सुबह से तीन बार रपट चुकी थीं वे।
एक बार, किचेन में टँगी जाली की आलमारी से खीर के लिए इलायची की
डिब्बी निकालते हुए। दूसरी बार, पूजा वाले ताख से भभूती उतारते हुए।
और तीसरी बार -- बाथरूम में गीला तौलिया टाँगते हुए। न, कुछ खास
नहीं, बस जरा-सी कूल्हे में चिलक ..थोडी छिली, रक्ताभ कोहनी और कनपटी
पर आलमारी के कोने की खरोंच ...
लेकिन चोट के दंश और घाव की पीडा सहलाने का होश और फुरसत कहाँ?
पति पर इस समय पिता हावी है। उनकी चोट से ज्यादा, एयरपोर्ट पहुँचने
में होती देर से चिंतित।
चिंताकुल पिता ने घडी देखते हुए, और हडबडाई उन्होंने एक हल्की कराह
के साथ मुस्कुराकर खडी होते हुए, एक ही वाक्य दुहराया है --
''पौने आठ तक एयरपोर्ट पहुँच जाना है।''
उसने लिखा तो बार-बार है कि आप लोगों को एयरपोर्ट आने की बिल्कुल
जरूरत नहीं। मेरे साथ कुछ और लोग भी हैं। आराम से पहुँच जाऊँगा।
पर यह भी कोई बात हुई कि अपनी धरती पर उसके पैर पडने के बाद भी पूरे
पौने दो घंटे वे दोनों बिना उसे देखे रह जायें!
और उसके घर आने के बाद भी अगर वे रसोई में घुसी, खीर-पूरी, सूखी-गीली
सब्जियाँ और किशमिश-छुहारे की चटनी बनाती रहीं तो उसके पास कैसे बैठ
पायेंगी?
पूरे सात सालों से तिलतिल कर काटते पल और तलफलाती उतावली का एक अनवरत
सिलसिला ...
पिता हो गए पति ने मौन तोडा --
''मेरा खयाल है कि अब हमें एकदम निकल लेना चाहिए। अरे थोडा-बहुत उसके
आने पर भी कर लोगी तो क्या ...क़ोई मेहमान है ...अपना बेटा ही तो
है।''
''हाँ, उनका बहुत अच्छा बेटा।''
सोचकर ही भीगी किशमिशें जैसे और मीठी हो आई। निकालकर छुहारे की चटनी
में मिलाई और उठ लीं।
हाँ, यह एयरपोर्ट गवाह है। इसमें समाये समय के प्रवाह को उलीचकर
देखें तो सब कुछ बह जाने के बाद भी उन जैसी माँओं की आँखों की कुछ
डबडबी बूँदें थमी रह जायेंगी, अपने-अपने समंदरों के सच की बानगी के
रूप में।
हाँ, यह एयरपोर्ट गवाह हैं। सब कुछ जुटापुटाकर उसे लैस कर दिया था,
सूटकेस से लेकर अचार बडियाँ तक।
आखिरी बार, आँखों से ओझल होने के पहले कुछ पल खडा रहा था। थम कर भरी
आँखों से देखा था फिर पलटकर चला गया था। सिक्योरिटी में। कितनी देर
लुटेपिटे-से खडे रहे थे दोनों ...फ़िर अचानक जमीन थर्राई और एयरपोर्ट
के काँच के दरवाजे कँपकँपाये ...अंदर की प्राणवायु को ही जैसे चीरते
हुए उड ग़या हवाई जहाज ...चलो लौटो ..क़ंधे पर पति हो आये पिता का हाथ
पडा था।
वे ही इस बार नन्हें बच्चे-से किलके ...''आ गया प्लेन।''
भीड पर भीड, चेहरे पर चेहरे, लेकिन बीचो-बीच से टकटोर लायी दृष्टि।
उचक-उचककर बच्चों की तरह देखते-देखते अचानक -- ''वह, वह रहा। ..''
