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हबीब जालिब की चुनिन्दा ग़ज़लें
(24.03.1928 -  13.03.1993)


1.

भए कबीर उदास 

इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा जुल्फ़ों की छाओं में सुख की सेज पे सोए
राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास
भए कबीर उदास
 
ऊँचे ऊँचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएं
क़दम क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएं
धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास
भए कबीर उदास
 
गीत लिखाएं पैसे ना दे फिल्म नगर के लोग
उनके घर बाजे शहनाई लेखक के घर सोग
गायक सुर में क्योंकर गाए क्यों ना काटे घास
भए कबीर उदास
 
कल तक जो था हाल हमारा हाल वही हैं आज
‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज
फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास
भए कबीर उदास
  

2.

ुस्तक़बि1 

तेरे लिए मैं क्या - क्या सदमे सहता हूँ
संगीनों के राज में भी सच कहता हूँ
मेरी राह में मस्लहतों के फूल भी हैं
तेरी ख़ातिर कांटे चुनता रहता हूँ
 
तू आएगा इसी आस में झूम रहा है दिल
देख ऐ मुस्तक़बिल
 
इक - इक करके सारे साथी छोड़ गए
मुझसे मेरे रहबर भी मुँह मोड़ गए
सोचता हूँ बेकार गिला है ग़ैरों का
अपने ही जब प्यार का नाता तोड़ गए
 
तेरे दुश्मन हैं मेरे ख़्वाबों के क़ातिल
देख ऐ मुस्तक़बिल
 
जेहल के आगे सर न झुकाया मैंने कभी
सिफ़्लों2 को अपना न बनाया मैंने कभी
दौलत और ओहदों के बल पर जो ऐंठें
उन लोगों को मुँह न लगाया मैंने कभी
 
मैंने चोर कहा चोरों को खुलके सरे महफ़िल
देख ऐ मुस्तक़बिल

1.         भविष्य
2.         गिरा हुआ, कमीना


 
3.


दस्तू1 

दीप जिसका महल्लात2 ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले
 
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
 
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त - ए - दार3 से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ4 की दीवार से
 
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
 
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
 
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
 
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
 
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता  

1.         संविधान
2.         महलों
3.         फांसी का तख्ता
4.         जेल
 

 

4.


मुशी1
 

मैंने उससे ये कहा
            ये जो दस करोड़ हैं
            जेहल का निचोड़ हैं
           
            इनकी फ़िक्र सो गई
            हर उम्मीद की किस
            ज़ुल्मतों2 में खो गई
 
            ये खबर दुरुस्त है
            इनकी मौत हो गई
            बे शऊर लोग हैं
            ज़िन्दगी का रोग हैं  
            और तेरे पास है
            इनके दर्द की दवा
 
मैंने उससे ये कहा
 
            तू ख़ुदा का नूर है
            अक्ल है शऊर है
            क़ौम तेरे साथ है
तेरे ही वज़ूद से
मुल्क की नजात है
तू है मेहरे सुबहे नौ3
तेरे बाद रात है
बोलते जो चंद हैं
सब ये शर पसंद4 हैं
इनकी खींच ले ज़बां
इनका घोंट दे गला
 
मैंने उससे ये कहा
 
            जिनको था ज़बां पे नाज़
            चुप हैं वो ज़बां दराज़
            चैन है समाज में
            वे मिसाल फ़र्क है
            कल में और आज में
            अपने खर्च पर हैं क़ैद
            लोग तेरे राज में
            आदमी है वो बड़ा
            दर पे जो रहे पड़ा
            जो पनाह मांग ले
            उसकी बख़्श दे ख़ता
 
मैंने उससे ये कहा
 
            हर वज़ीर हर सफ़ीर
            बेनज़ीर5 है मुशीर
            वाह क्या जवाब है
            तेरे जेहन की क़सम
            खूब इंतेख़ाब है
            जागती है अफसरी
            क़ौम महवे खाब है
            ये तेरा वज़ीर खाँ
            दे रहा है जो बयाँ
            पढ़ के इनको हर कोई
            कह रहा है मरहबा
 
