स्वामी
सहजानन्द सरस्वती रचनावली-1
सम्पादक
-
राघव शरण शर्मा
ब्रह्मर्षि वंश विस्तार
2. दोनवार आदि शब्द मीमांसा
यह तो हुई हमारे पण्डितमानियों, बाबुओं और नेताओं की पोपलीला अब उनकी इन
पूर्वोक्त कुकल्पनाओं के कल्पित आधारों का भी विचार यहीं कर लेना चाहिए। इन
लोगों ने जो कुछ बक डाला, वैदेशिकों ने भी जो कुछ विपरीत स्वर आलापे और
बहुतेरे अन्य लोगों को भी जो ऐसी शंकाएँ उठा कीं या करती हैं, जिनका
सम्बन्ध केवल अयाचक ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति से ही हैं, उन सभी का
कारण यह हैं कि ये सभी कूपमण्डूक-प्राय हो रहे हैं, इसलिए अदनी-अदनी बातों
का भी तत्त्व न समझ मनमानी बात सुनाने लग जाते हैं। बात असल यह हैं कि इस
ब्राह्मण समाज में कुछ अवान्तर (छोटे-छोटे) दल (Sub-communities) ऐसे हैं
जिन्हें देखते ही अपरिपक्व विचार वालों के दिल फड़क उठते हैं। अर्थात्
पश्चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों में बहुत से छोटे-छोटे दलों के ऐसे नाम हैं,
जो क्षत्रियों या अन्य वर्णों में भी पाये जाते हैं। जैसे द्रोणवार या
दोनवार, सकरवार, किनवार, बरुआर, बेमुआर, कुढ़नियाँ, गौतम, भृगुवंश, दीक्षित,
कौशिक और सोनपोखरिया या सरफकरिया इत्यादि नाम दोनों (ब्राह्मण और क्षत्रिय)
समाजों में पाये जाते हैं। बस अब क्या था, इतना देखते ही लोगों ने जो चाहा
लिख मारा। परन्तु इस विषय में हमारा निवेदन यह हैं कि जब 'आईन-ए-अकबरी'
जैसे प्राचीन ग्रन्थों में जैसे अन्य ब्राह्मण जमींदारों को ब्राह्मण या
जुन्नारदार लिखा, वैसे ही इन दोनवार और किनवार आदि अयाचक ब्राह्मण दलों को
भी जुन्नारदार या ब्राह्मण ही लिखा हैं, जैसा कि प्रथम परिच्छेद में ही
विस्तृत रूप से दिखला चुके हैं, तो क्षत्रियों में या अन्य जातियों में
दोनवार आदि संज्ञाएँ देखकर सन्देह करना या मिथ्या कल्पनाएँ करना अनभिज्ञता
नहीं तो और क्या कहा जा सकता हैं?
एक बात और भी विचारणीय हैं कि यदि केवल नामों की एकता देखकर ही एकता का
संशय कर लिया जाये, तो क्या दुनिया में एक नाम वाले भिन्न-भिन्न जाति और
समाज के लोग नहीं होते? तो फिर क्या उन्हें एक ही जाति के समझ लेना होगा?
दूसरी बात यह हैं कि यदि मैथिल संज्ञा मिथिला के ब्राह्मण और करण कायस्थों
की हैं और दोनों का वेष भी लगभग एक-सा ही हैं, तो क्या उन दोनों को एक जाति
का ही समझ लेना चाहिए? अथवा उसे देख उनमें से किसी की भी असलियत में सन्देह
करना उचित हैं? क्या लोगों को यह नहीं विदित हैं कनौजिया (कान्यकुब्ज)
ब्राह्मण, हलवाई, कहार और क्षत्रिय आदि भी कहे जाते हैं? क्योंकि
'कान्यकुब्ज हलवाई वैश्य' नामक मासिक पत्र काशी से ही प्रकाशित होता हैं।
इसी तरह कायस्थ आदि भी गौड़ नहीं कहे जाते हैं क्या? तो क्या कान्यकुब्ज या
गौड़ कहलाने के कारण सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, हलवाई, कहार और कायस्थ एक ही
जाति के समझे जायेगे? बहुत सम्भव हैं कि उन लोगों के गोत्र भी एक हो।
क्योंकि जो ही गोत्र ब्राह्मणों के होते हैं, वे ही अन्य जातियों के भी,
कारण कि गोत्र चलाने वाले ऋषि लोग तो प्राय: सभी के एक ही थे।
साथ ही, सम्भवत: इसी कारण से यह भी नियम रख दिया गया हैं कि पुरोहित का जो
गोत्र हो वही क्षत्रियादि यजमान को भी अपना बताना और संकल्प आदि में उसी का
व्यवहार करना चाहिए¹A
इसीलिए यदि कोई यह कहने का भी उत्साह करता कि प्राय: दोनवार क्षत्रियों
¹ निर्णय सिन्धु, तृतीय परिच्छेद, गोत्रप्रवर के प्रकरण में लिखा हैं कि
'अज्ञात बन्धो: पुरोहित प्रवरेणाचार्यप्रवरेण वेतिस्वगोत्राद्यज्ञाने'-यदि
अपने गोत्रप्रवर का ज्ञान न हो तो पुरोहित वा आचार्य के गोत्रप्रवर से ही
व्यवहार किया जाना चाहिए। मगर आश्वलायन, कात्यायन और लौगाक्षि का सिद्धान्त
हैं कि क्षत्रियों और वैश्यों का व्यवहार सर्वदा ही आचार्य या पुरोहित के
ही गोत्रप्रवर से होना चाहिए, जैसा कि 'पुरोहित प्रवरो राज्ञामेतेन
वैश्यप्रवरो व्याख्यात:' इत्यादि।
और भूमिहार ब्राह्मणों के गोत्र एक ही होते हैं। इसी प्रकार किनवार वगैरह
के भी। इसी से उनके विषय में विविध शंकाएँ हुआ करती हैं। परन्तु
कान्यकुब्ज, गौड़ और मैथिल आदि नाम यद्यपि बहुत सी जातियों के एक ही हैं,
तथापि गोत्रों का भेद होने से उनके विषय में कोई भी शंका नहीं होती। तो
उसकी यह उक्ति भी खण्डित हो गयी, क्योंकि कान्यकुब्ज कहलाने वालों के भी
गोत्र एक ही हो सकते हैं। इस विषय में अभी आगे भी कहेंगे।
इसी तरह यह भी देखा जाता हैं कि कायस्थ जाति के जो अवान्तर दल श्रीवास्तव
और सक्सेना वगैरह कहलाते हैं और क्षत्रियों में राठौर आदि कहे जाते हैं वे
ही नाम भड़भूजों में भी पाये जाते हैं। जैसा कि मिस्टर क्रुक ने अपनी उक्त
जाति सम्बन्धी पुस्तक के द्वितीय भाग के 13वें पृष्ठ में यों लिखा हैं :
BHARBHUJA—The last census classifies them under the main heads of
Bhatnagar, Jagjadon, Kaithiya, Kandu, Rathaur, Seksena, Sribastab. Some
illustrate soma real or supposed connetion with other castes and tribes;
such as the Bhadauriya, Chanbe, Chauhan, Kanjar, Kayath, Khatri and
Lodhi.
P. 13. Vol. 11
इसका अनुवाद यह हैं कि अन्तिम मनुष्य गणना के अनुसार भड़भूजा लोग भटनागर,
जगजादों, कैथिया, कान्दू, राठौर, सक्सेना और श्रीवास्तव इन छोटे-छोटे दलों
में विभक्त हैं। बहुतेरे अपने वास्तविक अथवा काल्पनिक सम्बन्ध भदौरिया,
चौबे, चौहान, कंजर, कायथ, खत्री और लोधियों के साथ सिद्ध करते हैं।
इसी तरह गौड़ ब्राह्मणों में चमर गौड़ और गूजर गौड़ इत्यादि संज्ञाएँ हैं।
क्या इन सब नामों को देखकर आस्तिक और विचार बुद्धि से यह सन्देह करना उचित
हैं कि भड़भूजा, कायस्थ, श्रीवास्तव, सक्सेना, चौबे, चौहान, खत्री और राठौर
एवं गूजर, चमार और गौड़ ब्राह्मण इत्यादि एक ही हैं? इन सब बातों को ही
देखकर यही मानना होगा कि नामों के एक हो जाने या गोत्रों के भी एक हो जाने
से जाति एक नहीं समझी जा सकती। क्योंकि जो गाजीपुर, बनारस या मुजफ्फरपुर
में उत्पन्न होने वा रहने वाले हैं और उनकी जातियाँ भिन्न-भिन्न हैं और
सम्भव हैं कि बहुतेरों के गोत्र भी एक ही हों। अब यदि वे लोग किसी कारण से
अन्यत्रा चले जाये तो गाजीपुरी, बनारसी या मुजफ्फरपुरी इस एक ही नाम से वे
सभी बोले जायेगे। जैसा कि लोग कहा करते हैं कि यह तो बनारसी माल, बनारसी
साड़ी या बनारसी जवान हैं। इसी तरह भोजपुरी इत्यादि। ऐसा होने पर भी वे सभी
कदाचित् भी एक नहीं समझे जाते या जा सकते हैं। उसी तरह मिथिला, कान्यकुब्ज
अथवा गौड़ वगैरह देशों में भी रहने वाले सभी जाति वाले एक ही नाम से कहे
जाने पर भी एक जाति या दल के समझे जाते या जा सकते हैं। ठीक वही दशा दोनवार
और किनवार आदि नामों के भी विषय में समझना चाहिए, कि ब्राह्मण या क्षत्रिय
अथवा अन्य जातीय भी एक स्थान में रहने से एक नाम से पुकारे जाने लगे, जैसा
कि अभी दिखलाया जायेगा। और यद्यपि सभी एक नाम वाले भूमिहार ब्राह्मण और
क्षत्रियों के गोत्र एक नहीं हैं, जैसा कि इसी प्रकरण में विदित होगा,
तथापि जिनके गोत्र एक से हैं उनके विषय में वही बात हो सकती हैं जैसी कि
अन्य लोगों में कह चुके हैं, कि एक ही गोत्र वाले भी भिन्न-भिन्न जाति वाले
एक स्थान में रह सकते हैं और उसी से उनका नाम भी एक ही पड़ सकता हैं।
यह भी बात हुई होगी कि जब वे लोग किसी स्थान से हट चले, तो क्षत्रियों ने
देखा कि हमारे पूर्वस्थान वाले अयाचक ब्राह्मण कहाँ बसे हैं। और जहाँ
उन्हें पाया, आप भी उन्हीं के पास ही बस गये। क्योंकि अन्य देश में जाने पर
भी वहाँ पर लोग विशेष कर स्वदेश के ही लोगों का साथ ढूँढ़ा करते हैं। इसीलिए
एक नाम वाले अयाचक ब्राह्मण और क्षत्रिय एक ही जगह पाये जाते हैं। जैसा कि
मैथिल और गौड़ एवं कान्यकुब्ज नाम वाली सभी जातियाँ प्राय: पास ही पास पाई
जाती हैं। अयाचक ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बहुत से गोत्रों के एक ही
होने का एक यह भी कारण हो सकता हैं, कि कोई ब्राह्मण प्रथम याचक (पुरोहित)
रहा होगा और क्षत्रियों की पुरोहिती करता रहा होगा। परन्तु समय पाकर वह
अयाचक हो गया, जैसा कि सर्वदा से हुआ करता हैं, तो अपने सगोत्र अयाचक
ब्राह्मणों से मिल गया, जैसा कि अभी तक बराबर हुआ करता हैं। परन्तु प्रथम
पुरोहित होने से उसी का गोत्र उन क्षत्रियों का भी कहलाता था, इसलिए उसके
पश्चात् आज तक एक ही गोत्र कहलाता ही रह गया।
सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक बात यह हैं कि दोनवार और किनवार इत्यादि नाम
वाले जो क्षत्रिय हैं, ये प्रथम अयाचक ब्राह्मण ही थे। परन्तु किसी कारणवश
इस ब्राह्मण समाज से अलग कर दिये गये वा हो गये। बनारस-रामेश्वर के पास
गौतम क्षत्रिय अब तक अपने को कित्थू मिश्र या कृष्ण मिश्र के ही वंशज कहते
हैं, जिन मिश्रजी के वंशज सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं और भूमिहार
ब्राह्मणों से पृथक् होने का कारण वे लोग ऐसा बतलाते हैं कि कुछ दिन हुए
हमारे पूर्वजों को गौतम ब्राह्मण हिस्सा (जमींदारी वगैरह का) न देते थे,
इसलिए उन्होंने रंज होकर किसी बलवान क्षत्रिय राजा की शरण ली। परन्तु उसने
कहा कि यदि हमारी कन्या से विवाह कर लो, तो हम तुम्हें लड़कर हिस्सा दिलवा
देंगे। इस पर उन्होंने ऐसा ही किया और तभी से भूमिहार ब्राह्मणों से अलग
होकर क्षत्रियों में मिल गये यह उचित भी हैं। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही इसी
प्रकरण में दिखला चुके हैं कि, मनु, याज्ञवल्क्यादि सभी महर्षियों का यही
सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मण यदि क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर ले, तो उसका
लड़का शुद्ध क्षत्रिय ही होगा। क्योंकि उसका मूध्र्दाभिषिक्त नाम
याज्ञवल्क्य ने कहा हैं और 'मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्य' इत्यादि अमरकोष के
प्रमाण से तथा महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि से मूध्र्दाभिषिक्त नाम
क्षत्रिय का ही हैं। मनु भगवान् ने तो :
पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजा: क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते॥अ.10॥
इत्यादि श्लोकों में उसे स्पष्ट ही क्षत्रिय बतलाया हैं। ये गौतम क्षत्रिय
केवल काशी-रामेश्वर के पास दो-चार ग्रामों में रहते हैं।
इसी तरह किनवार क्षत्रियों की भी बात हैं। वे केवल बलिया जिले के छत्ता और
सहतवार आदि दो ही चार गाँवों में प्राय: पाये जाते हैं। जिनके विषय में
विलियम इरविन साहब (William Iruine Esqr.) कलक्टर 1780-85 ई. ने बन्दोबस्त
की रिपोर्ट (Reports on the Settlement) में लिखा हैं कि किनवार ब्राह्मणों
के एक पुरुष
कलकल राय ने किसी क्षत्रिय जाति की कन्या से ब्याह कर लिया। जिससे उनके
वंशज भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो गये और उन्हीं पूर्वोक्त दो-चार ग्रामों
में पाये जाते हैं। इसी तरह दोनवार क्षत्रिय भी किसी कारणवश दोनवार
ब्राह्मणों से अलग कर दिये गये। जो मऊ (आजमगढ़) के पास कुछ ही ग्रामों में
पाये जाते हैं, परन्तु वहाँ दोनवार ब्राह्मण लोग 12 कोस में विस्तृत हैं।
इसी तरह बरुवार क्षत्रियों को भी जानना चाहिए। वे भी केवल आजमगढ़ जिले के
थोड़े से ग्रामों में हैं। परन्तु बरुवार नाम के ब्राह्मण तो उसी जिले के
सगरी परगने के 14 कोस में भरे पड़े हुए हैं। सकरवार क्षत्रिय भी उसी तरह
किसी कारण विशेष ये सकरवार ब्राह्मणों से विलग हो गये, जो गहमर वगैरह दो-एक
ही स्थानों में पाये जाते हैं। जबकि सकरवार नाम के ब्राह्मण गाजीपुर के
जमानियाँ परगने और आरा के सरगहाँ परगने के प्राय: 125 गाँवों में भरे पड़े
हुए हैं। जो दोनवार अयाचक ब्राह्मण जमानियाँ परगने के ताजपुर और देवरिया
प्रभृति बीसों ग्रामों में पाये जाते हैं, उन्हीं में से कुछ लोग किसी वजह
से निकलकर क्षत्रियों में मिल गये और गाजीपुर शहर से पश्चिम फतुल्लहपुर के
पास दो-चार ग्रामों में अब भी पाये जाते हैं। इसी प्रकार अन्य भी भूमिहार
ब्राह्मणों के से नाम वाले क्षत्रियों को जानना चाहिए।
सारांश यह हैं कि सभी दोनवार आदि नाम वाले क्षत्रियों की संख्या बहुत ही
थोड़ी हैं, परन्तु इन नामों वाले भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हैं।
इससे स्पष्ट हैं कि इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों में से वे लोग किसी कारण से
विलग हो गये हैं। इसीलिए उनकी दोनवार आदि संज्ञाएँ और गोत्र वे ही हैं जो
दोनवार आदि नाम वाले ब्राह्मणों के हैं। इस संख्या वगैरह का पता हमने स्वयं
उन-उन स्थानों में भ्रमण कर और जानकार लोगों से मिलकर लगाया हैं। जिसे
इच्छा हो वह प्रथम जाँच कर ले, पीछे कुछ कहे या लिखे। यद्यपि सकरवार
क्षत्रिय आगरे के आस-पास तथा अन्य प्रान्तों में बहुत पाये जाते हैं, तथापि
उन लोगों का गहमर आदि ग्रामों वाले सकरवार क्षत्रियों से कुछ सम्बन्ध नहीं
हैं। क्योंकि ये सब सकरवार कहे जाते हैं और आगरे वाले सिकरीवार; कारण कि
उनका आदिम स्थान फतहपुर सिकरी या सीकरी हैं और इनका स्थान सकराडीह हैं। साथ
ही, आगरे वालों का गोत्र शाण्श्निडल्य हैं और गहमर वालों का सांकृत, जैसा
कि सकरवारों के निरूपण में आगे दिखलायेंगे। अत: सकरवारों को सिकरीवारों से
पृथक् ही मानना होगा।
बहुत जगह अनेक अंग्रेजों ने यह लिखा हैं कि जब बहुत से भूमिहार
(ब्राह्मणों) और राजपूतों के गोत्र एक ही हैं, जैसे किनवार या दोनवार, तो
फिर वे एक ही क्यों न समझे जाये? पर उनकी यह भूल हैं। क्योंकि एक तो
सामान्यत: वैदेशिकों को यही पता नहीं चलता कि गोत्र या मूल किसे कहते हैं।
दूसरे वे लोग यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग गोत्रों से ही पुकारे जाते
हैं, जैसे भारद्वाज, गौतम और कौशिक इत्यादि। इससे उन्हें यह भ्रम हो गया कि
दोनवार और किनवार भी गोत्रों के ही नाम हैं। इसी से उन्होंने ऐसा बक डाला,
जिसे देखकर आजकल के अर्ध्ददग्धा लकीर के फकीर भी वही स्वर आलापने लग जाते
हैं। परन्तु वास्तव में किनवार और दोनवार आदि संज्ञाएँ प्रथम निवास के
स्थानों या डीहों से पड़ी हैं, जिन्हें मिथिला में मूल कहते हैं, और मेरठ
वगैरह में निकास, न कि ये गोत्रों के नाम हैं। जैसे अन्य मैथिलादि
ब्राह्मणों तथा अन्य निकास, न कि गोत्रों के नाम हैं। जैसे अन्य मैथिलादि
ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों की गौड़, कान्यकुब्ज, मैथिल, चकवार और सनैवार आदि
संज्ञाएँ भी स्थानों के नाम से ही पड़ी हैं, न कि ये सब गोत्रों के नाम हैं।
अब हम पाठकें को इन दोनवार आदि नामों का कुछ संक्षिप्त विवरण सुना देना
चाहते हैं, जिससे सब शंकाएँ आप ही आप निर्मूल हो जायेंगी। इस जगह इस बात को
पुन: स्मरण कर लेना चाहिए, कि यवन राज्य काल में जब अनेक कारणों से इतस्तत:
भगेड़ मच रही थी, तो उन दिनों विशेष धर्मभीरु होने के कारण ब्राह्मणों ने
अपनी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल बनाये, जिनमें एक प्रकार के समीपवर्ती
ब्राह्मण सम्मिलित हुए। यह बात प्रथम परिच्छेद में ही सविस्तार दिखलाई जा
चुकी हैं। उसी समय में प्रत्येक ब्राह्मण दल के साथ डीह (पूर्वजों के निवास
स्थान) के कहने का भी प्रचार चला। जैसे पिण्डी के तिवारी या खैरी के ओझा
आदि। क्योंकि इससे ठीक-ठीक पता लग जाता था कि ये ब्राह्मण वास्तव में
कान्यकुब्ज या सर्यूपारी हैं, क्योंकि इनके पूर्वजों के स्थान पिण्डी और
खैरी आदि सर्यूपार और कान्यकुब्ज आदि देशों में ही हैं। इसी 'डीह' को
मिथिला में मूल और पच्छिम में निकास कहते हैं, जिसका अर्थ 'आदिम निवास
स्थान' हैं, जैसा कि 'डीह' का अर्थ हैं। परन्तु यह 'डीह' या 'मूल' का
व्यवहार प्राय: केवल ब्राह्मणों में ही प्रचलित था। इसीलिए अब तक भी सिवाय
ब्राह्मण के अन्य जातियों में उसका व्यवहार प्राय: कहीं भी नहीं पाया जाता
हैं। इससे भी स्पष्ट हैं कि जो क्षत्रियों में किनवार वगैरह नाम हैं, उनके
पड़ने का वही कारण हैं जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। क्षत्रिय लोगों के वंशों
के नाम प्राय: उनके प्रधान पुरुषों के नाम से ही होते हैं, न कि किसी डीह।
जैसे कि रघुवंशी, यदुवंशी इत्यादि।
अस्तु, जिस तरह कान्यकुब्ज लोग डीह का व्यवहार इस प्रकार करते हैं कि
क्यूना के दीक्षित, सीरू के अवस्थी और देवकुली के पाण्डे। इसी तरह
सर्यूपारी भी। मैथिल लोग वैसा न कहकर मूल पूछने पर या तो उस स्थान का
नाम-भर बतला देते हैं, जैसे दिघवे, जाले इत्यादि। अथवा जालेवार, दिघवैत,
सनैवार, चकवार इत्यादि कहते हैं कि जिसका अर्थ यह हैं कि दिघवा, जाले या
चाक आदि स्थानों में रहने वाले। और कहीं-कहीं पर अनरिया, कोदरिया और
ब्रह्मपुरिया आदि भी कहते हैं। जिनके अर्थ हैं कि अनारी, कोदरा और
ब्रह्मपुर के रहने वाले। इसी तरह करमहे और दघिअरे इत्यादि भी समझे जाने
चाहिए। तात्पर्य यह हैं कि वे लोग 'डीह' या 'मूल' को बहुत तरह से कहा करते
हैं। और प्रथम यह बात दिखला चुके हैं कि अयाचक दल वाले ब्राह्मणों ने भी
'डीह', 'मूल' के कहने की रीति प्राय: वही स्वीकार की जो मैथिलों में थी और
तदनुसार ही दोनवार, किनवार, कुढ़नियाँ, कोलहा, तटिहा, एकसरिया, जैथरिया,
ननहुलिया और जिझौतिया आदि कहने लगे। कान्यकुब्जों आदि से भी इनका व्यवहार
मिलता हैं। अत: उनकी तरह भी ये लोग कहीं-कहीं बोले जाते हैं। जैसे भारद्वाज
गोत्री कान्यकुब्ज या सर्यूपारी बाँदा के आसपास और जौनपुर जिले में दो-एक
जगह रबेली पंचपटिया वगैरह में दुमटेकार के तिवारी ही कह जाते हैं और बहुत
से भारद्वाज गोत्री भूमिहार ब्राह्मण भी पाण्डे या तिवारी ही कह जाते हैं
और अपने को दुमटेकार कहते हैं जो कहीं-कहीं बिगड़ कर 'दुमकटार' या 'डोमकटार'
हो गया हैं, एवं बहुत से सर्यूपारी, गौड़ और कान्यकुब्ज वगैरह डीह का नाम न
लेकर केवल गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसा कि भारद्वाज, कौशिक
इत्यादि। इस बात को पं. छोटेलाल श्रेत्रिय ने अपनी 'जात्यन्वेषण' नामक
पुस्तक में स्पष्ट ही लिखा हैं। आजमगढ़ के जिले में भी बभनपुरा आदि दो-चार
ग्रामों में कुछ सर्यूपारी ब्राह्मण दूबे कहलाते हैं और अपने को 'मौनस'
गोत्र से व्यवहार करते हुए, 'मौनस' कहा करते हैं। इसी प्रकार भूमिहार
ब्राह्मणों में भी बहुत से ऐसे दल हैं, जो कहीं-कहीं गोत्रों से ही अपने को
पुकारते हैं, जैसे खजुरा-धुवार्जुन आदि ग्रामों वाले भारद्वाज और
सुर्वत-पाली वगैरह ग्राम वाले कौशिक कहलाते हैं। ये सब स्थान गाजीपुर जिले
में हैं, इसी प्रकार बनारस में गौतम और आजमगढ़ के टीकापुर-बीबीपुर आदि
ग्रामों में दोनों दलवाले भृगुवंश वा भार्गव कहे जाते हैं।
गोत्र से पुकारे जाने में यही कारण हैं कि यवन काल से प्रथम तो लोग स्थायी
रूप से जहाँ-तहाँ पड़े रहते थे। इसलिए 'डीहों' या 'मूलों' के कहने की कोई
आवश्यकता न होने से केवल गोत्रों से आपस के व्यवहार करते थे, जो विवाह
वगैरह में आवश्यक भी था। जब यवन काल में ईधर-उधर भगेड़ मची तो हुलिया
(पहचान) के लिए 'डीह' वा 'मूल' का व्यवहार थोड़े दिनों तक चलता रहा। परन्तु
उस समय भी जो लोग किसी प्रथम के निश्चित एक ही स्थान में जमे रह गये,
उन्हें डीहों की आवश्यकता ही न हुई। इसलिए उनका व्यवहार पूर्ववत गोत्रों से
ही होता रहा। जैसे गौतम लोग प्रथम से ही बनारस में टिके थे और वहीं रह गये
इसलिए वे लोग गौतम ही कहलाते रह गये। परन्तु जो लोग उनमें से ही छपरा के
किसी बड़रमी या बड़रम स्थान से भाग गये वे बड़रमियाँ कहलाये और कहलाते हैं और
उन्हीं गौतमों में से जो प्रथम आजमगढ़ के करमा स्थान में रहते थे, जहाँ अब
उनके स्थान में बरुवार ब्राह्मण किसी कारण से रहते हैं और वे लोग वहाँ से
चले आकर देवगाँव के पास 10 या 12 गाँवों में बस गये वे करमाडीह के कारण
करमाई कहलाये। परन्तु वे लोग सर्यूपारी ब्राह्मण गौतम गोत्री पिपरा के
मिश्र ही हैं, जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं। इसी प्रकार भृगुवंश भी आजमगढ़
के प्रथम से ही थे और वहीं रह गये। इससे उनका वही नाम रहा। परन्तु जो उनके
रहने के तप्पे (परगने या इलाके) कोठा से भागकर बस्ती के कोठिया आदि स्थानों
में चले गये, वे उसी तप्पे के नाम से 'कोठहा' पुकारे जाते हैं। इसी तरह
गाजीपुर के जहूराबाद परगने में पुराने समय से ही रह जाने के कारण वे लोग
कौशिक ही कहलाते रह गये। परन्तु छपरा के नेकती नामक स्थान से भागकर
मुजफ्फरपुर और दरभंगा में जाने वाले कौशिक नेकतीवार कहलाते हैं। इसी तरह के
भारद्वाजों और आजमगढ़ आदि के गर्गों को भी समझना चाहिए।
अब दोनवार आदि शब्दों के अर्थ सुनिए। वास्तव में दोनवार ब्राह्मण
कान्यकुब्ज ब्राह्मण, वत्स गोत्र वाले देकुली या देवकली के पाण्डे हैं। यह
बात दोनवारों के मुख्य स्थान नरहन, नामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि दरभंगा
जिले के निवासी दोनवार ब्राह्मणों के पास अब तक विद्यमान बृहत् वंशावली में
स्पष्ट लिखी हुई हैं। वहाँ यह लिखा हुआ हैं कि देवकली के पाण्डे वत्सगोत्री
दो ब्राह्मण, जिनमें से एक का नाम इस समय याद नहीं, मुगल बादशाहों के समय
में किसी फौजी अधिकार पर नियुक्त होकर दिल्ली से मगध और तिरहुत की रक्षा के
लिए आये और पटना-दानापुर के किले में रहे। इसी जगह वे लोग रह गये और उन्हें
बादशाही प्रतिष्ठा और पेंशन वगैरह भी मिली। उनमें एक के कोई सन्तान न थी।
परन्तु दूसरे भाई समुद्र पाण्डे के दो पुत्र थे। एक का नाम साधोराम पाण्डे
और दूसरे का माधावराम पाण्डे था। जिनमें साधोराम पाण्डे के वंशज दरभंगा
प्रान्त के सरैसा परगने में विशेष रूप से पाये जाते हैं, यों तो ईधर-उधर भी
किसी कारणवश दरभंगा जिले-भर और बाहर भी फैले हुए हैं। बल्कि दरभंगा के
हिसार ग्राम में (जनकपुर के पास) अब तक दोनवार ब्राह्मण पाण्डे ही कहलाते
हैं। माधावराम पाण्डे के वंशज मगध के इकिल परगने में भरे हुए पाये जाते
हैं। साधोराम पाण्डे के पुत्र राजा अभिराम और उनके राय गंगाराम हुए;
जिन्होंने अपने नाम से गंगापुर बसाया। वे बड़े ही वीर थे। उनके दो विवाह हुए
थे, और दोनों मैथिल कन्याओं से ही हुए थे। एक स्त्री श्रीमती भागरानी चाक
स्थान के राजासिंह मैथिल की और दूसरी मुक्तारानी तिसखोरा स्थान के पं.
