुए झूमने लगते हैं, और कभी उसके आनन्ददायक झोंकों से मस्ती में आकर अपने स्रष्टा के नाम का स्मरण करने लगते हैं। जहाँ प्रपातों और निर्झरों से बहता हुआ स्वच्छ शीतल जल अपने प्रेमियों की व्यथा और संताप मिटा रहा है। जहाँ संसार की चिन्ताएँ और बाधाएँ बात की बात में मिट जाती हैं और मन सहसा पाँव पीछे हटाने से वर्जित करने लगता है और कहता है कि यह चार दिन का जीवन प्रकृति के स्वयं उद्भूत संरक्षण और उसके रचयिता की पूजा-अर्चना में व्यतीत कर दीजिए। ये वही पवित्र स्थान हैं जिनमें योगियों, मुनियों और संन्यासियों के आवास रहे हैं। ये वही पवित्र स्थान हैं जहाँ बैठकर संसार से विरक्त पूर्ण ज्ञानियों ने आत्म-साक्षात्कार और लोकहित तथा लोक-कल्याण के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। यही वे प्राकृतिक दृश्य थे जिनमें स्वामी राम खो गए। उनका यह शेर उनकी मानसिकता का अनुमान करने के लिए पर्याप्त है -
लोग कहते हैं कि मैदानों में रहना ठीक है
कौन जाए राम अब गंगा की लहरें छोड़कर
पता नहीं शहंशाह बाबर ने किस आधार पर भारतवासियों पर आरोप लगाते हुए और आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था - ‘विचित्र रसहीन लोग हैं। यदि डेरा लगाना हो तो नदी की ओर पीठ कर लेते हैं। इनके मन पर प्राकृतिक दृश्यों का तनिक भी प्रभाव नहीं होता।’
ऐसी बेबसी की दशा में जबकि लोग विदेशी आक्रान्ताओं से भयभीत थे और गृहयुद्ध तथा पारस्परिक झंझटों में फँसे हुए थे, प्राकृतिक दृश्य उन पर क्या प्रभाव छोड़ते! इसी प्रकार विदेशी लेखकों ने अन्य बातों में अपना मत निर्धारित करने में त्रुटि की है। भारतवासियों पर यह एक धार्मिक प्रतिबन्ध था जिसकी पृष्ठभूमि में पूर्वजों का यही गुप्त मन्तव्य था कि तीर्थ यात्राओं, दर्शनीय स्थलों जैसे बदरीनारायण, केदारनाथ, अमरनाथ, वैष्णोदेवी, कांगड़ा, ज्वालामुखी, मक्का-मदीना के दर्शनों के बहाने मनुष्य प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द ले, अपने ज्ञान में वृद्धि करे, पहाड़ों के व्यापार और देश-देश की उपज से परिचय प्राप्त करे। यह नहीं कि चिड़चिड़े अज्ञानियों की भाँति आँखें मूँदे जाएँ और ईसा के गधे की भाँति कोरे के कोरे वापस चले आएँ। ऐसे ही स्थान और वस्तुएँ प्रकृति ने अन्य देशों के निवासियों के लिए भी उत्पन्न की हैं ताकि अपने अवकाश के क्षणों में लोग इनका आनन्द लें और प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर ईश्वर का स्मरण करें।
इनमें एक विक्टोरिया जल-प्रपात है जो अफ्रीका महाद्वीप के निवासियों को अपना प्रेमी बनाए हुए है। ऐसा ही एक जल-प्रपात अमरीका महाद्वीप में है जो आबशारे न्याग्रा के नाम से प्रसिद्ध है। सुन्दर दृश्यों के प्रेमी यहाँ के निवासी आश्चर्यजनक बुद्धिमत्ता से कार्य कर रहे हैं और दिन-रात इसी चिन्ता में रहते हैं कि ईश्वर ने आँखें तो दी हैं लेकिन हम अभी तक इनसे सूर्य के प्रकाश में ही काम ले सकते हैं। इसलिए कोई ऐसा उपाय खोज निकाला जाय जिससे इस जल-प्रपात की सुन्दरता का दृश्य और पूर्ण स्रष्टा की कलाकारी तथा कारीगरी का अनुभव रात और दिन में एक समान कर सकें। वे प्रत्येक दिन को ईद और रात को शबे बरात बनाने के इच्छुक हैं। सच पूछिए तो न्याग्रा जल-प्रपात का सौन्दर्य रात के समय ही निखार पर आता है जब उसकी चित्ताकर्षक जल-चौकी का सम्पूर्ण विस्तार विभिन्न रंगों के प्रकाश से दैदीप्यमान हो जाता है। इस उत्कृष्ट दृश्य की सुन्दरता का क्या वर्णन हो सकता है, मनुष्य क्या देवता भी आकाश से देख लें तो हजार जान से मुग्ध हो जाएँ।
दीर्घकाल तक अमरीका वाले इस दुविधा में रहे कि किन माध्यमों और संसाधनों से यह जल-प्रपात रात्रि के समय प्रकाशमान होकर मनमोहक हो सकता है। रात्रि के समय इसमें दर्शकों के लिए निरन्तर जल गिरने के शोर के अतिरिक्त और कुछ भी मनमोहक विशेषता नहीं थी। लम्बे समय तक विचार-विमर्श होता रहा। अन्ततः यह महत्त्वपूर्ण कार्य न्याग्रा जल-प्रपात के उत्साही अधिकारी को सौंपा गया और इसकी सफलता का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त हुआ, क्योंकि अब आप इस अनुपमेय जल-प्रपात को प्रकृति के अत्यन्त विचित्र रंगों में नहाता हुआ देख सकते हैं।
वास्तव में यहाँ दो पृथक्-पृथक् जल-प्रपात हैं - 1. गोट टापू - जो एक पाषाणी भूखण्ड है और नदी को दो भागों में विभक्त करता है। कैनेडा वाले भाग को हॉर्स शू या कैनेडा का जल-प्रपात कहते हैं जिसकी गहराई 158 फिट और चौड़ाई 2640 फिट है।
इस टापू के दूसरी ओर दूसरा जल-प्रपात है जो अमरीकी जल-प्रपात के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी गहराई 162 फिट और चौड़ाई लगभग 1000 फिट है। इन दोनों दरारों को स्वच्छ करती जाने वाली पानी की धार या लहर में जल का प्रवाह एक करोड़ पचास लाख घन फिट प्रति मिनट है। सितम्बर 1907 में ये दोनों जल-प्रपात पहली बार प्रकाशित किए गए थे। यह परीक्षण बड़ी-बड़ी मशालों की सहायता से किया गया था। 50 मशालें प्रज्ज्वलित की गई थीं जो इसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए जनरल इलैक्ट्रिक कम्पनी से बनवाई गई थीं और जिन्हें कम्पनी के प्रसिद्ध इंजीनियर श्री डब्ल्यू.डी.ए. रामन साहब ने अत्यन्त श्रमपूर्ण प्रयास से सुसज्जित किया था। एक प्रकाशगृह जिसमें 21 मशालें थीं, ओंटेरियो के निकट कैनेडा की घाटी में स्थापित किया गया था और चाँद जैसे लैम्प बराबर-बराबर रख दिए गए थे ताकि इससे दोनों जल-प्रपातों पर प्रकाश पड़े। दूसरा प्रकाशगृह पहले स्थान से कुछ ऊँचाई पर स्थापित किया गया ताकि उससे जल-प्रपातों के ऊपरी भागों पर प्रकाश की जगमगाती किरणें पड़ सकें। तीसरा प्रकाशगृह विक्टोरिया बाग में बनाया गया जिससे अमरीकी जल- प्रपात पर प्रकाश पहुँच सके। जो लोग प्रायः कहते थे कि नदियों की शक्ति निरर्थक नष्ट हो रही है, उनसे किसी प्रकार का काम नहीं लिया जाता, उन लोगों की इच्छा भी पूर्ण हो गई। इन मशालों और प्रकाशगृहों को प्रकाश पहुँचाने का कार्य इन जल- प्रपातों से ही लिया जा रहा है, जिसका अर्थ यह है कि ये स्वयं अपने आपको प्रकाश पहुँचा रहे हैं। इस विद्युत-यन्त्र को चलाने के लिये 300 अश्वशक्ति विद्युत और बीस करोड़ कैंडिल पावर के प्रकाश की आवश्यकता थी। बीस करोड़ कैंडिल पावर के प्रकाश की तीव्रता का अनुमान तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि इस देखने योग्य दृश्य का आनन्द स्वयं न उठा लिया जाए।
प्रकाश को और अधिक तीव्र तथा आकर्षक बनाने के लिए विभिन्न रंगों का प्रकाश उत्सर्जित करने वाले ऐसे उपकरणों से काम लिया जाता है जो गोल होते हैं और जिनसे रंगीन छल्ले निकाले जाते हैं। इस उपाय से अधिकारियों के मनोनुकूल विभिन्न रंगों की किरणें प्रकट होती जाती हैं। दर्शक यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाता है कि मानवीय आँखों ने ऐसा दृश्य पहले कहीं नहीं देखा था। विचित्र प्रभाव छा जाता है। प्रतीत होता है कि जो पानी दरार पर से होकर जा रहा है वह पिघली हुई चाँदी का ही ढेर है। फिर मानो किसी ने जादू कर दिया और सहसा पानी की रुपहली लहरें गहरे नीले रंग में परिवर्तित हो गईं। बात की बात में यह रंग भी मद्धम पड़ गया और पानी हरा, पीला, लाल, कत्थई होता गया। फिर कुछ क्षणों के लिये घुप्प अंधेरा छा गया लेकिन कुछ समय पश्चात् जल-प्रपात का एक किनारा सफेद प्रकाश की किरणों से चमक उठा और शेष भाग नीले से। और इसी प्रकार विभिन्न रंगों में परिवर्तित होता रहा, यहाँ तक कि उस तट पर दस-बारह भिन्न-भिन्न रंग गिरते दिखाई देते हैं। फिर इसका क्रम बदल गया। जल-प्रपात के किनारे-किनारे सफेद प्रकाश चमक उठा। उससे कुछ ही फिट नीचे पानी भिन्न रंग लिए हुए था और नीचे तक जल-प्रपातों की यही दशा थी। इस समय इसकी घरघराहट और गति भी उन्मत्त भाव की होती है। कभी नाचते और कभी चक्कर काटते हुए दिखाई देते फेनिल बादल वह आनन्द उत्पन्न करते हैं कि दर्शक का मन अनचाहे ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। रंगों का मिश्रण और पानी की अठखेलियाँ इन्द्रधनुष की समस्त विशेषताओं को निःशेष कर देती हैं। एक प्रसिद्ध पर्यटक का कथन है कि कोई कवि या लेखक अभी तक इस दृश्य के सौन्दर्य का वर्णन नहीं कर सका। इसका वर्णन करना मात्र कल्पना शक्ति का काम नहीं है जो उड़ती हुई धुंध और गिरते हुए पानी की सुन्दरता को स्पष्ट कर सके, विशेषकर उस समय जब इन पर नितान्त अंधेरे से अचानक प्रकाश की चमक दिखाई देती है।
हॉर्स शू जल-प्रपात के लाल और नीले रंगों से मिलकर उत्पन्न होने वाले दृश्य का वर्णन अनिर्वचनीय है। ऐसा ही प्रभावोत्पादक और मनमोहक दृश्य उस समय दिखाई देता है जब लाल, सफेद और नीली किरणें पानी की सतह पर पड़ती हैं।
जब पानी पर रंगीन किरणें पड़ती हैं तो कुछ बम के गोले छोड़ दिए जाते हैं जिनके छूटते ही धुँए के बादल बन जाते हैं जिन पर कृत्रिम प्रकाश पहुँचाया जाता है तो आकाश पर उड़ता हुआ धुँआ एक कृत्रिम बादल का रूप ग्रहण कर लेता है जिस पर विभिन्न रंगों की छाया पड़ती है। कई बार ये बादल सितारों के समान हो जाते हैं और अत्यन्त विचित्र तथा सुन्दर लगते हैं। कभी-कभी बिजली के प्रकाश की किरणें उस बड़े इस्पाती पुल पर डाली जाती हैं जो जल-प्रपातों के नीचे बना हुआ है। यहाँ से दर्शकों के झुंड के झुंड स्पष्ट दिखाई देते हैं। प्रकाश की ये किरणें सौ मील और कभी-कभी डेढ़ सौ मील की दूरी से दिखाई देती हैं।
इस यन्त्र को स्थापित करने के लिये न्याग्रा जल-प्रपात के अधिकारी ने एक हजार पाउण्ड चंदा इकट्ठा किया था और इस धनराशि से वह जल-प्रपात को एक मास तक प्रत्येक रात्रि में एक घंटे तक प्रकाशित करता रहा। आजकल वह उसके लिए मशाल की तैयारी में व्यस्त है और उसका विचार पहले से भी अधिक भव्य और शक्तिशाली यन्त्र बनाने का है जो अनुमानतः बीस हजार पाउण्ड की लागत से तैयार हो सकेगा और जिसे चलाने के लिए छह सौ पाउण्ड वार्षिक का व्यय होगा।
मिस्टर डगलस कहते हैं कि यह विचित्र तथा अद्वितीय दृश्य न्याग्रा के हजारों लोगों को प्रभावित किए बिना नहीं रहेगा। इस भव्य जल-प्रपात का जो प्राकृतिक सौन्दर्य दिन में दृष्टिगोचर होता है, कहीं मनमोहक है परन्तु इस नवीन उपाय से उसके आकर्षण में हजार गुनी वृद्धि हो जाएगी। और यह ऐसा दृश्य है जो किसी भी घुमक्कड़ मन में घर किए बिना नहीं रह सकेगा।
जॉन ऑफ आर्क

[साहित्य-संसार में उपन्यास सम्राट् और कथा सम्राट् के रूप में प्रसिद्ध प्रेमचंद का लेखकीय जीवन उपन्यास अथवा कहानी से आरम्भ नहीं हुआ था, वरन् उन्होंने लेखों के माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण किया और प्रारम्भ में उनकी ख्याति निबन्ध लेखक के रूप में ही हुई। प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन-चरित लिखने में प्रेमचंद की विशेष अभिरुचि थी, जिसका प्रमाण यह है कि उनका सम्प्रति ज्ञात प्रथम लेख ‘ओलीवर क्रामवेल’ भी जीवन-चरित ही है। यह आश्चर्य की बात है कि ‘ओलीवर क्रामवेल’ के अतिरिक्त प्रेमचंद की लिखी हुई समस्त जीवनियाँ केवल ‘जमाना’ में ही प्रकाशित हुईं!
