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कविता संग्रह

द्विजेश दर्शन

द्विजेश

अनुक्रम 4. श्रृंगार पीछे     आगे

नेत्र वर्णन

1

अति ही अनोखे चंचला सों चंचलित चोखे,
    पोखे से 'द्विजेश' जो दृंगचल मैं घेरे हैं।।
वे चरन बारे जन बीच विचरन बारे,
   ही चरन बारे जासु केते चख चेरे हैं।।
तरुन तरंग रंग अरुन अहेरी ढंग,
   भौंह धनु संग तीर त्‍योर लै तरेरे हैं।।
कानन से कानन लौं चारी चंद आननी तौ,
   अजब कुरंग ये कुरंग नैन तेरे हैं।।

2

बै तो बन राजैं इत बदन बिराजैं नित,
   वै 'द्विजेश' भाजैं ये न भाजैं नित नेरे हैं।।
उनके तो गात इनके न गात बिलगात,
   जान्‍यो नहिं जात कौन जाति मृग केरे हैं।।
उनके अहेरी जन, जन के अहेरी इतो,
   हे री बीर ले री जानि यों विचार मेरे हैं।।
कहे को कुरंग पै कुरंग वे न काहू संग,
   कहैं जो कुरंग तो कुरंग नैन तेरे हैं।।

 

मुख वर्णन

जोबन जिले मैं कुच कंचुकी किले के बीच,
   भूपति जिले सों मिले एकै रूप रंग के।।
नीति निरवारक निवारक अनीति ऐसी,
   काजकारी कै 'द्विजेश' द्वैकर प्रसंग के।।
   मुख विकसौंह नासा भौंह त्‍यौर तिरछौंह,
घेरे नैन घूँघट यों कातिल कुढंग के।।
   मनहुँ ससी के अंग कीर धनु तीर संग,
कीनो कैद है कुरंग मुख मैं तुरंग के।।

नासिका वर्णन

बन धन भूषन अभूषन बदन भूमि,
   पूषन अनंग के तापय अंग ऐठो है।।
पंख तें अडोल ग्रीव संख मधूकैं कपोल,
   त्‍यों अमोल कुचन 'द्विजेश' द्वै कठैठो है।।
मोती गुन्‍ही बेसर अधर बिंबी केसर पै,
   आसा नासा घूँघट गुफा मैं इमि पैठो है।।
मनहुँ कपाली पीर ह्वै के मुक्‍तमाली कीर,
   लाली के लकीर को फकीर बनि बैठो है।।

नख शिख 

पग अरविंद मैं गयंद की दिखैहै गति,
   कटि मैं मृगेंद्र रंभ खंभ दै सवारी को।।
कुच मैं दिखै है गिरि ग्रीव में कपोत तैसो,
   मुख ससि नासा कीर केस अहिकारी को।।
देखो चलि तो 'द्विजेश' ती-तन तमासे बलि,
   बाजीगरी मैन के विचित्र चित्रकारी को।।
दृग मैं दिखैहै मृग मृग मीन कंजन मैं,
   कंजन दिखैहै दोय खंजन खिलारी को।।

2

बन तन ती के घन भूषन सघन बीच,
   विचरे विरागी संग एक ही न द्वै रहे।।
दृग मृग बानक भयानक भुजंग बेनी,
   मंद-मंद सुगति गयंदनि तें ग्‍वै रहे।।
मध्‍य उर ऊरुन के अंक मैं न लंक देखि,
   तातें द्वै उरोजहिं 'द्विजेश' इमि ज्‍वै रहे।।
ब्रह्म सों लखे न लंक ताके ज्ञान गहिबे को,
   दोऊ दृग दास द्वै दिगंबर के ह्वै रहे।।

क्रिया विदग्‍धा मुसकान

पद कंच पै खरी ह्वै कंज कानन सी,
   कंजाननी कानन लौं दोय कंज धारै है।।
हर कंज तापै उरज दुकंज जो -
   'द्विजेश' कंचुकी मैं कर कंज सों सुधारै है।।
रस कंजनि के कैंधों चोरि या निचोरि,
   कीने मिसी मिस मिसकी के यों बगारै है।।
अरविंदन के रसिक मरिंद सौंह,
   चंद मंद मंद मकरंद बिंदु ढारै है।।

