जिस राष्ट्र को किसी भी आततायी और केवल शस्त्रबल के आधार पर सत्ता चलाने वाले मदांध शत्रु के चंगुल से छुटकारा पाना हो, उसे इस जीवन-संघर्ष की धक्का-मुक्की में जो टिकेगा, वह जीवित रहेगा - ऐसे निर्घृण नियम से चलनेवाली सृष्टि में, शस्त्रबल से चलनेवाली उस आसुरी परसत्ता को दैवी शस्त्रबल से ही हतवीर्य किए बिना, उस आसुरी परसत्ता का शस्त्र छीनकर तोड़ डालने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता। परंतु यदि वैसा सशस्त्र क्रांति-युद्ध लड़ना उस राष्ट्र की शक्ति से परे हो, तो उसे राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति असंभव होगी। वह रास्ता उस राष्ट्र को छोड़ देना पड़ेगा। बहुत निष्ठुर सिद्धांत है यह ? हाँ ! यह ऐसा ही है अपरिहार्यता है यह। विश्वस ऐसा ही है। ठंडा-गरम, रात-दिन, पानी जैसी पृथ्वी, पृथ्वी जैसा पानी ये 'वदतो व्याघात' लागू करना जैसे मानव-शक्ति के बाहर का है। वैसे ही जीवन के संघर्ष का सृष्टिक्रम बंद कर देना उसके हाथ में नहीं है। जीना है तो जीने के क्रम को स्वीकार करके ही जीना होगा। उसका सामना करते ही जीना होगा, अन्यथा उसकी बलि चढ़ जाना होगा, मरना होगा।
विश्व का ज्ञात इतिहास छान-छानकर हम थक गए। देवासुरों, इंद्र-वृत्रासरों, रावण आदि की वैदिक कथाओं से लेकर प्राचीन ईरान, ग्रीस, रोम, अरब, अमेरिका, इंग्लैंड, चीन, जापान, स्पेनिश मूर, तुर्क, ग्रीस, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली आदि के ताजे-से-ताजे इतिहास तक, सारी राज्यक्रांतियों के और राष्ट्र-स्वतंत्रता के इतिहास तक मानवी राजनीति के अधिकतम इतिहास ग्रंथों के पारायण मैंने स्वयं किए हैं और उसपर सैकड़ों व्याख्यान भी दिए हैं। हिंदुस्थान के कुछ प्राचीन और राजपूत, बुंदेल. सिख, मराठा आदि अर्वाचीन इतिहास का पन्ना-पन्ना मैंने छान मारा है, और उस सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता देखा है कि 'धर्म के लिए मरना चाहिए', किंतु इतना ही कहने से कार्य पूरा नहीं होता, अपितु गुरु रामदास की जो उक्ति है – ‘मरते-मरते भी आततायी को मारो’ और 'मारते-मारते अपना राज्य प्राप्त करो' - उसे स्वीकार करना ही स्वतंत्रता की प्राप्ति का भयंकर, परंतु अपरिहार्य साधन है, यशस्वी राजनीति का अनन्य साधन है, जिसे हमारे गोविंद कवि ने कहा, वही। अर्थात् सशस्त्र 'रण के बिना स्वतंत्रता किसे मिली', यही हमारा पक्का निश्चय हुआ।
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विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। ‘वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। ‘वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं। वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तथा '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चितपावन वशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए। लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया। सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।
सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की। सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका ही मच गया था। १९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था –१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
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