|  बर्लिन, जर्मनी  मॉस्को से तुम्हें मैं एक बड़ी चिट्ठी में रूस के बारे में अपनी धारणा लिख 
    चुका हूँ। वह चिट्ठी अगर तुम्हें मिल गई होगी, तो रूस के बारे में कुछ बातें 
    तुम्हें मालूम हो गई होंगी।  यहाँ किसानों की सर्वांगीण उन्नति के लिए जितना काम किया जा रहा है, उसी का 
    थोड़ा-सा वर्णन लिखा था। हमारे देश में जिस श्रेणी के लोग मूक और मूढ़ हैं, 
    जीवन के संपूर्ण सुयोगों से वंचित हो कर जिनका मन भीतर और बाहर की दीनता से बैठ 
    गया है, यहाँ उसी श्रेणी के लोगों से जब मेरा परिचय हुआ, तब मैं समझ गया कि 
    समाज के अनादर से मनुष्य की चित्त-संपदा कहाँ तक लुप्त हो सकती है -- कैसा असीम 
    उसका अपव्यय है, कैसा निष्ठुर उसका अविचार है।  मॉस्को में एक कृषि भवन देखने गया था। यह संस्था उनके क्लब-सी है। रूस के 
    समस्त छोटे-बड़े शहरों और ग्रामों में इस तरह के भवन बने हुए हैं। इन सब 
    स्थानों में कृषि विद्या, समाज तत्व आदि विषयों पर उपदेश दिए जाते हैं, जो 
    निरक्षर हैं उनके लिए पढ़ने-लिखने का इंतजाम किया जाता है, और खास-खास कक्षाओं 
    में किसानों को वैज्ञानिक ढंग से खेती करने की शिक्षा दी जाती है -- हर तरह से 
    यह विषय उन्हें समझाया जाता है। इसी तरह प्रत्येक भवन में प्राकृतिक और सामाजिक 
    -- सब तरह के उपयोगी परामर्श दिए जाने की व्यवस्था है।  किसान जब किसी काम से गाँव से शहर में आते हैं, तो बहुत ही कम खर्च में अधिक 
    से अधिक तीन सप्ताह तक इस तरह के मकानों में रह सकते हैं। इस बहु-व्यापक संस्था 
    के द्वारा सोवियत सरकार ने ऐसे किसानों के, जो किसी समय बिल्कुल निरक्षर थे, 
    चित्त को उद्बोधित करके उनमें समाजव्यापी नया जीवन ला देने की प्रशंसनीय नींव 
    डाल दी है।  भवन में घुसते ही क्या देखता हूँ, कोई भोजनागार में बैठे भोजन कर रहे हैं, 
    तो कोई पाठागार में बैठे अखबार पढ़ने में लगे हुए हैं। ऊपर के एक कमरे में जा 
    कर बैठा --वहाँ सब आ कर इकट्ठा हुए। उनमें अनेक स्थानों के लोग थे, कोई बहुत 
    दूर का था, तो कोई नजदीक का। उनका स्वभाव सरल और स्वाभाविक है, किसी तरह का कोई 
    संकोच नहीं।  पहले स्वागत और परिचय के लिए भवन के परिदर्शक ने कुछ कहा। मैंने भी कुछ कहा। 
    उसके बाद उन लोगों ने मुझसे प्रश्न करना शुरू कर दिया।  पहला प्रश्न, उनमें से एक ने किया, 'भारत में हिंदू-मुसलमानों में झगड़ा 
    क्यों होता है?'  मैंने कहा, 'जब मेरी उम्र कम थी, कभी इस तरह की बर्बरता नहीं देखी। उस समय 
    गाँव के बाहर और शहर -- सर्वत्र दोनों संप्रदायों में सौहार्द की कमी नहीं थी। 
    परस्पर एक-दूसरे के क्रिया-कांडों में भाग लिया करते थे, जीवन-यात्रा के 
    सुख-दुख में दोनों एक थे। अब जो बीच-बीच में कुत्सित घटनाएँ होती दिखाई देती 
    हैं, वे देश के राष्ट्रीय जनांदोलन के बाद से शुरू हुई हैं। परंतु पड़ोसियों 
    में परस्पर इस प्रकार के अमानुषिक दुर्व्यवहार के ताजा कारण चाहे जो हों, इसका 
    मूल कारण है सर्वसाधारण में अशिक्षा। जितनी शिक्षा के द्वारा इस प्रकार की 
    दुर्बद्धि दूर हो सकती है, उतनी शिक्षा का प्रचलन आज तक वहाँ नहीं हुआ। 
    तुम्हारे यहाँ जो कुछ देखा, उससे मैं विस्मित हो गया हूँ।'  प्रश्न -- 'तुम तो लेखक हो, अपने यहाँ के किसानों के बारे में कुछ लिखा है? 