मैंने उससे ये कहा
 
            चीन अपना यार है
            उस पे जाँ निसार है
            पर वहाँ है जो निज़ाम
            उस तरफ़ न जाइयो
            उसको दूर से सलाम
            दस करोड़ ये गधे6
            जिनका नाम है अवाम
            क्या बनेंगे हुक्मराँ
            तू ‘‘चक़ीं‘‘ ये ‘‘गुमाँ
            अपनी तो दुआ है ये
            सद्र तू रहे सदा
 
मैंने उससे ये कहा

1.         सलाहकार
2.         अंधेरा
3.         नई सुबह का सूरज
4.         शरारती तत्व
5.         बे मिसाल
6.         जब ये नज़्म लिखी गई उस वक्त पाकिस्तान की आबादी दस करोड़ थी।

 

5


 
फ़िरंगी का दरबान

फ़िरंगी का जो मैं दरबान होता
तो जीना किस क़दर आसान होता

मेरे बच्चे भी अमरीका में पढ़ते
मैं हर गर्मी में इंग्लिस्तान होता

मेरी इंग्लिश बला की चुस्त होती
बला से जो न उर्दू दान होता

झुका के सर को हो जाता जो ‘सर’ मैं
तो लीडर भी अज़ीमुश्शान होता

ज़मीनें मेरी हर सूबें में होतीं
मैं वल्लह सदेर पाकिस्तान होता

 


 

 

 


6.

वतन को कुछ नहीं ख़तरा

वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ामेज़र है ख़तरे में
हक़ीक़त में जो रहज़न है, वही रहबर है ख़तरे में
 
जो बैठा है सफ़े मातम बिछाए मर्गे ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में, वो दानिशवर है ख़तरे में
 
अगर तश्वीश लाह़क है तो सुल्तानों को लाह़क है
न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में
 
जो भड़काते हैं फिर्क़ावारियत की आग को पैहम
उन्हीं शैताँ सिफ़त मुल्लाओं का लश्कर है ख़तरे में
 
जहाँ ‘इकबाल’ भी नज़रे ख़तेतंसीख हो ‘जालिब’
वहाँ तुझको शिकायत है, तेरा जौहर है ख़तरे में
 

7.

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फासले भी साथ चलते हैं

बहुत कमजर्फ़ था जो महफिलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साये ढलते हैं

वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं

कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़त1 निकलते हैं

हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुल वक्त2 होते हैं हवा के साथ चलते हैं

हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं
1.         क़त्लगाह की तरफ
2.         मौक़ा परस्त
 

8. 

ख़तरे में इस्लाम नही 

ख़तरा है जरदारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
 
सारी जमीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों
 
ख़तरा है खूंखारों को
रंग बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
 
आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में
बिक न सकेंगे हसरतों अमों ऊँची सजी दुकानों में
 
ख़तरा है बटमारों को
मग़रिब के बाज़ारों को
चोरों को मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
 
अम्न का परचम लेकर उठो हर इंसाँ से प्यार करो
अपना तो मंशूर1 है ‘जालिब’ सारे जहाँ से प्यार करो
 
ख़तरा है दरबारों को
शाहों के ग़मख़ारों को
नव्वाबों ग़द्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
1. घोषणा पत्र

9. 

मौलान 

बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना

खुदारा सब्र की तलकीन1 अपने पास ही रखें
ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना

नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्जा ढिठाई से
यही है जुर्म मेरा और यही तक़सीर2 मौलाना

हक़ीक़त क्या है ये तो आप जानें और खुदा जाने
सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना

ज़मीनें हो वडेरों की, मशीनें हों लुटेरों की
खुदा ने लिख के दी है आपको तहरीर मौलाना

करोड़ों क्यों नहीं मिलकर फ़िलिस्तीं के लिए लड़ते
दुआ ही से फ़क़त कटती नहीं जंजीर मौलाना
 1.         उपदेश
2.         पाप

 
10.


