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दिल्ली : शहर दर शहर

पंकज राग

Pankaj Rag पंकज राग
पंकज राग
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कविता
दिल्ली : शहर दर शहर


जन्म

:

30 अक्टूबर 1964, मुजफ्फरपुर, बिहार

भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कविता, इतिहास, पुरातत्व, फिल्म इतिहास     
प्रमुख कृतियाँ :

कविता संग्रह : यह भूमंडल की रात है,
फिल्म इतिहास : धुनों की यात्रा
पुरातत्व : Vintage Madhya Pradesh, 50 years of Bhopal as capital,  Masterpieces of Madhya Pradesh 
इतिहास  : Relics of 1857 : Madhya pradesh, 1857 : The Oral Traidition
संपादन : रायसेन का पुरातत्व, राजगढ़ का पुरातत्व, मंदसौर का पुरातत्व

सम्मान

:

मीरा स्मृति पुरस्कार,  केदार सम्मान, स्पंदन सम्मान

संपर्क

: बी-3,  सिविल लाइंस, प्रोफेसर्स कॉलोनी, भोपाल
टेलीफोन : 91-7697429992

ई-मेल

: pankajrag2006@yahoo.co.in
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दिल्ली : शहर दर शहर

 

खुश हो लें कि आप दिल्ली में हैं

खुश हो लें कि आप मर्कज में हैं

बिना खतों के लिफाफों में

आपके पते बहुत साफ नहीं

फिर भी आप मजमून बना लेंगे

क्योंकि आप दिल्ली में हैं।

आँखों की पुतलियों पर ठहरती नहीं है दिल्ली

हाथ के आईने में रुकते नहीं हैं लोग

फिर भी, दिल्ली जब जब बुलाती है लोग दौड़े चले आते हैं।

सवाल कई उठते हैं

क्या दिल्ली एक आवाज है

क्या दिल्ली की गलियाँ पुकारती हैं ?

क्या दिल्ली की रातों में आत्माएँ भटकती हैं ?

दिल्ली, जो हमेशा से शहर कहलाती रही

वह कहीं टिकती क्यों नहीं ?

यह हमेशा की बेचैनी कैसी ?

बार बार इलाके बदलने की यह कैसी उत्कंठा ?

बदलते मौसमों का यह शहर

क्या पिघलते मौसमों का भी शहर रहा है ?

जवाब सीधे नहीं हैं,

सीधे जवाब गलत हो जाएँगे

वैसे ही जैसे दिल्ली भी कई बार गलत हो चुकी है

उसका इतिहास गलत हो चुका है

उसके ख्वाब फिर गलतियाँ कर रहे हैं

यह भूल कर कि

फतह और शिकस्त के जाहिराना सिरों के बीच भी

कितनी ही बूँदों ने लगातार टपक कर जगह तलाशी है

इन जगहों का कोई तूर्यनाद नहीं हुआ

पर वे स्वप्नचित्र भी नहीं

सैकड़ों वर्षों से उन जगहों पर वक्त चला है,

दिन ढले हैं,

तकलीफ में भी नींद मौजूँ रही है

और सुबहें कभी कभी सादिक की तरह धुली धुली भी लगी हैं।

उन्हीं जगहों पर इबादत हुई है, खुदा को कोसा भी गया है

होड़ में लोग दौड़े हैं, हताशा में मन बैठा भी है

फख्र भी रहा है, कोफ्त भी हुई है

शगल भी रहे हैं, बीमारी भी

फरामोशी भी हुई है, वफादारी भी।

बदलते इलाकों में भी यह सब बदस्तूर जारी रहा है

जैसे जन्म और मृत्यु

और उनके बीच कायदों से बँधती, उसे तोड़ती

कभी झूलती, कभी झुलाती

पूरी की पूरी जिंदगी।

दिल्ली को खोजना है तो ऐसी जगहों पर भी जाना होगा

शहर सिर्फ महामहिम नहीं, बहुत से मामूली लोग भी बसाते हैं

दिल्ली, शहर दर शहर, सिर्फ निगहबानों की नहीं

इंसानों की भी कहानी है।

[1]

