मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन द्रविड़ भाई-बहन गंभीर भाव से हिंदी का अभ्यास करने लग जाएँगे। आज अँग्रेजी पर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसनका आठवां हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्ता के जो दरवाजो आज उनके लिए बंद हैं वे खुल जाएँ और वे इस तरह हमारे साथ एक हो जाएँ जैसे पहले कभी न थे। मैं जानता हूँ कि इस पर कुछ लोग यह कहेंगे कि यह दलील तो दोनों ओर लागू होती है। द्रविड़ लोगों की संख्या कम है; इसलिए राष्ट्र की शक्ति के मितव्यय की दृष्टि से यह जरूरी है कि हिंदुस्तान के बाकी सब लोगों के द्रविड़ भारत के साथ बातचीत करने के लिए तालिम, तेलगू, कन्न और मलयालम सिखाने के बदले द्रविड़ भारतवालों को शेष हिंदुस्तान की आम भाषा सीख लेनी चाहिए। यही कारण है कि मद्रास प्रदेश में हिंदी-प्रचार का कार्य तीव्रता से किया जा रहा है।
कोई भी द्रविड़ यह न सोचे कि हिंदी सीखना जरा भी मुश्किल है। अगर रोज के मनोरंजन के समय में से नियमपूर्वक थोड़ा समय निकाला जाए, तो साधारण आदमी एक साल में हिंदी सीख सकता है। मैं तो यह भी सुझाने की हिम्मत करता हूँ कि अब बड़ी-बड़ी म्युनिसिपैलिटियाँ अपने मदरसों में हिंदी की पढ़ाई को वैकल्पिक बना दें। मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि द्रविड़ बालक अद्भुत सरला से हिंदी सीख लेते हैं। शायद कुछ ही लोग यह जानते होंगे कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले लगभग सभी तालीम-तेलगू-भाषी लोग हिंदी को समझते हैं, और उसमें बातचीकर सकते हैं। इसलिए मैं यह आशा करता हूँ कि उदार मारवाड़ियों न मुफ्त हिंदी सीखने की जो सहूलियत पैदा कर दी है, मद्रास के नौजवान उसकी कदर करेंगे-यानी वे इस सहूलियत से लाभ उठाएँगे।
हिंदी का ज्ञान
दक्षिण में हुए हिंदी-प्रचार के ये आंकड़े दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की रिपोर्ट से लिए गए हैं और 1918-1955 के काल में वहाँ हिंदी का जो प्रचार हुआ उसका प्रमाण बतलाते हैं।
(आंकड़े लाख के माने जाएँ)
आबादी पढ़े-लिखों की संख्या हिंदी पढ़े-लिखों की संख्या
आंध्र 203.2 30.4 8.02
तामिलनाडु 277.7 51.8 8.98
केरल 140.1 72.8 14.22
कर्नाटक 228.4 48.7 9.87
तेलंगाना 80.0 13.3 1.36
मद्रास शहर 14.2 4.3 1.75
*अँग्रेजी का ज्ञान
नीचे दिए जा रहे आंकड़े, जो कि 1951 की जन-गणना पर आधारित हैं, राजभाषा कमीशन की रिपोर्ट के पृ.468 से लिए गए हैं।
(आंकड़े हजार के माने जाएँ)
राज्य
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आबादी
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पढ़े-लिखों की संख्या
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अँग्रेजी पढ़े - लिखों की संख्या (मैट्रिक या कोई समकक्ष परीक्षा)
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पढ़े-लिखों में अँग्रेजी पढ़े-लिखों का शतमान
|
कुल आबादी में अँग्रेजी पढ़े-लिखों का शतमान
|
1
|
2
|
3
|
4
|
5
|
6
|
बंबई
|
35956
|
8829
|
458
|
5.19
|
1.27
|
पंजाब
|
12641
|
2039
|
325
|
15.93
|
2.27
