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              समय हवा की तरह उड़ता चला जाता है। एक महीना गुजर गया। जाड़े का कूँच 
              हुआ और गर्मी की लैनडोरी होली आ पहुँची। इस बीच में अमृतराय ने 
              दो-तीन जलसे किये और यद्यपि सभासद दस से ज्यादा कभी न हुए मगर 
              उन्होंने हियाव न छोड़ा। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि चाहे कोई 
              आवे या न आवे, मगर नियत समय पर जलसा जरुर किया करुगॉँ। इसके उपरान्त 
              उन्होंने देहातों में जा-जाकर सरल-सरल भाषाओं में व्याख्यान देना 
              शुरु किया और समाचार पत्रों में सामाजिक सुधार पर अच्छे-अच्छे लेख भी 
              लिखे। इनकों तो इसके सिवाय कोई काम न था। उधर बेचारी प्रेमा का हाल 
              बहुत बेहाल हो रहा था। जिस दिन उसे-उनकी आखिरी चिट्टी पहुँची थी उसी 
              दिन से उसकी रोगियों की-सी दशा हो रही थी। हर घड़ी रोने से काम था। 
              बेचारी पूर्ण सिरहाने बैठे समझाया करती। मगर प्रेमा को जरा भी चैन न 
              आता। वह बहुधा पड़े-पड़े अमृतराय की तस्वीर को घण्टों चुपचाप देखा 
              करती। कभी-कभी जब बहुत व्याकुल हो जाती तो उसके जी मे आता कि मौ भी 
              उनकी तस्वीर की वही गत करुँ जो उन्होंने मेरी तस्वीर की की है। मगर 
              फिर तुरन्त यह ख्याल पलट खा जाता। वह उस तसवी को आँखों से लेती, उसको 
              चूमती और उसे छाती से चिपका लेती। रात में अकेले चारपाई पर पड़े-पड़े 
              आप ही आप प्रेम और मुहब्ब्त की बातें किया करती। अमृराय के कुल 
              प्रेम-पत्रों को उसने रंगीन कागज पर, मोटे अक्षरों, में नकल कर लिया 
              था। जब जी बहुत बेचैन होता तो पूर्ण से उन्हें पढ़वाकर सुनती और 
              रोती। भावज के पास तो वह पहले भी बहुत कम बैठती थी, मगर अब मॉँ से भी 
              कुछ खिंची रहती। क्योंकि वह बेटी की दशा देख-देख कुढ़ती और अमृतराय 
              को इसका करण समझकर कोसती। प्रेमा से यह कठोर वचन न सुने जाते। वह खुद 
              अमृतराय का जिक्र बहुत कम करती। हाँ, अब पूर्णा या कोई और दूसरी 
              सहेली उनकी बात चलाती तो उसको खूब कान लगाकर सुनाती। प्रेमा एक ही 
              मास में गलकर कॉँटा हो गयी। हाय अब उसको अपने जीवन की कोई आशा न थी। 
              घर के लोग उसकी दवा-दारू में रुपया ठीकरी की तरह फूक रहे थे मगर उसको 
              कुछ फयदा न होता। कई बार लाला बदरीप्रसाद जी के जी में यह बात आई कि 
              इसे अमृतराय ही से ब्याह दूँ। मगर फिर भाई-बहन के डर से हियाव न 
              पड़ता। प्रेमा के साथ बेचारी पूर्णा भी रोगिणी बनी हुई थी। 
               
