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बरसात के दिन
हैं, सावन का
महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं । रह - रहकर रिमझिम वर्षा होने
लगती है । अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा
मालूम हों रहा है, शाम हो
गयी । आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है । लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और
उनकी माताएँ भी । दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार
झुला रही हैं । कोई कजली गाने लगती है, कोई
बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं । ये
फुहारें मानो चिंताओं को ह्रदय से धो डालती हैं । मानो मुरझाए हुए मन को भी
हरा कर देती हैं । सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं । घानी साडियों ने
प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है ।
इसी समय एक
बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी
-बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती
चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे
लैस और गोटे, रंगीन
मोजे, खूबसूरत
गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों
के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने
कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज पसंद की,
जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार
था। मां से बोली--अम्मां, मैं यह
हार लूंगी।
महाशय दीनदयाल
प्रयाग के छोटे
- से
गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर
जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के
मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोडा, कई
गाएं- - भैंसें। वेतन कुल पांच रूपये पाते थे, जो उनके
तंबाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन
जानता है। जालपा उन्हीं की लडकी थी। पहले उसके तीन भाई और थे, पर इस
समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता--तेरे
भाई क्या हुए, तो वह
बडी सरलता से कहती--बडी
दूर खेलने गए हैं। कहते हैं, मुख्तार
साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष
के अंदर तीनों लङके जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूंक -
फूंककर पांव रखते, दूध के
जले थे, छाछ भी
फूंक - फूंककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब?
दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो
जालपा के लिए कोई न कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह
विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है।
गुडियां और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए
जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने
बिसाती से लिया था, अब उसका
सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं
हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई
त्योहार पडता, तो वह
उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आंखों में जंचता ही न था। एक दिन
दीनदयाल लौटे, तो
मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाए। मानकी को यह साके बहुत दिनों से थी। यह हार
पाकर वह मुग्ध हो गई। जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से
बोली--बाबूजी,
मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।
दीनदयाल ने
मुस्कराकर कहा—ला
दूंगा, बेटी!
बहुत जल्दी ।
बाप के शब्दों
से जालपा का मन न भरा।
मां—वह
तो बहुत रूपयों में बनेगा, बेटी!
जालपा—तुमने
अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं?
मां ने
मुस्कराकर कहा—तेरे
लिए तेरी ससुराल से आएगा।
यह हार छ
सौ में बना था। इतने रूपये जमा कर लेना, दीनदयाल के
लिए आसान
न था। ऐसे कौन बडे ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई
जीवन में फिर कभी इतने रूपये आयेंगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके ह्रदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए
अब उतनी भंयकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आएगा,
वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे,
तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से
आएगी।
लेकिन
ससुराल से न आए तो उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह चुके
थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल
से भी न
आया तो- उसने सोचा--तो
क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।
इस तरह
हंसते-खेलते सात वर्ष कट गए। और वह दिन भी आ गया, जब उसकी
चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।
2-
मुंशी
दीनदयाल की जान - पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बडे ही
सज्जन और सह्रदय कचहरी में नौकर थे और पचास रूपये वेतन पाते थे।
दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका
था। चाहते, तो हजारों वसूल करते, पर कभी एक
पैसे के भी रवादार नहीं हुए
थे। दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था?-यह
उनका स्वभाव
था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हों, पर रिश्वत को
हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आंखों से इस तरह के दृश्य
देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को संतान से हाथ धोते, किसी को दुर्व्यसनों के पंजे में फंसते। ऐसी उन्हें कोई
मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो उनकी यह दृढ़ धारणा हो गई थी
कि हराम की
कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते इस जमाने
में पचास रुपए की भुगुत ही क्या पांच आदमियों का पालन बडी
मुश्किल से होता था। लङके अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती, पर दयानाथ विचलित न होते थे। बडा लड़का दो ही महीने तक
कालेज में रहने
के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया--मैं
तुम्हारी डिग्री के लिए सबको
भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरूषार्थ से पढ़ो।
बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो । लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर
दो साल से वह बिलकुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर - सपाटे करता और
मां और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता
था। किसी का चेस्टर मांग लिया और शाम को हवा खाने निकल गए। किसी
का पंपःशू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बांधा ली। कभी बनारसी
फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन मेंब दस मित्रों ने एक-एक कपडा बनवा
लिया, तो दस सूट बदलने का उपाय हो गया। सहकारिता का यह बिलकुल
नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसंद किया।
दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रूपये थे और न एक नए परिवार
का भार उठाने की हिम्मत, पर जागेश्वरी ने त्रिया-हठ से काम लिया और इस
शक्ति के सामने पुरूष को झुकना पड़ा। जागेश्वरी बरसों से पुत्रवधू के लिए
तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएं बनकर आइ, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता। वह कुछ-कुछ निराश हो
चली थी। ईश्वर
से मनाती थी कि कहीं से बात आए। दीनदयाल ने संदेश भेजा, तो उसको
आंखें-सी मिल गई। अगर कहीं यह शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न
जाने कितने दिनों और राह देखनी पड़े। कोई यहां क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद। लङके पर कौन रीझता है। लोग तो धन देखते हैं, इसलिए उसने इस
अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।
जागेश्वरी
पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ,
बोली—वह भी तो कुछ देगा-
मैं
उससे मांगने तो जाऊंगा नहीं।
तुम्हारे
मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लडकी के ब्याह में पैसे
का मुंह कोई नहीं देखता। हां, मकदूर चाहिए, सो दीनदयाल पोढ़े आदमी हैं। और
फिर यही एक संतान है; बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए? दयानाथ को
अब कोई बात न सूझी, केवल यही कहा--वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें, मैं न कहूंगा कि दो, न कहूंगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं
चाहता,
और लूं, तो दूंगा किसके घर से?
दयानाथ ने
उपेक्षा-भाव से कहा--'खुल
चुका, जिसे शतरंज और सैर-सपाटे से फुरसत
न मिले, उसे सभी द्वार बंद मिलेंगे।
जागेश्वरी
को अपने विवाह की बात याद आई। दयानाथ भी तो गुलछर्रे उडाते थे
लेकिन उसके आते ही उन्हें चार पैसे कमाने की फिक्र कैसी सिर पर
सवार हो
गई थी। साल-भर भी न बीतने पाया था कि नौकर हो गए। बोली--बहू आ जाएगी, तो उसकी आंखें भी खुलेंगी, देख
लेना। अपनी बात याद करो। जब तक गले
में जुआ नहीं पडा है, तभी तक यह कुलेलें हैं। जुआ पडा और सारा नशा हिरन
हुआ। निकम्मों को राह पर लाने का इससे बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।
जब दयानाथ
परास्त हो जाते थे, तो अख़बार पढ़ने लगते थे। अपनी हार को छिपाने
का उनके पास यही संकेत था।
3-
मुंशी
दीनदयाल उन आदमियों में से थे, जो सीधों के साथ सीधे होते हैं, पर टेढ़ों के
साथ टेढ़े ही नहीं, शैतान हो जाते हैं। दयानाथ बडा-सा मुंह खोलते, हजारों की
बातचीत करते, तो दीनदयाल उन्हें ऐसा चकमा देते कि वह उम्र- भर याद
करते। दयानाथ की सज्जनता ने उन्हें वशीभूत कर लिया। उनका विचार
एक हजार
देने का था, पर एक हजार टीके ही में दे आए। मानकी ने कहा--जब
टीके में
एक हजार दिया, तो इतना ही घर पर भी देना पड़ेगा। आएगा कहां से-
दीनदयाल
चिढ़कर बोले--भगवान
मालिक है। जब उन लोगों ने उदारता दिखाई और
लड़का मुझे सौंप दिया, तो मैं भी दिखा देना चाहता हूं कि हम भी
शरीफ हैं
और शील का मूल्य पहचानते हैं। अगर उन्होंने हेकड़ी जताई होती,
तो अभी
उनकी खबर लेता।
दीनदयाल
एक हजार तो दे आए, पर दयानाथ का बोझ हल्का करने के बदले और
भारी कर दिया। वह कर्ज से कोसों भागते थे। इस शादी में उन्होंने मियां
की जूती मियां की चांद वाली नीति निभाने की ठानी
थी पर दीनदयाल की
सह्रदयता ने उनका संयम तोड़ दिया। वे सारे टीमटाम, नाच-तमाशे, जिनकी
कल्पना का
उन्होंने गला घोंट दिया था, वही रूप धारण करके उनके सामने
आ गए।
बंधा हुआ घोडाथान से खुल गया, उसे कौन रोक सकता है। धूमधाम
से विवाह
करने की ठन गई। पहले जोडे--गहने को उन्होंने गौण समझ रखा था,
अब वही
सबसे मुख्य हो गया। ऐसा चढ़ावा हो कि मड़वे वाले देखकर भङक
उठें।
सबकी आंखें खुल जाएं । कोई तीन हजार का सामान बनवा डाला। सर्राफ
को एक
हजार नगद मिल गए, एक हजार के लिए एक सप्ताह का वादा हुआ,
तो उसने
कोई आपत्ति न की। सोचा--दो
हजार सीधे हुए जाते हैं, पांच-सात सौ रूपये
रह जाएंगे, वह कहां जाते हैं। व्यापारी की लागत निकल आती है,
तो नगद को
तत्काल पाने के लिए आग्रह नहीं करता। फिर भी चन्द्रहार की कसर
रह गई।
जडाऊ चन्द्रहार एक हजार से नीचे अच्छा नहीं मिल सकता था। दयानाथ
का जी तो
लहराया कि लगे हाथ उसे भी ले लो, किसी को नाक सिकोड़ने की
जगह तो न
रहेगी, पर जागेश्वरी इस पर राजी न हुई। बाजी पलट चुकी थी।
दयानाथ ने
गर्म होकर कहा--तुम्हें
क्या, तुम तो घर में बैठी रहोगी। मौत तो मेरी
होगी, जब उधार के लोग नाकभौं सिकोड़ने लगेंगे।
जागेश्वरी--दोगे
कहां से, कुछ सोचा है?