अभिसारिका

1
अनंग के रसीली भरी रति रंग,
   अंग अंग आँनद उमंग भरि लावै है।।
मन सरोजैं दै उरोजनि पै यों 'द्विजेश',
   मानों मौज संभु तें मनौज को मिलावै है।।
निकलंक तें सुचोटी चारु लोटी लंक,
   चलत छवा लौं उछलत यों झुलावैं है,
मंद गति के गयंद चलिवे कों बेगि।।

2

लक्षण

दोहा

हस्‍त नखत ऋतु सरद मँह, उत्तर दिसि मँह जोय।
यहि विधि खंजन दरस तें, तुरत लाभ तिय होय।।

3

रूपक

सारी स्‍वेत सरद विभूषि धन भूषन यों,
   सुगति गयंद ज्‍यों नखत बरसाती है।।
अंचल अकास त्‍यों हिमंचल कुचन दोय,
   घूँघट 'द्विजेश' दिसि उत्तर दिखाती है।।
भौंह सौंह पलक सजाल चख डोरैं लाल,
   क्रम उपमा सों पियैं लाभ यों लखाती है।।
भासे द्वै कमां से पिंजरन गाँसे फाँसे मनों,
   खासे खंज दोय दरसैबे हेतु जाती है।।

आगमिष्यति पतिका

लंक लचकीली निकलंक जो मयंक मुखी,
   पौढ़ी परजंक आस अंक मैं बिठाई-सी।
इमि दृग अंज मानो मीन मृग कंज खंज,
   नाक सुक भ्रू, धनु तैं संजि इकठाई सी।
चोटी की सुचोटी चारु लोटी लटकति ऐसी,
   लौटी सी 'द्विजेश' गुन्‍हीं ग्रंथनि गठाई सी।
मानों इंदु पास मैं पियुष हूँ की प्‍यासी हुनी,
   आई पन्‍नगी है पन्‍नगेस की पठाई सी।

खंडिता

जासों के बिहार धारि हार अनुहार हिए,
   करि मनुहार ताको संग ही न लाये क्‍यों।
भावक तिलक तापै पाय पद जावक सों,
   पावक लै ताको पुनि पग ना जराए क्‍यों।
अधर मधूक बिष अंजन सों दीनो फूँकि,
   गालन मधूक लाले थूक सों थुकाए क्‍यों।
जोये किन मुकुर न धोये खोये गात चिन्‍ह,
   रात के न सोये प्रात ही सों उठि आए क्‍यों।।

प्रोषित पतिका

आवनि अवधि वद्यो आदि मनभावन को,
   बिरह नसावन जो सावन सुअंत को।।
दूसरी अवधि मिति माह सित पंच माहिं,
   थिति तिथि सों 'द्विजेश' कथित कहंत को।।
अब दिन रैन मैन दहत बहत नैन्‍,
   सहत बनै न ऐन रहत एकंत को।।
कैधों भए संत कै कपाली कला कीनी कंत,
   कै भए हेमन्‍त भूले कै सुख वसंत को।।

प्रवरुयत् पतिका

रोके तें रुकोंगे नहीं काह बदि रोकूँ तुम्‍हें,
   किंकरी हूँ कैसे कहूँ तुम मत ह्याँ तें जाब।।
जाते हो तो जाव होय सफल बिदेस तुम्‍हें,
   पै 'द्विजेश' जीवन की जुक्रि तो बताते जाव।।
जैही जब प्रान प्रान जायगो तुरत त्‍यों ही,
   याहु हेतु मेरो मन मत मुरझाते जाव।।
जानै नहीं ऐहो कब साँवरे हमारे, यातें-
   नीकी द्वैक तान बाँसुरी के तो बजाते जाव।।

