आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -3
निबन्ध साहित्य
व्यवहार पक्ष
भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी
हिंदी की वर्तमान गति का आरम्भ भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की
लेखनी ही से है। इनके पूर्व हिंदी का प्रवाह किस ओर को था और इन्होंने उसे
किस ओर फेरा यही दिखलाने का यत्न इस लेख में किया जायगा। भारतेंदु ने जिस
अवस्था में हिंदी को पाया वह विलक्षण थी। पद्य में जायसी, सूर, तुलसी आदि
के आख्यान काव्यों का समय एक प्रकार से बीत चुका था। केशव के चलाए हुए
नायिका भेद, रस, अलंकार आदि को लक्ष्य करती हुई स्फुट कविताओं के छींटे उड़
रहे थे। गद्य प्रेमसागर, सिंहासन बत्तीसी और बैताल पच्चीसी से संतोष किए
बैठा था।
यद्यपि देश में नए नए भावों का संचार हो गया था पर हमारी भाषा उनसे दूर थी।
यद्यपि लोगों की अभिरुचि बदल चली थी पर हमारे साहित्य पर उसका आभास नहीं
पड़ा था। शिक्षित लोगों के विचारों और व्यापारों ने दूसरा मार्ग तो पकड़ लिया
था पर उनका साहित्य उसी पुराने मार्ग ही पर था। ये लोग समय के साथ स्वयं तो
कुछ आगे बढ़ आए पर जल्दी से अपने साहित्य को साथ न ले सके। उसका साथ छूट गया
और वह उनके कार्यक्षेत्र में अलग पड़ गया। प्राय: सब सभ्य जातियों का
साहित्य विचारों और व्यापारों से लगा हुआ चलता है। यह नहीं कि उनकी चिंताओं
और कार्यों का प्रवाह तो एक ओर हो और उनके साहित्य का प्रवाह दूसरी ओर। फिर
यह विचित्र घटना यहाँ कैसे हुई? बात यह है कि जिन लोगों के हृदय में नई
शिक्षा के प्रभाव से नए विचार उत्पन्न हो चले थे, जो अपनी ऑंखों से देश काल
का परिवर्तन देख रहे थे उनमें अधिकांश तो ऐसे थे जिनका कई कारणों से हिंदी
साहित्य से लगाव टूट सा गया था और शेष ऐसे थे जिन्हें हिंदी साहित्य का
मंडल बहुत ही बद्ध और परिमित दिखाई देता था, जिन्हें इन नए विचारों को
सन्निवेशित करने के लिए स्थान हीं नहीं सूझता था। उस समय एक ऐसे साहसी और
प्रतिभासंपन्न पुरुष की आवश्यकता थी जो कौशल से इन बढ़ते हुए विचारों का मेल
देश के परम्परागत साहित्य से करा देता। बाबू हरिश्चंद्र का प्रादुर्भाव ठीक
ऐसे ही समय में हुआ।
इन्होंने कविता पर जो दृष्टि डाली तो देखा कि बहुत से ऐसे शब्द जिन्हें
बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए, कविता और सवैयों में बराबर खपाए जाते हैं
जिससे जनसाधारण का ध्याीन उनकी ओर से फिरता जाता है। चक्कवै, अमेजे, मजेजे,
ठायो, करसायल, ईठ, दीह, ऊनो, लोह आदि के कारण बहुत से लोग हिंदी कविता से
किनारा खींचने लगे हैं। दूसरा दोष जो बढ़ते बढ़ते बहुत बुरी सीमा को पहुँच
गया था वह शब्दों का तोड़ मरोड़ और गढ़े हुए मनमाने शब्दों का प्रयोग था। जैसे
''कपियों का स्वभाव रूख तोड़ना'' गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है वैसे ही इन
कवियों का स्वभाव शब्द तोड़ना हो चला था। बाबू हरिश्चंद्र ने इन बातों का
संशोधान करना आरम्भ किया और व्रजभाषा की फुटकल कविताओं के लिए भी अच्छा
मार्ग दिखलाया। उन्होंने अपने रसीले कवित्तों और सवैयों में ऐसे शब्दों का
प्रयोग बहुत कम किया है और उनकी भाषा बोलचाल की भाषा से मिलती हुई रखी है,
जैसे
आजु लौं जो न मिले तो कहा, हम तो तुम्हरे सब भाँति कहावैं।
मेरो उराहनो है कछु नाहिं सबै फल आपने भाग को पावैं।।
जो हरिश्चंद भई सो भई अब प्रान चले चहैं तासो सुनावैं।
प्यारे जू है जग की यह रीति विदा के समय सब कंठ लगावैं।।
इसी कारण इनकी कविताओं का प्रचार भी देखते देखते हो गया। लोगों के मुँह से
इनके सवैये चारों ओर सुनाई देने लगे; इनके गीतों को स्त्रियाँ तक घर घर में