दयानाथ--कम-से-कम एक हजार तो वहां मिल ही जाएंगे।
जागेश्वरी--खून
मुंह लग गया क्या?
दयानाथ ने
शरमाकर कहा--नहीं-नहीं, मगर आखिर वहां भी तो कुछ मिलेगा?
जागेश्वरी--वहां
मिलेगा, तो वहां खर्च भी होगा। नाम जोड़े गहने से
नहीं होता, दान-दक्षिणा से होता है।
इस तरह
चन्द्रहार का प्रस्ताव रद्द हो गया।
मगर
दयानाथ दिखावे और नुमाइश को चाहे अनावश्यक समझें, रमानाथ
उसे
परमावश्यक समझता था। बरात ऐसे धूम से जानी चाहिए कि गांव-भर में
शोर मच
जाय। पहले दूल्हे के लिए पालकी का विचार था। रमानाथ ने मोटर
पर जोर
दिया। उसके मित्रों ने इसका अनुमोदन किया, प्रस्ताव स्वीकृत हो गया।
दयानाथ
एकांतप्रिय जीव थे, न किसी से मित्रता थी, न किसी से
मेल-जोल। रमानाथ
मिलनसार युवक था, उसके मित्र ही इस समय हर एक काम में अग्रसर
हो रहे
थे। वे जो काम करते, दिल खोल कर। आतिशबाजियां बनवाई, तो
अव्वल दर्जे की।
नाच ठीक किया, तो अव्वल दर्जे का; बाजे-गाजे भी
अव्वल दर्जे के, दोयम या
सोयम का वहां जिक्र ही न था। दयानाथ उसकी उच्छृंखलता देखकर
चिंतित तो
हो जाते थे पर कुछ कह न सकते थे। क्या कहते!
4-
नाटक उस
वक्त पास होता है, जब रसिक समाज उसे पंसद कर लेता है।
बरात का
नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पंसद कर
लेते हैं।
नाटक की परीक्षा चार-पांच घंटे तक होती रहती है, बरात की परीक्षा
के लिए
केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़धूप
और तैयारी
का निबटारा पांच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से
वाह-वाह
निकल गया, तो तमाशा पास नहीं तो ! रूपया,
मेहनत, फिक्र, सब अकारथ।
दयानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता,
गांव में
अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धोंधों-पों-पों सुनकर मस्त हो
रहा था, कोई मोटर को आंखें गाड़-गाड़कर देख रहा था। कुछ लोग
फुलवारियों के तख्त
देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी।
हवाइयां
जब सकै से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले,
पीले, कुमकुमे-से बिखर जाते, जब चर्खियां छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल
आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे। वाह, क्या कारीगरी है!
जालपा के
लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हां, वह वर
को एक आंख
देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा
अवसर कहां। द्वारचार के समय उसकी सखियां उसे छत पर खींच ले
गई और
उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता, सारी
मनोव्यथा
मानो छू-मंतर
हो गई थी। मुंह पर हर्ष की लालिमा छा गई। अनुराग स्फूर्ति
का भंडार है।
द्वारचार
के बाद बरात जनवासे चली गई। भोजन की तैयारियां होने लगीं।
किसी ने
पूरियां खाई, किसी ने उपलों पर खिचड़ी पकाई। देहात के तमाशा देखने
वालों के
मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा। दस बजे
सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढ़ावा आ रहा है। बरात
में हर एक रस्म डंके की चोट पर अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ
रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढ़ावा ज्योंही
पहुंचा, घर में हलचल मच गई। स्त्री-पुरूष,
बूढ़े-जवान, सब चढ़ावा देखने के लिए
उत्सुक हो उठे। ज्योंही किश्तियां मंडप में पहुंचीं, लोग सब काम छोड़कर
देखने
दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मानकी प्यास से बेहाल हो
रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढ़ावा आते ही
प्यास भाग गई। दीनदयाल मारे भूख-प्यास
के निर्जीव-से पड़े थे, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े।
मानकी एक-एक चीज़ को निकाल-निकालकर देखने और दिखाने लगी। वहां
सभी इस
कला के विशेषज्ञ थे। मदोऊ ने गहने बनवाए थे, औरतों ने पहने थे,
सभी
आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुंदर है, कोई दस तोले की होगी वाह!
साढे। ग्यारह तोले से रत्ती-भर भी कम निकल जाए, तो कुछ हार जाऊं!
यह
शेरदहां तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है कारीगर के हाथ
चूम लें।
यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह! कभी देखा भी है, सोलह
तोले से
कम निकल जाए, तो मुंह न दिखाऊं। हां, माल उतना
चोखा नहीं है। यह कंगन
तो देखो, बिलकुल पक्की जडाई है, कितना बारीक
काम है कि आंख नहीं
ठहरती! कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह आब कहां।
चीज तो यह
गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं! और उनके बीच के हीरे कैसे
चमक रहे
हैं! किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या बंगालियों ने कारीगरी
का ठेका
ले लिया है, हमारे देश में एक-से-एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली
सुनार
बेचारे उनकी क्या बराबरी करेंगे। इसी तरह
एक-एक चीज की आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा--चन्द्रहार
नहीं है क्या!
मानकी ने
रोनी सूरत बनाकर कहा--नहीं, चन्द्रहार नहीं आया।
एक महिला
बोली--अरे, चन्द्रहार नहीं आया?
दीनदयाल
ने गंभीर भाव से कहा--और
सभी चीजें तो हैं, एक चन्द्रहार ही तो
नहीं है।
उसी महिला
ने मुंह बनाकर कहा--चन्द्रहार
की बात ही और है!
मानकी ने
चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा--बेचारी
के भाग में चन्द्रहार लिखा ही
नहीं है।
इस
गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति
- सी जालपा भी
खड़ी थी। और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चन्द्रहार का नाम न
आता था। उसकी छाती धक-धक
कर रही थी। चन्द्रहार नहीं है क्या?
