सूरदास के पद
भाग 2
राग धनाक्षरी
अजहूँ चेति अचेत
सबै दिन गए विसय के हेत।
तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केस भए सिर सेत॥
आँखिनि अंध, स्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत।
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि-तजि पूजत प्रेत॥
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत।
ऐसौ प्रभू छाँडि क्यौं भटकै, अजहूँ चेति अचेत॥
राम नाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत।
सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत॥
राग सारंग
आछो गात अकारथ गार्यो।
करी न प्रीति कमललोचन सों, जनम जनम ज्यों हार्यो॥
निसदिन विसय बिलासिन बिलसत फूटि गईं तुअ चार्यो।
अब लाग्यो पछितान पाय दुख दीन दई कौ मार्यो॥
कामी कृपन कुचील कुदरसन, को न कृपा करि तार्यो।
तातें कहत दयालु देव पुनि, काहै सूर बिसार्यो॥
राग विभास
मगन हौं भव अम्बुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृस्ना, पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल।
स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥
राग घनाक्षरी
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिसय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥
तृस्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥
राग मलार
अब या तनुहिं राखि कहा कीजै।
सुनि री सखी, स्यामसुंदर बिनु बांटि विसम विस पीजै॥
के गिरिए गिरि चढ़ि सुनि सजनी, सीस संकरहिं दीजै।
के दहिए दारुन दावानल जाई जमुन धंसि लीजै॥
दुसह बियोग अरी, माधव को तनु दिन-हीं-दिन छीजै।
सूर, स्याम अब कबधौं मिलिहैं, सोचि-सोचि जिय जीजै॥
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोस उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥
राग सारंग
आई छाक बुलाये स्याम।
यह सुनि सखा सभै जुरि आये, सुबल सुदामा अरु श्रीदाम॥
कमलपत्र दौना पलास के सब आगे धरि परसत जात।
ग्वालमंडली मध्यस्यामधन सब मिलि भोजन रुचिकर खात॥
ऐसौ भूखमांझ इह भौजन पठै दियौ करि जसुमति मात।
सूर, स्याम अपनो नहिं जैंवत, ग्वालन कर तें लै लै खात॥
राग सारंग
आछो गात अकारथ गार्यो।
करी न प्रीति कमललोचन सों, जनम जनम ज्यों हार्यो॥
निसदिन विसय बिलासिन बिलसत फूटि गईं तुअ चार्यो।
अब लाग्यो पछितान पाय दुख दीन दई कौ मार्यो॥
कामी कृपन कुचील कुदरसन, को न कृपा करि तार्यो।
तातें कहत दयालु देव पुनि, काहै सूर बिसार्यो॥
|
राग सारंग
मुखहिं बजावत बेनु
धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥
राग विभास
जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।
कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥
तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।
रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥
विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।
सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥
राग सारंग
जापर दीनानाथ ढरै।
सोई कुलीन, बड़ो सुन्दर सिइ, जिहिं पर कृपा करै॥
राजा कौन बड़ो रावन तें, गर्वहिं गर्व गरै।
कौन विभीसन रंक निसाचर, हरि हंसि छत्र धरै॥
रंकव कौन सुदामाहू तें, आपु समान करै।
अधम कौन है अजामील तें, जम तहं जात डरै॥
कौन बिरक्त अधिक नारद तें, निसि दिन भ्रमत फिरै।
अधिक कुरूप कौन कुबिजा तें, हरि पति पाइ तरै॥
अधिक सुरूप कौन सीता तें, जनम वियोग भरै।
जोगी कौन बड़ो संकर तें, ताकों काम छरै॥
यह गति मति जानै नहिं कोऊ, किहिं रस रसिक ढरै।
सूरदास, भगवन्त भजन बिनु, फिरि-फिरि जठर जरै॥
राग देस
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥
राग तोड़ी
कौन तू गोरी
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
राग मलार
मिटि गई अंतरबाधा
खेलौ जाइ स्याम संग राधा।
यह सुनि कुंवरि हरस मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा॥
जननी निरखि चकित रहि ठाढ़ी दंपति रूप अगाधा॥
देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा॥
संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढ़ी अगाधा॥
मनहुं तडित घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा॥
निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा॥
सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा॥
सूरदास के पद - भाग 1
सूरदास के पद
- भाग 2
|