‘जमाना’ में प्रकाशित प्रेमचंद की जीवनियों का एक संग्रह उर्दू में ‘बाकमालों के दर्शन’ शीर्षक से 1929 में प्रकाशित हुआ था, जिसका द्वितीय परिवर्द्धित संस्करण 1932 में प्रकाशित हुआ था। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस जीवनी-संग्रह के द्वितीय संस्करण में प्रेमचंद ने तीन भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा लिखी गई तीन जीवनियाँ भी सम्मिलित कर दी थीं। यद्यपि प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे अपने 25 अक्टूबर 1932 के पत्र में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख कर दिया था, लेकिन साहित्य संसार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और इन पंक्तियों के लेखक ने इस सम्बन्ध में पहली बार मौलिक शोध करके इस तथ्य को सार्वजनिक किया। ध्यातव्य है कि इस शोध का संक्षिप्त रूप पहली बार अंग्रेजी दैनिक ‘दि हिन्दुस्तान टाइम्स’, नई दिल्ली के 31 जुलाई 2006 के अंक में प्रकाशित हुआ था।
‘जमाना’ के अप्रैल 1909 के अंक में प्रेमचंद की लिखी हुई एक जीवनी ‘जॉन ऑफ आर्क’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस जीवनी पर पत्रिका के अंक की अनुक्रमणिका में लेखकीय नामोल्लेख ‘दाल-रे अज अम्बाला’ तथा लेख के अन्त में ‘दाल-रे’ के रूप में प्रकाशित हुआ था। ध्यातव्य है कि यह वह समय था जब ‘सोजे वतन’ से उद्भूत विभागीय प्रतिबन्धों के कारण प्रेमचंद छद्म नामों से लिखने के लिये विवश थे। प्रेमचंद की लिखी यह जीवनी तब तक साहित्य संसार की दृष्टि से ओझल रही जब तक कि मुम्बई के प्रसिद्ध प्रेमचंद विशेषज्ञ गोपाल कृष्ण माणकटाला ने इसे खोजकर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी के साथ उर्दू साप्ताहिक ‘हमारी जबान’, नई दिल्ली के 22 जुलाई 1984 के अंक में प्रकाशित नहीं करा दिया। इसके सम्बन्ध में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उर्दू के सुप्रसिद्ध लेखक, आलोचक और साहित्यिक शोधकर्त्ता मालक राम ने लिखा-
"पिछले दिनों ‘हमारी जबान’ के कुछ शुमारों में जनाब माणकटाला ने अपने मजामीन में मुंशी प्रेमचंद के बाज मजामीन की निशानदिही की है। उन्होंने कहा है कि ये मजामीन माहनामा ‘जमाना’, कानपुर में दाल-रे के नाम से छपे थे, जो धनपत राय का मुखफ्फफ है और यह प्रेमचंद का असली नाम था। उन्होंने यह नहीं बताया कि आखिर मुंशी प्रेमचंद को सिर्फ दाल-रे के हरूफ लिखने की क्या जरूरत पेश आई!
बहरहाल उन्हें गलतफहमी हुई है। ये मजामीन मुंशी प्रेमचंद के नहीं, इनके लिखने वाले एक और धनपत राय साहब थे। ये हुकूमते हिन्द की वजारते दिफा (डिफैन्स) के महकमा-ए-डेरी फार्म में मुलाजिम थे। मुद्दतों रावलपिण्डी और अम्बाला में तैनात रहे। उन्होंने मुलाजमत के आखिरी जमाने में अपने महकमे के शुमाली सर्किल के हैड क्वार्टर लाहौर छावनी (मियाँ मीर) में सुपरिंटेंडेंट की हैसियत से काम किया और वहीं से सुबुकदोश हुए। उनका 16 दिसम्बर 1968 को अपने बड़े बेटे के पास मेरठ में इन्तकाल हुआ।
उन्हें उर्दू-फारसी से बहुत दिलचस्पी थी। शुरू में खास तौर पर अम्बाले के दौराने कयाम में उन्होंने चंद नस्री मजामीन लिखे थे जिनके आखिर में नाम की जगह सिर्फ दाल-रे या दाल-रे अज अम्बाला छपा है। इन मजमूनों की तादाद चार-पाँच से ज्यादा नहीं होगी। मैंने एक मर्तबा दरियाफ्त किया कि आपने पूरा नाम क्यों न लिखा? तो फरमाया कि हुकूमत (और वह भी डिफैन्स) का मुलाजिम था! खयाल किया कि कोई पेचीदगी न पैदा हो जाय। मरहूम मेरे खुसुर बुजुर्गवार थे।
पस, दाल-रे के लिखे हुए किसी मजमून का मुंशी प्रेमचंद से कोई ताल्लुक नहीं है और इससे किसी को कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। यह तहरीर मुझे आज से बहुत दिन पहले लिख देना चाहिए थी, लेकिन कुछ तो सहलंगारी और बहुत हद तक मेरी मुसलसल अलालत के बाएस यह बात टलती रही। ताखीर के लिये माजरतख्वाह हूँ। मालक राम (8 फरवरी 1985)1
मालक राम का जन्म 8 मार्च 1907 को हुआ था, अतः स्पष्ट है कि ‘जॉन ऑफ आर्क’ प्रकाशित होने के समय उनकी अवस्था मात्र दो वर्ष की ही थी। मालक राम का विवाह 1931 में हुआ था और उन्होंने शिक्षा पूर्ण करके उर्दू साप्ताहिक ‘आर्य गजट’ के प्रतिनिधि के रूप में कार्य आरम्भ किया। इसके पश्चात् वे 1931 से 1936 तक लाहौर के उर्दू मासिक ‘नैरंगे खयाल’ के सम्पादक रहे। जनवरी 1936 में वे लाहौर के उर्दू दैनिक ‘भारत माता’ से सम्बद्ध हो गए और 1936 में ही सरकारी सेवा में चले गए।
उपर्युक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में मालक राम के उपर्युक्त उद्धृत पत्र का परीक्षण करने से यह स्पष्ट नहीं होता कि उन्हें ऐसे लेखों के सम्बन्ध में अपने ससुर से जिज्ञासा करने की क्या आवश्यकता थी जो उस समय प्रकाशित हुए थे जब वे मात्र दो वर्ष के थे। फिर यह भी स्पष्ट नहीं होता कि इन लेखों का सन्दर्भ क्यों और किस कारण से आया। मालक राम ने अपने पत्र में यह भी स्पष्ट नहीं किया कि उनके ससुर के लेख किन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, उनके शीर्षक क्या थे और उनकी निश्चित संख्या क्या थी? मात्र हवा में बात उछाल देने से तो उसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। अतः मालक राम का उपर्युक्त पत्र प्रामाणिक मानने योग्य नहीं है।
इसके प्रतिकूल प्रेमचंद साहित्य के सभी अध्येता और शोधकर्ता इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि प्रेमचंद ने दाल-रे के छद्म नाम से लेख, कहानियाँ आदि प्रकाशित कराए हैं और ऐसी सभी रचनाएँ प्रेमचंद साहित्य में सम्मिलित हैं। जहाँ तक ‘जॉन ऑफ आर्क’ का सम्बन्ध है, माणकटाला साहब द्वारा प्रकाशित कराने के पश्चात् यह लेख डा. आबिद रजा बेदार के सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंदः मुतफर्रिकात’ (1995) और मदन गोपाल के सम्पादन में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-20 (2003) में भी सम्मिलित होकर प्रकाशित हो चुका है। अतः ‘जॉन ऑफ आर्क’ को प्रेमचंद की प्रामाणिक रचना स्वीकार करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं होता।
1. हमारी जबान, नई दिल्ली, 22 फरवरी 1985,
प्रेमचंद के इस उर्दू लेख से हिन्दी साहित्य संसार अभी तक अनभिज्ञ ही है और इसे ‘प्रेमचंद रचनावली’ सहित प्रेमचंद के किसी भी संकलन में प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। ‘सोजे वतन’ की कहानियों के देशभक्तिपूर्ण स्वर से उद्भूत प्रतिबन्धों को नकारने के लिये दाल-रे के छद्म नाम से लिखा गया यह लेख प्रेमचंद की देशभक्ति की भावनाओं का यथार्थ परिचय देने में सर्वथा समर्थ है, और यही इस लेख का विशिष्ट महत्त्व है]
जिन लोगों ने महिला वर्ग को व्यर्थ और निकम्मा समझ रखा है वास्तव में वे भारी गलती पर हैं। कोई युग ऐसा नहीं है जिसमें उन्होंने जनता के मन में अपनी प्रतिष्ठा और बड़ाई का सिक्का न जमाया हो। इतिहास साक्षी है कि युद्ध क्षेत्र में भी उन्होंने शूरवीरता और साहस के वे आश्चर्यजनक सीन प्रस्तुत किए हैं जिन्हें पढ़कर और सुनकर आज जनता आश्चर्य-चकित रह जाती है। ये गुणवान और शुभ आचरण का पर्याय देवियाँ जिस समय ज्ञान और कला तथा दया और गुणों की ओर पग बढ़ाती हैं तो लीलावती सी अनसुलझी पहेलियाँ दृष्टि में आती हैं और यदि वे धनुष-बाण से सुसज्जित होकर शत्रु के समक्ष मैदान में उतरती हैं तो पंक्तियाँ की पंक्तियाँ और परे के परे साफ करती चली जाती हैं। वे पुरुषों से किसी बात में भी कम नहीं। उनका सच्चा उत्साह, देशभक्ति, स्वाभिमान, पवित्रता, सहानुभूति और अन्य गुण पूजा के योग्य हैं। पूरे हिन्दुस्तान और विशेषकर राजपुताने में ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं जिनसे पता चलता है कि इन हिन्दुस्तानी देवियों ने अपने देश, अपनी पवित्रता और अपने सतीत्व पर प्राण न्योछावर कर दिए और जलकर राख हो गईं, लेकिन अपने धर्म और जन्मभूमि पर मरते दम तक आँच न आने दी। अहिल्याबाई, रानी पद्मिनी, रजिया बेगम, चाँद बीबी, नूरजहाँ और इन अनेक देश पर मर मिटने वालों के उदाहरण मिलेंगे जिनके नाम जीवन-पटल पर चाँद-सूरज की भाँति टपका करेंगे। इन्हीं देवियों के कल्याणकारी अवतरण की कृपा से हमारा हिन्दुस्तान स्वर्ग जैसा हो रहा था। आज हमारे राष्ट्रीय पतन का मुख्य कारण यही है कि हमने उनको अपना गुलाम बनाकर, उनको अपने पाँवों की जूती समझकर और मानसिक क्षमताओं में अपने से कम मानकर उन्हें ज्ञान और कला के खजाने से वंचित कर दिया है। उनके लिये शिक्षा का द्वार बन्द कर दिया। परिणाम यह है जो हम आज आँखों से देख रहे हैं।
किसी देश का विकास और खुशहाली उसके उन युवा बच्चों पर आधारित है जिन्हें पुरुष नहीं वरन् माताएँ बनाती हैं। हमने उनको पर्दे और उपेक्षा में रखकर स्वतन्त्रता की झलक और नये युग के विकास से वंचित कर दिया। वे शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल और अशक्त होती गईं और वही दुर्बलता, अशक्तता, अज्ञान और अशिक्षा हमें उत्तराधिकार में मिली। माताएँ ही हमको साहसी और गुणवान बनाया करती हैं और भावी खुशहाली तथा विकास की आधारशिला उनकी गोद में रखी जाती है। माताओं की बहादुरी, उनके साहस और दृढ़ संकल्प से ही राष्ट्रीय भवन के निर्माताओं को मसाला प्राप्त होता है। जहाँ के पूर्व व वर्तमान आविष्कारक और आविष्कार, ज्ञानी और विद्वान्, सर्वज्ञ और विवेकी, वैज्ञानिक और बुद्धिमान माताओं के सुन्दर गुणों का गुलदस्ता हैं। ये गुण माताएँ अपने बच्चों में शैशवकाल से ही कूट-कूटकर भर देती हैं जो भावी पीढ़ियों में मानव जाति पर जान न्योछावर करना बच्चों का खेल समझते हैं। अतीत के वैभव पर हमारा गर्व करना मानो रेत के ऊँचे टीले पर खड़ा होना है जिसका एक पल का भी भरोसा नहीं कि किस समय वह प्रतिकूल हवा की टक्कर से खील-खील हो जाए और तितर-बितर होकर गिर पड़े। रूस, जापान, इंगलिस्तान, फ्रांस, इटली - चाहे किसी भी साम्राज्य को लीजिए, उस देश की सफलता, विकास, समृद्धि, स्वतन्त्रता और उसकी व्यवस्था तथा स्थिरता के मूल में आपको उस देश की उच्च साहसी महिलाएँ ही दिखाई देंगी।
आज मैं आपको फ्रांस के एक निर्धन लेकिन शरीफ खानदान की लड़की की कथा सुनाता हूँ जिसने देशभक्ति के नशे में चूर होकर किस प्रकार अपने प्रिय देश के लिए स्वयं को कष्टों व खतरों की जलती हुई आग में झोंक दिया और उस पर बलिदान हो गई। ऐसे पुण्यात्मा लोग जो दूसरों की भलाई के लिए अपने जान-माल की चिन्ता न करें, संसार में दुर्लभ हैं। हाँ, अपनी मुक्ति के अभिलाषी, यश के इच्छुक, अपनी श्रेष्ठता तथा खुशहाली के दीवाने आपको बहुत से मिल जाएँगे। लेकिन निःस्वार्थ और निरुद्देश्य दूसरों की सेवा करने वाले देश के सच्चे हितैषी तथा जान छिड़कने वाले यदा-कदा ही दिखाई देंगे। कैसा अच्छा हो यदि उनको इस बात से परिचित कराया जाय कि जन सेवा ही ईश-मिलन है तो नरक के भयावह और हृदयद्रावक दृश्य स्वर्ग के शाश्वत सुख और विजयोल्लास में परिवर्तित हो जाएँ। किसी ने सत्य ही कहा है -
खुदा के आशिक तो हैं हजारों, बुतों में फिरते हैं मारे मारे।
मैं उसका बंदा बनूँगा जिसको खुदा के बंदों से प्यार होगा।।
* * * * *
मलूल अज हमरहान बूदन तरीके कारदानी नीस्त।
बेकश दुश्वारिय मंजिल ब यादे अहदे आसानी।।
[सहयात्रियों से दुखी होना निपुणता का व्यवहार नहीं है। सुख के समय को स्मरण करके यात्रा की कठिनाइयों को सहन किया जा सकता है।]
