मीर तक़ी 'मीर'
ग़ज़लें
33.
चलते हो तो चमन को चलिये कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम कम बाद-ओ-बाराँ है
रंग हवा से यूं ही टपके है जेसे शराब चुआते है
आगे हो मैख़ाने को निकलो अहद-ए-बादा गुसाराँ है
कोहकन-ओ-मजनूं की ख़ातिर, दश्त--ओ-कोह में हम न गये
इश्क़ में हमको "मीर" निहायत पास-ए-इज़्ज़त-दारॉं है
34.
दिल से शौक़-ए-रुख़-ए-निकू न गया
झाँकना - ताकना कभू न गया
हर क़दम पर थी उसकी मंज़िल लेक
सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया
सब गये होश-ओ-सब्र-ओ-ताब-ओ-तवाँ
लेकिन अय दाग़ दिल से तू
न गया
हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे
उनको देखा तो ख़ुदा याद आ गया
दिल में कितने मसौदे थे वले
एक पेश उसके रू-ब-रू न गया
सुब्ह गर्दा ही 'मीर' हम तो रहे
दस्त-ए-कोताह ता सुबू न गया
35.
दुश्मनी हमसे की ज़माने ने
कि जफ़ाकार तुझसा यार किया
ये तवह्हुम का कारख़ाना है
याँ वही है जो ऐतबार किया
हम फ़क़ीरों से बेअदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया
सद रग-ए-जाँ को ताब दे बाहम
तेरी ज़ुल्फ़ों का एक तार किया
सख़्त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
36.
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है
गोर किस दिल-जले की है ये फलक
शोला इक सुबह याँ से उठता है
खाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा
कोई ऐसे मकां से उठता है
नाला सर खेंचता है जब मेरा
शोर इक आसमान से उठता है
लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ
इक आशोब वां से उठता है
सुध ले घर की भी शोला-ऐ-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है
बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तेरे आस्तां से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब दिल - ए - नातवां से उठता है
37.
न दिमाग है कि किसू से हम,करें गुफ्तगू गम-ए-यार में
न फिराग है कि फकीरों से,मिलें जा के दिल्ली दयार में
कहे कौन सैद-ए-रमीद: से, कि उधर भी फिरके नजर करे
कि निकाब उलटे सवार है, तिरे पीछे कोई गुबार में
कोई शोल: है कि शरार: है,कि हवा है यह कि सितार: है
यही दिल जो लेके गड़ेंगे हम,तो लगेगी आग मजार में
38.
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना
ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना
ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं की मुहरें
ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना
गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन
है दुशवार काँटों से दामन बचाना
करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी
प 'मीर' अब नहीं आयेगा वो ज़माना
39.
नहीं वसवास जी गँवाने के
हाय रे ज़ौक़ दिल लगाने के
मेरे तग़ईर-ए-हाल पर मत जा
इत्तेफ़ाक़ात हैं ज़माने के
दम-ए-आखिर ही क्या न आना था
और भी वक़्त थे बहाने के
इस कुदरत को हम समझते हैं
ढब हैं ये ख़ाक में मिलाने के
दिल-ओ-दीन, होश-ओ-सब्र, सब ही गए
आगे-आगे तुम्हारे आने के
|
40.
नाला जब गर्मकार होता है
दिल कलेजे के पार होता है
सब मज़े दरकिनार आलम के
यार जब हमकिनार होता है
जब्र है, क़ह्र है, क़यामत है
दिल जो बेइख़्तियार होता है
41.
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है
आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है
चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-किनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छिपा
यानि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
तश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
42.
बात क्या आदमी की बन आई
आस्माँ से ज़मीन नपवाई
चरख ज़न उसके वास्ते है मदाम?
हो गया दिन तमाम रात आई
माह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-बाद सभी?
उसकी ख़ातिर हुए हैं सौदाई
कैसे कैसे किये तरद्दद जब
रंग रंग उसको चीज़ पहुँचाई
उसको तरजीह सब के उपर दे
लुत्फ़-ए-हक़ ने की इज़्ज़त अफ़ज़ाई
हैरत आती है उसकी बातें देख
ख़ुद सरी ख़ुद सताई ख़ुदराई
शुक्र के सज्दों में ये वाजिब था?
ये भी करता सदा जबीं साई
सो तो उसकी तबीयत-ए-सरकश
सर न लाई फ़रो के टुक लाई
'मीर' नाचीज़ मुश्त-ए-ख़ाक अल्लाह
उन ने ये किबरिया कहाँ पाई ?
43.
बारहा गोर दिल झुका लाया
अबके शर्ते-वफ़ा बजा लाया
क़द्र रखती न थी मताए-दिल
सारे आलम को मैं दिखा लाया
दिल कि यक क़तरा-ए-ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया
सब पे जिस बार ने गिरानी की
उसको यह नातवाँ उठा लाया
दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी ख़ाक में मिला लाया
अब तो जाते हैं बुतक़दे ऐ ‘मीर’!
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
44.
बेकली बेख़ुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं
दर्द अगर ये है तो मुझे बस है
अब दवा की कुछ एहतेयाज नहीं
हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन
मर्ज़-ए-इश्क़ का कोई इलाज नहीं
शहर-ए-ख़ूबाँ को ख़ूब देखा मीर
जिंस-ए-दिल का कहीं रिवाज नहीं
मीर तक़ी 'मीर'
- 4 |