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तमिल कहानी
छुईमुई हिंदी अनुवाद - डॉ. कमला विश्वनाथन
"अनु,
दादी को हाथ मत लगाना। ये देखो रेवती का भड़कता गुस्सा अनु की कैसी दुर्गति बना रहा है। पद्मावती के मन में पद्मावती के मन में दुख का आवेग उमड़ने लगा। मेरी खातिर बेचारी कोमल जान मार खा रही है। गलती तो मेरी है न। हे भगवान!" होठों को भींचकर मुँह बंद कर रुलाई रोकते हुए उसने ईश्वर से विनती की। अनु ज़ोर से रोने में असमर्थ हिचकी लेती रही। "हुश
आवाज़ नहीं आनी चाहिए,
आँख में
एक बूँद आँसू न
आए,
ले
इसे खा ले,
नीचे मत
गिराना,
नो
क्रायिंग।" रेवती बड़बड़ाई और कटोरी में दही
भात और चम्मच अनु के हाथ में पकड़ा दिया। भर्राए गले और आंखों में रूलाई को
भीतर ही
रोकते हुए,
अनु कटोरी हाथ में लेकर स्वयं ही डायनिंग टेबल के पास जा,
कुर्सी खींच
बैठ गई और
चम्मच से भात ले बड़ी मुश्किल से खाने लगी।
अनु
बैठक में एक कोने में लुढ़क गई और बैठक के अन्तिम
छोर पर बने छोटे कमरे में बैठी दादी को तरसाती निगाहों से निहारती रही। सुबह
आँखे खुलते ही ... उस कमरे के बाहर भी किवाड़ था। बाहर निकलना हो तो वहीं से जाना पड़ता। कमरे में ही गुसलखाना, स्नानगृह, खाने की प्लेट, कॉफी के लिए गिलास, पानी का नल, दरी, तकिया, चादर, छोटा रेडियो और पोर्टेबल टी. वी. लगा दिया था। उस कमरे का किवाड़ बाहर सिटआऊट में खुलता था। अपने कपड़े खुद धोकर सुखाने पड़ते थे। स्टूल पर बैठे सड़क की चहल-पहल देख सकती थी। जो चाहे करने की आज़ादी थी। परन्तु कमरे से बाहर निकल इस तरफ़ आने पर प्रतिबंध था। सुबह से लेकर रात सोने तक यह आठ फीट लम्बा कमरा ही सब कुछ था। केवल घर ही नहीं, परन्तु जीवन भी कारागार बन गया था। महरी भी कमरा झाड़ने पोंछने नहीं आती थी। बाहर के किसी व्यक्ति को देखे बिना महींनों गुज़र जाते। मानव-स्पर्श के लिए तरसते हुए कई दिन बीत जाते, अब तो स्पर्श की अनुभूति ही मिट-सी गई थी। छप... छप... छप... अनु के अंगुठा चूसने की आवाज़ कानों में पड़ी। पद्मावती का मन भर आया। मन हुआ कि जा कर उस नारियल के पौधे को गोद में सुलाकर उसके कटे छोटे बाल सहला दूँ। रोएँ समान कोमल एड़ियों को गोद में रख धीरे-धीरे सहला दूँ, उस कोमल लता को भींच कर सोने का मन चाहा पर... पर यह कैसे संभव होता? लगा दु:ख से छाती फट जाएगी और पद्मावती वेदना से छटपटाने लगी। "मेरी
पोती है अनु... मैं उसे छूना चाहती हूँ। पर उसकी
छटपटाहट रेवती के कानों में नही पड़ी। स्पीकर फोन पर अमेरिका की लाईन... "वैसे ही मेरी कोई सहेली घर नहीं आना चाहती।" होम" में जाकर रहने को कहती हूँ तो मानती नहीं हैं, क्या आप भी चाहती हैं कि हम लोग भी यह कष्ट भुगतें?" "क्यों? यह बदला लेने की प्रवृत्ति क्यों? मैं दूसरा घर ढूँढ़ लेती हूँ आप इस घर में खुशी से रहिए, कल मैं ही चली जाती हूँ यही एक रास्ता है।" दीवारों और हवाओं को सुनाते हुए रेवती बड़बड़ाने लगी। उसकी चिढ़ भी हाल में ही बढ़ी थी। पहले तो दोनो बड़े प्रेम से रहती थीं। "सास बहू जैसे थोड़ी रहती हैं? अपनी बेटी से भी शायद कोई इतना प्यार करता होगा।" लोग उन दोनो के बारे में ऐसा कहते थे। पता नहीं किसकी नज़र लग गई। पहले दोनों साथ-साथ घर सजाती थीं। नए नए पकवान बनाती थीं। रेवती की कायनेटिक हौण्डा पर बैठ पार्क, मंदिर, प्रदर्शनी, समुद्रतट आदि सभी स्थलों की सैर करने जातीं। "क्लब
की मीटिंग छे बजे ख़त्म होगी। वहीं रहिएगा मैं
पिक अप कर लूँगी।" रेवती अपनी सास से कहती और ठीक छे बजे पहुँच भी जाती
