ज्वार
संजीव
माँ
बताती थीं कि हम फरीदपुर के
`सोनारदीघी'
गाँव से आये हैं,
जो
अब पाकिस्तान है। सन्
71
में
`बांग्लादेश'
बन
जाने के बाद भी वे इसे
`पाकिस्तान'
ही
कहती रहीं। उस पार से आये कई बंगाली
`ओ
पार बांगला,
ए
पार बांगला'
(उस
पार का बंगाल,
इस
पार का बंगाल) कह कर दोनों को जोड़े रहते,
माँ ही ऐसा न कर सकीं। जाने कौन-सी ग्रंथि थी! ऐसा भी नहीं कि
`उस
पार'
के
लिए उन्होंने अपने खिड़की-दरवाजे पूरी तरह से बंद कर लिए थे।
`इस
पार'
आ
जाने के बाद भी काफी दिनों तक उनकी जड़ें तड़पती रहीं वहाँ के खाद-पानी के
लिए - वे लहलहाते धान के खेत,
नारियल के लंबे-ऊंचे पेड़,
आम-जामुन के स्वाद,
चौड़ी-चौड़ी हिलकोरें लेती नदियाँ,
नदियों के पालने में झूलती नावें,
रात में नावों से उड़-उड़ कर आते भटियाली गीत -
मॅन माझी तोर बइठाले रे,
आमी आर बाइते पारलॉम ना;
बाइते-बाइते जीवॅन गेलो,
कूलेर देखा पाइलाम ना।
(हे
मन के माझी,
अपनी डाँड़ संभालो,
मुझसे अब और नहीं खेया जाता। खेते-खेते जीवन बीता,
लेकिन कहीं किनारा नहीं दिखा...।)
छुलक-छुलक पानी की आवाज मानो ताल देती और गीत की टेर दिगंत तक फैलती जाती!
मॉं अक्सर उन
`टोंगा'
(मचानों)
का जिक्र करती,
जिन पर पानी से बचने के लिए पूरा परिवार बैठा होता। आम जामुन के साथ-साथ
कभी-कभी
`सिलेट
करवे'
के
कमला नींबू की याद करतीं जिनके सामने दार्जिलिंग और नागपुर के संतरे उन्हें
फीके लगते। मछलियाँ तो मछलियाँ,
कच्चू डाँटा (अरबी की डंठल) मोचाई (केले के फूल) ओल (सूरन) की ऐसी उम्दा
सब्जी बनातीं कि हमें पूछना पड़ता,
`माँ
तुमने इतनी बढ़िया तरकारी बनाना कहाँ से सीखा?'
`वहीं
से,
वहाँ की औरतों के बारे में कहावत है कि जूते का तलवा भी राँध दें तो खाने
वाले उंगलियाँ चाटते रह जाएँ।'
`सारा
कुछ अच्छा ही अच्छा था तो आप लोग चले क्यों वहाँ से ?'
हम
पूछते। माँ हर बार इस प्रश्न पर मौन साध लेतीं -
मैं कभी इसके पहले
`सोनारदीघी'
आयी नहीं लेकिन माँ ने इतनी बार इन चीजों का जिक्र किया था कि मन के किसी
अंत:पुर में एक सोनारदीघी बस गया है जहाँ सुविधानुसार मैं कभी नारियल,
सुपारी के पेड़ों को एक ओर कर देती कभी दूसरी ओर। कभी नदी को बगल में ले
आती,
कभी दूर कर देती। कभी सारा परिवेश ही कच्चू के बड़े-बड़े पत्तों से भर जाता,
और
कभी आम-जामुन के पेड़ों से...। आज सोनारदीघी आते हुए मेरे कल्पना-लोक में
बार-बार खलल पड़ रहा है। नदी भी है,
पेड़-पल्लव भी हैं,
मगर कुछ अलग-से। लुंगियाँ पहने पुरुष,
धोती एक भी नहीं। अलबत्ता औरतें साड़ी में ही हैं। वह स्कूल जो अभी भी है,
मगर पक्का बन गया है - माँ ने यहीं ककहरा सीखा होगा। दूसरा स्कूल भी तो हो
सकता है?