शायद सबके नीचे हो इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया
चन्द्रहार नहीं है तो उसके कलेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ, देह में
रक्त की बूंद भी नहीं है। मानो उसे मूर्च्छा आ जायगी। वह उन्माद की सी दशा में
अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर
रोने लगी। वह लालसा जो आज सात
वर्ष हुए, उसके ह्रदय में अंकुरित हुई थी, जो
इस समय पुष्प और पल्लव से
लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वह हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा
जल गया?-केवल
उसकी राख रह गई। आज ही के दिन पर तो उसकी समस्त
आशाएं अवलंबित थीं। दुर्दैव
ने आज वह अवलंब भी छीन लिया। उस निराशा के
आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुंह नोच डाले। उसका वश
चलता, तो वह चढ़ावे को उठाकर आग में गेंक देती। कमरे में एक आले पर
शिव की मूर्ति रक्खी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की
भांति वह भी चूर-चूर हो गई। उसने निश्चय किया, मैं कोई आभूषण न
पहनूंगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप-विहीन हों, वे अपने
को गहने से सजाएं, मुझे तो ईश्वर ने यों ही सुंदरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर
भी बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रूपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों में इसके दूने
गहने आ जाते!
वह इसी
क्रोध में भरी बैठी थी कि उसकी तीन सखियां आकर खड़ी हो गई। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें
देखते ही आंखें पोंछ डालीं और मुस्कराने लगी।
राधा
मुस्कराकर बोली--जालपा— मालूम होता है, तूने बडी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध
पूरी हो गई। जालपा ने
अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे दीन -नजर से देखा, मानो जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है?
बासन्ती--तुम्हारी
सास बडी चतुर जान पड़ती हैं, कोई चीज नहीं छोड़ी।
जालपा ने
मुंह उधरकर कहा--ऐसा
ही होगा।
राधा--और
तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।
शहजादी--एक
चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबंद
तो है।
जालपा ने
वक्रोक्ति के भाव से कहा--हां, देह में एक आंख के न होने से क्या
होता है,
और सब अंग होते ही हैं, आंखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या!
बालकों के
मुंह से गंभीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा
के मुंह से यह लालसा से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बासन्ती अपनी हंसी
न रोक सकीं। हां, शहजादी को हंसी न आई। यह आभूषण लालसा उसके लिए
हंसने की बात नहीं, रोने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई
बोली--सब
न जाने कहां के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाए,
चन्द्रहार न लाए, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते हैं तो पूछती हूं कि
तुमने यह कहां
की रीति निकाली है?-ऐसा
अनर्थ भी कोई करता है।
शहजादी--तुम
पूछने को कहती हो, मैं रूलाकर छोड़ूंगी। मेरे चढ़ाव
पर कंगन नहीं
आया था, उस वक्त मन ऐसा खक्रा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दूं।
जब तक कंगन न बन गए, मैं नींद भर सोई नहीं।
राधा--तो
क्या तुम जानती हो, जालपा का चन्द्रहार न बनेगा।
शहजादी--बनेगा
तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस-पांच की चीज़ तो है
नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का
खर्च है, फिर कारीगर तो हमेशा
अच्छे नहीं मिलते।
राधा ने
हंसी को रोकते हुए कहा--इनसे
न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों -
अब उठोगी कि सारी रात उपदेश ही करती रहोगी!
शहजादी--चलती
हूं, ऐसी क्या भागड़ पड़ी है। हां, खूब याद आई, क्यों जल्ली, तेरी अम्मांजी के पास बडा अच्छा चन्द्रहार है। तुझे न
देंगी।
जालपा ने
एक लंबी सांस लेकर कहा--क्या
कहूं बहन, मुझे तो आशा नहीं है।
शहजादी--एक
बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे
हैं।
जालपा--मुझसे
तो न कहा जायगा।
शहजादी--मैं
कह दूंगी।
जालपा--नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मैं ज़रा उनके मातृस्नेह की परीक्षा
लेना चाहती हूं।
बासन्ती
ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा--अब
उठेगी भी कि यहां सारी रात
उपदेश ही देती रहेगी।
शहजादी
उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली--नहीं, अभी बैठो
बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं।
शहजादी--जब
यह दोनों चुड़ैलें बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूं और यह
दोनों मुझ पर झल्लाती हैं। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष की गांठ हूं।
बासन्ती--विष
की गांठ तो तू है ही।
शहजादी--तुम
भी तो ससुराल से सालभर बाद आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें
बनवा लाई।
बासन्ती--और
तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया।
शहजादी--मेरी
बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।
राधा--प्रेम
के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।
शहजादी--तो
सूखा प्रेम तुम्हीं को गले।
इतने में
मानकी ने आकर कहा--तुम
तीनों यहां बैठी क्या कर रही हो , चलो वहां
लोग खाना खाने आ रहे हैं।
तीनों
युवतियां चली गई। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर
मन-ही-मन सोचने लगी?-गहनों
से इनका जी अब तक नहीं भरा।
महाशय
दयानाथ जितनी उमंगों से ब्याह करने गए थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे।
दीनदयाल ने खूब दिया, लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब
नाच-तमाशे, नेगचार
में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे
में इतने रूपये खर्च किए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादा-से- ज्यादा
लोग यही तो कहते--महाशय
बडे कृपण हैं। उतना सुन लेने में क्या हानि थी?
मैंने गांव वालों को तमाशा दिखाने का ठेका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का
दुस्साहस है। उसी ने सारे खर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब
तकाजे तो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सर्राफ किसी तरह न मानता
था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रूपये देने का वादा था। सातवें दिन
सर्राफ आया, मगर यहां रूपये कहां थे? दयानाथ
में लल्लो-चप्पो की आदत न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोशिश की। किस्त
बांधकर सब रूपये
छः महीने में अदा कर देने का वादा किया। फिर तीन महीने पर आए, मगर
सर्राफ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला, जब दयानाथ ने तीसरे
दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया और यह भी उसकी सज्जनता
ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने
का कोई उपाय न सूझता था। कोई चलता हुआ आदमी शायद इतना व्यग्र न
होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन दयानाथ इस
मामले में अनाड़ी थे।
जागेश्वरी
ने आकर कहा--भोजन
कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।
दयानाथ ने
इस तरह गर्दन उठाई, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है।
बोले--तुम
लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।
जागेश्वरी--भूख
क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था! इस तरह दाना-पानी
छोड़ देने से महाजन के रूपये थोड़े ही अदा हो जाएंगे।
दयानाथ--मैं
सोचता हूं, उसे आज क्या जवाब दूंगा- मैं तो यह
विवाह करके बुरा
फंस गया। बहू कुछ गहने लौटा तो देगी।
जागेश्वरी--बहू
का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो उसकी
टेक है कि जब तक चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना ही न पहनूंगी। सारे गहने
संदूक में बंद कर रखे हैं। बस, वही एक बिल्लौरी हार गले में डाले हुए है।
बहुएं बहुत देखीं, पर ऐसी बहू न देखी थी। फिर कितना बुरा मालूम होता है
कि कल की आई बहू, उससे गहने छीन लिए जाएं।
जागेश्वरी--बेटे
का ब्याह किया है कि ठट्ठा
है?
शादी-ब्याह में सभी कर्ज़ लेते
हैं, तुमने कोई नई बात नहीं की। खाने-पहनने के लिए कौन कर्ज
लेता है।
धर्मात्मा बनने का कुछ फल मिलना चाहिए या नहीं- तुम्हारे ही दर्जे पर सत्यदेव
हैं, पक्का मकान खडाकर दिया, जमींदारी
खरीद ली, बेटी के ब्याह में कुछ
नहीं तो पांच हज़ार तो खर्च किए ही होंगे।
दयानाथ--जभी
दोनों लङके भी तो चल दिए!
जागेश्वरी--मरना-जीना
तो संसार की गति है, लेते हैं, वह भी मरते हैं,नहीं लेते, वह भी मरते हैं। अगर तुम चाहो तो छः महीने में सब रूपये
चुका सकते हो'
दयानाथ ने
त्योरी चढ़ाकर कहा--जो
बात जिंदगी?भर नहीं की, वह
अब आखिरी
वक्त नहीं कर सकता बहू से साफ-साफ कह दो, उससे पर्दा रखने की जरूरत
ही क्या है, और पर्दा रह ही कितने दिन सकता है। आज नहीं तो कल सारा हाल
मालूम ही हो जाएगा। बस तीन-चार चीजें लौटा दे, तो काम बन जाय। तुम उससे
एक बार कहो तो।
जागेश्वरी
झुंझलाकर बोली--उससे
तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जायगा।
सहसा
रमानाथ टेनिस-रैकेट लिये बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट था, सफेद
पतलून, कैनवस का जूता, गोरे रंग और सुंदर
मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों
की शान पैदा कर दी थी। रूमाल में बेले के गजरे लिये हुए था। उससे सुगंध उड़
रही थी। माता-पिता की आंखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, कि जागेश्वरी ने टोका--इन्हीं के
तो सब कांटे बोए हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते?(रमा
से) तुमने नाच-तमाशे में बारह-तेरह सौ रूपये उडा
दिए, बतलाओ
सर्राफ को क्या जवाब दिया जाय- बडी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी
हुआ, मगर बहू से गहने मांगे कौन- यह सब तुम्हारी ही करतूत है।
रमानाथ के
कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती तो रमा
क्या कर सकता था?जो
कुछ हुआ उन्हीं की अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इल्जाम
रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले--मैं
तुम्हें इल्जाम नहीं देता
भाई। किया तो मैंने ही, मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए।
सर्राफ का तकाजा है। कल उसका आदमी आवेगा। उसे क्या जवाब दिया
जाएगा?
मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रूपये के गहने उसे लौटा दिए
जायं। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा, लेकिन दस-बीस रूपये के लोभ
में लौटाने पर राजी हो जायगा। तुम्हारी क्या सलाह है?
रमानाथ ने
शरमाते हुए कहा--मैं
इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूं, मगर मैं
इतना कह सकता हूं कि इस प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मां तो
जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर
लिया है, जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा, कोई
गहना न पहनूंगी।
जागेश्वरी
ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा--यही तो मैं
इनसे कह रही हूं।
रमानाथ--रोना-धोना
मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जायगा।
दयानाथ ने
माथा सिकोड़कर कहा--उससे
पर्दा रखने की जरूरत ही क्या! अपनी
यथार्थ स्थिति को वह जितनी ही जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा।
रमानाथ ने
जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीभ उडाई थी। खूब
बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में
रूपये हैं, उनका सूद आता है। जालपा से अब अगर गहने की बात कही गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबाडिया समझेगी। बोला--पर्दा
तो एक दिन खुल ही जायगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने
लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।
दयानाथ--हमने
तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपती हैं।
रमानाथ--तो
आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाए हैं और दो-चार
दिन में लौटा देंगे! आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिए ही किया
था या कुछ और?
दयानाथ--तो
फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा। बिना मांगे काम नहीं चल
सकता कल या तो रूपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।
रमानाथ ने
कोई जवाब न दिया। जागेश्वरी बोली--और
कौन-सा बहाना किया
जायगा- अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है, तो शायद वह
देगी नहीं।
देगी भी तो दो-चार दिन में लौटाएंगे कैसे ?
दयानाथ को
एक उपाय सूझा।बोले--अगर
उन गहनों के बदले मुलम्मे के गहने
दे दिए जाएं?
मगर तुरंत ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है, खुद ही
उसका विरोध करते हुए कहा--हां, बाद मुलम्मा उड़ जायगा तो फिर लज्जित
होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है, यह सारी
स्थिति उसे समझा दी जाय। ज़रा देर के लिए उसे दुख तो जरूर होगा,लेकिन आगे
के वास्ते रास्ता साफ हो जाएगा।
संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा
रो-धोकर शांत हो जायगी, पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुंह न दिखा
सकेगा। जब वह
उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हुई- बैंक के रूपये क्या हुए, तो उसे क्या
जवाब देगा- विरक्त भाव से बोला--इसमें
बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा।
आप क्या सर्राफ को दो-चार-छः महीने नहीं टाल सकते?आप
देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रूपये बडी आसानी से दे
सकते हैं।
दयानाथ ने
पूछा--कैसे ?
रमानाथ--उसी
तरह जैसे आपके और भाई करते हैं!
दयानाथ--वह
मुझसे नहीं हो सकता।
तीनों कुछ
देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी
और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी के सुलझाने
का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था।
दयानाथ को झख मारकर अपना नियम तोड़ना पड़ेगा। यह कहां की नीति है
कि हमारे ऊपर संकट पडा हुआ हो और हम अपने नियमों का राग अलापे
जायं। रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम
कभी नहीं किया, वह आज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने मांगने में कोई संकोच
न होगा और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों
जालपा से डींगें मारीं। अब अपने मुंह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था।
जालपा की अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहिनी डाल दी थी। वह अपने
सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुंदरी के योग्य था? जालपा के पिता पांच रूपये के नौकर थे, पर जालपा ने कभी अपने घर में
झाड़ू न लगाई थी। कभी अपनी धोती न छांटी थी। अपना बिछावन न बिछाया
था। यहां तक कि अपनी के धोती की खींच तक न सी थी। दयानाथ पचास
रूपये पाते थे, पर यहां केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा
काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या
जाने! शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पडाथा। वह कई बार पति
और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहां कोई नौकर नहीं है? जालपा के
घर दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। यहां बच्चों को भी दूध मयस्सर न था। इन
सारे अभावों की पूर्ति के लिए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बडी- बडी बातों
के सिवा और क्या था। घर का किराया पांच रूपया था, रमानाथ ने पंद्रह
बतलाए थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रूपये था, रमानाथ ने चालीस
बतलाए थे। उस समय उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी, कि एक दिन सारा
भंडा फट जायगा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होता, लेकिन वह दिन इतनी जल्दी
आयगा, यह कौन जानता था। अगर उसने ये डींगें न मारी होतीं, तो जागेश्वरी
की तरह वह भी सारा भार दयानाथ पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता, लेकिन इस
वक्त वह अपने ही बनाए हुए जाल में फंस गया था। कैसे निकले! उसने
कितने ही उपाय सोचे, लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे
उलझनों में न डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल सूझी।
उसका दिल उछल पडा, पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका,
ओह!
कितनी
नीचता है! कितना कपट! कितनी निर्दयता! अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूर्तता!
उसके मन ने उसे धिक्काराब अगर इस वक्त उसे कोई एक हजार रूपया दे देता, तो वह उसका उम्रभर के लिए गुलाम हो जाता।
कोई उपाय सोचना ही
पड़ेगा।आप ही
सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।
क्यों
नहीं उससे दो-तीन गहने मांग लेते?तुम
चाहो तो ले सकते हो,
हमारे लिए मुश्किल है।
मुझे शर्म आती है।
तुम
विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे न मुझे मांगने दोगे,
तो आखिर यह नाव
कैसे चलेगी?
मैं एक बार नहीं, हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत
रक्खो। मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता इसमें शर्म की क्या
बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते?तुम्हीं
अपनी मां से पूछो।
जागेश्वरी
ने अनुमोदन किया--मुझसे
तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी
चिंता में पडा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूं। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न
होते?एक-एक
करके सब निकल गए। विवाह में पांच हजार से कम का चढ़ावा
नहीं गया था, मगर पांच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला
बनवाना भी नसीब न हुआ।
दयानाथ
ज़ोर देकर बोले--शर्म
करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा!
रमानाथ ने
झेंपते हुए कहा--मैं
मांग तो नहीं सकता, कहिए उठा लाऊं।
दयानाथ ने
भौंचक्ध होकर कहा--उठा
लाओगे, उससे छिपाकर?
रमानाथ ने
तीव्र कंठ से कहा--और
आप क्या समझ रहे हैं?
दयानाथ ने
माथे पर हाथ रख लिया, और एक क्षण के बाद आहत कंठ से बोले--नहीं, मैं ऐसा न करने दूंगा। मैंने छल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा।
वह भी अपनी बहू के साथ! छिः-छिः, जो काम सीधे से चल सकता है, उसके लिए यह फरेब- कहीं उसकी निगाह पड़ गई, तो समझते हो, वह तुम्हें
दिल में क्या समझेगी?
मांग लेना इससे कहीं अच्छा है।
रमानाथ--आपको
इससे क्या मतलब। मुझसे चीज़ें ले लीजिएगा, मगर जब आप
जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले
जाने की जरूरत ही क्या थी ?