|
पश्चिम बंगाल
|
24810
|
6088
|
597
|
9.81
|
2.41
|
अजमेर
|
693
|
139
|
18
|
13.11
|
2.63
|
दक्षिण भारत
मद्रास , मैसूर , त्रावन-कोर-कोचीन और कुर्ग
|
75600
|
17234
|
876
|
5.08
|
1.15
|
मद्रास (आंध्र के विभाजन के बाद)
|
35735
|
7800
|
400
|
5.13
|
1.12
|
आंध्र
|
20508
|
3108
|
165
|
5.32
|
0.81
|
मैसूर (बेलारी तालुके के साथ)
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9849
|
1956
|
136
|
6.94
|
1.38
|
हिंदुस्तान की दूसरी कोई भाषा न सीखने के बारे में बंगाल का अपना जो पूर्वाग्रह है और द्रविड़ लोगों को हिंदुस्तानी सीखने में जो कठिनाई मालूम होती है, उसकी वजह से हिंदुस्तानी न जानने के कारण शेष हिंदुस्तानी से अलग पड़ जाने वाले दो प्रांत हैं-बंगाल और मद्रास। अगर कोई साधारण बंगाली हिंदुस्तानी सीखने में रोज ती घंटे खर्च करे, तो सचमुच ही दो महीनों में वह उसे सीख लेगा; और इस रफ्तार से सीखने में द्रविड़ को छह महीने लगेंगे। कोई बंगाली या द्रविड़ इतने समय में अँग्रेजी सीख लेने की आशा नहींकर सकता। हिंदुस्तानी जानने वालों के मुकाबले अंगेजी जानने वाले हिंदुस्तानियों की सख्या कम है। अँग्रेजी जानने से इन थोड़े से लोगों के साथ ही विचार-विनिमय के द्वार खुलते हैं। इसके विपरित हिंदुस्तान का कामचलाऊ ज्ञान अपने देश के बहुत ही ज्यादा भाई-बहनों के साथ बातचीत करने की शक्ति प्रदान करता है। ...मैं द्रविड़ भाइयों की कठिनाई को समझता हूँ; लेकिन मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम और उद्यम मे सामने कोई चीज कठिन नहीं है।
अँग्रेजी अंतर-राष्ट्रीय व्यापर की भाषा है, कूटनीति की भाषा है, उसमें अनेक बढ़िया साहित्यिक रत्न भरे हैं और उसके द्वारा हमें पाश्चात्य विचार और संस्कृति का परिचय होता है। इसलिए हममें से कुछ लोगों के लिए अँग्रेजी जानना जरूरी है। वे राष्ट्रीय व्यापार और अंतर-राष्ट्रीय कूटनीति के विभाग चला सकते हैं और राट्र को पश्चिम का उत्तम साहित्य, विचार और विज्ञान दे सकते हैं। यह अँग्रेजी का उचित उपयोग होगा। आजकल तो अँग्रेजी ने हमारे हृदयों के प्रिय-से-प्रिय स्थान पर जबरन अधिकार कर लिया है और हमारी मातृभाषाओं को वहाँ से सिंहासन-च्युतकर दिया है। अँग्रेजों के साथ हमारे बराबरी के संबंध न होने के कारण वह इस अस्वाभाविक स्थान पर बैठ गई है। अँग्रेजी के ज्ञान के बिना ही भारतीय मस्तिष्क का उच्च-से उच्च विकास संभव होना चाहिए। हमारे लड़कों और लड़कियों को यह सोचने का प्रोत्साहन देना कि अँग्रेजी जाने बिना उत्तम समाज में प्रवेश करना असंभव है, भारत के पुरुष-समाज के और खास तौर पर नारी-समाज के प्रति हिंसा करना है। यह विचार इतना अपमानजनक है कि इसे सहन नहीं किया जा सकता। अँग्रेजी के मोह से छुटकारा पाना स्वराज्य के लिए एक जरूरी शर्त है।