ज्यादा टोक-टाक ठीक नहीं।
सन्
47
में पार्टीशन के समय सिर्फ माँ,
नानी और नाना ही बॉर्डर पार कर पाये थे। दंगाइयों ने मझली मौसी का अपहरण कर
लिया था,
एक
मामा मार डाले गये थे,
बाकी छोटी मौसी और बड़के मामा वगैरह जैसे-तैसे जान बचा कर लौट गए थे
सोनारदीघी। स्थिति सामान्य होने पर वे मिलने आये। तब तक हम बर्द्धमान में
बस गये थे। मेरा जन्म बांग्लादेश बन जाने के बाद हुआ था। पाँच साल की हुई
तभी अणिमा दी को देखा था। छोटकी मौसी अपनी इस सात साल की बेटी को लेकर अपने
इस परिवार से मिलने आई थीं। आज अणिमा दी को छोड़कर उस परिवार में कोई नहीं
बचा। वे अपनी ससुराल से वापस सोनारदीघी आ गई थीं। पत्रों से इतना भर ही
मालूम हुआ था। ये भी दस साल पहले की बातें। अब तो सालों से पत्रों का
सिलसिला भी टूटा हुआ है।
क्या पता,
कितने हिन्दू बचे हैं यहाँ। सुना था,
बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद बहुत से मंदिर तोड़ डाले गए थे। अभी तक इस
रास्ते में एक भी मंदिर नहीं मिला। खालिदा ज़िया के शासनकाल में मौलवाद फिर
से लौट आया है। कैसे रहती होंगी अणिमा दी?
क्या खूब विडम्बना है?
हमें भी यहाँ पश्चिम बंगाल में
`ईस्ट
बंगाल'
का
माना जाता है -
`बांगाल।'
मोहन बागान और ईस्ट बंगाल की फुटबाल प्रतियोगिता में
`घोटी-बॉटी'
(कलश-कटोरे)
या
`ईस्ट-वेस्ट'
का
फर्क पूरी तरह से प्रेसीपिटेट कर जाता है। लोग हमारी जाति तक पर शक करते
हैं। बेचारी अणिमा दी अपनी ही जन्म-भूमि,
अपने ही वतन में विजातियों,
विधर्मियों के बीच निर्वासन भोगने को अभिशप्त हैं। हम इत्ता-सा बर्दाश्त
नहीं कर पाते,
`बांगाल'
कहते ही तिलमिला उठते हैं। कैसे सहती होंगी दीदी इसे आठों पहर?
मैं एक मुहाज़िब ज़ैनुल को जानती हूँ,
उसका बाप बिहार से बांग्लादेश गया था,
जो
तब पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था। मुक्ति संग्राम के बाद फिर उसे भाग कर
पश्चिमी पाकिस्तान जाना पड़ा। उनकी वफ़ादारी पर भारत में भी शक किया गया,
बांग्लादेश में भी और पाकिस्तान में भी...! उसने धर्म को एक मुकम्मिल और
भरोसेमंद आइडेंटिटी एवं सुरक्षा कवच समझा,
पर
ऐसा हो नहीं पाया। इंसानी मसले सियासत और मज़हब वाले तय करते हैं,
वही तय करते हैं हमारी तक़दीरें... हमसे पूछा तक नहीं जाता। इथियोपिया,
सोमालिया,
तुर्की,
मध्य एशिया,
कैरेबियन कंट्रीज़- कहाँ नहीं! यहाँ भी तो वही...! समाजशास्त्री कहेंगे,
सभ्यताओं और संस्कृतियों का यह एक सामान्य-सा अंत:प्रवाह है। मगर आबादियों
के इस विस्थापन में हुई बर्बादियों की दास्तान कौन सुनना चाहेगा?
एक
तार जब टूटता है तो कितना कुछ टूट और छूट जाता है! जुड़ता क्या है... गाँठ
पर पनपा जीवन का नया अध्याय! ओह! इस मनहूस ज़ैनुल की याद भी अभी ही आनी थी!
मेरे साथ का पुलिस का जवान सुहेल साइकिल पर चल रहा था और मैं रिक्शे पर थी।
गाँव में प्रवेश करते ही एक चाले (झोंपड़ी) में चाय की दुकान पर कुछ लोग
अड्डा जमाये हुए थे। मैंने पूछा,
`दा,
एई
ग्रामे नीहार सिंघॅ थाहेन कुथाय?'
(भाई,
इस
गॉव में नीहार सिंह कहाँ रहते हैं?)
जवाब में कई सवालिया आँखें मुझ पर उठ गईं। मुझसे क्या भूल हुई?