पावस वर्णन प्रवास हेतुक

अन धन कैसी धन घारत धमंड घोर,
   जनु बिष बोरि बान बूँ‍दनि बुताएँ री।
अनिल अराति इंदु राति ह्वै अनल कैसी,
   चितहिं चिता सों देति चंचला चेताएँ री।
देति सखि जीहनितें जी हनि पपीहनि त्‍यों,
   तीहनि को तोर मोर मद सों मताएँ री।
हुमन सुमन अति सौरभ सताएँ देत,
   ताएँ देति ललित लबंग की लताएँ री।।

वचन विदग्‍धा

पथ की थकी हूँ मनमथ के अरथ की ना,
   मथ की मटूक भरी है 'द्विजेश' लखि ले।
छलकी परत यातें हलकी करन चाहौं,
   छल की कहूँ ना भल की है चहो चखि ले।
जैहों अबै ऐहों पुनि सौंह तेरे तेरी सौंह,
   करै ना रिसौंह भौंह मेरी या परखि ले।
मानत नहीं जो तो जमानत में जानि कान्‍ह,
   मेरी आँग आँगी तू अमानत में रखि ले।

मुद्रालंकार

दोहा

1

पंचानन सूकर अबी, तेंदुआ रीछ लुलाय।
मारजार है लोमरी गज बकरी हरि गाय।।

2

कुत्ता केहरि सूकरैं, हरिना मेंख लुलाय।
मारजार है लोमरी गज बकरी हरि गाय।।

3

नकुल गोपती कूकरी, हरना रीछ बिलाय।
बाजी रासथ केहरी, गज बकरी हरि गाय।।

मानिनी उक्‍त सखी

जाको जग पूत जिन काहू के न पूत,
   तिन्‍हें तौ सुहाग ही ने देवकी को पूत री की है।
देवकी ही पूत का 'द्विजेश' सो ह्वै नंद पूत,
   पूत कैसो पूतनैं सविष पूत री की है।
एती विधि पूत ह्वै जु जाने तोंहिं पूतरी लौं,
   तासों फेरि पूतरी क्‍यों ऐसी तू तरी की है।
ऐसे नंद पूत की न पूतरी पै पूतरी तौ,
   तोसों नीक पूतरी पखान पूतरी की है।
पुन:
जाको तब तीह कहि पी पी भई ज्‍यों पपीह,
   ताके अस ग्रीह सोई जीह तू तरी की है।
ह्वै के जिन पीव तेरी ग्रीव सों लगायो ग्रीव,
   तासों वक्र ग्रीव तेरी ज्‍यों कबूतरी की है।
यातें तजि मान यामैं तेरोई है अपमान,
   जाको यों प्रमान तौ 'द्विजेश' पूतरी की है।
जो पै नंद पूत की न पूतरी पै पूतरी तौ।
   तो सों नीक पूतरी पखान पूतरी की है।

वसंत वर्णन

दौरे पै नए ऋतु के द्रुमन सुमन दौरे,
   बौरे अंब बैरी ह्वै वियोगी बनितान के।
जरनैल ज्‍यों अनार करनैल कचनार,
   सुमन कनैल कला कीने कपतान के।
झुण्‍डन के झुण्‍ड ये 'द्विजेश' लाले मुंडन के,
   पुलिस पलास लाव लीने यों लतान के।
बान्हि अबलान प्रान कीबे को चलान-
   मानों हुकुम एलान है वसंत सुलतान के।

2

सेना लै समीरन को बिहरै सँकारे साँक,
   बौरे अंब बीरन के बीच बिचरत है।।
जंगी सी फिरंगी फौज फूले कुसमन देखि,
   संगी ह्वै 'द्विजेश' सो न तासों सकरत है।
गैल-गैल जरनैल सुमन गुलाबैं पेखि,
   पहरे पुलीस के पलासैं ना डरत है।
डटि बन बागन मैं डंका दै बसंत बीर,
   डाँटि द्रु म-डा‍रनि पै डाका यों परत है।।