अगर हम बनावटी वातावरण में न रहते होते, तो दक्षिणवासी लोगों को न तो हिंदी सीखने में कोई कष्ट मालूम होता,और न उसकी व्यर्थता का अनुभव ही होताह हिंदु-भाषी लोगों को दक्षिण की भाषा सीखने की जितनी जरूरत है, उसकी अपेक्षा दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की हिंदी सीखने की आवश्यकता अवश्य ही अधिक है। सारे हिंदुस्तान में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या दक्षिण की भाषाएँ बोलने वालों से दुगुनी है। प्रांतीय भाषा या भाषाओं के बदले में नहीं, बल्कि उनके अलावा एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने के लिए एक सर्व-सामान्यभाषा की आवश्यकता है। ऐसी भाषा तो हिंदी-हिंदुस्तानी ही हो सकती है।
कुछ लोग, जो अपने मन से सर्व-साधारण का खयाल ही भुला देते हैं, अँग्रेजी को हिंदी की बराबरी से चलने वाली हीं नहीं,बल्कि एकमात्र शक्य राष्ट्र्रभाषा मानते हैं। परदेशी जुए की मोहिनी न होती, तो इस बात की कोई कल्पना भी न करता। दक्षिण-भारत की सर्व-साधारण जनता के लिए, जिसे राट्रीय कार्य में ज्यादा-से-ज्यादा हाथ बँटाना होगा, कौन-सी भाषा सीखना आसान है-जिस भाषा में अपनी भाषाओं के बहुतेरे शब्द एक से हैं और जो उन्हें एकदम लगभग सारे उत्तरी हिंदुस्तान के संपर्क में लाती है वह हिंदी, या मुटठीभर लोगों द्वारा बोली जाने वाली सब तरह से विदेशी अँग्रेजी ᣛ?
इस पसंद का सच्चा आधार हमारी स्वराज्य-विषयक कल्पना पर निर्भर है। अगर स्वराज्य अँग्रेजी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए होने वाला हो, तो निस्संदेह अँग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी। लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों का, करोड़ों निरक्षरों का, निरक्षर बहनों काऔर दलितों व अन्त्यजों का हो और इन सबके लिए हो, तो हिंदी ही एकमात्र राट्रभाषा हो सकती है।
यद्यपि मैं इन दक्षिण की भाषाओं को संस्कृत की पुत्रियाँ मानता हूँ, तो भी ये हिंदी, उड़िया, बंगला, आसामी, पंजाबी, सिंधी, मराठी और गुजराती से भिन्न हैं। इनका व्याकरण हिंदी से बिल्क्ुल भिन्न है। इनकों संस्कृत की पुत्रियाँ कहने से मेरा अभिप्राय इतना ही है कि इन सब में संस्कृत शब्द काफी हैं, और जब संकट आ पड़ता है तब ये संस्कृत-माता को पुकारती हैं और नए शब्दों के रूप में उसका दूध पीती हैं। प्राचीन काल में भले ये स्वतंत्र भाषाएँ रही हों, पर अब तो ये संस्कृत से शब्द लेकर अपना गौरव बढ़ा रही हैं। इसके अतिरिक्त और भी तो कई कारण इनको संस्कृत की पुत्रियाँ कहने के है, पर उन्हें इस समय जाने दीजिए।
मैं हमेशा से यह मानता हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को नुकसान पहुँचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिंदी भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वह राष्ट्रीय हाने के लायक है। वही भाषा राट्रीय बन सकती हैं,जिसे अधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो। और इसका कोई ध्यान देने लायक विरोध आज तक सुनने में नहीं आया है।
यदि हिंदी अँग्रेजी का स्थान ले, तो कम-से-कम मुझे तो अच्छा ही लगेगा। लेकिन अँग्रेजी भाषा के महत्त्व को हम अच्छी तरह जानते है। आधुनिक ज्ञान की प्राप्ति,आधुनिक साहित्य के अध्ययन, सारे जगत के परिचय, अर्थप्राप्ति तथा राज्याधिकारियों के साथ संपर्क रखने और ऐसे ही अन्य कार्यों के लिए हमें अँग्रेजी के ज्ञान की आवश्यकता है। इच्छा न रहते हुए भी हमको अँग्रेजी पढ़नी होगी। यही हो भी रहा है। अँग्रेजी अंतर-राष्ट्री भाषा है।