अपने तईं तो मैंने पूरी सावधानी बरत रखी थी। जीन्स छोड़ कर साड़ी पहन रखी
थी मैंने,
भाषा भी... न न,
भूल हुई
`एई'
की
जगह
`हेई'
कहना चाहिए था। मैं कट कर रह गई। पर अब तो जो होना था,
हो
चुका। अड्डे वालों में आपस में कानाफूसी हुई,
फिर एक साँवला-सा प्रौढ़ बोला,
`की
नाम कोइलेन,
नीहार सींघॅ?'
(क्या
नाम बोलीं,
`नीहार
सिंह?)
`आज्ञें
हैं।"
(जी
हाँ।)
`नीहार
सिंघा बोइल्ला काऊ रे तो जानी ना...।'
(नीहार
नाम के किसी आदमी को तो जानता नहीं।)
`सिंघॅ
सोब पलाई गेछे।'
(सारे
सिंह भाग गए हैं।) एक सम्मिलित ठहाके का श्लेष मुझे तेजाब-सा भिगो गया।
`आपनार
बाड़ी कुथाय?'
(आपका
घर कहाँ है?)
चुगली खाती मेरी भाषा विश्वसनीय नहीं थी,
सो
अब मुझे आँचलिक भाषा का दामन छोड़ कर सीधे मानक बांग्ला पर उतरना पड़ा।
मैंने बांग्ला में बताया,
`मैं
बर्द्धमान,
पश्चिम बंगाल से आयी हूं। बँटवारे के समय यहीं से गये थे हमारे पूर्वज। कभी
इस गाँव में एक उज्ज्वल सिंह हुआ करते थे। मैं उन्हीं की नातिन हूँ। नीहार
सिंह मेरे मौसेरे बहनोई हुए और अणिमा दी मौसेरी बहन। इधर आई थी तो सोचा
अपना पुश्तैनी घर देख लूँ और परिवार के लोगों से मिलती चलूँ।
अब
गाँव के कुछ और लोग भी जुटने लगे थे। वे आपस में बतिया कर मुझे घूर रहे थे।
उनकी नजरों में मैं संदिग्ध थी या निषिद्ध।
उस
प्रौढ़ ने एक किशोर को पुकारा,
`ताहिर!
जरा इन्हें सलाहुद्दीन शेख के घर पहुँचा आओ तो!
सलाहुद्दीन शेख! यह क्या बात हुई। मुझे अपनी पसलियों में एक मनहूस किस्म के
ख़ौफ की चुभन महसूस हुई।
कच्ची सड़क पर एक मध्ययुगीन बैलगाड़ी चली आ रही थी। बारिश से बचने के लिए
उस पर बाँस की चटाई का चंदोवा तना था। कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे।
दूर-दूर पर वही पुआल के छप्पर वाले घर,
कहीं-कहीं दो मंजिले भी और टीन की छत भी। जहाँ-तहाँ केले के स्तंभ थे,
कहीं-कहीं बँसवारियाँ भी। सड़क के दोनों ओर नारियल के पेड़ थे,
कुछ साबूत,
कुछ टूटे हुए या ठूँठ। शायद बार-बार की आने वाली झड़-झंझा (तूफान) का
प्रकोप था। खेतों में इस मौसम में उपजने वाली अन्न की बालियाँ लहरा रही थीं,
कहीं-कहीं झींगा (तरोई) और दूसरी सब्जियाँ भी। थाने का सिपाही अपनी साइकिल
घसीटते हुए ताहिर से बात कर रहा था। भाषा कहीं-कहीं अबूझ हो जाती। इतना भर
पता चला कि वह यहाँ मजूरी करने आया है। आज काम नहीं मिला,
सो
बेकार है। पता नहीं,
कब
तक काम मिलेगा। माँ-बाप कौन थे,
कहाँ का मूल निवासी है,
उसे कुछ पता नहीं।
मुझे ढाका और दूसरे शहरों के हजारों लावारिस बच्चों के बारे में बताया गया
था कि उनमें से अधिसंख्य वे बच्चे थे जो बांग्लादेश युद्ध के दौरान बाहरी
फौजियों के बलात्कार से जन्मे थे। उन अभागों को किसी ने नहीं अपनाया,
अपने ही ढंग से वे जैसे-तैसे पले-बढ़े,
जवान हुए। फिर उनके बच्चे हुए। लावारिसों की दूसरी खेप। भयंकर गरीबी,
ऊपर से मँहगाई की मार। दिल्ली,
मुंबई,
दुबई और लंदन तक फैल गई यह अमर बेलि।
सिपाही ने मेरी ओर इशारा कर ताहिर से कुछ कहा। ताहिर झेंपते हुए मेरे
साथ-साथ चलने लगा,
`मुझको
भी साथ ले चलिए न दीदी,
सभी तरह के काम कर सकता हूँ।'
`लेकिन
मैं भला कैसे लिवा ले जा सकती हूँ तुम्हें?'
