देस
बिराना
सूरज प्रकाश
24 सितम्बर,
1992। कैलेंडर एक बार फिर वही महीना और वही तारीख दर्शा रहा है। सितम्बर और
24 तारीख। हर साल यही होता है। यह तारीख मुझे चिढ़ाने, परेशान करने और वो
सब याद दिलाने के लिए मेरे सामने पड़ जाती है जिसे मैं बिलकुल भी याद नहीं
करना चाहता।
आज पूरे चौदह बरस हो जायेंगे मुझे घर छोड़े हुए या यूं कहूं कि इस बात को
आज चौदह साल हो जायेंगे जब मुझे घर से निकाल दिया गया था। निकाला ही तो गया
था। मैं कहां छोड़ना चाहता था घर। छूट गया था मुझसे घर। मेरे न चाहने के
बावजूद। अगर दारजी आधे- अधूरे कपड़ों में मुझे धक्के मार कर घर से बाहर
निकाल कर पीछे से दरवाजा बंद न कर देते तो मैं अपनी मर्जी से घर थोड़े ही
छोड़ता। अगर दारजी चाहते तो गुस्सा ठंडा होने पर कान पकड़ कर मुझे घर वापिस
भी तो ले जा सकते थे। मुझे तो घर से कोई नाराज़गी नहीं थी। आखिर गोलू और
बिल्लू सारा समय मेरे आस-पास ही तो मंडराते रहे थे।
घर से नाराज़गी तो मेरी आज भी नहीं है। आज भी घर, मेरा प्यारा घर, मेरे
बचपन का घर मेरी रगों में बहता है। आज भी मेरी सांस-सांस में उसी घर की
खुशबू रची बसी रहती है। रोज़ रात को सपनों में आता है मेरा घर और मुझे रुला
जाता है। कोई भी तो दिन ऐसा नहीं होता जब मैं घर को लेकर अपनी गीली आंखें न
पोंछता होऊं। बेशक इन चौदह बरसों में कभी घर नहीं जा पाया लेकिन कभी भी ऐसा
नहीं हुआ कि मैंने खुद को घर से दूर पाया हो। घर मेरे आसपास हमेशा बना रहा
है। अपने पूरेपन के साथ मेरे भीतर सितार के तारों की तरह बजता रहा है।
कैसा होगा अब वह घर !! जो कभी मेरा था। शायद अभी भी हो। जैसे मैं घर वापिस
जाने के लिए हमेशा छटपटाता रहा लेकिन कभी जा नहीं पाया, हो सकता है घर भी
मुझे बार-बार वापिस बुलाने के लिए इशारे करता रहा हो। मेरी राह देखता रहा
हो और फिर निराश हो कर उसने मेरे लौटने की उम्मीदें ही छोड़ दी हों।
मेरा घर. हमारा घर .. हम सब का घर... जहां बेबे थी, गोलू था, बिल्लू था, एक
छोटी-सी बहन थी - गुड्डी और थे दारजी...। कैसी होगी बेबे .. .. पहले से
चौदह साल और बूढ़ी.. ..। और दारजी.. .. ..। शायद अब भी अपने ठीये पर
बैठे-बैठे अपने औजार गोलू और बिल्लू पर फेंक कर मार रहे हों और सबको अपनी
धारदार गालियों से छलनी कर रहे हों..। गुड्डी कैसी होगी.. जब घर छूटा था तो
वो पांच बरस की रही होगी। अब तो उसे एमए वगैरह में होना चाहिये। दारजी का
कोई भरोसा नहीं। पता नहीं उसे इतना पढ़ने भी दिया होगा या नहीं। दारजी ने
पता नहीं कि गोलू और बिल्लू को भी नहीं पढ़ने दिया होगा या नहीं या अपने
साथ ही अपने ठीये पर बिठा दिया होगा..। रब्ब करे घर में सब राजी खुशी
हों..।
एक बार घर जा कर देखना चाहिये.. कैसे होंगे सब.. क्या मुझे स्वीकार कर
लेंगे!! दारजी का तो पता नहीं लेकिन बेबे तो अब भी मुझे याद कर लेती होगी।
जब दारजी ने मुझे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर धकेल दिया था तो बेबे
कितना-कितना रोती थी। बार-बार दारजी के आगे हाथ जोड़ती थी कि मेरे दीपू को
जितना मार-पीट लो, कम से कम घर से तो मत निकालो।
बेशक वो मार, वो टीस और वो घर से निकाले जाने की पीड़ा अब भी तकलीफ दे रही
है, आज के दिन कुछ ज्यादा ही, फिर भी सोचता हूं कि एक बार तो घर हो ही आना
चाहिये। देखा जायेगा, दारजी जो भी कहेंगे। यही होगा ना, एक बार फिर घर से
निकाल देंगे। यही सही। वैसे भी घर मेरे हिस्से में कहां लिखा है..। बेघर से
फिर बेघर ही तो हो जाऊंगा। कुछ भी तो नहीं बिगड़ेगा मेरा।
तय कर लेता हूं, एक बार घर हो ही आना चाहिये। वे भी तो देखें, जिस दीपू को
उन्होंने मार-पीट कर आधे-अधूरे कपड़ों में नंगे पैर और नंगे सिर घर से
निकाल दिया था, आज कहां से कहां पहुंच गया है। अब न उसके सिर में दर्द होता
है और न ही रोज़ाना सुबह उसे बात बिना बात पर दारजी की मार खानी पड़ती है।
पास बुक देखता हूं। काफी रुपये हैं। बैंक जा कर तीस हजार रुपये निकाल लेता
हूं। पांच-सात हज़ार पास में नकद हैं। काफी होंगे।
सबके लिए ढेर सारी शॉपिंग करता हूं। बैग में ये सारी चीजें लेकर मैं घर की
तरफ चल दिया हूं। हँसी आती है। मेरा घर.... घर... जो कभी मेरा नहीं रहा..
सिर्फ घर के अहसास के सहारे मैंने ये चौदह बरस काट दिये हैं। घर... जो
हमेशा मेरी आँखों के आगे झिलमिलाता रहा लेकिन कभी भी मुकम्मल तौर पर मेरे
सामने नहीं आया।
याद करने की कोशिश करता हूं। इस बीच कितने घरों में रहा, हॉस्टलों में भी
रहा, अकेले कमरा लेकर भी रहता रहा लेकिन कहीं भी अपने घर का अहसास नहीं
मिला। हमेशा लगता रहा, यहां से लौट कर जाना है। घर लौटना है। घर तो वही
होता है न, जहां लौट कर जाया जा सके। जहां जा कर मुसाफ़िरी खत्म होती हो।
पता नहीं मेरी मुसाफिरी कब खत्म होगी। बंबई से देहरादून की सत्रह सौ
किलोमीटर की यह दूरी पार करने में मुझे चौदह बरस लग गये हैं, पता नहीं इस
बार भी घर मिल पाता है या नहीं।
देहरादून बस अड्डे पर उतरा हूं। यहां से मच्छी बाजार एक - डेढ़ किलोमीटर
पड़ता है।
तय करता हूं, पैदल ही घर जाऊं..। हमेशा की तरह गांधी स्कूल का चक्कर लगाते
हुए। सारे बाज़ार को और स्कूल को बदले हुए रूप में देखने का मौका भी
मिलेगा। सब्जी मंडी से होते हुए भी घर जाया जा सकता है, रास्ता छोटा भी
पड़ेगा लेकिन बचपन में हम मंडी में आवारा घूमते सांडों की वजह से यहां से
जाना टालते थे। आज भी टाल जाता हूं।
गांधी स्कूल के आस पास का नक्शा भी पूरी तरह बदला हुआ है। गांधी रोड पर ये
हमारी प्रिय जगह खुशीराम लाइब्रेरी, जहां हम राजा भैया, चंदा मामा और पराग
वगैरह पढ़ने आते थे और इन पत्रिकाओं के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते
थे। पढ़ने का संस्कार हमें इसी लाइब्रेरी ने दिया था।
आगे हिमालय आर्मस की दुकान अपनी जगह पर है लेकिन उसके ठीक सामने दूसरी
मंज़िल पर हमारी पांचवीं कक्षा का कमरा पूरी तरह उजाड़ नज़र आ रहा है। पूरे
स्कूल में सिर्फ यही कमरा सड़क से नज़र आता था। इस कमरे में पूरा एक साल
गुज़ारा है मैंने। मेरी सीट एकदम खिड़की के पास थी और मैं सारा समय नीचे
बाज़ार की तरफ ही देखता रहता था। हमारी इस कक्षा पर ही नहीं बल्कि पूरे
स्कूल पर ही पुरानेपन की एक गाढ़ी-सी परत जमी हुई है। पता नहीं भीतर क्या
हाल होगा। गेट हमेशा की तरह बंद है। स्कूल के बाहर की किताबों की सारी
दुकानें या तो बुरी तरह उदास नज़र आ रही हैं, या फिर उनकी जगह कुछ और ही
बिकता नज़र आ रहा है।
स्कूल के आगे से गुज़रते हुए बचपन के सारे किस्से याद आते हैं।
पूरे बाज़ार में सभी दुकानों का नकशा बदला हुआ है। एक वक्त था जब मैं यहां
से अपने घर तक आँखें बंद करके भी जाता तो बता सकता था, बाज़ार में दोनों
तरफ किस-किस चीज़ की दुकानें हैं और उन पर कौन-कौन बैठा करते हैं। लेकिन अब
ऐसा नहीं हो सकता। एक भी परिचित चेहरा नजर नहीं आ रहा है। आये भी कैसे। सभी
तो मेरी तरह उम्र के चौदह पड़ाव आगे निकल चुके हैं। अगर मैं बदला हूं तो और
लोग भी तो बदले ही होंगे। वे भी मुझे कहां पहचान पा रहे होंगे। ये नयी
सब्जी मंडी.. किशन चाचा की दुकान.. उस पर पुराना सा ताला लटक रहा है। ये
मिशन स्कूल..। सारी दुकानें परिचित लेकिन लोग बदले हुए। सिंधी स्वीट शाप के
तीन हिस्से हो चुके हैं। तीनों ही हिस्सों में अनजाने चेहरे गल्ले पर बैठे
हैं।
अपनी गली में घुसते ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो गयी है। पता नहीं इन चौदह
बरसों में क्या कुछ बदल चुका होगा इस ढहते घर में .. या मकान में ...। पता
नहीं सबसे पहले किससे सामना हो....गली के कोने में सतनाम चाचे की परचून की
दुकान हुआ करती थी। वहां अब कोई जवान लड़का वीडियो गेम्स की दुकान सजाये
बैठा है। पता नहीं कौन रहा होगा। तब पांच छः साल का रहा होगा। इन्दर के
दरवाजे से कोई जवान-सी औरत निकल कर अर्जन पंसारी की दुकान की तरफ जा रही
है। अर्जन चाचा खुद बैठा है। वैसा ही लग रहा है जैसे छोड़ कर गया था।
उसने मेरी तरफ देखा है लेकिन पहचान नहीं पाया है। ठीक ही हुआ। बाद में आ कर
मिल लूंगा। मेरी इच्छा है कि सबसे पहले बेबे ही मुझे देखे, पहचाने।
अपनी गली में आ पहुंचा हूं। पहला घर मंगाराम चाचे का है। मेरे खास दोस्त
नंदू का। घर बिलकुल बदला हुआ है और दरवाजे पर किसी मेहरचंद की पुरानी सी
नेम प्लेट लगी हुई है। इसका मतलब नंदू वगैरह यहां से जा चुके है। मंगाराम
चाचा की तो कोतवाली के पास नहरवाली गली के सिरे पर छोले भटूरे की छोटी-सी
दुकान हुआ करती थी। उसके सामने वाला घर गामे का है। हमारी गली का पहलवान और
हमारी सारी नयी शरारतों का अगुआ। उससे अगला घर प्रवेश और बंसी का। हमारी
गली का हीरो - प्रवेश। उससे कभी नजदीकी दोस्ती नहीं बन पायी थी। उनका
घर-बार तो वैसा ही लग रहा है। प्रवेश के घर के सामने खुशी भाई साहब का घर।
वे हम सब बच्चों के आदर्श थे। अपनी मेहनत के बलबूते ही पूरी पढ़ाई की थी।
सारे बच्चे दौड़- दौड़ कर उनके काम करते थे। सबसे रोमांचकारी काम होता था,
सबकी नज़रों से बचा कर उनके लिए सिगरेट लाना। सिख होने के कारण मुझे इस काम
से छूट मिली हुई थी।
अगला घर बोनी और बौबी का है। उनके पापा सरदार राजा सिंह अंकल। हमारे पूरे
मौहल्ले में सिर्फ़ वहीं अंकल थे। बाकी सब चाचा थे। पूरी गली में स्कूटर भी
सिर्फ उन्हीं के पास था।
ये सामने ही है मेरा घर......। मेरा छूटा हुआ घर .. ..। हमारा घर.. भाई
हरनाम सिहां का शहतूतों वाला घर....। गुस्से में कुछ भी कर बैठने वाला
सरदार हरनामा .... तरखाण .... हमारे घर का शहतूत...का पेड़..... हमारे घर..
.. हरनामे के घर की पहचान ...। तीन गली पहले से यह पहचान शुरू हो जाती..
..। हरनामा तरखाण के घर जाना है? सीधे चले जाओ .. आगे एक शहतूत.. का पेड़
आयेगा। वही घर है तरखाण का ....। 14 मच्छी बाज़ार, देहरादून। घर को मोह से,
आसक्ति से देखता हूं। घर के बाहर वाली दीवार जैसे अपनी उम्र पूरी कर चुकी
है और लगता है, बस, आज कल में ही विदा हो जाने वाली है। टीन के पतरे वाला
दरवाजा वैसे ही है। बेबे तब भी दारजी से कहा करती थी - तरखाण के घर टीन के
पतरे के दरवाजे शोभा नहीं देते। कभी अपने घर के लिए भी कुछ बना दिया करो।
मैं हौले से सांकल बजाता हूं। सांकल की आवाज थोड़ी देर तक खाली आंगन में
गूंज कर मेरे पास वापिस लौट आयी है। दोबारा सांकल बजाता हूं। मेरी धड़कन
बहुत तेज हो चली है। पता नहीं कौन दरवाजा खोले.... ।
- कोण है.. । ये बेबे की ही आवाज हो सकती है। पहले की तुलना में ज्यादा
करुणामयी और लम्बी तान सी लेते हुए....
