मीर तक़ी 'मीर'
ग़ज़लें
45.
बेखुदी कहाँ ले गई हमको,
देर से इंतज़ार है अपना
रोते फिरते हैं सारी सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना
दे के दिल हम जो गए मजबूर,
इसमें क्या इख्तियार है अपना
कुछ नही हम मिसाल-ऐ- उनका लेक
शहर - शहर इश्तिहार है अपना
जिसको तुम आसमान कहते हो,
सो दिलो का गुबार है अपना
46.
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल, इस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हम-राह-ए-सबा टुक सैर करते, और हवा होते
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको
वगरना हम ख़ुदा थे, गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते
फ़लक, ऐ काश्! हमको ख़ाक ही रखता, कि उस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या किसी की ख़ाक-ए-पा होते
इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गार होती है, ख़ुदा होते
कहें जो कुछ मलामतगार, बजा है 'मीर' क्या जाने
उन्हें मालूम तब होता, कि वैसे से जुदा होते
46.
मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर
अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर
कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़
आया है अब मिज़ाज तेरा इम्तिहान पर
मोहताज को ख़ुदा न निकाले कि जू हिलाल
तश्हीर कौन शहर में हो पारा-नान पर
शोख़ी तो देखो आप कहा आओ बैठो "मीर"
पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़ुबान पर
47.
मेहर की तुझसे तवक़्क़ो थी सितमगर निकला
मोम समझे थे तेरे दिल को सो पत्थर निकला
दाग़ हूँ रश्क-ए-मोहब्बत से के इतना बेताब
किस की तस्कीं के लिये घर से तू बाहर निकला
जीते जी आह तेरे कूचे से कोई न फिरा
जो सितमदीदा रहा जाके सो मर कर निकला
दिल की आबादी की इस हद है ख़राबी के न पूछ
जाना जाता है कि इस राह से लश्कर निकला
अश्क-ए-तर, क़तरा-ए-ख़ूँ, लख़्त्-ए-जिगर, पारा-ए-दिल
एक से एक अदू आँख से बेहतर निकला
हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ अय 'मीर'
पर तेरा नामा तो एक शौक़ का दफ़्तर निकला
48.
मानिंद-ए-शमा मजलिस-ए-शब अश्कबार पाया
अल क़िस्सा 'मीर' को हमने बेइख़्तियार पाया
शहर-ए-दिल एक मुद्दत उजड़ा बसा ग़मों में
आख़िर उजाड़ देना उसका क़रार पाया
इतना न दिल से मिलते न दिल को खो के रहते
जैसा किया था हमने वैसा ही यार पाया
क्या ऐतबार याँ का फिर उस को ख़ार देखा
जिसने जहाँ में आकर कुछ ऐतबार पाया
आहों के शोले जिस् जाँ उठे हैं 'मीर' से शब
वाँ जा के सुबह देखा मुश्त-ए-ग़ुबार पाया
49.
मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर
मस्जिद में है क्या शेख़ पियाला न निवाला
गुज़रे है लहू वाँ सर-ए-हर-ख़ार से अब तक
जिस दश्त में फूटा है मेरे पांव का छाला
देखे है मुझे दीदा-ए-पुरचश्म से वो "मीर"
मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला
50.
मिलो इन दिनों हमसे इक रात जानी
कहाँ हम, कहाँ तुम, कहाँ फिर जवानी
शिकायत करूँ हूँ तो सोने लगे है
मेरी सर-गुज़िश्त अब हुई है कहानी
अदा खींच सकता है बहज़ाद उस की
खींचे सूरत ऐसी तो ये हमने मानी
मुलाक़ात होती है तो है कश-म-कश से
यही हम से है जब न तब खींचा तानी
51
'मीर' दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की
अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उसकी
बात की तर्ज़ को देखो तो कोई जादू था
पर मिली ख़ाक में सब सहर बयानी उसकी
अब गये उसके जो अफ़सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उसकी
52.
मुँह तका ही करे है जिस-तिस का
हैरती है ये आईना किस का
शाम से ही बुझा सा रहता है
दिल है गोया चिराग मुफलिस का
थे बुरे मुगबचा के तेवर लेक
शैख़ मयखाने से भला खिसका
ताब किस को जो हाल-ए-'मीर' सुने
हाल ही और कुछ है मजलिस का
53.
मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है 'या उस्ताद'
हमसे बिन मर्ग क्या जुदा हो मलाल
जान के साथ है दिल-ए-नाशाद
ख़ाक भी सर पे डालने को नहीं
किस ख़राबे में हम हुए आबाद
सुनते हो तुक सुनो कि फिर मुझ बाद
न सुनोगे ये नाला-ओ-फ़रियाद
हर तरफ़ हैं असीर हम-आवाज़
बाग़ है घर तेरा तो ऐ सय्याद
हमकोमरना ये है के कब होवे
अपनी क़ैद-ए-हयात से आज़ाद
54.
यार बिन तल्ख़ ज़िंदगानी थी
दोस्ती मुद्दई-ए-जानी थी
शेब में फ़ायदा त'म्मुल का
सोचना तब था जब जवानी थी
मेरे क़िस्से से सब की नींदें गईं
कुछ अजब तौर की कहानी थी
कू-ए-क़ातिल से बच के निकला ख़िज़्र
इसी में उसकी ज़िंदगानी थी
फ़ित्र पर भी था 'मीर' के इक रंग
कफ़नी पहनी तो ज़ाफ़रानी थी
55.
यारो मुझे मु'आफ़ करो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम खाली ही दो मैं नशे में हूँ
माज़ूर हूँ जो पांव मेरा बेतरह पड़े
तुम सरगिरॉं तो मुझसे न हो, मैं नशे में हूँ
या हाथों हाथ लो मुझे मानिन्द -ए-जाम-ए-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ
भागी नमाज-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछ
चलता हूं मैं भी, टुक तो रहो, मैं नशे में हूं
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56.