गाने लगीं। इनकी कविता बहुत ही जनप्रिय हुई। इनके समय ही में जो जो संग्रह
बने उन सबमें प्राय: इनकी कविताएँ विशेषकर सवैये दिए गए। इन्होंने मनुष्य
के मनोवेगों को बड़ी सीधी सादी पर परिपूर्ण भाषा में निकालने का प्रयत्न
किया है। लीक पीटने वालों की उस शब्दावली को जो पुरानी पड़ गई थी, इन्होंने
बहुत कुछ छाँटा। ये बड़े भारी साहित्य संशोधक हुए। इनके सीधे सादे शब्दों से
भाव टपके पड़ते हैं। जिसे इनकी कविता 'साधारण' जँचे उसे समझना चाहिए कि
''खव् बव्'' वाले कविन्दों ने भावुकता का नाश करके उसके हृदय को
कुरुचिपूर्ण कर दिया है।
पर सबसे बड़ा काम तो इस महात्मा को यह करना था कि वह स्वदेशाभिमान, स्वजाति
प्रेम, समाज सुधार आदि के आधुनिक उद्गारों के प्रवाह के लिए हिंदी को चुने
तथा इतिहास, विज्ञान, पुरावृत्त आदि समस्त समयापेक्षित विषयों की ओर हिंदी
को दौड़ा दे। इन्होंने अपनी लेखनी को इन नवीन विषयों पर चलाया। स्वदेशाभिमान
और स्वदेश प्रेम को लेकर तो मानो यह कवि उतरा ही था। देश के प्राचीन गौरव
को स्मरण कराके उसके एक एक यशस्वी महापुरुष का नाम लेकर उसकी वर्तमान
दुरवस्था पर ऑंसू बहवाने के लिए तो ये आए ही थे। इनके जीवन में 'भारत,
भारत' की जो धुन बँधी वह बराबर बँधी रही। विजयिनी विजय वैजयंती लेकर आप
मिस्र से लौटी हुई हिंदुस्तानी सेना की बड़ाई करने और सरकार को बधाई देने
चले पर बीच में इस विचार में पड़ गए कि
सहसन बरसन सों सुन्यो जो सपनेहुँ नहिं कान।
सो 'जय भारत' शब्द क्यों पूरयो आज जहान।।
फिर क्या था भारत का भूत सिर पर सवार हो गया।
हाय वही भारत भुव भारी।
सबही विधि सों भई दुखारी।।
भारत भुज बल लहि जग रच्छित।
भारत विद्या सों जग सिच्छित।।
भारत किरिन जगत उँजियारा।
भारत जीव जियत संसारा।।
उन ऐतिहासिक स्थलों और घटनाओं को स्मरण कराने से यह कवि कब चूकता जिनके
नाममात्रा हिंदू संतान के लिए कविता है। कविता वही जिससे चित्ता किसी आवेग
में लीन हो जाय1। कौन ऐसा इतिहासविज्ञ भारत संतान होगा जिसका रक्त पानीपत,
थानेश्वर, चित्तौर, रणथंभौर आदि का नाम सुनते ही चंचल न हो उठे। कौन ऐसा
स्तब्ध और जड़ हिन्दू होगा जिसके हृदय में इन नामों को सुनते ही अनेक प्रकार
के भाव न उठने लगें। यदि कोई कवि इन दो चार नामों को केवल एक साथ ले ले तो
वह अपना काम कर चुका। इन नामों ही में भाव भरे हैं। वे अकेले ही कल्पना को
उभार सकते हैं। मेकाले ने मिल्टन की कविता का इटली के एक कवि की कविता से
मिलान करते हुए कहा है कि मिल्टन जब किसी वस्तु का वर्णन करता है तब उसे
अपने शब्दों से नाप जोख कर बिलकुल परिमित नहीं कर देता वरन् कुछ काम अपने
पाठकों की कल्पना के लिए भी छोड़ देता है। अब देखिए इन नामों को भारतेन्दु
ने किस प्रकार लिया है :
हाय पंचनद हा पानीपत।
अजहूँ रहे तुम धारनि विराजत।।
हाय चितौर निलज तू भारी।
अजहूँ खरो भारतहि मझारी।।
जा दिन तव अधिकार नसायो।
ताही दिन किन धारनि समायो।।
तुममें जल नहिं जमुना गंगा।
बढ़हु बेगि करि प्रबल तरंगा।।
बोरहु किन झट मथुरा काशी।
धोवहु यह कलंक की राशी।।
भारत दुर्दशा में आलस्य आदि को लाकर इस कवि ने देश दशा को इस ढंग
1 गत वर्ष की 'सरस्वती' में प्रकाशित मेरा 'कविता क्या है?' शीर्षक प्रबंध
देखिए।
से झलकाया है कि नए और पुराने दोनों ढाँचे के लोगों का मन उसमें लगे। इस
कारीगर में बड़ा भारी गुण यह था कि इसने नए और पुराने विचारों को अपनी
रचनाओं में इस तरह मिलाया कि कहीं से जोड़ मालूम न हुआ। पुराने भावों और
आदर्शों को लेकर इसने नए आदर्श खड़े किए। देखिए, नीलदेवी में एक देवता के
मुँह से भारतवर्ष का कैसा मर्मभेदी भविष्य कहलाया है