              आखिर होली का दिन आया। शहर में चारों ओर अबीर और गुलाल उड़ने लगा, 
              चारों तरफ से कबीर और बिरादरीवालों के यहाँ से जनानी सवारियॉँ आना 
              शुरु हुई और उसे उनकी खातिर से बनाव-सिगार करना, अच्छे-अच्छे कपड़ा 
              पहनना, उनका आदर-सम्मान करना और उनके साथ होली खेलना पड़ा। वह हँसने, 
              बोलने और मन को दूसरी बातों में लगाने के लिए बहुत कोशिश करती रही। 
              मगर कुछ बस न चला। रोज अकेल में बैठकर रोया करती थी, जिससे कुछ तसकीन 
              हो जाती। मगर आज शर्म के मारे रो भी न सकती थी। और दिन पूर्ण दस बजे 
              से शाम तक बैठी अपनी बातों से उसका दिल बहलाया करती थी मगर थी मगर आज 
              वह भी सवेरे ही एक झलक दिखाकर अपने घर पर त्योहार मना रही थी। हाय 
              पूर्णा को देखते ही वह उससे मिलने के लिए ऐसी झपटी जैसे कोई चिड़िया 
              बहुत दिनों के बाद अपने पिंजरे से निकल कर भागो। दोनो सखियॉँ गले मिल 
              गयीं। पूर्णा ने कोई चीज मॉँगी—शायद कुमकुमे होंगे। प्रेमा ने सन्दूक 
              मगाया। मगर इस सन्दूक को देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये। 
              क्योंकि यह अमृतराय ने पर साल होली के दिन उसके पास भेजा था। थोड़ी 
              देर में पूर्णा अपने घर चली गयी मगर प्रेमा घंटो तक उस सन्दूक को 
              देख-देख रोया की। 
               
              पूर्णा का मकान पड़ोसी ही में था। उसके पति पण्डित बसंतकुमार बहुत 
              सीधे मगर शैकीन और प्रेमी आदमी थे। वे हर बात स्त्री की इच्छानुसार 
              करते। उन्होंने उसे थोड़ा-बहुत पढ़या भी था। अभी ब्याह हुए दो वर्ष 
              भी न होने पाये थे, प्रेम की उमंगे दोनों ही दिलों में उमड़ हुई थी, 
              और ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों उनकी मुहब्बत और भी गहरी 
              होती जाती थी। पूर्णा हरदस पति की सेवा प्रसन्न रहती, जब वह दस बजे 
              दिन को दफ्तर जाने लगते तो वह उनके साथ-साथ दरवाजे तक आती और जब तक 
              पण्डित जी दिखायी देते वह दरवाजे पर खड़ी उनको देखा करती। शाम को जब 
              उनके आने का समय हाता तो वह फिर दरवाजे पर आकर राह देखने लगती। और 
              ज्योंही व आ जाते उनकी छाती से लिपट जाती। और अपनी भोली-भाली बातों 
              से उनकी दिन भर की थकन धो देती। पंडित जी की तरख्वाह तीस रुपये से 
              अधिक न थी। मगर पूर्णा ऐसी किफ़यात से काम चलाती कि हर महीने में 
              उसके पास कुछ न कुछ बच रहता था। पंडित जी बेचारे, केवल इसलिए कि बीवी 
              को अच्छे से अच्छेगहने और कपड़े पहनावें, घर पर भी काम किया करते। जब 
              कभी वह पूर्णा को कोई नयी चीज बनवाकर देते वह फूली न समाती। मगर 
              लालची न थी। खुद कभी किसी चीज के लिए मुँह न खोलती। सच तो यह है कि 
              सच्चे प्रेम के आन्नद ने उसके दिल में पहनने-ओढ़ने की लालसा बाकी न 
              रक्खी थी। 
               
