रानी केतकी की कहानी
-सैयद इंशा अल्ला खां
यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट॥
सिर
झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और
बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियां जातियां जो साँ
सें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँ से हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस
खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो। उस फल
की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं ओर
सुनने को दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।। मिट्टी के
बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके। सच हे, जो
बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें। यों जिसका
जी चाहे, पडा बके। सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल
उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों
में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें। इस
सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को
जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई
जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप
में नहीं समाता, और जितने उनके लडके वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह
है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से
क्या पडी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूं
तीसों घडी। डौल डाल एक अनोखी बात का एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान
में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदणी छुट और किसी बोली का पुट न
मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी
कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे,
पुराने-धुराने, डाँग, बूढे धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक
भी चढाकर आंखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदणीपन
भी निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते
हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने
का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुंझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा
बढ-बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊं, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात
मुँह से क्यों निकलता? जिस ढब से होता, इस बखेडे को टालता। इस कहानी का
कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता
है। दहना हाथ मुँह फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह
ताव-भाव, राव-चाव और कूंद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान का
घोडा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हडपन में है, हिरन के रूप में अपनी
चौकडी भूल जाए। टुक घोडे पर चढ के अपने आता हूं मैं। करतब जो कुछ है, कर
दिखाता हूं मैं॥ उस चाहने वाले ने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछ हूं। कर
दिखाता हूं मैं॥ अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर
देखिए, किस ढंग से बढ चलता हूं और अपने फूल के पंखडी जैसे होंठों से
किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ। कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन
का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और
सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में
सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो
किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव
रक्खा था। कुछ यों ही सीमसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट
न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को
अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था।
इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के
पीछे सब छोड छाडकर घोडा फेंका। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया
और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै
भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने। इतने में कुछ
एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां
एक से एकजोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं।
ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड सी पड गई। उन सभी
में एक के साथ उसकी आँख लग गई।
कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई कहती थी एक पक्का है। वही झूले वाली लाल
जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने
घर किया। पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा - इस लग चलने को भला
क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे। यह न जाना, यह रंडियां अपने
झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे
चले जाओ। तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - इतनी रुखाइयां न कीजिए। मैं
सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओसका बचाव करके पडा रहूंगा। बडे
तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता
देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था। कोई
घोडा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अंधेरा छा
गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं।
कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता। सिर उठाए हां पता
चला आया। क्या जानता था - वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं। पर
यों बढी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा। यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली
सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो
जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो।
घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंहका डौल, गाल तमतमाए और
होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर जी का कांपना और ठंडी सांसें भरना, और
निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई
छिपती नहीं। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर दो। इतना आसरा पाके
सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी छांव में कुंवर उदैभान ने
अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई
चाहत की लगावट में आती थी? पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात
सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली
मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया
है; और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनी
जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूं। तू मेरे साथ
चल। पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोडा मेरे और
उसके बनाने वाले ने मिला दिया। मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी। रानी
केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची, जहां कुंवर उदैभान लेटे हुए
कुछ-कुछ सोच में बड-बडा रहे थे। मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला
जानकर रानी जी आप आई हैं। कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों
न हो, जी को जी से मिलाप है? कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान
दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास
की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है। उनको उनके मां बाप ने कह
दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो। आज वहीं दिन था; सो
तुमसे मुठभेड हो गई। बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई, पर किसी पर
इनका ध्यान न चढा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो
उनके लडकपन की गोइयां हूं। मुझे अपने साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती
कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो। उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान
और मां रानी लक्ष्मीबास हैं। आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज
और अचंभे की बात नहीं। यों ही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा
थप्पड। जोड तोड टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी
लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए। इसी में मदनबान बोल उठी - सो
तो हुआ। अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर
कुछ हिचर-मिचर न रहे। कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी
और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी
भी ले ली। इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट
है। इतना बढ चलना अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पडे
रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी। पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को
लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर
अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।
कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है।
दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने
पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता
रहे, जाता जाय। एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की
चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी। रानी
ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए; और
उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो
तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे
सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं।
इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; अब जब तक मां बाप जैसा कुछ होता चला
आता है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के
चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड जी जाते रहें तो कोई बात हैं
रुचती नहीं। यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल
सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और
जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने
उस गोरे डंड पर बांध लेता है। आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और
कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू
को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन
बिपताभार हम पर आ पडी है। राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅ हक ने लिया
है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है। सराहना जोगी जी के स्थान
का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको
महेंदर गिर सब इंदरलोक के लाग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों
के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, तां बे, रॉगे का
बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे रहे, उसको और बातें इस इस
ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा
देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने
में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते
थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छ: राग छत्तीस
रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे
खडी रहती थीं। और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे-भैरोगिर, विभासगिर,
हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस
ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता,
अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह
में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घडी रानी
केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर
एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है। बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुंह
से मल कुछ कुछ पढंत करता हुआ बाण घोडे भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर
बैठे हुए गुटके मुंह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागाऔर
मुंछदर भागा। एक आंख की झपक में वहां आ पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में
लडाई हो रही थी। पहले तो एक काली आंधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई।
किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोडे और जितने लोग और
भीडभाड थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत
परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योडे की बूंदों की
नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पडने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने
अतीतियों से कहा - उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के
किसी बन में छोड दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड फोड दो। जैसा
गुरुजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुंवर उदैभान और उसका बाप वह
राजा सूरजभान और उनकी मां लछमीबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक
चरते रहे; और उस भीड भाड का तो कुछ थल बेडा न मिला, किधर गए और कहां थे बस
यहां की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की
सुनिए। उनके घर का घर गुरु जी के पांव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा -
महाराज, यह आपने बडा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आप न पहुंचते तो क्या
रहा था। सबने मर मिटने की ठान ली थी।
महाराज ने कहा - भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे
उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो करोर जी हों तो दे डालें।
रानी केतकी को डिबिया में से थोडा सा भभूत दिया। कई दिन तलक भी आंख मिचौवल
अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ
थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोडों
पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और
मदन बान का साथ देने से नहीं करना। एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान
से यों बोल उठी-अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे। मदनबान
ने कहा-क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया यह
सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रखे थे। मदनबान
बोली-मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत
का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम
तुम सबको देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन
में पडी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और
जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी
है और यह मदनबान निगोडी नोची खसोटी उजडी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड में
जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप को राज-पाट सुख नींद लाज छोड कर नदियों
के कछारों में फिरना पडे, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला
थोडा बहुत आसरा था। ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और
महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाडें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी
है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और
अपने घोडें को हिलावें। जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लडाई हो रही थी और
उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो,
महाराजों को आपस में लडने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को
निकल चलें; उस दिन समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उदैभान
और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके
ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं।
इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे
कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी
न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड हो। तुमने
अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से
कहकर यह भभूत जो बह गया निगोडा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ
मुरकवाकर छिनवा लूँगी। रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन हँ सकर टाल
दिया और कहा-जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर कहने और
करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड
कर हिरन के पीछे दौडती करछालें मारती फिरूँ। पर अरी ते तो बडी बावली चिडिया
है जो यह बात सच जानी और मुझसे लडने लगी। रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर
निकल जाना और सब छोटे बडों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी
केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ
कहने में आता नहीं, जो मां-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ
समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी
कामलता राजपाट उस वियोग में छोड छाड के पहाड की चोटी पर जा बैठे और किसी को
अपने आँखों में से राज थामने को छोड गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने
महाराज जगतपरकास से कहा-रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती
होगी। उसे बुलाकर तो पूँछो। महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब
बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ बाप ने कहा-अरी मदनबान, जो तू भी उसके
साथ होती तो हमारा जी भरता। अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न
कीजियो, उसको साथ ही लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस
राख को चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया-कुँवर
उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट
किया। भभूत न होत तो ये बातें काहे को सामने आती। मदनबान भी उनके ढूँढने को
निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी फिरती थी।
फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड झंखाडों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर
रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगडी
और बागे बिन कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये,
बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचने वाले थे, सबको कह दिया जिस
जिस गाँव में जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे-अच्छे बिछौने
बिछाकर गाते-नाचते घूम मचाते कूदते रहा करें। ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का
कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप को, न पाना और बहुत तलमलाना यहाँ की बात और
चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके
90 लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके
माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब उन्होंने राजा इंदर को चिट्ठी लिख भेजी। उस
चिट्ठी में यह लिखा हुआ था-इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब
उनको ढूँढता फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी
बहुत कर चुका हूं। अब मेरे मुंह से निकला कुँवर उदैभान मेरा बेटा मैं उसका
बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। अब मुझपर विपत्ति गाढी पडी
जो तुमसे हो सके, करो। राजा इंदर चिट्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को देखने
को सब इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा-जैसा आपका बेटा वैसा मेरा बेटा।
आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को ब्याहने चढूँगा।
गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद से कहा-हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा
सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।
राजा इंदर ने कहा-जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम और आप
सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा। गुरू ने कहा-अच्छा।
हिरन हिरनी का खेल बिगडना और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से
रूप पकड ना एक रात राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में
बैठे राग सुन रहे थे, करोडों हिरन राग के ध्यान में चौकडी भूल आस पास सर
झुकाए खडे थे। इसी में राजा इंदर ने कहा-इन सब हिरनों पर पढ के मेरी सकत
गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ के एक छींटा पानी का दो। क्या जाने वह
पानी कैसा था। छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें
हिरनों का रूप छोड कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर
ने उन तीनों को गले लगाया और बडी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घडा
अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुंडवाते ही ओले पडे थे। राजा
इंदर के लोगों ने जो पानी की छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के दिए तो जो मरे थे
सब उठ खडे हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर
गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड
न-खटोलो पर बैठकर बडी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने
लगे। पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए। राजा सूरजभान और कुँवर
उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सो राज को
कह दिया-जेवर भोरे के मुंह खोल दो। जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो। आज
के दिन का सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों से जिससे चैन हैं,
उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज
पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन की बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब
को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चीज से चाहें; अपनी गुडियाँ सँवार के
उठावें; और तब तक जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा
करें। और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट
कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड गंगाजमुनी सब घरों में लग
जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड
हमारे देश में हों, उतने ही पहाड सोने रूपे के आमने सामने खडे हो जाएँ और
सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और
बँ धनवार से सब झाड पहाड लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक अधर
में छत सी बाँध दो। और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ भीड भडक्का धूम
धडक्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ
हैं यह समझा जाय। और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढे सब लाड
ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड में इधर और उधर कबैल की टट्टियाँ बन जायँ
और क्यारियाँ सी हो जायें जिनके बीचो बीच से हो निकलें। और कोई डाँग और
पहाडी तली का चढाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न
हों।
इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो
रीतें उनके घराने में चली आई थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली
करके बोली-लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या बैठी हो,
आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें। रानी केतकी ने कहा-न री,
ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसी क्या पडी जो इस घडी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी
उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खडी हों। बदनबान उसकी इस