`क्यों
सलाहुद्दीन के लड़कों को ले जाने आयी हैं। मैं तो उनसे भी गरीब हूँ।
उनके तो माँ-बाप भी हैं,
जमीन भी है,
नाव भी;
मेरा तो कुछ भी नहीं।'
मैं अवाक रह गई,
`तुम्हें
किसने बताया कि मैं सलाहुद्दीन के या किसी और के बच्चों को ले जाने आई हूँ।
मैं तो उन्हें जानती भी नहीं। मैं तो नीहार सिंह का पता करने जा रही हूँ,
जो
मेरे मौसेरे बहनोई हैं।
`ओह!'
ताहिर निराश हो गया,
फिर बोला,
`लेकिन
मैं यहाँ छह महीने से हूँ,
नीहार सिंह या किसी हिन्दू परिवार का नाम नहीं सुना। खैर,
देखिए,
पूछिए शायद पता लग ही जाय। बस्ती तो यही है।
मैं एक-एक घर को देखती हूँ,
ये
घर होगा,
नहीं वो,
नहीं,
ताहिर तो आगे बढ़ गया,
शायद आगे...। माँ किसी नदी का जिक्र करती थीं,
जिसका पानी,
ज्वार के समय मचान के नीचे तक फैल जाता। न अभी तक कोई मचान मिला,
न
नदी की झलक। एक घर के पास ताहिर आकर रुक गया,
सिपाही ने साइकिल खड़ी कर दी,
`यही
है।'
फूस की छाजन। एक कोने में एक बकरा बँधा था,
दूसरे कोने में एक गाय,
सामने मुर्गियाँ और उनके छोटे-छोटे चूजे चिक-चिक करते टहल रहे थे। बच्चे
सिर पर टोपी लगाए मदरसे में पढ़ने जा रहे थे। टिपिकल मुसलमानी घर।
`शेख
मोशाय कहाँ हैं,
देखिए आपसे मिलने आयी हैं।'
सिपाही ने आवाज दी। उस घर से एक औरत निकली,
फिर देखते-देखते दूसरे घरों से अन्य औरतें। कुछ मर्द भी। सभी आँखें
फाड़-फाड़ कर मुझे देखने लगे।
`सलाहुद्दीन
तो ढाका गये हैं,
उनकी बहू है।'
एक
औरत ने बताया।
`उन्हें
ही बता दीजिए।'
सिपाही सुहेल ने कहा।
`नया
आदमी देख रही हूँ।'
आँखों पर हाथ की ओट बना कर एक बूढ़ी ने मेरे चेहरे में झाँका। मैं झेंप गई।
`हिन्दू
प्रेस रिपोर्टर हैं। बर्द्धमान से आयी हैं।'
`यहाँ...?
`यहाँ
अपने बहनोई किसी नीहार सिंह को ढूँढने आयी हैं। कहती हैं,
इनके पूर्वज इसी गाँव से गये थे।'
बूढ़ी थोड़ी गंभीर हुई,
`थाने
का परमिशन है?'
`हाँ,
तभी तो मैं साथ-साथ आया हूँ।'
`बूड़ी,
ओ
अंजुमन बूड़ी,
देखो तो भारत से कौन आया है तुमसे मिलने।'
`अंजुमन
बूड़ी!'
शब्दों को मैंने चुभलाया। याद आया बर्धमान आयी थीं तब भी अणिमा दी का भी
पुकारने का नाम
`बूड़ी'
ही
था। तो क्या अणिमा सचमुच ही
`अंजुमन'
बन
गई और नीहार सलाहुद्दीन?
अंदर से तेज-तेज चल कर कोई स्त्री आयी और चौखट के फ्रेम में फ्रीज हो गई
जैसे हुलास के वेग पर असमंजस की लगाम लग गयी हो। हाँ,
वही गंदुमी गोल चेहरा,
चेहरे में जड़ी वही बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखें!