    भविष्य में उनकी क्या गति होगी?'  उत्तर -- 'मत देने योग्य मेरा अनुभव नहीं हुआ है, मैं तुम्हीं लोगों से 
    सुनना चाहता हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ कि इसमें तुम लोगों की इच्छा के 
    विरुद्ध कोई जबरदस्ती की जाती है या नहीं?'  प्रश्न -- 'क्या भारत में साधारणतः सब कोई यहाँ के संगठन तथा अन्य सब 
    उद्योगों के विषय में कुछ जानकारी नहीं रखते?'  उत्तर -- 'जानने लायक शिक्षा बहुत कम लोगों में है। इसके सिवा तुम्हारे यहाँ 
    के समाचार कितने ही कारणों से दब जाया करते हैं और जो कुछ उनके कानों तक 
    पहुँचता है, वह सब विश्वास योग्य नहीं।'  प्रश्न -- 'हमारे यहाँ ये जो किसानों के लिए भवनों की व्यवस्था है, इस संबंध 
    में क्या पहले आप कुछ नहीं जानते थे?'  उत्तर -- 'तुम लोगों के हित के लिए क्या-क्या हो रहा है, यह मैंने मॉस्को 
    में आ कर देखा और जाना। कुछ भी हो, अब मेरे प्रश्नों का उत्तर तुम लोग दो -- 
    किसान प्रजा के लिए इस संगठन के बारे में तुम्हारा क्या मत है, तुम्हारी इच्छा 
    क्या है?'  एक युवक किसान, जो यूक्रेन से आया था, बोला, 'दो वर्ष हुए एक सहकारी कृषि 
    क्षेत्र की स्थापना हुई है, मैं उसमें काम करता हूँ। इस खेती में फलों की फसल 
    के लिए बाग हैं, वहाँ से फल और साग-सब्जी सब कारखानों को भेजी जाती है। वहाँ वह 
    टीन के डिब्बों में पैक होती है। इसके सिवा बड़े-बड़े खेत हैं, वहाँ गेहूँ की 
    खेती होती है। आठ घंटे हमें काम करना होता है। पाँचवें दिन हमारी छुट्टी रहती 
    है। हमारे पड़ोसी जितने भी किसान अपनी खेती करते हैं, उनकी अपेक्षा हमारे यहाँ 
    कम से कम दूनी फसल होती है।  'लगभग प्रारंभ से ही, हमारी सहकारी खेती में डेढ़ सौ किसानों के खेत मिलाए 
    गए थे। 1929 में आधे किसानों ने अपने खेत वापस ले लिए। उसकी वजह यह हुई कि 
    सोवियत कम्यून दल के प्रधानमंत्री स्टालिन के अनुसार हमारे कर्मचारियों ने ठीक 
    तरह से काम नहीं किया। उनका मत है कि समष्टिवाद (कम्युनिज्म) की मूल नीति है 
    समाज का समष्टि रूप से स्वेच्छाकृत संगठन, परंतु बहुत जगह ऐसा हुआ कि 
    कार्यकर्ता इस बात को भूल गए, जिससे शुरुआत में बहुत-से किसानों ने संगठित 
    कृषि-समन्वय को छोड़ दिया। उसके बाद क्रमशः उनमें से चौथाई आदमी फिर आ कर 
    सम्मिलित हुए। अब हमें पहले से भी अधिक बल मिल गया है। अब हम संगठित किसानों के 
    रहने के लिए नए मकान हैं, नई भोजनशालाएँ हैं और नए स्कूल खुल गए हैं।'  इसके बाद साइबेरिया की एक किसान स्त्री ने कहा, 'सहकारी खेती के काम में मैं 
    लगभग दस वर्ष से हूँ। एक बात याद रखें, सहकारी कृषि-क्षेत्र (कलेक्टिव फार्म) 
    के साथ नारी उन्नति के उद्यम का घनिष्ठ संबंध है। आज दस वर्ष के अंदर यहाँ 
    किसान स्त्रियों में काफी परिवर्तन हो गया है। अपने पर उन्हें बहुत कुछ भरोसा 
