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क़ैफ़ी आज़मी

मकान


आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

 

ये ज़मी तब भी निगल लेने पे आमादा थी

पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने ।
इन मकानों को खबर है न मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हमने ।


हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हमने ।
की ये दीवार बलं,  और बलं,  और लंद,
बाम-ओ-दर और जरा और सँवार हमने ।

 

आँधियाँ तोड़ लिया करती थी म्‍ओं की लवें
जड़ दिये इसलिये बिजली के सितारे हमने ।
बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे खाक पे हम शोरिश--तामीर लिये ।

 

अपनी नस-नस में लिये मेहनत--पैहम की थक
बंद आंखों में इसी कस्र की तस्‍वीर लिये ।
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आंखों में खटकती है सियह तीर लिये ।

 

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

 


 








 



फ़र्

और फिर कृष्‍ण ने अर्जुन से कहा
न कोई भाई न बेटा न भतीजा न गुरु
एक ही शक्‍ल उभरती है हर आईने में
आत्‍मा मरती नहीं जिस्‍म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में

जिस्‍म लेते हैं जनम जिस्‍म फ़ना[1] होते हैं
और जो इक रोज़ फ़ना होगा वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है दूसरी बन जाती है
ख़त्‍म यह सिलसिल-ए-ज़ीस्‍त[2] भला क्‍या होगा

रिश्‍ते सौ, जज्‍बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं
फ़र्ज़ सौ चेहरों में शक्‍ल अपनी ही पहचानता है
वही महबूब वही दोस्‍त वही एक अज़ीज़
दिल जिसे इश्‍क़ और इदराक[3] अमल मानता है

ज़िन्‍दगी सिर्फ़ अमल सिर्फ़ अमल सिर्फ़ अमल
और यह बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है
अम्‍न की मोहनी तस्‍वीर में हैं जितने रंग
उन्‍हीं रंगों में छुपा खून का इक रंग भी है

जंग रहमत है कि लानत, यह सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गयी सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल[4]
इसी दोज़ख़ के किसी कोने में जन्‍नत होगी

ज़ख़्म खा, ज़ख़्म लगा ज़ख़्म हैं किस गिनती में
फ़र्ज़ ज़ख़्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज न राहत न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह

ख़ौफ़ के रूप कई होते हैं अन्‍दाज़ कई
प्‍यार समझा है जिसे खौफ़ है वह प्‍यार नहीं
उंगलियां और गड़ा और पकड़ और पकड़
आज महबूब का बाजू है यह तलवार नहीं

साथियो दोस्‍तो हम आज के अर्जुन ही तो हैं।

[1] नष्‍ट
[2] जीवन-क्रम
[3] बुद्धि
[4] तेज



 आगे पढें - दूसरा बनवास - क़ैफी आज़मी

 

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