              आखिर आज होली का दिन आ गया। आज के दिन का क्या पूछना जिसने साल भर 
              चाथड़ों पर काटा वह भी आज कहीं न कहीं से उधार ढूँढ़कर लाता है और 
              खुशी मनाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना 
              पाप है। पंडित जी की शादी के बाद यह दूसरी होली पड़ी थी। पहली होली 
              में बेचारे खाली हाथ थे। बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर अब की 
              उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थी। कोई डढ़ सौ, रुपया ऊपर से कमाया 
              था, उसमें बीवी के वास्ते एक सुन्दर कंगन बनवा था, कई उत्तम साड़ियाँ 
              मोल लाये थे और दोस्तों को नेवता भी दे रक्खा था। इसके लिए 
              भॉँति-भॉँति के मुरब्बे, आचार, मिठाइयॉँ मोल लाये थे। और गाने-बजाने 
              के समान भी इकट्टे कर रक्खे थे। पूर्णा आज बनाव-चुनाव किये इधर-उधर 
              छबि दिखाती फिरती थी। उसका मुखड़ा कुन्दा की तरह दमक रहा था उसे आज 
              अपने से सुन्दर संसार में कोई दूसरी औरत न दिखायी देती थी। वह 
              बार-बार पति की ओर प्यार की निगाहों से देखती। पण्डित जी भी उसके 
              श्रृंगार और फबन पर आज ऐसी रीझे हुए थे कि बेर-बेर घर में आते और 
              उसको गले लगाते। कोई दस बजे होंगे कि पण्डित जी घर में आये और 
              मुस्करा कर पूर्णा से बोले—प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको आँखों 
              में बैठे लें। पूर्णा ने धीरे से एक ठोका देकर और रसीली निगाहों से 
              देखकर कहा—वह देखों मैं तो वहाँ पहले ही से बैठी हूँ। इस छबि ने 
              पण्डित जी को लुभा लिया। वह झट बीवी को गले से लगाकर प्यार करने। 
              इन्हीं बातों में दस बजे तो पूर्णा ने कहा—दिन बहुत आ गया है, जरा 
              बैठ जाव तो उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में अबेर-सबेर होने से 
              सर दर्द होने लेगेगा। 
               
              पण्डित जी ने कहा—नहीं-नहीं दो। मैं उबटन नहीं मलवाऊँगा। लाओ धोती 
              दो, नहा आऊँ। 
               
              पूर्णा—वाह उबटन मलवावैंगे। आज की तो यह रीति ही है। आके बैठ जाव। 
               
              पण्डित—नहीं, प्यारी, इसी वक्त जी नहीं चाहता, गर्मी बहुत है। 
               
              पूर्णा ने लपककर पति का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने 
              लगी। 
               
              पण्डित—मगर ज़रा जल्दी करना, आज मैं गंगा जी नही जाना चाहता हूँ। 
               
              पूर्णा-अब दोपहर को कहाँ जाओगे। महरी पानी लाएगी, यहीं पर नहा लो। 
               
              पण्डित—यही प्यारी, आज गंगा में बड़ी बहार रहेगी। 
               
              पूर्णा—अच्छा तो ज़रा जल्दी लौट आना। यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। 
              नहाते वक्त तुम बहुत तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो। 
               
              थोड़ी देर मे पण्डित जी उबटन मलवा चुके और एक रेश्मी धोती, साबुन, 
              तौलिया और एक कमंडल हाथ मे लेकर नहाने चले। उनका कायदा था कि घाट से 
              जरा अलग नहा करते यह तैराक भी बहुत अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे 
              तैराको से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न 
              तैरेगे मगर हवा ऐसी धीमी-धीम चल रही थी और पानी ऐसा निर्मल था कि 
              उसमे मद्धिम-मद्धिम हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों 
              पर था कि जी तैरने पर ललचाया। तुरंत पानी में कूद पड़े और इधर-उधर 
              कल्लोंले करने लगे। निदान उनको बीच धारे में कोई लाल चीजे बहती 
              दिखाया दी। गौर से देखा तो कमल के फूल मालूम हुए। सूर्य की किरणों से 
              चमकते हूए वह ऐसे सुन्दर मालम होते थे कि बसंतकुमार का जी उन पर मचल 
              पड़ा। सोचा अगर ये मिल जायें तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमके 
              बनाऊँ। वे मोटे-ताजे आदमी थे। बीच धारे तक तैर जाना उनके लिए कोई 
              बड़ी बात न थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी 
              दीवानी होती है। यह न सोचा था कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढूँगा 
              त्यों-त्यों फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और कोई पन्द्रह मिनट में 
              बीच धारे में पहूँच गये। मगर वहाँ जाकर देखा तो फूल इतना ही दूर और 
              आगे था। अब कुछ-कुछ थकान मालूम होने लगी थी। मगर बीच में कोई रेत ऐसा 
              न था जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गये। कभी हाथों से ज़ोर 
              मारते, कभी पैरों से ज़ोर लगाते, फूलों तक पहूँचे। मगर उस वक्त तक 
              हाथ-पॉँव दोनों बोझल हो गये थे। यहाँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब 
              हाथ लपकाना चाहा तो उठ न सका। आखिर उनको दॉँतों मे दबाया और लौटे। 
              मगर जब वहाँ से उन्होंने किनारों की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ मानों 
              हजार कोस की मंजिल है। बदन में जरा भी शक्ति बाकी न रही थी और पानी 
              भी किनारे से धारें की तरफ बह रहा था। उनका हियाव छूट गया। हाथ उठाया 
              तो वह न उठे। मानो वह अंग में थे ही नहीं। हाय उस वक्त बसंतकुमार के 
              चेहरे पर जो निराशा और बेबसी छायी हुई थी, उसके खयाल करने ही से छाती 
              फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त प्यारी 
              पूर्णा की सुधि आयी कि वह मेरी बाट देख रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी 
              मोहनी सूरत आँखें के सामने खड़ी हो गयी। एक बार और हाथ फेंका मगर कुछ 
              बस न चला। आँखों से आँसू बहने लगे और देखते-देखते वह लहरों में लोप 
              हा गये। गंगा माता ने सदा के लिए उनको अपनी गोद मे लिया। काल ने फूल 
              के भेस मे आकर अपना काम किया। 
               