मैं अपने को और रोक न सकी। मैंने दौड़ कर अणिमा दी को बाँहों में भर कर
भींच लिया।
`दीदी!
दीदी! मेरी दीदी। कितने दिन बाद देख रही हूँ अपनी अणिमा दी को। पहचाना मुझे,
मैं तुम्हारी शिखा हूँ - गुड्डी।'
`छोड़ो
मुझे। मैं किसी शिखा,
किसी गुड्डी को नहीं जानती।'
मुझे गहरा धक्का लगा। तो क्या मैं किसी मुर्दे को पकड़े हुए थी?
हाथों के बंद ढीले पड़े। काफी औरतें जमा हो गई थीं। मेरी स्थिति हास्यास्पद
होती जा रही थी। मैं सफाई पर उतर आयी
`याद
है दीदी,
जब
आप बर्द्धमान आई थीं,
मैं इत्ती-सी थी।'
मैंने हाथ से पाँच साल के बच्चे का कद बताया,
`मैं
पाँच साल की थी,
आप
सात साल की। मुझे गोद में लेकर घूमा करती थीं। उठा नहीं पाती थीं पूरी तरह।
एक बार लेकर गिर पड़ी थीं,
इसके चलते आपको मार भी खानी पड़ी थी। यह रहा वह दाग भौंहों पर।'
अणिमा दी फटी-फटी आँखों से मुझे घूरे जा रही थी।
`आपने
मुझे कई बार बुलाया था,
मरने से पहले मिल लो... याद है?
खेल-खेल में आपने मेरी शादी में मुझे झुमका देने की बात कही थी।'
अणिमा दी काठ की पुतली-सी निर्विकार खड़ी थीं। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि
क्या करूँ?
तमाशा तो बन ही गई थी मैं। शर्म और अपमान की एक ठंडी लहर शिराओं में रेंग
रही थी। इतनी बाधाएँ पर कर,
इतनी दूर चल कर तो आज उन्हें पाना नसीब हुआ,
और
आज भी वे न बोली तो कब बोलेंगी?
सिपाही ने ऊबते हुए पूछा,
`और
कितनी देर लगेगी?
`छोड़ो!
उसे जब कुछ याद ही नहीं आ रहा है तो आगे क्या पूछोगी।'
पहले वाली प्रौढ़ा ने कहा,
`जो
बीत गई सो बीत गई। हाँ! ननिहाल आयी हो तो दो कौर भात और मछली तो पेट में
डालना ही होगा।'
`लेकिन
मासी मैं तो...।'
`कोई
लेकिन-वेकिन नहीं। हाँ,
अगर मुसलमान के हाथ से खाने से तुम्हारा धरम भ्रष्ट हो जाय तो और बात है!'
`नहीं
मौसी ऐसी कोई बात नहीं। मैं बस जरा नहाना चाहती थी। सारी देह चिपचिपा रही
है।'
`ये
लो,
बगल में ही तो नदी है। सभी लड़कियाँ जा रही हैं। दो डुबकी मार आओ न! अंजुमन
बूड़ी लिवा जाओ इसे भी... लेकिन ज्वार का कोई भरोसा नहीं,
होशियार रहना।'
उस
दल में कोई दस-एक युवतियाँ और बच्चियाँ थीं,
बूढ़ी एक भी नहीं,
सो
वे खुल कर बोल-बतिया रही थीं।
`अच्छा
दीदी,
आपके बर्द्धमान से कलकत्ता कितनी दूर है?
एक
ने पूछा।
`ट्रेन
से डेढ़ घंटा लगता है।'
`बहोत
बड़ा शहर है न,
जमीन के अन्दर रेल चलती है?'
`हाँ।'
`आप
कभी बैठी हैं?'
`हाँ।
कई बार।'
`बड़ा
मजा आता होगा। है न?'
`हाँ।'
`अयोध्या
कहाँ है?'
एक
ठिगनी-सी गंभीर दिख रही लड़की का सवाल।
`हमारे
यहाँ से पद्रह घंटे लगते हैं।'
शुक्र था उसके आगे उसने कुछ नहीं पूछा। डर और नफरत के बिन्दु की ओर
इशारा-भर किया,
उसे छुआ नहीं?
`आप
तो हवाई-जहाज पर भी चढ़ती होंगी?'