- मैं केया कोण है इस वेल्ले....। मेरे बोल नहीं फूटते। क्या बोलूं और कैसे
बोलूं। बेबे दरवाजे के पास आ गयी है। झिर्री में से उसका बेहद कमज़ोर हो
गया चेहरा नज़र आता है। आंखों पर चश्मा भी है। दरवाजा खुलता है। बेबे मेरे
सामने है। एकदम कमज़ोर काया। मुझे चुंधियाती आंखों से देखती है। मेरे बैग
की तरफ देखती है। असमंजस में पूछती हैं - त्वानु कोण चाइदा ऐ बाऊजी.. ..?
मैं एकदम बुक्का फाड़ कर रोते हुए उसके कदमों में ढह गया हूं, - बेबे..
बेबे.. मैंनू माफ कर दे मेरिये बेबे.... मैं मैं .. ।
मेरा नाम सुनने से पहले ही वह दो कदम पीछे हट गयी है.. हक्की-बक्की सी मेरी
तरफ देख रही है। मैं उसके पैरें में गिरा लहक - लहक कर हिचकियां भरते हुए
रो रहा हूं - मैं तेरा बावरा पुत्तर दीपू .. ..दीपू । मेरे आंसू ज़ार ज़ार
बह रहे हैं। चौदह बरसों से मेरी पलकों पर अटकेध आंसुओं ने आज बाहर का
रास्ता देख लिया है। बेबे घुटनों के बल बैठ गयी है.. अभी भी अविश्वास से
मेरी तरफ देख रही है..। अचानक उसकी आंखों में पहचान उभरी है और उसके गले से
ज़ोर की चीख निकली है, - ओये.. मेरे पागल पुत्तरा. तूं अपणी अन्नी मां नूं
छड्ड के कित्त्थे चला गया सैं.. हाय हो मेरेया रब्बा। तैनूं असी उडीक उडीक
के अपणियां अक्खां रत्तियां कर लइयां। मेरेया सोणेया पुत्तरां। रब्ब तैनूं
मेरी वी उम्मर दे देवे। तूं जरा वी रैम नीं कित्ता अपणी बुड्डी मां ते के ओ
जींदी है के मर गयी ए...।
वह आंसुओं से भरे मेरे चेहरे को अपने दोनों कमज़ोर हाथों में भरे मुझे
स्नेह से चूम रही है। मेरे बालों में हाथ फेर रही है और मेरी बलायें ले रही
है। उसका गला रुंध गया है। अभी हम मां-बेटे का मिलन चल ही रहा है कि
मौहल्ले की दो-तीन औरतें बेबे का रोना - धोना सुन कर खुले दरवाजे में आ
जुटी हैं। हमें इस हालत में देख कर वे सकपका गयी हैं।
बेबे से पूछ रही है - की होया भैंजी .. सब खैर तां है नां....!!
- तूं खैर पुछ रई हैं विमलिये ..अज तां रब्ब साडे उत्ते किन्ना मेहरबान हो
गया नीं। वेखो वे भलिये लोको, मेरा दीपू किन्ने चिर बाद अज घर मुड़ के आया
ए। मेरा पुत्त इस घरों रेंदा कलप्दा गया सी ते अज किन्ने चिर बाद वल्ल के
आया ए। हाय कोई छेत्ती जाके ते इदे दारजी नूं ते खबर कर देवो। ओ कोई जल्दी
जा के खण्ड दी डब्बी लै आवे। मैं सारेयां दा मूं मिट्ठा करा देवां। ... आजा
वे मेरे पुत्त मैं तेरी नजर उतार दवां .। पता नीं किस भैड़े दी नज्जर लग गई
सी।
हम दोनों का रो-रो कर बुरा हाल है। मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं फूट रहा
है। इतने बरसों के बाद मां के आंचल में जी भर के रोने को जी चाह रहा है।
मैं रोये जा रहा हूं और मोहल्ले की सारी औरतें मुंह में दुपट्टे दबाये
हैरानी से मां बेटे का यह अद्भुत मिलन देख रही हैं। किसी ने मेरी तरफ पानी
का गिलास बढ़ा दिया है। मैंने हिचकियों के बीच पानी खत्म किया है।
खबर पूरे मोहल्ले में बिजली की तेजी से फैल गयी है। वरांडे में पचासों लोग
जमा हो गये हैं। बेबे ने मेरे लिए चारपाई बिछा दी है और मेरे पास बैठ गयी
है। एक के बाद एक सवाल पूछ रही है। अचानक ही घर में व्यस्तता बढ़ गयी है।
सब के सब मेरे खाने पीने के इंतजाम में जुट गये हैं। कभी कोई चाय थमा जाता
है तो कोई मेरे हाथ में गुड़ का या मिठाई का टुकड़ा धर जाता है। मेरे आसपास
अच्छी खासी भीड़ जुट आयी है और मेरी तरफ अजीब - सी निगाहों से देख रही है।
कुछेक बुजुर्ग भी आ गये हैं। बेबे मुझे उनके बारे में बता रही है। मैं किसी
- किसी को ही पहचान पा रहा हूं। किसी का चेहरा पहचाना हुआ लग रहा है तो
किसी का नाम याद - सा आ रहा है।
मोहल्ले भर के चाचा, ताए, मामे, मामियां वरांडे में आ जुटे हैं और मुझसे
तरह -तरह के सवाल पूछ रहे हैं। मुझे सूझ नहीं रहा कि किस बात का क्या जवाब
दिया जाये। मैं बार-बार किसी न किसी बुजुर्ग के पैरों में मत्था टेक रहा
हूं। सब के सब मुझे अधबीच में ही गले से लगा लेते हैं। मुझे नहीं मालूम था
मैं अभी भी अपने घर परिवार के लिए इतने मायने रखता हूं।
तभी बेबे मुझे उबारती है - वे भले लोको, मेरा पुत्त किन्ना लम्बा सफर कर के
आया ए। उन्नू थोड़ी चिर अराम करन देओ। सारियां गल्लां हुणी ता ना पुच्छो !!
वेखो तां विचारे दा किन्ना जेयां मूं निकल आया ए..।
बेबे ने किसी तरह सबको विदा कर दिया है लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं।
कोई ना कोई कुण्डी खड़का ही देता है और मेरे आगे कुछ न कुछ खाने की चीज रख
देता है। हर कोई मुझे अपने गले से लगाना चाहता है, अपने हाथों से कुछ न कुछ
खिलाना ही चाहता है। फिर ऊपर से उनके सवालों की बरसात। मेरे लिए
अड़ोस-पड़ोस की चाचियां ताइयां दसियों कप चाय दे गयी है और मैंने कुछ घूंट
चाय पी भी है फिर भी बेबे ने मेरे लिए अलग से गरम -गरम चाय बनायी है। मलाई
डाल के। बेबे को याद रहा, मुझे मलाई वाली चाय अच्छी लगती थी। बचपन में हम
तीनों भाइयों में चाय में मलाई डलवाने के लिए होड़ लगती थी। दूध में इतनी
मलाई उतरती नहीं थी कि दोनों टाइम तीनों की चाय में डाली जा सकेध। बेबे चाय
में मलाई के लिए हमारी बारी बांधती थी।
बेबे पूछ रही है, मैं कहां से आ रहा हूं और क्या करता हूं। बहुत अजीब-सा लग
रहा है ये सब बताना लेकिन मैं जानता हूं कि जब तक यहां रहूंगा, मुझे बार
बार इन्हीं सवालों से जूझना होगा। बेबे को थोड़ा-बहुत बताता हूं कि इस बीच
क्या क्या घटा। मैंने अपनी बात पूरी नहीं की है कि बेबे खुद बताने लगी है -
गोलू तां बारवीं करके ते पक्की नौकरी दी तलाश कर रेया ए। कदी कदी छोटी मोटी
नौकरी मिल वी जांदी ए ओनूं। अज कल चकराता रोड ते इक रेडिमेड कपड़ेयां दी
हट्टी ते बैंदा ए ते पन्दरा सोलां सौ रपइये लै आंदा ए। अते बिल्लू ने तां
दसवीं वीं पूरी नीं कित्ती। कैंदा सी - मेरे तें नीं होंदी ए किताबी
पढ़ाई.. अजकल इस सपेर पार्ट दी दुकान ते बैंदा ऐ। उन्नू वी हजार बारा सौं
रपइये मिल जांदे हन। तेरे दारजी वी ढिल्ले रैंदे ने। बेशक तैंनू गुस्से विच
मार पिट के ते घरों कड दित्ता सी पर तैनूं मैं की दस्सां, बाद विच बोत
रोंदे सी। कैंदे सी...। अचानक बेबे चुप हो गयी है। उसे सूझा नहीं कि आगे
क्या कहे। उसने मेरी तरफ देखा है और बात बदल दी है। मैं समझ गया हूं कि वह
दारजी की तरफदारी करना चाह रही थी लेकिन मेरे आगे उससे झूठ नहीं बोला गया।
लेकिन मैं जानबूझ कर भी चुप रहता हूं। बेबे आगे बता रही है - तैंनू असीं
किन्ना ढूंढेया, तेरे पिच्छे कित्थे कित्थे नीं गये, पर तूं तां इन्नी जई
गल ते साडे कोल नराज हो के कदी मुढ़ के वी नीं आया कि तेरी बुड्डी मां
जींदी ए की मर गई ए। मैं तां रब्ब दे अग्गे अठ अठ हंजू रोंदी सी कि इक वारी
मैंनू मेरे पुत्त नाल मिला दे। मैं बेबे की बात ध्यान से सुन रहा हूं।
अचानक पूछ बैठता हूं - सच दसीं बेबे, दारजी वाकई मेरे वास्ते रोये सी? वेख
झूठ ना बोलीं। तैनूं मेरी सौं।
बेबे अचानक घिर गयी है। मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखती है। उसकी कातर
निगाहें देख कर मुझे पछतावा होने लगता है - ये मैं क्या पूछ बैठा !! अभी तो
आये मुझे घंटा भर भी नहीं हुआ, लेकिन बेबे ने मुझे उबार लिया है और दारजी
का सच बिना लाग लपेट के बयान कर दिया है। यह सच उस सच से बिलकुल अलग है जो
अभी अभी बेबे बयान कर रही थी। शायद वह इतने अरसे बाद आये अपने बेटे के
सामने कोई भी झूठ नहीं बोलना चाहती। वैसे भी वह झूठ नहीं बोलती कभी। शायद
इसीलिए उससे ये झूठ भी नहीं बोला गया है या यूं कहूं कि सच छुपाया नहीं गया
है।
बेबे अभी दारजी के बारे में बता ही रही है कि मैंने बात बदल दी है और
गुड्डी के बारे में पूछने लगता हूं। वह खुश हो कर बताती है - गुड्डी दा बीए
दा पैला साल है। विच्चों बिमार पै गई सी। विचारी दा इक साल मारेया गया।
कैंदी ए - मैं सारियां दी कसर कल्ले ई पूरी करां गी। बड़ी सोणी ते स्याणी
हो गई ए तेरी भैण। पूरा घर कल्ले संभाल लैंदी ए। पैले तां तैनूं बोत पुछदी
सी..फेर होली होली भुल गयी..। बस कालेजों आंदी ही होवेगी।
मुझे तसल्ली होती है कि चलो कोई तो पढ़ लिख गया। खासकर गुड्डी को दारजी
पढ़ा रहे हैं, यही बहुत बड़ी बात है। अभी हम गुड्डी की बात कर ही रहे हैं
कि ज़ोर से दरवाजा खुलने की आवाज आती है। मैं मुड़ कर देखता हूं। सफेद
सलवार कमीज में एक लड़की दरवाजे में खड़ी है। सांस फूली हुई। हाथ में ढेर
सारी किताबें और आंखों में बेइन्तहां हैरानी। वह आंखें बड़ी बड़ी करके मेरी
तरफ देख रही है। मैं उसे देखते ही उठ खड़ा होता हूं - गुड्डी ..! मैं ज़ोर
से कहता हूं और अपनी बाहें फ ठला देता हूं।
वह लपक कर मेरी बाहों में आ गयी है। उसकी सांस धौंकनी की तरह तेज चल रही
है। बहुत जोर से रोने लगी है वह। बड़ी मुश्किल से रोते रोते - वीर.. .
जी.... वीर जी.. ..! ही कह पा रही है। मैं उसके कंधे थपथपा कर चुप कराता
हूं। मेरे लिए खुद की रुलाई रोक पाना मुश्किल हो रहा है। बेबे भी रोने लगी
है।
बड़ी मुश्किल से हम तीनों अपनी रुलाई पर काबू पाते हैं। तभी अचानक गुड्डी
भाग कर रसोई में चली गयी है। बाहर आते समय उसके हाथ में थाली है। थाली में
मैली, चावल और टीके का सामान है। वह मेरे माथे पर टीका लगाती है और मेरी
बांह पर मौली बांधती है। उसकी स्नेह भावना मुझे भीतर तक भिगो गयी है। बेबे
मुग्ध भाव से ये सब देखे जा रही है। गुड्डी जो भी कहती जा रही है, मैं वैसे
ही करता जा रहा हूं। जब उसने अपने सभी अरमान पूरे कर लिये हैं तो उसने झुक
कर पूरे आदर के साथ मेरे पैर छूए हैं।
मैं उसके सिर पर चपत लगा कर आशीषें देता हूं और भीतर से बैग लाने के लिए
कहता हूं। वह भारी बैग उठा कर लाती है। उसके लिए लाये सामान से उसकी झोली
भर देता हूं। वह हैरानी से सारा सामान देखती रह जाती है - ये सब आप मेरे
लिए लाये हैं।
- तुझे विश्वास नहीं है?