    हो गया है। जो स्त्रियाँ पिछड़ी हुई हैं और सहकारी खेती में जो बाधक हैं, उनमें 
    भी हम संगठित स्त्रियाँ धीरे-धीरे जीवन संचार कर रही हैं। हमने संगठित 
    स्त्रियों का दल बना लिया है, भिन्न-भिन्न प्रांतों में वे भ्रमण करती हैं और 
    स्त्रियों में काम करती हैं -- मानसिक और आर्थिक उन्नति के लिए संगठन कैसा 
    लाभदायक है, इस बात को वे समझाया करती हैं। संगठित दल की किसान स्त्रियों की 
    जीवन यात्रा को सहज बनाने के लिए प्रत्येक सहकारी खेत में बच्चों के लालन-पालन 
    के लिए एक-एक शिशुशाला, शिशु विद्यालय और संयुक्त पाकशालाएँ स्थापित की गई 
    हैं।'  सुखोज प्रांत में जाइगांट नाम का एक प्रसिद्ध सहकारी कृषि क्षेत्र है। वहाँ 
    के एक किसान ने, रूस में सहकारी खेती आदि का कैसा विस्तार हो रहा है, इस विषय 
    में मुझसे कहा, 'हमारे इस खेत की जमीन का परिमाण एक लाख हेक्टेयर है। पिछले साल 
    यहाँ तीन हजार किसान काम करते थे। इस साल संख्या कुछ घट गई है, मगर फसल पहले से 
    कुछ बढ़ेगी ही, घटेगी नहीं, क्योंकि जमीन में विज्ञान के अनुसार खाद देने और 
    मशीन के हल से काम लेने की व्यवस्था हो गई है। इस तरह के हल हमारे यहाँ तीन सौ 
    से ज्यादा होंगे। प्रतिदिन आठ घंटे काम करने की मियाद है। जो उससे ज्यादा काम 
    करते हैं, उन्हें अतिरिक्त पारिश्रमिक मिलता है। जाड़े के दिनों में खेती का 
    काम घट जाता है, जब किसान शहरों में जा कर मकान बनाने और सड़क मरम्मत करने आदि 
    का काम करते हैं। अनुपस्थिति की उस अवधि में भी उन्हें वेतन का तिहाई हिस्सा 
    मिला करता है और उनके परिवार के लोगों को उन्हीं निर्दिष्ट घरों में रहने दिया 
    जाता है।'  मैंने कहा, 'सहकारी खेती में अपनी निजी संपत्ति मिला देने के बारे में तुम 
    लोगों की कोई आपत्ति या सम्मति हो, तो मुझे साफ-साफ बताओ।'  परिदर्शक ने प्रस्ताव किया कि हाथ उठा कर मत लिया जाए। देखा गया कि ऐसे भी 
    बहुत-से आदमी हैं, जिनकी सम्मति नहीं है। असम्मति का कारण क्या है, पूछने पर वे 
    अच्छी तरह समझा नहीं सके। एक ने कहा, 'मैं अच्छी तरह समझ नहीं सका।' साफ समझ 
    में आ गया कि असम्मति का कारण मानव चरित्र में ही मौजूद है। अपनी संपत्ति अपनी 
    ममता -- यह तर्क का विषय नहीं है, यह हमारा संस्कार है। अपने को हम प्रकट करना 
    चाहते हैं, संपत्ति उस प्रकाशन का एक उपाय है।  उससे भी बड़ा उपाय जिनके हाथ में है, वे महान हैं, वे संपत्ति की परवाह नहीं 
    करते। सब कुछ खो देने का काम पड़े तो उसमें भी उन्हें कोई बाधा नहीं, परंतु 
    साधारण मनुष्य के लिए अपनी संपत्ति अपने व्यक्ति-रूप की भाषा है, उसके खो जाने 
    पर वह गूँगा-सा बन जाता है। संपत्ति यदि सिर्फ अपनी जीविका के लिए होती, 
    आत्म-प्रकाश के लिए न होती, तो युक्तियों से समझना सहज हो जाता कि उसके त्याग 
    से ही जीविका की उन्नति हो सकती है। आत्म-प्रकाश के उच्चतम उपाय -- जैसे 