गोपीठाकुर मैथिल की पुत्री थी। एक से तीन और दूसरी से छह, इस प्रकार राय
गंगाराम के नौ पुत्र हुए। जिन्होंने नरहन, रामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि
नौ स्थानों में अपने-अपने राज्य उसी प्रान्त में जमाये। उन्हीं में से पीछे
कोई पुरुष, जिनका नाम विदित नहीं हैं, आजमगढ़ जिले के रैनी स्थान में मऊ से
पश्चिम टोंस नदी के पास आ बसे, जिनके वंशज वहाँ 12 कोस में विस्तृत हैं।
फिर वहाँ से दो आदमी आकर जमानियाँ परगना, जिला गाजीपुर में बसे और पीछे से
बहुत गाँवों में फैल गये। इनमें से ही कुछ बनारस प्रान्त से मध्दूपुर आदि
स्थानों में भी आ बसे और इसी तरह दो-दो एक-एक ग्राम या घर बहुत जगह फैल
गये। रैनी स्थान से ही जो लोग बलिया के पास जीराबस्ती आदि तीन या चार
ग्रामों में बसे हुए हैं, वे किसी कारणवश पाण्डे न कहे जाकर तिवारी कहलाने
लगे, जो अब तक तिवारी ही कहे जाते हैं। जैसे
पं. नगीना तिवारी इत्यादि। इस प्रकार साधोराम पाण्डे के वंशजों की वृद्धि
बहुत हुई। परन्तु माधावराव पाण्डे के वंशज केवल मगध में ही पाये जाते हैं।
तथापि उनकी संख्या वहाँ कम नहीं हैं। दिघवारा (छपरा) के पास बभनगाँव तथा
ऐसे ही दो-एक और स्थानों के भी दोनवार लोग अब तक पाण्डे ही कहलाते हैं।
जबकि दोनवार नाम के ब्राह्मण बिहार और संयुक्त प्रान्त में भरे हुए हैं और
क्षत्रिय दोनवार केवल कुछ ही ग्रामों में पाये जाते हैं। तो इससे निस्संशय
यही बात सिद्ध हैं कि उन क्षत्रियों के विषय में वही बात हो सकती हैं जो
अभी कही जा चुकी हैं।
अयाचक ब्राह्मणों के दोनवार नाम पड़ने में तीन बातें हो सकती हैं। पहली बात
तो यह हैं कि इनके मूल पुरुष दिल्ली से आये और वह गुरु द्रोणाचार्य का
निवास स्थान था, बल्कि उत्तर पांचाल के राजा भी वहीं थे। इसीलिए वहाँ
दिल्ली प्रान्त के समीप ही गुरुगाँव जिला भी हैं, जिसका भाव यह हैं कि
द्रोणाचार्य गुरुउस स्थानीय गाँव में रहते थे, जिससे वह गुरुगाँव कहलाता
हैं। परन्तु सम्भव हैं कि वही या वहाँ कोई स्थान द्रोणाचार्य के भी नाम से
प्रथम पुकारा जाता रहा हो और वहीं से आने से ये ब्राह्मण लोग उसी डीह से
कहे जाने लगे। जिससे इनका नाम द्रोणवार हो गया। जिसका अर्थ यह हैं कि द्रोण
(द्रोणाचार्य) के स्थान में प्रथम के रहने वाले।
दूसरा अनुमान इस विषय में इससे अच्छा और विश्वसनीय यह हैं कि 'द्रोण' शब्द
संस्कृत में देशान्तर (अन्यदेश या विदेश) का वाचक हैं। जैसा कि मेदिनी कोष
में लिखा हैं कि 'द्रोण:स्यान्नीवृदन्तरे' अर्थात् 'द्रोण शब्द देशान्तर का
भी वाचक हैं।' और जब मिथिला देश में काशी देश वाले और पश्चिम के रहने वाले
ब्राह्मण यवन समय में गये तो उन्होंने (मिथिलावासियसों ने) अपने और अन्य
देशीय ब्राह्मणों को अलग-अलग रखने अथवा पहचान के लिए अपने को तिरहुतिया या
मैथिल कहना प्रारम्भ किया और नये आये हुओं को पश्चिम। जिनमें से तिरहुतिया
का अर्थ 'तिरहुत देश में रहने वाला' और पश्चिम का अर्थ पश्चिम देश में रहने
वाला' हैं, परन्तु जब तक विशेष रूप से अन्य देशीय ब्राह्मण वहाँ न गये थे।
किन्तु साधोराम पाण्डे या उनके वंशज ही उन देशों में आये, तो उन
मिथिलावासियों ने उन्हें द्रोणवार कहना प्रारम्भ किया, जिसका अर्थ यह हैं
कि ये लोग इस देश (मिथिला) के प्राचीन निवासी नहीं हैं, किन्तु अन्य देश
के। वही व्यहवहार मगध में भी चल पड़ा। क्योंकि यह बात प्रथम ही सिद्ध कर
चुके हैं कि मगध और मिथिला के व्यवहार वगैरह प्राय: एक से ही हैं। परन्तु
जब और भी ब्राह्मण मिथिला देश में पश्चिम से आये और द्रोणवार कहने से यह
सन्देह भी होने लगा कि ये लोग पश्चिम से आये हैं या पूर्व देश से, क्योंकि
देशान्तर तो दोनों ही हैं, और इस सन्देह से विवाह सम्बन्ध आदि करने में
गड़बड़ होने की सम्भावना हुई। क्योंकि धर्मशास्त्रनुसार बंग आदि पूर्व देशों
को निषिद्ध समझ लोग उनसे व्यवहार करना घृणित समझते थे। तो प्रथम जिन्हें
द्रोणवार कहते थे, उन्हें तथा अन्य नये आये हुए पश्चिम देश के ब्राह्मणों
को भी 'पश्चिम' कहने लगे। परन्तु प्रथम से प्रचलित द्रोणवार शब्द भी रह गया
और मिथिला वगैरह देशों में आजकल पश्चिम और द्रोणवार इन दोनों शब्दों का
प्रयोग होता हैं। पश्चिम शब्द पश्चिमीय का अपभ्रंश हैं।
सबसे विश्वसनीय और तीसरा अनुमान इस विषय में यह हैं कि मगध और मिथिला इन
दोनों स्थानों के दोनवारों के मूल पुरुष सबसे प्रथम आकर पटना-दानापुर के
बादशाही किले में ठहरे और वहीं से दोनों प्रदेशों में फैले और वह दीना या
दानापुर स्थान अति प्रसिद्ध भी था। और साथ ही यह दिखला चुके हैं कि
ब्राह्मणों में अपने डीहों के कहने की रीति थी और विशेष रूप से यह भी देखा
जाता हैं कि अधिकतर अपने पुराने डीह से बहुत दूर वे लोग नहीं पाये जाते
हैं, जैसा कि किनवार, सकरवार, बेमुआर, तटिह आदि के विषय में दिखलायेंगे।
इसलिए साधोराम पाण्डे और माधावराम पाण्डे के वंशजों ने भी उसी दीना या
दानापुर डीह के नाम से अपने को दीनावार वा दानावार प्रकाशित किया जो समय
पाकर बिगड़ते-बिगड़ते दनवार होकर आजकल दोनवार हो रहा हैं, जिसका अर्थ यह हैं
कि पहले दानापुर के रहने वाले ब्राह्मण। यही दोनवार शब्द का संक्षिप्त
विवरण हैं जो डीह को बतलाता हैं।
अब 'किनवार' शब्द का विवरण सुनिये। किनवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज काश्यप
गोत्री, क्यूना के दीक्षित हैं। इसीलिए इनके विषय में किसी का मत हैं कि ये
लोग काशी के पास विशेषकर गाजीपुर में क्यूना से आये, इसीलिए उसी डीह के नाम
से क्यूनवार कहलाने लगे और वही शब्द बिगड़कर किनवार हो गया। परन्तु गाजीपुर
जिले में ही इन लोगों के निवास स्थान के पास ही कुण्डेसर ग्राम के पूर्व और
वीरपुर, नारायणपुर से पश्चिम-उत्तर प्रथम ओकिनी नाम की नदी बहती थी, जो अब
एकबारगी मिट्टी से पट गयी हैं, केवल उसका थोड़ा सा चिद्द रह गया हैं और
कुण्डेसर से नारायणपुर को जाने वाली पक्की सड़क के पश्चिम ही उसी ओकिनी के
तट पर अब तक किनवार लोगों का पुराना डीह ऊँचा-सा पड़ा हैं। इसलिए उसी ओकिनी
के डीह पर रहने से ये लोग ओकिनीवार कहलाते-कहलाते अब 'ओ' शब्द के काल पाकर
छूट जाने से किनवार कहलाने लगे।
यद्यपि किनवार ब्राह्मणों की वंशावली में यह लिखा हुआ हैं कि ये लोग
कर्नाटक-पदुमपुर से आये और उस पदुमपुर के विषय में बहुत लोगों ने अन्दाज से
बहुत कुछ बक डाला हैं। फिर भी ठीक पता वे न लगा सके और यद्यपि वह पदुमपुर
कर्नाटक देश और केरल देश की सरहद पर केरल देश का एक खण्ड हैं, इस बात को
अभी प्रमाणित करेंगे, तथापि किनवार ब्राह्मण प्रथम के कान्यकुब्ज ब्राह्मण
ही हैं, न कि केरल देशीय ब्राह्मण। यह बात इनकी प्राचीन वीरता और
व्यवहार-आचारों से सिद्ध हैं। यद्यपि कर्नाटक-पदुमपुर से ये लोग आये, इस
विषय में कुछ विशेष प्रमाण या कारण नहीं मिलता। क्योंकि दक्षिण में ऐसी
भगेड़ न थी जैसी कन्नौज वगैरह देशों में थी। इसीलिए इन देशों में दक्षिण देश
के ब्राह्मण प्राय: नहीं पाये जाते। तथापि यदि वहाँ से ही किनवार
ब्राह्मणों का आना मान भी ले तो भी ये लोग वहाँ भी कान्यकुब्ज देश से ही
गये थे और फिर किसी कारणवंश हटकर इसी देश में चले आये। कान्यकुब्ज देश से
केरल देश या उसके पदुमपुर स्थान में ब्राह्मणों के जाने और वहाँ से आने की
बात 'केरल उत्पत्ति' नामक ग्रन्थ में लिखी हुई हैं। यह ग्रन्थ मालाबारी
भाषा में लिखा गया था और पीछे से उसका अनुवाद फारसी में हुआ था, जिसे
मिस्टर जोनाथन डुनकन' (Jonathan Duncn) ने 1793 ई. में अंग्रेजी में
अनुवादित किया। यह सब पूर्वोक्त बातें एशियाटिक रिसर्चेज (Asiatic
Researches) नामक अंग्रेजी पुस्तक में लिखी गयी हैं, जो सन् 1801 ई. में
छपी थी। उस ग्रन्थ के 56वें पृष्ठ में मालाबार देश के प्राचीन विवरण को
लिखते हुए उसी सम्बन्ध में ये बातें लिखी गयी हैं। उस ग्रन्थ का कुछ अंश
नीचे उध्दृत किया जाता हैं, जिससे पूर्वोक्त बातों का थोड़ा-सा पता लग
जायेगा :
In the book called Kerul-oodputteeor the emerging of the country of
Kerul (of which during my stay at Calicut in the year 1793, I made the
best translation into English in my power, through the medium of a
version first rendered into Persian, under my own inspection from the
Malabarie copy procured from one of the Rajahs of Zamorin’s family), the
origin of that coast is ascribed to the piety or penitence of Puresuram
or Pruseram (one of the incarntions of Vishnu), who stung with remorse
for the blood he had so profusely shed in overcoming the Rajahs of the
Kshatery tribe, applied to Varuna, the God of the ocean, to supply him
with a tract of ground to bestow on the Brahmans; and Varuna accordingly
having withdrawn his waters from the Gowkern (a hill in the vicinity of
Mangalore) to Cape Comorin, this trip of territory has, from its
situation, as lying along the foot of the Sukhien (by the Europeans
called the Ghaut) range of mountains, acquired the name of Mulyalum
(i.e, skirting at the bottom of the hills), a term that may have been
shortened into Maliyam or Maleam, whence are also probably its common
names of Mulievar and Malabar; all of whcih Purseram is firmly believed,
by its native Hindus inhabitants, to have parcelled out among different
tribes of Brahmans, and to have directed that the entire produce of the
soil should be appropricated to their maintenance and towards the
edifications of temples, and for the supports of divine worship; whence
it still continues to be distinguished in their writing by term of
Kerm-bhoomy or ‘the Land of good works for the expiation of sin. The
country thus obtained from the ocean, is represented to have remained
long in a marshy and scarcely habitable state; in so much, that the
first occupants, whom Purseram is said to have brought into it from the
eastern and even the northern part of India, again abandoned and it,
being more especially scared by the multitude of serpents with which the
mud has then abounded, and to which numerous accidents are ascribed.
Until Purseram taught the inhabitants to propitate these animal, by
introducing the worship of them, and of their images, which became from
that period objects of adoration.
In manuscript account of Malabar that I have seen and which is ascribed
to a Bishop of Virpoli, (the seat of a famous Roman Catholic seminary
near Coachin), he observes, that by the accounts of the learned natives
of the Coast, it is little more than 2300 years since the sca came up to
the foot of the Sukhien or Ghaut mountains; and that once did so he
thinks extremely probable from the nature of and the quantity of land,
oyster-shells and other fragments, met with in making deep excavations.
The country of Malyalum was according to the Kerul-oodputtee, afterwards
divided into the following Tookrees or divisions.
1st. from Gowkern, already mentioned, to the Perumbura river, was Called
the Tooroo or Tnuru Rauje.
2nd. from the Perumbura to Poodumputtum, was called the Moshak Rauje.
3rd. from Poodum or Poodumputtum, to the limits of Kunety was catled the
Kerul or Keril Rauje and as the principal seat of the ancient government
was fixed in this middle division of Malabar. Its name prevailed over
and was in course of time under stood in a general sense to comprehend
the three others.
4th. from Kunety to Kunea Loomary or Cape Comorin was called the Koop
Rajue.
However this may he, according to the book above quoted, the Brahmans
appear to have first set up and for some time maintained, a fort of
republican or aristocratical government, under two or three principal
chiefs, elected to administer the government, which was thus carried on,
till, on jealousies arising among themselves, the great body of the
Brahman landholders had recourse to foreign assisstance, which
terminated either by conquest or coverntion in their receing to rule
over them a Permal, or Chei Governor from the Prince of the neighbouring
country of Choldesh (a part of the Southern Cornatic), this succession
of viceroys was changed and relived every twelve years till at length
one of those officers named Sheoram or Shermanoo Permaloo, and by others
called Cheruma Perumal appears to have rendered himself so popular
during his government, that at expiration of its term he was enabled, by
the encouragement of those over whom his delegated sway had extended to
confirm his own authority, and to set at defience that of his late
soverign, the Prince of the Choldesh, who is known in their book by the
name of Rajah Kishan Rao, and who having sent an army to Malabar with a
view to recover his authority, is statated to havebeen successfully
withstood by Shermanoo and the Malabarians; an event which is supposed
to have happened about 1000 years anterior to the present period, and is
otherwise worthy of notice.
