हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

मोहन राकेश संचयन /कहानी
 

मोहन राकेश संचयन
संपादक- रवींद्र कालिया



कहानियाँ

मुख्य सूची कहानी निबंध उपन्यास डायरी यात्रा-वृत्तांत
  1. मिस पाल

  2. सीमाएँ

  3. आर्द्रा

  4. लाद का आकाश 

  5. सुहागिनें  

  1. मलबे का मालिक  

  2. उसकी रोटी 

  3. एक और ज़िंदगी 

  4. परमात्मा का कुत्ता 

  5. जानवर और जानवर

  1. मवाली

  2. मन्दी 

  3. ज़ख़्म

  4. अपरिचित  

  5. जीनियस  

1.मिस पाल


वह दूर से दिखाई देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी।

फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। नि:सन्देह, वह मिस पाल ही थी। यह तो ख़ैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में ही कहीं रहती है, पर इस तरह अचानक उससे भेंट हो जाएगी, यह नहीं सोचा था। और उसे सामने देखकर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह स्थायी रूप से कुल्लू और मनाली के बीच उस छोटे-से गाँव में रहती होगी। जब वह दिल्ली से नौकरी छोडक़र आयी थी, तो लोगों ने उसके बारे में क्या-क्या नहीं सोचा था !

बस रायसन के डाकखाने के पास पहुँचकर रुक गयी। मिस पाल डाकखाने के बाहर खड़ी पोस्टमास्टर से कुछ बात कर रही थी। हाथ में वह एक थैला लिये थी। बस के रुकने पर न जाने किस बात के लिए पोस्टमास्टर को धन्यवाद देती हुई वह बस की तरफ़ मुड़ी। तभी मैं उतरकर उसके सामने पहुँच गया। एक आदमी के अचानक सामने आ जाने से मिस पाल थोड़ा अचकचा गयी, मगर मुझे पहचानते ही उसका चेहरा ख़ुशी और उत्साह से खिल गया।

रणजीत तुम?” उसने कहा, “तुम यहाँ कहाँ से टपक पड़े?”

मैं इस बस से मनाली से आ रहा हूँ। मैंने कहा।

अच्छा ! मनाली तुम कब से आये हुए थे?”

आठ-दस दिन हुए, आया था। आज वापस जा रहा हूँ।

आज ही जा रहे हो?” मिस पाल के चेहरे से आधा उत्साह ग़ायब हो गया, “देखो, कितनी बुरी बात है कि आठ-दस दिन से तुम यहाँ हो और मुझसे मिलने की तुमने कोशिश भी नहीं की। तुम्हें यह तो पता ही था कि मैं आजकल कुल्लू में हूँ।... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)

 

2.सीमाएँ

 

इतना बड़ा घर था, खाने-पहनने और हर तरह की सुविधा थी, फिर भी उमा के जीवन में बहुत बड़ा अभाव था जिसे कोई चीज़ नहीं भर सकती थी।

उसे लगता था वह देखने में सुन्दर नहीं है। वह जब भी शीशे के सामने खड़ी होती तो उसके मन में झुँझलाहट भर आती। उसका मन होता कि उसकी नाक लम्बी हो, गाल ज़रा हल्के हों, ठोड़ी आगे की ओर निकली हो और आँखें थोड़ा और बड़ी हों। परन्तु अब यह परिवर्तन कैसे होता? उसे लगता कि उसके प्राण एक ग़लत शरीर में फँस गये हैं जिससे निस्तार का कोई चारा नहीं, और वह खीझकर शीशे के सामने से हट जाती।

उसकी माँ हर रोज़ गीता का पाठ करती थी। वह बैठकर गीता सुना करती थी : कभी माँ कथा सुनने जाती तो वह साथ चली जाती थी। रोज़-रोज़ पंडित की एक ही तरह की कथा होती थी—‘नाना प्रकार कर-करके नारद जी कहते भये हे राजन्‌...’ पंडित जो कुछ सुनाता था, उसमें उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी। उसकी माँ कथा सुनते-सुनते ऊँघने लगती थी। ... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

 

3.आर्द्रा

 