सब भाँति दैव प्रतिकूल होइ यहि नासा।
अब तजहु वीर वर भारत की सब आसा।।
अब सुख सूरज को उदय नहीं इत ह्नै है।
मंगलमय भारत भुव मसान ह्नै जैहै।।
राजा सूर्यदेव के मारे जाने पर रानी नील देवी ने जिस रीति से भगवान् को
पुकारा है वह कोई नई नहीं, यह वही रीति है जिससे द्रौपदी ने कृष्णचन्द्र को
पुकारा था, भेद इतना ही है कि द्रौपदी ने अपनी लज्जा रखने के लिए पुकार
मचाई थी, इसने देश की लज्जा रखने के लिए पुकारा
कहाँ करुणानिधि केशव सोए।
जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।।
इन्होंने समाज की कुरीतियों को दिखलाकर बराबर उनके सुधार पर जोर दिया है पर
अपने विचारों को परंपरागत विचारों से बिलकुल अलग करते हुए नहीं वरन् उनसे
लगाव रखते हुए कश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण, कालचक्र, पुरावृत्ता संग्रह आदि
लिखकर इन्होंने इन विषयों की ओर हिंदी को लगा दिया। इनके कविवचनसुधा,
मैगजीन की देखादेखी हिंदी में सामयिक पत्रा और पत्रिकाएँ निकल पड़ीं। आज जो
हम लोग नए नए विचारों को मँजी हुई भाषा में प्रगट करते हैं वह इन्हीं बाबू
हरिश्चंद्र की बदौलत। न तो लल्लू लाल की बोली से हमारा काम चलता और न
वैद्यक आदि के ग्रंथों की टीकाओं की भाषा से। हिंदी को उन्नति के आधुनिक
मार्ग पर लाकर खड़ा करनेवाले और उसे हमारे साथ फिर लगानेवाले बाबू
हरिश्चंद्र ही हुए। अब हमें चाहिए कि राजनीति, विज्ञान, दर्शन, कला आदि के
जो भाव हम अपनी संसार यात्रा में प्राप्त करते जायँ उन्हें इस अपनी
मातृभाषा हिंदी को बराबर सौंपते जाएँ क्योंकि यही उन्हें हमारी भावी संतति
के लिए संचित रखेगी।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई.)
[चिन्तामणि भाग-3]
हरिश्चंद्र समीक्षा
बाबू हरिश्चंद्र के हिंदी को नए रास्ते पर लाने की बात हम पहले कह चुके
हैं। अब यह देखना है कि यदि वे कवि थे तो किस ढंग के थे। जिन लोगों ने
कविता पर लिखे हुए मेरे सब निबंधें को ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा उन्हें विदित
होगा कि मनोरंजन के साथ मैंने काव्य के दो उपयोगी कार्य माने हैं :
1. कल्पना की शुद्धि।
2. मनोवेगों का परिष्कार।
इन दोनों कार्यों का साधन कवि लोग प्रकृति के दो विभाग करके देते हैं,
वाह्य प्रकृति (External Nature) और मानव प्रकृति (Human Nature) । प्रथम
कार्य का साधन तो कवि वन, पर्वत, नदी, निर्झर, लता, वृक्ष आदि प्राकृतिक
वस्तुओं को कल्पना में उपस्थित करके करता है। और दूसरे का मनोवेगों को
उत्कर्ष तथा सृष्टि के बीच उनके उचित और सुंदर स्थानों को दिखा कर। इनमें
से कोई कोई महाकवि तो दोनों कार्यों में कुशल होते हैं, जैसे वाल्मीकि,
कालिदास, भवभूति और तुलसीदास और कोई प्रथम में कोई द्वितीय में। बाबू
हरिश्चंद्र अधिकांश भाषा कवियों के समान इन तीसरे प्रकार के कवियों में थे।
यद्यपि इन्होंने अपनी कविता द्वारा नए नए प्रभाव उत्पन्न किए पर उसके
साधनों को परम्परानुसार ही रखा। मानव व्यापारों ही के उत्तेजक अंशों को
छाँटकर इन्होंने मनोवेगों को उभाड़ने और ठीक करने का प्रयत्न किया है। और
प्राकृतिक पदार्थों और व्यापारों की शक्ति पर बहुत कम ध्यान दिया। इन्होंने
मनुष्य को सारी सृष्टि के बीच रख कर नहीं देखा वरन् उसे उसी के उठाए हुए
घेरे में रखकर देखा। मनुष्य की सृष्टि को उसके फैलाए हुए प्रपंचावरण से
बाहर प्राकृतिक दृश्यों की ओर ले जाने का प्रयत्न इन्होंने नहीं किया जिससे
वह अपनी स्थिति के विस्तार को देख मनुष्य मात्र ही होने से संतोष कर सकता
है। पर किया क्या जाता? हिंदी साहित्य का उत्थान ही ऐसे समय में हुआ जब