इसका भावार्थ यह हैं कि 'केरल-उत्पत्ति नामक पुस्तक में (जिसका 1793 ई. में
कालीकट में अपने रहने के समय मैंने यथाशक्ति अंग्रेजी में उत्तम अनुवाद
उसके फारसी मंभ अनुवादित उस ग्रन्थ से किया जो प्रथम मालाबारी भाषा की
पुस्तक से मेरे सामने लिखा गया था, और जो मालाबारी भाषा की पुस्तक जमोरिन
वंशज एक राजा के यहाँ मिली थी) मालाबार किनारे की उत्पत्ति परशुराम (जो कि
विष्णु के अवतारों में से थे) के उस प्रायश्चित के कारण बताई गयी हैं, जो
उन्होंने क्षत्रिय राजाओं के नाश के लिए खून बहाने के शोक से किया था और
जिसके लिए समुद्रपति (देवता) वरुण से यह प्रार्थना की कि उन्हें वे थोड़ी सी
भूमि ब्राह्मणों को दान करने के लिए दे। तदनुसार वरुणदेव ने मंगलोर के
समीपवर्ती गोकर्ण पर्वत से कुमारी अन्तरीप तक का जल हटा लिया और इस प्रकार
वह भूखण्ड सुखेन (घाट) पर्वत के मूल में रहने से मूल्यलम कहलाया, जिसका
अर्थ यह होता हैं कि 'पर्वत की जड़ में निकला हुआ' और सम्भव हैं कि यही शब्द
संक्षिप्त होकर 'मलियम' हो गया हो और इसी से सम्भवत: इसके साधारण नाम
मालेबार और मालाबार पड़े हों। इसके निवासी हिन्दुओं का यह दृढ़ विश्वास हैं
कि इस सम्पूर्ण भू-भाग को परशुरामजी ने वहाँ की भिन्न-भिन्न ब्राह्मण
जातियों में विभक्त कर दिया था और उनको यह शिक्षा दी थी कि इस भूमि की
सम्पूर्ण पैदावार को वे लोग अपने पालन, मन्दिरों की मरम्मत और देवपूजाओं
में खर्च किया करें। इसलिए उसी समय से इस भूमि को वे लोग अपने कागजों में
'कर्मभूमि' (अर्थात् पाप के प्रायश्चित के लिए सत्कार्य करने की भूमि)
लिखने लगे और अब तक वैसा ही करते हैं। इस प्रकार जो देश समुद्र से मिला वह
बहुत दिनों तक दलदल से पूर्ण था, जिसमें लोग कठिनता से निवास कर सकते थे।
उसकी ऐसी दशा थी कि जिन प्रथम के ब्राह्मणों को परशुरामजी ने वहाँ भारतवर्ष
के उत्तर और पूर्व भाग से लाकर बसाया था, उन लोगों ने फिर उसे छोड़ दिया।
क्योंकि उस समय उसकी कीचड़ में रहने वाले बहुत से सर्पों से उन्हें बहुत भय
हुआ और बहुत से ब्राह्मण उनसे मर भी गये। जब तक कि ये फिर परशुराम ने वहाँ
के निवासियों को उन सर्पों और उनकी मूर्तियों की पूजा द्वारा उन्हें
प्रसन्न करने की शिक्षा न दी तब तक यह बात रही और वह पूजा उस समय से होने
लगी। मालाबार के एक प्राचीन लेख में, जिसे मैंने देखा हैं और जो विरापोली
(कोचीन के निकट रोमन कैथोलिक पाठशाले की जगह) क़े एक बिशप (पादरी) के पास
था, यह लिखा हुआ बतलाया जाता हैं कि पढ़े-लिखे मालाबारियों के कथन से कुछ
अधिक 2300 वर्षों से समुद्र घाट के पहाड़ों की जड़ में नहीं आया हैं और यह
बात वहाँ की भूमि के विस्तार और उन सीप या घोंघे वगैरह के देखने से बिलकुल
ही सत्य प्रतीत होती हैं, जो खोदने से भूगर्भ में पाये जाते हैं। 'केरल
उत्पत्ति' पुस्तक के अनुसार मलयालम (मालाबार) देश पीछे से चार भागों या
टुकड़ों में विभक्त किया गया। जिनमें से प्रथम भाग, जो गोकर्ण से परम्बरा
नदी तक था, 'तूरू' राज्य कहलाया। दूसरा, जो परम्बरा नदी से पदमपुत्ताम
(पदमपुर) तक था, 'मशक' राज्य कहलाया। तीसरा, जो पदम या पदमपुत्ताम से कुनटी
की सीमा तक था 'केरल' राज्य कहलाया और चूँकि पुरानी राजधनी मालाबार के इसी
मध्य भाग में थी इसलिए इसी का नाम चारों ओर फैल गया और कुछ दिन बाद लोग शेष
तीन खण्डों के सहित सबको सामान्यत: 'केरल' ही समझने लगे। और चौथा भाग, जो
कुनटी से कुमारी अन्तरीप तक था 'कूप' राज्य कहलाता था।
अस्तु जो कुछ भी हो। पूर्वोक्त पुस्तक (केरल-उत्पत्ति) के अनुसार पहले पहल
ब्राह्मणों ने राज्य-प्रबन्ध के लिए चुने गये दो या तीन सरदारों के अधीन
प्रजा-सत्ताक राज्य प्रबन्ध चलाया और उस दिन तक उसे कायम रखा जब कि परस्पर
द्वेष के कारण अधिकांश जमींदार ब्राह्मण अन्य देशीयों से सहायता की बातचीत
करने लगे और उनकी समाप्ति विजय या परस्पर सुलह से हो गयी। जिसमें उन लोगों
के ऊपर शासन करने के लिए एक चीफ गवर्नर पड़ोस के चोल देश (कर्नाटक के दक्षिण
भाग) के शहजादे की तरफ से नियत किया गया। इन वाइसरायों (चीफ गवर्नरों) की
तबदीली हर बारहवें बरस होती हुई उस समय तक चली गयी जब कि उन्हीं अफसरों में
एक ने, जिसका नाम शिवराम या शरमनू परमलू था, अपने को उन ब्राह्मणों की
दृष्टि में अपने प्रबन्ध काल में ही ऐसा प्रेमपत्र बनाया कि जब उसके शासन
काल का अन्त आया तो जिनके ऊपर वह राज्य करता था उनकी सहायता से अधिकार को
दृढ़ बनाने में समर्थ हुआ और चोल देश के राजा के अधिकार को हटा दिया। उस
राजा का नाम किशनराव था। उस राजा ने अपने अधिकार को फिर से प्राप्त करने के
लिए फौज भेजी। परन्तु कहा जाता हैं कि शरमनू और मालाबारियों ने उसे हरा
दिया। बात आज (1793) से लगभग 1000 वर्ष हुई और ध्यान देने योग्य हैं।''
इस पूर्वोक्त कथन से स्पष्ट हैं कि कर्नाटक से मिला हुआ और उसकी सीमा पर ही
पदमपुर स्थित हैं। इसी से किनवार ब्राह्मणों की वंशावली ने उसे पदमपुर
कर्नाटक लिखा हैं। यह भी स्पष्ट हैं कि वहाँ जो ब्राह्मण लाये जाकर उस देश
के राजा या जमींदार बनाये गये वे उत्तर-पूर्व भारत अर्थात् कान्यकुब्ज देश
से ही लाये गये। यह बात सत्य भी हैं, क्योंकि कान्यकुब्ज देश में बहुत
प्राचीन काल से ही ब्राह्मणों का निवास चला आता हैं। इसलिए इन किनवार
ब्राह्मणों का वहाँ से आना मान भी लिया जाये तो भी ये लोग वास्तव में
कान्यकुब्ज ही हैं। और यदि पदमपुर से आये भी होंगे तो, या तो जैसा कि ऊपर
लिखा हैं कि सर्पों के भय से बहुत से ब्राह्मण लोग भाग गये, उसके अनुसार
लगभग 2300 वर्षों से ही वहाँ से आये अथवा जो युद्ध आज से 1100 वर्ष पूर्व
कर्नाटक देश के राजा और मालाबारियों एवं शिवराम के बीच हुआ था उसमें ही
हटकर चले आये। क्योंकि शिवराम या उन लोगों की विजय हुई सही, तथापि एक राजा
के विरुद्ध लड़ने से उनको बहुत कष्ट भोगना पड़ा और बहुत ह्स हो गया। जिससे
शिवराम (जिसके लिए युद्ध ठाना गया था) भी दु:खी होकर युद्ध के बाद कहीं
अन्यत्रा चला गया। यह बात आगे चलकर उसी 'केरल उत्पत्ति' में लिखी गयी हैं
और चूँकि वे लोग इसी देश से गये थे, अत: फिर यहीं चले आये। युद्ध के समय का
आना ही विशेष विश्वसनीय हो सकता हैं, क्योंकि उन दिनों सभी देशों में गड़बड़
मच रही थी और लोग ईधर-उधर भाग रहे थे। जो कुछ भी हो, चाहे किनवार ब्राह्मण
पदुमपुर से आये अथवा कन्नौज से ही, परन्तु ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण,
दीक्षित और काश्यप गोत्री हैं और इस समय भूमिहार ब्राह्मण कहे जाते हैं।
किनवार क्षत्रियों का जो केवल बलिया के छत्ता और सहतवार आदि गाँवों में
पाये जाते हैं, विवरण प्रथम ही सुना चुके हैं और जहाँ पर किनवार ब्राह्मण
गाजीपुर के मुहम्मदाबाद परगने में भरे पड़े हुए हैं और वीरपुर, नारायणपुर,
कुण्डेसर, भरौली, विश्वम्भरपुर, परसा, लट्ठूडीह गोढ़उर और करीमुद्दीनपुर आदि
उनके बड़े-बड़े ग्राम हैं। वहाँ उनसे पृथक् दो या चार गाँवों में रहने वाले
क्षत्रियों की बात वही हो सकती हैं जैसी कि कही जा चुकी हैं, और वही बात
सन् 1880-85 ई. के गाजीपुर की सेट्लमेण्ट रिपोर्ट में उस समय के कलेक्टर
विलियम इरविन (William Irvine) ने यों लिखी हैं :
Amog Dichhit had three sons, kulkal Rai, Baijal Rai and Mahipal Rai. As
they thought that they could not perform all the religious ceremonies
required, they began to call themselves Rai, Kulkal Rai, without the
consent of his brothers, married the daughter of a chhatri in Pargana
Panchotor, and therefore he was excluded from his caste of Brahman; but
the two brothers, having taken pity on him, gave him some property and
the village Chhata in the Ballia district; as is recorded in the
following verse:
Bijal o mahipal bhum adha kar lin;
Jeth putra Kulkal tahiko chhata din.—Page 33.
इसका मर्मानुवाद यह हैं कि 'किनवारों के पूर्वज अमोघ दीक्षित के कलकल राय,
बैजल राय और महीपाल राय तीन पुत्र थे। उन्होंने समझा था कि हम लोग पुरोहिती
आदि नहीं करवा सकते हैं, इसलिए अपने को दीक्षित की जगह राय कहने लगे। कलकल
राय ने बिना अपने भाइयों की सम्मति के ही पचोतर परगने के किसी क्षत्रिय की
पुत्री से ब्याह कर लिया, इसलिए वे अपनी ब्राह्मण जाति से च्युत कर दिये
गये। परन्तु दोनों छोटे भाईयों ने उनके ऊपर दया करके कुछ धन और बलिया जिले
का छाता गाँव उन्हें दे दिया। जैसी कि कहावत हैं कि ''बैजल और महिपाल भुइं
आधा करि लीन। जेठ पुत्र कलकल, ताहि को छाता दीन''। किनवारों के पुरोहित जो
नगवाँ पाण्डे कहलाते हैं, काश्यप गोत्री ही हैं और उन लोगों में यह
प्रसिद्ध हैं एवं उनकी वंशावलियों में भी लिखा हैं कि वे और किनवार दोनों
भाई हैं। एक भाई का वंश यजमान हुआ और दूसरे का पुरोहित।
अब सकरवार नाम वाले अयाचक दलीय ब्राह्मणों का विवरण सुनिये। ये ब्राह्मण भी
कान्यकुब्ज ब्राह्मण सांकृत गोत्रवाले फतुहाबाद के मिश्र हैं। जो अन्य
ब्राह्मणों की तरह यवन राज्यकाल में वहाँ से इस देश में चले आये जैसा कि
प्रथम दिखलाया जा चुका हैं। फतूहाबाद फतहपुर जिले में एक स्थान हैं। वहाँ
से आकर इनके पूर्वज प्रथम रेवतीपुर, गहमर और करहिया ग्रामों (जो गाजीपुर के
जमानियाँ परगने में हैं) के बीच में रहने वाले सकरा नामक स्थान में बसे। जो
अब भी नाम के लिए डीह के रूप में ऊँचा स्थान पड़ा हुआ हैं और वहाँ मकान
वगैरह कुछ भी नहीं रह गये हैं। परन्तु लोग उसे 'सकराडीह' अब तक पुकारते ही
हैं। फिर वहाँ से बहुत विस्तार होने या और अनुकूलताओं एवं प्रतिकूलताओं के
कारण वे लोग हटकर रेवतीपुर, शेरपुर, सुहवल तथा आरा जिले के सैकड़ों गाँवों
मे जा बसे और उस जिले का सरगहा परगना और जमानियाँ परगने का बहुत सा भाग अब
छेंके हुए हैं, बल्कि मुहम्मदाबाद परगने (गाजीपुर) में भी शेरपुर, रामपुर,
हरिहरपुर आदि गाँवों में रहते थे। अन्त में सकराडीह से हटकर चारों ओर बसे।
इसीलिए सकरा में रहने के समय अपना पूर्व स्थान फतहपुर ही बतलाते थे। परन्तु
जब वहाँ से भी हटे तो सकरा ही पूर्व स्थान बतलाने लगे। लेकिन पूर्व का
फतूहाबाद या फतहपुर नहीं छूटा, इसलिए सकरवार कहलाने पर भी पूछने पर यही
कहते थे कि फतहपुर सकरा से आये हैं, क्योंकि फतहपुर के साथ सकरा भी जुड़
गया। काल पाकर सकरा की जगह सकरी और सिकरी भी कहलाने लगा और फतहपुर प्रथम का
था ही। बस लोग भूल से समझने लगे कि हम लोग फतेहपुर सीकरी से आये हैं, जो
आगरे के पास हैं। इस भ्रम या भूल में विशेष सहायता सिकरीवार राजपूतों के
(जो आगरे के पास और अन्य जिलों में तथा ग्वालियर में विशेष रूप से पाये
जाते हैं) वंचक भाटों ने की। क्योंकि उन्होंने सिकरीवार और सकरवार को एक ही
समझ लिया और रुपया ठगने के लालच से सकरवार ब्राह्मणों का फतेहपुर सीकरी से
ही आना बतलाया। परन्तु असल बात तो यही हैं कि फतहपुर जिले से आकर सकरा में
रहे, इसलिए फतहपुर सकरा ही उनके डीह कहे जा सकते हैं। इसमें प्रबल प्रमाण
यह हैं कि सकरवार और सिकरीवार इन नामों के भेद के साथ-साथ गोत्रों में भी
भेद हैं। अर्थात् सिकरीवार राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाये जाते हैं,
शाण्डिल्य गोत्र हैं, ऐसा अन्वेषण करने से पता लगा हैं। और इस बात को
स्वीकार करते हुए मिस्टर शेरिंग ने भी अपनी जाति विषयक अंग्रेजी पुस्तक
(जिसका हाल प्रथम कह चुके हैं) के प्रथम खण्ड के 189 पृष्ठ में सकरवारों के
वर्णन प्रसंग में सिकरीवार क्षत्रियों का शाण्डिल्य गोत्र ही लिखा हैं।
जैसा कि 'They are Sandel gotra or order. परन्तु सकरवार ब्राह्मणों का तो
सांकृत गोत्र प्रसिद्ध ही हैं। इससे नि:संशय ही सकरवार ब्राह्मणों को
फतहपुर सकरा से आने के बदले फतेहपुर सीकरी से आना बतलाने वाले सभी ठग हैं।
इन सकरवार नामधारी ब्राह्मणों का प्रसिद्ध सांकृत गोत्र ही उस किंवदन्ती को
मिथ्या सिद्ध कर रहा हैं, जो मूर्खतावश जोड़ी गयी हैं और जिसको बहुत से
अंग्रेजों ने भी लिख दिया हैं कि ''गाजीपुर के प्राचीन राजा गाधि के चार
पुत्र अचल, विचल, सारंग और रोहित थे, जिनके ही वंशज रेवतीपुर, सुहवल और
सरंगहा परगना आदि स्थानों के सकरवार हैं'' इत्यादि। क्योंकि यदि ये लोग
गाधि के वंशज होते, तो इनका गोत्र कौशिक होता, जैसा कि गाधि और उनके पुत्र
विश्वामित्रा आदि का माना जाता हैं। इससे ये सब कल्पनाएँ निर्मूल और
अश्रद्धेय हैं। इससे इन्हीं के आधार पर करहिया और गहमर के सकरवार
क्षत्रियों और सकरवार ब्राह्मणों को एक सिद्ध करने का साहस करना नितान्त
भूल हैं। जबकि वे लोग दो-एक गाँवों में ही रहते हैं, परन्तु सकरवार
ब्राह्मण तो सुहवल, रेवतीपुर, रामपुर और शेरपुर एवं सरंगहा आदि में भरे पड़े
हैं। अत: इन सकरवार राजपूतों के विषय में वही बात विश्वसनीय हैं, जिसका कथन
प्रथम ही कर चुके हैं और जो दोनवार और किनवार क्षत्रियों के विषय में भी
कही जा चुकी हैं।
यद्यपि कोई-कोई ऐसा सिद्ध करने का साहस कर सकते हैं कि जो सिकरीवार राजपूत
पश्चिम में पाये जाते हैं, उन्हीं की एक शाखा ये सकरवार राजपूत भी हैं और
सिकरीवार शब्द ही बिगड़ते-बिगड़ते सकरवार हो गया हैं। तथापि यह उनका प्रयत्न
व्यर्थ ही हैं, क्योंकि यदि ऐसी बात होती तो सिकरीवार और सकरवार इन दोनों
राजपूतों के गोत्र एक ही होते। परन्तु वे लोग (सिकरीवार) शाण्डिल्य गोत्र
वाले और ये गहमर, करहिया वाले सकरवार राजपूत सांकृत गोत्र वाले ही हैं। ये
लोग गाधि राजा के भी वंशज नहीं हैं, क्योंकि ऐसी दशा में इनका गोत्र कौशिक
होना चाहिए। इसलिए इन राजपूतों की व्यवस्था वही हैं जो कही जा चुकी हैं।
यदि इन सकरवार क्षत्रियों को गाधिवंशजों या सिकरीवार क्षत्रियों से ही
मिलाने का कोई यत्न करे तो अच्छा हैं, वे लोग उधर ही जा मिलें। इससे भी
सकरवार ब्राह्मणों का कोई हर्ज नहीं हैं। ये लोग तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण
हैं ही। जैसे अयाचक ब्राह्मणों और राजपूतों में सकरवार नाम वाले पाये जाते
हैं, वैसे ही मैथिल ब्राह्मणों में भी सकरीवार या सकरवार नाम वाले ब्राह्मण
पाये जाते हैं। यह नाम उन लोगों के प्रथम सकरी स्थान में रहने से हैं, जो
दरभंगा शहर से उत्तर-पूर्व में स्थित हैं और बंगाल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे की
मधुबनी और झंझारपुर वाली लाइनों का जंक्शन हैं। इस कथन का यहाँ तात्पर्य यह
हैं कि एक ही नाम वाले एक या भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने से अनेक जातियों
के लोग एक ही नाम वाले हो सकते हैं। परन्तु इससे उनके एक जाति सम्बन्धी
होने का संशय नहीं किया जा सकता। अत: निर्विवाद सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों का
सकरवार भी नाम प्रथम सकराडीह के निवास से ही पड़ा हैं।
अब आजमगढ़ के यगरी परगने के 14 कोस में विस्तृत बरुवार नामक ब्राह्मणों का
विवरण संक्षेपत: लिखा जाता हैं। बरुवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण
बरुवा के तिवारी काश्यप गोत्री हैं। यह बरुवा स्थान कान्यकुब्ज देश में
हैं। और प्राय: इसी स्थान से आने से ये लोग बरुवा कहलाते-कहलाते अब बरुवार
कहलाते हैं। यद्यपि ये लोग पूछने से केवल इतना ही बतलाते हैं कि हमारे
पूर्वज पश्चिम कन्नौज की ओर से आये और हम लोगों का गोत्र काश्यप हैं।
परन्तु वही बरुवार नाम और काश्यप गोत्र ही इस बात का पता दे देता हैं कि ये
लोग कन्नौज देश के बरुवा स्थान के रहने वाले थे और यवनों के समय में वहाँ
से आकर देवगाँव तहसील के वेला तप्पे के जिहुली स्थान में प्रथम बसे। जिहुली
के पास ही बेला नाम का गाँव भी हैं। फिर वहाँ से सगरी परगने में पीछे आकर
बसे। बहुत सम्भव और विश्वसनीय हैं कि जैसे भृगुवंश लोग कोठा तप्पे से कोठहा
कहलाते हैं, वैसे ही इनका नाम भी बेला तप्पे से बेलवार होकर अब बेरुवार या
बरुवार हो गया। क्योंकि र और ल अक्षरों का उलट-फेर विलार और विडाल शब्दों
में देखा जाता हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के डीह प्राय: निकट के ही हैं, यह
बात भी इस अनुमान में अनुकूल हैं। अस्तु। अभी कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में
बहुत से काश्यप गोत्र वाले बरुवा के तिवारी पाये जाते हैं। यद्यपि बरुवार
नाम वाले क्षत्रिय भी आजमगढ़ में बरुवार ब्राह्मणों से हटकर पाये जाते हैं।
परन्तु इनकी संख्या थोड़ी सी ही हैं, जैसी कि दोनवार, किनवार क्षत्रियों की।
इसलिए इन बरुवार क्षत्रियों की भी व्यवस्था वैसी ही हैं, जैसी कि दोनवार,
किनवार या सकरवार क्षत्रियों की बतलायी जा चुकी हैं। अथवा सामान्यत: इनके
विषय में भी वैसी ही हैं जैसा प्रथम ही कह चुके हैं। कुछ बरुवार ब्राह्मण
आजमगढ़ के मुहम्मदाबाद परगने के केरमा, भुजही और छठियाँव नामक ग्रामों में
भी पाये जातेहैं।
बेमुवार नामवाले ब्राह्मणों का संक्षिप्त विवरण जानने के लिए प्रथम यह
जानना आवश्यक हैं कि इनका गोत्र सावर्ण्य हैं और इन सावर्ण्य गोत्र वाले
ब्राह्मणों के तीन छोटे-छोटे दल अब प्रसिद्ध हैं। एक पनचोभै, दूसरे अरापै,
तीसरे केवल सावर्ण्य या सावर्णियाँ कहलाते हैं, अर्थात् केवल गोत्र से ही
बोले जाते हैं। और सावर्णियाँ या सावर्ण्य गोत्र वाले ब्राह्मण प्राय:
कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में नहीं ही हैं और मैथिलों में भरे पड़े हुए
हैं। बल्कि जो इनका एक दल पनचोभै कहलाता हैं वह मिथिला ही में पाया जाता
हैं और ये लोग बिहार में ही विशेष रूप से पाये भी जाते हैं। और पटना तथा
आरा जिले में इनकी संख्या बहुत हैं। जहाँ मिथिला से आये हुए दिधावैत वगैरह
भी पाये जाते हैं। इसलिए ये लोग पूर्व के मैथिल ब्राह्मण ही हैं ऐसा ही
हमारा अनुमान हैं। इनके पनचोभै और अरापै आदि संज्ञाओं के विषय में बहुत सी
गढ़न्त किंवदन्तियाँ हैं, परन्तु सब निर्मूल हैं, ये लोग बनारस के नरवन
परगने के कुछ गाँवों में भी पाये जाते हैं। वास्तव में पटना जिले में जहाँ
ये लोग विशेष रूप से हैं, उसके पास ही बिहटा स्टेशन से उत्तर कुछ दूर गंगा
के पास इनका पुराना गढ़ अरापा नाम का था, जो अब भग्नावस्था में नाममात्र के
लिए कहने को रह गया हैं और इनके पूर्वज वहाँ प्रथम रहते थे इसीलिए ये लोग
अरापै कहलाये। इसी तरह मिथिला, दरभंगा से पश्चिम से पनचोभ गाँव में रहने से
ये लोग पनचौभे कहलाये, जो वहाँ ही विशेष रूप से ईधर-उधर पाये जाते हैं।
तीसरा दल जो केवल गोत्र के नाम से ही पुकारा जाता हैं वह भी मिथिला में
बहुत हैं। इससे भी स्पष्ट हैं कि ये लोग मिथिला से ही इन पटना आदि के
प्रान्तों में आये। परन्तु जो लोग प्रथम से अरापा गढ़ या पनचोभ गाँव में न
रहकर अन्य स्थानों में ही पटना प्रान्त में या अन्यत्रा प्रथम से ही रहते
हुए पीछे तक रह गये वे केवल सावर्णियाँ या सावर्ण्य ही कहलाते रह गये।
उन्हीं पटना जिले में रहनेवाले सावर्ण्य गोत्री ब्राह्मणों में से कुछ लोग
ईधर-उधर बढ़े। जिनमें से कुछ बनारस की ओर भी चले गये और जैसा कि बेमुवारों
कहना हैं कि आँव नामक स्थान में बसे। परन्तु जो पटना के समीप बेमूपुर नामक
परगने में बसे हुए थे, वे लोग जब वहाँ से हटकर बक्सर के आस-पास आरा जिले
में ठहरे, तो उसी बेमूपुर से आने के कारण बेमुवार नाम वाले कहलाये।
यह बेमूपुर परगना अकबर के समय में था। क्योंकि आईन-ए-अकबरी में जहाँ पर
अकबर के राज्य-भर के जिलों और परगनों का वर्णन हैं, वहाँ पटना के आसपास में
ही बेमूपुर नामक महाल या परगना भी लिखा गया हैं। सम्भव हैं कि अब वह नाम न
हो। परन्तु बक्सर के पास आरा जिले से भी, डुमराँव के राजाओं से बराबर लड़ाई
होती रहने के कारण वे लोग हटकर गंगा के उत्तर तट में नहरी इत्यादि गाँवों
में बलिया जिले के गुड़हा परगने में अकबर बादशाह के पीछे आ बसे और वहाँ के
प्रथम निवासी क्षत्रिय तथा अन्य जातियों को निकाल दिया। अभी नरही, सुहाँव,
टुटुआरी, भरौलीं तथा उजियार आदि गाँवों में आये हुए उन्हें थोड़े ही दिन
हुए। जिसे वे लोग स्वयं कहाँ करते हैं। और इसी कारण से बलिया के गड़हा परगने
में अकबर के समय में राजपूतों की ही जमींदारी लिखी हुई हैं। यह बात कि ये
लोग पटना के पास बेमूपुर से आये, यों भी पुष्ट होती हैं कि ये लोग भी इतना
कहते हैं कि हम लोगों के पूर्वज लोग बेमूपुर-पाटन से आये जो आगरा या इटावे
के पास हैं। परन्तु वहाँ तो इस नाम के किसी भी स्थान का पता नहीं चलता।
इसलिए पटना को ही भूल से पाटन कहने लग गये और जैसा सब लोग पश्चिम से ही आना
बतलाते हैं, वैसा ही इन लोगों ने भी कहना प्रारम्भ किया, यही अनुमान हैं।
ऐसी भूलें हुआ भी करती हैं, जैसा कि पदमपुर, कर्नाटक और फतेहपुर सीकरी आदि
के विषय में दिखला चुके हैं।
इससे सिद्ध होता हैं कि बेमूपुर डीह से, जो पटना जिले में हैं और जहाँ अब
तक सावर्ण्य ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या हैं, आने से ही नरही आदि के
अयाचक दलीय ब्राह्मण बेमुवार कहलाएँ। यदि इन्हें सर्यूपारी और इटार के
पाण्डे मानें तो भी हमें विवाद नहीं हैं।
इसी जगह प्रसंगवश हम यह भी शंका हटा देना चाहते हैं, जो लोगों की अनभिज्ञता
के कारण हुआ करती हैं। अर्थात् लोग कभी-कभी यह बकने का साहस किया करते हैं,
कि यदि पश्चिम, त्यागी, अयाचक, भूमिहारादि ब्राह्मणों के आप वास्तव में
कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़ और मैथिलादि बतलाते हैं, अर्थात् जिन दिनों
मैथिल, गौड़, सर्यूपारी और कान्यकुब्ज आदि छोटे-छोटे दल ब्राह्मणों में बनने
लगे, उसी समय मिथिला, गौड़, कन्नौज और सर्यूपार आदि सभी देशों के अयाचक
ब्राह्मणों का भी एक दल संगठित होने लगा। क्योंकि स्वगुणे परमाप्रीति:
''अर्थात् जो जिस प्रकार का होता हैं वह वैसों से ही मिलता हैं।'' तो फिर
इन लोगों के सभी डीह कन्नौज, सर्यूपार या मिथिला में न बताकर कुछ तो उन
देशों में और कुछ अन्यत्रा क्यों बतलाते हैं? क्योंकि दोनवार आदि शब्दों को
आप डीह या मूल का वाचक बतलाते हैं, परन्तु उनसे जो डीह सिद्ध होते हैं ये
तो कन्नौज या सर्यूपार आदि देशों में नहीं हैं। यद्यपि एकसरिया वगैरह
नामवाले एकसार आदि डीह सर्यूपार के हैं, तथापि सब तो नहीं ही हैं इत्यादि।
इसका समुचित उत्तर यह हैं कि सभी ब्राह्मणों में बहुत से डीह ऐसे मिलते
हैं। जैसे सर्यूपारियों में मचैयाँ पाण्डे या निमेज के ओझा तथा बटवा
उपाध्याय या बड़हरिया पाण्डे इत्यादि कहलाते हैं। और यद्यपि वे लोग अपने को
कभी-कभी कान्यकुब्ज भी कहा करते हैं, तथापि सर्यूपारी कहलाने वाले से विवाह
करते हैं। परन्तु उनके निमेज, मचियाँव, बड़हर और बटवा आदि डीह न तो कन्नौज
देश में ही मिलते हैं और न सर्यूपार ही में। किन्तु आरा जिला, पटना या
मिर्जापुर आदि में पाये जाते हैं। तो क्या इससे सर्यूपारी होने का अभिमान
वाले या सर्यूपारी बनने वाले उनको अपने समाज से पृथक् कर देने का साहस भी
कर सकते हैं?