व्यर्थ की विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा था कि आसानी से जितना
ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीडा
होने लगे?मैं
तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा।
मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की टोकरी पटक देंगे।
वरना मैं उन चीज़ों को कभी न ले जाने देता।
दयानाथ
कुछ लज्जित होकर बोले--इतने
पर भी चन्द्रहार न होने से वहां हाय-तोबा
मच गई।
रमानाथ--उस
हाय-तोबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी। जब इतना करने पर
भी हाय-तोबा मच गई, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई, इधर यह आफत
सिर पर आई। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इतने फटेहाल
हैं। चोरी हो जाने पर तो सब्र करना ही पड़ेगा।
रमा को
देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर
झुकाए चपत की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर रमानाथ ने चपत नहीं लगाई, मोढ़े पर
बैठकर गोपीनाथ से बोला--तुमने
भंग की दुकान देखी है न, नुक्कड़ पर?
गोपीनाथ
प्रसन्न होकर बोला--हां, देखी क्यों नहीं। जाकर चार
पैसे का माजून ले लो,
दौड़े हुए आना। हां, हलवाई की दुकान से आधा सेर मिठाई भी लेते आना। यह रूपया
लो।
कोई
पंद्रह मिनट में रमा ये दोनों चीज़ें ले, जालपा के कमरे की ओर चला। रात के दस
बज गए थे। जालपा खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदनी
में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुंबद और वृक्ष स्वप्न-चित्रों से लगते थे।
जालपा की आंखें चंद्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चंद्रमा की ओर उड़ी जा रही हूं। उसे अपनी नाक में
खुश्की, आंखों में जलन और
सिर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक ही क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ
हाथ में एक पोटली लिये, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।
जालपा ने
उठकर पूछा--पोटली
में क्या है?
रमानाथ--बूझ
जाओ तो जानूं ।
जालपा--हंसी
का गोलगप्पा है! (यह
कहकर हंसने लगी।)
रमानाथ—मलतब?
जालपा--नींद
की गठरी होगी!
रमानाथ--मलतब?
जालपा--तो
प्रेम की पिटारी होगी!
रमानाथ-
ठीक,
आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊंगा।
जालपा खिल
उठी। रमा ने बडे अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किए, फूलों के शीतल कोमल स्पर्श से जालपा के कोमल शरीर में
गुदगुदी-सी होने लगी।
उन्हीं फूलों की भांति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया।
जालपा ने
कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच
हुआ। उसकी बडी इच्छा हुई कि ज़रा आईने में अपनी छवि देखे। सामने
कमरे में लैंप जल रहा था, वह उठकर कमरे में गई और आईने के सामने खड़ी हो
गई। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी हूं।
उसने पानदान उठा लिया और बाहर आकर पान बनाने लगी। रमा को इस
समय अपने कपट-व्यवहार पर बडी ग्लानि हो रही थी। जालपा ने
कमरे से लौटकर प्रेमोल्लसित नजरों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुंह उधर
लिया। उस सरल विश्वास से भरी हुई आंखों के सामने वह ताक न सका। उसने
सोचा--मैं
कितना बडा कायर हूं। क्या मैं बाबूजी को साफ-साफ जवाब न दे
सकता था?मैंने
हामी ही क्यों भरी- क्या जालपा से घर की दशा साफ-साफ
कह देना मेरा कर्तव्य न था - उसकी आंखें भर आई। जाकर मुंडेर के पास
खडा हो गया। प्रणय के उस निर्मल प्रकाश में उसका मनोविकार किसी भंयकर
जंतु की भांति घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृणा हुई कि एक
बार जी में आया, सारा कपट-व्यवहार खोल दूं, लेकिन
संभल गया। कितना
भयंकर परिणाम होगा। जालपा की नज़रों से फिर जाने की कल्पना ही उसके लिए
असह्य थी।
जालपा ने
प्रेम-सरस नजरों से देखकर कहा - मेरे दादाजी तुम्हें देखकर गए और
अम्मांजी से तुम्हारा बखान करने लगे, तो मैं सोचती थी कि तुम कैसे होगे।
मेरे मन में तरह-तरह के चित्र आते थे। '
रमानाथ ने
एक लंबी सांस खींची। कुछ जवाब न दिया।
जालपा ने
फिर कहा - मेरी सखियां तुम्हें देखकर मुग्ध हो गई। शहजादी तो खिड़की
के सामने से हटती ही न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बडी इच्छा थी।
जब तुम अंदर गए थे तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े दिए थे, याद है?'
रमा ने
कोई जवाब न दिया ।
रमा ने
मानो नदी में डूबते हुए कहा--मुझे
तो याद नहीं आता।'
जालपा--अच्छा, अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाज़ार की तरफ गए थे कि
नहीं?'
रमा ने
सिर झुकाकर कहा--आज
तो फुरसत नहीं मिली।'
जालपा--जाओ, मैं तुमसे न बोलूंगी! रोज हीले-हवाले करते हो अच्छा, कल ला
दोगे न?'
रमानाथ का
कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है।
इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहाहै। जिस
सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का
सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ,कि जी में
आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अंत कर दे।
आधी रात
बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से
झांक रहा
था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा
मन में
विकट संकल्प करके धीरे से उठा, पर निद्रा की गोद में सोए हुए पुष्प
प्रदीप ने
उसे अस्थिर कर दिया। वह एक क्षण खडा मुग्ध नजरों से जालपा के
निद्रा-विहसित मुख की ओर देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर
लेट गया।
जालपा ने
चौंककर पूछा--कहां
जाते हो, क्या सवेरा हो गया?
रमानाथ--अभी
तो बडी रात है।
जालपा--तो
तुम बैठे क्यों हो?
रमानाथ--कुछ
नहीं, ज़रा पानी पीने उठा था।
जालपा ने
प्रेमातुर होकर रमा के गले में बांहें डाल दीं और उसे सुलाकर
कहा--तुम
इस तरह मुझ पर टोना करोगे, तो मैं भाग जाऊंगी। न
जाने किस तरह ताकते हो, क्या करते हो, क्या मंत्र पढ़ते हो
कि मेरा मन चंचल हो जाता है। बासन्ती
सच कहती थी, पुरूषों की आंख में टोना होता है।
रमा ने
फटे हुए स्वर में कहा--टोना
नहीं कर रहा हूं, आंखों की प्यास बुझा रहा
हूं।
दोनों फिर
सोए, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा
चिंता में मग्न।
तीन घंटे
और गुजर गए। द्वादशी के चांद ने अपना विश्व-दीपक बुझा
दिया।
प्रभात की शीतल-समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी।
आधी रात
तक जागने वाला बाज़ार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग
रहा था।
मन में भांति-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता
था और फिर
लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज़ कान में आई,
तो घबराकर
उठ बैठा और कमरे में जा पहुंचा। गहनों का संदूकचा आलमारी
में रक्खा
हुआ था, रमा ने उसे उठा लिया, और थरथर
कांपता हुआ नीचे उतर गया। इस
घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छांटकर
निकाल
लेता। दयानाथ नीचे बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे-से जगाया, उन्होंने
हकबकाकर
पूछा —कौन
रमा ने
होंठ पर उंगली रखकर कहा--मैं
हूं। यह संदूकची लाया हूं। रख लीजिए।
दयानाथ
सावधन होकर बैठ गए। अभी तक केवल उनकी आंखें जागी थीं, अब चेतना भी जाग्रत हो गई। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा
लाने की बात कही
थी, उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें
इसका विश्वास न
आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा। इन कमीनी
चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र
से
साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था।
रमा ने
धृष्टता से कहा--आप
ही का तो हुक्म था।
दयानाथ--झूठ
कहते हो!
रमानाथ--तो
क्या फिर रख आऊं?
रमा के इस
प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए
बोले--अब
क्या रख आओगे, कहीं देख ले,
तो गजब ही हो जाए। वही काम करोगे, जिसमें जग-हंसाई हो खड़े क्या हो,
संदूकची मेरे बडे संदूक में रख आओ और
जाकर लेट रहो कहीं जाग पड़े तो बस! बरामदे के
पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना संदूक
रखा था।
रमा ने संदूकची उसके अंदर रख दी और बडी फुर्ती से ऊपर चला
गया। छत
पर पहुंचकर उसने आहट ली, जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा
में मग्न
थी।
रमा
ज्योंही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई।
रमा ने
पूछा--क्या
है, तुम चौंक क्यों पड़ीं?
जालपा ने
इधर-उधर प्रसन्न नजरों से ताककर कहा--कुछ
नहीं, एक स्वप्न देख रही
थी। तुम बैठे क्यों हो, कितनी रात है अभी?