आज देश इसी प्रश्न को हल करने में व्यस्त हैं कि महिलाओं की वर्तमान दशा चिन्तनीय है। अमरीका के प्रेजीडेंट रूजवेल्ट ने एक स्थान पर अपने भाषण में कहा कि "महिलाएँ ही देश की सम्पदा हैं। उनकी भलाई देश की भलाई है। यदि वे दुर्बल हैं तो देश दुर्बल है।" आज देश के नेता इसी भेद को खोलने पर तुले हुए हैं।
जिस समय फ्रांस और इंगलिस्तान उस शतवर्षीय युद्ध में व्यस्त थे जो एडवर्ड तृतीय के युग में सन् 1328 में प्रारम्भ हुआ था और जो सन् 1453 में हेनरी षष्ठ के युग में समाप्त हुआ तो मित्रता, श्रेष्ठता और बड़ाई से चमकते अंग्रेज उस समय आए दिन शहर पर शहर जीतते जाते थे और बड़े-बड़े प्रान्तों और शहरों को अधिकृत कर चुके थे। समस्त बंदरगाह और किले उनके हाथ में आ गए थे। पोर्ट स्मिथ, क्रेसी, कैले, पोर्सट्रिज, पेरिस, रून, पास्टस सब अंग्रेजों के राज्य में सम्मिलित हो चुके थे। दूसरे शब्दों में मानो वे सभी फ्रांस के प्रान्त बन गए थे। फ्रांसवासियों की दशा अकथनीय थी। वे आए दिन की पराजयों से दुखी थे। हर लड़ाई में हार ही हार हो रही थी। इंगलिस्तान का उत्कर्ष तथा प्रभुत्व प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गया था, दिलों पर उनका भय छा रहा था। उस समय समूचे योरुप की दृष्टि अंग्रेजों पर लगी हुई थी। लेकिन जय के साथ पराजय फूल में काँटे की भाँति सम्बद्ध होकर साथ-साथ चलती है क्योंकि प्रत्येक उत्थान के बाद पतन आवश्यक है। जब जीत पर जीत प्राप्त करते हुए उन्होंने पाँच वर्ष के अन्दर लगभग समूचा फ्रांस जीतकर अधीन कर लिया और जब ऑर्नलीज की घेराबंदी में सफल होने को ही थे कि अचानक वह आश्चर्यजनक घटना घटी जो विश्व-इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगी। जब फ्रांस की ऐसी गम्भीर दशा थी और समस्याओं तथा कष्टों का सामना करते-करते जनता अन्ततः निराश हो चुकी थी और विदेशी आक्रान्ताओं के निरन्तर आक्रमणों से देश नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, देश से सुख-शान्ति विदा हो चुकी थी, उस समय जॉन ऑफ आर्क एक देवदूत की भाँति अवतरित हुई जिसे ईश्वर ने फ्रांस की दुर्दशा पर दया करके उसके बचाव और सहायता के लिए भेजा था। वह डोमरेमी में स्थित लोरीन के एक देहाती मजदूर की लड़की थी। उनके माता-पिता बहुत गरीब थे और झोंपड़ी में रहकर मेहनत-मजूरी से अपना पेट पालते थे। अपने घरेलू कार्यों और सीने-पिरोने से निपटकर जॉन ऑफ आर्क खेतों में भेड़ तथा अन्य पशु चराया करती थी। उस समय घर-घर पर अंग्रेजों का आंतक जमा हुआ था। लोग अपने घर-संपदा की सुरक्षा कठिनाई से कर सकते थे। प्रत्येक व्यक्ति के मुँह पर पुरानी भविष्यवाणियाँ थीं। वह काल दुर्भाग्य का काल माना जाता है। ब्रंस नामक एक फ्रांसीसी कवि ने भविष्यवाणी की थी कि लोरीन के बालूत के जंगलों में एक लड़की पैदा होगी, और सौभाग्य से बालूत के जंगल डोमरेमी की पहाड़ियों में ही थे। प्रायः लोग कहा करते थे कि जिस फ्रांस को एक औरत (सम्राज्ञी इसाबेला से आशय है) ने अपने हाथों से खोया है वह एक लड़की के सहारे स्वाधीन होगा। और, यह भी प्रसिद्ध था कि लोरीन की एक उत्साही लड़की फ्रांस को स्वतंत्रता का प्रकाश प्रदान करेगी। इन किवंदन्तियों ने उस तेरह वर्षीय लड़की के कोमल हृदय को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया। एक दिन उसने यह स्वप्न देखा कि महान् देवदूत जिबराइल उसे धर्मात्मा, आस्थावान, देश के लिये पूर्णतः समर्पित और पवित्र बनने का उपदेश दे रहे हैं। इसके बाद संत कैथेराइन और मार्गरेट प्रकट हुईं और उसे उपदेश देकर लुप्त हो गईं। आध्यात्मिकता अवतरित होने तथा अन्य आम चर्चाएँ होने पर भी जब उसने फ्रांस की ऐसी दुर्दशा देखी कि उसका प्यारा देश विजयी आक्रान्ताओं के आक्रमणों से बरबाद हो चुका है, लोगों का साहस टूट गया है और उत्साह ठंडा हो गया है, हर छोटा-बड़ा अपनी दुर्बलता और निर्धनता के हाथों रो-पीट रहा है, शत्रु के सामने आ डटना सरल कार्य नहीं रह गया है, तब देश के शासन और हानि व दुर्दशा से परिचित होकर वह शोक में डूबी हुई तथा अत्याचारों की तलवार से मारी हुई काँप उठी। और, दूसरी ओर जब उसने अपनी विपत्ति तथा निर्धनता का चिन्तन किया तो अनायास आँसू भरकर कहने लगी -
क्या हाथ उठाऊँ बहरे दुआ सूए आसमाँ
बर आए जो कभी वह मिरी आरजू नहीं
लेकिन फिर उसने अपने शोकाकुल हृदय को ढाढ़स बँधाया और उसके शरीर में एक बिजली सी कौंध गई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता का नाम सुनकर उसका खून उबलने लगा। उसने राष्ट्रीय पराधीनता की शर्म अनुभव की। उसका दिल भर आया और उस गुप्त रहस्य तथा आकाशवाणी की याद ने उसके घायल हृदय को चीर दिया। वह देशभक्ति में डूबी बैरागन एक सच्चे संन्यासी की भाँति एक वृक्ष के नीचे अपने परम पिता की गोद में बैठ गई। उसने अपना दायाँ हाथ आकाश की ओर उठाया और बाएँ हाथ में तलवार लेकर सम्पूर्ण समर्पण से प्रार्थनारत हो गई। उसकी आँखों से आसुँओं की बूँदें टप-टप टपक रही थीं, उसके मुँह से ये शब्द निकल रहे थे कि ऐ सृष्टि के रचयिता परमात्मा, ऐ दोनों लोकों के स्वामी और अन्तर्यामी, मेरे देश की दशा पर दया कर, मेरे प्यारे देशवासियों को इस बरबादी और विनाश से मुक्त कर, मुझे शक्ति दे कि मैं देश की सेवा कर सकूँ, मुझे देशभक्ति की क्षमता प्रदान कर, अपनी मातृभूमि से प्यार करने का साहस दे, मेरे भाइयों को विदेशी शासन से बचा, अन्याय-अत्याचार का सामना करने का साहस दे। मेरा शरीर इस देश के जान-माल पर अर्पित है। ऐ परम पिता! मेरी इस विनम्र प्रार्थना और इच्छा को पूर्ण कर। उसकी प्रार्थना ईश्वर के दरबार में स्वीकार हुई और जब उसने वह आवाज सुनी तो उसका मुरझाया हृदय गुलाब के फूल जैसा खिल गया, उसका अस्तित्व उस चुम्बकीय क्षमता से भर गया जो बाद में उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण सिद्ध हुआ। कहते हैं कि उसकी वाणी में विचित्र प्रभाव था और उसकी उपस्थिति मनुष्य में नवीनता और स्फूर्ति का संचार करती थी। उसके चेहरे से वह शराफत और रौब टपकता था जो मनुष्यों के दिल को जीत लेता है। इस प्रार्थना से उसके हृदय को शक्ति प्राप्त हुई। उसने हाथ में तलवार संभाली, उसे चूमा और आकाश की ओर देखकर संकल्प लिया कि मैं आज से अपना तन-मन देश को समर्पित करती हूँ। एक चित्रकार ने जॉन का ऐसा चित्र बनाया है जिसमें वह यह कहती हुई दिखाई देती है कि जब तलवार हाथ में है तो फ्रांस को छुड़ाना और स्वाधीन करना क्या बड़ी बात है। इसके बाद वह गाँव के पादरियों और लोगों के कहने के प्रतिकूल कप्तान के पास गई और उससे कहा कि मुझे कैंप में ले चलो। वह वैंकोलीवर में गई, फिर चिम्यान। वहाँ उसने अपने मिशन का वर्णन किया कि मैं एक मूर्ख लड़की हूँ लेकिन परमात्मा ने मुझे आदेश दिया है कि मैं ऑर्लनीज को अंग्रेजों के हाथों से बचाऊँ और फ्रांस के राजा को सिंहासन पर बैठाऊँ। मुझे न प्रशंसा की इच्छा है न पुरस्कार की चिन्ता, न शत्रु का भय न प्रतिद्वंद्वी का डर। मैं केवल ईश्वरीय इच्छा और ईश्वरीय आदेश पूरा करने को आई हूँ। अलहमीस के बड़े पादरी ने उन ईश्वरीय प्रेरणाओं और खुलासों की चर्चाओं का वर्णन करके सम्राट् चार्ल्स को प्रेरणा दी कि वे इस समय उसकी सहायता से लाभ उठाएँ। जिसकी निराशा आशा में बदल गई ऐसे फ्रांस के राजा ने इस अवसर को अच्छा समझकर उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति दे दी। फिर वह जान हथेली पर रखकर सेनापति बन, घोड़े पर सवार हो, जिरह-बख्तर पहन, सिर पर लोहे की टोपी रखकर, हाथ में फ्रांस का शाही झंडा लेकर मौत की हँसी उड़ाने के लिए लड़ाई के मैदान में कूद पड़ी। वह शत्रु-सेना के दस हजार सशस्त्र जवानों पर इस प्रकार टूट पड़ी जैसे कोई बाज अपने शिकार पर बुरी तरह टूटता है। यद्यपि इस लड़ाई में उसे गहरे जख्म लगे लेकिन उसने ऑर्लनीज का घेरा उठवा दिया। अंग्रेज भयभीत हो गए और फ्रांसीसियों ने उसे दया का दूत माना। जो लड़ाई के अतिरिक्त कुछ भी पसंद नहीं करते थे, उन फ्रांसीसी जनरलों की कोई परवाह न करती हुई वह जीत के बाजे बजाती तथा बधाई और कुशलता की पुकार सुनती हुई 14 जुलाई 1429 को रेम्स में प्रविष्ट हुई और जो भी सामने आता गया, उसे जीतती गई। और, उसने वहाँ पहुँचकर दूसरे दिन 17 जुलाई को बड़े गिरिजाघर में फ्रांस के राजा चार्ल्स के राज्यारोहण की रस्म पूरी की।
उसके बाद पेरिस और कम्पेकिन की घेराबंदी होती रही जहाँ उसकी स्वामिभक्त और उत्साही सेना ने बड़े शानदार महान् कार्य किए। लेकिन अन्तिम शहर की सुरक्षा के समय वह ड्यूक ऑफ बरगंडी के हाथों गिरफ्तार हो गई जिसने उसे बंदी बना लिया और बाद में अंग्रेजों के हाथ बेच दिया। जब उसे युद्धक्षेत्र से बंदीगृह में ले गए, उस समय का दृश्य अत्यन्त हृदयद्रावक है। कड़ी परीक्षा का अवसर था और वह मृत्युपाश में फँसी पुकार-पुकारकर कह रही थी कि देश के प्रेम में इस सिर पर जो कुछ भी बीते वह कम है।
फिर अहंकारी न्यायालय का द्वार खुला। 3 जनवरी 1431 को उसे न्यायालय के अधिकारियों को सौंप दिया गया जहाँ छह दिनों तक उसकी पेशी होती रही। 24 मार्च को उस पर शत्रु और जादूगरनी होने का आरोप लगाया गया और वह 30 मई 1431 को ‘ऊन’ स्थान में जादूगरनी मानकर जिन्दा ही दहकते अंगारों के हवाले कर दी गई। और, वह पवित्र आत्मा उन मुहब्बत का दम भरने वाले झूठे दोस्तों और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करने वाले निर्दयी तथा कातिल शत्रुओं से सदा के लिए उड़कर उस स्थान पर जा पहुँची जहाँ मानव शरीर की बुराई और विश्वासघात कुछ काम नहीं आते और जहाँ थके-हारों को स्थायी सुख-चैन प्राप्त होता है। जिन फ्रांसवासियों को बचाने के लिए उसने प्रसन्नता से शहादत का जाम पिया और जिन्होंने अपनी मुक्तिदाता को बचाने का तनिक भी प्रयास नहीं किया उनके लिए; और उसकी वीरता पर आश्चर्यचकित होकर उसकी शूरवीरता का लोहा मान चुके लेकिन जिन्होंने अपने शत्रु के सुगुणों का सम्मान न किया, ऐसे अंग्रेजों के लिए अन्ततः यह एक लज्जाजनक कहानी है।
लड़ाई फिर भी चलती रही लेकिन उसके बाद अंग्रेजों के पाँव ऐसे उखड़े कि फिर न जम सके। सफलता की आशा जाती रही क्योंकि ड्यूक ऑफ बरगंडी फ्रांस के राजा की ओर मिल गया। उसके बाद आपस में समझौता हो गया लेकिन चार्ल्स अष्टम ने फिर नोरमेंडी को जीत लिया और चार वर्ष के अन्दर ही वह गाईन और बोड़दो का स्वामी बन गया। और इस प्रकार सन् 1453 में शतवर्षीय युद्ध समाप्त हुआ लेकिन उस समय केवल एक शहर कैले अंग्रेजों के अधिकार में शेष रह गया था।
जॉन के व्यक्तित्व में बहादुरी, पुरुषत्व, साहस, अकूत शक्ति, पवित्रता कूट-कूटकर भरी हुई थी। शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से वह अत्यन्त स्वस्थ और सुदृढ़ थी। उसके चेहरे-मोहरे से जैसा तेज बरसता था वैसा ही उसके शरीर से रौब-दाब टपकता था। एक चितेरे ने जॉन का इस प्रकार चित्र बनाया है जिससे उसकी आध्यात्मिकता, धर्मनिष्ठा, सौन्दर्य, सरलता और अन्य वे गुण स्पष्ट दिखाई देते हैं जो उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग थे।