सूरजकुंड को बने हजार बरस बीत गए

जब वह बना उस वक्त भी बीत चुका था बहुत कुछ

और दूर हो गए थे मौर्य काल के पहले से चली आ रही बसाहटों के अवशेष।

यह अरावली के उत्तर की हवा थी

जिसे तोमर वंश ने अपने गुणगान के लिए रोक रखा था

यह पगडंडियों का जमाना था

जिनके पास पगड़ियाँ थीं

उनके पास रास्ते थे

रास्तों पर तिलक, चंदन, पूजा और मंदिर की शोभा थी

लगान और लगाम से कसी हुई भीड़ थी

जो सूरजकुंड के पास बने सूर्य मंदिर में बहुत कुछ माँगा करती थी

वही सूर्य मंदिर जो अब नहीं है

धूल और मिट्टी, पत्थर और द्रव्य

कुछ बहे, कुछ रहे

जो उड़े उनके पास टोलियाँ थीं

जो पिसे उनके पास घोंसले थे

लाल कोट का पत्थर लाल था

पर चौहानों के आगे पीला पड़ गया

लड़ना व्यावहारिक था, इसलिए धर्म भी था

लाल और पीले टीके चलते रहे

पृथ्वीराज के किला राय पिथौरा में भी जीतना शुभ था

और शुभ ईश्वर था।

समुद्र नहीं था, जानने की ख्वाहिश भी नहीं थी

ख्वाहिशें पगड़ियों के रंगों में सिमटी थीं

और उनसे बाहर जो कुछ भी था

वह तुच्छ था, वह कर्मों का फल था।

वैसे बच्चे उस वक्त भी कहानियाँ सुन कर सोते होंगे

कुछ बेचारे यूँ भी सो जाया करते थे

उनका बचपन सच था कहानी नहीं

सुनने का शौक बड़ों को अधिक था

खास तौर पर अपनी कहानियाँ

जिनका झूठ भी सत्य था

और सत्य हमेशा वीर था।

ऐसी कहानियाँ सुनानेवाले हर सदी में रहते और पनपते हैं

अरावली की हवावाली उस दिल्ली में भी फूले फले चारण और भाट

- पृथ्वीराज की तलवार और ढाल

संयोगिता का रूप बेमिसाल

मुहम्मद गोरी का आतंक

या चंदबरदाई की प्रशस्ति

- इन सब का आप जो चाहें मतलब निकाल सकते हैं

लेकिन आपके सभी मतलब अधूरे ही रहेंगे

क्योंकि गोरी के गुलाम सुल्तान बने पर उनके भी गुलाम थे

कवातुल इस्लाम मस्जिद बनी पर उसके खंभे मंदिरों के थे

कुतुब मीनार ने सर उठाया पर चंद्रगुप्त का लौह स्तम्भ भी खड़ा रहा।

वे तुर्की के मुसलमान ही थे

चाहे कुतबुद्दीन ऐबक हो, या अल्तमश

या फिर गैर-तुर्की गुलाम से प्यार करनेवाली

और तुर्की चहलगानी से लड़नेवाली रजिया हो

पर दिल्ली न हिंदू थी न मुसलमान

वह उसी राजसी खेल के नए पैंतरे देखनेवाली दिल्ली थी

जो इजलास में हँसी मजाक की पाबंदगी पर हैरान भी होती थी और फिर

खुदा की परछाईं बने बल्बन पर

पीछे पीछे हँस भी लेती थी

जो नस्ली अभिजात्य के बड़बोलेपन से खौफजदा भी थी

और तुर्की अमीरजादों को सजदा और पैबोस में झुका देख

अपना डर थोड़ा कम भी कर लेती थी

जो मेवाती लुटेरों के डर से मुक्ति पा कर राहत की साँस भी भरती थी

और हलाकू के पोते के साथ आए हजारों मंगोलों के

शहर में बसने से आक्रांत भी हो जाती थी।

पगड़ियाँ बदलने लगी थीं

बाँधने के तरीके भी

आदमी किसी और आदमी को देख रहा था

आदमी किसी और आदमी से लड़ रहा था

और आदमी किसी और आदमी से मिल भी रहा था

आदमी और कुछ और आदमी मिल कर बना रहे थे

मिले जुले आदमी

यह भी एक जिंदगी थी

जो तमाम राजसी खेलों के समानांतर बड़ी तेजी से चल रही थी

और दिल्ली जी रही थी।

[2]

सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह चल रहा था

और वहीं बाहर की कार पार्किंग में एक स्विस महिला के साथ बलात्कार

भीड़ अंदर थी, बाहर सन्नाटा था

और वैसे भी दिल्ली की भीड़ ऐसे मौकों पर अलग ही पाई जाती है

वह जल्दी टोकती नहीं

वह चलती है, चलने देती है

उसे अचरज भी नहीं होता

जैसे उस दिन भी नहीं जब अलाउद्दीन खिलजी ने कुतुब छोड़

अपनी राजधानी सीरी को बनाया।

नई जगह थी, नए अमीर थे

तुर्की अमीरजादों की कमर तोड़ कर और बुलंद था शाही फरमान

विरोध मना था, षडयंत्र पर नजर थी

हौजखास से जमातखाना मस्जिद तक फैला था शहर

इमारतों के गुंबद अब और चौड़े थे

अमीर उमरा के नस्ली आधार की तरह

लेकिन सीरी में दरख्तों के बीच जगह कम थी

अमीरी का फैलना शक में डालता था

शायद इसलिए दिल्ली में दावतें खुशनसीब नहीं थीं।

दिल्ली को अभी बहुत कुछ देखना था

अभी तो साम्राज्यवाद का पहला डंका था

जो मलिक कफूर के साथ दक्कन तक बजा

अब कुल का नहीं ताकत और लूट का अभिजात्य था

जिसके आगे जौहर में जल गए कुलीनता के ढोए तकाजे

पता नहीं अलाउद्दीन ने किसी पद्मिनी को देखा भी या नहीं

पर रणथंभोर और चित्तौड़ ने देख लिया इस नए तेवर की दिल्ली को

जिसकी इमारतों में मंगोल कारीगरों ने पहली बार

पद्म की कलियाँ बनायी थीं

और बनाए थे सच्चे मेहराब

बिना यह समझे कि उसके ऊपर बैठा था हुकूमत का एक ऐसा सच

जो लूटता था पर बाँटता नहीं

जो हिस्सा माँगने पर मंगोलों का खून पानी की तरह बहा सकता था

और उस पानी को अपने हौज-ए-खास में इकट्ठा कर

दिल्लीवालों को पिला सकता था।

साम्राज्यवाद चाहे छुपा हो या बेबाक

मध्यकालीन हो या नवीन

उसकी जड़ों में कहीं न कहीं पोशीदा रहता है बाजार।

मानो दिल्ली से निकली सेनाओं के हुजूम में बैठे थे तीन जादूगर

- अलाउद्दीन के बनाए तीन बाजार

लगान को बढ़ा कर गल्ले की शक्ल दी गई

इस शक्ल को मुकद्दमों से बदल कर

दोआब के नए आमिलों की कठोर भंगिमा दी गई

और इस शक्ल को सीधी वसूली से पाला पोसा

एक ऐसा वयस्क शरीर दिया गया

जिसके आगे बच्चों की तरह मचलती कीमतों ने दम तोड़ दिया।

यह सामंतवादी साम्राज्यवाद की हुंकार थी

जहाँ घोड़े और गुलामों के दाम भी बँधे थे

और विदेशी कपड़ों का सलीका भी नियंत्रित था

जहाँ सैनिक और अमीर अभी वैसी पहाड़ी नदियाँ थे

जो घाट तोड़ नहीं पातीं

और जहाँ बरनी अमलदारी के अहाते में वजू के लिए हौज की तलाश में

गंगा जमुना को देख नहीं पाता था

लेकिन गंगा भी बह रही थी और जमुना भी

दोनों के पानी से अलग अलग भी स्वर निकलते थे

और साथ साथ भी

अमीर खुसरो की हिंदवी की तरह

जो कभी रबाब के हल्के तरंगों पर

ऐमन और सनम जैसी फारसी रागदारियों के साथ

महफिलों की शमादानों को जलाती थी

तो कभी बिल्कुल अपनी सी बन कर

निजामुद्दीन औलिया और बख्तियार काकी के इर्द गिर्द फैले

तमाम जातियों और मजहबों के हुजूम को

प्रेम का मधवा पिलाती थी।

पनघट की डगर अभी भी कठिन थी

और कई पहेलियाँ समझ में भी नहीं आती थीं

फिर भी मटकियाँ जमुना से भरी जा सकती थीं

रात में थक कर लौटने के लिए घर सलामत थे

जिनके अंदर जिहाले मिस्कीं मकुन तगाफुल की दिल्ली

नैना जुड़ाती थी और बतियाँ बनाती थी।

 

[3]

दिल्ली की धूप

हमेशा से तीखी

जैसे हर इच्छा, आकांक्षा, विश्वास या सनक के पीछे एक जीवंतता हो।

पहले दिल्ली की गर्मी में चिपचिपाहट नहीं थी

जो भी था वह ठोस ठोस था

जैसे तुगलकाबाद को छोड़ बनाया गया मुहम्मद बिन तुगलक का जहाँपनाह

धूसर पत्थरों की किलानुमा इमारतों का सिलसिला

वही खुरदुरापन इतना ज्यादा

कि ढलानवाली दीवारों के बावजूद सुल्तानी दंभ फिसले नहीं।

इसका कोई तुक नहीं कि मुहम्मद तुगलक के जहाँपनाह

की दीवारों के दक्षिण में आज आई.आई.टी. की इमारत है

अतीत की नीरसता और भविष्य की यांत्रिकी के बीच

एक सीधी रेखा खींचने पर लोग एतराज करेंगे

यंत्रचलित विश्व आगे भागता है पीछे नहीं

और गियासुद्दीन तुगलक के मकबरे को भले ही

दारुल अमन का नाम दे दिया गया हो

पर उससे उसके मौत की दुर्घटना शांत नहीं हो पाई।

मध्यकालीन दिल्ली थी

अफवाहों की गलियाँ थीं

आज की तरह ही बढ़ा चढ़ा कर सच बताने की दलीलें

होड़ कम पर विश्वास अधिक

तब सतपुल के नीचे पानी ठहरा नहीं था

और निजामुद्दीन औलिया के ‘अभी दिल्ली दूर है' के कथन की चर्चा

आक्रांत भी करती थी और रोमांचित भी

सूफियाना कव्वालियों की मदमस्ती की तरह

वह एक अलग दुनिया थी

वह भी दिल्ली थी

वहाँ एक दूसरा जहाँपनाह था

उसके मुरीद थे, उसके गरीब थे

जो खुदा को रोज छूते थे, उसमें मिल जाते थे

मिलने की खुशी में अमीर हो लेते थे

पर उसके बाद फिर से गरीब थे

अँधेरा था, फिर भी रोशन थी चिराग दिल्ली।

मालवीय नगर से कालकाजी जानेवाली सड़क पर

शाम के धुँधलके में चलने भर से

उस जमाने की दिल्ली की पर्तें खुलती जाएँगी, ऐसा भी नहीं है।

पर्तें ही सीधी कहाँ होती हैं

और धूसर इमारतों का धुँधलके में मिल जाने का खतरा

तो हमेशा से ही रहा है।

मुहम्मद तुगलक सूफी नहीं था

पर उसके योगियों और जैनियों से मिलने पर

उसे यौक्तिक और तार्किक कह कर गालियाँ कइयों ने दीं

दिल्ली से हटा कर देवगिरि को अपनी राजधानी बना कर

दौलताबाद नाम देना यदि राजनीति थी

तो दिल्ली के अफसरान, बड़े लोगों और खुदा से मिलनेवाले सूफियों को

दिल्ली छोड़ उस अनदेखे दौलत की ओर

जबरन ले चलने पर मजबूर करने को

जुल्म की शक्ल दी गई।

बड़े लोग तब भी दिल्ली नहीं छोड़ना चाहते थे

पर विचारों का तिलिस्म बनानेवाले वे ही तब भी थे

शायद इसीलिए इतिहास में कैद नहीं है

दिल्लीवालों के लिए इतने सारे सूफियों के जाने का अफसोस या

बड़े बड़े लोगों से विमुक्त उनकी राहत भरी साँस।

सूफियाना हवाएँ दक्कन पहुँचीं या मुहम्मदी फतह कांगड़ा पहुँची

इससे उन्हें क्या

उनकी अनुभूतियों की चादर अभी भी उनकी अपनी थी

और वैसे भी दिल्लीवालों को दिल्ली से बाहर कुछ दिखा ही कब है!

होती रहे चाँदी की कमी दुनिया में,

उनकी कल्पना की दिल्ली तो खुद चाँदी थी

यह चाँदी थोड़ी धूमिल हो सकती थी

बहुतेरे सूफियों के जाने के मलाल से

या दौलताबाद से पानी की कमी के कारण लौटे अमीर उमरा को ले कर

पर इसका रसूख मस्तिष्क की कई तहों तक फैला था

इसीलिए जहाँपनाह के काँसे के सिक्के चल नहीं पाए।

कुछ बरस बाद भी जब मौत की प्लेग चल निकली

और तुगलक बादशाह भी दिल्ली छोड़ स्वर्गद्वारी चल पड़े

तो भी दिल्ली बैठी नहीं,

मर कर जिंदा हुई उसी जहाँपनाह में

और उसी वक्त जब दोआब में फसल सुधार का सुल्तानी प्रयोग

करों की क्रूर संरचना के कारण दम तोड़ रहा था।

ढाँचा तो नहीं बदला

पर कभी कभी शाम के उसी ढलान पर

बिना बामुलाहिजा होशियार

दिल्ली जीतती रही।

[4]