रही नगुफ़्ता मेरे दिल में दास्ताँ मेरी
न इस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी
बरंग-ए-सौत-ए-जरस तुझ से दूर हूँ तनहा
ख़बर नहीं है तुझे आह कारवाँ मेरी
उसी से दूर रहा अस्ल-ए-मुद्दा जो था
गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह रायगाँ मेरी
तेरे फ़िराक़ में जैसे ख़याल मुफ़्लिस का
गई है फ़िक्र-ए-परेशाँ कहाँ कहाँ मेरी
दिया दिखाई मुझे तो उसी का जल्वा "मीर"
पड़ी जहां में जा कर नज़र जहाँ मेरी
57.
शब वह जो पिये शराब निकला
जाना यह कि आफ़्ताब निकला
क़ुरबान-ए-पियाला-ए-मै-ए-नाब
जिससे कि तेरा हिजाब निकला
मस्ती में शराब की जो देखा
आलम ये तमाम ख़्वाब निकला
शैख़ आने को मै-क़दे आया
पर हो के बहुत ख़राब निकला
था ग़ैरत-ए-बादा अक्स-ए-गुल से
जिस जू-ए-चमन से आब निकला
58.
शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का
अल-क़िस्सा रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन हुआ है जाँ का
दी आग रंग-ए-गुल ने वाँ ऐ सबा चमन को
याँ हम जले क़फ़स में सुन हाल आशियाँ का
हर सुबह मेरे सर पर इक हादिसा नया है
पैवंद हो ज़मीं का, शेवा इस आसमाँ का
कम-फ़ुर्सती जहाँ के मज्मा की कुछ न पूछो
अहवाल क्या कहूँ मैं, इस मज्लिस-ए-रवाँ का
या रोये, या रुलाये, अपनी तो यूँ ही गुज़री
क्या ज़िक्र हम सफ़ीरां याराँ-ए-शादमाँ का
क़ैद-ए-क़फ़स में हैं तो ख़िदमत है नालिगी की
गुलशन में थे तो
हमको
मंसब था रौज़ाख्वाँ
का
पूछो तो 'मीर' से क्या कोई नज़र पड़ा है
चेहरा उतर रहा है कुछ आज उस जवाँ का
60.
शेर के पर्दे में मैंने ग़म सुनाया है बहुत
मर्सिये ने दिल को मेरे भी रुलाया है बहुत
वादी-ओ-कोहसर में मैं रोता हूँ धाड़े मार-मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझको सताया है बहुत
वा नहीं होता किसी से दिल गिरिफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरा ग़म-गीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत
61.
सहर गह-ए-ईद में दौर-ए-सुबू था
पर अपने जाम में तुझ बिन लहू था
जहाँ पुर है फ़साने से हमारे
दिमाग़-ए-इश्क़ हमको भी कभू था
गुल-ओ-आईना क्या ख़ुर्शीद-ओ-माह क्या
जिधर देखा उधर तेरा ही रू था
62.
हम जानते तो इश्क न करते किसू के साथ,
ले जाते दिल को खाक में इस आरजू के साथ।
नाजां हो उसके सामने क्या गुल खिला हुआ,
रखता है लुत्फे-नाज भी रू-ए-निकू के साथ।
हंगामे जैसे रहते हैं उस कूचे में सदा,
जाहिर है हश्र होगी ऐसी गलू के साथ।
मजरूह अपनी छाती को बखिया किया बहुत,
सीना गठा है 'मीर' हमारा रफू के साथ.
63.
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम थाम लिया
खराब रहते थे मस्जिद के आगे मयखाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी का इंतक़ाम लिया
वो कज-रविश न मिला मुझसे रास्ते में कभू
न सीधी तरह से उसने मेरा सलाम लिया
मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
पर मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया
64.
हर जी हयात का, है सबब जो हयात का
निकले है जी उसी के लिए, कायनात का
बिखरे हैं जुल्फी, उस रूख-ए-आलम फ़रोज पर
वर्न:, बनाव होवे न दिन और रात का
उसके फ़रोग-ए-हुस्न से, झमके है सबमें नूर
शम्म-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
क्यों मीर तुझ को नाम: सियाही की फ़िक्र है
ख़त्मे-ए-रूसुल सा शख्स है, जामिन नजात का
65.
हस्ती अपनी हबाब की सी है ।
ये नुमाइश सराब की सी है ।।
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है ।
बार-बार उस के दर पे जाता हूँ,
हालत अब इज्तेराब की सी है ।
मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़,
उसी ख़ाना ख़राब की सी है ।
‘मीर’ उन नीमबाज़ आँखों में,
सारी मस्ती शराब की सी है ।
66.
होती है अगर्चे कहने से यारों पराई बात
पर हमसे तो थमी न कभू मुँह पे आई बात
कहते थे उससे मिलते तो क्या-क्या न कहते लेक
वो आ गया तो सामने उसके न आई बात
बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मेरे
पोशीदा क्या रही है किसू की उड़ाई बात
इक दिन कहा था ये के ख़ामोशी में है वक़ार
सो मुझसे ही सुख़न नहीं मैं जो बताई बात
अब मुझ ज़ैफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझसे किसू की उठाई बात
67.
उल्टी हो गईं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे थे सुबह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया
सरज़द हमसे बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सिज्दा हर हर गाम किया
किसका काबा, कैसा किब्लाा, कौन हरम है क्याह एहराम कूचे के उसके बाशिन्दों
ने, सबको यहीं से सलाम किया
याँ के सुपैद-ओ-सियह में हमको दख्ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को जूं-तूं शाम किया
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी 'मीर' - 5
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