जॉन के जीवन में शौर्य और सन्तों-जैसे गुण विद्यमान थे जो उसके बाल्यकाल से ही उजले दिन की भाँति प्रकट थे। उसमें महान् कार्य करने की असीम शक्ति थी। वह हर समय कठिनाइयों और कष्टों का सामना करने के लिए तैयार रहती थी। उसमें आदमियों में प्राण फूँकने की आश्चर्यजनक शक्ति थी। उसकी समस्त विजयों और वीरता और बलिदान के कामों को अपनी आँखों से देखने वाले एक प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है - जो समस्त घटनाएँ मैंने देखी, सुनी और मेरे समक्ष घटीं, उन सबमें मैंने उसे ईशप्रिय, पवित्र और निःस्पृह पाया।
कलामे सुरूर

[अपने प्रथम कहानी संकलन ‘सोजे वतन’ के कारण किसी भी रचना के प्रकाशन से पूर्व अनुमति लिए जाने का प्रतिबन्ध आरोपित होने के उपरान्त ‘नवाबराय’ के लेखकीय नाम से लिखने वाले धनपतराय श्रीवास्तव ने ‘प्रेमचन्द’ का लेखकीय नाम ग्रहण करने तक के संक्रमण काल में अनेक छद्म नामों से अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराईं, इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। जिस छद्म नाम से उनकी सर्वाधिक रचनाएँ प्रकाशित हुईं वह उनके मूल नाम धनपतराय के उर्दू के आद्याक्षर ‘दाल-रे’ ही है।
अपने युग के सुप्रसिद्ध और सुप्रतिष्ठित शायर मुंशी दुर्गासहाय सुरूर जहानाबादी कानपुर के उर्दू मासिक ‘जमाना’ से प्रबन्धक के रूप में जुड़े और पीछे चलकर उसके सम्पादन में भी सहयोगी रहे। प्रेमचंद, ‘जमाना’ और ‘जमाना’-सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम के पारस्परिक सम्बन्ध किसी परिचय की अपेक्षा नहीं रखते, अतः ‘जमाना’ से सक्रिय रूप में जुड़े सुरूर से भी प्रेमचंद के आत्मीय सम्बन्ध स्वाभाविक रूप से विकसित हो गए।
साहित्य सर्जना के क्षेत्र में यद्यपि प्रेमचंद गद्य लेखन तक ही सीमित रहे और उनकी एक भी पद्य रचना अभी तक प्रकाश में नहीं आई है तथापि शायरी में उन्हें गहरी दिलचस्पी थी जिसके फलस्वरूप उन्होंने फारसी शायरी पुस्तकों पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं। अपने 14 सितम्बर 1920 के पत्र में प्रेमचंद ने लाहौर के उर्दू मासिक ‘कहकशाँ’ के सम्पादक सैयद इम्तियाज अली ताज को लिखा था -
"मुझे टैगोर की अक्सर नज्में नहीं भातीं, यह मेरा फितरी नुक्स है, क्या करूँ। अशआर भी मुझे वही अपील करते हैं जिनमें कोई जिद्दत हो। गालिब के रंग का मैं आशिक हूँ, अजीज लखनवी के गुलकदे की खूब सैर की थी मगर बदकिस्मती से आज तक एक शेर भी मौजूँ नहीं कर सका, न जी चाहता है। गालिबन शायराना हिस दिल में है ही नहीं।1
इस पत्रांश से स्पष्ट है कि समकालीन उर्दू शायरी और शायरों में प्रेमचंद कितनी दिलचस्पी रखते थे। मुंशी दुर्गासहाय सुरूर जहानाबादी के देहावसान से प्रेमचंद ने अपना एक ऐसा आत्मीय सुहृद खो दिया जिसने अपनी शायरी के बल पर उर्दू साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाया था। इससे प्रेमचंद का विचलित होना स्वाभाविक ही था और उन्होंने अपने लेख ‘कलामे सुरूर’ के द्वारा अपने उसी आत्मीय मित्र सुरूर जहानाबादी को जो सारस्वत श्रद्धांजलि दी वह ‘जमाना’ के जुलाई 1911 के अंक में पृष्ठ संख्या 61 से 70 तक प्रकाशित हुई।
अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि जिस लेख के माध्यम से प्रेमचंद ने सुरूर जहानाबादी की शायरी की मूलभूत विशेषताओं को प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट किया वह प्रेमचंद साहित्य के विशेषज्ञों की दृष्टि में नहीं आ पाया। इसका कारण सम्भवतः यह भी हो सकता है कि ‘जमाना’ के उक्त अंक की अनुक्रमणिका में लेखक के रूप में ‘दाल-रे’ का नामोल्लेख प्राप्त है, परन्तु उस समय की परम्परा के प्रतिकूल लेख के अन्त में लेखक का नामोल्लेख किसी त्रुटिवश छूट गया है।]
1. चिट्ठी-पत्री, भाग-2,
मुंशी दुर्गासहाय सुरूर के देहावसान ने उर्दू की सभा में एक ऐसा स्थान रिक्त कर दिया है जिसका पूरा होना बहुत कठिन दिखाई देता है। प्राचीन शैली के शायरों में एक-दो वरिष्ठ शायरों के अतिरिक्त अन्य कोई शेष नहीं रह गया, और जो हैं, उन्हें भी पूछने वाले नहीं। आधुनिक शैली में कुछ युवा इस नशे से मस्त दिखाई देते थे लेकिन कुछ दुर्योग से उनके भी होंठ सिल गए। मौलाना हाली वार्द्धक्य से विवश हो गये, हजरत इकबाल और नैरंग को वकालत के तीव्र आकर्षण ने प्रभावित किया। पंडित चकबस्त साहब ने किसी कारण प्राचीन शैली अपना ली। हजरत सुरूर और नादिर - यही दो वरिष्ठ शायर ऐसे थे जिनसे यह गोष्ठी बनी हुई थी। अफसोस! सुरूर अब इस संसार में नहीं रहे और अब कविता के दृष्टिकोण से इस भाषा का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है। उर्दू के एक सुविचारक काव्य-मर्मज्ञ ने उनके देहावसान की चर्चा करते हुए कहा है कि उर्दू भाषा के लिए यह आघात नसीम लखनवी की अकाल मृत्यु से किसी प्रकार भी कम नहीं है। सुरूर जन्मजात शायर थे। उन्होंने किसी गुरु के समक्ष सम्मान में घुटने नहीं टिकाए लेकिन उनके एक-एक शेर से काव्य-कौशल की सुगन्ध प्रवाहित होती है। वे किसी विशेष शैली के पक्षधर नहीं थे, उनकी शैली निराली थी।
उनकी कविताओं में प्राचीन और आधुनिक दोनों शैलियों की विशेषताएँ प्रकट होती हैं। प्राचीन काल के कसे हुए छंद, मंजी हुई पद्धति, सुरुचिपूर्ण उपमाएँ और आधुनिक काल के नये सुलझे हुए विचार, राष्ट्रवादिता और सहानुभूति के उत्साह से छलकती भावनाएँ - ये उनके काव्य की विशेषताएँ हैं। वे आधुनिक काल के रूखेपन, सरलता और विद्वत्तापूर्ण ढंग से उतने ही दूर भागते हैं जितने प्राचीन काल की सदाचार विरोधी भावनाओं और बंधन में बाँधने वाली अलकों के जाल से दूर भागते हैं।
जिस काल में हजरत सुरूर कानपुर में थे, हमें उनकी छत्रछाया में रहने का गौरव प्राप्त था। वे हर समय काव्य-चिन्तन में लीन रहते थे। वे मूर्तिमान शायर थे और शायरों की दुर्बलताओं से भी उन्हें पर्याप्त अंश मिला था, लेकिन उनकी दुर्बलताएँ वे नहीं थीं जो विकृत मानसिकता का परिणाम होती हैं। उनका हृदय स्वच्छ, विचार पवित्र और दृष्टि सम्पूर्ण थी। उनकी दुबर्लताएँ वे थीं जो शायरों के लिये नैतिक आभूषण से कम नहीं होतीं। वह व्यक्ति जिसके स्वभाव में विश्वसनीयता, सावधानी और नम्रता हो शायर नहीं हो सकता। विश्वसनीयता और शायरी परस्पर विरोधी हैं। शराबीपन और उच्छ्रंखलता, आत्ममुग्धता और दुर्दशा - यही शायरी की भावभूमि है। मनमौजीपन ही हजरत सुरूर का प्रकट स्वभावगत वैशिष्ट्य था। जो कुछ मिलता, और उर्दू भाषा के शायर को मिलता ही क्या है, वह खुले हाथों खर्च करते। संसाधन अत्यन्त सीमित लेकिन हृदय नदी की भाँति विस्तृत था। कल की चिन्ता उन्हें कभी नहीं सताती थी। रहन-सहन बहुत ही साधारण और वाणी में ऐसा आकर्षण था जो अनचाहे ही हृदय को खींच लेता था। उन्हें पुस्तकों का अध्ययन करते हुए किसी ने भी बहुत कम देखा होगा लेकिन स्मृति इतनी प्रबल कि जो कविता एक बार भी दृष्टि में आ जाती, सदा के लिए अंकित हो जाती। प्रायः सूक्ष्म काव्यगत गूढ़ताओं और मतभेदों पर वरिष्ठ शायरों के शेर इस प्रवाह से पढ़ते थे कि आश्चर्य होता था।
उनसे परिचय प्राप्त करने का प्रथम अवसर मुझे कानपुर में मिला। उस समय वे ‘जमाना’ पत्रिका के प्रबन्धक थे। उनसे मिलने की उत्कंठा हृदय में हिलोरें भर रही थी। तृतीय प्रहर के लगभग तीन बजे उनके निवास पर गया तो देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। मेज पर शराब की बोतल, हाथ में गिलास, एक मैला सा कुर्ता पहने खुर्री चारपाई पर बैठे स्वर्गीय स्वामी रामतीर्थ का शोकगीत लिख रहे थे। स्वामीजी में उन्हें परोक्ष श्रद्धा थी। काव्य-चिन्तन में इतने खोए हुए थे कि उन्हें कई मिनट के पश्चात् पता चला कि वे कमरे में अकेले नहीं हैं। निम्नांकित छन्द को पुनः-पुनः पढ़ते और झूमते थे। अपनी कविता के नशे से स्वयं ही मस्त हो रहे थे। यह वही काव्य है जो शायर को कालजयी बनाता है -
ख़ुल्द से है किसको लेने को क़ज़ा आई हुई
साहिले गंगा पे है ग़म की घटा छाई हुई
डूबती है किसकी कश्ती आज चकराई हुई
मौजे क़िस्मत की तरह इक इक है बल खाई हुई
आश्ना दरिया से क़तरा कौन सा होने को है
इश्तियाक़े मिह्र में शबनम फ़ना होने को है
इस शोकगीत में छन्द की शुद्धता और शायर के विचारों की उड़ान आकाश तक जा पहुँची है। एक-एक शेर हताशा और शोक की भावनाओं से परिपूर्ण है। अपनी शैली में यह उर्दू भाषा का सम्भवतः सर्वाधिक स्मरणीय शोकगीत है। कैसा उत्कृष्ट विचार है-
हो फ़ना तूफ़ान में इक ज़िंदए जावेद क़ौम
आह यू गंगा में डूबे कश्ती-ए-उम्मीदे क़ौम
ख़ाक का पैवन्द ऐसा गौहरे नायाब हो
ऐसा बेड़ा आह गंगा में ग़रीक़े आब हो
इस शोकगीत का एक-एक शेर हताशा का एक-एक महाग्रन्थ है। उन्होंने जब मेरी ओर देखा तो उत्साह से उठकर हाथ मिलाया और पारस्परिक परिचय के उपरान्त काव्य पर वार्ता होने लगी। उनकी सादगी और निर्धनता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। खेद है कि उर्दू का ऐसा उत्कृष्ट शायर, ऐसा वाक्पटु साहित्यकार इस निर्धनता में जीवनयापन करे! वे जब तक कानपुर में रहते रहे मैं प्रायः उनकी संगति से लाभान्वित होता रहा।
यद्यपि उनकी कविता का विशिष्ट गुण निराशा और हताशा की भावनाएँ हैं लेकिन मित्रों की सभा में उनके सम्भाषण के ढंग और मुखाकृति से विनोदप्रियता टपकती थी और उनके अट्टहास की ध्वनि मित्रों के मन में गुदगुदी करती थी। सम्भवतः इतनी विनोदप्रियता उनके जीवन के लिए आवश्यक थी। यदि वे दिन-रात काव्य-चिन्तन में व्यस्त रहते तो मुस्कान को उनके मुँह पर आने का सौभाग्य प्राप्त न होता। निराशा में आँसू बहाना, जीविका न होने का उलाहना देना, विरहाग्नि में जलना, विगत दिनों को स्मरण करना - ये उनकी शायरी के विषय थे। हाथ में कलम थामते ही उनकी प्रसन्नता विदा हो जाती थी। शायरी की परिभाषा में बचपन का काल निश्चिन्तता और सम्पन्नता का पर्याय है। सम्भव है उनका बचपन भूखों मरते बीता हो लेकिन प्रायः शायरी की कल्पनाओं में व्यक्तिगत अनुभवों को स्थान नहीं होता।
प्रत्येक व्यक्ति के मन में बचपन की याद अठखेलियाँ करती है। ऐसा कौन है जो अपने बालपन के काल को अपने जीवन का सर्वाधिक प्रिय काल नहीं समझता। इसके अनुसार यौवन काल मस्ती तथा मद्यपान, गाने तथा मिलने और भोग तथा आनन्द का पर्याय है। शायर का कलम बाल्यकाल की निश्चिन्तताओं और यौवन काल की उच्छ्रंखलताओं का आनन्द लेते नहीं थकता। सुरूर साहब ने उन संवेदनाओं को जिस करुणापूर्ण और सुन्दरतापूर्ण ढंग से सजाया है, उर्दू शायरी में उसका उदाहरण कहीं और कठिनता से ही मिलेगा। मगर उनकी यह दशा एक शायर के रूप में ही है अन्यथा दुर्गासहाय एक चिन्ताविहीन और सदाबहार आदमी था। एक ही लेखक के शायराना और मानवीय स्वभाव में ऐसा विरोध होना कोई असामान्य बात नहीं है। चार्ल्स डिकेन्स अंग्रेजी भाषा का बड़ा भारी हास्य लेखक था लेकिन मित्रों की सभा में गम्भीरता और खिन्नता उसका विशेष गुण हो जाता था। संक्षेपतः सुरूर मनुष्य की निराशापूर्ण भावनाओं का चितेरा है और इस रूप में उसका स्थान उर्दू में आधुनिक शैली के समस्त शायरों से कहीं ऊँचा है। लेकिन अपनी श्रेष्ठता का विचार उन्हें कभी स्वप्न में भी नहीं आया। वे अपने से कहीं निम्न कोटि के शायरों के समक्ष निष्ठाओं का अन्तर प्रकट नहीं होने देते थे। आत्मप्रशंसा और अक्खड़पन उर्दू शायरों का आवश्यक गुण है। उनमें आत्मश्लाघा नाम को भी नहीं थी। कविता की प्रशंसा करने के लिए वे हर समय प्रसन्नमुख से तत्पर रहते थे और प्रायः हलके शेरों पर भी मस्ती में आ जाते थे। इसे नम्रता और विनय से संवर्धित गुणग्राहकता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है!