तीसरा सवाल।
`हाँ।'
`मुसलमानों
को भी चढ़ने देते हैं?'
`क्यों
नहीं?'
`अच्छा
वहाँ रवि ठाकुर का शांति निकेतन है जहाँ लड़के-लड़कियाँ प्रेम कर सकते हैं?'
`क्यों
गंगा-पद्दा (पद्मा) के तट पर रहनेवालों को प्रेम करने से किसी ने रोका है
क्या?'
सारी लड़कियाँ हँस पड़ीं। मैंने कनखियों से अणिमा दी को देखा जो खुद में
खोई कटी-कटी सी चल रही थीं,
उनके चेहरे पर एक मुस्कान तक न पसीजी। दीदी आप कैसी प्रेस रिपोर्टर हैं,
एक
कैमरा लायी होतीं तो हम सबका फोटो हो जाता।
`वाकई
भूल हो गई।'
मैंने बहाना बनाया;
मैं उन्हें कैसे बताती कि कैमरा,
टेप और मोबाइल तीनों रखवा लिये गए थे थाने में।
गाँव से निकल आये थे हम। मैं बार-बार पीछे मुड़ कर देख रही थी।
`क्या
देख रही हैं दीदी?
`माँ
ने कभी बताया था कि हमारे घर के पीछे एक तालाब हुआ करता था। सामने कोई मचान
हुआ करता था जिए पर ज्वार के समय पूरा परिवार बैठा रहता और रात को नावों की
लालटेन की लाल रोशनी लहरों पर मचलती हुई आती। गाँव में आम,
जामुन और नारियल के ढेरों पेड़ थे,
नीचे कच्चू के पत्ते जमीन को ढके रहते।'
`तब
से कितनी ही बार बाढ़ें,
कितनी ही बार झड़ (तूफान) आए,
न
जाने कितनी बार सोनारदीघी उजड़ा और बसा।'
ठीक ही कहती है युवती,
इतिहास और भूगोल के मलबे में सब कुछ दब-दबा गया जब मेरा अपना ही मुझे
पहचानने से इंकार कर रहा है। लेकिन इस
`नॉस्टल्जिया'
का
क्या करूँ मैं?
टीले के नीचे हरे-भरे खेत थे,
फिर नदी। मैं बूँद-बूँद पी रही थी सारा कुछ!
`आपके
पास बदलने के लिए तो कुछ नहीं है?'
एक
युवती को जैसे अभी-अभी याद आया।
`आप
लोग...?'
`हमारा
क्या है,
गमछा पहन लिया या ऐसे ही...।'
`गमछा
भी कहाँ है?'
`किसी
का खींच लूँगी।'
लड़कियाँ खिलखिला पड़ीं। अणिमा दी के चेहरे पर क्षणांश-भर के लिए कोई
मुस्कराहट उभरी,
फिर जब्त हो गई।
रेत में दबे सीप और झिनुक के टुकड़े चमक रहे थे- नीली-सी कौंध! इन्हीं में
कुछ-एक मेरे पुरखों की अस्थियाँ भी शामिल हों। शायद अतीत के उस पार से जल
रहा है उनका फॉसफोरस!
`जल्दी
करो दीदी। ज्वार आने से पहले लौट चलना है।'
उस
ठिगनी-सी युवती ने कहा और नदी में उतर गई। अणिमा दी घाट पर एड़ियाँ रगड़
रही थीं जैसे उन्हें कोई जल्दबाजी न हो।
सागर की तरह फैली हुई थी नदी। जहाँ-तहाँ हिलकोरें ले रही थीं नावें;
इक्के-दुक्के स्टीमर भी। मटियाला पानी छुल्ल-छुल्ल ताल दे रहा था पर इस ताल
पर साथ देने वाला कोई भटियाली गीत न था। कोई कातर सा स्वर रह-रहकर उभर रहा
था। यह कोरा वहम था मेरा या हकीकत?
कहीं मेरे अन्दर की पीर उछल कर बाहर तो नहीं आ गई थी?
न!
नहीं! तट पर किसी घड़ियाल ने बकरी को पकड़ लिया था। वही मेमिया रही थी कातर
स्वर में। लड़कियाँ छप-छप करती हुई उधर भागीं। मेरे और अणिमा दी को छोड़ कर
वहाँ अभी कोई न था। खुद के खयालों में डूबी अणिमा दी धीरे से पानी में
उतरीं,
जैसे एक सागर दूसरे सागर में उतर रहा हो। यही मौका था मेरे लिए। डुबकी लगा
कर उठी ही थीं कि मैंने उन्हें बाँहों में जकड़ लिया,
`किसे
छल रही हो दीदी,
मुझे या खुद को?'
