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कविता संग्रह

द्विजेश दर्शन

द्विजेश

अनुक्रम

अनुक्रम 1. वंदना     आगे

गणपित वंदना

1

श्रीगणपति शुभ लग्‍नपति, नित निमगन पति वेश।
तन मनपति, धनधान्‍यपति, निधिपति निरविधनेश।।
निधिपति निरविधनेश, क्‍लेश को शेप न राखौ।
लखि 'द्विवेज उद्देश्‍य, विशेषहिं शुभ फल भाखौ।।

गद्य-गद्य को पेखि, लेख-लेखनि के बनि पति।
दै सुपंथ गति ग्रंथ, सुधारो हे श्री गनपति।।

 2

जिन इंक रद के द्विरद, अंगजो दुढंग सों।
आनन-कानन द्विरद, विरद वन खुर सुरंग सों।।
जेहिं एकहिं नहिं मातु, मातु द्वै दुहूँ दुरूप: की।
इक जो न कहुँ विलगाति, गात सों इक अनूप की।।

अस गिरि दौहित्र 'द्विजेश' जिन, तिन धनि गिरा गिरा सों किन।
किन धनि गिरजा माता सों तिन, गिरि जामाता जात जिन।।

3

जिन एकै एकदंत, कंत दसहूँ दिगंत के।
शुभ गुन तें गुनवंत अमित आँनद अनंत के।।
अरुन रंग सों अंग, तरुन त्रैगुन तरंग सों।

विघ्‍न विनासक ढंग, उदित प्रमुदित अभंग सों।।

अस नियम नीति सुत पसुपनी, को 'द्विजेश' धनि किन गुनय।
जेहि पद सुर मुनि गिरि जात नय, धनि अस किन गिरजा तनय।।

4

जंगल मैं जन के करै मंगल,
    देव के दंगल मैं पिल्‍यौ पेख्‍यो।।
दंत में जाके दिगंत 'द्विजेश',
    जिन्‍हैं सत संत अनंत उलेख्‍यो।।
है तो निरांकुश पै त्रिकुशांकुश,
    मंत्र महावत सों यों परेख्‍यो।।
मातु के गोद प्रमोदमयी,
    गज सिंह चढयो पय पीवत देख्‍यो।।

वाणी-वंदना 

1

जो पै तू सरस्‍वती जो सारस्‍वती शक्तिसार,
    विद्यादान मान की जो शोभा-मार-दा तुही।।
अक्षर की तू ही जन्‍त्र, मन्‍. तू ही मात्रन की,
    पद की स्‍वतंत्रता तें अर्थागार - दा तुही।।
वाच्‍य-ध्‍वनि वाचक त्‍यों लक्षक दुलक्षणा की,
    व्‍यंजक सों व्‍यंजना की अभिसार - दा तुही।।
यों 'द्विजेश' विद्या-बुद्धि सार दा विशारदा तू,
     सब जग सार दों तू मैया सारदा तुही।।

2

धन्‍य एक तू ही जो अनन्‍य देव देविनि मैं,
    जाते नाम तौ सरस्‍वती को सुमिरा नहीं।।
गान गुन गात, छेम-छत्र, छन्‍द छात्रन को,
    तेरो प्रेम पात्र ह्वै भयो है कोऽस्थिरा नहीं।।
वीना सों प्रवीना, ग्रंथ त्‍यागिबो कभी ना,
    जाके श्रौन हेतु घेरयो कौन तेरो मन्दिरा नहीं।।
अंगिरादि नारद जो धन्‍य-धन्‍य की गिरा सों,
    मातु गिरा को तौ कंज, पद पै गिरा नहीं।।

दुर्गा स्‍तुति 

1

अस देव की न शक्ति मैं तू आदि शक्ति,
काके भाव भक्रि मैं न भक्र तेरो जुरिगा।।
कार्य मंगलै न तेरी मूर्ति मंगल, वो-
नाम मंगला हूँ ते अमंगल ना मुरिगा।।
कहे काली नाम कुदिन कुकालं, जो-
'द्विजेश' हैं सुकाल ततकाल ना बहुरिगा।।
तिहारी नाम देवि दुरगा तौ भजे,
दुरगति दुर्ग सों न काको दु:ख दुरिगा।। 

