क्रांतिकारी की कथा
हरिशंकर परसाई
क्रांतिकारी’ उसने उपनाम रखा
था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ, सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही।
मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे-ग्वेवारा का खास भक्त।
कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बातें करता। हमेशा क्रांतिकारिता के
तनाव में रहता। सब उलट-पुलट देना है। सब बदल देना है। बाल बड़े, दाड़ी
करीने से बढ़ाई हुई।
विद्रोह की घोषणा करता। कुछ करने का मौका ढूंढ़ता। कहता- “मेरे पिता की
पीढ़ी को जल्दी मरना चाहिए। मेरे पिता घोर दकियानूस, जातिवादी,
प्रतिक्रियावादी हैं। ठेठ बुर्जुआ। जब वे मरेंगे तब मैं न मुंडन कराऊंगा, न
उनका श्राद्ध करूंगा। मैं सब परंपराओं का नाश कर दूंगा। चे-ग्वेवारा
जिंदाबाद।”
कोई साथी कहता, “पर तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते हैं।”
क्रांतिकारी कहता, “प्यार? हॉं, हर बुर्जुआ क्रांतिकारिता को मारने के लिए
प्यार करता है। यह प्यार षणयंत्र है। तुम लोग नहीं समझते। इस समय मेरा बाप
किसी ब्राह्मण की तलाश में है जिससे बीस-पच्चीस हजार रुपये लेकर उसकी लड़की
से मेरी शादी कर देगा। पर मैं नहीं होने दूंगा। मैं जाति में शादी करूंगा
ही नहीं। मैं दूसरी जाति की, किसी नीच जाति की लड़की से शादी करूंगा। मेरा
बाप सिर धुनता बैठा रहेगा।”
साथी ने कहा, “अगर तुम्हारा प्यार किसी लड़की से हो जाए और संयोग से वह
ब्राह्मण हो तो तुम शादी करोगे न?”
उसने कहा, “हरगिज नहीं। मैं उसे छोड़ दूंगा। कोई क्रांतिकारी अपनी जाति की
लड़की से न प्यार करता है, न शादी। मेरा प्यार है एक कायस्थ लड़की से। मैं
उससे शादी करूंगा।”
एक दिन उसने कायस्थ लड़की से कोर्ट में शादी कर ली। उसे लेकर अपने शहर आया
और दोस्त के घर पर ठहर गया।
बड़े शहीदाना मूड में था। कह रहा था, “आई ब्रोक देअर नेक। मेरा बाप इस समय
सिर धुन रहा होगा, मां रो रही होगी। मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को इकट्ठा करके
मेरा बाप कह रहा होगा ‘हमारे लिए लड़का मर चुका’। वह मुझे त्याग देगा। मुझे
प्रापर्टी से वंचित कर देगा। आई डोंट केअर। मैं कोई भी बलिदान करने को
तैयार हूं। वह घर मेरे लिए दुश्मन का घर हो गया। बट आई विल फाइट टू दी
एंड-टू दी एंड।”
वह बरामदे में तना हुआ घूमता। फिर बैठ जाता, कहता, “बस संघर्ष आ ही रहा
है।”
उसका एक दोस्त आया। बोला, “तुम्हारे फादर कह रहे थे कि तुम पत्नी को लेकर
सीधे घर क्यों नहीं आए। वे तो काफी शांत थे। कह रहे थे, लड़के और बहू को घर
ले आओ।”
वह उत्तेजित हो गया, “हूँ, बुर्जुआ हिपोक्रेसी। यह एक षणयंत्र है। वे मुझे
घर बुलाकर फिर अपमान करके, हल्ला करके, निकालेंगे। उन्होंने मुझे त्याग
दिया है तो मैं क्यों समझौता करूं। मैं दो कमरे किराए पर लेकर रहूंगा।”
दोस्त ने कहा, “पर तुम्हें त्यागा कहां है?”
उसने कहा, “मैं सब जानता हूं- आई विल फाइट।”
दोस्त ने कहा, “जब लड़ाई है ही नहीं तो फाइट क्या करोगे?”
क्रांतिकारी कल्पनाओं में था। हथियार पैने कर रहा था। बारूद सुखा रहा था।
क्रांति का निर्णायक क्षण आने वाला है। मैं वीरता से लडूंगा। बलिदान हो
जाऊंगा।
तीसरे दिन उसका एक खास दोस्त आया। उसने कहा, “तुम्हारे माता-पिता टैक्सी
लेकर तुम्हें लेने आ रहे हैं। इतवार को तुम्हारी शादी के उपलक्ष्य में भोज
है। यह निमंत्रण-पत्र बांटा जा रहा है।”
क्रांतिकारी ने सर ठोंक लिया। पसीना बहने लगा। पीला हो गया। बोला, “हाय, सब
खत्म हो गया। जिंदगी भर की संघर्ष-साधना खत्म हो गयी। नो स्ट्रगल। नो
रेवोल्यूशन। मैं हार गया। वे मुझे लेने आ रहे है। मैं लड़ना चाहता था। मेरी
क्रांतिकारिता! मेरी क्रांतिकारिता! देवी, तू मेरे बाप से मेरा तिरस्कार
करवा। चे-ग्वेवारा! डियर चे!”