साथ ही, जो लोग अन्य देशों में भी रहकर अपना डीह मिथ्या या सत्य ही
सर्यूपार में बतलाते हैं, क्या उनके साथ सर्यूपार में रहने वाले सर्यूपारी
खानपान या विवाह सम्बन्ध भी करते व करवा सकते हैं? तो क्या ऐसा न होने से
वे लोग अपने को सर्यूपारी न मानें? मैथिलों में भी यही दशा हैं। उनमें जो
कोदरिया या दिघवै इत्यादि नामवाले मैथिल हैं, उनके डीह या मूल कोदरा और
दिघवा आदि छपरा प्रान्त में हैं, न कि मिथिला में। परन्तु इससे क्या वे लोग
मैथिल समाज से अलग समझे जा सकते हैं? अत: यह शंका निर्मूल ही हैं।
बेमुवार नाम वाले क्षत्रिय यदि बलिया में या अन्यत्रा थोड़े-बहुत पाये जाते
हों, तो या तो उन्हें किसी प्रकार से बेमूपुर से आना सिद्ध करने का यत्न
करना होगा, या दूसरे प्रकार से बेमुवार शब्द की व्याख्या उन्हें करनी होगी।
परन्तु यदि उनका भी गोत्र सावर्ण्य ही हो, तो सावर्ण्य गोत्र वाले क्षत्रिय
पटना-बेमूपुर में इस समय पाये नहीं जाते, परन्तु सावर्ण्य ब्राह्मण तो
गड़हा, पटना, काशी और दरभंगा में भरे पड़े हैं। अत: ऐसी दशा में इने-गिने
बेमुवार क्षत्रियों की वही दशा हो सकती हैं जो सामान्यत: प्रथम कही जा चुकी
हैं।
कुढ़नियाँ नाम वाले ब्राह्मणों का निवास आजमगढ़ के सर्यूपुर आदि बहुत से
ग्रामों में हैं और इन्हीं में से कुछ दरभंगा जिले के सरायरंजन आदि गाँवों
में तथा अन्यत्रा भी कहीं-कहीं पाये जाते हैं। ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण
अण्टेर के दीक्षित काश्यप गोत्री हैं। इसीलिए इन्हीं की एक शाखा मिर्जापुर
के सुधावल आदि 10 या 12 ग्रामों में पायी जाती हैं। जिनमें से 3 ग्रामवाले
याचक दलवाले ब्राह्मणों में मिले हुए हैं, परन्तु 9 गाँव वाले अयाचक दलवाले
ब्राह्मण ही हैं। परन्तु सबके-सब अपने को एक ही बतलाते और काश्यप गोत्री
अण्टेर के दीक्षित ही कहते हैं और अब तक उनकी पदवी दीक्षित ही हैं। वे अपने
को कुढ़नियाँ नहीं कहते। क्योंकि यहाँ से जाने के बाद ही आजमगढ़ वाले
कुढ़नियाँ कहलाये। परन्तु अण्टेर से आकर प्रथम यहीं रहे थे। यह बात कुढ़नियाँ
ब्राह्मणों की बृहत् वंशावली में लिखी हर्इु हैं और अण्टेर स्थान को
ग्वालियर के पास बताया हैं। सो भी ठीक ही हैं। सुधावल के पूर्वोक्त दीक्षित
ब्राह्मणों के विषय में सन् 1865 ई. की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में इस
प्रकार लिखा हैं :
There is a Sect of Dikshit Bhoimhars inhabiting Mouzah Soodhawal & c.
Most of them still retain their primary character, and make
intermarriages among their own class; and some of them following the
manners and customs of Surwaria Brahmans have mixed with them.—Vol-I,
P.120.
अर्थात् ''भूमिहारों का एक दल दीक्षित कहलाता हैं और सुधावल आदि गाँवों में
पाया जाता हैं। उनमें से अधिकांश प्रथम की तरह अयाचक ही बने हुए हैं और
अपने ही दल में विवाह आदि करते हैं। परन्तु थोड़े से सरवरिया ब्राह्मणों की
चाल-ढाल और रस्म-रिवाजों (याचकता, पुरोहिती आदि) का अनुसरण कर उनमें ही मिल
गये हैं। भाग-1, पृ. 120।'' इन्हीं दीक्षितों में से कुछ गाजीपुर जिले के
शादियाबाद परगने में भी पारा और छपरी आदि गाँवों में पाये जाते हैं। जो अब
तक काश्यप गोत्री और दीक्षित पदवी वाले ही हैं। ब्राह्मणों के दीक्षित नाम
पड़ने का कारण प्रथम ही बतला चुके हैं कि इनके पूर्वजों ने बड़े-बड़े यज्ञ
किये थे, जिनमें उन्हें दीक्षा दी गयी थी, इसलिए वे दीक्षित कहलाये। यद्यपि
गाजीपुर के पचोतर परगने के क्षत्रिय भी दीक्षित कहलाते हैं, तथापि उनका
गोत्र काश्यप नहीं हैं। परन्तु दीक्षित नाम तो उनका भी वैसे ही पड़ा जैसे कि
ब्राह्मणों का। क्योंकि यज्ञ में जिसकी ही विधिवत् दीक्षा हो वही दीक्षित
कहला सकता हैं, न कि ब्राह्मण मात्र ही। क्योंकि यज्ञ करने का अधिकार
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों को हैं।
अस्तु, कुढ़नियाँ ब्राह्मणों की वंशावली में, जो सूर्यपुर, आजमगढ़ में पायी
जाती हैं, यह लिखा हुआ हैं कि अण्टेर से पण्डित प्रवर गोल्हन भट्ट नामक
इनके पूर्वज काशी आये और वे बड़े यज्ञ करने वाले थे, इसीलिए उनको दीक्षित
पदवी मिली और काशिराज की ओर से सूर्यपुर के पास पाँच गाँव मिले। इसलिए वे
अथवा उनके वंशज वहाँ जा बसे और कुछ लोग सुधावल आदि गाँवों में ही रह गये।
जो लोग आजमगढ़ में बसे, उनके उस प्रथम निवास का स्थान कुढ़नी नाम वाला तप्पा
(परगने का एक भाग) था, इसलिए पीछे वहाँ से ईधर-उधर हटने से वे लोग उसी
तप्पे के नाम से कुढ़नियाँ कहलाए। कुढ़नी नाम वाला तप्पा सगरी परगने में था
और शायद अब धोसी में हैं और सगरी में ही ये लोग पाये भी जाते हैं। उस तप्पे
का नाम आजमगढ़ के गजेटियर (Gazetteer) में भी लिखा हुआ हैं। जो लोग कुढ़नियाँ
नाम को बिगाड़कर कुण्डहवनियाँ इत्यादि कहाँ करते हैं और उसके स्वकपोलकल्पित
अर्थ भी किया करते हैं, वह उनकी भूल हैं। क्योंकि ब्राह्मणों के ये सब नाम
डीह या मूल स्थान से ही पड़े हैं। जैसे एकसार में रहने से एकसरिया, जैथर से
जैथरिया और नोनहुल से नोनहुलिया आदि। नोनहुल ब्राह्मण और नोनहुल डीह बलिया
जिले में सर्यू के तट पर हैं। इसी तरह एकसार और जैंथर छपरा जिले में हैं और
एकसरिया तथा जैंथरिया ब्राह्मण छपरा और मुजफ्फरपुर जिले में पाये जाते हैं।
एकसार वगैरह में उनके पूर्व पुरुषों के आने का विवरण उन लोगों की
वंशावलियों में पाया जाता हैं और थोड़ा-बहुत प्रथम भी लिख चुके हैं। अस्तु,
इससे सिद्ध हैं कि कुढ़नियाँ नाम कुढ़नी स्थान में रहने से ही पड़ा। यदि
कुढ़नियाँ नाम वाले राजपूत थोड़े-बहुत कहीं मिलते हों, तो या तो कुढ़नी तप्पे
में रहने से वे भी कुढ़नियाँ कहलाये, अथवा अन्य कारणों से, जैसा कि साधारणत:
कह चुके हैं।
गौतम ब्राह्मणों का तो सविस्तार वर्णन प्रथम ही परिच्छेद में तथा इसमें भी
बहुत जगह किया जा चुका हैं और काशी के गौतम क्षत्रियों का भी हाल कह ही
चुके हैं। गौतम ब्राह्मणों के विषय में 1865 ई. की मनुष्य गणना की बनारस की
रिपोर्ट के 118वें पृष्ठ, प्रथम भाग में भी वही बात लिखी गयी हैं, जिसका
प्रदर्शन आगे करेंगे।
तटिहा नाम वाले ब्राह्मण छपरा जिले में और कुछ बलिया में भी सर्यू के दोनों
तटों पर पाये जाते हैं। ये लोग सर्यूपारी ब्राह्मण सीसोटाँड़ के मिश्र,
काश्यप गोत्री हैं और अब तक सीसोटाँड़ में भी पाये जाते हैं। छपरा जिला तो
सर्यूपार में गिना जाता हैं और हैं ही। ये लोग सर्यू नदी के दोनों तटों पर
फैले हुए हैं। इसीलिए इनका नाम तटहा, टटहा, या तटिहा इत्यादि पड़ा। जिसका
अर्थ यह हैं कि 'नदी के तट के रहनेवाले'। यदि क्षत्रिय भी इस नामवाले अधिक
पाये जाते हों, तो उनका नाम भी तट पर रहने से तटिहा वा टटिहा पड़ा होगा,
अथवा उनके विषय में कोई अन्य ही बात होगी। जो लोग तटिहा को बिगाड़कर टेंटिहा
बना देते और उस पर मनगढ़न्त कल्पनाएँ करते हैं वह उनकी भूल हैं।
कौशिक नामवाले ब्राह्मण विशेषकर गाजीपुर जिले के जहूराबाद परगने में पाये
जाते हैं और छपरा, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिलों में भी उनकी कमी नहीं हैं।
परन्तु वहाँ नेकतीवार और कुसौंजिया इत्यादि नामों से कहे जाते हैं। जिसका
तात्पर्य यह हैं कि वे लोग प्रथम नेकती या कुसौंजी स्थानों में थे। अत:
वहाँ से हटने पर नेकतीवार और कुसौंजिया कहलाए। वे सब लोग अभी तक पाण्डे ही
बोले जाते हैं। इससे स्पष्ट ही हैं कि जहूराबाद वाले कौशिक ब्राह्मण भी
प्रथम पाण्डे ही कहलाते थे, परन्तु पीछे से उन्होंने 'राय' की पदवी धारण कर
ली। मुर्शिदाबाद-लालगोला के वर्तमान राजा साहब इसी जहूराबाद के सुर्वंत
पाली ग्राम के रहने वाले कौशिक ब्राह्मण के पुत्र हैं। बहुत दिनों से ये
लोग सर्यूपार या कन्नौज से आकर यहीं रहते थे और पीछे भी यहाँ से न हटे,
इसलिए ये लोग पूर्ववत् गोत्र के नाम से ही पुकारे जाते रह गये। आईन-ए-अकबरी
में भी इनको जहूराबाद का जमींदार लिखा हैं। यदि क्षत्रिय भी कौशिक नामवाले
हों, तो हो सकते हैं। क्योंकि जैसा कि दिखला चुके हैं, कि गोत्र तो सभी
जातियों के एक ही हो सकते हैं।
भृगुवंश नामवाले ब्राह्मण निजामाबाद परगने में आजमगढ़ के जिले में पाये जाते
हैं। ये लोग टीकापुर, बीबीपुर आदि गाँवों में पाये जाते हैं। इनका गोत्र
भार्गव हैं, और प्रवर भार्गव, च्यवन, आवप्नवान, और्व और यमदग्नि हैं। इनके
पुरोहित भी भार्गव गोत्री ही हैं। इसी से इन लोगों का कथन हैं कि हम लोग
वास्तव में एक ही हैं। परन्तु जो लोग हमीं में ही गरीब थे, वे हमारी ही
पुरोहिती करने लगे और याचक कहलाये, और धनी लोग अयाचक या भूमिहार ब्राह्मण
कहलाये। अस्तु, जो कुछ हो ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और इनकी प्राचीन
पदवी पाण्डे हैं। इसी से इन्हीं लोगों में से जो बस्ती के कोटिया आदि
गाँवों और फैजाबाद में हैं, वे अब तक पाण्डे ही कहलाते हैं। इन्हीं लोगों
में से कुछ लोग गाजीपुर जिले के असावर आदि गाँवों में चले गये हैं, जो अपने
को प्रथम असावर में रहने से असवरिया कहते हैं और यहीं से जाना बतलाते हैं।
इन लोगों के 50 वर्ष के पूर्व के दस्तावेज आदि कागजों में ब्राह्मण कौम ही
इनकी लिखी गयी हैं। यहाँ तक कि भूमिहार शब्द भी नहीं लिखा गया हैं¹। ये लोग
निजामाबाद परगने के बहुत प्राचीन रहने वाले हैं और
¹ टीकापुर के श्री मथुरा प्रसाद सिंह के पास सन् 1809 ई. के एक मुकदमे की
गवाही का कागज मिला हैं, जिसमें एक भृगुवंश यजमान और पुरोहित दोनों के
गवाही देने के समय यजमान के नाम के आगे 'राय, भूमिहार, कौम ब्राह्मण' और
पुरोहित के नाम के आगे 'पाठक' कौम ब्राह्मण लिखा हैं। इससे स्पष्ट हैं कि
भूमिहार शब्द पाठक की तरह पेशा या काम का द्योतक हैं, न कि जाति या दल का।
वहीं रह गये, क्योंकि इनका पुराना डीह भी उसी जगह हैं। इसलिए ये लोग
पूर्ववत् अपने गोत्रों से ही पुकारे जाते रह गये, क्योंकि भृगुवंश का अर्थ
हैं भृगु या भार्गव गोत्र वाला।
यद्यपि बनारस के जिले में काशी से दक्षिण बहुत से गाँवों में भृगुवंश
क्षत्रिय भी पाये जाते हैं, तथापि उनका इन भृगुवंश ब्राह्मणों से कुछ भी
सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि एक भृगुवंश क्षत्रिय से, जो बहुत होशियार था,
हमने उसका गोत्र पूछा तो उसने उत्तर दिया कि हम लोगों का गोत्र सावर्ण्य
हैं। परन्तु जब उससे पुन: प्रश्न किया गया कि भृगुवंश कहलाकर सावर्ण्य
गोत्र आप लोगों का कैसे हो गया? तो इस विषय में उसने समाधान (उत्तर) करने
के लिए बहुत यत्न किया, परन्तु उचित उत्तर न दे सका और अन्त में उसने यही
कहा कि हमारा गोत्र किसी तरह से भी हो सावर्ण्य ही हैं, इसमें तो सन्देह
नहीं, परन्तु हम लोग भृगुवंश क्यों कहलाये यह बात हम नहीं जानते। साथ ही,
भृगुवंश क्षत्रिय और ब्राह्मण ये दोनों एक-दूसरे से बहुत दूर हैं। यदि
गोत्र एक भी होता तो भी कोई बात नहीं क्योंकि गोत्र एक भी हो सकते हैं, यह
दिखलाया जा चुका हैं।
सोनपकरिया, सोनपखरिया या सरपखरिया इत्यादि अनेक प्रकार से कहे जाने वाले
ब्राह्मण आजमगढ़ जिले के इन्दोरा स्टेशन के आसपास 12 या 14 ग्रामें में फैले
हुए हैं। यद्यपि इनको लोग अनेक नामों से पुकारते हैं, तथापि एक उसी दल के
चतुर ब्राह्मण से हमने उसका हाल पूछा, तो उसने अपना गोत्र भारद्वाज और
सोनपकरिया नाम बतलाया और यह भी कहा कि हमारे पूर्वज खजुरा, धुवार्जुन या
सोनबरसा की तरफ से आये। ये सब धुवार्जुन आदि ग्राम गाजीपुर के सैदपुर परगने
में हैं और वहाँ पर भारद्वाज गोत्र वाले ब्राह्मण 24 गाँवों में पाये जाते
हैं। सम्भव हैं कि वहीं के सोनबरसा गाँव से आने के कारण ये लोग सोनबरसिया
कहलाते-कहलाते इन पूर्वोक्त नामों से कहलाने लग गये हों, क्योंकि काल पाकर
शब्दों के रूप बिगड़ जाया करते हैं, यह बात सभी को मालूम हैं। नहीं तो कहाँ
वाराणसी और कहाँ बनारस?