बचन को थोड़ी ऊँघ आ गयी थी, पर खटका सुनकर वह चौंक गयी। इरावती ड्योढ़ी का दरवाज़ा खोल रही थी। चपरासी गणेशन आ गया था। इसका मतलब था कि छ: बज चुके थे। बचन के शरीर में ऊब और झुँझलाहट की झुरझुरी भर गयी। बिन्नी न रात को घर आया था, न सुबह से अब तक उसने दर्शन दिये थे। इस लडक़े की वजह से ही वह यहाँ परदेस में पड़ी थी, जहाँ न कोई उसकी ज़बान समझता था, न वह किसी की ज़बान समझती थी। एक इरावती ही थी जिससे वह टूटी-फूटी हिन्दी में बात कर लेती थी, हालाँकि उसकी पंजाबी हिन्दी और इरावती की कोंकणी हिन्दी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था। जब इरावती भी उसका सीधे-सादे शब्दों में कही साधारण-सी बात को न समझ पाती, तो वह बुरी तरह अपनी विवशता के खेद से दब जाती। और इस लडक़े को रत्ती चिन्ता नहीं थी कि माँ किस मुश्किल से दिन काटती है और किस बेसब्री से इसका इन्तज़ार करती है। मन में आया, तो घर आ गये, नहीं तो जहाँ हुआ पड़ रहे।

एक मादा सूअर अपने छ: बच्चों के साथ, जो अभी नौ-नौ इंच से बड़े नहीं हुए थे, कुएँ की तरफ़ से आ रही थी। तूत के बुड्ढे पेड़ के पास पहुँचकर उसने हुँफ़्‌-हुँफ़्‌ करते हुए दो-तीन बार नाली को सूँघा और फिर पेड़ के नीचे कीचड़ में लोटने लगी। उसके नन्हे आत्मज उसके उठने की राह देखते हुए वहीं आसपास मँडराते रहे।

दिन-भर गली में यही सिलसिला चलता था। आसपास के सभी घरों ने सूअर पाल रखे थे। उस बस्ती में लोगों के दो ही धन्धे थेसूअर पालना और नाजायज़ शराब निकालना। ... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

4.फौलाद का आकाश

 

ड्राइंग-रूम काफ़ी खुला और बड़ा था, अकेले बैठने के लिए बहुत ही बड़ा। रात को वहाँ से गुज़रकर पैंट्री में जाना पड़ता तो मीरा को अपने अन्दर एक डर-सा महसूस होता। ड्राइंग-रूम का ख़ालीपन एक तस्वीर की तरह लगता, दीवारों के चौखटे में जड़ी तस्वीर की तरह। बेडरूम के अलावा और सब कमरों की बत्तियाँ बुझाकर जब शंकर अपने क्वार्टर में सोने चला जाता, तो किसी-न-किसी काम से रोज़ उसे उधर जाना पड़ता था। कभी अपनी ज़रूरत से, कभी रवि के कुछ माँगने पर। बिजली के बटन पर हाथ रखने तक गद्‌दों और कुर्सियों की आकृतियाँ उसे अँधेरे में ऊँघती-सी जान पड़तीं। कई बार वह बटन दबाने का हौसला न करतीकि कहीं ऊँघती आकृतियों की बत्ती जल जाने से उलझन न हो।

रवि रात को देर तक काम करता रहता था। ढेर-ढेर काग़ज़ आँकड़ों और ग्रा$फों से भरे रहते थे। उसके हाथ इस तरह हिलते रहते थे जैसे काम करने के लिए उसे ज़रा भी सोचना न पड़ता हो। काग़ज़ पर उसकी क़लम फिसलती जाती थी, फिसलती जाती थी। फिर एकाएक वह काग़ज़ सरकाकर कुर्सी की पीठ से टेक लगा लेता और दायें हाथ को बायें हाथ से दबाने लगता। तब भी मीरा को लगता कि दिमाग़ उसका नहीं थका, सिर्फ़ हाथ थक जाने से उसे मजबूरन रुक जाना पड़ा है। चीखने की-सी हल्की आवाज़ के साथ चिप्स के फर्श पर कुर्सी पीछे को सरकती और रवि उठता हुआ कहता, “तो तुम अभी तक जाग रही हो? कितनी बार तुमसे कहा है कि वक़्त पर सो जाया करो।