- विश्वास तो है लेकिन इतना खरचा करने की क्या जरूरत थी? उसने वाकॅमैन के
ईयर फोन तुरंत ही कानों से लगा लिये हैं।
- ओये बड़ी आयी खरचे की चाची, अच्छा एक बात बता - तू रोज़ ही इस तरह भाग कर
कॉलेज से आती है?
- अगर रोज रोज मेरे वीरजी आयें तो मैं रोज़ ही कॉलेज से भाग कर आऊं।
वह गर्व से बताती है - अभी मैं सड़क पर ही थी कि किसी ने बताया - ओये घर जा
कुड़िये, घर से भागा हुआ तेरा भाई वापिस आ गया है। बहुत बड़ा अफसर बन के।
एकदम गबरू जवान दिखता है। जा वो तेरी राह देख रहा होगा। पहले तो मुझे
विश्वास ही नहीं हुआ कि हमारा वीर भी कभी इस तरह से वापिस आ सकता है। मैंने
सोचा कि हम भी तो देखें कि कौन गबरू जवान हमारे वीरजी बन कर आये हैं जिनकी
तारीफ पूरा मौहल्ला कर रहा है। ज़रा हम भी देखें वे कैसे दिखते हैं। फिर
हमने सोचा, आखिर भाई किसके हैं। स्मार्ट तो होंगे ही। मैंने ठीक ही सोचा है
ना वीर जी....!
- बातें तो तू खूब बना लेती है। कुछ पढ़ाई भी करती है या नहीं?
जवाब बेबे देती है - सारा दिन कताबां विच सिर खपांदी रैंदी ए। किन्नी वारी
केया ए इन्नू - इन्ना ना पढ़ेया कर। तूं केड़ी कलकटरी करणी ए, पर ऐ साडी गल
सुण लवे तां गुड्डी नां किसदा?
अभी बेबे उसके बारे में यह बात बता ही रही है कि वह मुझे एक डायरी लाकर
दिखाती है। अपनी कविताओं की डायरी।
मैं हैरान होता हूं - हमारी गुड्डी कविताएं भी लिखती है और वो भी इस तरह के
माहौल में।
पूछता हूं मैं - कब से लिख रही है?
- तीन चार साल से। फिर उसने एक और फाइल दिखायी है। उसमें स्थानीय अखबारों
और कॉलेज मैगजीनों की कतरनें हैं। उसकी छपी कविताओं की। गुड्डी की तरक्की
देख कर सुकून हुआ है। बेबे ने बिल्लू और गोलू की जो तस्वीर खींची है उससे
उन दोनों की तो कोई खास इमेज नहीं बनती।
गुड्डी मेरे बारे में ढेर सारे सवाल पूछ रही है, अपनी छोटी छोटी बातें बता
रही है। बहुत खुश है वह मेरे आने से। मैं बैग से अपनी डायरी निकाल कर देखता
हूं। उसमें दो एक एंट्रीज ही हैं।
डायरी गुड्डी को देता हूं - ले गुड्डी, अब तू अपनी कविताएं इसी डायरी में
लिखा कर।
इतनी खूबसूरत डायरी पा कर वह बहुत खुश हो गयी है। तभी वह डायरी पर मेरे नाम
के नीचे लिखी डिग्रियां देख कर चौंक जाती है,
- वीरजी, आपने पीएच डी की है?
- हां गुड्डी, खाली बैठा था, सोचा, कुछ पढ़ लिख ही लें।
- हमें बनाइये मत, कोई खाली बैठे रहने से पीएच डी थोड़े ही कर लेता है।
आपके पास तो कभी फ़ुर्सत रही भी होगी या नहीं, हमें शक है। सच बताइये ना,
कहां से की थी?
- अब तू ज़िद कर रही है तो बता देता हूं। एमटैक में युनिवर्सिटी में टॉप
करने के बाद मेरे सामने दो ऑफर थे - एक बहुत बड़ी विदेशी कम्पनी में बढ़िया
जॉब या अमेरिका में एक युनिवर्सिटी में पीएच डी के लिए स्कॉलरशिप। मैंने
सोचा, नौकरी तो ज़िंदगी भर करनी ही है। लगे हाथों पीएच डी कर लें तो वापिस
हिन्दुस्तान आने का भी बहाना बना रहेगा। नौकरी करने गये तो पता नहीं कब
लौटें। आखिर तुझे ये डायरी, ये वॉक मैन और ये सारा सामान देने तो आना ही था
ना...। मैंने उसे संक्षेप में बताया है।
- जब अमेरिका गये होंगे तो खूब घूमे भी होंगे? पूछती है गुड्डी। अमेरिका का
नाम सुन कर बेबे भी पास सरक आयी है।
- कहां घूमना हुआ। बस, हॉस्टल का कमरा, गाइड का कमरा, क्लास रूम, लाइब्रेरी
और कैंटीन। आखिर में जब सब लोग घूमने निकले थे तभी दो चार जगहें देखी थीं।
हँसते हुए कहती है वह - वहां कोई गोरी पसंद नहीं आयी थी?
मैं हँसता हूं - ओये पगलिये। ये बाहर की लड़कियां तो बस एÿवेई होती हैं। हम
लोगों के लायक थोड़े ही होती हैं। तू खुद बता अगर मैं वहा से कोई मेम शेम
ले आता तो ये बेब मुझे घर में घुसने देती?
यह सुन कर बेबे ने तसल्ली भरी ठंडी सांस ली है। कम से कम उसे एक बात का तो
विश्वास हो गया है कि मैं अभी कुंवारा हूं।
गुड्डी आग्रह करती है - वीरजी कुछ लिखो भी तो सही इस पर.. मैं अपनी सारी
सहेलियों को दिखाऊंगी।
- ठीक है, गुड्डी, तेरे लिए मैं लिख भी देता हूं।
मैं डायरी में लिखता हूं
- अपनी छोटी, मोटी, दुलारी और प्यारी बहन
गुड्डी को
जो एक मेले के चक्कर में मुझसे बिछ़ुड़ गयी थी।
'दीप'
डायरी ले कर वह तुरंत ही उसमें पता नहीं क्या लिखने लग गयी है। मैं
पूछता हूं तो दिखाने से भी मना कर देती है।
आंगन में चारपाई पर लेटे लेटे गुड्डी से बातें करते-करते पता नहीं कब आंख
लग गयी होगी। अचानक शोर-शराबे से आंख खुली तो देखा, दारजी मेरे सिरहाने
बैठे हैं। पहले की तुलना में बेहद कमज़ोर और टूटे हुए आदमी लगे वे मुझे।
मैं तुरंत उठ कर उनके पैरों पर गिर गया हूं। मैं एक बार फिर रो रहा
हूं। मैं देख रहा हूं, दारजी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपनी आंखें पोंछ
रहे हैं। उन्हें शायद बेबे ने मेरी राम कहानी सुना दी होगी इसलिए उन्होंने
कुछ भी नहीं पूछा। सिर्फ एक ही वाक्य कहा है - तेरे हिस्से विच घरों बार जा
के ई आदमी बनण लिखेया सी। शायद रब्ब नूं ऐही मंज़ूर सी।
मैंने सिर झुका लिया है। क्या कहूं। बेबे मुझे अभी बता ही चुकी है घर से
मेरे जाने के बाद का दारजी का व्यवहार। मुझे बेबे की बात पर विश्वास करना
ही पड़ेगा। दारजी मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं। ये बूढ़ा जिद्दी आदमी,
जिसने अपने गुस्से के आगे किसी को भी कुछ नहीं समझा। बेबे बता रही थी - जद
तैनूं अद्धे अधूरे कपडेयां विच घरों कडेया सी तां दारजी कई दिनां तक इस
गल्ल नूं मनण लई त्यार ई नईं सन कि इस विच उन्नादी कोई गलती सी। ओ ते
सारेयां नूं सुणा-सुणा के ए ही कैंदे रये - मेरी तरफों दीपू कल मरदा ए, तां
अज मर जावे। सारेयां ने एन्ना नूं समझाया सी - छोटा बच्चा ए। विचारा कित्थे
मारेया मारेया फिरदा होवेगा। लेकन तेरे दारजी नईं मन्ने सी। ओ तां पुलस विच
रपोट कराण वी नईं गए सन। मैं ई हत्थ जोड़ जोड़ के तेरे मामे नूं अगे भेजया
सी लेकन ओ वी उत्थों खाली हत्थ वापस आ गया सी। पुलस ने जदों तेरी फोटो
मंग्गी तां तेरा मामा उत्थे ई रो पेया सी - थानेदारजी, उसदी इक अध फोटो तां
है, लम्मे केशां वाली जूड़े दे नाल, लेकन उस नाल किदां पता चलेगा दीपू दा
..। ओ ते केस कटवा के आया सी इसे लई तां गरमागरमी विच घर छड्ड के नठ गया
ए..।
मुझे जब बेबे ये बात बता रही थी तो जैसे मेरी पीठ पर बचपन में दारजी की मार
के सारे के सारे जख्म टीस मारने लगे थे। अब भी दारजी के सामने बैठे हुए मैं
सोच रहा हूं - अगर मैं तब भी घर से न भागा होता तो मेरी ज़िंदगी ने क्या
रुख लिया होता। ये तो तय है, न मेरे हिस्से में इतनी पढ़ाई लिखी होती और न
इतना सुकून। तब मैं भी गोलू बिल्लू की तरह किसी दुकान पर सेल्समैनी कर रहा
होता।
मैं दारजी के साथ ही खाना खाता हूं।
खाना जिद करके गुड्डी ने ही बनाया है।
बेबे ने उसे छेड़ा है - मैं लख कवां, कदी ते दो फुलके सेक दित्ता कर। पराये
घर जावेंगी तां की करेंगी लेकन कदी रसोई दे नेड़े नईं आवेगी। अज वीर दे भाग
जग गये हन कि साडी गुड्डी रोटी पका रई ए।
बेबे भी अजीब है। जब तक गुड्डी नहीं आयी थी उसकी खूब तारीफें कर रही थी कि
पूरा घर अकेले संभाल लेती है और अब ...।
खाना खा कर दारजी गोलू और बिल्लू को खबर करने चले गये हैं।
मैं घर के भीतर आता हूं। सारा घर देखता हूं।
घर का सामान देखते हुए धीरे-धीरे भूली बिसरी बातें याद आने लगी हैं। याद
करता हूं कि तब घर में क्या क्या हुआ करता था। कुल मिला कर घर में पुरानापन
है। जैसे अरसे से किसी ने उसे जस का तस छोड़ रखा हो। बेशक इस बीच रंग रोगन
भी हुआ ही होगा लेकिन फिर भी एक स्थायी किस्म का पुरानापन होता है चीजों
में, माहौल में और कपड़ों तक में, जिसे झाड़ पोंछ कर दूर नहीं किया जा
सकता।
हां, एक बात जरूर लग रही है कि पूरे घर में गुड्डी का स्पर्श है। हलका-सा
युवा स्त्राú स्पर्श। उसने जिस चीज को भी झाड़ा पोंछा होगा, अपनी पसंद और
चयन की नैसर्गिक महक उसमें छोड़ती चली गयी होगी। यह मेरे लिए नया ही अनुभव
है। बड़े कमरे में एक पैनासोनिक के पुराने से स्टीरियो ने भी इस बीच अपनी
जगह बना ली है। एक पुराना ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी एक कोने में विराजमान
है। जब गया था तो टीवी तब शहर में पूरी तरह आये ही नहीं थे। टीवी चला कर
देखता हूं। खराब है।
बंद कर देता हूं। सोचता हूं, जाते समय एक कलर टीवी यहां के लिए खरीद दूंगा।
अब तो घर-घर में कलर टीवी हैं।
छोटे कमरे में जाता हूं। हम लोगों के पढ़ने लिखने के फालतू सामान रखने का
कमरा यही होता था। हम भाइयों और दोस्तों के सारे सीक्रेट अभियान यहीं पूरे
किये जाते थे क्योंकि दारजी इस कमरे में बहुत कम आते थे। इसी कमरे में हम
कंचे छुपाते थे, लूटी हुई पतंगों को दारजी के डर से अलमारी के पीछे छुपा कर
रखते थे। गुल्ली डंडा तो खैर दारजी ने हमें कभी बना कर दिये हों, याद नहीं
आता। मुझे पता है, अल्मारी के पीछे वहां अब कुछ नहीं होगा फिर भी अल्मारी
के पीछे झांक कर देखता हूं। नहीं, वहां कोई पतंग नहीं है। जब गया था तब
वहां मेरी तीन चार पतंगें रखी थीं। एक आध चरखी मांझे की भी थी।
रात को हम सब इकट्ठे बैठे हैं। जैसे बचपन में बैठा करते थे। बड़े वाले कमरे
में। सब के सब अपनी अपनी चारपाई पर जमे हुए। तब इस तरह बैठना सिर्फ
सर्दियों में ही होता था। बेबे खाना बनाने के बाद कोयले वाली अंगीठी भी
भीतर ले आती थी और हम चारों भाई बहन दारजी और बेबे उसके चारों तरफ बैठ कर
हाथ भी सेंकते रहते और मूंगफली या रेवड़ी वगैरह खाते रहते। रात का यही वक्त
होता था जब हम भाई बहनों में कोई झगड़ा नहीं होता था।
अब घर में गैस आ जाने के कारण कोयले वाली अंगीठी नहीं रही है। वैसे सर्दी
अभी दूर है लेकिन सब के सब अपनी अपनी चारपाई पर खेस ओढ़े आराम से बैठे हैं।
मुझे बेबे ने अपने खेस में जगह दे दी है। पता नहीं मेरी अनुपस्थिति में भी
ये जमावड़े चलते रहते थे या नहीं।सबकी उत्सुकता मेरी चौदह बरस की यात्रा के
बारे में विस्तार से सुनने की है जबकि मैं यहां के हाल चाल जानना चाहता
हूं।
फैसला यही हुआ है कि आज मैं यहां के हाल चाल सुनूंगा और कल अपने हाल
बताऊंगा। वैसे भी दिन भर किस्तों में मैं सबको अपनी कहानी सुना ही चुका
हूं। ये बात अलग है कि ये बात सिर्फ़ मैं ही जानता हूं कि इस कहानी में
कितना सच है और कितना झूठ।
शुरूआत बेबे ने की है। बिरादरी से..। इस बीच कौन-कौन पूरा हो गया, किस-किस
के कितने-कितने बच्चे हुए, शादियां, दो-चार तलाक, दहेज की वजह से एकाध बहू
को जलाने की खबर, किसने नया घर बनाया और कौन-कौन मोहल्ला छोड़ कर चले गये
और गली में कौन-कौन नये बसने आये। किस के घर में बहू की शक्ल में डायन आ
गयी है जिसने आते ही अपने मरद को अपने बस में कर लिया है और मां-बाप से अलग
कर दिया है, ये और ऐसी ढेरों खबरें बेबे की पिटारी में से निकल रही हैं और
हम सब मज़े ले रहे हैं।
अभी बेबे ने कोई बात पूरी नहीं की होती कि किसी और को उसी से जुड़ी और कोई
बात याद आ जाती है तो बातों का सिलसिला उसी तरफ मुड़ जाता है।
मैं गोलू से कहता हूं - तू बारी बारी से बचपन के सब साथियों के बारे में
बताता चल।
वह बता रहा है - प्रवेश ने बीए करने के बाद एक होटल में नौकरी कर ली है।
अंग्रेजी तो वह तभी से बोलने लगा था। आजकल राजपुर रोड पर होटल मीडो में
बड़ी पोस्ट पर है। शादी करके अब अलग रहने लगा है। ऊपर जाखन की तरफ घर बनाया
है उसने।
- बंसी इसी घर में है। हाल ही में शादी हुई है उसकी। मां-बाप दोनों मर गये
हैं उनके।
- और गामा?