रूखाई को उड नझाई की बातों में डालकर बोली- बोलचाल मदनबान की अपनी बोली के
दोनों में- यों तो देखो वाछडे जी वा छडे जी वा छडे। हम से जो आने लगी हैं
आप यों मुहरे कडे॥ छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये। वह हिरन जीवन के
मद में हैं बने दूल्हा खडे॥ तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है। ले
चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अडे। है कहावत जी को भावै और यों मुडिया
हिले। झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बडे।। साँस ठंडी भरके रानी
केतकी बोली कि सच। सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेडे में पडे॥ वारी फेरी
होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदे पन से ऊंघना उस
घडी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूडा और भीना भीनापन और अँखडियों का
लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी केतकी की बास सँूघने लगी और
अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक
वारी फेरी होके तलवे सुहलाने लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके
के साथ ले ऊठी : मदनबान बोली-मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का छाला दुख
गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड गया था। इसी दु:ख की चुटकी से रानी
केतकी ने मसोस कर कहा-काटा अडा तो अडा, छाला पडा तो पडा, पर निगोडी तू
क्यों मेरी पनछाला हुई। सराहना रानी केतकी के जोबन का केतकी का भला लगना
लिखने पढने से बाहर है। वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की
समावट और नुकीली पलकों की रूँ धावट हँसी की लगावट और दंतडियों में मिस्सी
की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है। नाक और त्योरी का चढा लेना,
सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप में करछालें मारकर
परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता। सराहना कुँवर जी के जोबन का कुँवर उदैभान
के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके। हाय रे उनके उभार के दिनों का
सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फबन और मुखडे का
गदराया हुआ जोबन जैसे बडे तड के धुंधले के हरे भरे पहाडों की गोद से सूरज
की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भींगी मसों से रस टपका पडता था।
अपनी परछाँई देखकर अकडता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव
तले जैसे धूप थी। दूल्हा का सिंहासन पर बैठना दूल्हा उदैभान सिंहासन पर
बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने
बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो
उड न खटोले राजा इंदर के अखाडे के थे। सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए।
दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को
कोठों पर चन्दन के किवाडों के आड तले आ बैठियाँ। सर्वाग संगीत भँड ताल रहस
हँसी होने लगी। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान झिंझोटी,
कन्हाडा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगडा, भैरवी, गीत, ललित भैरी
रूप पकडे हुए सचमुच के जैसे गाने वाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय
पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका
मुंह जो कह सके। जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास,
रसधाम कृष्ण निवास, मच्छी भवन, चंद भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची
मोतियों की झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के
बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।
पर कुंवर जी का रूप क्या कहूं। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न
मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना
और घडी-घडी कुछ सोच सोच कर सिर धुनना। होते-होते लोगों में इस बात का चरचा
फैल गई। किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - कुछ दाल में काला है। वह
कुंवर बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पांव नहीं
धरना। घरवालियां जो किसी डौल से बहलातियां हैं, तो और कुछ नहीं करना, ठंडी
ठंडी सांसें भरता है। और बहुत किसी ने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुंह
लपेट के आठ आठ आंसू पडा रोता है। यह सुनते ही कुंवर उदैभान के माँ-बाप
दोनों दौड आए। गले लगाया, मुंह चूम पांच पर बेटे के गिर पडे हाथ जोडे और
कहा - जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखडा है जो पडे-पडे
कहराते हो? राज-पाट जिसको चाहो दे डालो। कहो तो क्या चाहते हो? तुम्हारा जी
क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो नहीं हो सकता? मुंह से बोलो जी को
खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हों, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की
त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कुंए में गिर पडो, तो हम दोनों अभी गिर
पडते हैं। कहो - सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं। कुंवर
उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - अच्छा आप
सिधारिए, मैं लिख भेजता हूं। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुंह परकिसी ढब से न
लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पडा था और आपसे कुछ न कहना था।
यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुंवर ने यह
लिख भेजा - अब जो मेरा जी होंठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने
मुझे सौ-सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड के हाथ जोड के मुंह
फाड के घिघिया के यह लिखता हूं- चाह के हाथों किसी को सुख नहीं। है भला वह
कौन जिसको दुख नहीं॥ उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे
सामने कनौतियां उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोडा बगछुट फेंका। जब तक उजाला
रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी
अमराइयां ताड के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता-पत्त्ता मेरे जी
का गाहक हुआ। वहां का यह सौहिला है। कुछ रंडियां झूला डाले झूल रही थीं।
उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह
अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अंगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो
यह अंगूठी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुंचती है। अब आप पढ लीजिए।
जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए। महाराज और महारानी ने अपने बेटे के
लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - हम दोनों ने इस अंगूठी और लिखौट को
अपनी आंखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढो पचो मत। जो रानी केतकी के मां बाप
तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो
जाएंगे। और जो कुछ नांह - नूंह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार
के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो,
कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो। अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी
ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और
शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा। ब्राह्मन जो
शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी। सुनते ही रानी
केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का।
उनके बाप-दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोडकर बातें किया करते थे और
दो टुक जो तेवरी चढी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ गए,
ऊंचे पर चढ गए। जिनके माथे हम न बाएं पांव के अंगूठे से टीका लगावें, वह
महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुंह जो यहबात हमारे मुंह पर लावे!
ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं। राजा
सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह
कुंवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुंह
से निकलती। यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चंगेर
फेंक मारी और कहा - जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न होता तो तुझको अभी
चक्की में दलवा डालता। और अपने लोगों से कहा- इसको ले जाओ और ऊपर एक अंधेरी
कोठरी में मूंद रक्खो। जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान ने सुनी। सुनते
ही लडने के लिए अपना ठाठ बांध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ
आया। जब दोनों महाराजों में लडाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप
रोने लगी; और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा
और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राजपाट हमारा अब निछावर करके
जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने
बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप
में तो सकत नहीं। फिर ऐसे राज का फिट्टे मुंह कहां तक आपको सताया करें।
जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो,
दनदनाओ, सुख चैन से रहो। अब वह कौन है जो तुम्हें आंख भरकर और ढब से देख
सके। यह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ पडे तो इसमें से
एक रोंगटा तोड आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात
में हम आ पहुंचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई इसे अंजन करे, वह सबको
देखें और उसे कोई न देखें, जो चाहे सो करें। जाना गुरुजी का राजा के घर
गुरु महेंदर गिर के पांव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था।
महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने
रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगडे। उन्होंने सबकी पीठें
ठोंकी। रानीकेतकी ने भी गुरुजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरु जी को
गालियां दी। गुरुजी सात दिन सात रात यहां रहकर जगतपरकास को सिंघासन पर
बैठाकर अपने बंधवर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगत परकास
अपने अगले ढब से राज करने लगा। रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली
बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना। दोहरा (अपनी बोली की धुन में) रानी को
बहुत सी बेकली थी। कब सूझती कुछ बुरी भली थी॥ चुपके-चुपके कराहती थी। जीना
अपना न चाहती थी॥ कहती थी कभी अरी मदनबान। हैं आठ पर मुझे वही ध्यान॥ यां
प्यास किसे किसे भला भूख। देखूं वही फिर हरे हरे रुख॥ टपके का डर है अब यह
कहिए। चाहत का घर है अब यह कहिए॥ अमराइयों में उनका वह उतरना। और रात का
सांय सांय करना॥ और चुपके से उठके मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जताना॥
उनकी वह उतार अंगूठी लेनी। और अपनी अंगूठी उनको देनी॥ आंखों में मेरे वह
फिर रही है। जी का जो रूप था वही है॥ क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं।
मां बाप से कब तक डरूं मैं॥ अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बन के हिरन हुए
उदयभान॥ चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तू भी पसीज सोच में डूब॥ मैं अपनी गई
हूं चौकडी भूल। मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूल॥ फूलों को उठाके यहां से ले
जा। सौ टुकडे हुआ मेरा कलेजा॥ बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का ला के रख
दे गट्ठा॥ हरियाली उसी की देख लूं मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं॥ इन
आंखों में है फडक हिरन की। पलकें हुई जैसे घासवन की॥ जब देखिए डबडबा रही
हैं। ओसें आंसू की छा रही हैं॥ यह बात जो जी में गड गई है। एक ओस-सी मुझ पे
पड गई है। इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती।
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और
लेना उसी भभूत का, जो गुरुजी दे गए थे, आँख मिचौबल के बहाने अपनी मां रानी
कामलता से। एक रात रानी केतकी ने अपनी मां रानी कामलता को भुलावे में डालकर
यों कहा और पूछा - गुरुजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया
है, वह कहां रक्खा है और उससे क्या होता है? रानी कामलता बोल उठी - आंख
मिचौवल खेलने के लिए चाहती हूं। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं
तो मुझको कोई पकड न सके। महारानी ने कहा - वह खेलने के लिए नहीं है। ऐसे
लटके किसी बुरे दिन के संभलने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घडी कैसी है,
कैसी नहीं। रानी केतकी अपनी मां की इस बात पर अपना मुंह थुथा कर उठ गई और
दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी
कामलता बोल उठी - अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आंख मिचौवल खेलने के
लिए वह भभूत गुरुजी का दिया मांगती थी। मैंने न दिया और कहा, लडकी यह लडकपन
की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी गए हैं। इसी पर मुझसे
रूठी है। बहुतेरा बहलाती है, मानती नहीं।
राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ
चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बास
गूँधमोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड न खटोलों का इस राज से लेकर उस राज
तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड चलो जो उडन-खटोलियों की क्यारियाँ
और फुलवारियाँ सैंकडों कोस तक हो जायें। और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग,
मँुहचग, घँुगरू, तबले घंटताल और सैकडों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और
उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड और लाल पटों
की भीड भाड की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल,
फूलझडियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें तो देखने
वालों को छातियों के किवाड खुल जायें। और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें
हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पडे। और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस
हँसी से मोतियों की लडियाँ झडें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें।
डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड छेड सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके
उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुड्डियाँ
गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों
बरस में होता है। जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक
के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ
उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट
ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर
लो। ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से
ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मुँदा हुआ था, उसको भी साथ
ले लिया और बहुत से हाथ जोडे और कहा-ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न
जाओ। तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो। एक उडन खटोले पर वह भी रीत बता
के साथ हो लिया। राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते
झालते देखते भालते चले जाते थे। राजा सूरजभान दुल्हा के घोडे के साथ माला
जपता हुआ पैदल था। इसी में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे में से
जो वह 90 लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लडियों की
गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर
आ ठहर गए। लोगों के जियों में जितनी उमंगें छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो
गई। सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के
पीछे चली आतियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का
सवाँग आया। कहीं जोगी जातियाँ आ खडे हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं
मुछंदारनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन
रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और
लंका का बखेडा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम
अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ चलना, गाए चरानी और
मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर
लेना, वही करील की कुंजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में
रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों की त्यों आँखों में आना
और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर बिरिज को न आना और सोलह सौ
गोपियों का तलमलाना सामने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड कर एक
गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी
को खोले थी। चौचुक्का जब छांडि करील को कुँजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय
बसे। कलधौत के धाम बनाए घने महाजन के महाराज भये। तज मोर मुकुट अरू कामरिया
कछु औरहि नाते जाड लिए। धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए।
अच्छापन घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे,
पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाडे,
भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे
थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ,
जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ,
डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती
घूमें मचातियाँ अँगडातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पड तियाँ
थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो साने रूपे के पत्तरों से मढी हुई और सवारी से
भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उन पर गायनें
बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हडों में गा रही थीं। दल बादल
ऐसे नेवाडों के सब झीलों में छा रहे थे।
आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढी पर बीचों
बीच सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड और आंगन में आरसी छुट
कहीं लकडी, ईट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा
जोडा पहने जब रात घडी एक रह गई थी। तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी
भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर
पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तडावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखडा लिए जा
पहुँचा। जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में
रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोडा हो लिया। अब
उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले। घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर
खिले॥ चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन। रहने सहने सो लगे आपस में
अपने रात दिन॥ ऐ खिलाडी यह बहुत सा कुछ नहीं थोडा हुआ। आन कर आपस में जो
दोनों का, गठजोडा हुआ। चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें। दिन फिरे
जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें॥ वह उड नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी
बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से
निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उडन-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत
बाँधे हुए खडे रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने
में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह
दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेडी पुखराज की दी और एक परजात का
पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक
कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडि या
उन्हीं उडन-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती
बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया-रानी
केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की
मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी। और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख
रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा-यह भी एक खेल है। जब चाहिए,
बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड दीजै; कंचन हो जायेगा। और जोगी
जी ने सभी से यह कह दिया-जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में
चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात
को फिर न तरसें। 9 लाख 99 गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड जडाऊ गहना
पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे
राज को छोड दिया गया। बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोडे लादे
हुए लुटा दिए। कोई उस भीड भाड में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको
घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न मिले हो। और मदनबान छुट
दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए। बिना
बुलाए दौडी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए। रानी केतकी के छेडने के लिए
उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योडा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ
सौ रूप से सँवारती थी। दोहरा घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घडी।
कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कडी॥ जी लगाकर केवडे से केतकी का जी
खिला। सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पडी॥ क्या न आई लाज कुछ
अपने पराए की अजी। थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हडबडी॥ मुसकरा के तब
दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा। मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछडी॥ जी में
आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी। बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी
की घडी॥
बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान
चिघाडती हुई आ निकली। एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो। एक
डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में
कूक सी पड गई। दोहरा छा गई ठंडी साँस झाडों में। पड गई कूक सी पहाडों में।
दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने
लगीं। बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही
और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग
साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने
लगी। रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी- दोहरा हम नहीं हँसने से
रूकते, जिसका जी चाहे हँसे। हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे॥ अब तो
सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया। पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग
गया॥ पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पँुछते चले। उन्ने यह बात कही-जो
तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से
इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं
दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान
चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी
बकती है। मैं इस पर बीडा उठाती हूँ। बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर
अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से
लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें। मदनबान का महाराज और
महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड
कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ
खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन
आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी
चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए। महाराज ने उस बधंबर
में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर
गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको
छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो
तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे
और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ
दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लडकी को क्या देना था। हिरनी हिरन
उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन
तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ
चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो,
कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा।
महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह दिया सारी छतों
और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर
बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक
जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ:
महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे। इस हेर फेर में वह राज
था। सब कहीं यही डौल था। जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी
केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ
रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे।
गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और
कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये
हुए आता हूं। गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं। आगे जो
होगी सो कहने में आवेंगी-यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। महाराज
जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी
बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन
पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक
टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के
सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो। चौतुक्का
पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने। सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने।। बूटे
बूटे ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने॥ जितने
डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के
साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नई ब्याही ढुलहिनें
नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के
पहने हुए थीं। सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन
बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण से हो
सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड
दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में
कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड
तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें
थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में
आ गई।
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