मीरा मुस्कराती हुई उठती और उसे गिलास में पानी दे देती। वह जानती थी कि रवि जान-बूझकर रोज़ तकल्लुफ़ में यह बात कहता है। .... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)

5.सुहागिनें

 

कमरे में दाख़िल होते ही मनोरमा चौंक गयी। काशी उसकी साड़ी का पल्ला सिर पर लिए ड्रेसिंग टेबल के पास खड़ी थी। उसके होंठ लिपस्टिक से रँगे थे और चेहरे पर बेहद पाउडर पुता था, जिससे उसका साँवला चेहरा डरावना लग रहा था। फिर भी वह मुग्धभाव से शीशे में अपना रूप निहार रही थी। मनोरमा उसे देखते ही आपे से बाहर हो गयी।

माई,” उसने चिल्लाकर कहा, “यह क्या कर रही है?”

काशी ने हड़बड़ाकर साड़ी का पल्ला सिर से हटा दिया और ड्रेसिंग टेबल के पास से हट गयी। मनोरमा के गुस्से के तेवर देखकर पल-भर तो वह सहमी रही, फिर अपने स्वाँग का ध्यान हो आने से हँस दी।

बहनजी, माफी दे दें,” उसने मिन्नत के लहज़े में कहा, “कमरा ठीक कर रही थी, शीशे के सामने आयी, तो ऐसे ही मन कर आया। आप मेरी तनख़ाह में से पैसे काट लेना।

तनख़ाह में से पैसे काट लेना! मनोरमा और भी भडक़ उठी, “पन्द्रह रुपये तनख़ाह है और बेग़म साहब साढ़े छ: रुपये लिपस्टिक के कटवाएँगी। कमबख़्त रोज़ प्लेटें तोड़ती है, मैं कुछ नहीं कहती। घी, आटा, चीनी चुराकर ले जाती है, और मैं देखकर भी नहीं देखती। ... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

 

6.मलबे का मालिक

 

साढ़े सात साल के बाद वे लोग लाहौर से अमृतसर आये थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराये हो गये थे। हर सडक़ पर मुसलमानों की कोई-न-कोई टोली घूमती नज़र आ जाती थी। उनकी आँखें इस आग्रह के साथ वहाँ की हर चीज़ को देख रही थीं जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक अच्छा-ख़ासा आकर्षण-केन्द्र हो।

तंग बाज़ारों में से गुज़रते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीज़ों की याद दिला रहे थे...देखफतहदीना, मिसरी बाज़ार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गयी हैं! उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारिन की भट्‌ठी थी, जहाँ अब वह पानवाला बैठा है।...यह नमक मंडी देख लो, ख़ान साहब! यहाँ की एक-एक लालाइन वह नमकीन होती है कि बस...!

बहुत दिनों के बाद बाज़ारों में तुर्रेदार पगडिय़ाँ और लाल तुरकी टोपियाँ नज़र आ रही थीं। लाहौर से आये मुसलमानों में काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्हें विभाजन के समय मज़बूर होकर अमृतसर से जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आये अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर कहीं उनकी आँखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफ़सोस घिर आतावल्लाह! कटरा जयमलसिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? ... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

7.उसकी रोटी

 

बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आँखें बार-बार सडक़ की तरफ़ उठ जाती थीं। नकोदर रोड के उस हिस्से में आसपास कोई छायादार पेड़ भी नहीं था। वहाँ की ज़मीन भी बंजर और ऊबड़-खाबड़ थीखेत वहाँ से तीस-चालीस गज़ के फ़ासले से शुरू होते थे। और खेतों में भी उन दिनों कुछ नहीं था। फ़सल कटने के बाद सिर्फ़ ज़मीन की गोड़ाई ही की गयी थी, इसलिए चारों तरफ़ बस मटियालापन ही नज़र आता था। गरमी से पिघली हुई नकोदर रोड का हल्का सुरमई रंग ही उस मटियालेपन से ज़रा अलग था। जहाँ बालो खड़ी थी वहाँ से थोड़े फासले पर एक लकड़ी का खोखा था। उसमें पानी के दो बड़े-बड़े मटकों के पास बैठा एक अधेड़-सा व्यक्ति ऊँघ रहा था। ऊँघ में वह आगे को गिरने को होता तो सहसा झटका खाकर सँभल जाता। फिर आसपास के वातावरण पर एक उदासी-सी नज़र डालकर, और अंगोछे से गले का पसीना पोंछकर, वैसे ही ऊँघने लगता। एक तरफ़ अढ़ाई-तीन फुट में खोखे की छाया फैली थी और एक भिखमंगा, जिसकी दाढ़ी काफ़ी बढ़ी हुई थी, खोखे से टेक लगाये ललचाई आँखों से बालो के हाथों की तरफ़ देख रहा था। उसके पास ही एक कुत्ता दुबककर बैठा था, और उसकी नज़र भी बालो के हाथों की तरफ़ थी।