लोगों की रुचि बिगड़ चुकी थी। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के आदर्श लोगों
के सामने से हट चुके थे।
हमारे आदि कवि वाल्मीकि के हृदय में जिस कविता का प्रादुर्भाव हुआ था वही
सच्ची कविता थी। उन्होंने जो मार्ग दिखलाया था वही सच्चा मार्ग था। देखिए
वर्षा का कैसा प्राकृतिक चित्र उन्होंने खींचा है
क्वचित्प्रकाशं, क्वचिदप्रकाशं
नभ: प्रकीर्णाम्बु: घनं विभाति।
क्वचित् क्वचित्पर्वतं संनिरुध्दं,
रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य।
व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै:,
र्नवं जलं पर्वतधातुताम्रम्।
मयूर केकाभिरनुप्रयातं
शैलापगा: शीघ्रतरं बहन्ति।
मेधाभिकामा परिसम्पतन्ती,
संमोदिता भाति बलाकपंक्ति:।
वातावधूतावर पौण्डरीकी,
लम्बेव माला रुचिराम्वरस्य।।
बालेन्द्र गोपान्तरचित्रितेन,
विभाति भूमिर्नवशाद्वलेन।
गात्रानुपृक्तेन शुकप्रभेण
नारीव लाक्षोक्षित कम्बलेन।।
समुद्वहन्त: सलिलातिभारं,
बलाकिनो वारिधारा नदन्त:।
महत्सु श्रृक्षेषु महीधाराणां,
विश्रम्य विश्रम्य पुन: प्रयाति।।
प्रहर्षिता केतकिपुष्पगन्धा
माघ्राय मत्ता वननिर्झरेषु।
प्रयात शब्दाकुलिता गजेन्द्रा,
सध्दिं मयूरै: समदा नदन्ति।।
अक्षर चूर्णोत्कर सन्निकाशै:
फलै: सुपर्य्याप्तरसै: समृध्दै:।
जम्बूद्रुमाणां प्रविभाति शाखा,
निपीयमाना इव षटपदौधौ:।
महान्ति कूटानि महीधाराणां
धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
महाप्रमाणैर्विपुले: प्रयातै
मुक्ताकलापैरिव लम्बमानै।।
उपर्युक्त वर्णन में किस सूक्ष्मता के साथ कविकुल गुरु ने ऐसे प्राकृतिक
व्यापारों का निरीक्षण किया है जिनको बिना किसी उक्ति के गिना देना ही
कल्पना पर प्रभाव डाल उसे निरोग करने के लिए बहुत है। कालिदास के कुमारसंभव
का हिमालय वर्णन, रघुवंश में उस वन का वर्णन जहाँ नंदिनी को लेकर दिलीप गए
हैं, तथा मेघदूत में यक्ष के बताए हुए मार्ग का वर्णन बार बार पढ़ने योग्य
है। भवभूति का तो कहना ही क्या है। देखिए
एतेत एव गिरयो विरुवन्मयूरा।
स्तान्येव मत्ताहरिणानि वनस्थलानि।।
आमद्बचु वद्बजुल लतानि च तान्यमूनि।
नीरन्धा्रनीलनिचुलानि सरित्ताटानि।।
इस तरह की कविता क्या इनके पीछे फिर भारतवर्ष में हुई? यहीं से तो उसने
दूसरा मार्ग पकड़ा।
इन महाकवियों ने प्रसंगवश नहीं वरन् केवल वर्णन की रोचकता के लिए जहाँ
मानुषी व्यापार दिखाने की इच्छा हुई है वहाँ उन्होंने ऐसे ही स्थलों के
व्यापारों को दिखलाया है जहाँ मनुष्य से प्रकृति की सन्निकटता है। ऐसे
ग्रामों के आसपास किसानों का खेत जोतना वा काटना, ग्वालों का गाय चराना
इत्यादि इत्यादि। जैसे मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है
क. त्वय्यायत्तां कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञै:
प्रीतिस्निग्धौर्जनपदवधूलोचनै: पीयमान:।।
सद्यस्सीकरोत्कर्षणसुरभि: क्षेत्रमारुह्य मालं
किंचितपश्चाद्ब्रज लघुगति: किंचिदेवोत्तारेण।।
ख. कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुधा तजहिं मोह मद माना।।
सच्चे कवि ऋतु आदि के वर्णन में ऐसे ही व्यापारों को सामने लाए हैं। ऐसे
कवि ग्रीष्म में छाया के नीचे बैठ कर हाँफते हुए कुत्तों और पानी में बैठी
हुई भैंसों का उल्लेख चाहे भले ही कर जायँ पर पसीने से तर रोकड़ मिलाते हुए
मुनीमजी की ओर ध्यान न देंगे।
मनुष्य के व्यापार परिमित और संकुचित हैं। अत: वाह्य प्रकृति के अनंत और
असीम व्यापारों के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंशों को तारतम्यपूर्वक दिखाकर
कल्पना को शुद्ध और विस्तृत करना कवि का धर्म है। धीरे धीरे लोग इस बात को
भूल चले। इधर उच्च श्रेणी के जो भी कवि हुए उन्होंने अधिकतर मनुष्य की