थी। ये बातें पिछले जनम की लगती हैं पद्मावती को अब। छे महीने पहले शुरू हुई थी दुर्दशा की यह कहानी। नारी निकेतन की संचालिका ने उत्साहपूर्वक कहा था, "हमारा यह संगठन बहुत मशहूर हो गया है, आप लोग जानती हैं न?" हाँ, हाँ... पत्रिका में फोटो देखी थी और इसके बारे में पढ़ा भी था। जिन-जिन लोगों ने जोश में काम शुरू किया सब किसी न किसी बहाने पीछे हट गईं। परन्तु पद्मावती बोली, "कोई बात नहीं, मेरा बेटा विदेश जा रहा है, मेरे पास वक्त बहुत है मैं करूँगी, इन लोगों की मदद ईश्वर की सेवा करना होगा।" उसने
सच्ची निष्ठा से इन लोगों की सेवा की। उनका शरीर
पोंछना,
कपड़े
बदलना,
कहानी
सुनाना,
भय दूर
भगाना,
फूल
काढ़ना आदि सिखाते हुए जब
उनकी मदद करने लगी,
तभी
समस्या शुरू हुई। यह आठ फीट लम्बा कमरा उसका सब कुछ बनकर रह गया। अब जब तक उसकी अंतिम किया नहीं होती तब तक यहीं रहना है। इस तरह के ख्यालों के कारण दुख और तीव्र हो गया और इस दुख के सागर में डूबते-उतराते वे सो गई। थाली में रखा भात पड़ा-पड़ा सूख कर कड़ा हो गया। सिट-आऊट में बैठे-बैठे बाहर का नज़ारा देख रही थी पद्मावती। सुबह की धूप, सड़क पर तेज़ी से भागती गाडियाँ... बिना रुके तेज़ रफ्तार से भागते लोग... तेज़ी से भागती भीड़। इनमें किसी को यह बीमारी लगी होगी? मेरी तरह इनका हृदय भी विदीर्ण हुआ होगा? क्या अकेलापन के सूने सागर में ये भी मेरी तरह डूबे उतराए होंगे? पद्मावती ने सोचा। बगल के फ्लैट में रहने वाला भी तो कोई नहीं आता। उसकी ओर देख मुसकुराते भी तो नहीं वो लोग। क्या मुसकुराने से भी कोई बीमारी फैलती हैं? पद्मावती को लगा जैसे सारा संसार सूना - - सूखा कहनेवाला और उजाड़ हो गया। मित्र-भाव मिट गया है। अकेलापन... अकेलेपन की आग, जी को भी जलकर भस्म कर रही हैं, अपना कोई नहीं हैं। चारों ओर लोगों की भीड़ है पर अपना आत्मीय कोई भी नहीं हैं... अकेलापन ही साथी है। सवेरा होते ही रेवती भी अनु को लेकर चली जाती है। रेवती ने अनु को क्रेच में भर्ती कर दिया हैं। "आपको
उसकी देखभाल करने की ज़रूरत नहीं हैं,
मैं स्वयं
ही छोड़
भी आऊँगी और ले भी आऊँगी।" नरक की आग में उन्हें भून रही थी बहू। क्या करूँ? सोचने लगी पद्मावती... अगर मैं घर से बाहर निकलकर न जाऊँ तो खुद घर छोड़ देने की धमकी दे रही हैं बहू। शायद मुझे ही चले जाना चाहिए? रेवती तो कम से कम खुश हो जाएगी। चार महीने में मेरा बेटा आ जाएगा। क्या तब तक स्थिति टाली नहीं जा सकती।" इतने
कम समय में कोहनी,
घुटने,
यहाँ वहाँ... हर जगह
नसें फूलने लगी थी और गाँठ पड़ने लगी थी। उँगलियों के पोर सुन्न पडने लगे
थे। कान
का बाहरी
हिस्सा फूल कर हाथी के कान जैसा हो गया था। पद्मावती का रंग तो वैसे ही
गोरा था पर इस वक्त उस पर एक विशिष्ट चमक आ गई थी।
'स्किन
बायोप्सी'
टेस्ट की
रिपोर्ट आज आनेवाली थी। शाम तीन बजे चर्म-रोग विशेषज्ञ डॉ टराजन जी से
मिलना होगा।
बेकार
बैठे-बैठे जब चिढ़ होने लगी तो पद्मावती डॉक्टर के पास चल पड़ी। ऊपरी
मंज़िल
से एक
सफ़ेद मारुति कार जिसका स्टीरियो ऊँची आवाज़ में बज रहा था। कबूतर समान
फिसलती हुई कार के पास आ कर रुक गई। इस संकरी गली में गाड़ियों का आना-जाना
लगा
रहता हैं।
"अरे! यह तो मालती की गाड़ी हैं।"
पद्मावती की उँगलियाँ पहले बहुत पतली थी। फूल के समान कोमल और नरम, हाथ रुई के समान थे, अब तो मुड़ने लगी थी, केवल उँगलियाँ ही नहीं वरन उसकी ज़िन्दगी भी। पद्मावती सबसे प्यार से मिलती, अपनेपन से बातें करती और आत्मीयता से पेश आती। मैं माँ हूँ, धरती के सभी लोग मेरे बच्चे हैं। उनका व्यवहार सबके साथ इसी तरह का होता था। अरी
कन्नम्मा...यह मेरी बेटी हैं?