बालो ने हाथ की रोटी को मैले आँचल में लपेट रखा था। वह उसे बद नज़र से बचाये रखना चाहती थी। रोटी वह अपने पति सुच्चासिंह ड्राइवर के लिए लायी थी, मगर देर हो जाने से सुच्चासिंह की बस निकल गयी थी और वह अब इस इन्तज़ार में खड़ी थी कि बस नकोदर से होकर लौट आये, तो वह उसे रोटी दे दे। वह जानती थी कि उसके वक़्त पर न पहुँचने से सुच्चासिंह को बहुत गुस्सा आया होगा। वैसे ही उसकी बस जालन्धर से चलकर दो बजे वहाँ आती थी, और उसे नकोदर पहुँचकर रोटी खाने में तीन-साढ़े तीन बज जाते थे। वह उसकी रात की रोटी भी उसे साथ ही देती थी जो वह आख़िरी फेरे में नकोदर पहुँचकर खाता था। सात दिन में छ: दिन सुच्चासिंह की ड्ïयूटी रहती थी, और छहों दिन वही सिलसिला चलता था। ... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

8.एक और ज़िन्दगी

 

...और उस एक क्षण के लिए प्रकाश के हृदय की धडक़न जैसे रुकी रही। कितना विचित्र था वह क्षणआकाश से टूटकर गिरे हुए नक्षत्र जैसा! कोहरे के वक्ष में एक लकीर-सी खींचकर वह क्षण सहसा व्यतीत हो गया।

कोहरे में से गुज़रकर जाती हुई आकृतियों को उसने एक बार फिर ध्यान से देखा। क्या यह सम्भव था कि व्यक्ति की आँखें इस हद तक उसे धोखा दें? तो जो कुछ वह देख रहा था, वह यथार्थ ही नहीं था?

कुछ ही क्षण पहले जब वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया था, तो क्या उसने कल्पना में भी यह सोचा था कि आकाश के ओर-छोर तक फैले हुए कोहरे में, गहरे पानी की निचली सतह पर तैरती हुई मछलियों जैसी जो आकृतियाँ नज़र आ रही हैं, उनमें कहीं वे दो आकृतियाँ भी होंगी? मन्दिरवाली सडक़ से आते हुए दो कुहरीले रंगों पर जब उसकी नज़र पड़ी थी, तब भी क्या उसके मन में कहीं ऐसा अनुमान जागा था? फिर भी न जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे बहुत समय से, बल्कि  कई दिनों से, वह उनके वहाँ से गुज़रने की प्रतीक्षा कर रहा हो, जैसे कि उन्हें देखने के लिए ही वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया हो और उन्हीं को ढूँढ़ती हुई उसकी आँखें मन्दिरवाली सडक़ की तरफ़ मुड़ी हों।यहाँ तक कि उस धानी आँचल और नीली नेकर के रंग भी जैसे उसके पहचाने हुए हों और कोहरे के विस्तार में वह उन दो रंगों को ही खोज रहा हो। वैसे उन आकृतियों के बालकनी के नीचे पहुँचने तक उसने उन्हें पहचाना नहीं था। ... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

9.परमात्मा का कुत्ता

 

बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था, लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन लम्बे-ऊँचे जाट, अपनी लाठियों पर झुके हुए, उसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा था, वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्‌टा लगा रहा थासी ए टी कैटकैट माने बिल्ली; बी ए टी बैटबैट माने बल्ला; एफ ए टी फैटफैट माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करते, रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट वाला चपरासी, आस-पास की भीड़ से उदासीन, अपने स्टूल पर बैठा मन ही मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ हिलते थे, और कभी सिर हिल जाता था। सारे कम्पाउंड में सितम्बर की खुली धूप फैली थी। चिडिय़ों के कुछ बच्चे डालों से कूदने और फिर ऊपर को उडऩे का अभ्यास कर रहे थे और कई बड़े-बड़े कौए पोर्च के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चहलक़दमी कर रहे थे। एक सत्तर-पचहत्तर की बुढिय़ा, जिसका सिर काँप रहा था और चेहरा झुर्रियों के गुंझल के सिवा कुछ नहीं था, लोगों से पूछ रही थी कि वह अपने लडक़े के मरने के बाद उसके नाम एलाट हुई ज़मीन की हकदार हो जाती है या नहीं...?

अन्दर हॉल कमरे में फ़ाइलें धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की मेज़ के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ़्तरी कागज़ पर लिखी अपनी ताज़ा ग़ज़ल दोस्तों को सुना रहा था और दोस्त इस विश्वास के साथ सुन रहे थे कि वह ग़ज़ल उसने शमा या बीसवीं सदी के किसी पुराने अंक में से उड़ाई है।

अज़ीज़ साहब, ये शेअर आपने आज ही कहे हैं, या पहले के कहे हुए शेअर आज अचानक याद हो आए हैं?” साँवले चेहरे और घनी मूँछों वाले एक बाबू ने बायीं आँख को ज़रा-सा दबाकर पूछा। आस-पास खड़े सब लोगों के चेहरे खिल गये।... ... (आगे पढ़ें)

 (शीर्ष पर वापस)

10.जानवर और जानवर

 

स्कूल की नई मेट्रन का नाम अनिता मुकर्जी था और उसकी आँखें बहुत अच्छी थीं। पर वह आंट सैली की जगह आयी थी, इसलिए पहले दिन बैचलर्स डाइनिंग-रूम में किसी ने उससे खुलकर बात नहीं की।

उसने जॉन से बात करने की कोशिश की, तो वह हूँ-हाँ में उत्तर देकर टालता रहा। मणि नानावती को वह अपनी चायदानी में से चाय देने लगी, तो उसने हल्का-सा धन्यवाद देकर मना कर दिया। पीटर ने अपना चेहरा ऐसे गम्भीर बनाए रखा जैसे उसे बात करने की आदत ही न हो। किसी तरफ़ से लि$फ्ट न मिलने पर वह भी चुप हो गयी और जल्दी से खाना खाकर उठ गयी।

अब मेरी समझ में आ रहा है कि पादरी ने सैली को क्यों निकाल दिया,” वह चली गयी, तो जॉन ने अपनी भूरी आँखें पीटर के चेहरे पर स्थिर किये हुए कहा।

पीटर की आँखें नानावती से मिल गयीं। नानावती दूसरी तरफ़ देखने लगी।

वैसे उनमें से कोई नहीं जानता था कि आंट सैली को फादर फिशर ने क्यों निकाल दिया। उसके जाने के दिन से ही जॉन मुँह ही मुँह बड़बड़ाकर अपना असन्तोष प्रकट करता रहता था। पीटर भी उसके साथ दबे-दबे कुढ़ लेता था।

चलकर एक दिन सब लोग पादरी से बात क्यों नहीं करते?” एक बार हकीम ने तेज़ होकर कहा।

जॉन ने पीटर को आँख मारी और वे दोनों चुप रहे। दूसरे दिन सुबह पादरी के सिर-दर्द की ख़बर पाकर हक़ीम उसकी मिज़ाजपुर्सी के लिए गया तो जॉन पीटर से बोला, “, देखा? पहुँच गया न उसके तलुवे सूँघने? सन ऑवï ए गन! हमें उल्लू बनाता था।... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)

 11.मवाली

 

