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सिध्देश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के
बीच सिर रखकर शायद पैर की उंगलियां या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने
लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की
तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढा गई। खाली पानी उसके कलेजे
में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पडी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई,
आंखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले
पर सोए अपने छह वर्षीय लडक़े प्रमोद पर जम गई।
लडक़ा नंग-धडंग़ पडा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियां साफ दिखाई देती थीं।
उसके हाथ-पैर बासी ककडियों की तरह सूखे तथा बेजान पडे थे और उसका पेट
हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियां
उड रही थीं।
वह उठी,
बच्चे के मुंह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न
खडी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड क़ी आड से गली निहारने लगी। बारह
बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा
रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खडी रही,
फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कडी धूप की ओर चिंता
से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड से काफी आगे बढाकर गली के छोर
की तरफ निहारा, तो उसका बडा लडक़ा रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर
आया।
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके
में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहां पीढा
रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आकर धम-से चौंकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका
मुंह लाल तथा चढा हुआ था,
उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिध्देश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत
हिरनी की भांति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु,
लगभग दस मिनट बीतने के पश्चार भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास
जाकर पुकारा - बडक़ू, बडक़ू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लडक़े
की नाक के पास हाथ रख दिया। सांस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर
देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आंखें खोलीं। पहले उसने
मां की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे
रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ
गया।
रामचंद्र पीढे पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा,
दुबला-पतला, गोरा रंग, बडी-बडी आंखें तथा होठों पर झुर्रियां।
वह एक स्थानीय दैनिक समचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का
काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकडे क़ो निगलते हुए पूछा,
''मोहन कहां हैं? बडी क़डी धूप हो रही है।''
सिध्देश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण
बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा,
''वहां कुछ हुआ क्या?''
सिध्देश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आंगन के ऊपर आसमान
में बादल में एक-दो टुकडे पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से
गुजरते हुए एक खडख़डिया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की
सांस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा,
''प्रमोद खा चुका?''
रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी मां की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके
कुछ तेजी से खाने लगा।
सिध्देश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उंगलियों से
बजाया,
फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकडे क़ो धीरे-से हाथ
से उठाकर आंख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकडे क़ो मुंह में
इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीडा हो।
मंझला लडक़ा मोहन आते ही हाथ-पैर धोकर पीढे पर बैठ गया। वह कुछ सांवला था और
उसकी आंखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह
दुबला-पतला था,
किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई
पड रहा था।
मोहन अपनी मां की ओर देखकर फीकी हंसी हंस पडा और फिर खाने में जुट गया। वह
परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश
तरकारी साफ कर चुका था।
सिध्देश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लडक़ों से उसे
बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आंखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।
थोडी देर बाद उसने मोहन की ओर मुंह फेरा,
तो लडक़ा लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिध्देश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
दो रोटियां,
कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढे पर पालथी
मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढी ग़ाय
जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के
लगत थे। शरीर का चमडा झूलने लगा था, गंजी खोपडी अाईने की भांति चमक रही थी।
गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी डेढ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युध्द कर रहे थे। कठिनाई
होने पर एक गिलास पानी चढा गए। फिर खर-खर खांसकर खाने लगे।
सिध्देश्वर की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी
चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले
की तरह धडल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने
कैसा भय समाया हुआ था।
मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिध्देश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की
जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उडेल दिया,
पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोडी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास
खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी
बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि
अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लडक़े को
कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकडाें में विभाजित कर दिया।
एक टुकडे क़ो तो अलग रख दिया और दूसरे टुकडे क़ो अपनी जूठी थाली में रख लिया।
तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुंह में रखा और
तब न मालूम कहां से उसकी आंखों से टप-टप आंसू चूने लगे।
सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आंगन की अलगनी पर एक गंदी साडी टंगी
थी,
जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बडे लडक़ों का कहीं पता नहीं था। बाहर की
कोठरी में मुंशी जी औंधे मुंह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ
महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छंटनी न हुई हो
और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो। |
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