खेद है कि उर्दू-संसार ने उनका कुछ सम्मान नहीं किया। कुछ तो उनका हिन्दू होना, कुछ उनकी स्वभावगत नम्रता, कुछ साहित्यिक क्षेत्र से अपरिचित होना - इन कारणों ने उन्हें प्रतिष्ठा के पुष्पों से अपनी झोली नहीं भरने दी। ऐसी हालत में उनके अधिकांश मित्रों को आशंका होती थी कि उनके काव्य-संकलन को जनता के सामने आने का सम्भवतः अवसर ही नहीं मिलेगा। मगर सन्तोष की बात है कि यह आशंका निराधार सिद्ध हुई और वे इच्छाएँ जो उत्पन्न होकर मुरझा चली थीं पुनः हरी हो गईं। इस समय उनकी कविताओं के एक नहीं वरन् दो संकलन प्रकाशित हो गए हैं। एक इंडियन प्रेस, इलाहाबाद की ओर से प्रकाशित हुआ है, दूसरा जमाना प्रेस, कानपुर की ओर से। एक ‘जामे सुरूर’ है और दूसरा ‘खुमखाना सुरूर’। ‘जामे सुरूर’ में उनके काव्य से संचयन प्रकाशित किया गया है और ‘खुमखाना सुरूर’ में प्रायः वही कविताएँ हैं जो ‘जमाना’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं, और इस तथ्य को तो नकारा ही नहीं जा सकता कि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ ‘जमाना’ में ही प्रकाशित होती थीं। कागज अत्युत्तम, लिखाई सुरुचिपूर्ण, छपाई स्पष्ट। ‘जामे सुरूर’ की भूमिका सार्थक है। उनके चित्र ने ‘खुमखाना सुरूर’ की शोभा दोगुनी कर दी है। कविता कहने में उनकी व्यस्तता के परिप्रेक्ष्य में यह परिमाण, जो उनके दस वर्ष के प्रयासों का फल है, कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता लेकिन काव्य के प्रभाव, भावनात्मक सौन्दर्य, अद्भुत विचार और विषयों की नवीनता उस कमी की प्रतिपूर्ति कर देते हैं। बाह्य रूप में तो यह संकलन सुरूर के अत्यधिक काव्य-लेखन का खण्डन करता है लेकिन इस अवसर पर अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ता है कि सुरूर के काव्य-चिन्तन का एक बड़ा अंश दूसरों को शायर बनाने में व्यय हो जाता था। मुसहफी के अत्यधिक काव्य लेखन ने कितने ही लोलुपों को शायर बना दिया था। सुरूर साहब को भी अत्यल्प मूल्य में प्रायः अपनी अधिकांश कविताएँ दूसरों के नाम से लिखनी पड़ती थीं। उर्दू जनता की गुणग्राहकता पर यह एक लज्जाजनक कलंक है।
हम पूर्व में ही लिख चुके हैं कि सुरूर निराशापूर्ण भावनाओं के चितेरे थे इसलिए उन्होंने अधिकांशतः उन्हीं विषयों पर कलम उठाई है जो हृदय में व्यथा और जलन की भावनाएँ भर सकें। उनकी कोई भी कविता इस भावना से खाली नहीं है। यह हमारा सौभाग्य है कि देश को भी इस नैराश्य भावना का पर्याप्त अंश प्राप्त हुआ है। ‘खाके वतन’, ‘उरूसे हुब्बे वतन’, ‘हसरते वतन’, ‘मादरे हिन्द’, ‘यादे वतन’- ये सभी इसी राष्ट्रीय रंग में डूबी हुई कविताएँ हैं। ‘मादरे हिन्द’ में सम्भवतः बंकिम के सुप्रसिद्ध राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम’ का अनुकरण किया गया है लेकिन कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जो बाह्य रूप में तो प्रेमपरक प्रतीत होती हैं मगर वास्तव में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत हैं। ‘गुलो बुलबुल का फसाना’ में कहते हैं-
चमन में नहीं यादगारे चमन कुछ
परेशाँ ज़मीं पर हैं ख़ारे चमन कुछ
यहीं मेरी सय्याद तुर्बत बनाना
यहीं मेरी मिट्टी ठिकाने लगाना
इस कविता का एक-एक शेर हृदय में सुईयाँ चुभाता है। ‘शमा-ए-अंजुमन’ में कहते हैं -
रातों को जिस तरह तू जलती है अंजुमन में
जलता हूँ मैं भी यूँ ही सोज़े ग़मे वतन में
हृदय राष्ट्रीय व्यथा से व्याकुल है। जब अवसर पाता है अपनी व्यथा-कथा सुना जाता है। राष्ट्रीय कविताओं के पश्चात् ऐतिहासिक और धार्मिक कविताओं का स्थान है और इस रंग में भी जो कुछ कहा है वह व्यथा की भावनाओं से परिपूर्ण है। ‘पद्मिनी’, ‘पद्मिनी की चिता’, ‘सीताजी की गिरिया व जारी’, ‘महाराजा दशरथ की बेकरारी’, ‘जमना’, ‘गंगा’, ‘प्रयाग का संगम’, ‘सती’, ‘नूरजहाँ का मजार’, ‘हसरते दीदार’ - ये सभी इसी श्रेणी में है। नल और दमयन्ती की करुण कथा पर दो अत्यन्त कारुणिक कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं के शीर्षकों से शायर की मनोदशा स्पष्ट परिलक्षित होती है। शायर हर्ष और अभिलाषा की भावनाओं से परिचित नहीं है, उसे तो प्रकृति ने नैराश्य गीत गाने के लिए उत्पन्न किया है और इसी भावभूमि में उसका मन कुलाचें भरता है, इसी क्षेत्र में उसका चिन्तन-सागर अपने मोती लुटाता है। उसका हृदय तो अगरु है जिसमें जलने से ही सुगन्ध आती है। जमना और गंगा पर दो उत्कृष्ट कविताएँ लिखी हैं जो वर्णना शक्ति, वैचारिक सौन्दर्य और भावनात्मक गाम्भीर्य की दृष्टि से उर्दू काव्य संसार में प्रथम स्थान की अधिकारी हैं। इन दोनों पवित्र नदियों में हिन्दुओं की जो धार्मिक आस्था है उसे अभिव्यक्त करने में शायर कला के चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाता है। ‘गंगाजी’ देखिए -
वो दिन भी होगा जब हम होंगे ग़रीक़े रहमत
और तेरी नज़्र होंगी ये हड्डियाँ हमारी
गंगा में फेंक आना बादे फ़ना उठा कर
बरबाद हो न मिट्टी ओ आस्माँ हमारी
एक छंद और देखिए -
आई अजल की ज़द पर जब अपनी उम्रे फ़ानी
और ख़त्म रफ़्ता रफ़्ता हो सैले ज़िन्दगानी
दुनिया से आह जब हो अपने सफ़र का सामाँ
बालीं पे अक़्रबा हों सरगर्म नौहाख़्वानी
जब होंट ख़ुश्क हों और दुश्वार हो तनफ़्फ़ुस
अहबाब अपने मुँह में टपकाएँ तेरा पानी
हँसते हुए जहाँ से हम शादकाम जाएँ
दुनिया से पी के तेरी उल्फ़त का जाम जाएँ
‘जमना’ में ऐतिहासिक तथ्यों को काव्यात्मक भावनाओं के साथ इस सूक्ष्मता से मिलाया है जो किसी रसविहीन से भी अपनी कला की प्रशंसा करा सकता है -
ये वो जमना है कि राधा सी हसीं ने मुद्दतों
ब्रज की एक पाक दामन नाज़नीं ने मुद्दतों
बंसी वाले की जुदाई में उड़ाई सर पे ख़ाक
अपने अश्कों से किया है दामने साहिल को पाक
अब कहाँ छोटा सा वो राधा का कुंजे ख़ुशगवार
अब कहाँ वह आह मथुरा तेरे फूलों की बहार
अब कहाँ वो बंसीवाले की अदाए जाँनवाज़
अब कहाँ वो आह मुरली की सदाए जाँनवाज़
अब कहाँ वो ख़िल्वते राज़ो नियाज़े हुस्नो इश्क़
बेसदा ज़ेरे ज़मीं है आह साज़े हुस्नो इश्क़
‘लक्ष्मीजी’ और ‘वेद मुकद्दस’ दो धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत कविताएँ हैं। पहली कविता में हिन्दी शब्द इस कौशल से प्रयोग किये हैं कि सहसा प्रशंसा करने का मन होता है -
रुख़े ताबाँ पे बरसता था तेरे नूरे अज़ल
बनके सावन की झड़ी और कभी भादों की भरन
खिड़कियाँ तेरे शिवाले की थीं आँखें अपनी
उन झरोकों से किया करते थे तेरे दर्शन
मगर अब क्या हालत है -
तेरे मंदिर में न बत्ती न दिया है अफ़सोस
आह देवी तेरा सूना है पड़ा सिंघासन
लेकिन यदि सुरूर को उनकी शायरी के चरमोत्कर्ष पर देखना हो तो वे कविताएँ देखिए जिनमें उन्होंने हताशा और व्यथा का राग गाया है, जिनमें बाल्यकाल और यौवनावस्था की स्मृतियाँ ताजा की गई हैं। ‘दीवारे कुहन’, ‘हसरते शबाब’, ‘अंदोहे गुरबत’, ‘मुर्गाने कफस’, ‘यादे तिफ्ली’, ‘गुलो बुलबुल का फसाना’, ‘हसरते दीदार’, ‘मातमे आरजू’, ‘मुर्गो सैयाद’ आदि कविताएँ हताशा के शोकगीतों से कम प्रभावशाली नहीं हैं। ‘गुलो बुलबल का फसाना’ में देखिए कि चमन की क्या दशा है -
वो गुल जो कभी यादगारे चमन थे
वो ग़ुंचे जो आईनादारे चमन थे
हुए सूख कर ख़ारे हसरत चमन में
बरसती है अब उन पे इबरत चमन में
चमन में नहीं यादगारे चमन कुछ
परेशाँ ज़मीं पर हैं ख़ारे चमन कुछ
लेकिन फिर भी चमन से कितना प्यार है कि -
यहीं मेरी सय्याद तुर्बत बनाना
यहीं मेरी मिट्टी ठिकाने लगाना
‘मातमे आरजू’ के दो शेर देखिए -
हाए वो दिल जिसमें उम्मीदों की थी बज़्मे निशात
उसमें है इक आह छोटा सा मज़ारे आरज़ू
हसरते मुर्दा के ग़म में हाए मेरी ग़मगुसार
मर मिटा क्या तो भी शौक़े बेक़रारे आरज़ू
सम्भवतः ‘मुर्गो सैयाद’ सुरूर की सर्वश्रेष्ठ कविता है। हताशा के ऐसे कारुणिक शेर कहे हैं कि पढ़ने से जिगर पर चोट सी लगती है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उर्दू में ऐसी करुणापूर्ण कविता सम्भवतः अन्य किसी ने नहीं लिखी। एकान्त पिंजरे में बैठा हुआ मुर्गा हवा से कहता है। विचारों का खुलापन प्रशंसनीय है -
ऐ नसीमे सुब्ह! ये गह्वारा जुंबाने चमन
हो अगर तेरा गुज़र सूए जवानाने चमन
उनसे कहना मेरी जानिब से बसद इज़हारे शौक़
साथ के खेले हुए हैं वो जो याराने चमन
इक गिरफ़्तारे कफ़स ने है कहा तुमको सलाम
और पूछा है मिज़ाजे सर्द औ रेहाने चमन
फिर ये दुनिया मेरी जानिब से नवेदे जाँफ़िज़ा
सैरे गुलशन हो मुबारक तुमको मुर्ग़ाने चमन
बेचारा मुर्गा स्वयं पिंजरे में बंद है लेकिन चमन के युवाओं को आनन्ददायक प्राणवायु की शुभ सूचना देता है। अपना हृदय हताशा से कुचला हुआ है लेकिन दूसरों की प्रसन्नता देखकर वह कुछ समय के लिए अपनी व्यथा भूल जाता है -
छेड़ती है क्या क़फ़स में हमको ऐ बादे नसीम
इस चमन में हम भी थे परर्वर्दए नाज़े क़दीम
हम कहाँ के ख़ुशनवा थे हम कहाँ के बज़्लासंज
हम पे ऐ सय्याद जो टूटा तेरा क़हरे अज़ीम
हमसफ़ीराने चमन के क्या तग़ाफ़ुल का गिला
जब क़फ़स में फँस गए कैसी रह-ए-रस्मे-क़दीम
दीदे गुल से वास्ता क्या हम असीरों के लिये
सैरे गुलशन हो मुबारक हमसफ़ीरों के लिये
फिर सुनेगा हाए किसके ज़मज़मे सय्याद तू
हम क़फ़स में और हैं नग़्मासरा दो चार दिन
हसरते परवाज़ भी जाती रहेगी ऐ अजल
हम से उड़ लें और मुर्ग़ाने हवा दो चार दिन
फिर कहाँ सय्याद हम और फिर कहाँ कुंजे क़फ़स
आबो दाना है मुक़द्दर में तेरा दो चार दिन
घुट के इस ज़िन्दाँ में जाएगा कभी तो दम निकल
और हैं हसरतकशे ज़ौक़े फ़ना दो चार दिन
लेकिन मुर्गे को हाथ से खोकर बहेलिये की क्या दशा होगी, स्वयं मुर्गे के मुँह से सुनिये -
जब बनाएगा हमारा आह छोटा सा मज़ार
चुपके चुपके तू हमारे ग़म में होगा अश्कबार
याद रह रह कर जफ़ाएँ अपनी आएँगी तुझे
और हमारी बेकसी पर रोएगा तू ज़ार ज़ार