होरी वर्णन

1

आज हरि होरी होर कै 'द्विजेश' कुंजनि मैं,
   ढीठ ज्‍यों बधिक दीठि ईठि इठलावै है।।
अलक लतान तन बन बनितान बीच,
   तानि तानि नैन पिचकारी यों मिलावै है।
मारि मारि नैननि पै नासा मुख बैननि पै,
   कंठ कुच कठि पै जु लाल रंग लावै है।
मनहुँ कुरंग कीर कोकिल कपोत कोक,
   केहरी पै कान्‍ह ताकि तुपक चलावै है।।

2

जीवन को विधि जन्‍म जन्‍म विधि जीवनी सों,
   जीवन को जेबन विधी है दुहूँ काल की।
जेबन की विधि अन्‍न अन्‍न विधि जीवन सों,
   जीवन को पीवन विधी है अंग पाल की।
अंग विधित्‍यों अनंग पति पतिनी के संग,
   संग विधि फाग है 'द्विजेश' नव साल की।
काग विधि खेलिबो खिलैबो मचलैबो संग,
   मेलिबो मलैबो मुख गरद गुलाल की।

3

माची धूम धाम की धमार ब्रजधाम बीच,
   धौंसे की धमाक लौं मृदंग डफताल की।
जैसी ये अहीर सेन वीर बलवीर जी की,
   त्‍यों 'द्विजेश' ब्रजरानी संग ब्रजबालकी।
चलि चलि झोलभि त्‍यों कुमकुम गोलनि सों,
   मार पिचकारी चली तुपक सुचाल की।
जैसी रन भूमि की गरद तैसी छाई तहाँ,
   खालन पै बालन पै गरद गुलाल की।

उद्धव को गोपियों का उत्तर

1

ऊधो कब आए कहो ह्वाँ की तो हवाल खैर,
   कैसी रही होरी बा 'द्विजेश' संग जोरी की।
कैसो रह्यो खेलिबो खेलैबो उन दोउन मैं,
   कैसो रह्यो मेलियो मलैबो मुख रोरी को।
नाते सों उन्‍हीं के कछु नातो हमहूँ सों राखि,
   बोलो इतना तो धर्मराशि मों निहोरी को।
मो पै रंग होरी तुम देखो हुतो खूब,
   कहो कूब कुबजा पै रह्यो कैसो रंग होरी को।

2

जैसो कै विहार गए ब्रज सों हमारे स्‍याम,
   वैसो उत कैसो जो न संग ब्रज गोरी को।
ना उत कलिंदी कूल ना कदंब अनुकूल,
   कंत सुख मूलहू न ठौर ही ठगोरी को।
क्‍यों न इत आते रहि जाते दिन चार ही लौं,
   देखि जाते होरी वृषभानु की किसोरी को।
अंग कूब जाके ऐसे संग कुबजा के, कौन-
   ढंग उपजा के वे रचेंगे रंग होरी को।

3

बिन वे बिहारी ह्वै बिहारी सों बसंत आज,
   होरी के निहोरें तन होरी सों जराबै है।
केसर कुसुम छबि गेरि नद नैननि मैं,
   भरि भरि नीरनि सुरंग यों घुरावै है।
सारी ब्रजनारिन की सारी सराबोर करि,
   ब्रज- रज तपित अबीर सों उड़ावै है।
मार पिचकारी मारि करि अधमार ऊधो,
   मारि मारि अधम धमार यों मचावैं है।

4

कंत बिन जीवन हमारो धिक जीवन है,
   भल बिष पीवन लै ग्रीवें ब्‍याल माल की।
केसर के रंग ये 'द्विजेश' विप के सर सों,
   पीरी सरसों या पीर साली नट साल की।
होरी के जरे पै तन होरी लौं जरैहै सखी,
   रोरी सों गहै है लखें रोरी रंग लाल की।
गरद मिली मैं एक साँवरे मरद बिना,
   भूमि की गरद मोंको गरद गुलाल की।