चित्तावृत्तियों के विविध रूपों को बड़े कौशल और तीव्रता के साथ दिखाया
परंतु वाह्य प्रकृति की स्वच्छंद क्रीड़ा की ओर कम ध्यान दिया। पीछे से तो
राजाश्रय लोलुप मँगते कवियों के कारण कविता केवल वाक्पटुता व शब्दों का
शतरंज बन गई, विषयी लोगों के काम की चीज हो गई। भर्तृहरि के समय ही से यह
र्दुव्यवस्था आरम्भ हो गई थी जिस पर उन्होंने दुख के साथ कहा है
पुरा विद्वत्तासीदुपशमवतां क्लेशहतये।
गता कालेनासौ विषय सुख सिध्यैर्विषयिणाम ।।
वन, नदी, पर्वत आदि इन याचक कवियों को क्या दे देते जो उसका वर्णन करते।
जायसी, सूर, तुलसी आदि स्वच्छन्द कवियों ने हिंदी कविता को उठाकर खड़ा ही
किया था कि केशव ने पैर छान कर उसे गंदे बाजारों में चरने के लिए छोड़ दिया।
फिर क्या था, नायिकाओं के पैरो में मखमल के सुर्ख बिछौने गड़ने लगे। यदि कोई
षटऋतु की लीक पीटने खड़े हुए तो कहीं शरद की चाँदनी से किसी विरहिणी का शरीर
जलाया, कहीं कोयल की कूक से कलेजों के टूक किए, कहीं किसी को प्रमोद से
प्रमत्ता किया, क्योंकि उन्हें तो इन ऋतुओं के वर्णनों को उद्दीपन मात्रा
मानकर संयोग या वियोग श्रृंगार के अंतर्गत ही लाना था। उनकी दृष्टि प्रकृति
के इन व्यापारों पर तो जमती ही नहीं थी। नायक या नायिका ही पर दौड़ दौड़ कर
जाती थी अत: इसके नायक नायिका की अवस्था विशेष और प्रकृति की दो चार इनी
गिनी वस्तुओं से जो सम्बन्ध होता था उसी को दिखाकर ये किनारे हो जाते थे।
बाबू हरिश्चंद्र ने यद्यपि समयानुकूल प्रसंगों को छेड़ नए नए भाव उत्पन्न
किए पर उन्होंने भी प्रकृति पर कुछ प्रेम नहीं दिखाया। इनका जीवन वृत्तांत
पढ़ने से भी पता लगता है कि वे प्रकृति के उपासक न थे। उन्हें जंगल, पहाड़,
नदी आदि को देखने का उतना शौक न था। वे अपने भाव दस तरह के आदमी के साथ उठ
बैठ कर प्राप्त करते थे। इसी से मनुष्यों के गुण स्वभाव को यथातथ्य अंकित
करने में अद्वितीय हुए हैं। हिंदी में इनके जोड़ का दूसरा मुश्किल से
मिलेगा। भारत दुर्दशा, नील देवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषस्य
विषमौषधाम् आदि देखने से यह बात अच्छी तरह मन में बैठ जाती है।
ऐसा भी कहा जाता है कि एक दिन इनके यहाँ बैठ कर एक रंडी गा रही थी। जिसे
देखकर इन्होंने कोई कविता बनाई और पास के लोगों से कहा ''देखो, यदि हम इसका
सत्संग न रखें तो ये भाव कहाँ से सूझें?'' ये उर्दू कविता के भी प्रेमी थे।
जिसमें वाह्य प्रकृति के निरीक्षण की चाल ही नहीं और जिसमें कल्पना के
सामने आने वाले चित्रों के Imagery के बीभत्स और घिनौने होने की कुछ परवा न
कर उद्वेगों के उत्कर्ष ही की ओर ध्यान रखा जाता है। यदि ऐसा न होता तो
'मरे हूँ पै ऑंखें ये खुली ही रहि जायँगी', ''विदा के समय सब कंठ लगावैं''
वाले पद्य ये न लिखते जहाँ मनोवेगों का उत्कर्ष तो इन्होंने खूब दिखलाया
है। इसकी विस्तृत समीक्षा आगे की जाएगी। यहाँ पर तो मुझे यही दिखाना है कि
वन, नदी, पर्वत आदि के चित्रों द्वारा इन्होंने मनुष्य की कल्पना की मैल
छाँट उसे स्वच्छ और स्वस्थ करने का भार अपने ऊपर नहीं लिया है।
इनकी रचनाओं में विशुद्ध प्राकृतिक वर्णनों का अभाव बराबर पाया जाता है।
वस्तु वर्णन में इन्होंने मनुष्य की कृति ही की ओर अधिक रुचि दिखाई जैसे
'सत्यहरिश्चंद्र' के गंक्ष के इस वर्णन में
नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरत बूँद मध्य मुक्ता मनु पोहति।।
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।।
कासी कहँ प्रिय जानि ललकि भेंटयो उठि धाई।
सपनेहू नहिं तजी रही अ(म लपटाई।।
कहूँ बँधो नवघाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत।।