2

जगजननि जग मैं जु पुत्र जेते,
आनत जुगन ते हैं जेते देव औ मुनी।।
व मंडली मैं प्रगट्यों कुपुत्र, कुत्र
हों तजि तौ अलम्‍ब, अंब क्‍यों कहा गुनी।।
वै मोहिं तोहिं अनगन गन मोसों,
'द्विजेश' पगन तजौं तो जानि का पुनी।।

चेते जब मैया तैं न चेते,
लुनी कुपुत्र केते पै कुमाता कहूँ ना सुनी।। 

3

जो पै हौं कपूत पूत एक जगदंब तेरो,
    तो पै दुखदंब मेरो क्‍यों नहीं दुराबैगी।।
छाड़ि सब काम धाम छोह सों जपौं मैं तोहिं,
    मोह करि मों पै छोह छाँह कब छावैगी।।
दरसन-प्‍यास तो 'द्विजेश' की बुझैगी तबै,
    जबै मातु सुधा सों सरूप दरसावैगी।।
पाप को कहर जाको जहर बढ़ोई जात,
    कृपा की लहर अंबे अघकब आवैगी।।

4

पातक प्रचंड जोपै दुरत दुराए नाहिं,
    कै के रारि तोपै आज गजब गुजारिहों।।
ह्वै के निसंक हंक दैकरि कहत तोसों,
    लंक धरि तेरो पुनि पटकि पछारिहों।।
चलु जगदंब द्वार देखैं तो तरंग तेरी,
    हौं 'द्विजेश' तेरो अंग-भंग करि छाड़िहों।।
एरे पाप दगाबाज अंब की कृपा की आज,
    करिकै कृपान तोहिं कीमा करि डारिहों।।

5

जैसे-जैसे दीनन कौं दुखतें दुराई मैया,
    देखै तू 'द्विजेश' दुख मेरो कहा कम है।।
हरियो विपत्ति कछु नीतिह नहीं है नई,
    मैया द्वार रावरे सदा की या रसम है।
ज्ञान-मुक्रि दैया, भवसिन्‍धु ते वचैया, अध
    भसम करैया तेरे पाँय को भसम है।
ऐसी ह्वै, न अंब जौलों काटै मों न दुख दंभ,
    तौलों जगदंब तोहिं संभु की कसम है।।

6

छाड़ि जग मग मोहिं जाय कयों विलग बैठी,
    देख रग रग मेरे छाई रंकताई है।।
देत हौं सुनाईं जौन सो तू ना करति औन,
    मौन बनि बैठी मानों कब की रिसाई है।
जातें तू रिसाई जानि पाई सो 'द्विजेश', सुत-
    जाइबे कों मोसों जो तू स्‍वारथैं न पाई है।।
सुरा की कमाई माई लेति है क माई,
    तू हूँ क्‍यों न लेति माई मेरे पाप ही कमाई है।

7

विपति कथा मैं कही जैसी मातु, तेरे सौंहँ,
     आज लों 'द्विजेश' वैसी काहू सों बढ़यों नहीं।।
जाँचना कियो जो जौन, पाई सो तुरत तौन,
    मोसों यह चकू ना जो तोकों मैं तक्‍यों नहीं।।
आपनो समस्‍त रिपु छिन मैं तु पस्‍त कीनी,
    मैं ही शत्रु पातकैं पछारि पटक्‍यों नहीं।।
मातु-पूत-नात जो हमारों औ तुम्‍हारो, तब-
    शत्रु जो हमारो सो तुम्‍हारो शत्रु क्‍यों नहीं।।

8

आयो आज कहन 'द्विजेश' अंब तोसों कछू,
    मेरी करनी पै जगदंब जू न जाइए।।
करनी पै जाइए तो जाइए जरूर ही, पै-
    हूक-चूक चाकर की चित मैं न लाइए।
चित मैं जो लाइए तो लाइए कृपा की कोर,
    और पौर पायकैं न मैंया जू पठाइए।।
पौर जो पठाइए तो आपने ही नाह-पौर,
    दामन लगाय मोंपै दाग ना लगाइए।।

महावीर-महिमा

1

जय जय श्री हनुमन्‍त, कृपानिधि कृति अनंत के।
प्रबल बुद्धि बलवंत, जो एकै दस दिगंत के।।
अरुन रंग सों तरुन, अंग तांत्रिक तरंग सों।
विकट वीर बजरंग, अचल अंच्‍युत अभंग सों।।