तुम मुझे फीरोजी बना दो

दिल्ली की उस मध्यमवर्गीय लड़की ने अपने पास बैठे लड़के से कहा

कोटला फीरोजशाह के स्लेटी खंडहरों के बीच

उस लड़के का उत्तर फँस सा गया

फिर इन दोनों की कहानी का कुछ नहीं हुआ

वैसे ही जैसे फीरोजाबाद का भी कुछ न हो सका

मानो कुलीनों और उलेमा को मनाते मनाते थक कर

फीरोजशाह शिकार पर निकल गया हो

शहर से दूर - जोर बाग और करोलबाग में

वहीं जहाँ कुलीन बसते हैं और जहाँ कुलीन नहीं बसते हैं।

फीरोजाबाद में ही कुलीनता वंशानुगत हुई

फीरोजाबाद की औरतों को फकीरों की मजारों पर जाने की मनाही हुई

फीरोजाबाद के सिपाहियों को तनख्वाह नहीं, गांवों की लगान का हक मिला

और फीरोजाबाद के घोड़ों को ताकत से नहीं रिश्वत से तौला गया

पर हौजखास से पीर गैब तक फैले इस शहर में हवा फिर भी बहती रही

सिर्फ जमुना के किनारे से निकाली नहरों के पास ही नहीं

बल्कि खैराती अस्पतालों, मदरसों

और सरकारी दहेज से ब्याही विपन्न बेटियों के पास भी।

फिर चीजों के दाम कम थे,

इसलिए मुफलिसी भी पल ही गई

वैसे देखा जाए तो इससे हवा को क्या फर्क पड़ता

कि फीरोजशाह ने उलेमा से डर कर

अपने महल की चित्राकरी खुद खुरचवा दी

या कि फीरोजशाह की बनवाई इमारतों से

अधिक सराही गईं बेगमपुरी और खिड़की मस्जिद जैसी

उसके वजीर खान-ए-जहान जूनां शाह की सात मस्जिदें

पर दिल्ली को हमेशा फर्क लगा है

खुशामदगी के उलझते धागों को दिल्ली

न कभी सुलझा पाई और न बाँध ही पाई

वह बस फीरोज की तरह कुतुब मीनार की मंजिलें बढ़वाती रह गई।

जिस अशोक स्तंभ को फीरोज शाह ने

अंबाले से ला कर कुश्क-ए-फीरोज में लगाया

उसका रंग तो और भी स्याह था

एक लाख अस्सी हजार गुलामों को छू कर बहते बहते

हवा भी फीरोजी न रही

और अंदर ही अंदर सीझते शहर की मौत तक शिकारगाहें भी पस्त हो चली थीं।

फीरोज अपनी मुश्किलों के साथ हौजखास में दफ्न हुआ

कोटला फीरोज शाह की आलीशान जामी मस्जिद में नमाज सशंकित सी रही

वही मस्जिद जिसके खंडहरों में बैठे जोड़ों की कहानी आज भी आगे नहीं बढ़ पाती

दिल्ली उन्हें ठुकराती नहीं

पर बेसलीके ही सही उनकी उलझनों को किनारे कर

समय आते ही आगे निकल जाती है।

[5]

वह छोटी सी थी पर उसे भूलिएगा नहीं

- अठकोण और चौकोर मकबरों की दिल्ली को

सय्यद और लोदी सामंतों की दिल्ली को

तैमूर की रूह के ऊपर धड़कती उस दिल्ली को

जो शहर बनते बनते रह गई।

मुबारकाबाद की गलियों की दबी दबी पदचापों की तरह

जिंदगी फिर भी चलती है।

शिल्पकारों के बिना, कारीगरों के बिना भी

पेड़ फल फूल लेते हैं

बेलें और पत्तियाँ बगीचे बना देती हैं

शाखों के बीच से तब भी झाँका ही था दिल्ली का छोटा आकाश

अफगानी सल्तनत की चुनौतियों, अभिराधन, शमन और दमन के बीच

फिर भी झलकती ही रही वही पुरानी हिंदुस्तानी जहाँदारी

ऐसी झलकों के सहारे ही पुख्ता रही हैं शाखें

खरक, केंदु, अशोक और महुए की तमाम गंधों के साथ

जिनके बीच दिल्ली आज भी लोदी गार्डेन में टहलने जाती है।

[6]

पुराने किले में कम भीड़ रहती है

जिन्होंने पांडवों की तलाश वहाँ कर ली, उनके कदम भी चुक गए

जिन्होंने प्रगति के साथ मैदान जोड़ा वे दोनों को ही ढूँढ़ रहे होंगे

शायद अंततः वे अप्पूघर और चिड़ियाघर को खोज कर खुशी भी जाहिर कर दें

वैसे भी नाम में क्या रखा है

यहाँ हुमायूँ का शहर था दीनपनाह जो अब नहीं है

जब था तब भी क्या वह दीन की पनाह था

या जहाँपनाह की मुगलाई शान का एक मजमा

जिनके साथ अपने तख्त के सहारे हुमायूँ गणित और रहस्यवाद का खेल खेलता था।

वैसे भी उसके पत्थर सीरी के वही पुराने खिलजी पत्थर थे

जिनकी जड़ें कमजोर थीं

इतनी कि हुमायूँ की पूरी शानोशौकत ढह गई

और जब वापस आई

तब तक शेरशाह तो न था,

पर उसके अपने पत्थर जम चुके थे

पुराने किले की दीवारों पर, किला-ए-कोहना मस्जिद की मेहराबों पर

और शेर मंडल की सीढ़ियों पर

- वही सीढ़ियाँ जिन पर चढ़ कर हुमायूँ अपने पुस्तकालय में जाता था

और वही जिनसे नमाज के लिए उतरते हुए वह लुढ़क कर खुदा को प्यारा हुआ।

तालीम और खुदा के रिश्ते को बहुत गाढ़ा करना

उस वक्त भी खतरनाक था

दिल्लीवालों ने इस बात को ठहर ठहर कर समझा है

फिर भी थोड़ी कमी रह ही गई है,

शायद इसीलिए जमुना पुराने किले से दूर खिसक गई है।

[7]