अथवा यह सम्भव हैं जैसा कि आगे लिखा हैं। वह यह हैं कि भारद्वाज या भरद्वाज
कहलाने वाले ब्राह्मणों के पूर्वज पं. गजाधार पाण्डे सर्यूपार से आकर आरा
जिले के मचियाँव गाँव में प्रथम आ बसे और वहाँ से उनके वंशजों में से एक
पुरुष, जो आजमगढ़ में देवगाँव की तरफ सिकरौरा, बहादुरपुर आदि गाँवों के
भारद्वाज गोत्री चौधुरी कहलाने वाले ब्राह्मणों के पूर्वज थे, उसी तरफ आकर
बसे, जिनके वंशज उन 10 या 12 ग्रामों में फैले हुए हैं। और दूसरे पुरुष, जो
धुवार्जुन आदि पूर्वोक्त 24 गाँववालों के पूर्वज थे, धुवार्जुन आदि की तरफ
गाजीपुर जिले में आये और उन्हीं के वंशज उन 24 गाँवों इस समय पाये जाते
हैं। उन लोगों का यह भी कहना हैं कि हमारे पूर्वजों ने प्रथम मसोन की कोट
को, जो खण्डहर स्वरूप में औरिहार या सैदपुर के पास हैं, अन्य लोगों से जीत
लिया था और वहाँ पर ही अधिकार जमाये बहुत दिन तक रहे। परन्तु जब अन्त में
किसी साधु के कोप से वह कोट उजड़ने या उलटने वाली हुई तो वहाँ से हटकर वे
लोग इन 24 गाँवों में फैल गये। वह कोट खण्डहर कर दी गयी या उलट दी गयी। इसी
से उसका नाम मसोन हुआ। क्योंकि जितने स्थानों के नाम मसोन या मसौनी आदि
हमें मिले हैं, उनका ऐसा ही इतिहास मिलता हैं कि वे किसी कारण से खण्डहर कर
दिये गये। और साधु या फकीर ने उसे मसोन बनाया था, इसलिए उसका नाम मसोनफकीर
भी हुआ और वहीं से दूर चले आने के कारण आजमगढ़ के भारद्वाज गोत्र वाले ये
ब्राह्मणमसोनफकीरिया कहलाते-कहलाते काल पाकर सोनफकीरिया या सोनपकरिया
इत्यादि कहलाए।
तीसरी बात यह भी हो सकती हैं कि जब भारद्वाज लोग मसोन कोट से भाग गये, तो
उस समय सोनपकरिया लोगों के पूर्वज मसोन से भागकर इन्दोरा के पास पकरी नामक
स्थान में बसे। परन्तु वहाँ से भी किसी कारण से हटकर ईधर-उधर पास में ही
फैल जाने से पूर्व के मसोन और हाल के पकरीडीह को मिलाकर अपने को मसोन
पकरिया कहने लगे, और कुछ दिन बाद वही नाम सोनपकरिया या सोनपोखरिया इत्यादि
हो गया। परन्तु धुवार्जुन आदि गाँवोंवाले भारद्वाज गोत्री लोग बहुत प्रथम
काल से ही वहीं थे और रह गये, कहीं दूर न गये। इसलिए उनका नाम पूर्व की तरह
गोत्र से ही कहलाता रहा और अब तक वे 'भारद्वाज' कहलाते हैं। आईन-ए-अकबरी
में इन्हीं भारद्वाज ब्राह्मणों की जमींदारी सैदपुर के परगने में लिखी हुई
हैं, जैसा कि प्रथम ही कहा गया हैं। किन्तु वास्तव में सोनपकरिया धुवार्जुन
आदि वाले और सिकरौरा बहादुरपुर वाले चौधुरी लोग एक ही वंश के भारद्वाज
गोत्री सर्यूपारी मचैयाँ पाण्डे हैं। इसलिए इन लोगों में से जाकर बलिया
जिले के बैरिया ग्राम में रहने वाले पं. प्रमोद नारायण पाण्डे वगैरह अभी तक
पाण्डे ही कहलाते हैं। और वे लोग 'बैरिया के पाण्डे' प्रसिद्ध हैं। जिनका
वंश ही बड़ा कर्मठ, अग्निहोत्र परायण और आदर्श चरित्रा हैं। क्योंकि अब तक
बराबर अग्निहोत्र का अनुष्ठान उनके घर होता हैं। उनके इस व्यवहार का अनुकरण
सभी ब्राह्मणों को करना चाहिए। यदि क्षत्रिय भी सोनपोखरिया कहलाते हों, तो
उनका हाल पूर्ववत जान लेना चाहिए। यदि वे लोग होंगे भी तो नाममात्र को।
इसी गाजीपुर के ही शादियाबाद परगने के देवा नामक ग्राम में रहने वाले और
जुझौतिया कहलाने वाले ब्राह्मणों के जुझौतिया नाम पड़ने का कारण प्रथम
परिच्छेद में ही दिखलाया जा चुका हैं कि बुन्देलखण्ड का कुछ भाग का नाम
प्रथम जुझौती था, इसलिए वहाँ के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण जुझौतिया वा
जिझौतिया कहलाये और इन्हीं में से कुछ लोग देवा में भी जाकर बसे और अयाचक
होने और अपने प्रथम के देश से दूर होने के कारण अयाचक ब्राह्मणों के साथ ही
इसी देश में विवाह सम्बन्ध आदि करने लग गये।
इसी तरह एकसरिया और जैंथरिया आदि का भी संक्षिप्त विवरण लिख चुके हैं।
छपरा-चैनपुर के प्राचीन दंसी परगने से भागकर मुजफ्फरपुर के मिहिला परगने
में जा बसने वाले काश्यप गोत्री अचानक ब्राह्मणों का नाम दंसवार पड़ा और
एकसार के पास ही सहदौली ग्राम में रहनेवाले अयाचक ब्राह्मणों के वहाँ से
दरभंगा से पतोर आदि ग्रामों में चले जाने से वे लोग सहदौलिया कहलाये और अब
तक वे लोग मिश्र कहलाते हैं, जैसा कि पं. श्रीराजेन्द्र प्रसाद मिश्र
इत्यादि। इन लोगों का स्वाभिमान तथा इनके आदर्श व्यवहार सभी ब्राह्मणों के
अनुकरणीय हैं। सहदौलिया और एकसरिया लोग एक ही वंश के पराशर गोत्री हैं।
प्रथम आरा अथवा दरभंगा के सहस्राम में रहने के कारण आजकल दरभंगा के रपुरा
आदि गाँवों में रहने वाले काश्यप गोत्री ब्राह्मण सहस्रा में कहलाते हैं।
सहस्राम गाँव दोनों जिलों में हैं। छपरा के दिघवा स्थान में रहने के कारण
छपरा या मुजफ्फरपुर और दरभंगा आदि में रहने वाले ब्राह्मण दिघवे अथवा
दिघवैत कहलाए। इनका गोत्र शाण्डिल्य हैं। जैसे अरापा डीह में प्रथम निवास
के कारण सावर्णियाँ लोग अरापै कहलाते हैं और वह डीह भी उनके पास ही पटना
जिले में हैं। इसी तरह चौधुरी टोला-पटना के रहनेवाले श्री रामगोपाल सिंह
चौधुरी और श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह चोधुरी आदि भी प्रथम शाहाबाद जिले के ही
परहाप स्थान में, जहाँ से वे लोग अपना आना चौधुरी टोले में बतलाते हैं,
रहने के पश्चात् परहापै कहलाये। उनका गोत्र काश्यप हैं और वे लोग
कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और पाण्डे उनका आस्पद हैं। जैसा कि उनके भाई
चौधुरी सोना पाण्डे अन्त तक पाण्डे ही कहलाते रहे और इनके पिता को तो लोग
पाण्डेजी कहते ही थे। जो काश्यप गोत्र वाले और मिश्र पदवी वाले कान्यकुब्ज
ब्राह्मण भूपोल (मालवा) से आकर हाजीपुर के बैकुण्ठपुर (बकठपुर) आदि गाँवों
में अब तक रहते हैं वे भूपाली कहलाते हैं। कोई-कोई नाम को बिगाड़कर भूमपाली
या भूमापाली कहते हैं। ये लोग अब तक बहुत से गाँवों में मिश्र ही बोले जाते
हैं, जैसे श्री मूर्तिनारायण मिश्र, मुखतार, मुजफ्फरपुर। परन्तु कहीं-कहीं
सिंह या अन्य पदवियों से भी बोले जाते हैं, जैसे पं. सन्त प्रसाद सिंह
शर्मा, बकठपुर इत्यादि। ऐसे ही और भी अथर्व आदि नामों के अर्थ और विवरण
अथर्व वेद के ज्ञाता आदि समझना चाहिए।
गाजीपुर जिले के मुहम्मदाबाद परगने में ही कुछ ब्राह्मण रहते हैं, जिनको
कस्तुवार कहते हैं और जिसका वसिष्ठ गोत्र हैं। इन लोगों का विवरण, जैसा कि
वहाँ के सभी लोग जानते हैं, ऐसा ही हैं कि राजा जयचन्द का चचेरा भाई
मान्धाता कुष्ठ रोग से पीड़ित होकर तीर्थयात्रा के लिए जगन्नाथजी जाता था।
परन्तु जब ऊसी मुहम्मदाबाद में वर्तमान कठौत (गौसपुर) नामक स्थान के पास
आया, तो उस स्थान पर स्थित एक तालाब में हाथ धोने के समय तुरन्त उतने का
कुष्ठ रोग हटा हुआ देख उस तालाब में स्नान किया, जिससे उसका सम्पूर्ण शरीर
कुष्ठ से रहित और दिव्य हो गया। इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर पाँच ब्राह्मणों
को, जिनकी मिश्र उपाधि (पदवी) थी और जो एक या दो गोत्रों के थे, वहाँ
बुलाकर पाँच गाँव दान दिये और उसी जगह उनके रहने का स्थान बनवा दिया और
अपने आप भी बहुत दिनों तक वहाँ रहा। वहाँ ही उसका कुष्ठ रोग अच्छा हुआ था,
अर्थात् वह कुष्ठ रोग से पूत (रहित) हुआ था। इसीलिए उस स्थान का नाम
कुष्टपूत हुआ। परन्तु कालान्तर में संस्कृत शब्द 'पूत' का अपभ्रंश 'उत' हो
गया जैसा कि प्राकृत भाषा में 'पुत्र' शब्द को 'उत्ता' कहते हैं, अर्थात्
जैसे आर्य पुत्र को 'अज्ज उत्ता' कहते हैं, उसी तरह 'कुष्ट पूत' शब्द का
'कुष्ठ उत' होकर कुछ दिन और पीछे 'कु (क) ष्टौत' और 'कठौत' हो गया। जो आज
तक कठौत ही कहा जाता हैं और वहाँ पर मान्धाता की बनवायी हुई कोट भी अब तक
भग्नावस्था में हैं। और ये ब्राह्मण प्रथम उसी स्थान पर गये थे और रहते भी
थे, इसलिए कुष्टौतवार कहलाने लगे, जो पीछे बिगड़ते-बिगड़ते कष्टरार, कुष्टवार
और कस्तुवार हो गया। इन सबों की पदवी मिश्र हैं और वसिष्ठ गोत्र हैं।
सम्भवत: कुछ लोगों का गोत्र दूसरा भी हो।
उन्हीं में से जिनको राजा मान्धाता या उनके वंशजों ने योग्यता देखकर अपना
प्रधान या मन्त्री बनाया था, अथवा अन्य ब्राह्मणों के प्रधान बनाकर रखा था,
वे अब तक प्रधान पदवी वाले ही कहलाते हैं। उन सबों ने भूमि लेने के बाद धनी
होने के काण अपनी याचकता वृत्ति छोड़ दी और भूमिहार ब्राह्मणों में मिल गये।
अथवा जिन ब्राह्मणों ने दान में भूमि ली थी वे दूसरे ही होंगे। ये लोग तो
राजा के प्रधान थे, इसलिए जागीर की तरह इन लोगों को भूमि मिली होगी और उसी
से आज तक प्रधान ही कहलाते हैं। अथवा ऐसा भी हुआ होगा कि दान न देकर जागीर
के तौर पर ही इनको भूमि दी गयी होगी और उसी को भूलकर दान की तरह मिलना कहते
हैं। चाहे जो कुछ भी हो, इसमें किसी प्रकार का हर्ज नहीं हैं। क्योंकि यह
सिद्ध कर चुके हैं कि ब्राह्मण लोग सर्वदा ही याचक से अयाचक और अयाचक से
याचक, धनी और गरीब होने के कारण हुआ करते हैं, न कि अयाचक सदा अयाचक ही और
याचक सदा याचक ही बने रहते हैं। क्योंकि याचकता और अयाचकता ये दोनों
ब्राह्मणों के व्यक्तिगत धर्म हैं। हाँ याचकता आपत्तिकाल धर्म हैं और
विवेकी एवं धनी लोग उसका अनादर कर अयाचकता को ही स्वीकार करते हैं, यह अन्य
बात हैं। परन्तु यह बात केवल अपने-अपने विचार और इच्छा पर निर्भर हैं, न कि
कोई शास्त्रीय आज्ञा हैं कि अयाचक पुरोहिती न करे और याचक पुरोहिती को न
त्यागे।
बस, पाठक लोग इतने ही से समझ गये होंगे कि अयाचक ब्राह्मणों के छोटे-छोटे
दलों के नामों को अन्य समाज के नामों की तरह देखकर लोगों ने जो-जो मिथ्या
कल्पनाएँ की हैं, वे कहाँ तक सत्य हैं। सारांश यह हैं कि ऐसी कल्पनाओं के
करने से भारत वर्ष का ब्राह्मण से लेकर शूद्र पर्यन्त सभी समाज एक ही सिद्ध
किया जा सकता हैं, क्योंकि सभी समाजों अथवा उनके छोटे-छोटे दलों के बहुत से
नाम एक ही हैं, जैसा कि अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। अत: आशा हैं कि पाठक
उस भूल को सुधार लेंगे। नहीं तो कहीं ऐसा न हो जाये कि उसी कल्पित तन्त्री
(वीणा) पर विपरीत स्वर आलापने वाले पण्डितमानी लोगों को विचारकों के सन्मुख
मुँह की खानी पड़े।
3. वैदेशिक उक्तियाँ और उपसंहार
अब हमारा वक्तव्य यहीं पर सम्पूर्ण होता हैं। हमको केवल कुछ अंग्रेजी
ग्रन्थ लेखकों (प्राय: वैदेशिक) की उन सम्मतियों को उध्दृत कर देना हैं, जो
उन्होंने इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के विषय में प्रकाशित की हैं। यद्यपि
यह काम हम अपने वक्तव्य की पुष्टि के लिए नहीं करते हैं, क्योंकि इस विषय
में तो सभी कुछ दिखला चुके हैं और अंग्रेजों की सम्मतियों को इस विषय में
हम प्रमाण मानते भी नहीं, कारण कि उनको हमारे हिन्दू समाज के आन्तरिक भावों
या हमारे रस्म-रिवाजों का पूर्णत: परिचय ही क्या हैं कि वे लोग यथार्थत:
उनकी आलोचना निष्पक्षपात भाव से कर सकें? उन्होंने तो जो कुछ सुना, लिख
दिया। उसमें भी निज के सिद्धान्त को ही सिद्ध करने का यत्न करते हैं कि
वर्णव्यवस्था कोई वस्तु हैं ही नहीं इत्यादि। तथापि जिन बाबुओं की जिज्ञासा
रूप पिपासा केवल उन्हीं की उक्ति रूप जल से शान्त होती हैं-जो उन्हीं की
उक्ति रूप स्वाती नक्षत्रा के बूँद के प्यासे चातक हैं-उनके ही सन्तोष के
लिए हमारा यह यत्न हैं। सूत्रा रूप से यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि सभी
वैदेशिकों की सम्मतियाँ अयाचक दलीय ब्राह्मणों के अनुकूल ही हैं। यदि किसी
ने केवल एकाध बात कुछ-कुछ विपरीत लिखने का साहस डरते-डरते किया भी हैं, तो
दूसरे ने उसको युक्तियुक्त प्रमाणों से खण्डित कर दिया हैं, जैसा कि
प्रसंगवश सम्भव होगा तो आगे विदित ही होगा और पाठक लोग यत्न करने से-सबकी
सम्मतियों को स्वयं जानने का प्रयत्न करने से-अन्यत्रा भी देख सकते हैं।
सर. एच. इलियट साहब की सप्लीमेण्टल ग्लासरी (Sir. Elliot’s Supplemetal
Glossary) नामक अंग्रेजी पुस्तक के अनुसार आगरा जिले के वर्णन में सन् 1865
ई. की युक्त प्रान्त की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट के प्रथम खण्ड के 65वें
पृष्ठ में इस तरह लिखा हैं :
(1) Kankubj Proper There are five divisions of the
(2) Sunadh Kankoobj Brahmans, given in
(3) Surwaria the margin. The first two appear in
(4) Jijhotia great force in this district, but of the
(5) Bhoimhar others I have discovered no traces and their true country
lies to the east of the Ganges.
(1) प्रधान कान्यकुब्ज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पाँच भेद हैं, जो इस
(2) सनाढय पृष्ठ के किनारे पर लिखे हुए हैं। उनमें से
(3) सरवरिया प्रथम दो तो इस जिले में अधिकतर पाये
(4) जिझौतिया जाते हैं, परन्तु अन्य तीनों का यहाँ पतान
(5) भूमिहार मिला। उनके निवास स्थान गंगा के पूर्व के देश हैं।
उसी पुस्तक के 91वें पृष्ठ में इटावा जिले के विवरण में लिखा हैं कि :
The Kankubj, with whom we are chiefly connected in these provinces,
contains five sub families-(1) Sunoreea or Sunadh; (2) Canojeea; (3)
Jijhotea; (4) Bhoomihar; (5) Surwaria, These do intermarry.
अर्थ यह हैं कि 'कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में, जिनसे हमको इन प्रान्तों में
विशेष सम्बन्ध हैं, पाँच छोटे-छोटे वंश या दल हैं-(1) सनोरिया या सनाढय (2)
कनौजिया (3) जिझौतिया (4) भुइंहार, और (5) सरवरिया ये पाँचों परस्पर विवाह
करते ही हैं।
आगे चलकर उसी पुस्तक के 117 और 118 पृष्ठों में मिर्जापुर के वर्णन में
लिखा हैं कि :
Gautams have sprung up from Misra Brahmans, In this tehseel daree there
are no other castes except Gautams residing in Talooqa Majhava. The
Gautams were originally Surwaria Misras, the most of whom with a view to
show their pomp and splendour on being ilaqadars, commenced smoking
hookkah, and consequently rest of their brethren discontinued eating and
drinking with them. These Gautams, being thus excommunicated, commenced
marriages with Bhoinhars who settled in the easern districts, and since
then this tribe is increasing. As these Gautamas sprang up from Misras,
who had their gotra or family title, Gautam, they became known by that
appellation.
There are several subdivision among the Bhoimhars. They are the
descendants of Ujach Brahmans. In other countries the Ujach Brahmans are
called Chitpawan and by other different denominations. The Brahmins have
gotras, which they have assumed from Rishees, from whom they have sprung
up; for instance Gautambuns. Who are said to be offspring of Kithoo
Misra, who descended from Gautam Ujach Brahmins, Kripacharya family.
There is no distinction between them and the other Brahmins, besides
this that the fromers carry arms and have a military life, and cons
equently they have assumed the title of ‘Singh’and have forsaken eating
with other Brahmins. Owing to their title of ‘Singh’ being celebrated,
their original titles of Misra, Pande, Upadhia &c. have fallen into
disuse. Still up to this day in some places they are known by their old
titles.
अर्थात् ''गौतम लोग मिश्र ब्राह्मणों के वंशज हैं। इस तहसील (मिर्जापुर)
में गौतमों को छोड़कर, जो मझवा तालुका में रहते हैं, दूसरी जातियाँ नहीं
हैं। गौतम लोग सरवरिया ब्राह्मण थे, परन्तु तालुकादार होने पर उनमें से
बहुतों ने अपनी बड़ाई और प्रतिष्ठा दिखलाने के लिए तम्बाकू पीना प्रारम्भ कर
दिया, जिससे उनके शेष भाईयों ने उनके साथ खान-पान छोड़ दिया। ये लोग इस
प्रकार अलग होकर भूमिहारों के साथ विवाह आदि करने लग गये जो पूर्व जिलों
में रहते थे। उसी समय से ये लोग बढ़ते जा रहे हैं चूँकि ये गौतम उन मिश्र
ब्राह्मणों के वंशज हैं जिनका गोत्र गौतम था इसलिए ये लोग गौतम कहलाने लगे।
भूमिहार लोगों के बहुत से छोटे- छोटे दल हैं। ये लोग अयाचक ब्राह्मणों के
वंशज हैं। अन्य देशों में अयाचक ब्राह्मण चितपावन एवं अन्य नामों से पुकारे
जाते हैं। ब्राह्मणों के गोत्र हुआ करते हैं, जो उन ऋषियों के सूचक होते
हैं जिनसे वे लोग पैदा हुए हैं जैसे, गौतम वंश कित्थू मिश्र के वंशज हैं,
जो कृपाचार्य के वंश के गौतम ऋषि नामक अयाचक ब्राह्मण के वंशज थे। इन
भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों के बीच कोई भेद नहीं हैं, सिवाय
इसके कि भूमिहार ब्राह्मण अस्त्र-शस्त्र ग्रहण करते और वीरों (योध्दाओं)
का-सा जीवन बिताते हैं और इसलिए उन्हें 'सिंह' की पदवी मिल गयी हैं और अन्य
(याचक) ब्राह्मणों के साथ खाना-पीना भूल गये हैं। और इसी 'सिंह' की पदवी के
प्रसिद्ध हो जाने से उनकी पुरानी मिश्र, पाण्डे और उपाध्याय इत्यादि
पदवियों का प्रयोग नहीं होता। तथापि अब तक बहुत से स्थानों में वे लोग
उन्हीं पुरानी मिश्र आदि पदवियों वाले पाये जाते हैं।''
उसी पुस्तक के मिर्जापुर के केरा नामक तहसील का हाल यों लिखा हैं :
The Brahmins are said to be the aborigines of Kankuj, from where a
portion of them imigrated in to Surwar and several other places. Among
them there two sects, Shut-Karma and Tri-Karma. They procure their
livelihood by priesthood; agriculture and other occupations in this
pergannah.
तात्पर्य यह हैं कि ''ब्राह्मण लोग कन्नौज के प्रथम निवासी बतलाये जाते
हैं, जहाँ से ये लोग सरवार तथा अन्य देशों में फैले हैं। ब्राह्मणों के दो
भेद हैं-
(1) षट्कर्मा और (2) त्रिकर्मा। इस परगने में रहने वाले इन लोगों में से
कोई-कोई पुरोहिती से जीविका करते हैं और कोई खेती तथा अन्य पेशों से''।
सन् 1909 ई. के आजमगढ़ के गजेटियर के 85, 86 और 87 पृष्ठों में लिखा हैं कि:
Next on the list come Bhumihars, who at the last census numbered 55669
parsons, or 4. 24 percent of the Hindus. They are to be found in all
Tahsils, but nearly half of the total number in Sagri, and nearly one
half of the reminder are in Deogaon. According to their own tribal
traditions. When Paras Ram destroyed the Kshatris, the soil was given to
the Brahmans, who in taking possession of land assumed the title of
Bhumihars. Their Brahman and Rajput neighbours generally insinuate that
they are of mixed Brahman and Rajput breed, but there is no evidence in
particular to support this view. Some Bhumihars describe them selves as
Brahmans and some as Rajputs. In popular estimation they share something
of the sanctity ottaching to a Brahman,while on the other their
subdivisions are often hand the same as those of the well known Rajput
clans. All the Bhumihars of Azamgarh claim to be of Brahman stock.