रमा ने
लेटते हुए कहा--सवेरा
हो रहा है, क्या स्वप्न देखती थीं?
जालपा--जैसे
कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाए लिये जाता हो।
रमा का
ह्रदय इतने जोर से धक-धक करने लगा, मानो उस पर हथौड़े
पड़ रहे
हैं। खून सर्द हो गया। परंतु संदेह हुआ, कहीं इसने मुझे देख तो नहीं
लिया। वह
ज़ोर से चिल्ला पडा--चोर!
चोर! नीचे
बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे--चोर!
चोर! जालपा
घबडाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गई, झटके से आलमारी खोली।
संदूकची
वहां न थी?
मूर्छित होकर फिर पड़ी।
सवेरा
होते ही दयानाथ गहने लेकर सर्राफ के पास पहुंचे और हिसाब होने लगा।
सर्राफ के
पंद्रह सौ रू. आते थे, मगर वह केवल पंद्रह सौ रू. के गहने लेकर
संतुष्ट न
हुआ। बिके हुए गहनों को वह बक्रे पर ही ले सकता था। बिकी हुई
चीज़ कौन
वापस लेता है। रोकड़ पर दिए होते, तो दूसरी बात थी। इन चीज़ों
का तो
सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धान्त की बातें कीं,दयानाथ को
कुछ ऐसा शिकंजे में कसा कि बेचारे को हां-हां करने के सिवा
और कुछ न
सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दुकानदार से क्या पेश पाता - पंद्रह
सौ रू.
में पच्चीस सौ रू. के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रू. और बाकी
रह गए। इस
बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एकदूसरे
को दोषी
ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बंद रही, मगर इस चोरी
का हाल
गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फट जाने का भय
था। जालपा
से यही कहा गया कि माल तो मिलेगा नहीं, व्यर्थ का झंझट भले
ही होगा।
जालपा ने भी सोचा, जब माल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ
क्यों की जाय।
जालपा को
गहनों से जितना प्रेम था, उतना कदाचित संसार की और किसी
वस्तु से
न था, और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी। जब वह तीन वर्ष
की अबोध
बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे।
दादी जब
उसे गोद में खिलाने लगती, तो गहनों की ही चर्चा करती--तेरा
दूल्हा तेरे लिए
बडे सुंदर गहने लाएगा। ठुमक-ठुमककर चलेगी। जालपा
पूछती--चांदी
के होंगे कि सोने के, दादीजी?
दादी
कहती--सोने
के होंगे बेटी, चांदी के क्यों लाएगा- चांदी के लाए तो तुम
उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।
मानकी
छेड़कर कहती--चांदी
के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहां मिले जाते हैं!
जालपा
रोने लगती, इस बूढ़ी दादी, मानकी, घर की महरियां, पड़ोसिनें
और
दीनदयाल--सब
हंसते। उन लोगों के लिए यह विनोद का अशेष भंडार
था। बालिका जब
ज़रा और बडी हुई, तो गुडियों के ब्याह करने लगी। लडके
की ओर से
चढ़ावे जाते, दुलहिन को गहने पहनाती, डोली में
बैठाकर विदा करती, कभी-कभी
दुलहिन गुडिया अपने गुये दूल्हे से गहनों के लिए मान करती, गुड्डा
बेचारा
कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था। उन्हीं दिनों
बिसाती ने
उसे वह चन्द्रहार दिया, जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।
ज़रा और
बडी हुई तो बडी-बूढि.यों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी।
महिलाओं
के उस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने
कौन-कौन
गहने बनवाए, कितने दाम लगे, ठोस हैं या पोले, जडाऊ हैं या सादे,
किस लडकी
के विवाह में कितने गहने आए?
इन्हीं महत्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना, टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना
रोचक, इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था। इस आभूषण-मंडित संसार
में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था।
महीने-भर से ऊपर हो
गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ
खाती-पीती है, न किसी से हंसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य
नजरों से
शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया,
पड़ोसिनें
समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए, पर जालपा ने
रोग- शय्या न
छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्वास नहीं है, यहां तक कि रमा
से भी
उदासीन रहती है। वह समझती है, सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सबके-
सब मेरे
प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है, तो फिर
मेरे गहने
क्यों नहीं बनवाते?जिससे
हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं, उसी पर सबसे अधिक
रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर
था। अगर
यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न
टाल सकता, पर यह कुछ कहें भी- इनके मुंह में तो दही जमा हुआ है।
मुझसे प्रेम
होता, तो यों निश्चिंत न बैठे रहते। जब तक सारी चीज़ें न बनवा
लेते, रात को नींद न
आती। मुंह देखे की मुहब्बत है, मां-बाप से कैसे कहें, जाएंगे तोअपनी ही
ओर, मैं कौन हूं! वह रमा से
केवल खिंची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दोचार
जली-कटी
सुना देती। बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता! गरीब अपनी
ही लगाई
हुई आग में जला जाता था। अगर वह जानता कि उन डींगों का यह
फल होगा, तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके ह्रदय
को कुचले
डालती थी। कहां सुबह से शाम तक हंसी-कहकहे, सैर - सपाटे में
कटते थे, कहां अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी
मस्ती गायब हो
गई। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता, यह चाहते तो दो-चार महीने
में सब
रूपये अदा हो जाते, मगर इन्हें क्या फिक्र! मैं चाहे मर जाऊं पर यह
अपनी टेक
न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए, निष्कपट ह्रदय में आग-सी सुलगती
रहती थी।
जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुंह से ठंडी सांस निकल
जाती थी।
वह सुखद प्रेम-स्वप्न इतनी जल्द भंग हो गया, क्या वे दिन फिर
कभी
आएंगे- तीन हज़ार के गहने कैसे बनेंगे- अगर नौकर भी हुआ, तो ऐसा
कौन-सा
बडा ओहदा मिल जाएगा- तीन हज़ार तो शायद तीन जन्म में भी न
जमा हों।
वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिसमें वह जल्द-से-
जल्द अतुल
संपत्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी निकल
आती! फिर
तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार
बनवाता।
उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता
तो अवश्य
बनाकर चला देता।एक दिन वह
शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा।
शतरंज की
बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था,
लेकिन वह
संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर
सकता था।
यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है, जब
तक किसी
के समाने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी, फिर कोईबात भी न
पूछेगा। कोई ऐसा भलामानुस न दीखता था, जो कुछ बिना कहे ही
जान जाए, और उसे कोई अच्छी-सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत
खिकै था।
मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और आएं
तो द्वार
से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार
सुनाऊंगा
कि बचा याद करें, मगर वह ज़रा ग़ौर करता तो उसे मालूम हो जाता
कि इस
विषय में मित्रों का उतना दोष न था, जितना खुद उसका। कोई ऐसा
मित्र न
था, जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी।
घर की
असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह
उसी का फल
था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी
से अपनी
मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस की भांति अंदर घुटकर
असह्य हो
जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया।
जागेश्वरी
ने पानी लाकर रख दिया और पूछा--आज
तुम दिनभर कहां रहे?लो
हाथ- मुंह धो डालो। रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से
कहा--मुझे मेरे घर पहुंचा दो, इसी वक्त!
जागेश्वरी
बोली--भला
इस तरह कहीं बहू-बेटियां विदा होती हैं, कैसी बात कहती
हो, बहू?
जालपा--मैं
उन बहू-बेटियों में नहीं हूं। मेरा जिस वक्त जी चाहेगा, जाऊंगी, जिस वक्त जी चाहेगा, आऊंगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहां कोई मेरी बात
नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती।
सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूं। कोई झांकता तक नहीं। मैं चिडिया नहीं
हूं, जिसका पिंजडादाना-पानी रखकर बंद कर दिया जाय।
मैं भी आदमी हूं। अब इस घर में
मैं क्षण-भर न रूकूंगी। अगर कोई मुझे भेजने न जायगा, तो अकेली चली जाउंगी। राह में कोई भेडिया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जाएगा और उठा भी ले जाए, तो क्या ग़म। यहां कौन-सा सुख भोग रही हूं।
रमा ने
सावधन होकर कहा--आख़िर
कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?
जालपा--बात
कुछ नहीं हुई, अपना जी है। यहां नहीं रहना चाहती।
रमानाथ--भला
इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे, कुछ
यह भी तो
सोचो!