उसकी पत्नी चतुर थी। वह दो-तीन दिनों से क्रांतिकारिता देख रही थी और हंस
रही थी। उसने कहा, “डियर एक बात कहूं। तुम क्रांतिकारी नहीं हो।”
उसने पूछा, “नहीं हूं। फिर क्या हूं?”
पत्नी ने कहा, “तुम एक बुर्जुआ बौड़म हो। पर मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।”
एक अशुद्ध बेवकूफ / हरिशंकर परसाई
बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है।
मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा
है, वह सब झूठ है- बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मजा है। यह तपस्या है। मैं
इस तपस्या का मजा लेने का आदी हो गया हूं। पर यह महंगा मजा है- मानसिक रूप
से भी और इस तरह से भी। इसलिए जिनकी हैसियत नहीं है उन्हें यह मजा नहीं
लेना चाहिए। इसमें मजा ही मजा नहीं है- करुणा है, मनुष्य की मजबूरियों पर
सहानुभूति है, आदमी की पीड़ा की दारुण व्यथा है। यह सस्ता मजा नहीं है। जो
हैसियत नहीं रखते उनके लिए दो रास्ते हैं- चिढ़ जायें या शुद्ध बेवकूफ बन
जायें। शुद्ध बेवकूफ एक दैवी वरदान है, मनुष्य जाति को। दुनिया का आधा सुख
खत्म हो जाए, अगर शुद्ध बेवकूफ न हों। मैं शुद्ध नहीं, ‘अशुद्ध’ बेवकूफ
हूं। और शुद्ध बेवकूफ बनने को हमेशा उत्सुक रहता हूं।
अभी जो साहब आये थे, निहायत अच्छे आदमी हैं। अच्छी सरकारी नौकरी में हैं।
साहित्यिक भी हैं। कविता भी लिखते हैं। वे एक परिचित के साथ मेरे पास कवि
के रूप में आये। बातें काव्य की ही घंटा भर होती रहीं- तुलसीदास, सूरदास,
गालिब, अनीस वगैरह। पर मैं ‘अशुद्ध’ बेवकूफ हूं, इसलिए काव्य-चर्चा का मजा
लेते हुए भी जान रहा था कि भेंट के बाद काव्य के सिवाय कोई और बात निकलेगी।
वे मेरी तारीफ भी करते रहे और मैं बरदाश्त करता रहा। पर मैं जानता था कि वे
साहित्य के कारण मेरे पास नहीं आये।
मैंने उनसे कविता सुनाने को कहा। आमतौर पर कवि कविता सुनाने को उत्सुक रहता
है, पर वे कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे। कविता उन्होंने सुनायी, पर
बड़े बेमन से। वे साहित्य के कारण आये ही नहीं थे- वरना कविता की फरमाइश पर
तो मुर्दा भी बोलने लगता है।
मैंने कहा- कुछ सुनाइए।
वे बोले- मैं आपसे कुछ लेने आया हूं।
मैंने समझा ये शायद ज्ञान लेने आये हैं।
मैंने सोचा- यह आदमी ईश्वर से भी बड़ा है। ईश्वर को भी प्रोत्साहित किया
जाए तो वह अपनी तुकबंदी सुनाने के लिए सारे विश्व को इकट्ठा कर लेगा।
पर ये सज्जन कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे और कह रहे थे- हम तो आपसे
कुछ लेने आये हैं।
मैं समझता रहा कि ये समाज और साहित्य के बारे में कुछ ज्ञान लेने आये हैं।
कविताएं उन्होंने बड़े बेमन से सुना दीं। मैंने तारीफ की, पर वे प्रसन्न
नहीं हुए। यह अचरज की सी बात थी। घटिया से घटिया साहित्यिक सर्जक भी
प्रशंसा से पागल हो जाता है। पर वे जरा भी प्रशंसा से विचलित नहीं हुए।
उठने लगे तो बोले- डिपार्टमेंट में मेरा प्रमोशन होना है। किसी कारण अटक
गया है। जरा आप सेक्रेटरी से कह दीजिए, तो मेरा काम हो जाएगा।
मैंने कहा- सेक्रेटरी क्यों? मैं मन्त्री से कह दूंगा। पर आप कविता अच्छी
लिखते हैं।
एक घण्टे जानकर भी मैं साहित्य के नाम पर बेवकूफ बना- मैं ‘अशुद्ध’ बेवकूफ
हूं।
एक प्रोफेसर साहब क्लास वन के। वे इधर आये। विभाग के डीन मेरे घनिष्ठ मित्र
हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझसे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब
वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय
उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।
डीन मेरे यार हैं। कहने लगे- यार चलो केण्टीन में, अच्छी चाय पी जाय। अच्छा
नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाय।
अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।
हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गये कि मैं ‘अशुद्ध’ बेवकूफ
हूं।
कहने लगे- सालों से मेरी लालसा थी कि आपके दर्शन करूं। आज यह लालसा पूर्ण
हुई।(हालांकि वे कई बार मिल चुके थे। पर डीन सामने थे।)
अंग्रेजी में एक बड़ा अच्छा मुहावरा है- ‘टेक इट विद ए पिंच ऑफ साल्ट’-
याने थोड़े नमक के साथ लीजिए। मैंने अपनी तारीफ थोड़े नमक के साथ ले ली।
शाम को प्रोफेसर साहब मेरे घर आये। कहने लगे- डीन साहब तो आपके बड़े घनिष्ठ
हैं। उनसे कहिए न कि मुझे पेपर दे दें, कुछ कांपियां भी- और ‘माडरेशन’ के
लिए बुला लें तो और अच्छा है।
मैंने कहा- मैं ये सब काम डीन से आपके करवा दूंगा। पर आपने मुझे पहचानने
में थोड़ी देर कर दी थी।
बेचारे क्या जवाब देते? अशुद्ध बेवकूफ मैं- मजा लेता रहा कि वे क्लास वन के
अफसर नहीं, चपरासी की तरह मेरे पास से विदा हुए। बड़ा आदमी भी कितना बेचारा
होता है।
एक दिन मई की भरी दोपहर में एक साहब आ गये। भयंकर गर्मी और धूप। मैंने सोचा
कि कोई भयंकर बात हो गई है, तभी ये इस वक्त आये हैं। वे पसीना पोंछकर
वियतनाम की बात करने लगे। वियतनाम में अमरीकी बर्बरता की बात कर रहे थे।
मैं जानता था कि मैं निक्सन नहीं हूं। पर वे जानते थे कि मैं बेवकूफ हूं।
मैं भी जानता था कि इनकी चिंता वियतनाम नहीं है।
घण्टे-भर राजनीतिक बातें हुईं।
वे उठे तो कहने लगे- मुझे जरा दस रुपये दे दीजिए।
मैंने दे दिए और वियतनाम की समस्या आखिर कुल दस रुपये में निपट गई।
एक दिन एक नीति वाले भी आ गये। बड़े तैश में थे।
कहने लगे- हद हो गयी! चेकोस्लोवाकिया में रूस का इतना हस्तक्षेप! आपको फौरन
वक्तव्य देना चाहिए।
मैंने कहा- मैं न रूस का प्रवक्ता हूं न चेकोस्लोवाकिया का। मेरे बोलने से
क्या होगा।
वे कहने लगे- मगर आप भारतीय हैं, लेखक हैं, बुद्धिजीवी हैं। आपको कुछ कहना
ही चाहिए।
मैंने कहा- बुद्धिजीवी वक्तव्य दे रहे हैं। यही काफी है। कल वे ठीक उल्टा
वक्तव्य भी दे सकते हैं, क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं।
वे बोले- याने बुद्धिजीवी बेईमान भी होता है?
मैंने कहा- आदमी ही तो ईमानदार और बेईमान होता है। बुद्धिजीवी भी आदमी ही
है। वह सुअर या गधे की तरह ईमानदार नहीं हो सकता। पर यह बतलाईये कि इस समय
क्या आप चेकोस्लोवाकिया के कारण परेशान हैं? आपकी पार्टी तो काफी नारे लगा
रही है। एक छोटा सा नारा आप भी लगा दें और परेशानी से बरी हो जाएं।
वे बोले- बात यह है कि मैं एक खास काम से आपके पास आया था। लड़के ने रूस की
लुमुम्बा यूनिवर्सिटी के लिए दरख्वास्त दी है। आप दिल्ली में किसी को लिख
दें तो उसका सिलेक्शन हो जाएगा।
मैंने कहा- कुल इतनी-सी बात है। आप चेकोस्लोवाकिया के कारण परेशान हैं। रूस
से नाराज हैं। पर लड़के को स्कालरशिप पर रूस भेजना भी चाहते हैं।
वे गुमसुम हो गए। मुझ अशुद्ध बेवकूफ की दया जाग गयी।
मैंने कहा- आप जाइए। निश्चिंत रहिए- लड़के के लिए जो मैं कर सकता हूं
करूंगा।
वे चले गए। बाद में मैं मजा लेता रहा। जानते हुए बेवकूफ बनने-वाले ‘अशुद्ध’
बेवकूफ के अलग मजे हैं।
मुझे याद आया गुरु कबीर ने कहा था- ‘माया महा ठगनि हम जानी’।
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