यहाँ आ बेटी... उसके
गाल सहलाती और नज़र उतारती। बच्चों की मदद करते समय उन्हें कतार में बिठाकर
प्यार
से सहलाकर
हाथ थामे पढ़ाती।
मानव-मानव के बीच कैसा छूत! हम जैसे ही तो हैं वे लोग
भी... वही खून,
माँसपेशियाँ,
हड्डियाँ,
सांस या भोजन,
हँसते हुए
वह जवाब
देती।
ज़िन्दगी से कोई लगाव,
कोई रुचि
नहीं रह गई थी। लगता
था
जैसे निष्प्राण हो गई हो। सीढियाँ उतरकर नीचे आई। बाहर कोने में खड़ी रही। साढ़े चार बज रहे थे, अनु के आने का समय हो गया था। आँखों में भरकर ले जाना चाहती थी। अनु बड़ी हो कर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेगी, तो क्या ये लोग उसे सुचित करेंगे? दादी को पोती के लिए कुछ देने देंगे? फूल की तरह विहँसती पोती को देखने देंगे? उसका माथा चूमने देंगे? नज़र उतारने देंगे? "दादी..." "मैं
होम में जा रही हूँ।" हाथ
छुड़ाकर जब अनु भागने को उद्धत हुई तो उसने उसे
कसकर पकड़ लिया। "जल्दी से जाती क्यों नहीं?
तमाशा करना हैं क्या?
बच्ची को
रुलाना
है क्या?
मरने तक आपकी यह हरकतें चैन नहीं लेने देंगी!" अद्भुत
ज़ंजीरें... कभी न तोड़ सकनेवाली ज़ंजीरें! "
हे
भगवान! अब सहा नहीं जाता... सड़क उसकी हँसी उड़ाने लगी। घर लौटने में चार बज गए। 'स्किन बायोप्सी' टेस्ट पोजिटिव था। पद्मावती निष्प्राण शरीर लिए घिसटती हुई घर आई।ऐसी सज़ा क्यों? पुत्र, बहू, पोती, समाजसेवा, जैसे छोटे से दायरे में निश्चिंत जी रही मुझे, रिश्तों की समाधि क्यों मिली? अब मैं इस घर में नहीं रह सकती। घर छोड़ने का समय आ गया हैं। परिवार से अलग होना ही पड़ेगा। "किसी
को मत छूइएगा... होम में जाना ही बेहतर होगा। इस
चिट्ठी को रख लीजिये। आज ही भर्ती हो जाइए।" डॉक्टर ने भी कह दिया। दो
साडियाँ और दो ब्लाउज थैले में ठूँस लिया।। अनु की
फोटो मिल जाती तो मन निश्चिंत हो जाता। फोटो तो छूने से अशुद्ध नहीं होगा
न...बच्ची
की फ्रॉक
मिल जाती तो अच्छा रहता। रेवती
चिल्लाई "अनु रुक जा गाड़ी आ रही हैं।" क़रीब आते अनु के करुणामय क्रंदन को सुन कर पद्मावती मुड़ी। अनु तूफ़ानी वेग से आती कार को बिना देखें दौड़ती चली आ रही थी। स्थिति की गंभीरता समझ, झपटकर बच्ची को गेंद की तरह उठा कर उसने उछाल दिया, कार पद्मावती को रौंदती हुई तेज रफ्तार से गुज़र गई। "अनु...अ...नु।"
आसपास की हवा में पद्मावती की धीमी
आवाज़ घुल गई।
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