वैसा ही संजीदा-शांत ...थोडा और निखर आया सा।
उसने जरा बाद में देखा। हाथ हिलाकर मुस्कुराया लेकिन परेशान भी हुआ
--
''अरे, मना तो किया था। खुद टैक्सी लेके आ जाता न।'' और एक विनम्र
लाचारी ...''थोड़ा टाइम लगेगा।''
तो क्या ...हुलसे दोनों। निहाल, बेहाल उसे देखते रहे ...इस खिडक़ी से
उस खिडक़ी जाते, कागज बढाते, क्लियर कराते। अंत में आ गया। एक
अपनत्व-भरी मुस्कान से दोनों को तृप्त करता। बेहद धीमे से ...साथ आये
लडक़ों को, आँखों में समझाया गया ..(माता-पिता की तरफ इशारा करके)
सॉरी, (अंग्रेजी में) मैं साथ नहीं आ पा रहा। ...ओ.के.!
लड़के जिन्दादिली से हाथ हिलाते पलट लिये ..वह इन लोगों के साथ टैक्सी
में आ बैठा। माँ की बगल में।
'' ...कैसी हो मम्मी!''
मगन, गदगद, रोमांच, विकल ..ख़ुशी का अतिरेक जैसे सीना फाडक़र निकल जाने
को आतुर।
''और आप पापा!''
''मैं?'' अचकचा कर आधे शर्माये, आधे पुलकित ...''मैं तो बेटा एकदम
फिट्ट हूँ। ये तुम्हारी मम्मी ही दिन-रात, कैसे होगा, कहाँ होगा,
कैसे खुद बनाके खाता-पीता होगा ..क़ह-कहकर बिसूरती रहती थी ..सोते,
जागते बस एक ही रट ..''
वह हँस दिया उसी संजीदगी से। लेकिन तत्क्षण एक सतर्क, एलर्टनेस
...उधेड-बुन-सी, इस, इतने प्यार के अतिरेक को कैसे सँभाला जाये
..क्या कुछ और कैसे कहा जाये!
तब तक माँ ही पूछ रही थी --
''तू बता, कैसा है ..''
''मैं?'' अटपटा-सा हो आया वह, फिर हँसकर, ''अच्छा हूँ ..एकदम
तुम्हारे सामने ..''
इतना छोटा-सा उत्तर! ..ज़ैसे बहुत बडी थाली में एक नन्हा-सा कौर!
लेकिन इससे बडा जवाब आखिर हो भी क्या सकता था!
अच्छा हुआ जो पिता ने तब तक इनफ्लेशन के बारे में पूछ लिया। वह
इनफ्लेशन के साथ टेररिज्म, सेफ्टी, सिक्योरिटी, कस्टम सिस्टम ...आदि
के बारे में बताता रहा। समझती हैं वे भी तो यह सब। फिर भी थोडी
इर्ष्या हुई पितृत्व से। दुर ...वे और पति क्या कोई दो हैं!
आ गया, आ गया घर। भर भी गया, बैगों, सूटकेसों और पैकेटों से। सब कुछ
के बीचों-बीच वे अचानक किंतर्तव्यविमूढ-सी खडी रह गयी हैं। क्या दें
सबसे पहले खाने को? खीर? दही? या फिर दूध में भींगे पुए। अमावट --
अमावट उसे बहुत पसंद हैं ...ग़जक भी तो ..उसकी सारी पसंद की चीजें घर
में ला-लाकर जमायी हुई हैं। लेकिन वह खायेगा क्या? कैसे मालूम हो?
बावली-सी उसके सामने ढेर सारी खाने की चीजों की सूची दुहरा गयीं।
थोडी ख़िसियाहट भी लगी। वह उसी तरह बेहद नरमी से मुस्कुराया, ''कुछ भी
दे दो पर जरा-सा ही ..प्लेन में खाया है ..''
क़ुछ भी ..क़ुछ भी आखिर क्या! इतनी सारी चीजों में, जो उसने सात सालों
में एक बार भी नहीं चखीं और उसे बहुत पसंद हैं, लेकिन अब दुबारा नहीं
पूछेंगी।
दौडी-दौडी ज़ाकर, थोडी-थोडी सारी चीजें ही एक प्लेट में सजा लायीं।
खुद पर खीझीं भी ..इतना कुछ एक साथ देखकर तो वह अभी ही ऊब जायेगा
...शायद कुछ भी न खा पाये। वही हूआ।
''अरे ..इतनी सारी चीजें!'' हँस गया वह जैसे किसी बच्चे ने प्लेट
थमाई हो। थोडा-सा कुछ लेकर प्लेट वापस कर दी। वे लजायीं, खिसियायी-सी
प्लेट वापस लेकर चली गयीं।
मन न माना।
''चाय बना दूँ?''