मुझे गामे की अगुवाई में की गयी कई शरारतें याद आ रही हैं। दूसरों के
बगीचों में अमरूद, लीची और आम तोड़ने के लिए हमारे ग्रुप के सारे लड़के उसी
के साथ जाते थे।
बिल्लू बता रहा है - गामा बेचारा ग्यारहवीं तक पढ़ने के बाद आजकल सब्जी
मंडी के पास गरम मसाले बेचता है। वहीं पर पक्की दुकान बना ली है और खूब कमा
रहा है।
- दारजी, ये नंदू वाले घर के आगे मैंने किसी मेहरचंद की नेम प्लेट देखी थी।
वे लोग भी घर छोड़ गये हैं क्या? मैं पूछता हूं।
- मंगाराम बिचारा मर गया है। बहुत बुरी हालत में मरा था। इलाज के लिए पैसे
ही नहीं थे। मजबूरन घर बेचना पड़ा। उसके मरने के बाद नंदू की पढ़ाई भी छूट
गयी। लेकिन मानना पड़ेगा नंदू को भी। उसने पढ़ाई छोड़ कर बाप की जगह कई साल
तक ठेला लगाया, बाप का काम आगे बढ़ाया और अब उसी ठेले की बदौलत नहरवाली गली
के सिरे पर ही उसका शानदार होटल है। विजय नगर की तरफ अपना घर-बार है और चार
आदमियों में इज्जत है।
- मैं आपको एक मजेदार बात बताती हूं वीर जी।
ये गुड्डी है। हमेशा समझदारी भरी बातें करती है।
- चल तू ही बोल दे पहले। जब तक मन की बात न कह दे, तेरे ही डकार ज्यादा
अटके रहते हैं। बिल्लू ने उसे छेड़ा है।
- रहने दे बड़ा आया मेरे डकारों की चिंता करने वाला। और तू जो मेरी
सहेलियों के बारे में खोद खोद के पूछता रहता है वो...। गुड्डी ने बदला ले
लिया है।
बिल्लू ने लपक कर गुड्डी की चुटिया पकड़ ली है - मेरी झूठी चुगली खाती है।
अब आना मेरे पास पंज रपइये मांगने।
गुड्डी चिल्लायी है - देखो ना वीरजी, एक तो पंज रपइये का लालच दे के ना
मेरी सहेलियों ....। बिल्लू शरमा गया है और उसने गुड्डी के मुंह पर हाथ रख
दिया है - देख गुड्डी, खबरदार जो एक भी शब्द आगे बोला तो।
सब मजे ले रहे हैं। शायद ये उन दोनों के बीच का रोज का किस्सा है।
- तूं वी इन्नां पागलां दे चक्कर विच पै गेया एं। ऐ ते इन्ना दोवां दा रोज
दा रोणा ऐ। बेबे इतनी देर बाद बोली है।
- असी ते सोइये हुण। गोलू ने अपने सिर के ऊपर चादर खींच ली है। गप्पबाजी का
सिलसिला यहीं टूट गया है।
बाकी सब भी उबासियां लेने लगे हैं। तभी बिल्लू ने टोका है - लेकिन वीरा,
आपके किस्से तो रह ही गये ।
- अब कल सुनना किस्से। अब मुझे भी नींद आ रही है। कहते हुए मैं भी बेबे की
चारपाई पर ही मुड़ी-त़ुड़ी हो कर पसर गया हूं। बेबे मेरे बालों में
उंगलियां फिरा रही है। चौदह बरस बाद बेबे के ममताभरे आंचल में आंखें बंद
करते ही मुझे तुरंत नींद आ गयी है। कितने बरस बाद सुकून की नींद सो
रहा हूं।
देख रहा हूं इस बीच बहुत कुछ बदल गया है। बहुत कुछ ऐसा भी लग रहा है जिस पर
समय के क्रूर पंजों की खरोंच तक नहीं लगी है। सब कुछ जस का तस रह गया है।
घर में भी और बाहर भी.. । दारजी बहुत दुबले हो गये हैं। अब उतना काम भी
नहीं कर पाते, लेकिन उनके गुस्से में कोई कमी नहीं आयी है। कल बेबे बता रही
थी - बच्चे जवान हो गये हैं, शादी के लायक होने को आये लेकिन अभी भी उन्हें
जलील करने से बाज नहीं आते। उनके इसी गुस्से की वजह से अब तो कोई मोया
ग्राहक ही नहीं आता।
गोलू और बिल्लू अपने अपने धंधे में बिजी है। बेबे ने बताया तो नहीं लेकिन
बातों ही बातों में कल ही मुझे अंदाजा लग गया था कि गोलू के लिए कहीं बात
चल रही है। अब मेरे आने से बात आगे बढ़ेगी या ठहर जायेगी, कहा नहीं जा
सकता। अब बेबे और दारजी उसके बजाये कहीं मेरे लिए .. .. नहीं यह तो गलत
होगा। बेबे को समझाना पड़ेगा।
ये गोलू और बिल्लू भी अजीब हैं। कल पहले तो तपाक से मिले, थोड़ी देर
रोये-धोये। जब मैंने उन्हें उनके उपहार दे दिये तो बहुत खुश भी हुए लेकिन
जब बाद में बातचीत चली तो मेरे हालचाल जानने के बजाये अपने दुखड़े सुनाने
लगे। दारजी और बेबे की चुगलियां खाने लगे। मैं थोड़ी देर तक तो सुनता रहा
लेकिन जब ये किस्से बढ़ने लगे तो मैंने बरज दिया - मैं ये सब सुनने के लिए
यहां नहीं आया हूं। तुम्हारी जिससे भी जो भी शिकायतें हैं, सीधे ही निपटा
लो तो बेहतर। इतना सुनने के बाद दोनों ही उठ कर चल दिये थे। रात को बेशक
थोड़ा-बहुत हंसी मज़ाक कर रहे थे, लेकिन सवेरे-सवेरे ही तैयार हो कर -
अच्छा वीरजी, निकलते हैं, कहते हुए दोनों एक साथ ही दरवाजे से बाहर हो गये
हैं। गुड्डी के भी कॉलेज का टाइम हो रहा है, और फिर उसने सब सहेलियों को भी
तो बताना है कि उसका सबसे प्यारा वीर वापिस आ गया है।
हँसती है वह - वीरजी, शाम को मेरी सारी सहेलियां आपसे मिलने आयेंगी। उनसे
अच्छी तरह से बात करना।
मैं उसकी चुटिया पकड़ कर खींच देता हूं - पगलिये, मैंने तेरी सारी सहेलियों
से क्या बियाह रचाना है जो अच्छी तरह से बात करूं। ले ये दो सौ रुपये। अपनी
सारी सखियों को मेरी तरफ से आइसक्रीम खिला देना। वह खुशी-खुशी कॉलेज चली
गयी है।
छत पर खड़े हो कर चारों तरफ देखता हूं। हमारे घर से सटे बछित्तर चाचे का
घर। मेरे हर वक्त के जोड़दार जोगी, जोगिन्दर सिंह का घर। उनके के टूटे-फूटे
मकान की जगह दुमंजिला आलीशान मकान खड़ा है। बाकी सारे मकान कमोबेश उन्हीं
पुरानी दीवारों के कंधों पर खड़े हैं। कहीं-कहीं छत पर एकाध कमरा बना दिया
गया है या टिन के शेड डाल दिये गये हैं।
नीचे उतर कर बेबे से कहता हूं - जरा बाजार का एक चक्कर लगा कर आ रहा हूं।
वापसी पर नंदू की दूकान से होता हुआ आऊंगा।
मैं गलियां गलियों ही तिलक रोड की तरफ निकल जाता हूं और वहां से बिंदाल की
तरफ से होता हुआ चकराता रोड मुड़ जाता हूं। कनाट प्लेस के बदले हुए रूप को
देखता हुआ चकराता रोड और वहां से घूमता-घामता घंटाघर और फिर वहां से पलटन
बाज़ार की तरफ निकल आया हूं। यूं ही दोनों तरफ़ की दुकानों के बोर्ड देखते
हुए टहल रहा हूं।
मिशन स्कूल के ठीक आगे से गुज़रते हुए बचपन की एक घटना याद आ रही है। तब
मैं एक पपीते वाले से यहीं पर पिटते-पिटते बचा था। हमारी कक्षा के प्रदीप
अरोड़ा ने नई साइकिल खरीदी थी। मेरा अच्छा दोस्त था प्रदीप। राजपुर रोड पर
रहता था वो। घर दूर होने के कारण वह खाने की आधी छुट्टी में खाना खाने घर
नहीं जाता था बल्कि स्कूल के आस-पास ही दोस्तों के साथ चक्कर काटता रहता
था। मैं खाना खाने घर आता था लेकिन आने-जाने के चक्कर में अकसर वापिस आने
में देर हो ही जाती थी। इसलिए कई बार प्रदीप अपनी साइकिल मुझे दे देता। इस
तरह मेरे दस- पद्रह मिनट बच जाते तो हम ये समय भी एक साथ गुज़ार पाते थे।
साइकिल चलानी तब सीखी ही थी। एक दिन इसी तरह मैं खाना खा कर वापिस जा रहा
था कि मिशन स्कूल के पास भीड़ के कारण बैलेंस बिगड़ गया। इससे पहले कि मैं
साइकिल से नीचे उतर पाता, मेरा एक हाथ पपीतों से भरे एक हथठेले के हत्थे पर
पड़ गया। मेरा पूरा वजन हत्थे पर पड़ा और मेरे गिरने के साथ ही ठेला खड़ा
होता चला गया। सारे पपीते ठेले पर से सड़क पर लुढ़कते आ गिरे। पपीते वाला
बूढ़ा मुसलमान वहीं किसी ग्राहक से बात कर रहा था। अपने पपीतों का ये हाल
देखते ही वह गुस्से से कांपने लगा। मेरी तो जान ही निकल गयी। साइकिल के
नीचे गिरे-गिरे ही मैं डर के मारे रोने लगा। पिटने का डर जो था सो था, उससे
ज्यादा डर प्रदीप की साइकिल छिन जाने का था। वहां एक दम भीड़ जमा हो गयी
थी। इससे पहले कि पपीते वाला मुसलमान मेरी साइकिल छीन कर मुझ पर हाथ उठा
पाता, किसी को मेरी हालत पर तरस आ गया और उसने मुझे तेजी से खड़ा किया,
साइकिल मुझे थमायी और तुरंत भाग जाने का इशारा किया। मैं साइकिल हाथ
में लिये लिये ही भागा था।
उस दिन के बाद कई दिन तक मैं मिशन स्कूल वाली सड़क से ही नहीं गुजरा था।
मुझे पता है, पपीते के ठेले वाला वह बूढ़ा मुसलमान इतने बरस बाद इस समय
यहां नहीं होगा लेकिन फिर भी फलों के सभी ठेले वालों की तरफ एक बार देख
लेता हूं।
आगे कोतवाली के पास ही नंदू का होटल है।
चलो, एक शरारत ही सही। अच्छी चाय की तलब भी लगी हुई है। नंदू के हेटल में
ही चाय पी जाये। एक ग्राहक के रूप में। परिचय उसे बाद में दूंगा। वैसे भी
वह मुझे इस तरह से पहचानने से रहा।
नंदू काउंटर पर ही बैठा है। चेहरे पर रौनक है और संतुष्ट जीवन का भाव भी।
मेरी ही उम्र का है लेकिन जैसे बरसों से इसी तरह धंधे करने वाले लोगों के
चेहरे पर एक तरह का घिसी हुई रकम वाला भाव आ जाता है, उसके चेहरे पर भी वही
भाव है। बहुत ही अच्छा बनाया है होटल नंदू ने। बेशक छोटा-सा है लेकिन उसमें
पूरी मेहनत और कलात्मक अभिरुचि का पता चल रहा है। दुकान के बाहर ही बोर्ड
लगा हुआ है - आउटडोर कैटेरिडग अंडर टेकन।
वेटर पानी रख गया है। मैं चाय का आर्डर देता हूं। चाय का पेमेंट करने के
बाद मैं वेटर से कहता हूं कि ज़रा अपने साहब को बुला लाये। एक आउटडोर
कैटरिडग का आर्डर देना है।
नंदू भीतर आया है। हाथ में मीनू कार्ड और आर्डर बुक है - कहिये साहब, कैसी
पार्टी देनी है आपको? उसने बहुत ही आदर से पूछा है।
- बैठो। मैंने उसे आदेश दिया है।
उसके चेहरे का रंग बदला है और वह संकोच करते हुए बैठ गया है।
मैं अपने को भरसक नार्मल बनाये रखते हुए उससे पूछता हूं
- आपके यहां किस किस्म की पार्टी का इंतजाम हो सकता है?