इसी कविता में एक ऐसा तड़पाने वाला शेर भी हो गया है जिस पर संकलन के संकलन न्योछावर किए जा सकते हैं -
अपनी मिट्टी है कहाँ की क्या ख़बर बादे सबा
हो परीशाँ देखिए किस-किस जगह मुश्ते ग़ुबार
दो शेर और देखिए -
हम न फँसते किस तरह सय्याद तेरे जाल में
आबो दाना था मुक़द्दर में तेरे घर का लिखा
तेरे मुर्ग़े दस्त परवर हम हैं सय्यादे अज़ल
ख़्वाह हमको ज़िब्ह कर तू ख़्वाह हमको कर रिहा
हाफिज का मक्ता किस कौशल से चिपकाया है -
सुन न आँ मुर्ग़म के नालम अज़ जफ़ाए तेग़ तू
ज़िब्हकुन सय्याद बा क़ुर्बां अदाए तेग़ तू
सुरूर साहब का अंग्रेजी ज्ञान सीमित था लेकिन अंग्रेजी भावभूमि को वे जिस कौशल से काव्यबद्ध कर देते थे, वह वर्तमान शायरों में कदाचित् किसी को उपलब्ध नहीं है। इन दोनों संकलनों में लगभग 20 कविताएँ इसी प्रकार की हैं। कहीं कविताओं का अनुवाद कर दिया है, कहीं मात्र विचार लेकर कविता का रूप दे दिया है। ‘मुर्गाबी’, ‘तराना-ए-ख्वाब’, ‘बच्चा और हिलाल’, ‘मुताल्ला-ए-कुतुब’, ‘कारजारे हस्ती’, ‘उम्मीद और तिफ्ली’, ‘मौसमे सर्मा का आखिरी गुलाब’ अपनी शैली की अच्छी कविताएँ हैं। इनके विषय में यह कहना ही पर्याप्त है कि इनमें लेखन तथा कथन का सौन्दर्य और स्पष्टता विद्यमान है। और अनुवाद की कभी इससे अधिक प्रशंसा नहीं की जा सकती।
‘तराना-ए-ख्वाब’ देखिए। मोमिन का सा प्रवाह और कोमलता विद्यमान है -
सो गए ऐ दिल दुनिया वाले
अब तो ज़रा आँखें झपका ले
दरिया की खामोश हैं लहरें
नींद से हमआग़ोश हैं लहरें
‘मुताल्ला-ए-कुतुब’ में शाब्दिक सौन्दर्य दृष्टव्य है -
तुम ग़िज़ा-ए-रूह हो तुम सैक़ले अख़्लाक़ हो
सफ़हा-ए-दानिश पे गोया जद्वले अख़्लाक़ हो
हो दबिस्ताने ख़मोशी में अदब आमोज़ तुम
और ग़मे आलाम में हो मूनिसे दिलसोज़ तुम
इन कतिपय उदाहरणों से स्पष्ट है कि उन्हें अनुवाद पर कितना अधिकार और अभ्यास था। इसी शैली में ‘कोयल’ और ‘बीर बहूटी’ - दो मौलिक कविताएँ लिखी हैं। काव्यात्मक क्षमता हताशा से हटकर शब्दाडम्बर और ऊँची उड़ान में लय हो गई है। विषय वर्णन में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। सुरूर ने कोई कसीदा नहीं लिखा लेकिन इस कविता ने सिद्ध कर दिया है कि यदि वे कसीदा-लेखन के क्षेत्र में आते तो उत्कृष्ट कसीदे कहते -
बर्क़े आलम सोज़ की नन्हीं सी हैकल है कोई
आतिशे याक़ूत की छोटी सी मुन्क़ल है कोई
या शफ़क़ का कोई टुकड़ा है ज़मीं पर जल्वागर
जामे ज़र्री में है या सहबा-ए-अह्मर जल्वागर
सुरूर साहब ने नैतिकता और शिष्टाचार पर कलम नहीं उठाई। वे मद्यप थे, पीरे मुगाँ 1 के द्वार पर नतमस्तक होने वाले। वे सौन्दर्य-प्रेमी थे, इच्छाओं को मन में पालने वाले। ऐसा व्यक्ति हितोपदेश का प्रेमी कैसे हो सकता था। प्रकृति ने उन्हें भावनाओं को लिपिबद्ध करने के लिए उत्पन्न किया था, धर्मोपदेशक बनने के लिए नहीं। फिर भी उन्होंने कम से कम तीन ऐसी कविताएँ लिखी हैं जिन पर नैतिकतापूर्ण होना चरितार्थ होता है। ‘जने खुशखू’, ‘बेसबाती-ए-दुनिया’ और ‘आवा-ए-शर्म’। यद्यपि इस मार्ग से वे नितान्त अपरिचित हैं फिर भी वह सुरुचिपूर्ण वर्णना शक्ति जो उनका विशेष गुण थी, यहाँ भी अपनी चमक दिखा गई है। ‘जने खुशखू’ एक लम्बी कविता है जिसमें 22 छन्द हैं। यहाँ वे सदुपदेशक बने हैं लेकिन दयावान; और नम्र स्वभाव वाला विषय रूखा है मगर वर्णन के सौन्दर्य से सुसज्जित। ‘जने खुशखू’ में कहते हैं –
1. मदिरालय का बूढ़ा प्रबन्धक।
फ़र्ज़ाना है ज़ीरक है अक़ीला है निको होश
कम गो है मुअद्दब है रज़ा जू है वफ़ा कोश
हर्फ़े सुख़न ख़ूब है गाहे गहे ख़ामोश
आरामे जिगर, राहते जाँ, ज़ीनते आग़ोश
हुस्न जिसमें नहीं है कि वफाएँ नहीं इसमें
हाँ, कौन सी पाकीज़ा अदाएँ नहीं इसमें
सुरूर साहब ने आश्चर्यजनक प्रत्युत्पन्न मति पाई थी। विचार में विषय आया और मन चिन्तन का आनन्द लेने लगा। वे जिन दिनों कानपुर में थे उस समय क्राइस्टचर्च कालेज के छात्रों ने विदेश जा रहे प्रोफेसर क्रास्थवेट को एक विदाई गीत प्रस्तुत करने का निश्चय किया। तीसरे पहर के समय कुछ छात्रों ने आकर सुरूर साहब से एक ऐसी कविता की माँग की जो समयानुकूल हो। समय अत्यल्प था लेकिन दो घंटे के चिन्तन में ही सुरूर ने दस छन्दों की एक ऐसी आकर्षक कविता लिख दी जिसके एक-एक छन्द से वह श्रद्धा टपकती है जो प्रतिष्ठित प्रोफेसर के किसी निष्ठावान शिष्य के मन में उत्पन्न हो सकती हो।
लेकिन खेद! अब उर्दू के उद्यान में इस सुन्दर पक्षी की चहक सुनाई नहीं देगी। वह बुलबुल जो स्वतंत्र रहकर भी बहेलिये के बन्धन की कामना में घुलता रहा, जिसकी व्यथा-कथा में मनमोहक गीत का आकर्षण और नैराश्य गीत में प्रसन्नता का आनन्द था, वह शोक-मदिरा का दीवाना, कामनाओं की मदिरा का मूर्त रूप, वह हताशा की मूर्ति; खेद है वह प्रसन्नचित्त शायर अब इस संसार में नहीं रहा। उर्दू की सभा में उसका स्थान रिक्त हो गया और दीर्घकाल तक रिक्त रहेगा। उसकी कविता कहती है कि मैं क्या कुछ हो सकती थी लेकिन निर्दयी मृत्यु ने नहीं होने दिया। वह अधखिला फूल था, जैसे ही उस पर अभिलषित दृष्टियाँ पड़ने लगीं, जैसे ही बहुत बेचैन लोग उसकी बलाएँ लेने लगे, ठीक उसी समय वह विषैली हवा का एक झोंका खाकर मुरझा गया और सूखकर धरती पर गिर गया। अब उसकी स्मृति में कुछ व्याकुल पृष्ठ शेष हैं जो हताशा की भाषा में बता रहे हैं कि हम क्या होने वाले थे लेकिन हो नहीं पाए।
सुरूर! हमने जीवित रहते तुम्हारा सम्मान नहीं किया लेकिन अब जबकि तुम हमें वियोग का संताप देकर चले गए हो, हमें तुम्हारी याद आती है। तुम्हें हाथों से खोकर अब हम तुम्हारा सम्मान कर रहे हैं। यदि तुमने संसार के किसी अन्य देश में जन्म लिया होता तो आज तुम्हारी समाधि पर हीरे-मोती न्योछावर किए जाते, तुम्हारे स्मारक बनते, लोग तुम्हारे नाम पर जान छिड़कते। लेकिन यद्यपि हम इस योग्य नहीं हैं कि तुम्हारी समाधि पर हीरे-मोती न्योछावर कर सकें, यद्यपि हममें तुम्हारा स्मारक बनाने की योग्यता और पात्रता नहीं है, तथापि तुम्हारे नाम पर जान छिड़कने वालों की संख्या कम नहीं है। यद्यपि तुम्हारी सभा निर्जन हो गई लेकिन तुम्हारा वह खुमखाना अभी शेष है जो मस्ती और प्यार का एक अनित्य निर्झर है। परमात्मा से हमारी प्रार्थना है कि हम दीर्घकाल तक इस जामे सुरूर से मदमस्त और छलकते रहें।
शहीदे आजम

[मुंशी प्रेमचंद ने अन्याय, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, दमन आदि समस्त सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध अपनी रचनाओं के माध्यम से जो शंखनाद किया था, उसकी अनुगूँज आज भी सुनाई देती है। समूचे विश्व इतिहास में कर्बला का युद्ध अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध अनवरत संघर्ष का सशक्त प्रतीक बनकर उभरता है और यही कारण है कि प्रेमचंद जैसा संवेदनशील रचनाकार इस घटना से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
कर्बला की घटना पर प्रेमचंद का एक लेख सन् 1923 में लखनऊ की मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुआ और एक वर्ष उपरान्त 1924 में उनका प्रसिद्ध हिन्दी नाटक ‘कर्बला’ भी प्रकाशित हो गया। ध्यातव्य है कि सन् 1923 में ही प्रेमचंद का लेख ‘हजरत अली’ भी ‘प्रभा’ में प्रकाशित हो चुका था। इन तथ्यों के आलोक में भली प्रकार समझा जा सकता है कि कर्बला की घटना से प्रेमचंद किस सीमा तक प्रभावित थे। प्रेमचंद ने 22 जुलाई 1924 के पत्र में मुंशी दयानारायण निगम को लिखा था -
"मैंने हजरत हुसैन का हाल पढ़ा। उनसे अकीदत हुई। उनके जौके शहादत ने मफ्तूँ कर लिया।1
उपर्युक्त पत्रांश में स्वयं प्रेमचंद कर्बला की घटना से प्रभावित होने की पुष्टि करते हैं। प्रेमचंद की रचनाओं में इसका कोई संकेत उपलब्ध नहीं है कि उन्हें साम्प्रदायिक विचार प्रभावित कर पाते थे। इसके प्रतिकूल उनकी रचनाएँ, उनका मस्तिष्क और उनकी चिन्तन-धारा स्पष्ट रूप से यह उद्घोषणा करते दिखाई देते हैं कि प्रेमचंद हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे और स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये इसी एकता को अत्यावश्यक समझते थे। प्रेमचंद की यह विचारधारा मुंशी दयानारायण निगम के नाम 17 फरवरी 1924 को लिखे पत्र में भी अभिव्यक्त होती है जिसमें उन्होंने अपने हिन्दी नाटक ‘कर्बला’ का लेखन पूर्ण होने की सूचना देते हुए लिखा था -
"मैंने इधर पाँच महीने में अपने नावल ‘रंगभूमि’ के साथ एक ड्रामा लिखा है जिसका नाम है ‘कर्बला’। इसमें कर्बला के वाकआत पर तारीखी हैसियत को कायम रखते हुए एक ड्रामा लिखा गया है।.... इसका यकीन रखिए कि मैंने एहतराम को कहीं नजरअन्दाज नहीं होने दिया है। एक-एक लफ्ज पर इस बात का खयाल रखा है कि मुसलमानों के मजहबी एहसासात को सद्मा न पहुँचे। मकसद है पोलिटिकल, बाहमी इत्तिहाद को बढ़ाना, और कुछ नहीं।2
उपर्युक्त सन्दर्भित लेखों और नाटक से तो साहित्य-संसार परिचित है परन्तु सम्प्रति इस वास्तविकता से अपरिचित है कि प्रेमचंद का एक उर्दू लेख बिहार शिया कान्फ्रेंस, पटना द्वारा प्रकाशित स्मारिका ‘कारनामा-ए-हुसैन’ में पृष्ठ संख्या 5 से 8 तक प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक है ‘शहीदे आजम’। सौभाग्य की बात है कि इस स्मारिका की एक प्र्रति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के फारसी विभाग में रीडर एवं विभागाध्यक्ष डा. सैयद हसन अब्बास के निजी संग्रह में सुरक्षित रह गई, जिनके कृपापूर्ण सौजन्य से प्रेमचंद के इस अज्ञात एवं अप्राप्य लेख की फोटोकापी मुझे प्राप्त हो सकी।
1. चिट्ठी-पत्री, भाग-1,
2. चिट्ठी-पत्री, भाग-1,
‘कारनामा-ए-हुसैन’ एक 56 पृष्ठों की स्मारिका है जिसके अन्तिम पृष्ठ पर निम्नांकित विवरण प्रकाशित है -
"सैयद अहमद रजा, मालिक व मैनेजर इस्लामी प्रेस, गोरहट्टा, पटना सिटी में तबा होकर शाया हुआ। सन् 1931 ई., 1350 हि."