''रहने दो अभी ..क़ुछ खास मन नहीं।''
पति ने भी आँखों में बरजा -- तुम तो एकदम पीछे ही पड ग़यीं। सो चुप हो
लीं।
सब तरफ एक शांत, संजीदी चुप्पी पसरी हुई-सी। अचानक घर और बडा, और
खाली लगने लगा। कुछ इस तरह जैसे वे सब उस बहुत फैले खालीपन को भरने
के लिए एक-दूसरे से बचा-बचाकर जी-जान से कोशिश किये जा रहे हैं।
साथ-साथ ही डर भी कि कहीं उनमें से कोई यह सूनापन, भाँप न ले। लगातार
यह सोचते हुए कि अब क्या पूछा जाए, क्या कहा जाए ..क्या किया जाए!
तब तक उसे याद आया, ठहरो, मैं सूटकेस खोलता हूँ। और उसने विदेशी
लेबलों से लैस शर्ट, साडियाँ, घडी, पैंट जैसी तमाम चीजों के पैकेट
निकाल लिये। फिर उन्हें दो हिस्सों में कर, उन दोनों के सामने बढा
दिया ..''ये पापा आपके लिए ..और ये तुम्हारे लिए मम्मी ..'' फ़िर
थोडी-सी बची चीजें उनकी ओर बढाता बोला ..''ये सब जिसे-जिसे ठीक समझना
दे देना ..''
अब? जैसे एक और रास्ता बंद! फिर से बात खत्म!
इतने दिनों से जो कुछ एक तेज बहाव के साथ बह जाना चाहता था, वह सब
वहीं का वहीं दीवालों में चिन गया हो जैसे।
उफ! क्यों नहीं पूछतीं, क्यों नहीं कहती वह सब जिसके लिए पूरे सात
सालों से तरस रही थीं ..समेट लें उसका माथ अपनी गोदी में, दुलार लें
जी भर कर ...या फिर रो ही लें हिलककर ..क़ि कैसे आधी-आधी रातों, अचानक
बढी धडक़नों के बीच नींद खुल जाती ..एकदम से हौंस उठती कि तू क्या कर
रहा होगा। रात का दिन, दिन की रात होता है न वहाँ, तो जागा कि सोया
..क़ैसा लगता होगा ..और फिर एकदम से उसे देखने की बेकली तलफला उठती
...तकिया भीग जाता। पिता भी न जान पाते ..
लेकिन कहा सिर्फ इतना --
''नहायेगा तू?''
''ऊँ? नहा लूँ?''
''न मन हो तो रहने दे ..''
''हाँ, थोडी सुस्ती-सी लग रही है ..नींद भी।'' ओह ..क़ितनी स्वार्थी
हैं वे भी -- उसके जैट-लैग वाली बात तो एकदम भूल गई थीं। डेढ दिनों
के रात-दिन का उलटफेर ...उसे बुरी तरह थकान और नींद से बोझिल कर रहा
होगा।
हडबडी मच गयी उनके अंदर-बाहर। जल्दी से जल्दी खाना गर्म कर लगाने की
उतावली।
(या फिर उस सनाके से उबरकर अति व्यस्त हो जाने की तृप्ति!)