अर्थ यह हैं कि ''राजपूतों के बाद भूमिहारों की संख्या हैं, जो गत मनुष्य
गणना में 55669, या सब हिन्दुओं में से 4.24 फी सैकड़े थे। वे लोग सभी
तहसीलों में पाये जाते हैं, परन्तु लगभग आधे केवल सगरी में और शेष के आधे
देवगाँव में पाये जाते हैं। उनकी जाति के विषय में ऐसा प्रसिद्ध हैं कि जब
परशुराम ने क्षत्रियों का नाश किया तो उनकी भूमि ब्राह्मणों को दी गयी और
वे ही ब्राह्मण भूमि के मालिक होने से भूमिहार कहलाने लगे। उनके ब्राह्मण
और राजपूत पड़ोसी छिपकर चुपके से यह इशारा करते हैं कि ये लोग ब्राह्मण और
राजपूत के मेल से उत्पन्न हुए हैं। परन्तु उन लोगों के इस कहने में कोई खास
प्रमाण नहीं हैं। कुछ भूमिहार ब्राह्मण हैं और कुछ राजपूत भी भूमिहार हैं।
जन साधारण की दृष्टि में भूमिहार लोग बहुत सी बातों में वैसे ही पवित्र
समझे जाते हैं जैसे (अन्य) ब्राह्मण। लेकिन उनके बहुत से छोटे-छोटे दलों के
नाम ऐसे हैं जो राजपूतों के भी हैं। आजमगढ़ के सभी भूमिहार अपने को ब्राह्मण
बतलाते हैं''।
राजपूतों के भी भूमिहार नाम पड़ने का कारण और भूमिहार ब्राह्मण तथा राजपूतों
के बहुत से नामों के एक होने का पूर्ण विवरण लिखा जा चुका हैं। इसी
ब्राह्मण और राजपूतों के पूर्वोक्त इशारे के खण्डन से मिस्टर 'रीड' वगैरह
ने जो यही इशारा लिखा हैं, उसका भी खण्डन गजेटियर ने ही कर दिया। साथ ही
गजेटियर के इस कथन से कि ''ये लोग जन साधारण की दृष्टि में ब्राह्मणों की
तरह पवित्र समझे जाते हैं।'' और मिस्टर 'ओल्डहम के भी इस कथन से कि ‘‘In
popular estimation they share something of the sacredness which attaches
to Brahmins’’ अर्थात् ''बहुत सी बातों में सब लोगों की दृष्टि में ये लोग
ऐसे पवित्र समझे जाते हैं जैसे ब्राह्मण लोग।'' मिस्टर रीड का वह कथन भी
स्वयमेव खण्डित हो गया, जो उन्होंने लिखा हैं कि लोग इन्हें क्षत्रिय समझते
हैं।
गाजीपुर के गजेटियर के 42वें पृष्ठ में लिखा हैं कि : “In popular
estimation they share in something of the sacredness that attaches to
the Bhramins, and they like genuine Brahmans, were exempted from capital
punishment by the old law of the Benares Province.”
अर्थात् ''जनसाधारण इनको बहुत बातों में ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझते
हैं और सूबा बनारस के पुराने कानून के मुताबिक जैसे ब्राह्मणों को फाँसी की
सजा न मिलती थी, वैसे ही इन्हें (भूमिहारों को) भी न मिलती थी''।
जरासन्धा वाली किंवदन्ती का खण्डन मिस्टर कुक ने अपनी पुस्तक (The Tribes
and Castes of U.P. and Oudh) में इस प्रकार किया हैं कि : “The theory
that they are a mixed race, derived from a congeries of low caste people
accidentally brought togethere, is disapproved by the high and uniform
type of physiognomy and personal appearance which prevails among them
etc.
इसका पूरा अर्थ इसी प्रकरण में प्रथम ही दिखला चुके हैं।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कार्यवाही की जाँच के लिए जो सिलेक्ट कमिटी बैठी
थी, उसकी जो पाँचवीं रिपोर्ट बंगाल प्रेसिडेन्सी के विषय में प्रकाशित होकर
सन् 1812 ई. में लण्डन में छपी हैं, उसके प्रथम भाग के 511 से 513 पृष्ठों
तक ऐसा लिखा हुआ हैं :
SUBAH BEHAR (First Circar Behar) : 3. Ten perganas zamindary of Meterjet
Singh. Brahman, residing at Tekari. 5. Two perganraszamindary of Jaswant
Singh ete. Brahmans, composed of Arenzil and Musaodih. 8. Two pergannas
Pilich and Malda, the former held by Nandoo Singh Brahmin in zamindary.
9. Two pergannas Sauret and Bellia, in zamindary, chiefly to Howlass
Chowdhery and Anagir Singh Brahmans. 11. One perganna Gyaspur to Sheo
Prasad Singh, Brahmin, with other lessor zamindars. 16. One parganna of
Baykoonthpur to Kesari Singh Brahmin.
SIX CIRCAR HAJIPUR. 37. One parganna Havellee to Hardan Singh etc.
Brahmins in zamindary. 38. One Perganna Saraisa to Suchit Singh Brahman.
50. Two pergannas Rutty and Gursand principally in zamindary to pertap
singh Brahmin, 51. Five pergannas Moulky etc. Herlal etc. Brah mins, and
usually united with the pergannas of Ballia etc. belonging to Mongeer.
SEVEN CIRCAR SARAN. 53. 15 pergannas Gowah etc. of which 13 to Gopal
Narayan etc. five brothers, 2 Callynpur and Sipah to Raja Fateh Naryan
Singh of Brahman caste.
इसका अनुवाद यह हैं कि ''सूबा बिहार (प्रथम सरकार बिहार)-(3) 10 परगनों की
जमींदारी मित्राजीत सिंह की थी, जो टिकारी के निवासी ब्राह्मण थे। (5)
अरंजील और मुसाऊ डीह इन दो परगनों के जमींदार जसवन्त सिंह वगैरह ब्राह्मण
थे। (8) पिलिछ और मालदा इन दो परगनों में से पिलिछ के जमींदार नन्दू सिंह
ब्राह्मण थे। (9) सौरत और बलिया ये दो परगने खासकर हुलास चौधुरी और आनागिर
सिंह नामक ब्राह्मणों की जमींदारी थी। (11) ग्यासपुर परगने की जमींदारी
शिवप्रसाद सिंह ब्राह्मण की थी और उसमें छोटे-छोटे जमींदार भी शरीक थे।
(16) बैकुण्ठपुर परगना केसरी सिंह ब्राह्मण की जमींदारी थी। (छह सरकार
हाजीपुर)-(37) परगना हवेली हरदान सिंह ब्राह्मण का था। (38) सरैसा परगना
सूचित सिंह नामक ब्राह्मण का था। (50) रत्ती और गुरसंद ये दो परगने प्रधान
तया प्रताप सिंह ब्राह्मण की जमींदारी में थे। (51) मुलकी इत्यादि पाँच
परगनों के जमींदार हरलाल वगैरह ब्राह्मण थे। और ये परगने मामूली तौर पर
मुंगेर के बलिया वगैरह परगनों में मिले हुए थे। (सात सरकार सारन)-(53) 15
परगने गोवा वगैरह में से 13 गोपालनारायण इत्यादि पाँच भाइयों के थे और
कल्याणपुर और सिपाह ये दो परगने राजा फतेहनारायण सिंह के थे, जिनकी
ब्राह्मण जाति थी।''
जो 'गोल्डन बुक ऑफ इण्डिया' (The Golden book of India ) नामक अंग्रेजी
पुस्तक 'सर रापर लेथब्रिज के. सी. आई. ई. (By Sir Ropper Lethbridge
K.C.I.E.) द्वारा विशेष आज्ञा से लिखी गयी और भारत सम्राज्ञी महारानी श्री
विक्टोरिया को 1893 में समर्पित हैं (Dedicated to Her Gracious Majesty,
Victoria, Queen Empress of India, 1893) उसमें लिखा हैं कि :
Page 66. Benares— His Highness Sir Prabhu Narayan Singh K.C.I.E.
Maharaja Bahadur. The family are Brahmans of the Bhumihar class, and
their traditions go back to the year 1000 when a Brahman ascetic of
Utaria, a village near Benares forestood the succession of his posterity
to the dominions then governed by Hindu Rajas.
Page 67. Bettiah-Maharaja Sir Hirendra Kishore singh K.C.I.E. Maharaja
Bahadur belongs to Jaitheria Brahmans (Hindu family descended from
Gangeshwar Deo, who settled at Jaither in Saran, Bengal, about 1244
A.D.).
Page 174. Hathua-Maharaja Sir Krishna Pratap Sahi Bahadur K.C.I.E.
Maharaja Bahadur belongs to a Begochhia Brahman family.
Page 493, Raja Shambhu Narayan belongs to Gautam clan of Bhumihar
Brahmans.
इसका अर्थ यह हैं कि ''पृष्ठ 66 में लिखा हैं कि हिज हाईनेस सर प्रभु
नारायण सिंह के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर बनारस का वंश ब्राह्मणों में
भूमिहार ब्राह्मण दल वाले ब्राह्मणों से हैं। इनके विषय में यही प्रसिद्ध
हैं कि 1000 वर्ष पूर्व बनारस के पास उतरिया गाँव में एक तपस्वी ब्राह्मण
रहते थे। उन्होंने उस समय के हिन्दू राजा के राज पर अपने वंशजों का राज्य
चलाया।
67वें पृष्ठ में लिखते हैं कि महाराज सर हीरेन्द्र किशोरसिंह के.सी.आई.ई.
महाराज बहादुर बेतिया, जैथरिया ब्राह्मण वंश के हैं। यह वंश गंगेश्वरदेव से
चला, जो बंगाल के सारन (छपरा) जिले के जैथर गाँव में 1244 ई. में रहते थे।
174वें पृष्ठ में हैं कि महाराज सर कृष्णप्रताप साही बहादुर के.सी.आई.ई.
महाराज बहादुर हथुवा बगौछिया ब्राह्मण वंश के हैं।
और 493वें पृष्ठ में हैं कि राजा शम्भूनारायण सिंह (औसानगंज) भूमिहार
ब्राह्मणों के गौतम वंश के हैं।
डॉ. विलियम ओल्डहैंम (William Oldham B.C.S.LL.D.) ने स्व पुस्तक (North
Western Provinces Historical and Statistical Memoir of the Ghazipur
District) के प्रथम भाग के 43वें पृष्ठ में लिखा हैं कि : “Bhumihars, both
by themselves and by ethnologists, are belived to be the descendants of
Brahmins, who on becoming cultivators and landholders gave up their
priestly functions. In popular estimation they share in something of the
sacredness which attached to the Brahmins, and by the old law of the
Benares Province, they like the genuine Brahmins, were exempted from
capital punishment; but family priests or spritual guides are never
chosen from among them by men of their own race nor by other Hindus.”
अर्थ यह हैं कि ''भूमिहार लोग अपने आप और वंश परम्परा के जानने वालों
द्वारा भी उन ब्राह्मणों में से माने जाते हैं, जिन्होंने कृषक और जमींदार
होने पर पुरोहिती छोड़ दी। जन साधारण की दृष्टि में बहुत से अंशों में ये
लोग अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझे जाते हैं और इन्हीं की तरह इन
लोगों को भी बनारस प्रान्त के पुराने कानून के अनुसार प्राणदण्ड (फाँसी) की
सजा नहीं मिलती थी, (क्योंकि हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों को फाँसी देना
वर्जित हैं)। लेकिन ये लोग न तो अपने ही समाज के पुरोहित और गुरु होते हैं
और न अन्य हिन्दुओं के ही।'' डॉ. ओल्डहैंम के बहुत से अंशों में 'अन्य
ब्राह्मणों की तरह पवित्र माना जाना' लिखने का तात्पर्य अन्त के वाक्यों से
स्फुट हैं। अर्थात् ये लोग गुरु या पुरोहित नहीं होते, इसीलिए सब अंशों में
अन्य ब्राह्मणों की तरह पूजा कैसे हो सकती हैं?''
56वें पृष्ठ में लिखा हैं कि : “A Bhumihar family of Pande Brahmins
settled at Byreah in Doab pergannah, have for generations past been the
Tehseeldars or land agents of the Domaraon faimly.”
अर्थात् ''पाण्डे कहलाने वाले ब्राह्मणों में से एक भूमिहार ब्राह्मण वंश,
जो बलिया जिले के दोआब परगने के बैरिया गाँव में प्रथम से ही आकर बसा हैं,
बहुत पीढ़ियों से डुमराँव राज्य का तहसीलदार होता चला आया हैं।''
68वें पृष्ठ में लिखा हैं कि : “The family of the Benares Rajahs belong
to a clan of Goutum Bhumihar Brahmans, land holders of the pergannah
Kuswar, which lies a few miles to the west of Benares. They trace their
descent from a Brahmin Kitthoo Misra etc.”
अर्थात् ''बनारस के राजाओं का वंश गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं। जो काशी से
चन्द मील दूर पश्चिम तरफ के कुसवार परगने के जमींदार हैं। ये लोग अपनी
उत्पत्ति कित्थू मिश्र नामक एक ब्राह्मण से बतलाते हैं इत्यादि।''
फिर उसी पुस्तक के द्वितीय खण्ड के 43वें पृष्ठ में उक्त साहब बहादुर ने
लिखा हैं कि :
The Hindu land-owing tribes of Benares are either Bhumihars, secular
Brahmans, of Rajputs.
अर्थात् ''बनारस जिले के मुख्य जमींदार या तो भूमिहार यानी दुनिया भी का
ब्राह्मण हैं (यहाँ दुनिया भी का का अर्थ याचकों या पुरोहितों से भिन्न
हैं, क्योंकि वे लोग पुरोहितों को हिन्दू धर्मानुसार पारलौकिक समझते हैं),
या राजपूत।''
बाबू नीलमणिदास रायबहादुर, सदरआला, मुजफ्फरपुर के 1897 ई. के फैसले की जो
अपील राजकुमार श्री गिरिजा नन्दन सिंह जी ने महारानी जानकी कुंवरि के
विरुद्ध की थी, उसके फैसले के 107वें पृष्ठ में इस तरह लिखा हैं कि :
Maharajadhiraj Rajendra Kishore Sinha Bahadur, son of Maharaj Nawal
Kishore Sinha Bahadur, proprietor of Nimak-Saeer Mahal out of Sarcar
Champaran inhabitant of Kasaba Betteah, pergannah Majhwa Jaitharia
Brahman by caste, a zamindar by profession.
अर्थात् ''महाराजा राजेन्द्र किशोर सिंह बहादुर महाराजा नवल किशोर सिंह
बहादुर के पुत्र और निमक सायर महाल के मालिक हैं, जो चम्पारन सरकार से बाहर
हैं। ये मझवा परगने के कसवा बेतिया में रहते हैं। इनकी जाति जैथरिया
ब्राह्मण और पेशा जमींदारी हैं।''
इसी प्रकार बेतिया के समीपवर्ती मधुवन के मुकदमे के सन् 1907 के फैसले की
अपील के फैसले 1078वें पृष्ठ में लिखा कि :
“This statement of Sir W.B. Hudson is fully borne out by the
acknowledgement of Sir Ropper Lethbridge in the introduction to his
compilation, called the Golden Book of India, in para 67 of which work
we find Maharaja Sir Harindra Kishore Sinha described as Jaithria
Brahman, descended from Gangeshwar Deo the ancestor of Raja Ugrasen
Sinha.”
अर्थ यह हैं कि ''सर डब्ल्यू. बी. हडसन का यह कथन सर रापर लेथब्रिज के कथन
से अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी पुस्तक 'गोल्डन
बुक ऑफ इण्डिया' की भूमिका के 67वें पैरा में लिखा हैं कि महाराज हरीन्द्र
किशोर सिंह जैथरिया ब्राह्मण 'गंगेश्वर देव के वंशज हैं, जो राजा उग्रसेन
सिंह के पूर्वज थे।''
गाजीपुर के इस्तिमरारी बन्दोबस्त की रिपोर्ट, सन् 1880-85 ई. के 27वें और
63वें पृष्ठों में 'विलियम इरविन, (William Irvin) साहब कलेक्टर ने लिखा
हैं कि: “Raja Shambhu Narayan Singh is Bhumihar Brahman, Gauri Shankar
Prasad Sinha and Harishankar Prasad Sinha are great grand sons of
Deokinandan Sinha, Brahman of the Allahabad district.”
अर्थात् ''राजा शम्भूनारायण सिंह भूमिहार ब्राह्मण हैं। गौरीशंकर प्रसाद
सिंह और हरिशंकर प्रसाद सिंह ये दोनों देवकीनन्दन सिंह नामक प्रयाग जिले के
एक ब्राह्मण के प्रपौत्र हैं।''
सन् 1891 ई. की भारतवर्षीय मनुष्य गणना के विवरण के 191वें और 203वें
पृष्ठों में लिखा गया हैं कि :
“The Babhan is a caste, confined, according to the returns, to Behar,
but the Bhumihars of the adjacent territory of the N.W.P. should, no
doubt, be added. It is an offshoot of a community of fairly pure Arya
blood, descended from some of the early settlers of Hindustan.
“In the Brahmans caste, returned as such, we have every sort and grades
of sub-divisions, In the Punjab there is the Mohial, whose aim is
military service, like Pande of the Gangotri basis in Hindustan, The
cultivating classes of Orissa are both turned Mastans but this title is
shared by other castes of cultivating Brahmans in Upper India. Some of
the last perform the whole cycle of operations connected with tillage.
Whilst others draw the line at holding the plough, and employ their
serfs on that task. There is a considerable number of Brahmans engaged
as family and village priest, but the majority have taken to secular
Pursuits and been divided accordingly.
“In Hindustan the number of Brahman cultivators is very large, and on
the West Coast of, both in Malabar and along the Kankan, this caste in
various district communities is prominent amongst the land holders. In
the Deccan, again the Brahmans almost monopolise the occupations barring
trade, that require reading and writing.”
अर्थ यह हैं कि ''बाभन एक जाति हैं जो सरकारी विवरण के अनुसार बिहार में
पाई जाती हैं, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि समीप के युक्त प्रदेशवाले
भूमिहार भी इसी में शामिल हैं। ये लोग उन शुद्ध आर्य वंशजों के एक दल हैं,
जो भारतवर्ष के प्रथम के कुछ निवासियों के वंश में थे। ब्राह्मण जाति में,
जिसे मनुष्य गणना में ब्राह्मण जाति नाम से लिखा हैं, हर प्रकार और दर्जे
के छोटे-छोटे दल पाये जाते हैं। पंजाब में महियाल लोग हैं जिनका मुख्य
उद्देश्य युद्ध सेवा हैं जैसे कि भारतवर्ष के गंगोत्री स्थान के मूल में
रहनेवाले पाण्डे लोग हुआ करते हैं। दक्षिण गुजरात की कृषक जाति जो देसाई
कहलाती हैं और उसी तरह के उड़ीसा निवासी ये दोनों मस्तान लिखे जाते हैं।
लेकिन यह पदवी उत्तर भारत की अन्य कृषक ब्राह्मण जातियों की भी हैं। उत्तर
भारत के बहुत ब्राह्मण कृषि सम्बन्धी सभी कार्य करते हैं, परन्तु कुछ लोग
हल जोतना अच्छा या उचित न समझ उसके लिए हलवाहे नौकर रखते हैं। कुछ ऐसे
ब्राह्मण हैं जो खानदानों या गाँवों की पुरोहिती किया करते हैं, परन्तु
अधिकांश दुनिया भी का कामों लग गये हैं और इसी से पृथक् भी हो गये हैं
ओल्डहैंम साहब ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को दुनिया भी लिखा हैं और ऐसा करने
से इतर ब्राह्मणों से अलग बताया हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं)। हिन्दुस्तान
में खेती करने वाले ब्राह्मणों की संख्या बहुत हैं और कोंकण तथा मालाबार के
पश्चिमी किनारे पर यह जाति जिले के भिन्न-भिन्न समाजों में सबसे बड़ी
भूम्यधिकारिणी हैं। दक्षिण में भी जो काम वाणिज्य के सिवाय हैं और जिनमें
पढ़ने-लिखने वाले की आवश्यकता हैं, उनको ब्राह्मणों ने सम्पूर्ण अधिकार में
कर लिया हैं।
'सर हेनरी एम. इलियट' (Sir Henry M.Elliot K.C.B.) की जो 'सप्लीमेण्ट
ग्लसारी ऑफ इण्डियन टर्म्स' (Supplementae Glossary of Indian Terms) नामक
पुस्तक हैं और उस पर जो टिप्पणी 'जान बीम्स' (John Beams M.R.A.S.) ने की
हैं, उसके प्रथम भाग के 21वें पृष्ठ में यों लिखा हैं :
By Elliot—Bhumihar. A tribe of Hindus to be found in great number in
Gorakhpur. Azemgarh and the province of Benares. The Maharaja of Benares
is of this caste. They call themselves some times Brahmans and sometimes
Thakurs. They were originally Brahmans of Sarawaria stock; but from
having, as they say received the pergannah of Kaswar form Raja Banar and
become addicted, to, agricultural, Pursuits, and cultivators of land
(भुई) they last their rank of Brahmans, though they frequently receive
marks of respect due only to that priviledged class. Others say when
Parasaram destroyed all the Kshatriyas, he introduced Brahmans to occupy
their place, and hence they became proprietors of land. It will be
observed that several of these are subdivisions of the Sarawaria
Brahmans, and those whose origin is distinguished, by new names have all
same titles connecting them with the Sarawaria stock. Thus the Sakarwas
are Misras, the Donwars Tewari and so on.
By Beames—From that day they ranked as an inferior caste of Brahmans.
They are a fine manly race with the delicate Aryan type of feature in
full perfection.
Page 85. Domtikar, one of the Subdivisions of Sarawaria Brahman.
Page 116. The Jaganbansi Kanaujia Brahmans of Kora are said to have
received the Chandrahat of that Purgannah from Birsingh Deo, a Gautam
chieftain.
Page 141. Jaganbansi, a tribe of Brahmans who hold zamindari possessions
in pergannah Kora, zillah Fatehpur.
Page 146. Of Brahmans there ten well known sub-divisions of which five
are Gaur and five Dravida. Of the five Gaurs, Kanaujia is one and also
is considered the most numerous as it extends from the Sivalik Hills to
the Narbada, and the Bay of Bengal. The sub-divisions of the Kanaujia
are five; Kanaujia proper, Sarwaria, Sanadhya or Sanaudha, Jijhoutia and
Bhumihar.
Page 149. The Sarwarias including the Bhumihars touch the Kanaujias one
the East.
Page 150 In the census of N.W.P. in 1865, the Brahmans of the Province
are thus classified and numerated :-
Kanaujia ... .... .... .... ....
Sarwaria .... .... .... .... ....
Sanadhya .... .... .... .... ....
Jijhautia .... .... .... .... ....
Bhumihar 52199, Gorakhpur, Benares.