धावल धाम चहु ओर फरहरत धुजा पताका।
घहरति घटा धुनि धामकत धौंसा करि साका।।
माधुरी नौबत बजति, कहूँ नारी नर गावत।
वेद पढ़त कहुँ द्विज कहुँ योगी ध्यान लगावत।।
काशी के लोगों के विलक्षण स्वभाव तथा ऊँची ऊँची हवेलियों और तंग गलियों का
वर्णन करने ही के लिए 'काशी के छायाचित्र' लिखा गया।
'चंद्रावली नाटिका' में एक जगह यमुना के तट का वर्णन आया है। वह भी
नियमानुगत और परंपराभुक्त (Conventional) ही है। इसमें उपमाओं की भरमार इस
बात को सूचित करती है कि कवि का ध्यान उल्लिखित प्राकृतिक वस्तुओं पर रमता
नहीं था। हट हट जाता था। देखिए नीचे उसका कुछ अंश देता हूँ।
1. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सो जल परसन हित मनहुँ सुहाए।।
किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप वारन तीर को सिमिट सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत।।
2. कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।।
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखति ब्रज सोभा।
कै उमगे पिय प्रिया प्रेम के अगनित गोभा।।
कै करिके कर बहु, पीय को टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।।
3. कै पिय पद उपमान जानि यहि निज उर धारत।
कै मुखि कर बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत।।
कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकति झाँई।
कै ब्रज हरिपद परस हेतु कमला बहुआई।।
कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रज मंडल बगरे फिरत।
कै जानि लच्छमी भौन यहि करि सतधा निज बल धारत।।
('नागरीप्रचारिणी पत्रिका' अप्रैल 1911 ई.)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
हिंदी गद्य साहित्य का सूत्रपात करनेवाले चार महानुभाव कहे जाते हैं मुंशी
सदासुखलाल, इंशाअल्ला खाँ, लल्लू लाल और सदल मिश्र। ये चारों संवत् 1860 के
आसपास वर्तमान थे। सच पूछिए तो ये गद्य के नमूने दिखानेवाले ही रहे; अपनी
परम्परा प्रतिष्ठित करने का गौरव इनमें से किसी को भी प्राप्त न हुआ। हिंदी
गद्य साहित्य की अखंड परम्परा का प्रवर्तन इन चारों लेखकों के 70-72 वर्ष
पीछे हुआ। विक्रम की बीसवीं शताब्दी का प्रथम चरण समाप्त हो जाने पर जब
भारतेन्दु ने हिंदी गद्य की भाषा को सुव्यवस्थित और परिमार्जित करके उसका
स्वरूप स्थिर कर दिया तब से गद्य साहित्य की परम्परा लगातार चली। इसी
दृष्टि से भारतेन्दुजी जिस प्रकार वर्तमान गद्य भाषा के स्वरूप के
प्रतिष्ठापक थे, उसी प्रकार वर्तमान साहित्य परम्परा के प्रवर्तक।
राजा शिवप्रसाद के उर्दू की ओर एकबारगी झुक पड़ने से पहले ही राजा लक्ष्मण
सिंह अपने 'शकुंतला नाटक' द्वारा संवत् 1919 में थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और
विशुद्ध हिंदी सामने रख चुके थे, जिसमें अरबी फारसी के शब्द नहीं थे। उसका
कुछ अंश राजा शिवप्रसाद ने अपने 'गुटका' में दाखिल किया था। पीछे जब वे
उर्दू की ओर झुके तब राजा लक्ष्मण सिंह ने अपने 'रघुवंश' के अनुवाद के
प्राक्कथन में भाषा के सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया
''हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी हैं। हिंदी इस देश के
हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की
बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं; उर्दू में अरबी फारसी
के। परन्तु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी फारसी के शब्दों के बिना हिंदी न
बोली जाय और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें अरबी फारसी के शब्द भरे
हों।''