डोंगे पोंछे, सजाए। रसे का नमक दुबारा आँखें बचाकर चखा। हडबडी में दो
बार जलीं। दो बार जलते-जलते बचीं। तीन बार ऐनक रख-रखकर भूली। बिना
ऐनक काम करने की कोशिश में एकाध चीजें डोंगे से छलकीं भी।
सात साल पहले भी तो ये ही सारी चीजें बनायी थीं पर कुछ भी जला, छलका
नहीं था। रूआँसी-सी हो आयीं। पति को बुलाया।
वह भी दौडा आया। क्या? क्या हुआ? लाओ, मैं ले चलता हूँ। लेकिन तुमने
इतना सब क्यों बनाया ..सब कुछ एक साथ ही ..उसके कहे में प्यार ज्यादा
था या परेशानी और खीझ ..पर तुरंत के तुरंत वह सब छुपा, बुजुर्गियत से
भरी एक समझदार सहानुभूति झलकी उसके चेहरे पर।
सँभाल-सँभालकर वह मेज पर माँ को परसने में मदद करता रहा। ज्यादातर
चीज तो उनके भरपूर परसने के पहले ही लपककर ..''लाओ मैं खुद ले लेता
हूँ
न!'' ..यानी अपनी जरूरत मुताबिक, बहुत जरा-सा।
''अच्छा, बहुत अच्छा बना है सब कुछ। खीर रख देना, शाम को भी खाऊँगा
लेकिन अभी बस दो चम्मच।''
उन्होंने लक्ष्य किया, वह मुश्किल से खा पा रहा था, थकान, नींद से
बोझिल। ''जा, सो रह।'' ...तीन रातों का उलटफेर ..सो गया वह। पति भी।
वे टेबिल, किचन सलटाती रहीं। पोंछना-पाछना, बचा-खुचा समेटना। बीच-बीच
में जाकर हौले से कमरे में झाँक आना। कहीं उठा तो नहीं वह! कहीं जागा
तो नहीं! उसे कुछ चाहिए तो नहीं! शरीर थकान से लस्त लेकिन मन
बौडियाया पाखी। घूमफिर वही।
खीझकर खुद को ही फटकारा। अब जब मुहलत मिली है तो क्यों नहीं दो घडी
हाथ-पैर सीधे कर लेतीं? पहर बीतते न बीतते फिर शाम के चरखे शुरू हो
जायेंगे। सोचकर पड रहती हैं चटाई डाल ..वही उसके कमरे के आसपास। कहीं
उसे कुछ चाहिए हुआ तो? संकोच के मारे उन्हें जगायेगा नहीं, जानती
हैं।
पर पडे-पडे भी आँखें कहाँ झपीं। दृष्टि पंखे से बल्ब, बल्ब से
रोशनदान और रोशनदान से धूप के फूल टटकोरती रही। बचपन में दो के पहाडे
से भी पहले अध्दे, पौने के पहाडे रटाये गये थे। समय बिल्कुल उन्हीं
अध्दे-पौने के बीच से गुजर रहा था। एक-एक घडी ज़रूरत से ज्यादा टिकती
हुई। समय जैसे एक गुफा हो और वे घुट रही हों उसमें। शापित हो,
रोशनदान, घडी, पंखे और छनकर आते धूप के फूल टटकोरने के लिए। अचानक
रोशनदान पर नजर पडते ही
चिहुँक-सी गई। कहीं धूप की चौंध तो नहीं आ रही उसके बिस्तर पर!
बिस्तर पर, तो आँखों पर भी। उसे पर्दे खींचने को कह देना था।
चलो खिडक़ी या पर्दा बंद कर दूँ बहुत आहिस्ते से ..
और जग गया वह। कुनकुनाकर उठा। अपराधिनी-सी पकडी ग़ई वे। कोसने लगीं
खुद को ही ..ज़ाने मुझे क्या सूझी पर्दा खिसकाने की ..लेकिन वह संयत
भाव से उठ जाता है ..''क़ोई बात नहीं, फिर सो
लूंगा ..''
''चाय लाऊँ?''
''हाँ ..लाओ ..''
उनके जाने पर वह नींद से बोझिल आँखों पर पानी डालता रहा।
वे उमगती हुई, चाय के साथ वापस ढेर सारी चीजें सजा लाती है।
''ओह मम्मी ..'' वह परेशान-सा हँसता रहता है, ''अभी इतना तो खाया न
..बस चाय ..''
उनके चेहरे की अकुलाहट लक्ष्य करता वह खुद ही चुप्पियों के बीच बडे
यत्न से पूछता है ..''और मम्मी ..क़ैसे हैं सब लोग ..''
बवंडर, तूफान, आँधी ..क़ैसी हलकोर-सी मचाता है यह सवाल! यहीं एक वाक्य
जब वह महीने पंद्रह दिनों पर फोन पर पूछता था तो उनका रोम-रोम तृप्त
हो जाता था ..सवाल अपने आप में एक खुशखबरी हुआ करता था। उतनी दूर से
वह सबकी कुशल-क्षेम के लिए अधीर है ..आधे मिनट में, वे जल्दी से सभी
के कुशल-क्षेम, आशीष पहुँचाती ..विभोर, गद्गद यह भी, कि वह चिंता न
करे, अच्छे से रहे ..ओ। के। मम्मी ..''