    बुद्धि, गुण, स्वभाव --कोई किसी से जबरदस्ती छीन नहीं सकता, संपत्ति छीनी जा 
    सकती है, धोखे से उड़ाई जा सकती है। इसीलिए संपत्ति के बाँट-बँटवारे और भोग के 
    अधिकार के लिए समाज में इतनी निष्ठुरता, इतनी धोखेबाजी और इतना अंतहीन विरोध 
    है।  मेरी तो धारणा है कि इसका एक ही मध्यम दरजे का समाधान हो सकता है, वह यह कि 
    व्यक्तिगत संपत्ति तो रहे, पर उसके भोग की एकांत या अत्यधिक स्वतंत्रता को 
    सीमित कर दिया जाए। उस सीमा के बाहर का अवशिष्ट अंश सर्वसाधारण के लिए निकल 
    जाना चाहिए। फिर संपत्ति का ममत्व लालच, धोखेबाजी या निष्ठुरता तक नहीं 
    पहुँचेगा।  सोवियतों ने इस समस्या का समाधान करते हुए उसे अस्वीकार करना चाहा है। इसके 
    लिए जबरदस्ती की हद नहीं। यह बात तो कही ही नहीं जा सकती कि मनुष्य की 
    स्वतंत्रता नहीं रहेगी, बल्कि यह कहा जा सकता है कि स्वार्थपरता नहीं रहेगी। 
    अर्थात अपने लिए कुछ तो अपना होना ही चाहिए, परंतु बाकी दूसरों के लिए होना 
    चाहिए। 'स्व' और 'पर' दोनों को स्वीकार करके ही उसका समाधान हो सकता है। दोनों 
    में किसी एक को निकाल देने से मानव चरित्र का सत्य से युद्ध छिड़ जाता है। 
    पाश्चात्य महादेश के मनुष्य 'जोर' पर अत्यधिक विश्वास रखते हैं। जिस क्षेत्र 
    में जोर की दरअसल जरूरत है, वहाँ वह निःसंदेह बड़े काम की चीज है, पर अन्यत्र 
    उससे विपत्ति की ही संभावना है। सत्य के बल को शारीरिक बल से जितनी ही प्रबलता 
    से मिलाया जाएगा, एक दिन उतनी ही प्रबलता से उसका विच्छेद होगा ही होगा।  मध्य एशिया के बास्किर रिपब्लिक के एक किसान ने कहा, 'इस समय भी मेरा अलग 
    खेत है, फिर भी मैं पास के सहकारी कृषि क्षेत्र में शीघ्र ही शामिल हो जाऊँगा, 
    क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि अलग खेती करने की अपेक्षा सहकारी खेती में बहुत 
    अच्छी और ज्यादा फसल होती है। अच्छी तरह खेती करनेवालों के लिए मशीन की जरूरत 
    पड़ती ही है, और छोटी खेती करने के लिए उसका खरीदना असंभव है। इसके सिवा, 
    छोटी-छोटी जमीनों में मशीन के हल से काम लेना असंभव है।'  मैंने कहा, 'कल एक उच्चपदस्थ अधिकारी से बात हुई थी। उन्होंने कहा कि 
    स्त्रियों और बच्चों के लिए हर तरह की सुविधाएँ जैसी सोवियत सरकार द्वारा दी गई 
    हैं, उतनी और कहीं भी नहीं दी गईं।' मैंने उनसे कहा, 'आप लोग शायद पारिवारिक 
    दायित्व को सरकारी दायित्व में परिणत करते हुए परिवार की सीमा का लोप कर देना 
    चाहते हैं।' उन्होंने कहा, 'यही हम लोगों का आसन्न अभिप्राय हो, सो बात नहीं, 
    परंतु बच्चों के दायित्व को व्यापक बना कर यदि स्वभावतः ही किसी दिन पारिवारिक 
    लकीर मिट जाए, तो यही प्रमाणित होगा कि समाज में पारिवारिक युग संकीर्णता और 