वह आराम से बैठ गया है - देखिये साहब, हम हर तरह की आउटडोर कैटेरिंग के
आर्डर लेते हैं। आप सिर्फ हमें ये बता दीजिये कि पार्टी कब, कहां और कितने
लोगों के लिए होनी है। बाकी आप हम पर छोड़ दीजिये। मीनू आप तय करेंगे या..
वह अब पूरी तरह दुकानदार हो गया है - आप को बिलकुल भी शिकायत का मौका नहीं
मिलेगा। वेज, नॉन-वेज और आप जैसे खास लोगों के लिए हम ड्रिंक्स पार्टी का
भी इंतजाम करते हैं।
तभी उसे ख्याल आता है - आप कॉफी लेंगे या ठंडा?
- थैंक्स। मैंने अभी ही चाय पी है।
- तो क्या हुआ? एक कॉफी हमारे साथ भी लीजिये। वह वेटर को दो कॉफी लाने के
लिए कहता है और फिर मुझसे पूछता है
- बस, आप हमें अपनी ज़रूरत बता दीजिये। कब है पार्टी ?
- ऐसा है खुराना जी कि पार्टी तो मैं दे रहा हूं लेकिन सारी चीजें, मीनू,
जगह, तारीख मेहमान आप पर छोड़ता हूं। सब कुछ आप ही तय करेंगे। मैं आपको
मेहमानों की लिस्ट दे दूंगा। उनमें से कितने लोग शहर में हैं, ये भी आप ही
देखेंगे और उन्हें आप ही बुलायेंगे और ....।
- बड़ी अजीब पार्टी है, खैर, आप फिक्र न करें। आप शायद बाहर से आये हैं। हम
आपको निराश नहीं करेंगे। तो हम मीनू तय कर लें ..?
- उसकी कोई ज़रूरत नहीं है, आप बाद में अपने आप देख लेना।
मैं बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक पा रहा हूं। नंदू को बेवकूफ बनाने में
मुझे बहुत मज़ा आ रहा है। उसे समझ में नही आ रहा है कि ये पार्टी करेगा
कैसे...।
कॉफी आ गयी है।
आखिर वह कहता है - आप कॉफी लीजिये और मेहमानों के नाम पते तो बताइये ताकि
मैं उन्हें आपकी तरफ से इन्वाइट कर सकूं,.. या आप खुद इन्वाइट करेंगे? वह
साफ-साफ परेशान नज़र आ रहा है।
- ऐसा है कि फिलहाल तो मैं अपने एक खास मेहमान का ही नाम बता सकता हूं। आप
उससे मिल लीजिये, वही आपको सबके नाम और पते बता देगा। मैं उसकी परेशानी
बढ़ाते हुए कहता हूं।
- ठीक है वही दे दीजिये। उसने सरंडर कर दिया है।
- उसका नाम है नंद लाल खुराना, कक्षा 7 डी, रोल नम्बर 27, गांधी स्कूल।
यह सुनते ही वह कागज पैन छोड़ कर उठ खड़ा हुआ है और हैरानी से मेरे दोनों
कंधे पकड़ कर पूछ रहा है - आप .. आप कौन हैं ? मैं इतनी देर से लगातार
कोशिश कर रहा हूं कि इस तरह की निराली पार्टी के नाम पर आप ज़रूर मुझसे
शरारत कर रहे हैं। कौन हैं आप, ज़रूर मेरे बचपन के और सातवीं क्लास के ही
दोस्त रहे होंगे..!
मैं मुस्कुरा रहा हूं - पहचानो खुद !
वह मेरे चेहरे-मोहरे को अच्छी तरह देख रहा है। अपने सिर पर हाथ मार रहा है
लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा, मैं कौन हो सकता हूं।
वह याद करते हुए दो-तीन नाम लेता है उस वक्त की हमारी क्लास के बच्चों के।
मैं इनकार में सिर हिलाता रहता हूं। उसकी परेशानी बढ़ती जा रही है।
अचानक उसके गले से चीख निकली है - आप .. आप गगनदीप, दीप.. दीपू..!
वह लपक कर सामने की कुर्सी से उठ कर मेरी तरफ आ गया है और ज़ोर-ज़ोर से
रोते हुए तपाक से मेरे गले से लग गया है। वह रोये जा रहा है। बोले जा रहा
है - आप कहां चले गये थे। हमें छोड़ कर गये और एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा
आपने। सच मानिये, आपके आने से मेरे मन पर रखा कितना बड़ा बोझ उतर गया है।
हम तो मान बैठे थे कि इस जनम में तो आपसे मिलना हो भी पायेगा या नहीं।
मैं भी उसके साथ सुबक रहा हूं। रो रहा हूं। अपने मन का बोझ हलका कर रहा
हूं।
रोते रोते पूछता हूं - क्यों बे क्या बोझ था तेरे मन पर। और ये क्या दीप जी
दीप जी लगा रखा है ?
- सच कह रहा हूं जब आप गये थे, तुम .. ..तू गया था तो हम सब के सब तेरे
चारों तरफ भीड़ लगा कर खड़े थे। तुझे रोते-रोते सुबह से दोपहर हो गयी थी।
हम सब बीच-बीच में घर जा कर खाना भी खा आये थे लेकिन तुझे खाने को किसी ने
भी नहीं पूछा था। तेरे घर से तो खाना क्या ही आता। तेरे भाई भी तो वहीं
खड़े थे। सिर्फ मैं ही था जो बिना किसी को बताये तेरे लिए खाने का इंतज़ाम
कर सकता था। तेरे लिए अपने बाऊ की हट्टी से एक प्लेट छोले भटूरे ही ला
देता। लेकिन हम सब बच्चों को जैसे लकवा मार गया था। हम बच्चे तेरे जाने के
बाद बहुत रोये थे। तुझे बहुत दिनों तक ढूंढते रहे थे। बहुत दिनों तक तो हम
खेलने के लिए बाहर ही नहीं निकले थे। एक अजीब सा डर हमारे दिलों में बैठ
गया था।
हम दोनों बैठ गये हैं। नंदू अभी भी बोले जा रहा है - मुझे बाद में लगता रहा
कि मार खाना तेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। तेरे केस कटाने की वज़ह भी मैं
समझ सकता था लेकिन मुझे लगता रहा कि सारा दिन भूखे रहने और घर वालों के
साथ-साथ सारे दोस्तों की तरफ से भी परवाह न किये जाने के कारण ही तू घर
छोड़ कर गया था। अगर हमने तेरे खाने का इंतज़ाम कर दिया होता और किसी तरह
रात हो जाती तो तू ज़रूर रुक जाता। हो सकता है हमारी देखा-देखी कोई बड़ा
आदमी ही बीच बचाव करके तुझे घर ले जाता। लेकिन आज तुझे इस तरह देख कर मैं
बता नहीं सकता, मैं कितना खुश हूं। वैसे लगता तो नहीं, तूने कोई तकलीफ भोगी
होगी। जिस तरह की तेरी पर्सनैलिटी निकल आयी है, माशा अल्लाह, तेरे आगे
जितेन्दर-पितेन्दर पानी भरें।
उसने फिर से मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये हैं - मैं आपको बता नहीं सकता, आपको
फिर से देख कर मैं कितना खुश हूं। वैसे कहां रहे इतने साल और हम गरीबों की
याद इतने बरसों बाद कैसे आ गयी?
- क्या बताऊं। बहुत लम्बी और बोर कहानी है। न सुनने लायक, न सुनाने लायक।
फिलहाल इतना ही कि अभी तो बंबई से आया हूं। दो दिन पहले ही आया हूं। कल और
परसों के पूरे दिन तो घर वालों के साथ रोने-धोने में निकल गये। दारजी तेरे
बारे में बता रहे थे कि तू यहीं है। सबसे पहले तेरे ही पास आया हूं कि तेरे
ज़रिये सबसे मुलाकात हो जायेगी। बता कौन-कौन है यहां ?
- अब तो उस्ताद जी, सबसे आपकी मुलाकात ये नंद लाल खुराना, कक्षा 7 डी, रोल
नम्बर 27, गांधी स्कूल ही कराएगा और एक बढ़िया पार्टी में ही करायेगा।
वह ज़ोर से हँसा है - अब आप देखिये, नंद लाल खुराना की कैटरिडग का कमाल।
चल, बीयर पीते हैं और तेरे आने की सेलिब्रेशन की शुरूआत करते हैं।
- मैं बीयर वगैरह नहीं पीता।
- कमाल है। हमारा यार बीयर नहीं पीता। तो क्या पीता है भाई?
- अभी अभी तो चाय और कॉफी पी हैं।
- साले, शर्म तो आयी नहीं कि चाय का बिल पहले चुकाया और मुझे बाद में
बुलवाया।
- मैं देखना चाहता था कि तू मुझे पहचान पाता है या नहीं। वैसे बता तो सही,
यहां कौन-कौन हैं। यहां किस-किस से मुलाकात हो सकती है?
- मुलाकात तो बॉस, पार्टी में ही होगी। बोल कब रखनी है?
- जब मर्जी हो रख ले, लेकिन मेरी दो शर्तें हैं।
- तू बोल तो सही।
- पहली बात ये कि पार्टी मेरी तरफ से होगी और दूसरी बात यह कि सबको पहले से
बता देना कि मेरे इन चौदह बरसों के बारे में मुझसे कोई भी किसी भी किस्म का
सवाल नहीं पूछेगा। सबके लिए इतना ही काफी है कि मैं वापिस आ गया हूं,
ठीक-ठाक हूं और फिलहाल किसी भी तरह की तकलीफ़ में नहीं हूं।
- दूसरी शर्त तेरी मंज़ूर लेकिन पार्टी तो मेरी ही तरफ से और मेरे ही घर पर
होगी। परसों ठीक रहेगी?
- चलेगी। अब चलता हूं। सुबह से निकला हूं। बेबे राह देखती होगी।
- खाना खा कर जाना।
- फिर आऊंगा। अभी नहीं।
बेबे के पास बैठा हूं। मेरे लिए खास तौर पर बेबे ने तंदूर तपाया है और मेरी
पसंद की प्याज वाली तंदूरी परौंठिया सेंक रही है। मैं वहीं बैठा परौंठियों
के लिए आटे के पेड़े बनाने के चक्कर में अपने हाथ खराब कर रहा हूं।
तभी बेबे ने कहना शुरू किया है - वेख पुत्तरा, हुण तूं पुराणियां गल्ला
भुला के ते इक कम कर। बेबे रुकी है और मेरी तरफ देखने लगी है। तंदूर की आग
की लौ से उसका चेहरा एकदम लाल हो गया है।
मैं गरमागरम परौंठे का टुकड़ा मुंह में डालते हुए पूछता हूं - मैंनु दस ते
सई बेबे, की करना है। हलका सा डर भी है मन में, पता नहीं बेबे क्या कह दे।
- तेरे दारजी कै रये सी कि हुण तां तैनूं कोई तकलीफ नईं होवेगी अगर तूं
गुरूद्वारे विच जा के ते अमरित चख लै। रब्ब मेर करे, साडी वी तसल्ली हो
जावेगी अते बिरादरी वी तैंनू फिर तों ...। बेबे ने वाक्य अधूरा ही छोड़
दिया है।
मैं हंसता हूं - वेख बेबे, तेरी गल्ल ठीक है कि मैं अमरित चख के ते इक वार
फिर सिखी धरम विच वापस आ जावां। त्वाडी वी तसल्ली हो जावेगी ते बिरादरी वी
खुश हो जायेगी। अच्छा मैंनु इक गल्ल दस बेबे, इस अमरित चक्खण दे बाद मैंनू
की करना होवेगा।
बेबे की आंखों में चमक आ गयी है। उसे विश्वास नहीं हो रहा कि मैं इतनी
आसानी से अमरित चखने के लिए मान जाऊंगा - अमरित चखन दे बाद बंदा इक वारी
फिर सुच्चा सिख बण जांदा ए। इस वास्ते केस, किरपाण, कछेहरा, कंघा अते
किरपाण धारण करने पैंदे ने ते इसदे बाद कोई वी बंदा केसां दा अपमान नीं कर
सकता, मुसलमानां ते हत्थ का कटेया मांस नीं खा सकता , दूजे दी वोटी दे
नाल..