वैसे आप लाख बिगाड़ लें पर दिल्ली की जो हवा है

वह इलाकों की चाल से ही बहेगी

और उसमें जो पुश्तैनी गंध है

वह उन बस्तियों से आज भी उठ लेगी

जिसे अगर आप आँख बंद कर महसूस करें

तो आप भी शायद उसे शाहजहाँनाबाद ही कहें।

क्योंकि शाहजहाँनाबाद सिर्फ शाहजहाँ का नहीं था

करीब अस्सी बरस बाद बनी राजधानी की शक्ल में एक रवायत थी

जो तख्ते-ताऊस की बुलंदी को

दीवानेखास के संगमरमरी बहिश्त को

बादशाही हमाम की खुशबू को

या मीना बाजार की बेगमों की हँसी को

अपने हिसाब से कभी खुल कर

या कभी रहस्य भरी सरगोशी के साथ

लाल किले की छनछनाती उतार से छान कर

सड़क के बीचोंबीच

अँधेरे उजाले का खेल खेलती

झिलझिलाती हुई एक चाँदनी चौक बनाती थी।

वह कुछ खुशफहमियों का जमाना था

सीताराम बाजार की बड़ी हवेलियों का जमाना

जिसके दरीचे बाहर कम

अंदर के विशाल आँगन की ओर अधिक खुलते थे।

रसोई घर की थी, बातें बाहर की

- सरपरस्ती के साथ साथ चुगलियों की चटनी

जब रसोई की गंध थम जाती थी

तो अपच बदगुमानी बन दरवाजे से बाहर

गलियों की हवा खाने से बाज नहीं आती थी।

नीचे गलियाँ, कटरे और मुहल्ले

पेशेवर नाम, पेशेवर किस्से, कुछ पेशेवर फिख्र भी

जिनकी हदों से अलग

जहालत और जिल्लत की बू से

खुद ही मरती कुछ बस्तियाँ

जिनके पेशे गरीबी से भी बदतर थे।

ऊपर जामा मस्जिद की मीनारें

खुदपरस्ती की खुदाई उड़ान

हवाई उड़ान के नशे में मस्त भागते

गोले और काबुली कबूतर

उन्हें उड़ा कर और भिड़ा कर बादशाहत का भ्रम पालता

एक बहुत बड़ा वर्ग

जो नीचे देखना नहीं चाहता था,

जो नीचे देखने से डरता था।

यूँ भी दिल्ली के इन इलाकों में ही मिलते हैं भिखमंगे और पागल

और उनसे हमेशा से एक अलग गंध आती रही है

जो न शाहजहाँ के फरमानों के आगे दबी

न ही जहाँआरा की सवारी की कस्तूरी खुशबू के आगे

जिसे कहवाघरों की जमात तब न दबा पाई

जिसे वातानुकूलित गाड़ियों का हुजूम अब भी न कुचल सका

उनसे बचने के लिए ऊपर ही ऊपर उड़ता रहा शाहजहाँनाबाद

चाहे दरबारी मिर्जे, सेठ, सौदागर, दुकानदार हों

या इल्म और हुनर के कलाकार

- कुछ बहुत ऊपर, कुछ थोड़ा ऊपर

लेकिन सभी ऊपर, बेशक ऊपर।

परवाजों की ये कहानियाँ आज तक गाहे बगाहे सुनाई पड़ती हैं

दिल्ली के इन इलाकों में

जिनके नसीब में आगे जमीनी हकीकतों का सिलसिला हो

वे ऐसी कहानियों को बड़े प्यार से पालपोस कर बड़ा करते हैं

साथ में हाय हाय भी लगी रहती है

गिरने की हाय,

गिर कर न उठ पाने का अफसोस

अंदर के खोखलेपन को न मान कर इधर उधर की वजहें तलाशने की उत्कंठा

औरंगजेब की कट्टरता के बढ़े चढ़े किस्से

रोशनआरा की उच्छृंखलता के कारनामे

फरूखसियर के दोगलेपन के चर्चे

बरहा भाइयों की नमकहरामी पर लानत

लालकुँअर की खूबसूरत चालबाजियों पर तौबा

या अदारंग और सदारंग के खयालों में डूबे

मुहम्मद शाह रंगीले की शराबों पर लाहौल।

दिल्ली बतकहियों का शहर बन गया

चाँदनी चौक के बीचोंबीच बहता पानी गंदलाता गया

पानी के कीटाणु तो दिल्ली की तीखी चाट ने मार डाले

पर नादिरशाही जुल्म का खून ऐसा जमा

कि झिलमिलाती चांदनी लाल नजर आने लगी

उस दिन से लाल किले के पत्थर कुछ स्याह नजर आने लगे

जाटों, मराठों और रोहिलों के घुड़सवारों के बीच

बादशाही नजर पथरा गई

शाहआलम की इन्हीं आँखों को फोड़ा था रोहिलों ने

तहजीब के पास घोड़े नहीं थे

हिनहिनाते कैसे ?