    असंपूर्णता के कारण ही नवयुग के विस्तार में अपने आप लुप्त हुआ है।'  मैंने पूछा, 'कुछ भी हो, इस विषय में तुम लोगों की क्या राय है, मैं जानना 
    चाहता हूँ। क्या तुम समझते हो कि एकत्रीकरण की नीति का पालन करते हुए तुम्हारा 
    परिवार ज्यों का त्यों बना रह सकता है?'  उस यूक्रेनी युवक ने कहा, 'हमारी नई समाज व्यवस्था ने पारिवारिकता पर कैसा 
    प्रभाव डाला है, हम अपनी तरफ से उसका एक दृष्टांत देते हैं। जब मेरे पिता जीवित 
    थे, जाड़ों के छह महीने वे शहर में काम करते थे और गरमियों के छह महीने गाँव 
    में रहते थे और मैं उस समय अपने भाई-बहनों के साथ किसी धनिक के यहाँ पशु चराने 
    की नौकरी किया करता था। पिता के साथ मेरी भेंट-मुलाकात अकसर नहीं होती थी, पर 
    अब ऐसा विच्छेद नहीं होता। शिशु विद्यालय से मेरे बच्चे रोज घर आ जाते हैं, और 
    रोज ही मैं उनसे मिलता हूँ।'  एक किसान स्त्री ने कहा, 'बच्चों की देखरेख और शिक्षा की स्वतंत्र व्यवस्था 
    होने से अब पति-पत्नी में झगड़ा-टंटा बहुत कम होता है। इसके सिवा, लड़कों के 
    प्रति पिता-माता का दायित्व कितना हो, इस बात को वह अच्छी तरह सीख सकते हैं।'
     काकेशस की युवती ने दुभाषिए से कहा, 'कवि से कहो कि हम काकेशी रिपब्लिक के 
    निवासी इस बात का अच्छी तरह से अनुभव कर रहे हैं कि अक्टूबर की क्रांति के बाद 
    से हम लोग वास्तव में स्वाधीन और सुखी हुए हैं। हम लोग नए युग की सृष्टि कर रहे 
    हैं, उसके कठिन दायित्व को हम अच्छी तरह समझते हैं, उसके लिए हम बड़े से बड़ा 
    त्याग स्वीकार करने को राजी हैं। कवि को समझा दो कि सोवियत संघ के विभिन्न 
    जातियों के लोग उनके जरिए भारतवासियों से अपनी आंतरिक सहानुभूति प्रकट करना 
    चाहते हैं। मैं कह सकती हूँ, अगर संभव होता तो मैं अपना घर-बार, बाल-बच्चे, 
    सबकुछ छोड़ कर भारतवासियों की सहायता के लिए चल देती।'  इनमें एक ऐसा युवक था, जिसका चेहरा मंगोली ढंग का था। उसके बारे में मैंने 
    पूछा, तो जवाब मिल, 'यह खिरगिज जाति के किसान का लड़का है, मॉस्को आ कर कपड़े 
    बुनने का काम सीख रहा है। तीन वर्ष बाद इंजीनियर हो कर अपने रिपब्लिक को लौट 
    जाएगा। क्रांति के बाद वहाँ एक बड़ा कारखाना खुला है, उसी में यह काम करेगा।'
     एक बात का खयाल रखना, यहाँ इन नाना जातियों के लोगों को कल-कारखानों का 
    रहस्य जानने के लिए जो इतना ज्यादा उत्साह और इतना अच्छा मौका मिला है, उसका 
    एकमात्र कारण है व्यक्तिगत स्वार्थ साधन के लिए मशीनों का व्यवहार न होना। चाहे 
    जितने आदमी इस काम को सीखें, उसमें सरकार का ही उपकार है, सिर्फ धनियों का 
    नहीं। हम अपने लोभ के कारण मशीनों को दोष देते हैं, नशेबाजी के लिए दंड देते 
    हैं ताड़ वृक्ष को, जैसे मास्टर अपनी असमर्थता के कारण विद्यार्थी को बेंच पर 
    खड़ा कर देते हैं।  उस दिन मॉस्को के कृषि भवन में मैं अपनी आँखों से स्पष्ट देख आया हूँ कि दस 