लाइन कट जाती थी। उसकी आवाज का छोर हाथ से छूट जाता था। तब भरपूर
तृप्ति के बीच भी अंदर एक बेबसी निचुडती थी। वह कितना कुछ पूछना
चाहती हैं! वे कितना कुछ बताना चाहती हैं ..लेकिन!
लेकिन आज जब वह एकदम उनके पास आ गया और पूरे इत्मीनान से चाय की
चुस्कियों के साथ पूरा समय देता, उनसे पूछ रहा है ..''और मम्मी कैसे
हैं सब लोग!'' तो वे एकदम चुप-सी हो रही हैं। उन्हें लगने लगता है
जैसे इस सवाल के साथ जुडे सारे सरोकार खत्म हो चुके हैं।
नहीं ..छिः! यह बात नहीं। असल में उनकी समझ में नहीं आ रहा कि इस
सवाल के जवाब के सिलसिले को कहाँ से शुरू करें। फोन पर अच्छा रहता
था, एकदम हडबडी में जल्दी से काटकर थमाया, समय का एक छोटा टुकडा भर
ही ..लेकिन अब? समय तो इफरात है फिर भी ..फ़िर क्यों नहीं निश्चय कर
पा रहीं कि कितना बडा या कितना छोटा जवाब उसे चाहिए ..
हठात उन्हें लगता है, सारे अंतहीन सिलसिले एकदम से खत्म होने को आ
गए।
समझ रहा है। शायद वह भी। इसलिए मन-मन कुछ ठीक-ठाक, ज्यादा विश्वसनीय
सवालों के जुगाड क़र रहा है .आत्मीयता और सरोकार भरे।
''बिजनौर वाली मामी कैसी है मम्मी? ..और रचना की शादी ..''
''बात तो चल रही थी कई जगहों पर। जो भी लडक़े अच्छे मिलते हैं, उनकी
उम्र रचना से कम ही ठहरती है ..दद्दा के गुजरने के बाद खुद भी इधर
बीमार ही चल रही हैं ..''
''ओह ..एक दिन जाकर आऊँगा ..और अविनाश चाचा? रतलाम वाले फूफा जी?
उनके भाई ..उनकी लडक़ी ..उनके देवर ..''
ग़ढी हुई जिज्ञासाओं का एक समूचा सिलसिला। सवाल ऐसे चल रहे हैं जैसे
रूक-रूककर किसी तरह मरम्मत करके चलाने के लायक बनाए गए कलपुर्जे नहीं
साहब ..ठीक-ठाक तो हैं ..बढिया से काम ले दे रहे हें कलपुर्जे ..
एक अजीब-सी घबराहट पसर रही है। अब इसके बाद? क्या सचमुच सारे सिलसिले
खत्म! ..क्या इन्हें वापस उस छोर से नहीं बाँधा जा सकता, जहाँ ऊदे
स्वेटर पर सफेद ऊन से उसके नाम का पहला अक्षर बुन दिये जाने पर उसके
आँखों की खुशी छुपाये नही छुपती थी ..ड़र भी तो नहीं छुपता था, जब
अगिया-बैताल का डरावना सपना देखकर उनकी बाहों में दुबक जाता था। या
फिर दवात सहित पूरी स्याही उलट जाने पर, पापा तक बात न पहुँच पाने का
वायदा ..इन जैसे या इसके अलावा भी, कही भी जाने, कुछ भी पाने की
आश्वस्ति। सीधा हठ, सीधा आक्रोश और सीधा प्यार पाना या जताना भी इतना
कठिन-सा क्यों हो उठा है? ..
क़हीं ये सिलसिले एकतरफा तो नहीं हो गए हैं? मात्र उनकी भावनात्मक
तृप्ति के लिए जुटायी जाने वाली समिधा! अन्यथा जो कुछ है, जितना भी,
वह खुलकर सामने क्यों नहीं आता! ..