अर्थ यह हैं ''इलियट साहब भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिखते हैं कि यह
एक हिन्दू जाति हैं, जो बहुत संख्या में गोरखपुर, आजमगढ़ और बनारस के
प्रान्तों में पाई जाती हैं। महाराज बनारस इसी जाति के हैं। ये लोग अपने को
कभी ब्राह्मण कहा करते हैं और कभी ठाकुर¹। ये लोग प्रथम सरवरिया ब्राह्मण
थे। परन्तु राजा बनार के कुसवार परगना पाने और खेती करने तथा भूमि सम्बन्धी
काम करने से, जैसा कि वे लोग कहते हैं, उन लोगों ने अपने ब्राह्मण दर्जे को
खो दिया। जोकि अभी तक अक्सर उन लोगों को वे ही प्रतिष्ठाएँ मिला करती हैं
जो अन्य ब्राह्मणों को मिलती हैं। अन्य लोगों का यह कहना हैं कि जब परशुराम
ने क्षत्रियों का नाश किया तो ब्राह्मणों को ही उनकी जगह नियत किया। इसलिए
ये लोग भूमि के मालिक बन गये। यह भी देखा जाता हैं कि इन लोगों (भूमिहार
ब्राह्मणों) के बहुत से छोटे-छोटे दल वे ही हैं, जो सरवरिया ब्राह्मणों के
हैं और जिनके मूल का पता उनके नवीन नामों से लगता हैं, उन लोगों की पदवियाँ
सबकी-सब वे ही हैं जो उनको सरवरिया ब्राह्मणों में मिला देती हैं। जैसे
सकरवार मिश्र कहलाते हैं और दोनवार तिवारी इत्यादि।
मिस्टर इलियट के पूर्वोक्त कथन 'खेती करने से इन लोगों ने अपने ब्राह्मण
दर्जे को खो दिया' का तात्पर्य मिस्टर बीम्स ऐसा लिखते हैं कि 'उस समय से
ये लोग ब्राह्मणों में मध्यम समझे जाने लगे इत्यादि। ¹¹ ये लोग उत्तम
मनुष्य जाति के हैं और इनके शरीर की सम्पूर्ण बनावट ठीक और बहुत ही सुन्दर
एवं आर्यों की ही हैं।'
85वें पृष्ठ में इलियट साहब ने लिखा हैं कि दुमटिकार लोग सरवरिया
ब्राह्मणों के एक भेद हैं। (इससे स्पष्ट हैं कि दुमटिकार ही नाम ठीक हैं,
दुमटकार या डोमकटार कहना भूल हैं, जैसा कि प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं)।
116वें और 141वें पृष्ठों में जगदवंशी या जगद्वंशी ब्राह्मणों को लिखते हैं
कि ये लोग ब्राह्मणों की एक जातिवाले हैं, जो फतहपुर जिले के कोड़ा परगने के
जमींदार हैं। जो जगद्वंशी कनौजिया ब्राह्मण कोडा में रहते हैं, उन्हें उस
परगने का चन्द्रहाट स्थान एक गौतमवंशी क्षत्रिय वीर सिंह देव द्वारा
प्राप्त हुआ हैं।
146वें पृष्ठ में लिखा हैं कि ब्राह्मणों के प्रसिद्ध दस भेद हैं, जिनमें
से पाँच द्राविड़ और पाँच गौड़ हैं। पाँच गौड़ों में कनौजिया भी एक भेद हैं।
ये लोग सबसे अधिक हैं; क्योंकि सिवालिक पर्वत से नर्मदा और बंगाल की खाड़ी
तक फैले हुए हैं। कनौजियों के पाँच भेद हैं-(1) खास कनौजिया, (2) सरवरिया,
(3) सनाढय या सनौढा, (4) जिझौतिया, और (5) भूमिहार।
149-पृष्ठ में हैं कि 'भूमिहारों को अपने में लेते हुए सरवरिया लोग पूर्व
में कनौजियों से मिल जाते हैं।
150-पृष्ठ में लिखा हैं कि युक्त प्रान्त की 1865 ई. की मनुष्यगणना में इस
¹ अन्य ब्राह्मण भी ठाकुर कहे जाते हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं और चूँकि
जमींदार हैं, इसलिए ठाकुर कहलाते हैं, क्योंकि उसका अर्थ जमींदार हैं।
¹ परन्तु खेती करने से ब्राह्मण माध्यम नहीं हो सकता हैं, यह अच्छी तरह
प्रमाणित किया जा चुका हैं।
प्रान्त के ब्राह्मणों के विभाग और उनकी संख्या यों हैं :
कनौजिया .... .... .... .... .... .... ....
सरवरिया .... .... .... .... .... .... ....
सनाढय .... .... .... .... .... .... ....
जिझौतिया .... .... .... .... ..... .... ....
भूमिहार ....52199 .... गोरखपुर और बनारस।
मिस्टर शेरिंग (Rev. M.A. Sherring M.A.,LL.B.) ने जाति विवरण (Tribes and
Castes) नामक पुस्तक में इस तरह लिखा हैं :
Part I. Page 9, 10. Great important distinctions subsist between the
various tribes of Brahmans. Some are given to learning some to
agriculture, some to politics and some to trades. The Maharastra Brahman
is very different being from the Bengali, while the Kanaujia differs
from both.
Only those Brahmans that perform all these six duties are reckoned
perfectly orthodox. Some perform three of them, namely, the first, third
and fifth and omit the other three; yet they suffer in rank in
consequence. Hence Brahmans are divided into two kinds, the Shat-karmas
and the Tri-karmas or those who perform the six duties and those who
perform the three only. The Bhumihar Brahmans, for instance are
Tri-karmas, and merely pay heed to three duties.
Page 23. The Bhumihars, of whom many though not all belong to the
Sarjupariya division, are a large and influential body in all that
province.
अर्थ यह हैं कि 'प्रथम भाग, 9 और 10 पृष्ठ-ब्राह्मणों की बहुत सी जातियों
में बड़े-बड़े और प्रसिद्ध भेद हैं। कोई केवल पढ़ता ही हैं, कोई केवल खेती,
कोई राजनीति और कोई वाणिज्य में लगा रहता हैं। महाराष्ट्री ब्राह्मण बंगाली
ब्राह्मणों से बिलकुल भिन्न हैं और कनौजिया दोनों से भिन्न हैं।
केवल वे ही ब्राह्मण, जो षट्कर्म करते हैं कट्टर समझे जाते हैं।
बहुत से ब्राह्मण षट्कर्मों में प्रथम, तृतीय और पंचम (अध्ययन, यज्ञ और
दान) तीन ही करते हैं शेष तीन छोड़ देते हैं। इसीलिए उनका दर्जा कुछ नीचा
समझा जाता हैं। इस प्रकार ब्राह्मणों के दो भेद हैं, षट्कर्मा और
त्रिकर्मा। अर्थात् एक तो वे जो छह कर्मों को करते हैं और दूसरे वे जो केवल
तीन ही करते हैं। दृष्टान्त के लिए भूमिहार ब्राह्मणों को ले सकते हैं, जो
केवल तीन ही कर्मों पर ध्यान देतेहैं।
23वाँ पृष्ठ-भूमिहार लोग जिनमें सब नहीं तो अधिकांश सर्यूपारी ब्राह्मण
हैं, इस प्रान्त-भर में बहुसंख्यक और प्रभावशाली हैं।
आगे चलकर मिस्टर शेरिंग ने ब्राह्मणों के निरूपण प्रकरण में ही पंचगौड़ों
में से सर्यूपारियों के निरूपण प्रसंग में ही जिझौतिया, सारस्वत एवं गौड़ों
से प्रथम ही भूमिहार ब्राह्मणों का निरूपण करते हुए 39वें और 40वें पृष्ठ
में ऐसा लिखा हैं :
BHUMIHAR BRAHMANS—These Brahmans belong chiefly, though not exclusively,
to the Sarwaria branch of the Kanaujia tribe. They are found in large
numbers in the city of Benares, and in the district and province of the
same name, and even as far as the northern part of Behar. Some doubt has
been thrown on the purity of their blood of as Brahmans. It has been
said that they are Kshatriya Brahmans : or partly Rajputs and partly of
other castes; or are a race of bastard Brahmans. I have been unable to
obtain any trustworthy evidence for such assertion. Nevertheless there
is no question that they do not occupy a high rank and position among
the Brahmanical races. The reasons for this I conceive to be three-fold
:
(1) The Bhumihars are addicted to agriculture, a pursuit considered to
be beneath the dignity of pure or orthodox Brahman. The word is Partly
derved from Bhuin or Bhumi ‘land’.
(2) They have accepted and adopted in their chief families the secular
title of Raja, Maharaja, and so forth distinctions which high Brahmans
altogether eschew. Hence, such Bhumihars have in a sense degraded from
their position of Brahmans to that of Rajputs, whose honoric title of
Singh they commonly affix to their names. The Maharaja of Benares, who
is the acknowledge head of the Bhumihar Brahmans in that City, is styled
Maharaja Ishwaree Narain Singh. The title is borne by all the members,
near and remote of the Maharaja’s family.
(3) The Bhumihars only perform or half of the Prescribed Brahmanical
duties. They give alms, but do not receive them; they offer sacrifices
to their idols, but do not perform the duties and offices of priest
hood; they read the sacred writings, but do not teach them.
Sir Henry Elliot says—“we perhaps have some inications of the true
origin of Bhumihars in the name of Gargabhumi and Vatsabhumi, who are
mentioned in the Harvansa as Kshatriya Brahmans, descendants of Kasiya
princes, name of Bhumi and residence at Kasi (Benares), are much in
favour of this view. Moreover, there are to this day Garga and Vatsa
Gots or Gotras, amongst the Sarwaria Brahmans.”
It is quite true, as before remarked, that this tribe is numerous in
Benares and its neighbourhood, though not as descendants of Kasiya
princes. The Maharaja of Benares is undoubtedly a Bhumihar; but his
family dates only from the first-half of the Preceeding century. There
is no evidence to show that in olden times princes of Benares were ever
Bhumihars.
By the people of the country of other castes, among whom they dwell,
they are called indiscriminatly Bhumihars, Gautams and Thakurs. The term
Brahman, is not, I believe applied to them in common conversations as it
is to other Brahmans; but this is no valid argument against their right
to the title. The Bhumihars call themselve Brahmans: have the Gotras
titles and family names of Brahmans: practise, for the most part, the
usages of Brahmans, and in default of proper evidence to the country,
must be regarded as Bhrahmans. While the Gautams of Benares are called
Bhumihars they are so simply from the accident of the Bumihars there
mostly belonging to the Gautam Gotra. There are other Gotras of
Bhumihars besides the Gautam. Moreover although the Bhumihars are
chiefly united whith the Sarwaria branch of the Kankubja tribe of
Brahmans, yet some of them are allied to the Kanaujia Brahmans Proper.
For instance, the Babus of Chainpur in the Chaprah district are
Bhumihars of the latter sub-tribe. The name of their clan is Ekasariya;
of their Gotra Prasar; of their title Dikshit.
In face of the peculiar Brahmanical terminology and nomenclature in use
among the Bhumihars, who differ 'in toto coelo' from those employed by
all other coates, of their Brahmanical habits and costoms, of their
claim to be regarded as Brahmans, the statement of Mr. Campbell in his
recent work on the ethnology of India (page 66). that “there seems to be
no doubt that this class is formed by an intermixture of Brahmans with
some other inferior caste,” is untenable. He assigns no reason for such
an observation further than that, “they live in strong and pugnatious
brotherhoods, and are in character much more like Rajpoots than
Brahmins.” The opinion of Mr. Beams, in his edition of Sir H. Elliot’s
Supplemental Glossary on the physical charcterstics of the Bhumihars, is
true and worth recording. “They are fine manly race, with the delicate
Aryan type of feature in perfection, yet.” headds, “their character is
bold and overbearing and decidedly inclined to be turbulent,” a strong
expression, which it would not be easy to substantiate or justify. The
most important of these clans in Benares is the Bipra branch of the
Gautam Gotra of the Misra rank, to which belongs the Maharaja of Benares
together with the noble families connected with him, and the family of
the Late Raja Sirdeo Narayan Singh and of his son Raja Shambhu Narain
Singh.
It is of the Kauthumiya Sakha, or branch, of Brahmans, following the
ritual of the Sama. Veda it has three Parvars (distinguished by the
number of knots in the Brahmanical card) the Gautam, Angiras and
Authathiya. The clan intermarries with the Bhumihars, of the Madhyandina
Sakha, or branch of Brahmans, observing the ritual of the Yajur-Veda. It
is traditionally allied to the Sarjupari Brahmans of the Village of
Madhubani, beyond the Gogra who, strange to say, are Shat-karmas that is
perform the six duties enjoined on Brahmans. This relationship seems to
show that the Bhumihars, Brahmans, who now observe only three of the
Brahmanical obligations, were once orthodox and observed the entire six.
इसका मर्मानुवाद यह हैं :-''भूमिहार ब्राह्मण- ये ब्राह्मण यद्यपि सब नहीं,
तथापि अधिकांश कनौजिया ब्राह्मणों के सरवरिया दल वाले ब्राह्मणों में हैं।
ये लोग बहुसंख्यक बनारस शहर, बनारस जिला और बनारस प्रान्त में और बिहार के
उत्तर भाग तक पाये जाते हैं। इनके शुद्ध ब्राह्मण वंशज होने में कुछ सन्देह
किया जाता हैं। ऐसा कहा जाता हैं कि ये लोग क्षत्रिय अथवा राजपूत ब्राह्मण
हैं, राजपूत तथा अन्य जातियों के मेल से हुए हैं, अथवा दोगले ब्राह्मण हैं।
परन्तु मैं इस कथन में कोई विश्वास योग्य प्रमाण पाने में असमर्थ हूँ।
तथापि इस बात में तो कुछ कहना ही नहीं कि ब्राह्मण जातियों में इनका दर्जा
ऊँचा नहीं माना जाता। मेरी समझ में इसके तीन ही कारण हैं :-(1) भूमिहार लोग
कृषि किया करते हैं, जो सच्चे (कट्टर) ब्राह्मणों का धर्म नहीं माना जाता
हैं। भूमिहार शब्द भी इसी भुइं या भूमि शब्द से बना हैं। (2) उनके बड़े-बड़े
वंशों में राजा, महाराजा इत्यादि पदवियों का स्वीकार और प्रयोग होता हैं,
जिससे कट्टर ब्राह्मण बिलकुल ही घृणा करते हैं। इसीलिए लोगों ने यह मतलब
लगा लिया हैं कि भूमिहार लोग ब्राह्मण दर्जे से हटकर राजपूत दर्जे को
प्राप्त हो गये हैं और उनकी पदवियों को बहुधा अपने नामों के पीछे लगाया
करते हैं। महाराजा बनारस, जो बनारस के भूमिहार ब्राह्मणों के माननीय नेता
हैं, महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह कहलाते हैं। महाराजा के वंश के निकट
या दूर के सभी लोग 'सिंह' कहलाते हैं। (3) भूमिहार लोग ब्राह्मणों के
षट्कर्मों में से तीन ही करते हैं, अर्थात् वे लोग दान देते हैं, परन्तु
लेते नहीं; यज्ञ करते हैं, परन्तु करवाते नहीं, और पवित्र ग्रन्थों को पढ़ते
हैं, परन्तु पढ़ाते नहीं¹A
सर हेनरी इलियट ने कहा हैं कि ''भूमिहार लोगों के वास्तविक मूल का कुछ पता
सम्भवत: हमें गर्गभूमि और वत्सभूमि इन नामों से चलता हैं, जो हरिवंश
(पुराण) में क्षत्रिय ब्राह्मण और काशी के राजाओं के वंशज लिखे गये हैं।
उनका भूमि नाम और काशी (बनारस) के पास निवास भी इस अनुमान के अनुकूल हैं।
इसके अतिरिक्त सर्यूपारी ब्राह्मणों में आज तक गर्ग और वत्सगोत्र भी पाये
जाते हैं।
जैसा कि प्रथम कह चुके हैं, उससे यह बात तो ठीक हैं कि ये लोग बनारस और
उसके आस-पास में बहुत पाये जाते हैं। परन्तु प्राचीन काशी के राजाओं के
वंशज नहीं कहलाते। यद्यपि महाराज बनारस भूमिहार हैं इसमें सन्देह नहीं हैं,
परन्तु इनका वंश केवल गत शताब्दी के पूर्वार्ध्द से ही यहाँ पर सिद्ध होता
हैं। इसमें कोई प्रमाण नहीं हैं कि प्राचीन समय में भी काशी के राजे
भूमिहार ही थे। इस देश की अन्य जातियों के लोग, जिनके मध्य में ये लोग रहा
करते हैं, इन्हें अज्ञानवश कभी भूमिहार, कभी गौतम और कभी ठाकुर कहा करते
हैं। मेरा विश्वास हैं कि साधारण बातचीत में इनके नाम के साथ ब्राह्मण शब्द
नहीं लगाया जाता हैं। परन्तु इन्हें ब्राह्मण मानने के विपरीत यह कोई सच्चा
प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि भूमिहार लोग अपने को ब्राह्मण कहते, ब्राह्मणों
के ही गोत्र, उनकी ही पदवियों और वंशनाम रखते और अधिकांश ब्राह्मणों की ही
रस्म-रिवाजों को करते हैं। इसलिए इनके विपक्ष में कोई उचित प्रमाण न होने
के कारण इन्हें अवश्य ही ब्राह्मण समझना चाहिए।
बनारस के गौतम लोग भूमिहार कहलाते हैं। यह बात इस कारण से हैं कि वहाँ
भूमिहार लोग अधिकांश गौतम गोत्री ही हैं। गौतम गोत्र के अतिरिक्त भी
भूमिहार ब्राह्मणों मंी गोत्र पाये जाते हैं। इसके सिवाय गोकि विशेषत:
भूमिहार ब्राह्मण सरवरिया ब्राह्मणों से ही मिले हुए हैं, तथापि बहुत से
भूमिहार ब्राह्मण खास कनौजिया ब्राह्मण भी हैं। जैसे, चैनपुर के भूमिहार
बाबुआन कनौजिया ब्राह्मण हैं। वे लोग एकसरिया
¹ ये तीन कारण, जिनसे लोग भूमिहार ब्राह्मणों को हीन समझने का भ्रम करते
हैं, प्रथम ही खण्डित किये जा चुके हैं और यह प्रमाणित किया जा चुका हैं कि
कृषि ब्राह्मणों का प्रधान कर्म हैं और राय, सिंह इत्यादि पदवियाँ भी
क्षत्रिय या ब्राह्मण विशेष की न होकर उन सभी की हैं जो इसके योग्य थे या
हैं इसीलिए ब्राह्मणों और अन्य जातियों में भी आज तक पायी जाती हैं। और
वस्तुत: ब्राह्मण त्रिकर्मा ही होते हैं, न कि षट्कर्मा होना उनका धर्म
हैं, यह भी सिद्ध हो चुका हैं। यज्ञ करा या पढ़ा करके केवल द्रव्यार्जन करना
अनावश्यक हैं, जिसे भूमिहार ब्राह्मण नहीं करते। परन्तु उपकार के लिए या
धर्मार्थ पढ़ाने आदि से उन्हें इन्कार नहीं हैं। परन्तु मिस्टर शेरिंग ने तो
अन्य लोगों की धारणा मात्र बतलायी हैं, न कि अपनी राय। अब तो सब करते हैं।
कहलाते हैं और उनका गोत्र पराशर और पदवी दीक्षित हैं।
जो अन्य जाति के लोगों में बिलकुल ही नहीं पाये जाते, ऐसे जो केवल ब्राह्मण
सम्बन्धी संकेत और नाम इन भूमिहार ब्राह्मणों में पाये जाते हैं, उनके
मुकाबिले में, इन लोगों को ब्राह्मण सम्बन्धी रस्म-रिवाजों और स्वभाव के
मुकाबिले में और इन लोगों के ब्राह्मण होने के दावे के भी मुकाबिले में
मिस्टर कैम्पबेल की वह उक्ति तुच्छ या अनादरणीय हैं, जो उनके हाल के भारतीय
जाति विवरण सम्बन्धी ग्रन्थ के 66वें पृष्ठ में हैं कि ''इसमें कोई सन्देह
नहीं हैं कि यह जाति ब्राह्मण और कुछ नीच जातियों के मेल से बनी हैं।''
क्योंकि वे अपने इस कथन की पुष्टि में इससे अधिक प्रमाण नहीं देते कि ''ये
लोग मजबूत और लड़ाके पड़ोसियों में रहा करते और चाल-ढाल में ब्राह्मणों की
अपेक्षा क्षत्रियों से अधिक मिलते हैं।''¹
सर हेनरी इलियट की सप्लीमेण्टल ग्लासरी में जो मिस्टर बीम्स की सम्मति
भूमिहार लोगों की शारीरिक रचना के विषय में हैं वह सत्य और उल्लेख योग्य
हैं अर्थात् वे कहते हैं कि ''ये लोग बहुत ही सुन्दर मनुष्य जाति के हैं और
इनकी शरीर रचना पूर्णतया सुन्दर और आर्यों की शारीरिक बनावट जैसी हैं।''
परन्तु इनका यह कथन कि ''ये लोग साहसी और झटपट उबल पड़ने वाले, एवं
नि:स्सन्देह झगड़ालू होते हैं, बहुत ही सख्त (कड़ा) हैं, जिसको प्रमाणित करना
जरा टेढ़ी खीर हैं।
भूमिहार ब्राह्मणों में सबसे प्रसिद्ध बनारस में गौतम गोत्र और मिश्र पदवी
वाली विप्र शाखा हैं, जिसमें महाराज बनारस अपने सम्बन्धी बड़े-बड़े वंशों के
साथ सम्मिलित हैं और भूतपूर्व राजा सर देवनारायण सिंह और उनके पुत्र राजा
शम्भूनारायण सिंह का वंश भी उसी में शामिल हैं। ब्राह्मणों की कौथुमी शाखा
ही इनकी शाखा और सामवेद ही वेद हैं। इन लोगों के तीन प्रवर गौतम, अंगरिस और
औतथ्य हैं, जिनकी सूचना के लिए यज्ञोपवीत में तीन ग्रन्थियाँ दी जाती हैं।
ये लोग यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा वाले भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह
करते हैं और इनके विषय की कथा ऐसी हैं जिसमें इन लोगों का सम्बन्ध सर्यूपार
के मधुबनी ग्राम के सर्यूपारी ब्राह्मणों से सिद्ध होता हैं। जिनके विषय
में यह कहते आश्चर्य होता हैं कि वे लोग षट्कर्मा ब्राह्मण हैं। इस सम्बन्ध
से यह भी पता चलता हैं कि ''भूमिहार ब्राह्मण, जो केवल तीन ही कर्म करते
हैं, प्रथम कट्टर और षट्कर्मा ब्राह्मण ही थे।''
शेरिंग साहब ने पूर्वोक्त ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के 189वें और 229वें
पृष्ठों में लिखा हैं कि : The truth is that the word Bhumihar applies to
Rajputs as well as to Brahmans. A similarity of nature, however,
amounting even to an exact correspondence, is frequently found
subsisting between Brah
¹ इन बातों का खण्डन उनके पूर्वोक्त रस्म-रिवाजों इत्यादि से ही हो गया, जो
केवल ब्राह्मणों में ही पाये जाते हैं और जमींदारी करने के कारण मजबूती
वगैरह की जरूरत मजबूर होकर ही पड़ती हैं। अतएव मिस्टर शेरिंग इस विषय में
कैम्पबेल का अनादर करते हैं।
mans and Rajputs. Both races have their Gautams, their Bhumihars, their
Kinwars and likewise; have the same Gotras, thereby professing to be
descended from the same Rishis or sages of primitive Hinduism.