अँगरखों में सिकुड़ कर बैठ गया दिल्लीपन

जीनतुल मस्जिद में

शहरेआशोब लिखा नहीं गया, महसूस किया गया

दीवान-ए-खास की शमा आखिरी शमा थी

इसकी रोशनी में चमकने के लिए न कोहेनूर था न रत्नों की पेटियाँ

रोशनी गालिब, जौक और मोमिन से हो कर

अंततः बहादुरशाह जफर पर ठहर कर थरथरा जाती थी

मानो बल्लीमारान की गलियों से निकल कर

हजारों ख्वाहिशें लाल किले की सिमटी बारादरियों में दम तोड़ रही हों

मानो मौत के साथ चलने का इंतजार हो

फिर भी बादशाहत के पास होने की खुशी ऐसी

कि पास कोई दूसरा तो नहीं।

किले की दीवारें बेनूर सही

अभी भी दीवारें तो थीं

शहर उस पार था

जिससे अभी भी कुछ दूर थीं इस पार की शामें

और जिनके सहारे सारे दिन महफूजियत के कुछ भ्रम

उस पार भी फैलाए जा सकते थे

दरियागंज की उन हवेलियों के बीच भी जहाँ फिरंगी रहने लगे थे

जहाँ आक्टरलोनी को लूनी अख्तर कह कर दिल्लीपन की इंतहा मानी जा सकती थी

जहाँ विलियम फ्रेजर के हरम को अपनी तहजीब की अगली कड़ी समझा जा सकता था

जहाँ गदर के सिपाहियों को सामंती तहजीब के पैमाने से

कुछ लुच्चे उत्पातियों की शक्ल दी जा सकती थी

जहाँ सब्जीमंडी की आर पार की लड़ाई से

जितना खून खौला, जितना खून बहा

उतना ही पतला भी रहा

जिस दिन खूनी दरवाजे पर मुगलिया सल्तनत के खून का आखिरी कतरा गिरा

उस दिन भी दिल्ली शांत ही रही

कोतवाली के पास फाँसियों की कतार के बीच भी कोई हलचल नहीं हुई

घंटेवालान की मिठाइयाँ बनती रहीं

निहारी के कबाब बिकते रहे

परिंदे उड़ते रहे

तमाम प्यार, मुहब्बत, फिक्र और तकरीर के बावजूद

दिल्लीपन अंततः एक शब्द साबित हुआ

अधिक से अधिक एक जुमला

जो तमाम पुरानी गंधों के बीच

आँखें खोल कर देखने पर

आपके चारों तरफ इस तरह उछलेगा

जैसे भीड़ भरे बाजार की होड़ में ललचाता एक ब्रांड नेम।

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दिल्ली के अनवरत रेंगते ट्रैफिक में

