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दोपहर का भोजन


अमरकांत

सिध्देश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उंगलियां या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।

अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।

आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पडी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आंखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लडक़े प्रमोद पर जम गई।

लडक़ा नंग-धडंग़ पडा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियां साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककडियों की तरह सूखे तथा बेजान पडे थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियां उड रही थीं।

वह उठी, बच्चे के मुंह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खडी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड क़ी आड से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।

दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खडी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कडी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड से काफी आगे बढाकर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बडा लडक़ा रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।

उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहां पीढा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।

रामचंद्र आकर धम-से चौंकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुंह लाल तथा चढा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।

सिध्देश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भांति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चार भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा - बडक़ू, बडक़ू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लडक़े की नाक के पास हाथ रख दिया। सांस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आंखें खोलीं। पहले उसने मां की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, ''खाना तैयार है। यहीं लगाऊं क्या?''
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ''बाबू जी खा चुके?''
सिध्देश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ''आते ही होंगे।''

रामचंद्र पीढे पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बडी-बडी आंखें तथा होठों पर झुर्रियां।

वह एक स्थानीय दैनिक समचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिध्देश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भांति देखा। कुल दो रोटियां, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।

रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकडे क़ो निगलते हुए पूछा, ''मोहन कहां हैं? बडी क़डी धूप हो रही है।''
मोहन सिध्देश्वरी का मंझला लडक़ा था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिध्देश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहां गया है।
किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, ''किसी लडक़े के यहां पढने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बडा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।''
रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकडा मुंह में रखकर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकडे तोडक़र उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।

सिध्देश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ''वहां कुछ हुआ क्या?''
रामचंद्र ने अपनी बडी-बडी भावहीन आंखों से अपनी मां को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रूखाई से बोला, ''समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।''

सिध्देश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आंगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकडे पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खडख़डिया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की सांस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।

रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ''प्रमोद खा चुका?''
सिध्देश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, ''हां, खा चुका।''
''रोया तो नहीं था?''
सिध्देश्वरी फिर झूठ बोल गई, ''आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बडा ही होशियार हो गया है। कहता था, बडक़ा भैया के यहां जाऊंगा। ऐसा लडक़ा..''
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवडी ख़ाने की जिद पकड ली थी और उसके लिए डेढ घंटे तक रोने के बाद सोया था।

रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी मां की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकडा शेष रह गया, तो सिध्देश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ''एक रोटी और लाती हूं?''
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबडाकर बोल पडा, ''नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूं। बस, अब नहीं।''
सिध्देश्वरी ने जिद की, ''अच्छा आधी ही सही।''
रामचंद्र बिगड उठा, ''अधिक खिलाकर बीमार डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?''
सिध्देश्वरी जहां-की-तहां बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकडे से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, ''पानी लाओ।''

सिध्देश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उंगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकडे क़ो धीरे-से हाथ से उठाकर आंख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकडे क़ो मुंह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीडा हो।

मंझला लडक़ा मोहन आते ही हाथ-पैर धोकर पीढे पर बैठ गया। वह कुछ सांवला था और उसकी आंखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड रहा था।
सिध्देश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, ''कहां रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।''
मोहन ने रोटी के एक बडे ग़्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, ''कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।''
सिध्देश्वरी वहीं बैठकर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बडबडा रही हो, ''बडक़ा तुम्हारी बडी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बडा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढने में ही लगी रहती है।'' यह कहकर उसने अपने मंझले लडक़े की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।

मोहन अपनी मां की ओर देखकर फीकी हंसी हंस पडा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।

सिध्देश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लडक़ों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आंखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।

थोडी देर बाद उसने मोहन की ओर मुंह फेरा, तो लडक़ा लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिध्देश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, ''एक रोटी देती हूं?''
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, ''नहीं।''
सिध्देश्वरी ने गिडग़िडाते हुए कहा, ''नहीं बेटा, मेरी कसम, थोडी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।''
मोहन ने अपनी मां को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, ''नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियां तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोडी दाल दे दे। दाल बडी अच्छी बनी है।''

सिध्देश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
मोहन कटोरे को मुंह लगाकर सुड-सुड पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए। सिध्देश्वरी ने माथे पर साडी क़ो कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक सांस में पीकर तथा पानी के लोटे को हाथ में लेकर तेजी से बाहर चला गया।

दो रोटियां, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढे पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढी ग़ाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगत थे। शरीर का चमडा झूलने लगा था, गंजी खोपडी अाईने की भांति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोडा सुडक़ते हुए पूछा, ''बडक़ा दिखाई नहीं दे रहा?''
सिध्देश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है - जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, ''अभी-अभी खाकर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।''
मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, ''ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बडा पागल है।''
सिध्देश्वरी पर जैसे नशा चढ ग़या था। उन्माद की रोगिणी की भांति बडबडाने लगी, ''पागल नहीं हैं, बडा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बडी ऌज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बडी ऌज्जत होती हैं, पढने-लिखनेवालों में बडा आदर होता है और बडक़ा तो छोटे भाइयों पर जान देता हैं। दुनिया में वह सबकुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।''
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हंसकर कहा, ''बडक़ा का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लडक़पन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लडक़े काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?'' यह कहकर वह अचानक जोर से हंस पडे।

मुंशी जी डेढ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युध्द कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढा गए। फिर खर-खर खांसकर खाने लगे।
फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।

सिध्देश्वर की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धडल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जाकर आज शाम को तोडने वाले हों।
सिध्देश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, ''मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।''
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, ''मक्खियां बहुत हो गई हैं।''
सिध्देश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, ''फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, ''गंगाशरण बाबू की लडक़ी की शादी तय हो गई। लडक़ा एम।ए। पास हैं।''
सिध्देश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिध्देश्वरीने पूछा, ''बडक़ा की कसम, एक रोटी देती हूं। अभी बहुत-सी हैं।''
मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छंटे उस्ताद की भांति बोले, ''रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूं। गुड होगा क्या?''
सिध्देश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड है।
मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, ''तो थोडे गुड क़ा ठंडा रस बनाओ, पीऊंगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हां, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।'' यह कहकर वे ठहाका मारकर हंस पडे।

मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिध्देश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उडेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोडी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लडक़े को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकडाें में विभाजित कर दिया। एक टुकडे क़ो तो अलग रख दिया और दूसरे टुकडे क़ो अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुंह में रखा और तब न मालूम कहां से उसकी आंखों से टप-टप आंसू चूने लगे।

सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आंगन की अलगनी पर एक गंदी साडी टंगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बडे लडक़ों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुंह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छंटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।
 

 

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