ऊपर के अवतरण से स्पष्ट है कि जिस समय राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिवप्रसाद
मैदान में आए थे, उस समय खींचतान बनी थी; भाषा के स्वरूप को स्थिरता नहीं
प्राप्त हुई थी। वह भाषा का प्रस्तावकाल था। प्रवर्तन काल का आरम्भ
भारतेन्दु की कुछ रचनाओं के निकल जाने के उपरान्त संवत् 1930 के लगभग हुआ।
यद्यपि इसके पहले 'विद्यासुंदर' (संवत् 1925) तथा और, कई नाटक भारतेन्दुजी
लिख चुके थे, पर वर्तमान हिंदी गद्य के उदय का समय उन्होंने 'हरिश्चन्द्र
मैगजीन' के निकलने पर, अर्थात् संवत् 1930 से माना है।
भारतेन्दु की भाषा में ऐसी क्या विशेषता पाई गई कि उसका इतना चलन उन्हीं के
सामने हो गया, इसका थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। संवत् 1860 में खड़ी बोली के
गद्य का सूत्रपात करनेवालों में मुंशी सदासुख और सदल मिश्र ने ही व्यवहार
योग्य चलती भाषा का नमूना तैयार किया था। पर इन दोनों की रचनाओं में सफाई
नहीं थी। बहुत कूड़ा करकट भरा था। मुंशी सदासुख भगवद् भक्त पुरुष थे और
पंडितों और साधु संतों के सत्संग में रहा करते थे। इससे उनके 'सुखसागर' की
भाषा में बहुत कुछ पंडिताऊपन है। उनकी खड़ी बोली उस ढंग की है जिस ढंग की
संस्कृत के विद्वान् पंडित काशी, प्रयाग आदि पूरब के नगरों में बोलते थे और
अब भी बोलते हैं। यद्यपि मुंशीजी खास दिल्ली के रहनेवाले थे और उर्दू के
अच्छे कवि और लेखक थे; पर हिंदी गद्य के लिए उन्होंने पंडितों की बोली ही
ग्रहण की। ''स्वभाव करके वे दैत्य कहलाए'', ''उसे दु:ख हो गया''
''बहकानेवाले बहुत हैं''। इस प्रकार के प्रयोग उन्होंने बहुत किए हैं। रहे
सदल मिश्र; उनकी भाषा में पूरबीपन बहुत अधिक है।'जो'के स्थान पर 'जौन',
'माँ' के स्थान पर 'मतारी', 'यहाँ' के स्थान पर 'इहाँ', 'देखूँगी' के स्थान
पर 'देखौंगी' ऐसे शब्द बराबर मिलते हैं। इसके अतिरिक्त ब्रजभाषा या काव्य
भाषा के ऐसे ऐसे प्रयोग, जैसे 'फ़ूलन्ह के', 'चहुँ दिशि,' 'सुनि' भी लगे रह
गए हैं।
इन दोनों के पीछे राजा शिवप्रसाद और लक्ष्मण सिंह का समय आता है। राजा
शिवप्रसाद के गद्य में अधिक खटकनेवाली बात थी उर्दूपन, जो दिन दिन बढ़ती गई।
इसी प्रकार राजा लक्ष्मण सिंह के गद्य में खटकनेवाली बात थी आगरे के बोलचाल
का पुट। दूसरी बात यह थी कि विशुद्धता का जो आदर्श लेकर राजा लक्ष्मण सिंह
चले थे, वह एक चलती व्यावहारिक भाषा के उपयुक्त न था। फारसी अरबी के जो
शब्द लोगों की जबान पर नाचा करते थे उन्हें एकदम छोड़ देना भाषा की संचित
शक्ति को घटाना था। हँसी मजाक के लिए कुछ अरबी फारसी के चलते शब्द कभी कभी
कितना अच्छा काम देते हैं, यह हम लोग बराबर देखते हैं।
ऊपर लिखी त्रुटियों को ध्याेन में रखते हुए जब हम भारतेन्दु की भाषा पर
विचार करने बैठते हैं, तब इस बात का समझना कुछ सुगम हो जाता है कि उन्होंने
हिंदी गद्य का क्या संस्कार किया। उनकी भाषा में न तो लल्लू लाल का
ब्रजभाषापन आने पाया, न मुंशी सदासुख का पंडिताऊपन, न सदल मिश्र का
पूरबीपन, न राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन, और न राजा लक्ष्मणसिंह का खालिसपन
और आगरापन। इतने 'पनों' से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के सम्बन्ध में बहुत ही
परिष्कृत रुचि का परिचय देता है। संस्कृत शब्दों के रहने पर भी भाषा का
सुबोध बने रहना, फारसी अरबी के शब्द आने पर भी साथ साथ उर्दूपन न आना,
हिंदी की स्वतन्त्र सत्ता का प्रमाण था। उनका भाषा संस्कार शब्दों की काट
छाँट तक ही नहीं रहा। वाक्य विन्यास में भी वे सफाई लाए। उनकी लिखावट में
एक साथ न जुड़ सकनेवाले वाक्य एक में गुँथे हुए प्राय: नहीं पाए जाते।