जब कॉकटेल्स की छलकती रंगीनियाँ सूखने लगती हैं

और हयात या शांगरीला से निकले

कारपोरेट मल्टीनेशनल धनाढ्यों की भाषा को हिचकियाँ आने लगती हैं

उस वक्त रेडियो मिर्ची या एफ.एम. से जो ‘हिंगलिश' का

लटकेदार प्रलाप होता है

वह उतना बेमानी भी नहीं जितना आप समझते हैं

वह नव साम्राज्यवाद का आलाप है

जहाँ अर्थहीनता का ही अर्थ है

आप झुँझलाएँ नहीं, व्यवस्था को गाली न दें

आप एक खिलखिलाती नवयौवना से होलीडे पैकेज,

आइटम गर्ल्स, हॉलीवुड की चमक और

वॉलीवुड के सितारों की बातें सुन कर समय का सदुपयोग करें

और खुश हो लें कि आप भी ग्लोबल होगए हैं।

भाषा की अपनी सत्ता होती है

हमेशा से रही है

उस वक्त भी थी जब माल रोड पर टहलते सिविल लाइंस के

अंग्रेजों को देख देख

दिल्लीवालों ने मुगलिया यादें छोड़ अंग्रेजी सीखना शुरू किया।

कश्मीरी गेट पर, 1957 के मैगजीन विस्फोट के स्थल के

बिल्कुल पास शुरू हुए सेंट स्टीफेंस और हिन्दू कॉलेज

और 1957 की दहशत को मन में लिए

उत्तर की ओर दूर दूर फैलता गया

एक प्रजातीय अलगाव

सिविल लाइंस के बँगलों की शक्ल में

जहाँ हेलीबरी से निकले

नए ब्रिटिश राज्य के इंडियन सिविल सर्विस ने

स्टील फ्रेम की तरह एक नई दिल्ली बसाई।

स्टील फ्रेम में जकड़ी दिल्ली काँपती रही

मिर्जां गालिब अपनी पेंशन के लिए भटकते रहे

सूरज चमकता रहा

चाँद टटोलता रहा रास्ते

मेडेंस की दूधिया दीवारों के बीच, लुडलो कासल के पोर्च के दरम्यान

जिसके अंदर के ठंडे बरामदों पर

जिन और टॉनिक के बीच

ईश्वर सम्राट को बचाता रहा।

दिल्ली में अब नौबतखाना नहीं था, भीड़ भाड़ की वह चटख रंगत भी नहीं

पहलूनशीं होने का वह जमाना भी गया

चहलकदमी के नए अंदाज थे

नसीमेसहर विलायत से चली थी,

गुनगुनी शाम कश्मीरी गेट में होती थी

और चाँदनी चौक उसे नीमनिगाही से देखता था।

कनखियों के इस खेल से दिल्ली बहुत मुफीद हो कर निकली

बंगाल की गर्म हवाओं की तुलना में

ठंडे ठंडे लगे यहाँ के बँगले

राजधानी दिल्ली को फिर बनना ही था

साम्राज्यवाद बहुत जटिल था

और उतना ही ठोस

रस्मी दिल्ली से बहुत अलग

कागजों की सभ्यता के आगे दम तोड़ते आचार और व्यवहार के अदब

कचहरियों की नई जमात

कारकूनों की नई कतारें

जमीन और मिल्कियत की नई हकीकत

जिसके आगे बदतमीज लगते थे उर्दू के अफसाने

और सुरों से भटकता था गजलों का रियाज।

महफिलों का नहीं कैंपों का जमाना था वह

कैंप भी शहर बन सकते थे

जैसे जॉर्ज के दरबार का किंग्सवे कैंप

जिसकी शान के आगे झुके झुके थे हमारे सैकड़ों हुक्मबरदार

वफादारी से गलगलाए,

नजरानों की बौछार में लिजलिजे

कुछ और तोप दगवाने की इनायत से गदगद।

यह बंगाल नहीं दिल्ली थी

यहाँ कोई स्वदेशी आंदोलन नहीं था

यहाँ कालीबाड़ी के आगे शपथ लेते नौजवान नहीं थे

और अभी भी मजलिसे रक्सोसरोद की यादों के मातमी बादल तो थे

पर बारिश नहीं थी।

इसलिए दिल्ली को फिर से राजधानी बनाना

लाट साहबों के लिए तो महफूज था

पर दिल्ली अचकचा गई।

अचकचा कर उठनेवालों के दिल अक्सर धड़कते हैं

दिल्ली भी धड़की

जब हार्डिंज पर सरेबाजार बम फेंका गया

पर अपने बाजारों में सड़क के दोनों तरफ चलना

दिल्लीवालों ने कभी नहीं छोड़ा है

लाला हरदयाल का गदर आंदोलन बहुत दूर था

और अब तो बाजार बढ़ रहे थे

उपनिवेशवाद तिजोरियों में नहीं

पूरी दुनिया की तिजारतों, बैंकों और पूँजी के साथ

नए नए रूप धर कर आ रहा था

जिन्हें संभालते सँभालते चाँदनी चौक का चेहरा भी बदलने लगा था।

दिल्ली एक बार फिर कई चेहरों के साथ थी

प्रथम विश्व युद्ध की मार से कराहते चेहरे एक ओर

तो रायसीना की पहाड़ी की तरफ फैलती नई राजधानी की ओर

उत्सुकता से लगी ठेकेदारी की कल्पनाएँ दूसरी तरफ

नई दिल्ली बनी तो ऐसी बनी जैसे

सूरज कभी ढलेगा ही नहीं

वह सिर्फ लुटयेंस और बेकर का वास्तुशास्त्र ले कर नहीं आई

वह भव्यता का सदियों पुराना शास्त्र ले कर आई

जहाँ नए वाइसराय निवास की किलेनुमा दीवारों से ले कर

विशालकाय बँगलों तक के सिलसिलों में कुछ भी सूफियाना न था

अब ढेर सारे बल्बन थे, कितने ही अलाउद्दीन

और मुँह में चुरुट दबाये, एड़ियाँ खटखटाते

ऊँचे खंभोंवाले कनाट प्लेस में

पृथ्वी की तरह गोल गोल घूमते

ताजमहल को भी बर्तानिया ले जाने के सपने देखते

कई कई शाहजहाँ।

औपनिवेशिक रोमांस में भी औरतें आ सकती हैं

जैसे माउंटबैटन का एडविना को दिल्ली में प्रपोज करना

पर वह पुराने वाइसराय निवास की बातें थीं

जहाँ अब विश्वविद्यालय था

इसलिए वे बातें भी शायद किताबी थीं।

उपनिवेशों में प्रेम हमेशा उपयोगी होना चाहिए

मुनाफे के लिए ऊपर के होंठ को कड़ा रखना चाहिए

साम्राज्यवाद पूर्णतः मर्द होता है

और दिल्ली के हुनर बाजार नहीं, बूढ़ी तवायफों के कोठे थे।

वैसे मुनाफे का हमेशा से कुछ हिस्सा दिल्लीवालों के हाथ भी लगता ही रहा है

अबकी बार ठेकों से उपजी नई रईसी थी

जिसके खुले बँगलों को विदेशी शिष्टाचार की बयार सम्भ्रांत बनाती थी

यहाँ बंद कमरे न थे

लेकिन जहाँ थे वहाँ कानाफूसी से शुरू हो कर बातें बढ़ने लगी थीं

और बढ़ते बढ़ते चौराहों तक भी आने लगी थीं

विदेश ने देश को पहचान दी थी,

और इस पहचान में जो प्रेम उमड़ा था

वह सूखे सख्त होठों से नहीं

तरल और ऊष्म आवाजों से ओत प्रोत था।

अभ्यावेदनों की दुनिया से हट कर दिल्ली खिलाफत के नए शब्द सीख रही थी

असहयोग, बहिष्कार, सत्याग्रह और सविनय अविज्ञा

लोगों को संगठित करने के नए तरीके

अपने और पराए के भिन्न प्रतीक

मानो विशिष्ट और साधारण के बीच की गहराई को

पाटने के लिए बनाए जा रहे हों कई कई पुल

और बताया जा रहा हो लगातार

कि इन्हें पार करके ही पाओगे तुम श्वेत, शुभ्र लिबास

धारण किए हुए उस गरिमामय औरत की गोद

जो तुम्हारी माँ है।

उल्लास के बार बार उठते कई हुजूम थे

सड़कों पर सुबह दोपहर शाम सभी उजले उजले थे

गांधी टोपियों और खादी के कुर्तों और साड़ियों की तरह

जो उमंग की हवाओं से फड़फड़ाते हुए

बार बार यह भूल जाते थे कि सेंट्रल असेंबली के बम के पीछे

उजले कपड़ों की नहीं बिना कपड़ों के मजदूरों की भी बातें थीं

और कि दिल्ली में बिना दरारों के पुल और बिना गढ्ढों

की सड़क कभी नहीं बन पाए हैं।

इसलिए जब आजादी आई

तो वह किसी करिश्माई गुब्बारे के मानिंद न थी जो खुले आकाश में उड़ा ले जाता

वह कोई व्यक्ति भी नहीं जो सिर्फ अपने नाम से पहचान लिया जाता

आजाद मुल्क की राजधानी की पहली सुबह को

जिन एहसासों के साथ आना चाहिए था वैसा हुआ नहीं

कुछ तो आदमी हमेशा से खुद अपना दुश्मन रहा ही है

कुछ विभेदों के पूरी तरह मिटने की आशा भी संशकित सी थी

और खुशी के उस दिन भी कुछ काले बादल छाए ही रहे।

एक बहुत बड़ा हिस्सा जो अपना था वह अपना न रहा

रोटियाँ टुकड़ों में बंट गईं

दस्तरखान सिमट गए

बरसात की उस टूटी टूटी धूप में

कितनों से इलाके ही नहीं, पूरी की पूरी दिल्ली छूट गई

मिट्टी की गंध तो ले गए, पर मिट्टी धरी रह गई।

दिल्ली फिर से सवालों का शहर था

दंगाइयों का खून भी अगर दिल्ली के उन्हीं गली कूचों से निकला था

तो वह कत्ल हुए बाशिंदों से अधिक मजहबी कैसे हो गया ?