- रैण दे बेबे। मैं तैंनू दस देवां कि अमरित चक्खण दे बाद कीं होंदा है।
मैं तैंनू पैली वारी दस रेंया हां कि मैं इन्ना सारियां चीजां नूं जितना
मनदां हां ते जाणदा हां, उतना ते इत्थे दे गुरुद्वारे दे भाईजी वी नीं
जाणदे होणगे।
- मैं समझी नीं पुत्त। बेबे हैरानी से मेरी तरफ देख रही है।
- हुण गल्ल निकली ई है तां सुण लै। मैं ए सारे साल मणिकर्ण ते अमरितसर दे
गुरूद्वारेयां विच रै के कटे हन। तूं कैंवे ते मैं तैनूं पूरा दा पूरा गुरु
ग्रंथ साहिब जबानी सुणा देवां। मैं नामकरण, आनंद कारज, अमरित चक्खण दियां
सारियां विधियां करदा रेया हां। बेशक मैं कदी वी पूरे केस नीं रखे पर हमेशा
फटका बन्न के रेया हां। गुरूग्रंथ साहिब दा पाठ करदा रेया हां। जित्थे तक
अमरित चख के ते बिरादरी नूं खुश करण दी गल्ल है, मैं इसदी जरूरत नीं समझदा।
बाकी मैं तैंनू विश्वास दिला दवां कि मैं केसां वगैरा दा वादा ते नीं कर
सकता पर ऐ मेरे तों लिख के लै लै कि मैं कदी वी मीट नीं खावांगा, कदी खा के
वी नीं वेखया, दूजे दी वोटी नूं अपणी भैण मन्नांगा, सिगरेट, शराब नूं कदी
हत्थ नीं लावांगा। होर कुज..?
बेबे हैरानी से मेरी तरफ देखती रह गयी है। उसे कत्तई उम्मीद नहीं थी कि
सच्चाई का यह रूप उसे देखने का मिलेगा। वह कुछ कह ही नही पायी है।
- लेकन पुत्तर , तेरे दारजी..बिरादरी..
- बिरादरी दी गल्ल रैण दे बेबे, मैं दो चार दिन्नां बाद चले जाणा ए।
बिरादरी हुण मेरे पिच्छे पिच्छे बंबई ते नीं ना आवेगी। चल मैं तेरी इन्नीं
गल्ल मन्न लैनां कि घर विच ई अस्सी अखण्ड पाठ रख लैंने हां। सारेयां दी
तसल्ली हो जायेगी।
थोड़ी हील हुज्जत के बाद बेबे अखण्ड पाठ के लिए मान गयी है, लेकिन उसने
अपनी यह बात भी मनवा ली है कि पाठ के बाद लंगर भी होगा और सारी बिरादरी को
बुलवाया जायेगा।
मैंने इसके लिए हां कर दी है। बेबे की खुशी के लिए इतना ही सही। दारजी का
मनाने का जिम्मा बेबे ने ले लिया है। वैसे उसे खुद भी विश्वास नहीं है कि
दारजी को मना पायेगी या नहीं।
•
आज अखण्ड पाठ का आखिरी दिन है।
पिछले तीन दिन से पूरे घर में गहमागहमी है। पाठी बारी-बारी से आकर पाठ कर
रहे हैं। बीच बीच में बेबे और दारजी की तसल्ली के लिए मैं भी पाठ करने बैठ
जाता हूं। बेशक कई साल हो गये हैं दरबारजी के सामने बैठै, लेकिन एक बार
बैठते ही सब कुछ याद आने लगा है। दारजी मेरे इस रूप को देख कर हैरान भी हैं
और खुश भी।
बेबे ने आस-पास के सारे रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों को न्योता भेजा है।
वैसे भी अब तक सारे शहर को ही खबर हो ही चुकी है। लंगर का इंतजाम कर लिया
गया है। बेबे सब त्योहारों की भरपाई एक साथ ही कर देना चाहती है। मैंने
बेबे को बीस हजार रुपये थमा दिये हैं ताकि वह अपनी साध पूरी कर सके। आखिर
इस सारे इंतजाम में खरचा तो हो ही रहा है। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है।
पहले तो बेबे इन पैसों को हाथ ही लगाने के लिए तैयार न हो लेकिन जब मैंने
बहुत ज़ोर दिया कि तू ये सब मेरे लिए ही तो कर रही है तब उसने ले जाकर सारे
पैसे दारजी को थमा दिये हैं। दारजी ने जब नोट गिने तो उनकी आंखें फटी रह
गयी हैं। वैसे तो उन्होंने मेरे कपड़ों, सामान और उन लोगों के लिए लाये
सामान से अंदाजा लगा ही लिया होगा कि मैं अब अच्छी खासी जगह पर पहुंच चुका
हूं। बेबे से दारजी ने जरा नाराज़गी भरे लहजे में कहा है - लै तूं ई रख
अपणे पुत्त दी पैली कमाई। मैं की करणा इन्ने पैसेंया दा।
मुझे खराब लगा है। एक तरफ तो वे मान रहे हैं कि उनके लिए ये मेरी पहली कमाई
है और दूसरी तरफ उसकी तरफ ऐसी बेरुखी। बेबे बता रही थी कि आजकल दारजी का
काम मंदा है। गोलू और बिल्लू मिल कर तीन चार हजार भी नहीं लाते और उसमें से
भी आधे तो अपने पास ही रख लेते हैं।
अरदास हो गयी है और कड़ाह परसाद के बाद अब लोग लंगर के लिए बैठने लगे हैं।
मुझे हर दूसरे मिनट किसी न किसी बुजुर्ग का पैरी पौना करने के लिए कहा जा
रहा है। कोई दूर का फूफा लगता है तो कोई दूर का मामा ताया.... कोई बेबे को
सुनाते हुए कह रहा है - नीं गुरनाम कोरे, हुण तेरा मुंडा दोबारा ना जा सके
इहदा इंतजाम कर लै। कोई चंगी जई कुड़ी वेख के इन्नू रोकण दा पक्का इंतजाम
कर लै, तो कोई जा के दारजी को चोक दे रहा है - ओये हरनामेया... इक कम्म तां
तू ऐ कर कि इन्नू अज ही अज इन्नू इत्थे ई रोकण दा इंतजाम कर लै।
दारजी को मैं पहली बार हंसते हुए देख रहा हूं - फिकर ना करो बादशाहो ...
दीपू नूं रोकण दा अज ही अज पक्का इंतजाम है।
मुझे समझ में नहीं आ रहा कि ये सब हो क्या रहा है। मुझे रोकने वाली बात समझ
में नहीं आ रही।
मुझे लग रहा है कि इस अखण्ड पाठ के ज़रिये कोई और ही खिचड़ी पक रही है। तभी
बेबे एक बुजुर्ग सरदारजी को लेकर मेरे पास आयी है और बहुत ही खुश हो कर बता
रही है - सत श्री अकाल कर इन्ना नूं पुत्तर। अज दा दिन साडे लई किन्ना चंगा
ऐ कि घर बैठे दीपू लई इन्ना सोणा रिश्ता आया ए..। मैं ते कैनी आं भरा जी,
तुसी इक अध दिन इच दीपे नूं वी कुड़ी विखाण दा इंतजाम कर ई देओ।
- जो हुकम भैणजी, तुसी जदो कओ, असी त्यार हां। बाकी साडा दीपू वल के आ गया
ए, इस्तों वड्डी खुशी साडे लई होर की हो सकदी है।
- ये मैं क्या सुन रहा हूं। ये कुड़ी दिखाने का क्या चक्कर है भई। बेबे या
दारजी इस समय सातवें आसमान पर हैं, उन्हें वहां से न तो उतारना संभव है और
न उचित ही। पता तो चले, कौन हैं ये बुजुर्ग और कौन है इसकी लड़की । ....
कमाल है .. ..मुझसे पूछा न भाला, मेरी सगाई की तैयारियां भी कर लीं। अभी तो
मुझे यहां आये चौथा दिन ही हुआ है और इन्होंने अभी से मुझे नकेल डालनी शुरू
की दी। कम से कम मुझसे पूछ तो लेते कि मेरी भी क्या मर्जी है। कुछ न कुछ
करना होगा.. जल्दी ही, ताकि वक्त रहते बात आगे बढ़ने से पहले ही संभाली जा
सके।
इस वक्त मेरा सारा ध्यान उस करतार सिहां की तरफ है जो अपनी लड़की मेरे
पल्ले बांधने की पूरी योजना बना कर आया हुआ है। अच्छा ही है कि आज मैं नंदू
के साथ बाहर निकल जाऊंगा, नहीं तो वो मुझे अपने सवालों से कुरेद - कुरेद कर
छलनी कर देगा। कैसे शातिराना अंदाज पूछ रहा था - बंबई विच तुसीं कित्थे
रैंदे हो और घर बार दा की इंतजाम कित्ता होया ए तुसी..? जैसे मैं बंबई से
उसकी दसवीं या नौंवी पास लड़की से रिश्ता तय करने के लिए यहां आया हूं न
बात न चीत, निकाल के पांच सौ एक रुपये मेरी तरफ बढ़ा दिये - ऐ रख लओ
तुसी..।
क्यों रख ले भई, कोई वजह भी तो हो पैसे रख लेने की। मेरा दिमाग बुरी तरह
भन्ना रहा है। हमारी बेबे भी जरा भी नहीं बदली.. उसका काम करने का वही
पुराना तरीका है। अपने आप ही सब कुछ तय किये जाती है। लेकिन इस मामले में
तो दोनों की मिली भगत ही लग रही है मुझे..!
मै दारजी को न तब समझ पाया था और न अब समझ पा रहा हूं। हालांकि जब से आया
हूं उनका गुस्सा तो देखने में नहीं आया है लेकिन जैसे बहुत खुश भी नहीं
नज़र आते। अपना काम करते रहते हैं या इधर उधर निकल जाते हैं और घंटों बाद
वापिस आते हैं। मुझसे भी जो कुछ कहना होता है बेबे के जरिये ही कहते हैं -
दारजी ए कै रये सन या दारजी पुछ रये सन....।
हिसाब लगाता हूं दारजी अब पचपन-छप्पन के तो हो ही गये होंगे। अब उमर भी तो
हो गयी है। आदमी आखिर सारी ज़िंदगी अपनी जिद लेकर लड़ता झगड़ता तो नहीं रह
सकता.. आदमी मेहनती हैं और पूरे घर का खर्च चला ही रहे हैं। गुड्डी की
पढ़ाई है। गोलू, बिल्लू ने भी अभी ढंग से कमाना शुरु नहीं किया है। ऐसा तो
नहीं हो सकता कि मेरे आने से दारजी को खुशी न हुई हो। लगता तो नहीं है,
लेकिन वे जाहिर ही नहीं होने देते कि उनके मन में क्या है। जब भी उनके पास
बैठता हूं, एकाध छोटी मोटी बात ही पूछते रहे हैं - बंबई में सुना है, मकान
बहुत मुश्किल से मिलते हैं। खाने-वाने की भी तकलीफें होंगी। क्या इस तरफ
ट्रांसफर नहीं हो सकता....। और इसी तरह की दूसरी बातें।
कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा.... किसकी मदद ली जाये....कोई भी तो यहां मेरा
राज़दार नहीं है। सभी कटे-कटे से रहते है। गोलू बिल्लू भी मुझे ऐसे देखते
हैं मानो मैं उनका बड़ा भाई न होकर दुश्मन सरीखा होऊं। जैसे मैं उनका कोई
हक छीनने आ गया होऊं। पहले ही दिन तो गले मिल मिल कर रोये थे और दो-चार
बातें की थीं, उनमें भी अपनी परेशानियां ज्यादा बता रहे थे। उसके बाद तो
मेरे साथ बैठ कर बातें करते ही नहीं हैं।
जब से मैं आया हूं, गुड्डी ही सबसे ज्यादा स्नेह बरसा रही है मुझ पर। जब भी
बाहर से आती है, उसके साथ एक न एक सहेली ज़रूर ही होती है जिससे वह मुझसे
मिलवाना चाहती है।
उसी को घेरता हूं।
उसने मेरा लाया नया सूट पहना हुआ है। लेकिन चप्पल उसके पास पुराने ही हैं।
यही तरीका है उसे घर से बाहर ले जाने का और पूरी बात पूछने का।
उसे बुलाता हूं - गुड्डी, जरा बाजार तक चल, मुझे एक बहुत ज़रूरी चीज़ लेनी
है। जरा तू पसंद करा दे।
- क्या लेना है वीर जी, वह बड़ी-बड़ी आंखों से मेरी तरफ़ देखती है।
- तू चल जो सही। बस दो मिनट का ही काम है।
- अभी आयी वीर जी, जरा बेबे को बता हूं आपके साथ जा रही हूं।
रास्ते में पहले तो मैं उससे इधर-उधर की बातें कर रहा हूं। उसकी पढ़ाई की,
उसकी सहेलियों की और उसकी पसंद की। बेचारी बहुत भोली है। सारा दिन फिरकी की
तरफ घर में घूमती रहती है। स्वभाव की बहुत ही शांत है। आजकल मेरे लिए
स्वेटर बुन रही है। अपने खुद के पैसों से ऊन लायी है..। मेरी सेवा तो इतने
जतन से कर रही है कि जैसे इन सारे बरसों की सारी कसर एक साथ पूरी करना
चाहती हो। जूतों की दुकान में मैं सेल्समैन को उसके लिए कोई अच्छे से
सैंडिल दिखाने के लिए कहता हूं।
गुड्डी बिगड़ती है - ये क्या वीर जी, आप तो कह रहे थे कि आप को अपने लिए
कुछ चाहिये और यहां ... मेरे पास हैं ना..
- तू चुप चाप अपने लिए जो भी पसंद करना है कर, ज्यादा बातें मत बना।
- सच्ची, वीरजी, जब से आप आये हैं, हम लोगों पर कितना खर्च कर रहे हैं ..
- ये सब सोचना तेरा काम नहीं है।
गुड्डी की शापिंग तो करा दी है लेकिन मैं तय नहीं कर पर रहा हूं कि जो सवाल
उससे पूछना चाहता हूं, कैसे पूछूं।
हम वापिस भी चल पड़े हैं। अभी दो मिनट में ही अपनी गली में होंगे और मेरा
सवाल फिर रह जायेगा।
उससे कहता हूं - गुड्डी, बता यहां गोलगप्पे कहां अच्छे मिलते हैं, वहां तो
आदमी इन चीजों के लिए तरस जाता है।
वह झांसे में आ गयी है।
आपको इतने शानदार गोलगप्पे खिलाऊंगी कि याद रखेंगे। हमारा पैट गोलगप्पे
वाला है कैलाश.।
- कहां है तुम्हारे कैलाश का गोलगप्पा पर्वत..?