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रेमचंद का लेख ‘शहीदे आजम’ सन् 1931 में प्रकाशित हुआ था। स्मारिका में लेख के शीर्षक के नीचे एक कोष्ठक में लेखकीय नामोल्लेख भी इस प्रकार प्रकाशित है-
"अज जनाब मुंशी प्रेमचंद साहब, जर्नलिस्ट, लखनऊ"
ध्यातव्य है कि प्रेमचंद लखनऊ से प्रकाशित होने वाले हिन्दी मासिक ‘माधुरी’ के सम्पादन से 18 फरवरी 1931 को कार्य-मुक्त हुए थे। उनके नाम के साथ ‘जर्नलिस्ट, लखनऊ’ शब्दों के प्रयोग से यह अनुमान करना कुछ असंगत नहीं है कि जिस समय उन्होंने अपना यह लेख प्रकाशनार्थ भेजा था, उस समय वे ‘माधुरी’ के सम्पादन से सम्बन्धित थे। इसका अर्थ यह है कि यह लेख सम्भवतः जनवरी 1931 में ही प्रकाशनार्थ भेज दिया गया होगा, जिसे इसका लेखन-काल स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है। स्मारिका पर हिजरी संवत् 1350 का उल्लेख प्राप्त होने से यह तथ्य उद्घाटित होता है कि जिस समय यह स्मारिका प्रकाशित हुई थी उस समय प्रेमचंद ‘माधुरी’ के सम्पादन से विलग हो चुके थे। इसका आधार यह है कि हिजरी संवत् 1350 की प्रारम्भिक तिथि 19 मई 1931 है और हिजरी संवत् का प्रथम मास ही मुहर्रम होता है। स्मारिका की भूमिका में इसके मुहर्रम मास में प्रकाशित होने का स्पष्ट उल्लेख भी प्राप्त है। अतः प्रेमचंद के लेख ‘शहीदे आजम’ का प्रकाशन-काल मई-जून 1931 स्वीकार करना प्रत्येक दृष्टि से उचित होगा।]
कर्बला की दुर्घटना विश्व इतिहास की उन सर्वश्रेष्ठ घटनाओं में है जिन्होंने सभ्यता की दिशा परिवर्तित कर दी है। यजीद के खानदान में इस्लामी खिलाफत1 का जाना वास्तव में इस्लाम के विश्व-बंधुत्व और समानता के दीप का बुझ जाना था। यदि हजरत हुसैन के हाथों में खिलाफत होती तो इस्लामी परम्पराएँ अपने वास्तविक रूप में विकसित होतीं और विजयों तथा बादशाहत के वे बन्दर न आते जिन्होंने चाहे इस्लामी इतिहास को उलाहना न दिया हो मगर उस उद्देश्य से अवश्य ही गिरा दिया जो इस्लाम के अस्तित्व में आने का कारण बना था। इस्लाम का अवतरण दूसरे देशों को जीतने के लिए नहीं हुआ था, वह एक शुद्ध आध्यात्मिक आन्दोलन था जिसका उद्देश्य दुनिया से जुल्म और बादशाहत को समाप्त करके विश्वव्यापी समानता का प्राकट्य था। हजरत अबू बकर, हजरत फारूक और हजरत उस्मान का युग इस आन्दोलन का प्रारम्भिक काल था जिसमें इस्लामी परम्पराओं की नींव पड़ रही थी। हजरत अली के खिलाफत के अल्पकालिक युग में इस्लामी सभ्यता का विकास जिस नाम से हुआ वह यदि बना रहता तो आज इस्लाम अपनी शानो शौकत और विजयों के लिए नहीं, वरन् अपनी आध्यात्मिकता और सत्यनिष्ठा के लिए प्रतिष्ठित होता। देशों को जीतने की भूख हजरत मआविया के साथ इस्लाम में प्रविष्ट हुई और यह तत्त्व निरन्तर बढ़ता गया, यहाँ तक कि महमूद गजनवी के मूर्तिभंजक आक्रमणों और बर्बर विजयों के रूप में हम उसका निकृष्ट रूप देखते हैं।
हजरत हुसैन अलेहिस्सलाम खिलाफत और बादशाहत के सैद्धान्तिक मतभेदों और महत्त्व को भली प्रकार समझते थे और इसीलिए अपने पक्ष में वातावरण न होने पर भी उन्होंने अपना सब कुछ, यहाँ तक कि अपना और अपने आत्मीय जनों का प्रिय जीवन भी इस्लामी प्रतिष्ठा के समर्थन और सुरक्षा की भेंट कर दिया। यह स्वीकार करने के लिए बुद्धि सहमत नहीं होती कि ऐसा निःस्वार्थ, ऐसा कामनारहित, ऐसा सिद्धान्तप्रिय पूर्वज मात्र निजी व्यक्तिगत अधिकार के लिए इतना भयावह युद्ध ठान बैठता।
इस्लाम के अवतरण से पूर्व एकेश्वरवाद का स्वर गूँजने लगा था। इस विषय में हिन्दुस्तान को अग्रगामी होने का गौरव प्राप्त है। ईश्वर के अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएँ नष्ट होने वाली हैं, यह वास्तविकता पहली बार वेदों ने प्रकट की। इसके पश्चात् बौद्ध धर्म का आविर्भाव हुआ। बौद्ध धर्म ने ‘अहिंसा’ को श्रेष्ठ स्वीकार किया। बाद में हजरत ईसा अवतरित हुए और उन्होंने ‘दया’ को सर्वश्रेष्ठ सच्चाई माना। इस्लाम ने विश्व-बंधुत्व और समानता की पताका फहराई। उस समय भी संसार पारस्परिक खूनखराबे से तंग आ चुका था। उस खूनखराबे का कारण यही छोटे और बड़े, ऊँचे और नीचे का झगड़ा था। इस्लाम के प्रवर्तक ने संसार से खूनखराबे और शत्रुता को जड़ से मिटा देने का संकल्प कर लिया था और इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए समानता से उत्कृष्ट कोई उपाय नहीं था। आज भी संसार समानता की खोज में उलझा है। सोशलिज्म और साम्यवाद क्या है; उसी समानता की खोज। तेरह-चौदह शताब्दियों के बाद भी संसार जिस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास कर रहा है, उसे इस्लाम के प्रवर्तक ने कब का सुलझा दिया था। खेद है कि जिस क्षेत्र में उसका बीजारोपण किया गया था वह उस समय इस खेती के योग्य न था। हजरत मुहम्मद के जीवन-काल में और उसके कुछ दिनों बाद तक भाईचारा ही इस्लाम का विशेष गुण रहा जो हजरत हुसैन के बलिदान के साथ समाप्त हो गया। इस दृष्टिकोण से देखिए तो हजरत हुसैन का बलिदान संसार की सबसे महान् ऐतिहासिक घटना है।
1. खलीफा का शासन।
वैचारिक, मानवीय या भावनात्मक, किसी भी दृष्टि से देखिए, हजरत हुसैन के लिए बलिदान अनिवार्य था। कूफावासियों का बार-बार निमन्त्रण देना क्या कुछ महत्त्वपूर्ण बात नहीं थी? उन निमन्त्रणों को ठुकराना शिष्टाचार की दृष्टि से आपत्तिजनक था। इसके अतिरिक्त जब इस्लाम की सबसे प्रिय वस्तु को अधिकार में लेने का प्रयास किया जाता हो, तब इस्लामी प्रतिष्ठा के एकमात्र ध्वजवाहक व्यक्ति का इसके अतिरिक्त और क्या कर्त्तव्य हो सकता था कि वह व्यक्तिगत आशंकाओं को हेय समझे और यथासम्भव उसकी सुरक्षा करे। कूफियों के छल का भेद खुल जाने पर सम्भव था कि वे अधीनता स्वीकार करके जान बचा लेते, मगर मानवीय दृष्टि से यह दूषित कर्म होता। एक बार दृढ़ संकल्प कर लेने के बाद फिर बलिदान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं था। सम्भवतः हजरत हुसैन बलिदान होकर ही इस्लाम की उत्कृष्ट सेवा कर सकते थे। यहाँ मुहर्रम और अजादारी1 के सम्बन्ध में अपनी राय प्रकट करना सम्भवतः कुछ मित्रों को अरुचिकर प्रतीत हो, लेकिन मैं इसे स्पष्ट करना अपना दायित्व समझता हूँ।
राम, कृष्ण और बुद्ध इतिहास से होते हुए कहानियों की परिधि में आ गए हैं, यहाँ तक कि प्रायः शोधकर्ताओं के विचार में महाभारत और रामायण ऐतिहासिक घटनाएँ नहीं हैं बल्कि आध्यात्मिक अनुभव हैं। महात्मा गांधी इन्हीं लोगों में हैं; उनकी आस्था है कि प्रत्येक हृदय रामायण और महाभारत का मंच है और इन कहानियों को ऐतिहासिक दृष्टि से देखना इनके महत्त्व को मिट्टी में मिलाना है। मगर कर्बला का युद्ध अभी तक प्रामाणिक ऐतिहासिक घटना है और सम्भवतः आज तक किसी अन्वेषक को यह कहने का साहस नहीं हुआ कि यह मात्र आध्यात्मिक अनुभव है और अच्छे व बुरे का अनादि काल से चला आता संघर्ष है जो प्रत्येक हृदय में सदैव होता रहता है। लेकिन इस पर भी हमारे कवियों और साहित्यकारों ने इस दुर्घटना को अपने नवचिन्तन का कार्यक्षेत्र बनाकर इसे कहानी का रूप दे दिया। इतिहास में काव्यात्मक अतिशयोक्ति को कोई स्थान नहीं होता। यदि हमारे साहित्यकारों ने स्वयं को ऐतिहासिक घटनाओं तक ही सीमित रखा होता तो शिकायत का कोई अवसर नहीं था लेकिन उन्होंने उनकी गाथा में उन समस्त शब्द तथा अर्थ-अलंकारों तथा नवोक्तियों का प्रयोग किया जो किसी विशुद्ध काव्यात्मक कहानी के लिए उचित था। और इस प्रकार इस दुर्घटना के ऐतिहासिक महत्त्व को ही नहीं, उसकी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा को भी हानि पहुँचाई। धार्मिक सम्मान की यह अपेक्षा थी कि कर्बला के युद्ध को काव्यात्मक उड़ानों से कहीं ऊँचा रखा जाता लेकिन प्रकृति समूचे संसार में एक समान है और हरेक धर्म में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होती है जिन्हें उस समय तक तसल्ली नहीं होती जब तक कि धार्मिक महापुरुषों को महामानव न बना दिया जाए।
1. मुहर्रम के महीने में हजरत इमाम हुसैन के बलिदान का शोक मनाना, मातम करना, ताजिया बनाना, उठाना और रोशनी आदि करना।
पद्म सिंह शर्मा के साथ तीन दिन
[प्रेमचंद ने अपनी स्मरण-शक्ति के सम्बन्ध में स्वयं कहा है कि ‘मेरा हाफिजा नाकिश है और याददाश्त कमजोर’। इसी कथन को आधार बनाकर उनके सभी जीवनीकारों और प्रेमचंद-विशेषज्ञों ने बिना पुष्टि किए यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि प्रेमचंद बहुत कमजोर स्मरण-शक्ति के स्वामी थे और इसी आधार पर रचनाओं के सम्बन्ध में उनके स्वयं के उल्लेखों को नकारने लगे। परन्तु वास्तविकता इसके प्रतिकूल है।
स्वामी श्रद्धानन्दजी द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी में आयोजित साहित्य परिषद् की अध्यक्षता करने के लिए प्रेमचंद जुलाई 1927 में हरिद्वार गए और वहाँ तीन दिन प्रवास किया। हिन्दी साहित्य में तुलनात्मक समालोचना की परम्परा के अधिष्ठाता पं. पद्म सिंह शर्मा भी इस आयोजन में सहभागी थे, जिनके साथ प्रेमचंद के आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो गए। हरिद्वार के इस तीन दिवसीय प्रवास के संस्मरण प्रेमचंद ने लखनऊ की मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ के अप्रैल 1928 के अंक में ‘गुरुकुल कांगड़ी में तीन दिन’ शीर्षक से प्रकाशित करा दिए थे, जिनका उर्दू अनुवाद लाहौर के उर्दू साप्ताहिक ‘प्रकाश’ के 22 अप्रैल 1928 के अंक में इसी शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