अचानक उन्हें लगा, इतना आसान नहीं है किसी रिश्ते को एकदम पोटली की
तरह खोल देना ..ख़ोलकर भर हाथों चारों ओर छितरा देना खुद वे ही क्या
कर पा रही हैं! शायद कुछ रिश्ते जिंदगी की नींव का काम देते हैं। फिर
नींव चिनती चली जाती है और ऊपर पुख्ता दीवारें उठती चली जाती हैं। एक
नई इमारत, एक नई दुनिया आपसे आप। एक विकास यात्रा, उम्र के पडावों पर
ठहर-ठहरकर चलती हुई।
एक तरफ केंचुल-सी छूटती जाती उम्र और दूसरी तरफ अतीत की गली में
भटकते माँ-बाप ..
सात वर्ष का लंबा समय उसे भी बहुत आगे ले जा चुका है। अब उसे बहुत
झुककर बहुत पीछे मुडक़र छूनी पडती है, एक-एक छूटी चीज, रिश्ते,
प्राथमिकताएँ ...और वह किस कदर बेइंतहा कोशिश कर रहा है ..
हठात दया-सी हो आई उस पर। एक अन्याय-सा होता लगा।
टटोला ..
''तू ..थक गया होगा न!''
''न ..नहीं तो ..बल्कि तुम ज्यादा थकी लग रही हो ..मैं तो अभी कितनी
भी देर बातें कर सकता हूँ तुमसे ..''
उफ! कितनी जद्दोजहद के बीच से की गई एक ईमानदार कोशिश। ''तुझे सब कुछ
बदला-सा लग रहा होगा न!'' वह झिझका, सहमा ..''अँ? हँ ऽऽ आँ
...थोडा-थोडा। बहुत दिनों बाद लौटा हूँ न।''
उन्हें लगा, पूछ पाता तो शायद यह भी पूछता और कितने पीछे लौटा ले
जाना चाहती हो तुम मुझे ..आगे-पीछे एक साथ चलने में मुश्किल भी तो
पडती है ..तुम्हारे लिए आसान हैं माँ, निरंतर पीछे की अतीतगामी
यात्राएँ ..क्योंकि वर्तमान और सामने आते भविष्य का अकेलापन और
सन्नाटा तुम्हें आतंकित करता है ..इसलिए तुम निरंतर चहल-पहल भरे अतीत
में ही पनाह ढूँढती हो। ..लेकिन मैं ..मैं तो सिर्फ अतीत या वर्तमान
में नहीं रूक सकता न! मेरे लिए तो समय और उम्र चढ़ते हुए सूरज की
सीढ़ियाँ हैं।
बेल बजी -- सिर्फ पिता रह गए पति लौट आये थे। ..एक छुटकारे की सी
साँस, हल्की हो आई। लेकिन तत्क्षण अपने आप से कोई चोरी-सी करते पकड
ज़ाने का अहसास!
हल्कापन यानी छुटकारा? --
अपने बहुत अच्छे बेटे के पास से हट आने पर!
वह साढे तीन दिन रहा।
वे चिमटे, कलछी से हाथ जलाती, पुए तलती रहीं। बादाम की कतलियाँ
बुरकती रहीं। उससे कपडे बाथरूम में छोड देने की जिद करती रहीं।
उसे, सात साल से छूटी कपडे क़ी आलमारी में कपडे टाँगते, शीशे में कंघी
करते देखती रही ..देख-देखकर निहाल होती रहीं। जगते में ही नहीं सोते
में भी ...बीच-बीच में कमरे में झाँक, देख जाती रहीं।
लेकिन अंतिम दिन, आधी रात जब उद्विग्न पिता ने डूबी-सी आवाज में उनके
कंधे पर हाथ धर कर कहा -- '' ..क़ैसा लगता है न ..क़ल चला जाएगा वह
..''
तो उनकी आँखों में जो दो भरपूर आँसू डबडबा आये, उन्हें पिता ने शायद
नहीं समझा। पिता ने समझा, यह तो होना ही था। बेटा जाता है सुबह, फिर
न जाने कितने सालों के लिए!
इसलिए दिलासे की थपकी दी ..घबराओ नहीं, फिर से कुछ ही सालों में
लौटकर आयेगा न, जैसे इस ..
छाती पर जैसे कोई समंदर हरहरा उठा। पछाड ख़ा-खाके लहरें चकनाचूर होती
रहीं ..बोल पातीं तो कहतीं ..नहीं ..और कितनी बार लौटायेंगे हम उसे
और कहाँ तक ..