    वर्ष के अंदर रूस के किसान भारत के किसानों को कितना पीछे छोड़ गए हैं। 
    उन्होंने सिर्फ किताबें पढ़ना ही नहीं सीखा, उनका मन बदल गया है -- वे आदमी बन 
    गए हैं। सिर्फ शिक्षा की बात कहने से उसमें सब बातें नहीं आ जातीं, खेती की 
    उन्नति के लिए देश भर में व्याप्त जो बड़ा भारी उद्यम है, वह भी असाधारण है। 
    भारतवर्ष की तरह यह देश भी कृषि-प्रधान देश है, इसलिए कृषि-विद्या को जहाँ तक 
    संभव हो, आगे बढ़ाए बिना देशवासियों की रक्षा नहीं की जा सकती। वे उस बात को 
    भूले नहीं हैं। ये अत्यंत दुःसाध्य को साध्य करने में लगे हुए हैं।  सिविल सर्विस के अफसरों को मोटी-मोटी तनख्वाहें दे कर ये ऑफिस चलाने का काम 
    नहीं कर रहे हैं। जो योग्य हैं, जो वैज्ञानिक हैं, वे सबके-सब काम में जुट गए 
    हैं। इन्हीं दस वर्षों में इनके कृषि चर्चा विभाग की जैसी उन्नति हुई है, उसकी 
    ख्याति संसार भर के वैज्ञानिकों में फैल चुकी है। युद्ध के पहले इस देश में बीज 
    छाँटने की कोशिश नहीं की जाती थी। आज लगभग तीन करोड़ मन छँटे हुए बीज इनके हाथ 
    में हैं। इसके सिवा, नए अनाजों का प्रचलन सिर्फ इनके कृषि कॉलेज के आँगन में ही 
    सीमित नहीं, बल्कि बड़ी तेजी के साथ सारे देश में उनका प्रचार किया जा रहा है। 
    कृषि-संबंधी बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक परीक्षाशालाएँ अजरबैजान, उजबेकिस्तान, 
    जार्जिया, यूक्रेन आदि रूस के कोने-कोने में स्थापित हो गई हैं।  रूस के समस्त देश-प्रदेशों को, जाति-उपजातियों को समर्थ और शिक्षित बना 
    डालने के लिए इतना बड़ा सर्वव्यापी असाधारण अथक उद्योग भारत की ब्रिटिश प्रजा 
    की सुदूर कल्पना के परे है। यह बात मैं यहाँ आने से पहले सोच ही न सका था कि 
    इतने आगे बढ़ जाना भी संभव है, क्योंकि बचपन से हम जिस 'लॉ एंड ऑर्डर' की आबहवा 
    में पले हैं, वहाँ ऐसे दृष्टांत देखे ही नहीं, जो इसके पास तक फटक सकते हों।
     अबकी बार इंग्लैंड रहते हुए मैंने एक अंग्रेज से पहले-पहल यह सुना था कि 
    सर्वसाधारण के हित के लिए इन लोगों ने कैसा असाधारण आयोजन किया है। सब आँखों से 
    देखा -- देखा कि इनके राष्ट्र में जाति-वर्ण का विचार तो जरा भी नहीं है। 
    सोवियत शासन के अंतर्गत लगभग बर्बर प्रजाओं में शिक्षा प्रचार के लिए इन लोगों 
    ने जिस उत्कृष्ट पद्धति की व्यवस्था की है, भारत के सर्वसाधारण के लिए वह 
    दुर्लभ है। फिर भी, अशिक्षा के अनिवार्य फलस्वरूप हमारी बुद्धि और हमारे चरित्र 
    में जो दुर्बलता है, हमारे व्यवहार में जो क्रूरता है, देश-विदेशों में भी उसकी 
    बदनामी हो रही है। अंग्रेजी में एक कहावत है, 'जिस कुत्ते को गोली मारना है, 
    उसकी बदनामी करने से यह काम सहज हो जाता है।' जिससे बदनामी कभी मिट ही न सके, 
    ऐसा उपाय करने से यावज्जीवन कैद और फाँसी, दोनों को मिला लिया जा सकता है।  1 अक्टूबर 1930  |