अर्थात् ''सत्य बात तो यह हैं कि भूमिहार शब्द का प्रयोग राजपूत और
ब्राह्मण दोनों जातियों में किया जाता हैं। राजपूतों और ब्राह्मणों के
स्वभाव की भी समानता पायी जाती हैं, जो ठीक-ठीक मिल जाती हैं। दोनों में
गौतम, भूमिहार, किनवार आदि भेद और बहुत से एक ही गोत्र पाए जाते हैं, जिससे
यह कहा जाता हैं कि वे लोग एक ही ऋषि के वंशज हैं।''
श्रीयुत् योगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए.डी.एल. की सम्मति भूमिहार
ब्राह्मणों के विषय में दी जा चुकी हैं। यहाँ पर केवल उनके कथन के उस
अवशिष्ट अंश को लिखते हैं, जिसमें उन्होंने मिस्टर रिजले तथा अन्य लोगों के
मिथ्या आक्षेपों का युक्तियों द्वारा खण्डन किया हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक
'हिन्दू कास्ट्स एण्ड सेक्ट्स' के 109वें-113वें पृष्ठों में इस प्रकार
लिखा हैं :
The Bhumihar Brahmans of Behar and Benares—There are various legends
regarding the origin of the caste. The Bhumihar Brahmans themselves
claim to be true Brahmans, descended from the rulers whom Parsuram set
up in the place of the Kshatriya kings slain by him. The Brahmans and
the Kshatriyas of the country look down upon them and insinuate that
they are of a mixed breed, the offspring of Brahman men and Kshatriya
women. It is even said that the class was formed by the promotion of low
caste men under the orders of a minister to a Raja, who wanted a very
large number of Brahmans to celebrate a religious ceremony; but for whom
his minister could not procure the required number of true Brahmans. But
the legendry theory is strongly contradicted by the Aryan physiognomy of
the Bhumihars, who in respect of personal appearance are in no way
inferior to the Brahmans or the Rajputs. One of the most important
points of difference between the Bhumihar Brahmans and the majority of
the ordinary Brahmans is, that while the latter are divided into only
those Exogamous classes called Gotras, the former have among them, like
Rajputs, a two-fold division based upon both Gotra and tribe. From this
circumstance Mr. Risley has been laid to conclude that the Bhumihar
Brahmans are an offshoot of the Rajputs and not true Brahmans. But as
there are similar tribal divisions among the Maithila Brahmans of Tirhut
and the Saraswat Brahmans of the Punjab, it might, on the same ground,
be said that the Saraswats and the Maithlas are offshoots of the
Rajputs.
In theory that Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs,
involves the utterly unfounded assumption that any of the military clans
could have reason to be ashamed of their caste-status. The ‘royal race’
had very good reason to be proud of such surnames as Sinha, Roy and
Thakur, and it seems very unlikely that any of their clans could, at any
time, be so foolish as to club together for the purpose of assuming the
Brahmanic surnames of Dobe, Tewari, Chobe and Upadhyay. On the theory
that the Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs, the clans
that now profess to be Bhumihar Rajputs, are residents that have stuck
to their original status, and have never aspired to a higher one. But on
this supposition it would be difficult to find any reason for the
distinctions between Bhumihar Rajput and the ordinary Rajputs.
The usual surnames of the Bhumihar Brahmans are the same as those of the
other Brahmans of northern India. Being a fighting caste, a few of them
have the Rajput surnames.
अर्थ यह हैं 'बिहार और बनारस के भूमिहार ब्राह्मण-इस जाति की उत्पत्ति के
विषय में बहुत सी किंवदन्तियाँ हैं। भूमिहार ब्राह्मण स्वयं अपने आपको
पक्के ब्राह्मण कहते हैं और उन ब्राह्मणों के वंशज बतलाते हैं, जिन्हें
परशुरामजी ने क्षत्रियों को मारकर उनकी जगह पर स्थापित किया था। इस देश के
ब्राह्मण और क्षत्रिय उनको हीन दृष्टि से देखते और चुपके से इशारा करते हैं
कि वे लोग ब्राह्मण पुरुष और क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न हुए हैं।
यह भी कहा जाता हैं कि यह जाति उन नीच जातियों के पुरुषों से बनी हैं जो
किसी राजा के मन्त्री की आज्ञा से ब्राह्मण बना दिये गये। क्योंकि उस राजा
ने किसी धार्मिक कार्य के करने के लिए बहुसंख्यक ब्राह्मणों के लाये जाने
की इच्छा प्रकट की थी; परन्तु वह मन्त्री उतने ब्राह्मण न पा सका। परन्तु
ये सब किंवदन्तियाँ भूमिहार ब्राह्मणों की शारीरिक रचना से ही अच्छी तरह
खण्डित हो जाती हैं। क्योंकि देह की बनावट में वे लोग ब्राह्मणों या
क्षत्रियों से किसी प्रकार न्यून नहीं हैं। बहुत से साधारण ब्राह्मणों और
भूमिहार ब्राह्मणों में भेद होने के प्रसिद्ध कारणों में से एक यह भी हैं
कि साधारण ब्राह्मणों का विभाग गोत्रों के ही अनुसार होता हैं, परन्तु
राजपूतों की तरह भूमिहार ब्राह्मणों में भी गोत्र और अवान्तर जाति दोनों के
अनुसार विभाग होता हैं। इसी को देखकर मिस्टर रिजले ने यह नतीजा निकाला हैं
कि भूमिहार ब्राह्मण राजपूतों के वंशज हैं, न कि सच्चे ब्राह्मण। परन्तु
अवान्तर जाति के अनुसार तिरहुत के मैथिल ब्राह्मणों और पंजाब के सारस्वत
ब्राह्मणों में भी ऐसे ही विभाग पाये जाते हैं। अत: इसी पूर्वोक्त कारण से
मैथिल और सारस्वत ब्राह्मण भी राजपूतों के वंशज सिद्ध हो सकते हैं¹A
भूमिहार ब्राह्मण राजपूतों के वंशज हैं, इस कल्पना के मानने में यह भी
बिलकुल ही निर्मूल कल्पना माननी होगी कि कोई भी जाति युद्ध विशारद बनने में
अपने जातीय दर्जे के सम्मुख (विचार से) लजा सकती थी (क्योंकि उसे राजपूत बन
जाना पड़ता)। राजपूत जातियाँ अपनी सिंह, राय और ठाकुर आदि पदवियों का बड़ा
अभिमान रखती थीं। इससे यह कल्पना एकदम असम्भव जान पड़ती हैं कि उनमें से कोई
भी जातियाँ ऐसी मूर्ख हो गयी, जिससे वे एक दल में इसलिए पृथक् हो गयीं कि
उनको ब्राह्मणों को दूबे, तिवारी, चौबे और उपाध्याय इत्यादि पदवियाँ मिलें।
भूमिहार ब्राह्मणों को राजपूत वंशज मानने में यह भी बात माननी होगी कि जो
राजपूत अपने को भूमिहार कहते हैं वे अपनी प्राचीन ही दशा में पुराने
बाशिन्दों की तरह पड़े हुए हैं और ऊँचे दर्जे की कभी इच्छा नहीं करते। साथ
ही, उनके और साधारण राजपूतों के बीच कोई भी अन्तर मालूम करना इसी कल्पना के
कारण कठिन हो जायेगा।
भूमिहार ब्राह्मणों की पदवियाँ विशेषकर वे ही हैं जो उत्तर भारत के अन्य
ब्राह्मणों की। परन्तु वीर जाति होने के कारण उनमें से कुछ लोगों ने
राजपूतों की पदवियों को भी स्वीकार कर लिया हैं।
मुजफ्फरपुर के गजेटियर में मिस्टर एल.एस.एस. ने लिखा हैं कि :
These traditions are not recognized by the Babhans themselves, who claim
to be true Brahmans. According to their own account, they are pure
Brahmans and have been recognized as such from the rest of the Brahmans
only in having taken to cultivation and given up the principal functions
of Brahmans connected with priestcraft, viz officiating as priests in
religious ceremonies, teaching the Vedas, and receiving alm; and they
therefore call themselves Bhumihar Brahmans. They claims that, even at
the present day Maithil Brahmans, who secede from their own community,
are admitted among them on condition that they give up priestly
occupations, and they contend that many of their ceremonies are
performed in the same manners and styles and with the same Mantras as
those of the Brahmans.
अर्थात् ''बाभन इन किंवदन्तियों को स्वयं नहीं मानते और अपने सच्चे
ब्राह्मण होने का दावा रखते हैं। उनके कथनानुसार वे लोग सच्चे ब्राह्मण हैं
और अनादि
¹ वस्तुत: तो सभी ब्राह्मणों में दोनों प्रकार के विभाग पाये जाते हैं,
क्योंकि खैरी के ओझा और पिण्डी के तिवारी ये विभाग तो गोत्र के अनुसार नहीं
हैं और न दुमटिकार इत्यादि ही।
काल से सच्चे ब्राह्मण माने जाते हैं। उनका कहना हैं कि अन्य ब्राह्मणों से
उनका भेद इसलिए हैं कि वे खेती करते हैं और पुरोहिती सम्बन्धी प्रधान
कर्मों को बिलकुल नहीं करते। अर्थात् न पुरोहिती करते, न वेदों को पढ़ाते और
न दान लेते हैं और इसी से भूमिहार ब्राह्मण कहलाते हैं। उनका दावा हैं कि
आज तक भी जो मैथिल ब्राह्मण अपने समाज से अलग होना चाहता हैं वह हमारे समाज
में इस शर्त पर मिला लिया जाता हैं कि वह फिर पुरोहिती नहीं करेगा। वे लोग
यह भी कहते हैं कि हमारे बहुत से कर्म उसी रीति से और उन्हीं मन्त्रों
द्वारा किये जाते हैं, जैसे अन्य ब्राह्मणों के।''
The Right Hon’ble Sir Richard Temple, Bart, M.P., G.C.S.I.E.,D C. L.
.LL. D., F.R.S. Governor of Bombay, Lieutenant Governor of Bengal and
Finance Minister to India Government.(राइट आनरेब्ल सर रिचर्ड टेम्पुल,
बार्ट ने जो बम्बई के गवर्नर, बंगाल के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर और भारत सरकार
के अर्थ सचिव थे), अपनी पुस्तक 'सन् 1880 ई., का भारत वर्ष' (India in
1880) के 111वें और 117वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा हैं :
Higher in the scale are those Brahmans who follow secular pursuits,
apart from their brethern of the priestly orders. Their influence in
landed concerns is comparatively slight in Northern India, but is
considerable in Eastern, western and Central India and almost dominant
in many parts of the country.
The priestly classes are still numerous through out the Empire. The
Hindu priest-hood includes only those Brahmans who follow religious
calling, and not those who are engaged in secular pursuits, though a
certain sanctity is attached to them.
अर्थात् ''प्रतिष्ठा की दृष्टि से वे ही ब्राह्मण बड़े माने जाते हैं जो
दुनिया, कार्य (व्यापार और कृषि आदि) करते हैं और अपने पुरोहित भाईयों से
पृथक् हैं। यद्यपि उनकी जमींदारी उत्तर भारत में कुछ कम हैं, तथापि पूर्व,
पश्चिम और मध्यभारत में अच्छी हैं और देश के बहुत से भागों में तो बहुत ही
प्रबल या अधिक हैं।
पुरोहिती करने वाले भी ताहम बहुत हैं और ब्रिटिश राज्य-भर में फैले हुए
हैं। हिन्दू पुरोहित वे ही ब्राह्मण लोग कहलाते हैं जो केवल धार्मिक काम
किया करते हैं, न कि वे लोग भी, जो दुनियाबी काम करते हैं, जो कि बहुत
अंशों में वे भी पवित्र समझे जाते हैं।
विन्सेन्ट ए. स्मिथ एम.ए. (Vincent A. Smith M.A.) ने 'भारत का प्रारम्भिक
इतिहास' (Early History of India) के 374वें पृष्ठ में लिखा हैं कि :
Occasionally a Raja might be a Brahman by caste, but the Brahman’s
natural place at court was that of minister rather than that of king.
Chandra Gupta Mourya Presumably was considered to be a Kshatriya, his
minister Chanakya certainly was Brahman.
अर्थ यह हैं कि ''कभी-कभी ब्राह्मण भी राजा हुआ करते थे। परन्तु ब्राह्मणों
का राजदरबार में स्वाभाविक कार्य राजा के कार्य की अपेक्षा मन्त्री का अधिक
हुआ करता था। सम्भवत: चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय समझा जाता था, परन्तु
उसका मन्त्री चाणक्य तो अवश्य ही ब्राह्मण था।''
'मीडोज टेलर' (Meadows Taylor) ने अपने 'भारत वर्ष के इतिहास' (A Student
Manual of the History of India) के 24, 47 और 54वें पृष्ठों पर क्रमश: ऐसा
लिखा हैं :
Brahmans who follow the profession of the priesthool only, frequently
hold themselves superior to, and distinct from others, who are soldiers
or merchants, or who have taken themselves to any secular callings for a
livelihood. Hence an immense variety of Brahmanical cases have been
created, which, though in general terms they have not affected the
peculiar sanctity and exclusiveness of their original foundation,
haveyet broken the unity of their order, and reduced its power.
The power of the Brahman priest-hood in all spiritual matters was very
great and they were esteemed holy, as yet they had not adopted secular
employments and lived apart as professions of religion.
At Kanauj, in Oudh, under the hills of Nepal another great Hindu Dynasty
sprang up, or at least materially increased in power during the period
under notice. Their Princes did not join the Boodhist movement, they
were exclusively Hindus and perhaps Brahmans.
It is least certain that they protected vast numbers of Brahmans during
their persecution by the Boodhists; for one of the most numerous of the
Northern Brahmanicl sects is termed Kanaujia. Grants of land were made
to them and they became farmers, as many continue to be. The Kanaujia
Brahmans are not esteemed as of the purest rank by others; the seldom
hold priestly offices, and many of them enter the military service. They
are perhaps, the finest physical race in India and of true Aryan type.
अर्थात् ''जो ब्राह्मण केवल पुरोहिती करते हैं, वे प्राय: अपने को उन
ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और अलग समझते हैं जो योध्दा या व्यापार करने वाले
होते हैं। अथवा जो जीविका के लिए कोई भी दुनिया भी का कार्य करते हैं इसी
से ब्राह्मणों में बहुत से जाति-भेद हो गये हैं, जिनसे गो साधारण तौर पर
उनकी पवित्रता नहीं नष्ट हुई हैं और न उनकी जड़ ही बिगड़ने पायी हैं, तथापि
उनकी एकता नष्ट हो गयी और शक्ति घट गयी हैं।
सभी पारलौकिक कार्यों में पुरोहित का दर्जा बहुत बड़ा था एवं वे लोग पवित्र
समझे जाते थे। और चूँकि अभी तक वे लोग दुनिया भी का काम न करते थे, अत:
केवल पृथक् रूप से पुरोहिती या धार्मिक कार्य ही में लगे रहते थे।
अवध प्रान्त की नेपाली पर्वतों की तराई में कनौज में एक दूसरा बड़ा भारी
हिन्दू वंश उत्पन्न हुआ, अथवा कम से कम उस समय शक्ति सम्पन्न हुआ। उस वंश
के राजे बुद्धधर्म को नहीं मानते थे और वे लोग बिलकुल ही हिन्दू और सम्भवत:
ब्राह्मण थे। कम से कम यह तो निश्चित ही हैं कि उन्होंने बहुसंख्यक
ब्राह्मणों को बौध्दों द्वारा सताये जाने से बचाया। क्योंकि उत्तर भारत के
ब्राह्मणों के बड़े-बड़े दलों में से एक दल कनौजिया भी हैं। उन लोगों को भूमि
दी गयी और वे लोग कृषक हो गये, जैसा कि बहुत से अब तक वैसे ही पाये जाते
हैं। दूसरे लोग कनौजिया ब्राह्मणों को अति उत्तम या सच्चे दर्जे के नहीं
मानते। वे लोग मुश्किल से पुरोहिती करते हैं, और बहुतेरे उनमें से युद्ध का
काम करते हैं। सम्भवत: वे लोग शारीरिक बनावट में सबसे अच्छे और सच्चे
आर्यों के सदृश होते हैं।''
आनरेब्ल माउन्ट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन (Mount Stuart Elephinston) ने अपनी
'हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' (History of India) के 111वें पृष्ठ में लिखा हैं कि
: “A strict Brahmin performing his full ceremonies, would still be
occupied for not less than four hours in the day. But even a Brahman, if
engaged in worldly affairs, may perform all his religious duties within
half an hour. Of the eighty four Gurus (or spiritual chiefs) of the sect
of Ramanuja, for instance, seventy nine were secular Brahmins.”
अर्थ यह हैं कि ''कट्टर ब्राह्मण अपने धार्मिक कार्यों के करने में अब भी
प्रतिदिन चार घण्टे से कम न लगा रहेगा। लेकिन तो भी जो ब्राह्मण सांसारिक
कार्यों में लगा रहता हैं वह आधा घण्टे में ही अपने धार्मिक कार्यों को कर
डालता हैं। दृष्टान्त के लिए रामानुज सम्प्रदाय के 84 गुरुओं में से 79
केवल दुनिया भी का (सांसारिक) ब्राह्मण थे, अर्थात् पुरोहित दल के न थे।''
हिन्दुस्तान के 'इम्पीरियल गजेटियर' (The Imperial Gazetteer of India), जो
आक्सफोर्ड-क्लेरेन्डन प्रेस (Oxford Clarendon Press) में छपा हैं, के
द्वितीय भाग के 315वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखा हैं :
The eleventh and tweilveth centuries were the Golden age of the new
civilization. That civilization was founded partly on the theocracy;
partly on military despotism. The Brahmans were divine by birth. They
sometimes degind to hold the highest offices of state, but their special
business was the pursuits of literature, science and philosophy; and the
Rajput courts vied with each other in the patronage of learning,
Brahmans of low rank were the spiritual guides (purohits) of the people
and even they condescended to act as the priest of the more respectable
and popular deities.
अर्थ यह हैं कि ''ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियाँ (सदियाँ) नवीन सभ्यता के
सत्ययुग थीं। वह सभ्यता कुछ तो दैविक शक्ति और कुछ नवीन सैनिक अत्याचार पर
निर्भर थी। ब्राह्मण जन्म से ही देवता माने जाते थे। वे लोग कभी-कभी राज्य
के सबसे ऊँचे दर्जे पर भी रहते थे, लेकिन उनका प्रधान काम साहित्य, विज्ञान
और दर्शनों का पढ़ना था। विद्या की अभिभावकता या प्रभुत्व के लिए राजपूत
दरबार परस्पर चढ़ा-बढ़ी किया करते थे। हीन दर्जे के ब्राह्मण ही लोगों के
पुरोहित हुआ करते और प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सर्वप्रिय देवताओं के पुजारी भी हुआ
करते थे।''
बस, अब हम वैदेशिक विद्वानों या अंग्रेजी लेखकों के बहुत से वचन लिखकर
ग्रन्थ विस्तार करना उचित नहीं समझते। पाठकों को इतने ही से पता चल गया
होगा कि उन लोगों की सम्मतियाँ इन ब्राह्मणों के विषय में किनती अनुकूल हैं
और यह भी पता लग गया होगा कि यह अयाचक ब्राह्मण समाज के विषय में जो कुछ
मिथ्या आक्षेप इस देश या अन्य देश के लोगों ने किये हैं, उनका खण्डन भी
उन्हीं लोगों ने करके इस बात में 'मियाँ की जूती और मियाँ का ही सिर' वाली
कहावत चरितार्थ कर दी हैं, जिसके लिए अब पृथक् यत्न करने की आवश्यकता ही न
रह गयी। साथ ही, यह भी विदित हो गया कि इस देश के कोई-कोई बाबू लोग जो किसी
अंग्रेजी विद्वान् के लेख के एक अंश को लेकर इस ब्राह्मण समाज पर आक्षेप कर
बैठते हैं वे कितनी भूल करते हैं क्योंकि ऐसे कोई भी आक्षेप नहीं हैं जिनका
खण्डन उसी अंग्रेज विद्वान् या अन्य विद्वानों ने न किया हो। अत: ऐसे
साहसियों को अब इस ग्रन्थांजन से अपने ज्ञानचक्षु को निर्मल कर लेना और
करने का उद्योग करना चाहिए, जिससे भविष्य में ऐसा ही साहस करने से
पश्चात्ताप और निन्दा का भागी न होना पड़े। अन्त के वाक्यों ने यह भी सिद्ध
कर दिया हैं कि पुरोहिती करना हीन ब्राह्मणों का ही काम हैं और था, न कि
श्रेष्ठ और प्रतिष्ठितों का, जैसा कि सभी लोग समझते थे और समझते हैं।
अब सभी विद्वन्मण्डली से बध्दांजलि यही प्रार्थना हैं कि जो कुछ बातें इस
द्वितीय 'कण्टकोध्दार' नामक परिच्छेद में किसी के वाक्यों के खण्डन-मण्डन
रूप से कही गयी हैं। उनका निष्पक्षपात भाव से परिशीलन कर हंसवत् नीर-क्षीर
का विवेक करें और साथ ही यह भी ध्यान रखें कि ये बातें उन विपरीत लेखकों या
अन्य समाज पर आपेक्ष दृष्टि से नहीं लिखी गयी हैं, किन्तु केवल अपने पक्ष
की परिपुष्टि के लिए। जैसा कि मीमांसा भाष्कार श्री शबर स्वामी ने कहा हैं
कि 'नहि निन्दा निन्द्य' 'निन्दयितु' प्र्रवत्ताते, किन्तु
'निन्दितादितरत्प्रशंसयितुम्'। अर्थात् किसी की निन्दा ग्रन्थों में इसलिए
नहीं की जाती हैं कि वह वास्तव में निन्द्य समझा जाये। किन्तु निन्दित
वस्तु से भिन्न वस्तु की प्रशंसा के लिए निन्दा हुआ करती हैं'। इसलिए इसे
आक्षेप समझकर व्यर्थ किसी को दुखी न होना चाहिए। क्योंकि किसी का दिल नाहक
ही दुखाना हमें इष्ट नहीं हैं। और यदि कहीं आपातत: आक्षेप प्रतीत हो तो वह
प्रसंगवश दूसरे लोगों की राय ही होगी, न कि हमारा स्वतन्त्र लेख होगा।
उपसंहार में उस विश्व व्यापक अन्तर्यामी से यही प्रार्थना हैं कि वह अपनी
नैसर्गिक अनुकम्पा सलिल से लोगों की बुद्धि के कालुष्य का संक्षालन कर दे,
जिससे लोग स्वाभाविक रागद्वेष रहित हो और परस्पर भातृभाव की अभिवृद्धि
करें। साथ ही, लकीर के झूठे फकीर न हो तथ्यातथ्य का विचार करें,
निष्पक्षपातभाव का आदर करना सीखें, हमारे इस केवल परोपकारार्थ परिश्रम से
लाभ उठाने का यत्न करें और लाभ उठावें। और इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को भी
ऐसी सुबुद्धि और जागृति को प्रदान करे कि ये लोग अपने वास्तविक पवित्र और
सर्वोत्ताम ब्राह्मण स्वरूप को पहचानकर उसके कर्मों में यत्नशील हो, कल्पित
बाह्य आक्षेपों का मर्दन कर निर्द्वन्द्व बनें और अपने आन्तरिक छिद्रों को
ऐसा दूर करें कि उनका निशान भी न रहने पावे। जिससे इस प्रकार बाह्य कण्टक
और आन्तरिक छिद्रों के हटा देने से स्थायी गुणवान हो इस लोक और परलोक में
देववत् पूजित और प्रतिष्ठित हो।
॥ ¬ शम्॥
इतिश्री ब्रह्मर्षिवंशविस्तरे कण्टकोध्दारो नाम द्वितीयं प्रकरणम्।
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