जालपा--यह
सब कुछ सोच चुकी हूं, और ज्यादा नहीं सोचना चाहती।
मैं जाकर अपने कपड़े बांधाती हूं और इसी गाड़ी से जाऊंगी।
यह कहकर
जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शांत करूं।
जालपा
अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और
बोला--तुम्हें
मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो!
जालपा ने
त्योरी चढ़ाकर कहा--तुम्हारी
कसम की हमें कुछ परवा नहीं है।
उसने अपना
हाथ छुडालिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे
खडाहो गया। जालपा ने बिस्तरबंद से बिस्तरे को बांधा और फिर अपने संदूक को
साफ करने लगी। मगर अब उसमें वह पहले-सी तत्परता न थी, बार-बार संदूक बंद करती और खोलती।
वर्षा बंद
हो चुकी थी, केवल छत पर रूका हुआ पानी टपक रहा था। आख़िर वह उसी बिस्तर
के बंडल पर बैठ गई और बोली--तुमने मुझे कसम क्यों
दिलाई? रमा के
ह्रदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला--इसके
सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या उपाय था?
जालपा--क्या
तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊं?
रमानाथ--तुम
ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुंह से निकालती हो? मैं तो
चलने को तैयार हूं, न मानोगी तो पहुंचाना ही पड़ेगा।
जाओ, मेरा ईश्वर मालिक है,
मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्मां से पूछ लो।
बुझती हुई
आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली--वह
मेरे कौन होते हैं,जो उनसे पूछूँ?
रमानाथ--कोई
नहीं होते?
जालपा--कोई
नहीं! अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रूपये
रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता ये लोग क्या मेरे आंसू
न पोंछ सकते थे? मैं दिन-के दिन यहां पड़ी रहती हूं, कोई झूठों भी पूछता है? मुहल्ले की
स्त्रियां मिलने आती हैं, कैसे मिलूं ?
यह सूरत तो मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई
कितने दिन रह सकता है? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा
नहीं रही। आखिर दो लङके और भी तो हैं, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें!
रमा को
बडी-बडी बातें करने का फिर अवसर मिला। वह खुश था कि इतने दिनों के बाद आज
उसे प्रसन्न करने का मौका तो मिलाब बोला--प्रिये, तुम्हारा ख्याल बहुत ठीक है। जरूर यही बात है। नहीं तो
ढाई-तीन हज़ार उनके लिए क्या बडी बात थी? पचासों
हजार बैंक में जमा हैं, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने
जाते हैं।
जालपा--मगर
हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के!
रमानाथ--मक्खीचूस
न होते, तो इतनी संपत्ति कहां से आती!
जालपा--मुझे
तो किसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की
कमी है! दाल-रोटी वहां भी मिल जायगी। दो-चार सखी-सहेलियां हैं, खेत- खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा।
रमानाथ--और
मेरी क्या दशा होगी, जानती हो?
घुल-घुलकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई, मेरे दिल पर
जैसी गुजरती है, वह दिल ही जानता है। अम्मां और
बाबूजी से एक बार नहीं, लाखों बार कहा, ज़ोर देकर कहा कि दो-चार चीज़ें तो बनवा ही दीजिए, पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे
आंखें उधर कर लीं।
जालपा--जब
तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझे बुला लेना।
रमानाथ--तलाश
कर रहा हूं। बहुत जल्द मिलने वाली है। हज़ारों बड़े-बडे आदमियों से मुलाकात
है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हां, ज़रा अच्छी जगह चाहता हूं।
जालपा--मैं
इन लोगों का रूख समझती हूं। मैं भी यहां अब दावे के साथ रहूंगी। क्यों, किसी से नौकरी के लिए कहते नहीं हो?
रमानाथ--शर्म
आती है किसी से कहते हुए।
जालपा--इसमें
शर्म की कौन-सी बात है - कहते शर्म आती हो, तो खत
लिख दो।
रमा उछल
पडा, कितना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी
थी। बोला--हां, यह तुमने
बहुत अच्छी तरकीब बतलाई, कल जरूर लिखूंगा।
जालपा--मुझे
पहुंचाकर आना तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।
रमानाथ--तो
क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और
मैं खत लिख चुका! इस वियोग के दुःख में बैठकर रोऊंगा कि नौकरी ढूंढूगा।
नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊंगा।
मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहां पडा-सडा करूं। हटो तो ज़रा मैं बिस्तर खोल
दूं।
जालपा ने
बिस्तर पर से ज़रा खिसककर कहा--मैं
बहुत जल्द चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।
रमा ने
बिस्तर खोलते हुए कहा--जी
नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे
में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के
साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे कदम
रक्खा जायगा।
जालपा ने
एहसान जताते हुए कहा--आपने
मेरा बंधा-बंधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज
कितने आनंद से घर पहुंच जाती। शहजादी सच कहती थी,
मर्द बडे टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा
भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट
में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर दिए। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किए अब
निर्वाह नहीं है।
रमानाथ--कल
नहीं, मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता
हूं।
जालपा--पान
तो खाते जाओ।
रमानाथ ने
पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे। मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े
हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरूष से क्या नहीं करा
सकता।
नौ
रमा के
परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो
चालीस के ऊपर थी, पर थे बडे रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे
पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं
किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हज़ारों
के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम
समझते थे। रमा से बडा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो
रात-रात
भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज
की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको
पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज
खेलने लगा। बहू आई है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई
बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा,
रह गए। कहां जायं- सिनेमा ही देख आवें- किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से
उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें सिनेमा
के सिवा और कुछ न सूझा।कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में
कदम रखा। रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका
हाथ पकड़कर बोले--आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर! तुम तो इस बुड्ढे को बिलकुल भूल
ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे?प्रेमिका
की रसीली
बातों का
आनंद यहां कहां?
चोरी का कुछ पता चला?
रमानाथ--कुछ
भी नहीं।
रमेश--बहुत
अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई,
नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बडा दुःख हुआ होगा?
रमानाथ--कुछ
पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है?
मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं।
बाबूजी सुनते नहीं।
रमेश--बाबूजी
के पास क्या काई का खजाना रक्खा हुआ है? अभी
चारपांच हज़ार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने
बनवा दें? दस-बीस हज़ार रूपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही
क्या पचास रू. होता ही क्या है?
रमानाथ--मैं
तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं
नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उडाते थे,
नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?
रमेश ने
ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा--आओ
एक बाजी हो जाए, फिर इस मामले को सोचें,
इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है।
अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।
रमानाथ--मेरा
तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।
रमेश बाबू
ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा--आओ
बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।
रमानाथ--ज़रा
भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुडाते ही ओले
पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता!
रमेश--अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा। ज़रा अक्ल की
गांठ तो खुले।
बाज़ी शुरू
हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रूख पीट लिया।
रमानाथ--ओह, क्या गलती हुई!
रमेश बाबू
की आंखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न
था। बोले--बोहनी
तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रूपये। वह रंगी दाढ़ी वाले खां साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूं। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें।
बाल-बच्चे वाले आदमी
हैं। वह
तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए।तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो। यह कहते-कहते रमा
का फीला मार लिया। रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा--आप
मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उडाते जाते हैं,
इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।
रमेश--देखो
भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती
तो नहीं उठाया। हां, तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?
रमानाथ--वेतन
तो तीस है।
रमेश--हां, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर
बढ़जाय। मेरी तो राय है, कर लो।
रमानाथ--अच्छी
बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।
रमेश--जगह
आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल.एल. बी. करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की
शादियां अच्छे घरों में कीं। हां, ज़रा समझ-बूझकर
काम करने की जरूरत है।
रमानाथ--आमदनी
की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज़ तो है
नहीं।ट
रमेश--बहुत
खराब, मगर बाल-बच्चों वाले आदमी क्या करें। तीस
रूपयों में गुज़र नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूं। मेरे लिए डेढ़सौ काफी
हैं। कुछ बचा भी लेता हूं, लेकिन जिस घर में बहुत
से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी
क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह
भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न
होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी खाते हैं। फिर
एक को तीस रूपये और दूसरे को तीन सौ रूपये क्यों देते हो?
रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बडे ज़ोर से
कहकहा माराब
रमा ने
रोष के साथ कहा--अगर
आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए, नहीं मैं जाता हूं।
मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उडा लिए!
रमेश--अच्छा
साहब, अब बोलूं तो ज़बान पकड़ लीजिए। यह लीजिए,
शह! तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें
यह जगह मिल जाएगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा।
रमानाथ--आप
तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।
रमेश--अजी
वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल
चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक मां सि' किया है।
क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह!
रमानाथ--जी
तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।
रमेश--देर
क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का
अरमान निकल जाय। यह शह और मात!
रमानाथ--अच्छा
कल की रही। कल ललकार कर पांच मातें न दी हों तो कहिएगा।
रमेश--अजी
जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे! हिम्मत हो, तो अभी सही!
रमानाथ--अच्छा
आइए, आप भी क्या कहेंगे,
मगर मैं पांच बाज़ियों से कम न खेलूंगा!
रमेश--पांच
नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर
खाना खा लें। तब निश्चिन्त होकर बैठें। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं कि आज
यहीं सोएंगे, इंतज़ार न करें।
दोनों ने
भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठेब पहली बाज़ी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की
जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई तो दो बज
गए।
रमानाथ--अब
तो मुझे नींद आ रही है।
रमेश--तो
मुंह धो डालो, बरग रक्खी हुई है। मैं पांच बाज़ियां
खेले बगैर सोने न दूंगा।
रमेश बाबू
को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को
लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इस वक्त चाहे जितनी बाज़ियां खेलूं,
जीत मेरी ही होगी मगर जब चौथी बाज़ी हार गए, तो यह
विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं। बोले--अब
तो सोना चाहिए।
रमानाथ--क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिए?
रमेश--कल
दफ्तर भी तो जाना है।
रमा ने
अधिक आग्रह न किया। दोनों सोए।
रमा यों
ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का
अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे,
स्नान किया, संध्या की,
घूमने गए और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही
रहा। आखिर जब साढ़े नौ बज गए तो उन्होंने उसे जगाया।
रमा ने
बिभड़कर कहा--नाहक
जगा दिया, कैसी मजे क़ी नींद आ रही थी।
रमेश--अजी
वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?
रमानाथ--आप
दे दीजिएगा।
रमेश--और
जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊंगा?
रमानाथ--ऊंह, जो चाहे कीजिएगा, मैं तो सोता हूं।
रमा फिर
लेट गया और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ
हड़बडाकर उठा और आंखें मलता हुआ बोला--मैं भी
चलूंगा।
रमानाथ--आप
तो चले जा रहे हैं।
रमेश--नहीं, अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रूक सकता हूं, तैयार हो जाओ।
रमानाथ--मैं
तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।
रमेश--कहता
तो हूं, अभी आधा घंटे तक रूका हुआ हूं।
रमा ने एक
मिनट में मुंह धोया, पांच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।
रास्ते
में रमेश ने मुस्कराकर कहा--घर
क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रक्खा
है?
रमानाथ--कह
दूंगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।
रमेश--मुझे
गालियां दिलाओगे और क्या फिर कभी न आने पाओगे।
रमानाथ--ऐसा
स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां, यह तो बताइए, मुझे अर्ज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?
रमेश--और
क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायगी?
महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें
लानी पडेंगी। सुबह-शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?
रमानाथ--तो
मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझे तो अर्ज़ी लेकर जाते ही शर्म आती
है।खुशामदें कौन करेगा- पहले मुझे क्लर्कों पर बडी हंसी आती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंगे?
रमेश--बुरी
तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते
हैं।
रमानाथ--आपको
तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे!
रमेश--पूरे
पच्चीस हो गए, साहब! बीस बरस तो स्त्री का देहांत
हुए हो गए। दस रूपये पर नौकर हुआ था!
रमानाथ--आपने
दूसरी शादी क्यों नहीं की- तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।
रमेश ने
हंसकर कहा--बरफी
खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का
सुख भोगने के बाद झोंपडा किसे अच्छा लगता है? प्रेम
आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो,
अब तो बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं तुमसे सच कहता
हूं, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर
आंख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं, कई
बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा
भी, लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में
मेरे लिए प्रेम
का सजीव आनंद भरा हुआ है। यों
बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुंच गए।
10
रमा दफ्तर
से घर पहुंचा, तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल
घिर आए। पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर
पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रूका न गया। हाते के बाहर भी न
निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रूका नहीं।
नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर
सकता था? वेतन
तो केवल
तीस ही रूपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था कि
कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर
पचास-साठ रूपये महीने भी बच जायं, तो पांच साल में
जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी
न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।
जालपा उसे
देखते ही बोली--यह
भीग कहां गए, रात कहां गायब थे?
रमानाथ--इसी
नौकरी की फिक्र में पडा हुआ हूं। इस वक्त दफ्तर से चला आता हूं।
म्युनिसिपैलिटी के दफ्तरमें मुझे एक जगह मिल गई।
जालपा ने
उछलकर पूछा--सच!
कितने की जगह है?
रमा को
ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री
के नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला--अभी
तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदनी
की है।
जालपा ने
उसके लिए किसी बडे पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली--चालीस
में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते!
रमानाथ--मिल
तो सकती थी सौ रूपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रूपये ऊपर से मिल जाएंगे।
जालपा--तो
तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?
रमा ने
हंसकर कहा--नहीं
प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना
पड़े। बड़े-बडे महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंगे।
मैं जिसे
चाहूं दिनभर दफ्तर में खडा रक्खूं, महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी
के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।
जालपा
संतुष्ट हो गई, बोली--हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।
रमानाथ--वह
तो करूंगा ही।
जालपा--अभी
अम्मांजी से तो नहीं कहा?जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे
बडी खुशी यही है कि अब मालूम होगा कि यहां मेरा भी कोई अधिकार है।
रमानाथ--हां, जाता हूं, मगर उनसे तो मैं बीस ही
बतलाऊंगा।
जालपा ने
उल्लसित होकर कहा--हां
जी, बल्कि पंद्रह ही कहना,
ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते
हैं। मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊंगी।
इतने में
डाकिए ने पुकारा। रमा ने दरवाज़े पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था।
लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले--तुम्हारे
घर से आया है, देखो इसमें क्या है?
रमा ने
चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोलाब उसमें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें
एक चन्द्रहार रक्खा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हंसकर बोला--ईश्वर
ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती
है।
जालपा ने
कुंठित स्वर में कहा--अम्मांजी
को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो
इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।
रमा ने
विस्मित होकर कहा--लौटाने
की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?
जालपा ने
नाक सिकोड़कर कहा--मेरी
बला से, रानी ऱूठेंगी अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी
दया के बिना भी जीती रह सकती हूं। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया
आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मैं उनके घर से
विदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना
चाहती। अभी उनके ओढ़ने-पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से
रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जाएंगे। मैं अम्मांजी
को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे
गहनों की भूखी नहीं है।
रमा ने
संतोष देते हुए कहा--मेरी
समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो,
उन्हें कितना दुःख होगा। विदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला
जाता।
जालपा--मैं
इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।
रमानाथ--आखिर
क्यों?
जालपा--मेरी
इच्छा!
रमानाथ--इस
इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?
जालपा
रूंधे हुए स्वर में बोली--कारण
यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं,
बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही
नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देने वाले का ह्रदय देखना
चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें,
तो मैं दोनों हाथों से ले लूं। जब दिल पर जब्र करके दुनिया की लाज से या
किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान
भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।
माता के
प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तर्क और प्रमाण
नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला--ज़रा
अम्मां और बाबू जी को तो दिखा दूं। कम-से-कम उनसे पूछ तो लेना ही चाहिए।
जालपा ने
हार उसके हाथ से छीन लिया और बोली--वे
लोग मेरे कौन होते हैं, जो मैं उनसे पूछूं - केवल
एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।
यह कहते
हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपडा लपेटकर सीने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते
फिर कहा--ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो
जाएगी। इस पर
जालपा ने कठोर नजरों से देखकर कहा--जब
तक मैं इसे लौटान दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा।
मेरे ह्रदय में कांटा-सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो।
एक क्षण
में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिये हुए चिंतित भाव से नीचे चला।
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