पं. पद्म सिंह शर्मा का देहावसान हो जाने पर पं. बनारसी दास चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘विशाल भारत’ ने सारस्वत श्रद्धान्जलि के रूप में ‘पद्म सिंह अंक’ निकालने की योजना बनाई तो उसके लिए प्रेमचंद से भी हरिद्वार प्रवास में व्यतीत तीन दिनों के संस्मरणों पर आधारित लेख लिख भेजने का अनुरोध किया, जिसके उत्तर में प्रेमचंद ने अपने 18 जून 1933 के पत्र के साथ लेख भेजते हुए पं. बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखा -
"लीजिए, फरमाइश की तामील कर रहा हूँ। जो कुछ याद आया लिखा। उस वक्त जानता कि यह लेख लिखना पड़ेगा तो शर्माजी का एक-एक वाक्य नोट कर लेता।1
प्रेमचंद का भेजा हुआ यह लेख ‘विशाल भारत’ के ‘पद्म सिंह अंक’, अगस्त 1932 में प्रकाशित हुआ, जिसे उनके 1927 में प्रकाशित लेख ‘गुरुकुल कांगड़ी में तीन दिन’ का पूरक भी स्वीकार किया जा सकता है।
इस लेख में प्रेमचंद ने जिस सूक्ष्मता से पं. पद्म सिंह शर्मा के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालने के साथ गुरुकुल कांगड़ी के पाँच वर्ष पुराने तीन दिनों के संस्मरण लिपिबद्ध किए हैं, उससे प्रेमचंद की स्मरणशक्ति अत्यन्त तीव्र होने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जाता।
‘विशाल भारत’ जैसे प्रसिद्ध एवं सरलता से प्राप्त हो सकने वाले पत्र में प्रेमचंद के व्यक्तित्व के एक रहस्य को अनावृत्त करने वाला लेख 74 वर्षों तक अचीन्हा पड़ा रहना प्रेमचंद-विशेषज्ञों के सुविधाभोगी शोध का ज्वलन्त प्रमाण है।]
1. चिट्ठी पत्री, भाग-2,
गुरुकुल कांगड़ी में हिन्दी-साहित्य-परिषद् का कोई उत्सव था। मुझे नेवता मिला। उधर शर्माजी भी निमन्त्रित हुए। हम दोनों एक ही साथ तंबेड़े पर बैठकर कांगड़ी पहुँचे। शर्माजी उधर अकसर आते-जाते रहते थे। तंबेड़े पर बैठने के आदी थे। मेरे लिए तंबेड़ा अजूबा चीज थी, जो अगर गुरुकुल वालों का आविष्कार नहीं तो पेटेन्ट अवश्य है। उस स्थान की वेगवती गंगा में नाव और किश्ती तथा स्टीमर की गति नहीं। उस वैतरिणी में तो यह गऊ की पूँछ ही पार लगा सकती है। आपको यह विश्वास तो दिला दिया गया है कि अकाल मृत्यु की यहाँ सम्भावना नहीं, क्योंकि गंगा माता की गोद में भी मौत कुछ कम भयंकर नहीं होती। आपको कुछ आश्वासन हो भी रहा है, लेकिन जब आप उस अपार सागर को देखते हैं, लहरों की तेजी को देखते हैं, तो इस आश्वासन में कुछ कम्पन होने लगता है। आपके मन में यह धारणा जमने नहीं पाती कि ये लहरें आपके तंबेड़े का बाल भी बाँका नहीं कर सकतीं। आप अपने मित्रों के आश्वासन से दिल को मजबूत किए बैठे हैं, लेकिन उनके विनोद में भाग नहीं ले सकते। आपकी दशा कुछ उस मनुष्य की-सी है, जो जिन्दगी में पहली बार किसी शरीर घोड़े पर सवार हुआ हो।
शर्माजी से मेरी पहली मुलाकात छै सात वर्ष पहले हुई थी, पर वह बहुत थोड़ी देर की मुलाकात थी। आज मैं उनके साथ एक ही तंबेड़े पर बैठा हुआ था। यद्यपि वह बीच-बीच में मेरी शंकाओं का समाधान करने के लिए तंबेड़े का गुण-गान करते जाते थे, लेकिन मेरा मन उनकी काव्य-कला-मर्मज्ञता का कायल होकर भी तंबेड़े के विषय में निश्शंक न होता था।
खैर, यात्रा समाप्त हुई। हम लोग गुरुकुल में पहुँचे, और आतिथ्यशाला में ठहराये गये। वहाँ मुझे मालूम हुआ कि शर्माजी को चाय से बड़ा प्रेम था और वे दो-एक प्याले से सन्तुष्ट न होते थे। वे चाय को शरबत की तरह पीते थे। नई सभ्यता की शायद यही एक चीज थी, जिसे उन्होंने अपनाया था। और सभी बातों में वह पूरे स्वदेशी थे। वेषभूषा में नयापन कहीं छू भी न गया था। जूते भी पुराने ढंग के ही पहनते थे। उन्हें देखकर सहसा यह गुमान न हो सकता था कि यह साधारण-सा व्यक्ति इतने ऊँचे दिल और दिमाग का स्वामी है। आजकल हम लोगों में दिखावे का जो रोग लग गया है, यह उन्हें छू भी न गया था। हम अपनी थोड़ी-सी पूँजी को इस तरह प्रदर्शित करते फिरते हैं, मानो विद्या हमारे ही ऊपर खतम हो गई है। वेदों और शास्त्रों का इस तरह उल्लेख करते हैं, मानो सब चाटे बैठे हैं। आज अपनी विद्वत्ता का सिक्का जमाने के लिए केवल बड़े-बड़े नाम कंठ कर लेने की जरूरत है। कालिदास पर कोई लेख लिखने के लिए अंगरेजी के एकाध आलोचकों का लेख पढ़ लेना काफी है। बस, अब हमसे बड़ा कालिदास का पारखी कोई नहीं है। ‘कुमारसम्भव’! अजी वह तो कालिदास के युवा-काल की रचना है। उसमें कवि की कला पूर्णता को नहीं पहुँच सकी है। कवि का कमाल देखना हो, तो ‘मेघदूत’ पढ़िये। कहिये, ‘शकुन्तला’ पर व्याख्यान दे डालें। शेक्सपियर की रचनाओं की नामावली और उसके दो-चार पात्रों की आलोचना पढ़कर शेक्सपियर पर आलोचना करने वालों की कहीं भी कमी नहीं है। शर्माजी इस दिखावे के शत्रु थे, और ऐसों का परदा बड़ी निर्दयता से फाश किया करते थे। तब वे जरा भी रू-रिआयत न करते थे। उनका साहित्य-ज्ञान बहुत बढ़ा हुआ था। खेद यही है कि अनेक बाधाओं ने उन्हें एकाग्र मन से साहित्य की सेवा न करने दी।
शर्माजी और मैं सबेरे और शाम को कांगड़ी से कुछ दूर सैर करने निकल जाते। उस वक्त शर्माजी के मुख से सूक्तियों के सुनने का अवसर मिलता। ऐसे-ऐसे कवियों की सूक्तियाँ सुनाते थे, जिनके नाम तक मैंने न सुने थे।
उन्हीं दिनों दो-एक बार हिन्दू-मुसलिम समस्या पर उनसे मेरा वार्तालाप हुआ। गुरुकुल के उस साहित्यिक अधिवेशन में कदाचित् यह भी एक विषय था। शर्माजी पक्के हिन्दू-सभाइट थे, और अपने पक्ष के समर्थन में ऐसी-ऐसी दलील पेश करते थे - ऐतिहासिक भी और धार्मिक भी - कि उनका जवाब देने के लिए मुझसे कहीं ज्यादा विद्वान् आदमी की जरूरत थी। वे मुझे कायल न कर सके, और मैं तो भला उन्हें क्या कायल करता, लेकिन इस मुबाहसे में मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि हिन्दू-सभा की नीति बड़ी मजबूत बुनियाद पर खड़ी है। औरंगजेब, अकबर, हैदर अली और सिराजुद्दौला पर किये गये आक्षेपों का उत्तर तो दिया जा सकता था, और दिया गया, लेकिन मुसलिम लीग की वर्तमान नीति का क्या जवाब हो सकता था। मन समझाने को चाहे हम कह लें कि मुसलिम लीग केवल ओहदे के भूखे और अधिकार के इच्छुक लोगों की ही संस्था है, लेकिन जब हम देखते हैं कि मुसलमान जनता, व्यापारी और जमींदार सभी उनके साथ हैं, तो हम जरा देर के लिए भविष्य से निराश हो जाते हैं। हिन्दुस्तान की मुसलिम नीति केवल हिन्दुओं का विरोध है। असेम्बली को लीजिए, या कौंसिल को। हिन्दू कोई प्रश्न करता है, कोई प्रस्ताव उपस्थित करता है, तो वह राष्ट्रीय दृष्टि से। मुसलिम मेम्बर जो कुछ कहेगा, या करेगा, वह अपने मजहबी दृष्टिकोण से। मुसलिम लीग अब भी विशेष अधिकार चाहती है, विशेष व्यवहार चाहती है; और देश की व्यवस्था ही कुछ इस तरह की हो रही है कि मुसलमान नेता जितना ही ज्यादा हिन्दू द्रोही हो, उसका उतना ही मान-सम्मान होता है। उसकी उन्नति देखकर दूसरे भी उसकी रीस करते हैं। टैक्स अधिकतर हिन्दुओं की जेब से आवे, पर ओहदे मुसलमानों को दिये जायँ। हिन्दू मुकाबले के इम्तहान में जान खपाकर जो ओहदा पाता है, वही मुसलमान चुनाव के द्वारा सहज ही प्राप्त कर लेता है। राष्ट्रवादी हिन्दू तो इस व्यवस्था को काल-गति समझकर सब्र कर लेता है, और इस आशा से संतोष लाभ करता है कि मुसलमानों में शिक्षा का खूब प्रचार हो जायगा, तो वे भी उदार हो जायेंगे। पर हिन्दुओं की दूसरी जमायत इतनी सहिष्णु नहीं है। वह देखती है कि शिक्षा के प्रचार से यह भेदभाव मिटने के बदले और बढ़ता जाता है, तो उसे शिक्षा में भी अविश्वास होने लगता है। अगर दो भाई में से एक हमेशा पृथकता की रट लगाता रहे, तो दूसरा भाई कुछ दिन दबने के बाद मजबूर होकर पृथकता ही स्वीकार कर लेगा। अगर एक भाई सारे घर और सारी जायदाद का दावा करे, तो दूसरा एकता के इच्छुक भाई के लिए इसके सिवा और क्या उपाय रह जाता है कि पेड़ तले रहे, और अपने बाल-बच्चों को भूखों मरते देखे। शर्माजी ‘विशेष’ अधिकारों के नाम से ही चिढ़ते थे। किसी के साथ जौ-भर भी रिआयत उन्हें अस्वीकार थी। वे किसी के सामने दबना या झुकना न जानते थे।
लेकिन इसके साथ ही संकीर्णता उन्हें छू भी न गई थी। मुसलिम संस्कृति, इतिहास, साहित्य में जो कुछ आदर के योग्य है, उसका वे मुक्त-हृदय से आदर करते थे। खलीफा मामूँ रशीद का चरित्र उन्होंने जितनी श्रद्धा से लिखा है, उतनी ही श्रद्धा से वह कदाचित् चन्द्रगुप्त या अशोक पर लिखते। फारसी कवियों में वह सादी, हाफिज, उमर खैयाम, शम्स तब्रेज, मौलाना रूम आदि का उतना ही आदर करते थे, जितना भवभूति, कालिदास या बाण का। और उर्दू के अमर कवि अकबर पर तो वह आशिक थे। शायद ही कोई मुसलमान अकबर का इतना भक्त हो।
शालीनता और विनय के वह मानो पुतले थे। मैं उनके साथ ज्वालापुर का गुरुकुल देखने गया था। मैं तो सन्ध्या समय लौट आया। वे हरिद्वार में ही रह गये। दूसरे दिन मुझे लौटना था। जब हरिद्वार स्टेशन पर पहुँचा, तो शर्माजी मुझे विदा करने के लिए खड़े थे। गाड़ी चली, तो उनके मुख पर स्नेह की ऐसी गाढ़ी झलक नजर आई, मानो उनका अपना बन्धु विदा हो रहा है। वह सूरत आज तक मेरे हृदय-पट पर अंकित है। छोटों पर बड़ों का इतना प्रेम मैंने उन्हीं में देखा। रास्ते-भर वह आकृति मेरी आँखों के सामने फिरती रही, और अब भी जब याद आ जाती है, तो आँखों में आँसू आ जाते हैं। अगर जानता कि वे इतनी जल्द प्रस्थान करने वाले हैं, तो उनके चरणों के अन्तिम दर्शन कर लेता।
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