- बस, पास ही है।
- वैसे गुड्डी बीए के बाद तेरा क्या करने का इरादा है। मैं भूमिका बांधता
हूं।
- मैं तो वीरजी, एमबीए करना चाहती हूं। लेकिन एमबीए के लिए किसी बड़े शहर
में हॉस्टल में रहना, कहां मानेंगे मेरी बात ये लोग? आपको तो पता ही है
दारजी बीए के लिए भी कितनी मुश्किल से राजी हुए थे।
- चल तेरी ये जिम्मेवारी मेरी। तू बीए में अच्छे मार्क्स ले आ तो एमबीए
तुझे बंबई से ही करा दूंगा। मेरा भी दिल लगा रहेगा। मेरा खाना भी बना दिया
करना।
- सच वीर जी, आप कितने अच्छे हैं, आज आप कितनी अच्छी अच्छी खबरें सुना रहे
है। चलिये, गोलगप्पे मेरी तरफ से। लेकिन मैं आपका खाना क्यों बनाने लगी।
आयेगी ना हमारी भाभी....।
अब सही मौका है .. मैं पूछ ही लेता हूं - अच्छा गुड्डी, बताना, ये जो करतार
सिहं वगैरह आये थे सवेरे, क्या चक्कर है इनका, मैं तो परेशान हो रहा हूं।
- कोई चक्कर नहीं है वीर जी, हमारे लिए भाभी लाने का इंतजाम हो रहा है।
- लेकिन गुड्डी, ऐसे कैसे हो सकता है?
- तू खुद सोच, मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई को थोड़ी देर के लिए एक तरफ रख भी दूं,
अपनी अफसरी को भी भूल जाऊं, लेकिन ये तो देखना ही चाहिये ना कि कौन लोग
हैं, क्या करते हैं, लड़की क्या करती है, मेरे साथ देस परदेस में उसकी निभ
पायेगी या नहीं, कई बातें सोचनी पड़ती हैं, मैं अकेले रहते रहते थक गया था
गुड्डी, इसलिए घर वापिस आ गया हूं लेकिन इतना वक्त तो लेना ही चाहिये कि
पहले मेरे घर वाले ही मुझे अच्छी तरह से समझ लें।
- आपकी बात ठीक है वीर जी, लेकिन बेबे और दारजी का कुछ और ही सोचना है। अभी
परसों की बात है, आप कहीं बाहर गये हुए थे। मैं दारजी के लिए रोटी बना रही
थी। बेबे भी वहीं पास ही बैठी थी। तभी आपकी बात चल पड़ी। वैसे तो जब से आप
आये हैं, घर में आपके अलावा और कोई बात होती ही नहीं, तो दारजी बेबे से कह
रहे थे - कुछ ऐसा इंतजाम किया जाये कि अब से दीपू का घर में आना जाना छूटे
नहीं। कहीं ऐसा न हो कि आज आया है फिर अरसे तक आये ही नहीं।
- तो ?
- बेबे बोली फिर - इसका तो एक ही इलाज है कि कोई चंगी सी कुड़ी वेख के दीपे
की सगाई कर देते हैं। शादी बेशक साल छः महीने बाद भी कर सकते हैं, लेकिन
यहीं सगाई हो जाने से उसके घर से बंधे रहने का एक सिलसिला बन जायेगा।
- तो दारजी ने क्या कहा..?
- दारजी ने कहा - लेकिन इतनी जल्दी लड़की मिलेगी कहां से..?
- तो बेबे बोली - उसकी चिंता मुझ पे छोड़ दो। मेरे दीपू के लिए अपनी ही
बिरादरी में एक से एक शानदार रिश्ते मिल जायेंगे। जब से दीपू आया है, अच्छे
अच्छे घरों के कई रिश्ते आ चुके हैं। मैं ही चुप थी कि बच्चा कई सालां बाद
आया है, कुछ दिन आराम कर ले। कई लोग तो हाथों हाथ दीपू को सर आंखों पर
बिठाने वाले खड़े हैं।
- अच्छा तो ये बात है। सारी प्लैनिंग मुझे घेरने के लिए बनायी जा रही है।
मेरी आवाज में तीखापन आ गया है।
- नहीं वीरजी यह बात नहीं है .. लेकिन .. गुड्डी घबरा गयी है। उसे अंदाजा
नहीं था कि उसकी बतायी बात से मामला इस तरह से बिगड़ जायेगा।
- अच्छा एक बात बता। उसका मूड ठीक करने करने के लिहाज से मैं पूछता हूँ -
ये करतार जी करते क्या हैं और इनकी कुड़ी क्या करती है। जानती है तू उसे?
- बहुत अच्छी तरह से तो नहीं जानती, ये लोग धर्म पुर में रहते हैं। शायद
दसवीं करके सिलाई कढ़ाई का कोर्स किया था उसने।
- तू मिली है उससे कभी?
- पक्के तौर तो नहीं कह सकती कि वही लड़की है।
- खैर जाने दे, ये बता ये सरदारजी क्या करते हैं..?
- उनकी पलटन बाजार में बजाजी की दुकान है..।
- कहीं ये खालसा क्लॉथ शाप वाले करतार तो नहीं? मुझे याद आ गया था कि
इन्हें मैंने बचपन में किस दुकान पर बैठे देखा था। मैं तब से परेशान हो रहा
था कि इस सरदार को कहीं देखा है लेकिन याद नहीं कर पा रहा था।
गुड्डी के याद दिलाने से कन्फर्म हो गया है।
मैं गुड्डी का कंधा थपथपाता हृं ।
- लेकिन वीरजी, आपको एक प्रॉमिस करना पड़ेगा, आप किसी को बतायेंगे नहीं कि
मैंने आपको ये सारी बातें बतायी हैं।
- गाड प्रॉमिस, धरम दी सौं बस। मुझे बचपन का दोस्तों के बीच हर बात पर कसम
खाना याद आ गया है - वैसे एक बात बता, तू चाहती है कि मेरा रिश्ता इस करतार
सिंह की सिलाई-कढ़ाई करने और तकिये के गिलाफ काढ़ने वाली अनजान लड़की से हो
जाये। देख, ईमानदारी से बतायेगी तो आइसक्रीम भी खिलाऊंगा।
हंसी है गुड्डी - रिश्वत देना तो कोई आपसे सीखे वीरजी, जरा सी बात का पता
लगाने के लिए आप इतनी सारी चीजें तो पहले ही दिलवा चुके है। मेरी बात पूछो
तो मुझे ये रिश्ता कत्तई पसंद नहीं है। हालांकि मैंने अपनी होने वाली भाभी
को नहीं देखा है, लेकिन ये मैच जमेगा नहीं। पता नहीं क्यों मेरा मन नहीं
मान रहा है लेकिन आप तो जानते ही हैं, दारजी और बेबे को।
- ओये पगलिये, अभी तुझे तेरी होने वाली भाभी से मिलवाता हूं।
उसके मन का बोझ दूर हो गया है लेकिन मेरी चिंता बढ़ गयी है। अब इस मोर्चे
पर भी अपनी सारी शक्ति लगा देनी पड़ेगी। पता नहीं दारजी और बेबे को समझाने
के लिए क्या करना पड़ेगा।
हम घर की तरफ लौट रहे हैं तभी गुड्डी पूछती है - वीरजी, कभी हमें भी बंबई
बुलायेंगे ना.. मेरा बड़ा मन होता है ऐक्टरों और हीरोइनों को नजदीक से
देखने का। सुना है वहां ये लोग वैसे ही घूमते रहते हैं..और अपनी सारी
शॉपिंग खुद ही करते हैं। वह लगातार बोले चली जा रही है - आपने कभी किसी
ऐक्धटर को देखा है।
मैं झल्ला कर पूछता हूं - पूरे हो गये तेरे सवाल या कोई बाकी है?
- वीरजी, आप तो बुरा मान गये। कोई बंबई आये और अपनी पसंद के हीरो से न मिले
तो इत्ती दूर जाने का मतलब ही क्या....?
- तो सुन ले मेरी भी बात .. तुझे अगर जो मेरे पास आना है तो
तू अभी चली चल मेरे साथ। मैं भी तेरे साथ ही बंबई देख लूंगा। और जहां तक
तेरे एक्टरों का सवाल है, वो मेरे बस का नहीं। मुझे वहां अपनी तो खबर रहती
नहीं, उनकी खोज खबर कहां से रखूं...।
लौट रहा हूं वापिस। एक बार फिर घर छूट रहा है..। अगर मुझे ज़रा-सा भी
आइडिया होता कि मेरे यहां आने के पांच-सात दिन के भीतर ही ऐसे हालात पैदा
कर दिये जायेंगे कि मैं न इधर का रहूं और न उधर का तो मैं आता ही नहीं।
यहां तो अजीब तमाशा खड़ा कर दिया है दारजी ने। कम से कम इतना तो देख लेते
कि मैं इतने बरसों के बाद घर वापिस आया हूं। मेरी भी कुछ आधी-अधूरी
इच्छायें रही होंगी, मैं घर नाम की जगह से जुड़ाव महसूस करना चाहता होऊंगा।
चौदह बरसों में आदमी की सोच में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ जाता है और फिर मैं
कहीं भागा तो नहीं जा रहा था। दारजी तो बस, अड़ गये - तुझे शादी तो यहीं
करतारे की लड़की से ही करनी पड़ेगी। मैं कौल दे चुका हूं। दारजी का कौल सब
कुछ और मेरी ज़िंदगी कुछ भी नहीं। अजीब धौंस है। उन्हें पता है, मैं उनके
आगे कुछ भी नहीं कह पाऊंगा तो मेरी इसी शराफ़त का फायदा उठाते हुए म़ुझे
हुक्म सुना दिया - शाम को कहीं नहीं जाना, हम करतारे के घर लड़की देखने जा
रहे हैं। मैंने जब बेबे के आगे विरोध करना चाहा, तो दारजी बीच में आ गये -
बेबे को बीच में लाने की ज़रूरत नहीं है बरखुरदार, यह मर्दों की बात है। हम
सब कुछ तय कर चुके हैं। सिर्फ तुझे लड़की दिखानी है ताकि तू ये न कहे,
देखने-भालने का मौका ही नहीं दिया। वैसे उनका घर-बार हमारा देखा भाला है..।
पिछली तीन पीढ़ियों से एक-दूसरे को जानते हैं। संतोष को भी तेरी बेबे ने
देखा हुआ है।
यह हुक्मनामा सुना कर दारजी तो साथ जाने वाले बाकी रिश्तेदारों को खबर करने
चल दिये और मैं भीतर-बाहर हो रहा हूं। बेबे मेरी हालत देख रही है। जानती भी
है कि मैं इस तरह से तो शादी नहीं ही कर पाऊंगा। परसों रात भी मैंने बेबे
को समझाने की कोशिश की थी कि अभी मैं इस तरह की दिमागी हालत में नहीं हूं
कि शादी के बारे में सोच सकूं और फिर बंबई में मेरे पास अपने ही रहने का
ठिकाना नहीं है, आने वाली को कहां ठहराउंगा, तो बेबे अपने रोने सुनाने लगी
- तूं इन्ने चिरां बाद आया हैं। सान्नू इन्नी साध तां पूरी कर लैंणे दे कि
अपणे होंदेयां तेरी वोटी नूं वेख लइये।
मैंने समझाया - वेख बेबे, तेनू नूं दा इन्ना ई शौक है तां बिल्लू ते गोलू
दोंवां दा वया कर दे। तेरियां दो दो नूंआ तेरी सेवा करन गी।
- पागल हो गया हैं वे पुत्तर, वड्डा भरा बैठा होवे ते छोटेयां दे बारे विच
सोचेया वी नीं जा सकदा पुत्तर। तू कुड़ी तां वेख लै। अस्सी सगन लै लवां गे।
शादी बाद विच होंदी रऐगी। पर तूं हां तां कर दे। जिद नीं करींदी। मन जा
पुत्त।
मैं नहीं समझा पा रहा बेबे को। जब बेबे के आगे मेरी नहीं चलती तो दारजी के
आगे कैसे चलेगी।
ठंडे दिमाग से कुछ सोचना चाहता हूं।
मैं बेबे से कहता हूं - ज़रा घंटाघर तक जा रहा हूं, कुछ काम है, अभी आ
जाऊंगा, तो बेबे आवाज लगाती है - छेत्ती आ जाईं पुत्तरा।
मैं निकलने को हूं कि गुड्डी की आवाज आती है - वीरजी, मैं भी कॉलेज जा रही
हूं। पलटन बाज़ार तक मैं भी आपके साथ चलती हूं।
- चल तू भी। कहता हूं उससे।
- बहुत परेशान हैं, वीरजी ?
- कमाल है, यहां मेरी जान पर बन रही है और तू पूछ रही है परेशान हूं। तू ही
बता, क्या सही है दारजी और बेबे का ये फैसला....।
- वीर जी, बात सिर्फ आपकी जान की नहीं है, किसी और को भी बली का बकरा बनाया
जा रहा है। उसकी तो किसी को परवाह ही नहीं है।
- क्या मतलब? और किस को बलि का बकरा बनाया जा रहा है?
वह रुआंसी हो गयी है।
- तू बोल तो सही, मामला क्या है ?
- यहीं राह चलते बताऊं क्या ?