              उधर हाल का सुलिए। पंडित जी के चले आने के बाद पूर्णा ने थालियॉँ 
              परसीं। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें मिलाया। पंडित जी के लिए 
              सन्दूक से नये कपड़े निकाले। उनकी आसतीनों में चुन्नटें डाली। टोपी 
              सादी थी, उसमें सितारें टॉँके। आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ 
              समझा जाता है। उसने अपने कोमल हाथों से केसर और चन्दन रगड़ा, पान 
              लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा में रक्खे। रात ही को प्रेमा के 
              बग़ीचे से सुन्दर कलियॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपड़े में लपेट कर 
              रख दिया था। इस समय वह खूब खिल गयी थीं। उनको तागे में गुँथकर सुन्दर 
              हार बनाया और यह सब प्रबन्ध करके अपने प्यारे पति की राह देखने लगी। 
              अब पंडित जी को नहाकर आ जाना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं 
              हुई। आते ही होगें, यही सोचकर पूर्णा ने दस मिनट और उनका रास्ता 
              देखा। अब कुछ-कुछ चिंता होने लगी। क्या करने लगे? धूप कड़ी हो रही 
              है। लौटने पर नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदाचित यार दोस्तों से 
              बातों करने लगे। नहीं-नहीं मैं उनकों खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते 
              हैं तो तैरने की सुझती है। आज भी तैर रहे होंगे। यह सोचकर उसने आधा 
              घंटे और राह देखी। मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। 
              महरी से कहा—‘बिल्लों जरा लपक तो जावा, देखो क्या करने लगे। बिल्लों 
              बहुत अच्छे स्वाभव की बुढ़िया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके 
              बाल पक गये थे। यह इन दोनों प्राणियों को अपने लड़कों के समान समझती 
              थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहाँ जाकर क्या देखती है 
              कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा हैं। पंडित जी की धोती, तौलिया, 
              साबुन कमंडल सब किनारे पर धरे हुए हैं। यह देखते ही उसके पैर मन-मन 
              भर के हो गए। दिल धड़-धड़ करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या 
              नारायण यह क्या ग़जब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नज़दीक पहूँची तो एक 
              मल्लाह ने कहा—काहे बिल्लों, तुम्हारे पंडित नहाय आवा रहेन। 
               