लेकिन अँग्रेजी राष्ट्रभाषा कभी नहीं बन सकती। आज उसका सामाज्य-सा जरूर दिखाई देता है। इसके प्रभुत्व से बचने के लिए काफी प्रयत्न करते हुए भी हमारे राष्ट्रीय कार्यों में अँग्रेजी नचे बहुत बड़ा स्थान ले रखा है। लेकिन इससे हमें इस भ्रम में कभी न पड़ना चाहिए कि अँग्रेजी राष्ट्रभाषा बन रही है।
इसकी परीक्षा प्रत्येक प्रांत में हम आसानी से कर सकते हैं। बंगाल अथवा दक्षिण-भारत के ही ले लीजिएँ, जहाँ अँग्रेजी का प्रभाव सबसे अधिक है। यदि वहाँ जनता के मारफत हम कुछ भी काम करना चाहते हैं, तो वह आज हिंदी द्वारा भले ही न कर सकें, पर अँग्रेजी द्वारा तो कर ही नहीं सकते। हिंदी के दो-चार शब्दों से हम अपना भाव कुछ तो प्रगटकर ही देंगे। पर अँग्रेजी से तो इतना भी नहीं कर सकते।
हाँ, यह अवश्य माना जा सकता है कि अब तक हमारे यहाँ एक भी भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है। अँग्रेजी राजभाषा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। अँग्रेजी का इससे आगे बढ़ना मैं असंभव समझता हूँ, चाहे कितना भी प्रयत्न क्यों नकिया जाए। अगर हिंदुस्तान को हमें सचमुच एक राष्ट्र बनाना है, तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है; क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को कभी नहीं मिल सकता। हिंदू-मुसलमान दोनों को मिलाकर करीब बाईस करोड़ मनुष्यों की भाषा थोड़े-बहुत फेरफार से हिंदी-हिंदुस्तान ही है।
इसलिए उचित और संभव तो यही है कि प्रत्येक प्रांत में उस प्रांत की भाषा का, सारे देश के पारस्परिक व्यवहार के लिए हिंदी का और अंतर-राष्ट्रीय उपयोग के लिए अँग्रेजी का व्यवहार हो। हिंदी बोलने वालों की संख्या करोड़ों की रहेगी,किंतु अँग्रेजी बोलने वालों की संख्या कुछ लाख से आगे कभी नहीं बढ़ सकेगी। इसका प्रयत्न भी करना जनता के साथ अन्याय करना होगा।
(इंदौर में सन् 1935 में हुए हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के 24वें अधिवेशन में अध्यक्ष-पद से दिए गए गांधीजी के मूल हिंदी भाषण से।)
हिंदुस्तानी हमारी राष्ट्रभाषा है या होगी, ऐसी घोषणा यदि हमने सच्चाई के साथ की हैं, तो फिर हिंदुस्तानी की पढ़ाई अनिवार्य करने में कोई बुराई नहीं है। इंग्लैंड के स्कूलों में लैटिन सीखना अनिवार्य था और शायद अब भी। उसके अध्ययन से अँग्रेजी के अध्ययन में कोई बाधा नहीं पड़ी। उलटे, इस सुसंस्कृत भाषाके ज्ञानसे अँग्रेजी की समृद्धि हुई है।'मातृभासा खतरे में है'ऐसा जो शोर मचाया जाता है, वह या तो अज्ञानवश मचाया जाता है या उसमें पाखंड है। और जो लोग ईमानदारी से ऐसा सोचते है, उनकी देशभक्त पर-यह देखकर कि वे बच्चों द्वारा हिंदुस्तानी सीखने के लिए रोज एक घंटा दिया जाना भी पसंद करते-हमें तरस आता है। अगर हमें अखिल भारतीय राट्रीयता प्राप्त करनी है, तो हमें इस प्रांतीयता की दीवार को तोड़ना ही होगा। सवाल यह है कि हिंदुस्तान एक देश और राष्ट्र है या अनेक देशों और राष्ट्रों का समूह हैᣛ?