5

धन्‍य तब उधो प्रेम ज्‍यों ऋतु सिसिर हेम,
   पूछिबो कुसल छेम मानों धन घेर की।
तामैं जोग को सँदेस कुदिन कुहेस रूप,
   जो सिसिर वृष्टि कैसो संख्‍या ओ सबेरा की।
ऐसा स्रमदाता देखि दाता सपतनीक दोऊ,
   सुख-सुखमा के संग उपमा दुमेर की।
दृश्‍य दम्‍पती सों जैसो संपति सुमेर तैसो,
   कूबरी के कूंबर मैं संम्‍पत्ति कुबेर की।

6

देखो जाय बृज तो व्‍यथित दिन पावस यों,
   विज्‍जु ना तड़पि तड़पाती पावसैं तहाँ।।
मोर चुप चोर दादुरै हूँ चमगादर ज्‍यों,
   झिल्‍ली ना झनकि छिपकिल्‍ली रूप सों वहाँ।
कूक बिन कोयल सुफूँकि बक पंख तैसे,
   जोति जुगनू हूँ बिन पंख ह्वै रहे जहाँ।।
ऐसो पेखि पूछत पपीहा वृषभानुजा सों
   ब्रज तजिकै गए तिहारे प्रान पी कहाँ।

7

जाके कहे जोग हमें करिबो कहत कान्‍ह,
   जानती हूँ ताको यों जवाब जिय आनू मैं।
कहि दीजो ऊधो कान्‍ह कुबजा दुहूँ ते यही,
   याके हेतु चिंता ना छिनके मन मानू मैं।
लैले उन्‍हें कैले सुख दैले बिंदुली हूँ चहो,
   पै 'द्विजेश' याही पै सँतोष अनुमानू मैं।
कोऊ जो कहैगो तो कहैगो सदा राधाकृष्‍ण,
   कुब्‍जा कृष्‍ण काहू सों कहाय ले तो जानू मैं।।

8

या तन हमारो सो विक्‍यो है उनहीं तें सदा,
   छाड़ि गए उनकी सु जोगावलि थाती मैं।
जोपै करुँ जोग तो असुभ उन्‍हीं पै होत,
   पाय यों अजोग तातें भस्‍म ना रमाती मैं।
कैसे मरुँ मन मैं बसत मनमोहन वे,
   याही तें 'द्विजेश' हूँ तो विष नहिं खाती मैं।
जरि जाती अब लौं जरुर बिरहानल मैं,
   जो पै अँसुआन की झरी न झर लाती मैं।

9

कहियो सँदेस ऊधो उत उन कान्‍ह जू तें,
   छाए जो बिदेस सो 'द्विजेश' दुख यों दई।
तन यों तपाती करताती अँगुरीन ऐसी,
   बाती सी जरति तातें पाती ना लिखी गई।
हूँ तो जहाँ जाती तहाँ उनकी जु सुधि आती ,
   फटि जाती छाती बा बिछोहैं जो भई छई।
देहुँ दोष काको हा लिखी थी विधि गति ऐसी,
   नाथ जू के आछत अनाथ की दसा भई।।

10

ऊधो समय सावन जो झूलन-झुलावन को,
   सुखद सुहावन सो दुखद घरी-घरी।
होरी के जरे पै तन होरी लौं जरनि ऐसी,
   जाके बिन जारे ही सु जाती मैं जरी-जरी।
भादों कृष्‍ण जन्‍म अष्‍टमी हूँ को 'द्विजेश' जोय,
   सोचि सोचि बा दिन सों जाती मैं मरी-मरी।
येती समै पी बिन पपीह कैसो पीपी कहि,
   पिहुँकति हूँ मैं परजंक पै परी-परी।।

11

हो जु ऊधो सूधो मन कै बताओ तुम्‍हीं,
   यों अजोगता सों कहो जोग कौन जोबैगो।
आधे सों वियोग जो असाध बिरहानल को,
   तो सुसुप्‍त निद्रा को समाधि मैं को सोबैगो।
चित को निरोध ह्वै है कहा समबोध,
   क्रोध वो विरोध कुबजा पै कौन खोबैगा।
इन प्रानिन के प्राननि के प्रान तब,
   ऐसे बिन प्रान प्रानायाम कैसे होबैगो।


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