काम चले अमरीका का 
नाम चले हरनामदास का काम चले अमरीका का
मूरख इस कोशिश में हैं सूरज न ढले अमरीका का

निर्धन की आंखों में आंसू आज भी है और कल भी थे
बिरला के घर दीवाली है तेल जले अमरीका का

दुनिया भर के मज़लूमों ने भेद ये सारा जान लिया
आज है डेरा ज़रदारों के साए तले अमरीका का

काम है उसका सौदेबाज़ी सारा ज़माना जाने है
इसीलिए तो मुझको प्यारे नाम खले अमरीका का

ग़ैर के बलबूते पर जीना मर्दों वाली बात नहीं
बात तो जब है ऐ ‘जालिब’ एहसान तले अमरीका का
 

 

11.

गिया लहू लुहा 

हरियाली को आंखे तरसें बगिया लहू लुहान
प्यार के गीत सुनाऊँ किसको शहर हुए वीरान
बगिया लहू लुहान
 
डसती हैं सूरज की किरनें चांद जलाए जान
पग पग मौन के गहरे साये जीवन मौत समान
चारों ओर हवा फिरती है लेकर तीर कमान
बगिया लहू लुहान
 
छलनी हैं कलियों के सीने खून में लतपत पात
और न जाने कब तक होगी अश्कों की बरसात
दुनियावालों कब बीतेंगे दुख के ये दिन रात
ख़ून से होली खेल रहे हैं धरती के बलवान
बगिया लहू लुहान
 

12.

ता मंगेश्क 
(हैदराबाद सिंध जेल में लिखी गई) 

तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रैन हमारे
तेरी अगर आवाज़ न होती
बुझ जाती जीवन की ज्योती
तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे
जैसे सूरज चांद सितारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रैन हमारे
क्या क्या तूने गीत हैं गाए
सुर जब लागे मन झुक जाए
तुझको सुनकर जी उठते हैं
हम जैसे दुख दर्द के मारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रैन हमारे
मीरा तुझमें आन बसी है
अंग वही है रंग वही है
जग में तेरे दास है इतने
जितने हैं आकाश में तारे
तेरे मधुर गीतां के सहारे
कटते हैं दिन रैन हमारे
  

13. 

बीस घरान

 बीस घराने हैं आबाद
और करोड़ों हैं नाशाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
 
आज भी हम पर जारी है
काली सदियों की बेदाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
 
बीस रूपय्या मन आटा
इस पर भी है सन्नाटा
गौहर, सहगल, आदमजी
बने हैं बिरला और टाटा
मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं
जब हम करते हैं फ़रियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
 
लाइसेंसों का मौसम है
कंवेंशन को क्या ग़म है
आज हुकूमत के दर पर
हर शाही का सर ख़म है
दर्से ख़ुदी देने वालों को
भूल गई इक़बाल की याद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
 
आज हुई गुंडागर्दी
चुप हैं सिपाही बावर्दी
शम्मे नवाये अहले सुख़न
काले बाग़ ने गुल कर दी
अहले क़फ़स की कैद बढ़ाकर
कम कर ली अपनी मीयाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
 
ये मुश्ताके इसतम्बूल
क्या खोलूं मैं इनका पोल
बजता रहेगा महलों में
कब तक ये बेहंगम ढोल
सारे अरब नाराज़ हुए हैं
सीटो और सेंटों हैं शाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
गली गली में जंग हुई
ख़िल्क़त देख के दंग हुई
अहले नज़र की हर बस्ती
जेहल के हाथों तंग हुई
वो दस्तूर1 हमें बख़्शा है
नफ़रत है जिसकी बुनियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
1. संविधान

 

 

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