हे प्रभु 'द्विजेश' मैं भजि तुम्‍हें, भय भंजन के काम सों।
जेहि तें तौ पद अभिराम प्रद, पेखि सु करत प्रनाम सों।।

2

जिन अद्भुत अद्वितीय, तीय बिनु अनुज-तनुज के।
सुर मनुजहिं सुमतीय, नेकु नहिं मीत दनुज के।।
अंजनि जनिन सों जन्‍य, मन्‍य मारुत मन रंजन।।
रंजन भुज आजानु, भानु भक्षक जिमि व्‍यंजन।।

अवलोकि 'द्विजेश' त्रिलोक जेहिं, दै तिहुँ काल प्रमान इमि।
भूतो न भविष्‍यत अस कोऊ, वर्तमान हुनमान जिमि।।

3

जिन एकै इक दूत, पूत जिन पितु अनेक के।

लै सँग प्रकृति प्रभूति, बूत-बल एक एक के।।
केसरि-कुल के कलस, पौन-सूत बीर वदन के।।
पंच बदन सुप्रनीत, मीत नेकहुँ न मदन के।।

जेहि दैत्‍याति दल के दलन हित, दईं निरदई कै दयी।
तेहि अनुज रूप रामहिं दई, अनुजायी जायी जयी।।

4

हे श्री हनुमत रौद्र, रूप अनुरूप रुद्र के।
अंजुलि-जल सों जानि, पार भए जल समुद्र के।।
जिमि दै मुद्रिक किसे सुखी, सिय के दोउ लोचन।
तिमि 'द्विजेश' दुख-दोष, हेतु प्रभु तो दुखमोचन।।

हरि-लखन हेतु जिमि लखन के, भे चिरजीवन यंत्र सों।
तिमि हो स्‍वतंत्र मम आन हित, महा मृत्‍युंजय मंत्र सों।।

5

कुल-कपीस, हे केसरि-नंदन।
-कंद, 'द्विजेशहिं' क्‍लेश-निकंदन।।
अनाथ अंग, अरु पंगु रूप को।
ऊँ दरस, तिहारे गढ़ अनूप को।।

द्रूति सों सुनै, मों प्रतिनिधि जो नित्‍य को।
इक आपने, दास विक्रमादित्‍य को।।

6

क अनन्‍य, धन्‍य भगवंत भक्ति के।
कारक्‍त, प्रकृति गायत्रि शक्ति के ।।

व गृह-ग्राम, काम हरद्वार धाम के।
अभिराम, पात्र कनखल मुकाम के।।

अनुमती, मौनबनी जो नित्‍य को।
सरनागती, पेखि विक्रमादित्‍य को।।

7


कह भच्‍छते सुभानु, भए बन्‍दर जु बदन के।
कह उजारते लंक, जारि लंकेस-सदन के।
कँह लै संग सुखेन, सृगह गिरि सिर के भार सों।
कह लेते सुधि सीय, पार ह्वै निधि अपार सों।
अस करि 'द्विजेश' कारज कठिन, रहि जाते केहि काम के।
होते न दूत प्रिय पूत-सम, जो श्री हनुमत राम के।।

8

जो पै जननी के अंजनी के ढंग अंजन सों-
अंजि तिन्‍हें, केसरी हूं संजि सुख सोते ना।
ह्वै कै कवि जाति जो न होते बात- जात-
हू तौ, बातों बात ही मैं निधि पार सियैं जोते ना।
संकर-सुवन ऐसे अभय भयंकर हैं,
हंक लंक दैकै यो लँकेस ख्‍याति खोते ना।
यातें जो न होते यों जनक जननी के जात,
तो जनक जामातैं, सु जय जनक होते ना।

9

जैसे आप बन्‍दर-बदन रघनंदन के-
दास, तैसो मोकों दास आपनो गुनीजिए।।
जैसे संग लै सुखेन लाये थे लखन हेतु,
त्‍यों सुखेन ही सों सुख मोकों आनि दीजिए।।
जैसे मातु भूमिजा की लीनी सुधि -
तैसे, मातु भूमिजा सों जीवनी मों ताकी सुधि लीजिए।।

मंदर समुन्‍दर सों पाप ताप तासों पार,
बन्‍दर सों सों ही को कलन्‍दर सों कीजिए।।

 


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