              बिल्लो क्या जवाब देती उसका गला रुँध गया, आँखों से आँसू बहने लगे, 
              सर पीटने लगी। मल्लाहों ने समझाया कि अब रोये-पीटे का होत है। उनकी 
              चीज वस्तु लेव और घर का जाव। बेचारे बड़े भले मनई रहेन। बिल्लो ने 
              पंडित जी की चीजें ली और रोते-पीटती घर की तरफ चली। ज्यों-ज्यों वह 
              मकान के निकट आती त्यों-त्यों उसके कदम पिछे को हटे आते थे। हाय 
              नाराण पूर्णा को यह समाचार कैसे सुनाऊँगी वह बिचारी सोलहो सिंगार 
              किये पति की राह देख रही है। यह खबर सुनकर उसकी क्या गत होगी। इस 
              धक्के से उसकी तो छाती फट जायगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई बिल्लो 
              ने रोते हुए घर में कदम रक्खा। तमाम चीजें जमीन पर पटक दी और छाती पर 
              दोहत्थड़ मार हाय-हाय करने लगी। बेचारी पूर्णा इस वक्त आईना देख रही 
              थी। वह इस समय ऐसी मगन थी और उसका दिल उमंगों और अरमानों से ऐसा भरा 
              हुआ था कि पहले उसको बिल्लो के रोने-पीटने का कारण समझ में न आया। वह 
              हकबका कर ताकने लगी कि यकायक सब मजारा उसकी समझ में आ गया। दिल पर एक 
              बिजली कौंध गयी। कलेजा सन से हो गया। उसको मालूम हो गया कि मेरा 
              सुहाग उठ गया। जिसने मेरी बॉँह पकड़ी थी उससे सदा के लिए बिछड़ गयी। 
              उसके मुँह से केवल इतना निकला—‘हाय नारायण’ और वह पछाड़ खाकर धम से 
              ज़मीन पर गिर पड़ी। बिल्लो ने उसको सँभाला और पंखा झलने लगी। थोड़ी 
              देर में पास-पड़ोस की सैंकड़ों औरते जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत आदमी 
              एकत्र हो गये। राय हुई कि जाल डलवाया जाय। बाबू कमलाप्रसाद भी आये 
              थे। उन्होंने पुलिस को खबर की। प्रेमा को ज्योंही इस आपत्ति की खबर 
              मिली उसके पैर तले से मिट्टी निकल गयी। चटपट आढकर घबरायी हुई कोठे से 
              उतरी और गिरती-पड़ती पूर्णा की घर की तरफ चली। मॉँ ने बहुत रोका मगर 
              कौन सुनता है। जिस वक्त वह वहाँ पहुँची चारों ओर रोना-धोना हो रहा 
              था। घर में ऐसा न था जिसकी आँखों से आँसू की धारा न बह रही हो। 
              अभगिनी पूर्णा का विलाप सुन-सुनकर लोगों के कलेजे मुँह को आय जाते 
              थे। हाय पूर्णा पर जो पहाड़ टूट पड़ा वह सातवे बैरी पर भी न टूटे। 
              अभी एक घंटा पहले वह अपने को संसार की सबसे भाग्यवान औरतों में 
              समसझती थी। मगर देखते ही देखते क्या का क्या हो गया। अब उसका-सा 
              अभागा कौन होगा। बेचारी समझाने-बूझाने से ज़रा चुप हो जाती, मगर 
              ज्योंही पति की किसी बात की सुधि आती त्यों ही फिर दिल उमड़ आता और 
              नयनों से नीर की झड़ी लग जाती, चित्त व्याकुल हो जाता और रोम-रोम से 
              पसीना बहने लगता। हाय क्या एक-दो बात याद करने की थी। उसने दो वर्ष 
              तक अपने प्रेम का आन्नद लूटा था। उसकी एक-एक बात उसका हँसना, उसका 
              प्यार की निगाहों से देखना उसको याद आता था। आज उसने चलते-चलते कहा 
              था—प्यारी पूर्णा, जी चाहता हैं, तुझे आँखों में बिठा लूँ। अफसोस हे 
              अब कौन प्यार करेगा। अब किसकी पुतलियों में बैठूँगी कौन कलेजे में 
              बैठायेगा। उस रेशमी धोती और तोलिया पर दृष्टि पड़ी तो जोर से चीख उठी 
              और दोनों हाथों से छाती पीटने लगी। निदान प्रेमा को देखा तो झपट कर 
              उठी और उसके गले से लिपट कर ऐसी फूट-फूट कर रोयी कि भीतर तो भीतर 
              बाहर मुशी बदरीप्रसाद, बाबू कमलाप्रसाद और दूसरे लोग आँखों से रुमाल 
              दिये बेअख्तियार रो रहे थे। बेचारी प्रेमा के लिए महीने से खाना-पीना 
              दुर्लभ हो रहा था। विराहनल में जलते-जलते वह ऐसी दूर्बल हो गयी थी कि 
              उसके मुँह से रोने की आवाज तक न निकलती थी। हिचकियॉँ बँधी हुई थीं और 
              आँखों से मोती के दाने टपक रहे थे। पहले व समझती थी कि सारे संसार 
              में मैं ही एक अभागिन हूँ। मगर इस समय वह अपना दु:ख भूल गयी। और बड़ी 
              मुश्किल से दिल को थाम कर बोली—प्यारी सखी यह क्या ग़ज़ब हो गया? 
              प्यारी सखी इ़सके जवाब में अपना माथा ठोंका और आसमान की ओर देखा। मगर 
              मुँह से कुछ न बोल सकी। 
               