उस लडक़े का परिचय केवल इतना ही है कि वह शाम के वक़्त चौपाटी के मैदान में जमा होनेवाली भीड़ में घूम रहा था। चौपाटी का मैदान काफ़ी खुला है, और जब समुद्र भाटे पर हो, तो और भी खुला हो जाता है। शाम के वक़्त वहाँ पर सब तरह के लोग जमा होते हैंवे जो वहाँ तफ़रीह के लिए आते हैं, और वे जो वहाँ आनेवालों के लिए तफ़रीह का सामान प्रस्तुत करते हैं, और वे जो दूसरों को तफ़रीह करते देखकर लुत्फ़ ले लेते हैं। वहाँ धार्मिक प्रवचनों से लेकर आदम और हौवा की परंपरा के पालन तक, सभी कुछ होता है। अँधेरे और रोशनी में इतना सुन्दर समझौता और कहीं नहीं होगा जितना चौपाटी के मैदान में है।

और वह लडक़ा नंगे पाँव, नंगे सिर, सिर्फ़ घुटनों तक की लम्बी मैली कमीज़ पहने, वहाँ एक सिरे से दूसरे सिरे की तरफ़ चल रहा था। एक जगह एक नेता का भाषण समाप्त हुआ था, और मज़दूर शामियाना उखाड़ रहे थे। ज़मीन पर फैले शामियाने पर से गुज़रते हुए, लडक़े ने रुककर चारों तरफ़ देखा, और हाथ उठाकर भाषण देने की मुद्रा से गले में कुछ अस्पष्ट आवाज़ें पैदा कीं। जब एक मज़दूर उसे हटाने के लिए उसकी तरफ़ लपका, तो वह उसे जीभ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। भागते हुए वह एक ऐसे आदमी से टकरा गया, जो ज़मीन पर लेटकर कराहता हुआ भीख माँग रहा था। वह आदमी ऊँची आवाज़ में उसे गाली देने लगा। लडक़े ने उसकी तरफ़ होंठ बिचका दिये, और एक पत्थर को पैर से ठोकर मारकर दूर उड़ा दिया। फिर उसकी नज़र मलाबार हिल की तरफ़ से आती बसों और कारों की पंक्ति पर स्थिर हो गयी। उधर देखते हुए अनायास उसके पैरों का रुख़ बदल गया और वह दूसरी दिशा में चलने लगा।

उसकी उम्र तेरह या चौदह साल की होगी। रंग साँवला था और नक्श भी ख़ास अच्छे नहीं थे। मगर उसकी आँखों में अजब बेबाकी और आवारगी थी। आँखें सडक़ की तरफ़ रहने से वह एक रेत में पड़े बड़े-से पत्थर से ठोकर खा गया, जिससे उसका घुटना थोड़ा छिल गया। उसने छिले हुए घुटनों पर थोड़ी रेत डाल ली, और थोड़ी-सी रेत अपनी हथेली पर लेकर उसे फूँक से उड़ा दिया।... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)
 

12.मन्दी

 

चेयरिंग क्रास पर पहुँचकर मैंने देखा कि उस वक़्त वहाँ मेरे सिवा एक भी आदमी नहीं है। एक बच्चा, जो अपनी आया के साथ वहाँ खेल रहा था, अब उसके पीछे भागता हुआ ठंडी सडक़ पर चला गया था। घाटी में एक जली हुई इमारत का ज़ीना इस तरह शून्य की तरफ़ झाँक रहा था जैसे सारे विश्व को आत्महत्या की प्रेरणा और अपने ऊपर आकर कूद जाने का निमन्त्रण दे रहा हो। आसपास के विस्तार को देखते हुए उस नि:स्तब्ध एकान्त में मुझे हार्डी के एक लैंडस्केप की याद हो आयी, जिसके कई पृष्ठों के वर्णन के बाद मानवता दृश्यपट पर प्रवेश करती हैअर्थात्‌ एक छकड़ा धीमी चाल से आता दिखाई देता है। मेरे सामने भी खुली घाटी थी, दूर तक फैली पहाड़ी शृंखलाएँ थीं, बादल थे, चेयरिंग क्रास का सुनसान मोड़ थाऔर यहाँ भी कुछ उसी तरह मानवता ने दृश्यपट पर प्रवेश कियाअर्थात्‌ एक पचास-पचपन साल का भला आदमी छड़ी टेकता दूर से आता दिखाई दिया। वह इस तरह इधर-उधर नज़र डालता चल रहा था जैसे देख रहा हो कि जो ढेले-पत्थर कल वहाँ पड़े थे, वे आज भी अपनी जगह पर हैं या नहीं। जब वह मुझसे कुछ ही फ़ासले पर रह गया, तो उसने आँखें तीन-चौथाई बन्द करके छोटी-छोटी लकीरों जैसी बना लीं और मेरे चेहरे का गौर से मुआइना करता हुआ आगे बढऩे लगा। मेरे पास आने तक उसकी नज़र ने जैसे फ़ैसला कर लिया, और उसने रुककर छड़ी पर भार डाले हुए पल-भर के वक्फे के बाद पूछा, “यहाँ नए आये हो?”