पाकिस्तान के इबादतखाने क्या दिल्ली की जामा मस्जिद से अधिक पुख्ता थे ?

लाहौर में कबूतर दिल्ली से ज्यादा करतबी कब से हो गए ?

महात्मा गांधी हे राम बोल कर क्यों मरे ?

वह कौन सा हिंदू था जिसने उन्हें मार डाला ?

क्या शरणार्थिंयों के कैंपों की जिल्लत और रंज से ही दिल्ली

कुछ कट्टर हो चली है ?

क्या अंग्रेज सचमुच चले गए ?

तो फिर नई दिल्ली के उन बँगलों और क्लबों में

हमें घुसने क्यों नहीं दिया जाता ?

ऐसे कई सवाल थे जिनसे दिल्ली आक्रांत रही है

कई अभ्युक्तियाँ भी कहीं न कहीं अब सवाल ही थीं

जैसे लाल किले पर तिरंगा साल दर साल फहराता रहा

करोल बाग, पटेल नगर और पंजाबी बाग की बड़ी बड़ी कोठियों में शरणार्थियों ने

एक अनूठे जीवट का अध्याय भी लिखा

कॉफी हाउस में नए फलसफे और नई कहानियों के बीच

ढेर सारी सुलगाई सिगरेटों को अधभरे प्यालों में मसल कर बुझाया गया

कॉलेजों में दुनिया को बदलने की हवा भी चली

नेहरू का शांति वन विचारधारा का विश्वविद्यालय बन खलबलाता रहा

राष्ट्रीयकरण के सपनीले दौर में नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक भी खींचते रहे

अदब का एक बहुत बड़ा संसार बाएँ चला

फिर दिल्ली के बढ़ते यातायात के दबाव में धीरे धीरे

यातायात के नियम तोड़ता गया

तुर्कमान गेट की बस्ती आपातकाल के दौरान तोड़ी गई

पालिका बाजार वहीं बना जहाँ पहले कॉफी हाउस था

एशियन गेम्स के समय दिल्ली में रंगीन टी.वी. का आना बड़ी बात बन गई

सिख दंगों के दौरान कनाट प्लेस और करोलबाग में भी सन्नाटा छाया रहा

इससे भी बड़ा सन्नाटा पूरी दिल्ली की सड़कों पर तब छाया जब

हर हफ्ते रामायण सीरियल दिखाया गया

दिल्ली में जगराते भी इसी दौरान बड़ी तेजी से बढ़े

दिल्ली भी उतनी ही तेजी से बढ़ी है

पहाड़गंज में जहाँ 1803 में लार्ड लेक ने मराठों को हराया था

वहाँ मराठे नहीं बिहारी अधिक रहते हैं

दिल्ली के मिस्त्री, रिक्शेवाले, चौकीदार अब सब के सब पुरबिया हैं

दिल्ली में फूलवालों की सैर अब भी बख्तियार काजी की दरगाह से जोगमाया मंदिर जाती है

पर उससे अधिक भीड़ छठ के समय घाटों पर

और दशहरा के दौरान रामलीला मैदान में रहती है।

दिल्ली में उमस बहुत बढ़ गई है

बहुत सारे लोगों ने अब शीशे चढ़ा रखे हैं

अंदर पूँजी का सामंतवाद बहता है

जो दिमाग को ठंडा रखता है

और जिसे गर्मी महसूस होने पर

खरीदा और बेचा जा सकता है

डी.एल.एफ. के बड़े बड़े शापिंग माल्स में

बड़े बड़े मल्टीनेशनल पे पैकेजों के सहारे

बार्बी डॉल्स की तरह

जिनकी गुड़ियों सी शादी नहीं होती

और जो विचारशून्यता की अंतर्राष्ट्रीय खुशी में

माचो मर्दों से लिपट लिपट कर क्रेजी किया करती हैं।

सुनते हैं कि दिल्ली अब एक फैलता हुआ शहर नहीं दुनिया है

वैसे ही जैसे भारत अब देश नहीं, विश्व हो रहा है

दिल्ली में रहनेवाले भी अब विश्व देख रहे हैं

विदेशी कंपनीवाले, यू.एन.डी.पी. और यहाँ तक कि भारतीय नौकरशाह भी

उन्हें बता रहे हैं

कि अट्टालिकाओं में जो वैश्वी सोना इकट्ठा हो रहा है

उसका द्रव्य रिस रिस कर नीचे ही गिरेगा

और यह दिल्ली पर है कि वह सवालों की कैद से बाहर आ कर

उसे कितनी तेजी से अपनी हथेलियों में लपक लेती है।

इसी रेलमपेल में भाग रही है दिल्ली

साँसें फुलाते हुए, आसमान की ओर देखती

हवाओं से दुनिया खींच कर मुट्ठियों में बंद करने को व्याकुल

लेकिन गाड़ियों की बेतहाशा बढ़ती कतारों के इस वक्त में

जब सड़क पार करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा हो

हर शाम हजारों चलनेवालों के लिए

दिल्ली फिर एक शहर हो जाती है

पसीने से लस्त ऐसे लोगों का शहर

जिन्हें थोड़ी देर के लिए रात का सन्नाटा चाहिए,

थोड़ी नींद चाहिए

और छोटे छोटे सपने चाहिए

जिसमें विश्व नहीं,

उनकी ही कदकाठी की

उनकी ही जुबान बोलती

सीधी सादी, सच्ची आँखोंवाली शरीके हाल सी दिल्ली हो।

(रचना काल : 2007)

(शीर्ष पर वापस)

 

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