वह
देह एक बार काँपी,
फिर स्थिर हो गई,
`छोड़
दो मुझे,
नदी में ऐसा मजाक नहीं करते।'
`नहीं
छोड़ूँगी,
पहले सच-सच बतलाओ। तुम्हें मेरे सिर की कसम,
झूठ बोली तो इसी नदी में डूब मरूँ मैं।'
दीदी की आँख छलक आई,
`याद
है। सब कुछ याद है गुड्डी। तुम्हें क्या मालूम कि हम पर क्या-क्या गुज़री!
घड़ियाल के जबड़े में फँसी बकरी की मिमियाहट हर कोई सुन सकता है,
हमारी कोई नहीं।'
दीदी एक पल को रुकीं,
खुद को सहेजा,
फिर बोली,
`जान
बचाती या धर्म?
हमने जान चुनी। कितना लड़ते,
किस-किस से लड़ते हम?
अब
तुम अलग हो,
हम
अलग। तुम हिन्दू हो,
हम
मुसलमान। - तुम हिन्दुस्तान,
हम
पाकिस्तान।'
आश्चर्य! अणिमा से अंजुमन बनी मेरी मौसेरी बहन भी
`बांगलादेश'
को
बांगलादेश न कह कर
`पाकिस्तान'
बता रही थीं,
ठीक माँ की तरह।
`दीदी'
-
मेरे अंदर बहुत-से सवाल घुमड़ रहे थे लेकिन उन्होंने होठों पर उँगली रख दी,
`ना,
कुछ मत पूछो,
कुछ मत- खुदा के लिए अब इस बात का ज़िक्र भी मत करना। लौट जाना और कभी मत
आना। बड़ी मुश्किल से सँभाला है खुद को गुड्डी।'
`ठीक
है दीदी,
जैसा तुम कहती हो,
वैसा ही करूंगी। चली जाऊँगी,
कभी डिस्टर्ब नहीं करूँगी तुम्हें। आँसुओं की तरह
पी
जाऊँगी सब कुछ... लेकिन एक बार,
सिर्फ एक बार बाँहों में भींच लो कलेजे से लगाकर मुझे,
चूम लो कस कर मन-प्राण आत्मा से मुझे। डरो नहीं पानी की इस दीवार में पर्दे
की ओट है,
ईश्वर के सिवा कोई नहीं देख रहा हमें।'
`जिद
न कर मेरी बहना,
मेरी प्यारी गुड्डी,
इस
तरह तो हम दोनों ही डूब जायेंगे।'
`डूब
जाएँ तो डूब जाएँ। मेरे लिए यही पल पहला है,
यही आख़िरी भी...।'
परस्पर आलिंगन में बँधी हम दोनों बहनें पानी के पालने पर झूलने लगीं।
अद्भुत उल्लास पर्व था मेरे लिए वह। लगा,
सारा ही परिवेश आम,
जामुन,
बाँस,
केले और नारियल के पेड़ों से सघन हो गया। ऊपर पेड़ थे,
नीचे कच्चू के पत्तों का टटका हरियालापन। देवता प्रसन्न थे,
पृथ्वी महीयसी हो उठी थी। दूर से कोई मद्धिम-सी टेर कानों में बज रही थी,
कोई भटियाली गीत- दुख और सुख से परे किसी अनजाने लोक से तिर कर आता हुआ।
कच्चू के चौड़े चकले,
पत्तों पर हीरे की कनी-सी दो बूँदें नाच रही थीं। नाचते-नाचते वे एक हो
गईं...'
जाल डाल कर हमें बचाया गया था। सारा सोनारदीघी हमें देखने को उमड़ पड़ा था।
`तुम
दोनों को ज्वार आने का आभास तक नहीं हुआ?'
एक
सवाल।
`चीखते-चिल्लाते
हमारा गला फट गया,
तुम्हें एक भी चेतावनी सुनाई न दी?'
दूसरा सवाल।
सवाल-दर-सवाल।
दोनों बहनें अपराधी की तरह सिर झुकाए बैठी थीं। जवाब हमारे पास एक न था।
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