              इस दुखियारी अबला का दु:ख बहुत ही करुणायोग्य था। उसकी जिन्दगी का 
              बेड़ा लगानेवाला कोई न था दु:ख बहुत ही करुणयोग्या था उसकी जिन्दगी 
              का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में सिर्फ एक बूढ़े बाप 
              से नाता था और वह बेचारा भी आजकल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में 
              जिससे अपनापा था वह परलोक सिधारा, न सास न ससुर न अपने न पराये। काई 
              चुल्लू भर पानी देने वाला दिखाई न देता था। घर में इतनी जथा-जुगती भी 
              न थी कि साल-दो साल के गुजारे भर को गुजारे भर हो जाती। बेचारी पंडित 
              जी को अभी-नौकरी ही करते कितने दिन हुए थे कि रुपया जमा कर लेते। जो 
              कमाया वह खाया। पूर्णा को वह अभी वह बातें नहीं सुझी थी। अभी उसको 
              सोचने का अवकाश ही न मीला था। हाँ, बाहर मरदाने में लोग आपस में इस 
              विषय पर बातचीत कर रहे थे। 
               
              दो-ढ़ाई घण्टे तक उस मकान में स्त्रियों का ठट्टा लगा रहा। मगर शाम 
              होते-होते सब अपने घरों को सिधारी। त्योहार का दिन था। ज्यादा कैसे 
              ठहरती। प्रेमा कुछ देर से मूर्छा पर मूर्छा आने लगी थी। लोग उसे 
              पालकी पर उठाकर वहाँ से ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उस घर 
              में सिवाय पूर्णा और बिल्ली के और कोई न था। हाय यही वक्त था कि 
              पंडित जी दफ्तर से आया करते। पूर्णा उस वक्त द्वारे पर खड़ी उनकी राह 
              देखा करती और ज्योंही वह ड्योढ़ी में कदम रखते वह लपक कर उनके हाथों 
              से छतरी ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामग्री इकट्टी 
              करती। जब तक वह मिष्टान्न इत्यादि खाते वह पान के बीड़े लगा रखती। वह 
              प्रेम रस का भूख, दिन भर का थका-मॉँदा, स्त्री की दन खातिरदारियों से 
              गदगद हो जाता। कहाँ वह प्रीति बढ़ानेवाले व्यवहार और कहाँ आज का 
              सन्नटा? सारा घर भॉँय-भॉँय कर रहा था। दीवारें काटने को दौड़ती थीं। 
              ऐसा मालूम होता कि इसके बसनेवालो उजड़ गये। बेचारी पूर्णा आँगन में 
              बैठी हुई। उसके कलेजे में अब रोने का दम नहीं है और न आँखों से आँसू 
              बहते हैं। हाँ, कोई दिल में बैठा खून चूस रहा है। वह शोक से मतवाली 
              हो गयी है। नहीं मालूम इस वक्त वह क्या सोच रही है। शायद अपने 
              सिधारनेवाले पिया से प्रेम की बातें कर रही है या उससे कर जोड़ के 
              बिनती कर रही है कि मुझे भी अपने पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का 
              हाल लिखते ग्लानि होती है। हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका 
              चेहरा पीला पड़ गया है। होठों पर पपड़ी छायी हुई हैं, आँखें सूरज आयी 
              हैं, सिर के बाल खुलकर माथे पर बिखर गये है, रेशमी साड़ी फटकार 
              तार-तार हो गयी है, बदन पर गहने का नाम भी नहीं है चूड़िया टूटकर 
              चकनाचूर हो गयी है, लम्बी-लम्बी सॉँसें आ रही हैं। व चिन्ता उदासी और 
              शोक का प्रत्यक्ष स्वरुप मालूम होती है। इस वक्त कोई ऐसा नहीं है जो 
              उसको तसल्ली दे। यह सब कुछ हो गया मगर पूर्णा की आस अभी तक कुछ-कुछ 
              बँधी हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है कि कहीं कोई 
              उनके जीवित निकल आने की खबर लाता हो। सच है वियोगियों की आस टूट जाने 
              पर भी बँधी रहती है। 
               
              शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की ख़बर सारे शहर में गूँज उठी। जो 
              सुनता सिर धुनता। बाबू अमृतराय हवा खाकर वापस आ रहे थे कि रासते में 
              पुलिस के आदमियों को एक लाश के साथ जाते देखा। बहुत-से आदमियों की 
              भीड़ लगी हुई थी। पहले तो वह समझे कि कोई खून का मुकदमा होगा। मगर जब 
              दरियाफ्त किया तो सब हाल मालूम हो गया। पण्डित जी की अचानक मृत्यु पर 
              उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉँति जानते थे। उन्हीं की 
              सिफारिश से पंडित जी दफ्तर में वह जग मिली थी। बाबू साहब लाश के 
              साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाक्टर पहले से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉँच 
              के निमित्त लाश खोली गयी तो जितने लोग खड़े थे सबके रोंगेटे खड़े हो 
              गये और कई आदमियों की आँखों से आँसू निकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर 
              मुखड़ा ज्यों का त्यों था और कमल के सुन्दर फूल होंठों के बीच दॉँतों 
              तले दबे हुए थे। हाय, यह वही फूल थे जिन्होंने काल बनकर उसको डसा था। 
              जब लाश की जॉँच हो चुकी तब अमृतराय ने डाक्टर साहब से लाश के जलाने 
              की आज्ञा मॉँगी जो उनको सहज ही में मिल गयी। इसके बाद वह अपने मकान 
              पर आये। कपड़े बदले और बाईसिकिल पर सवार होकर पूर्णा के मकान पर 
              पहुँचे। देखा तो चौतरफासन्नाटा छाया हुआ है। हर तरफ से सियापा बरस 
              रहा है। यही समय पंडित जी के दफ्तर से आने का था। पूर्णा रोज इसी 
              वक्त उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक्त ज्योंही 
              उसने पैरों की चाप सुनी वह बिजली की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ी। मगर 
              ज्योंही दरवाजे पर आयी और अपने पति की जगी पर बाबू अमृतराय को खड़े 
              पाया तो ठिठक गयी। शर्म से सर झुका लिया और निराश होकर उलटे पॉँव 
              वापास हुई। मुसीबत के समय पर किसी दु:ख पूछनेवालो की सूरत आँखों के 
              लिए बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय एक महीने में दो-तीन बार अवश्य 
              आया करते थे और पंडित जी पर बहुत विश्वास रखते थे। इस वक्त उनके आने 
              से पूर्णा के दिल पर एक ताज़ा सदमा पहुँचा। दिल फिर उमड़ आया और ऐसा 
              फूट-फूट कर रोयी कि बाबू अमृतराय, जो मोम की तरह नर्म दिल रखते थे, 
              बड़ी देर तक चुपचाप खड़े बिसुरा किये। जब ज़रा जी ठिकाने हुआ तो 
              उन्होंने महीर को बुलाकर बहुत कुछ दिलासा दिया और देहलीज़ में खड़े 
              होकर पूर्णा को भी समझया और उसको हर तरहा की मदद देने का वादा करके, 
              चिराग जलते-जलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा अपनी 
              महताबी पर हवा खाने निकली थी। सकी आँखें पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी 
              हुई थीं। निदान उसने किसी को बाइसिकिल पर सवार उधार से निकलते दखा। 
              गौर से देखा तो पहिचान गई और चौंककर बोली—‘अरे, यह तो अमृतराय है।  |