- अच्छा, यह बात है, बोल कहां चलना है। लग रहा है मामला कुछ ज्यादा ही
सीरियस है।
- इस शहर की यही तो मुसीबत है कि कहीं बैठने की ढंग की जगह भी नहीं है।
- चल, नंदू के रेस्तरां में चलते हैं। वहां फैमिली केबिन है। वहां कोई
डिस्टर्ब भी नहीं करेगा।
नंदू कहीं काम से गया हुआ है, लेकिन उसका स्टाफ मुझे पहचानने लगा है..। सब
नमस्कार करते हैं। मैं बताता हूं - ये मेरी छोटी बहन है। हम बात कर रहे
हैं। कोई डिस्टर्ब न करे!
- हां अब बता, क्या मामला है, और तेरी ये आंखें क्यों भरी हुई हैं, पहले
आंसू पोंछ ले, नहीं तो चाय नमकीन लगेगी।
- यहां किसी की जान जा रही है और आप को मज़ाक सूझ रहा है वीर जी।
- तू बात भी बतायेगी या पहेलियां ही बुझाती रहेगी, बोल क्या बात है...।
- कल रात जब आप नंदू वीरजी के घर गये हुए थे तो बेबे और दारजी बात कर रहे
थे। उन्होंने समझा, मैं सो गयी हूं, लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। तभी
दारजी ने बेबे को बताया - करतारे ने इशारा किया है कि वो सगाई पर पचास हजार
नकद, सारे रिश्तेदारों को सगन और हमें गरम कपड़े वगैरह देगा और शादी के
मौके पर दीपू के लिए मारूति कार और चार लाख नकद देगा।
- अच्छा तो यह बात है।
- टोको नहीं बीच में। पूरी बात सुनो।
- सॉरी, तो बेबे ने क्या कहा?
- बेबे ने कहा कि हमारी किस्मत चंगी है जो दीपू इन्ने चंगे मौके पर आ गया
है। हमारे तो भाग खुल गये।
- तो दारजी कहने लगे - दीपू की शादी के लिए तो हमें कुछ खास करना नहीं
पड़ेगा। उसके पास बहुत पैसा है। आखिर अपनी शादी पर खरच नहीं करेगा तो कब
करेगा। ये पचास हजार ऊपर एक कमरा बनाने के काम आ जायेंगे। बाकी करतारा शादी
के वक्त तो जो पैसे देगा, वो पैसे गुड्डी के काम आ जायेंगे। साल छः महीने
में उसके भी हाथ पीले कर देने हैं। उसके लिए भी एक दो लड़के हैं मेरी निगाह
में.. ।
यह कहते हुए गुड्डी रोने लगी है - मेरी पढ़ाई का क्या होगा वीरजी, मुझे बचा
लो वीर जी, मैं बहुत पढ़ना चाहती हूं। आप तो फिर भी अपनी बात मनवा लेंगे।
मेरी तो घर में कोई सुनता ही नहीं।
- मुझे नहीं मालूम था गुड्डी, मामला इतना टेढ़ा है। कुछ न कुछ तो करना ही
होगा।
- जो कुछ भी करना है, आज ही करना होगा, कहीं शाम को सब लोग पहुंच गये लड़की
देखने तो बात लौटानी मुश्किल हो जायेगी।
- क्या करें फिर..?
- आप क्या सोचते हैं ?
- देख गुड्डी, तेरी पढ़ाई तो पूरी होनी ही चाहिये। तेरी पढ़ाई और शादी की
जिम्मेवारी मैं लेता हूं। तुझे हर महीने तेरी ज़रूरत के पैसे भेज दिया
करूंगा। तेरी शादी का सारा खर्चा मैं उठाऊंगा। तू बेफिकर हो कर कॉलेज जा।
पढ़ाई में मन लगा। बाकी मैं देखता हूं। दारजी और बेबे को समझाता हूं।
मैं जेब से पर्स निकालता हूं - ले फिलहाल हज़ार रुपये रख। बंबई से और भेज
दूंगा, और ये रख मेरा कार्ड। काम आयेगा..।
गुड्डी फिर रोने लगी है - क्या मतलब वीरजी, आप.... आप.. ये सब क्या कह रहे
हैं और ये पैसे क्यों दे रहे हैं। आपके दिये कितने सारे पैसे मेरे पास हैं।
- देख, अगर दारजी और बेबे न माने तो मेरे पास यही उपाय बचता है कि मैं शाम
होने से पहले ही बंबई लौट जाऊं। इस सगाई को रोकने का और कोई तरीका नहीं है।
जिस तरह मेरे आने के दूसरे दिन से ही ये षडयंत्र शुरू हो गये हैं, मैं इनसे
नहीं लड़ सकता। मैं यहां अपने घर वापिस आया था कि अकेले रहते-रहते थक गया
था और यहां तो ये और ही मंसूबे बांध रहे हैं।
गुड्डी मेरी तरफ देखे जा रही है।
- देख गुड्डी, मेरे आने से एक ही अच्छा काम हुआ है कि तू मुझे मिल गयी है।
बाकी सब कुछ वैसा ही है जैसा मैं छोड़ गया था। न दारजी बदले हैं और न बेबे।
देख, तू घबराना नहीं। मैं खुद अपने आंसू रोक नहीं पा रहा हूं लेकिन उसे चुप
करा रहा हूं - हो सकता है शाम को तू जब कॉलेज से वापिस आये तो मैं मिलूं ही
नहीं तुझे।
गुड्डी रोये जा रही है। हिचकियां ले ले कर। उसके लिए और पानी मंगाता हूं,
फिर समझाता हूं - तू इस तरह से कमज़ोर पड़ जायेगी तो अपनी लड़ाई किस तरह से
लड़ेगी पगली, चल मुंह पोंछ ले और दुआ कर कि बेबे और दारजी को अक्कल आये और
वे हमारी सौदेबाजी बंद कर दें।
- आप सचमुच चले जायेंगे वीरजी ...?
- यहां रहा तो मैं न ख्दा को बचा पाऊंगा न तुझे। तू ही बता क्या करूं ....?
- आपके आने से मैं कितना अच्छा महसूस कर रही थी। आपने मुझे ज़िंदगी के नये
मानी समझाये। अब ये नरक फिर मुझे अकेले झ्टालना पड़ेगा। ऐनी वे, गुड्डी ने
अचानक अंासू पोंछ लिये हैं और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया है - आल द बेस्ट
वीरजी, आप कामयाब हों। गुड लक.. ..। उसने बात अधूरी ही छोड़ दी है और वह
तेजी से केबिन से निकल कर चली गयी है। मैं केबिन के दरवाजे से उसे जाता देख
रहा हूं .. एक बहादुर लड़की की चाल से वह चली जा रही है। उसे जाता देख रहा
हूं, और बुदबुदाता हूं - बेस्ट विशेज की तो तुझे ज़रूरत थी पगली, तू मुझे
दे गयी ......।
मुझे नहीं पता, अब गुड्डी से फिर कब मुलाकात होगी!! पता नहीं होगी भी या
नहीं उससे मुलाकात !!
घर पहुंचा तो दारजी वापिस आ चुके हैं। अब तो उन्हें देखते ही मुझे तकलीफ़
होने लगी है। कोई भी मां-बाप अपने बच्चे के इतने दुश्मन कैसे हो जाते हैं
कि अपने स्वार्थ के लिए उनकी पूरी ज़िंदगी उजाड़ कर रख देते हैं। इनकी
ज़रा-सी जिद के कारण मैं कब से बेघर-बार सा भटक रहा हूं और जब मैं अपना मन
मार कर किसी तरह घर वापिस लौटा तो फिर ऐसे हालात पैदा कर रहे हैं कि पता
नहीं अगले आधे घंटे बाद फिर से ये घर मेरा रहता है या नहीं, कहा नहीं जा
सकता।
इनको अच्छी तरह से पता है कि गुड्डी पढ़ना चाहती है, लेकिन उस बेचारी के
गले में अभी से घंटी बांधने की तैयारी चल रही है और इंतज़ाम भी क्या बढ़िया
सोचा है कि एक बेटे की शादी में दहेज लो और अपनी लड़की की शादी में वही
दहेज देकर दूसरे का घर भर दो। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा कि चीज़ें किस तरह से
मोड़ लेंगी और क्या बनेगा इस घर का।
मैं यही सोचता अंदर-बाहर हो रहा हूं कि दारजी टोक देते हैं
- क्या बात है बरखुरदार, बहुत परेशान नज़र आ रहे हो? मामला क्या है ?
- मामला तो आप ही का बनाया बिगाड़ा हुआ है दारजी। कम से कम मुझसे पूछ तो
लिया होता कि मैं क्या चाहता हूं। मुझे अभी आये चार दिन भी नहीं हुए और..
.. मेरी नाराज़गी आखिर हौले-हौले बाहर आ ही गयी है।
- देख भई दीपेया, हम जो कुछ भी कर रहे हैं तेरे और इस घर के भले के लिए ही
कर रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि तेरा घर-बार बस जाये तो हम बाकी बच्चों की
भी फिकर करें। अब इतना अच्छा रिश्ता.....!
- दारजी, ये रिश्ता तो न हुआ। ये तो सौदेबाजी हुई। मैं किसी तरह हिम्मत
जुटा कर कहता हूं।
- कैसी सौदे बाजी ओये....?
- क्या आप इस रिश्ते में नकद पैसे नहीं ले रहे ?
- तो क्या हुआ, दारजी ने गरम होना शुरू कर दिया है।
- तुझे पता नहीं है, आजकल पढ़ा लिखा लड़का किसी को यूं ही नहीं मिल जाता।
समझे.. और तेरे जैसा लड़का तो उन्हें दस लाख में भी न मिलता। हम तो शराफत
से उतना ही ले रहे हैं जितना वे खुशी से अपनी लड़की को दे रहे हैं। हमने
कोई डिमांड तो नहीं रखी है।
- ये मेरी सौदेबाजी नहीं है तो क्या है दारजी...?
- ओये चुप कर बड़ा आया सौदेबाजी वाला ... दारजी अब अपने पुराने रूप में आने
लगे हैं और मेरे सिर पर आ खड़े हुए हैं - तू एक बात बता। कल को गुड्डी के
भी हाथ पीले करने हैं कि नहीं। तब कौन से धरम खाते से पैसे निकाल कर लड़के
वालों के मुंह पर मारूंगा। बता जरा...?
- गुड्डी की जिम्मेवारी मेरी। अभी वो पढ़ना चाहती है।
- तो उसने आते ही तेरे कान भर दिये हैं। कोई ज़रूरत नहीं है उसे आगे पढ़ाने
की। ठीक है संभाल लेना उसकी जिम्मेवारी। आखिर तेरी छोटी बहन है। तेरा फ़रज
बनता है। बाकी यहां तो हम कौल दे चुके हैं। शादी बेशक साल दो साल बाद करें।
मुझे तो सबका देखना है। उधर गोलू बिल्लू एकदम तैयार बैठे हैं और उन्होंने
अपनी तरफ से पहले ही अल्टीमेटम दे दिया है।
उन्होंने अपना आखिरी फैसला सुना दिया है - तू शाम को घर पर ही रहना।
इधर-उधर मत हो जाना। सारी रिश्तेदारी आ रही है। चाहे तो नंदू को साथ ले
लेना।
इसका मतलब ये लोग अपनी तरफ से मेरे और कुछ हद तक गुड्डी के भाग्य का फैसला
कर ही चुके हैं। मैं भी देखता हूं, कैसे सगाई करते हैं संतोष कौर से
मेरी...।
उन्हें नहीं पता कि जो बच्चा एक बार घर छोड़ कर जा सकता है, दोबारा भी जा
सकता है। मैं अपने साथ दो-चार जोड़ी कपड़े ही लेकर आया था। यहां छूट भी
जायें तो भी कोई बात नहीं। गोलू बिल्लू पहन लेंगे। बैग भी उनके काम आ
जायेगा। रास्ते में रेडीमेड कपड़े और दूसरा सामान खरीद लूंगा।
पहली बार खाली पेट घर छूटा था, अब बेबे से कहता हूं - बेबे, जरा छेती नाल
दो फुलके तां सेक दे। बजार जा के इक अध नवां जोड़ा तां लै आवां। बेबे को
तसल्ली हुई है कि शायद मामला सुलट गया है। मैं बेबे के पास रसोई में ही बैठ
कर रोटी खाता हूं। भूख न होने पर भी दो-एक रोटी ज्यादा ही खा लेता हूं। पता
नहीं फिर कब बेबे के हाथ की रोटी नसीब हो। उठते समय बेबे के घुटने को छूता
हूं। पता नहीं, फिर कब बेबे का आशीर्वाद मिले। पूरे घर का एक चक्कर लगाता
हूं। रंगीन टीवी तो रह ही गया। नंदू के घर की पार्टी भी रह गयी। हालांकि इस
बीच कई यार दोस्त आ कर मिल गये हैं लेनि सबसे एक साथ मिलना हो जाता।
घर से बाहर निकलते समय मैं एक बार फिर बेबे को देखता हूं। वह अब दारजी के
लिए फुलके सेक रही है। दारजी अपनी खटपट में लगे हैं। दोनों को मन ही मन
प्रणाम करता हूं - माफ़ कर देना मुझे बेबे और दारजी, मैं आपकी शर्तों पर
अपनी ज़िंदगी का यह सौदा नहीं कर सकता। अपने लिए बेशक कर भी लेता, लेकिन
आपने इसके साथ गुड्डी की किस्मत को भी नत्थी कर दिया है। मैं इस दोहरे पाप
का भागी नहीं बन सकता मेरी बेबे। मैं एक बार फिर से बिना बताये घर छोड़ कर
जा रहा हूं। आगे मेरी किस्मत।
और मैं एक बार फिर खाली हाथ घर छोड़ कर चल दिया हूं। इस बार मेरी आंखों में
आंसू हैं तो सिर्फ गुड्डी के लिए... वो अपनी लड़ाई नहीं लड़ पायेगी। मैं भी
तो अपनी लड़ाई का मैदान छोड़ कर बिना लड़े ही हार मान कर जा रहा हूं। एक ही
मैदान से दूसरी बार पीठ दिखा कर भाग रहा हूं ।
अगला भाग - 2
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