जी हाँ, “मैंने उसकी मुरझाई हुई पुतलियों में अपने चेहरे का साया देखते हुए ज़रा संकोच के साथ कहा।

मुझे लग रहा था कि नए ही आये हो,” वह बोला, “पुराने लोग तो सब अपने पहचाने हुए हैं।

आप यहीं रहते हैं?” मैंने पूछा।... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)

13.जख़्म

 

हाथ पर ख़ून का लोंदा...सूखे और चिपके हुए गुलाब की तरह। फुटपाथ पर औंधे पीपे से गिरा गाढ़ा कोलतार...सर्दी से ठिठुरा और सहमा हुआ। एक-दूसरे से चिपके पुराने काग़ज़...भीगकर सडक़ पर बिखरे हुए। खोदी हुई नाली का मलबा...झडक़र नाली में गिरता हुआ। बिजली के तारों से ढका आकाश...रात के रंग में रँगता हुआ। चिकने माथे पर गाढ़ी काली भौंहें...उँगली और अँगूठे से सहलाई जा रहीं।

आवाज़ों का समन्दर...जिसमें कभी-कभी तूफ़ान-सा उठ आता। एक मिला-जुला शोर फुटपाथ की रेलिंग से, स्टालों की रोशनियों से, इससे, उससे और जिस किसी से आ टकराता। कुछ देर की कसमसाहट...और फिर बैठते शोर का हल्का फेन जो कि मुँह के स्वाद में घुल-मिल जाता...या सिगरेट के कश के साथ बाहर उड़ा दिया जाता।

सोचते होंठों को सोचने से रोकती सिगरेट थामे उँगलियाँ। क्रासिंग पर एक छोटे क़दों का रेला...ऊँचे क़दों को धकेलता हुआ। एक ऊँचे क़दों का रेला...छोटे क़दों को रगेदता हुआ। उस तरफ़ छोटे और ऊँचे क़दों का एक मिला-जुला कहकहा। बालकनी पर छटके जाते बाल। एक दरम्याना क़द की सीटी। सडक़ पर पहियों से उड़ते छींटे।

एक-एक साँस खींचने और छोडऩे के साथ उसकी नाक के बाल हिल जाते थे। वह हर बार जैसे अन्दर जाती हवा को सूँघता था। उसका आना-जाना महसूस करता था।

उसके कॉलर का बटन टूटा हुआ था। शेव की दाढ़ी का हरा रंग गर्दन की गोराई से अलग नज़र आता था। जहाँ से हड्डी शुरू होती थी, वहाँ एक गड्ïढा पड़ जाता था जो थूक निगलने या जबड़े के कसने से गहरा हो जाता था। कभी, जब उसकी ख़ामोशी ज़्यादा गाढ़ी होती, वह गड्ïïढा लगातार काँपता। कॉलर के नीचे के दो बटन हमेशा की तरह खुले थे। अन्दर बनियान नहीं थी, इसलिए घने बालों से ढकी खाल दूर तक नज़र आती थी। इतनी लाल कि जैसे किसी बिच्छू ने वहाँ काटा हो। छाती के कुछ बाल स्याह थे, कुछ सुनहरे। पर जो बटनों को लाँघकर बाहर नज़र आ रहे थे, वे ज़्यादातर सफ़ेद थे।... ... (आगे पढ़ें)


(शीर्ष पर वापस)

 

14.अपरिचित

 

कोहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुँधले पड़ गये थे। गाड़ी चालीस की रफ़्तार से सुनसान अँधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई नहीं देता था। फिर भी मैं देखने की कोशिश कर रहा था। कभी किसी पेड़ की हल्की-गहरी रेखा ही गुज़रती नज़र आ जाती तो कुछ देख लेने का सन्तोष होता। मन को उलझाए रखने के लिए इतना ही काफ़ी था। आँखों में ज़रा नींद नहीं थी। गाड़ी को जाने कितनी देर बाद कहीं जाकर रुकना था। जब और कुछ दिखाई न देता, तो अपना प्रतिबिम्ब तो कम से कम देखा ही जा सकता था। अपने प्रतिबिम्ब के अलावा और भी कई प्रतिबिम्ब थे। ऊपर की बर्थ पर सोये व्यक्ति का प्रतिबिम्ब अजब बेबसी के साथ हिल रहा था। सामने की बर्थ पर बैठी स्त्री का प्रतिबिम्ब बहुत उदास था। उसकी भारी पलकें पल-भर के लिए ऊपर उठतीं, फिर झुक जातीं। आकृतियों के अलावा कई बार नई-नई आवाज़ें ध्यान बँटा देतीं, जिनसे पता चलता कि गाड़ी पुल पर से जा रही है या मकानों की क़तार के पास से गुज़र रही है। बीच में सहसा इंजन की चीख़ सुनाई दे जाती, जिससे अँधेरा और एकान्त और गहरे महसूस होने लगते।

मैंने घड़ी में वक़्त देखा। सवा ग्यारह बजे थे। सामने बैठी स्त्री की आँखें बहुत सुनसान थीं। बीच-बीच में उनमें एक लहर-सी उठती और विलीन हो जाती। वह जैसे आँखों से देख नहीं रही थी, सोच रही थी। उसकी बच्ची, जिसे फर के कम्बलों में लपेटकर सुलाया गया था, ज़रा-ज़रा कुनमुनाने लगी। उसकी गुलाबी टोपी सिर से उतर गयी थी। उसने दो-एक बार पैर पटके, अपनी बँधी हुई मुट्ठियाँ ऊपर उठाईं और रोने लगी। स्त्री की सुनसान आँखें सहसा उमड़ आयीं। उसने बच्ची के सिर पर टोपी ठीक कर दी और उसे कम्बलों समेत उठाकर छाती से लगा लिया।

मगर इससे बच्ची का रोना बन्द नहीं हुआ। उसने उसे हिलाकर और दुलारकर चुप कराना चाहा, मगर वह फिर भी रोती रही। इस पर उसने कम्बल थोड़ा हटाकर बच्ची के मुँह में दूध दे दिया और उसे अच्छी तरह अपने साथ सटा लिया।... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)

 

15.जीनियस

जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था।

मैं उस आदमी को ध्यान से देख रहा था। मेरे साथी ने बताया था कि यह जीनियस है और मैंने सहज ही इस बात पर विश्वास कर लिया था। उससे पहले मेरा जीनियस से प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ था। इतना मैं जानता था कि अब वह पहला ज़माना नहीं है जब एक सदी में कोई एकाध ही जीनियस हुआ करता था। आज के ज़माने को जीनियस पैदा करने की नज़र से कमाल हासिल है। रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी जीनियस की चर्चा सुनने को मिल जाती है। मगर जीनियस की चर्चा सुनना और बात है, और एक जीनियस को अपने सामने देखना बिलकुल दूसरी बात। तो मैं उसे ग़ौर से देख रहा था। उसके भूरे बाल उलझकर माथे पर आ गये थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ थीं, हालाँकि उम्र सत्ताईस-अट्‌ठाईस साल से ज़्यादा नहीं थी। होंठों पर एक स्थायी मुस्कराहट दिखाई देती थी, फिर भी चेहरे का भाव गम्भीर था। वह सिगरेट का कश खींचकर नीचे का होंठ ज़रा आगे को फैला देता था जिससे धुआँ बजाय सीधा जाने के ऊपर की तरफ़ उठ जाता था। उसकी आँखें निर्विकार भाव से सामने देख रही थी। हाथ मशीनी ढंग से कॉफ़ी की प्याली को होंठों तक ले जाते थे, हल्का-सा घूँट अन्दर जाता था और प्याली वापस सॉसर में पहुँच जाती थी।

हूँ! कई क्षणों के बाद उसके मुँह से यह स्वर निकला। मुझे लगा कि उसकी हूँ साधारण आदमी की हूँ से बहुत भिन्न है। ... ... (आगे पढ़ें)

(शीर्ष पर वापस)

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.