तात्पर्य कि उपयुक्त संयोजक अव्ययों का व्यवहार जैसा उन्होंने चलाया, वैसा
उनके पहले न था। विराम की परख भी उन्हें राजा लक्ष्मण सिंह और राजा
शिवप्रसाद से कहीं अच्छी थी।
चली आती हुई काव्यभाषा के स्वरूप पर भी उनकी दृष्टि गई। उन्होंने देखा कि
बहुत से ऐसे शब्द, जिन्हें बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए थे, कविताओं में
बराबर लाए जाते हैं जिससे वे सर्वसाधारण के लगाव से कुछ दूर पड़ती जाती है
'चक्कवै', 'ठायो', 'करसायल', 'ईठ', 'दिह', 'ऊनी', 'लोय' आदि के कारण बहुत
से लोग हिंदी कविता को अपने से कुछ दूर की चीज समझने लगे थे। दूसरा दोष जो
बढ़ते बढ़ते बुरी हद तक पहुँच गया था, वह शब्दों का तोड़-मरोड़ था। जैसे कपियों
का स्वभाव 'रूख तोड़ना' तुलसीदासजी ने बताया है, वैसे ही कवियों का स्वभाव
शब्द तोड़ना मरोड़ना हो गया था। भाषा की सफाई पर बहुत कम ध्या न रहता था।
बाबू हरिश्चन्द्र द्वारा इन बातों का भी बहुत कुछ सुधार चाहे जान में या
अनजान में हुआ। इस प्रकार काव्य की ब्रजभाषा के लिए भी उन्होंने बहुत अच्छा
रास्ता दिखाया। अपने रसीले कवित्तों और सवैयों में उन्होंने चलती भाषा का
व्यवहार किया है, जैसे
आजु लौं जो न मिले तो कहा, हम तो तुम्हरे सब भाँति कहावैं।
मेरे उराहनों है कुछ नाहिं, सबै फल आपने भाग को पावैं।।
जो हरिचंद भई सो भई, अब प्रान चले चहैं तासों सुनावैं।
प्यारे जू! है जग की यह रीति, विदा के समय सब कंठ लगावैं।।
इसी कारण उनकी कविता का प्रचार भी देखते देखते हो गया। लोगों के मुँह से
उनके सवैये भी चारों ओर सुनाई देने लगे, उनके बनाए गीत स्त्रियाँ तक घर घर
में गाने लगीं। उनकी रचना लोकप्रिय हुई। उनके समय में जो संग्रह ग्रन्थ
बने, उन सबमें उनकी कविताएँ विशेषत: सवैये भी रखे गए। लीक पीटनेवालों की
पुरानी पड़ी हुई शब्दावली हटा देने से उनकी काव्य भाषा में भी बड़ी सफाई
दिखाई पड़ी।
यह तो हुई भाषा की रूप प्रतिष्ठा की बात। इससे भी बढ़कर काम उन्होंने हिंदी
साहित्य को एक नए मार्ग पर खड़ा करके किया। वे साहित्य के नए युग के
प्रवर्तक हुए। यद्यपि देश में नए नए विचारों और भावनाओं का संचार हो गया
था, पर हिंदी उनसे दूर थी। लोगों की अभिरुचि बदल चली थी, पर हमारे साहित्य
पर उसका कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता था। शिक्षित लोगों के विचारों और
व्यापारों ने तो दूसरा मार्ग पकड़ लिया था, पर उनका साहित्य उसी पुराने
मार्ग पर था। वे लोग समय के साथ आप तो कुछ आगे बढ़ आए थे, पर जल्दी में अपने
साहित्य को साथ न ले सके थे। उसका साथ छूट गया था और वह और उनके विचार
क्षेत्र और कार्यक्षेत्र दोनों से अलग पड़ गया था। प्राय: सभी सभ्य जातियों
का साहित्य उनके विचारों और व्यापारों से लगा हुआ चलता है। यह नहीं कि उनकी
चिन्ताओं और कार्यों का प्रवाह एक ओर जा रहा हो और उनके साहित्य का प्रवाह
दूसरी ओर।
फिर यह विचित्र घटना यहाँ कैसे हुई? बात यह भी कि जिन लोगों के मन में नई
शिक्षा के प्रभाव से नए विचार उत्पन्न हो रहे थे, जो अपनी ऑंखों से काल की
गति देख रहे थे और देश की आवश्यकताओं को समझ रहे थे, उनमें अधिकांश तो ऐसे
थे जिनका कई कारणों से विशेषत: उर्दू के बीच में पड़ जाने से हिंदी साहित्य
से लगाव छूट सा गया था और शेष ज़िनमें नवीन भावों की कुछ प्रेरणा और विचारों
की कुछ स्फूर्ति थी ऐसे थे जिन्हें हिंदी साहित्य का क्षेत्र इतना परिमित
दिखाई देता था कि नए नए विचारों को सन्निविष्ट करने के लिए स्थान ही नहीं
सूझता था।उस समय एक ऐसे सामंजस्य पटु, साहसी और प्रतिभा सम्पन्न पुरुष की
आवश्यकता थी जो कौशल से उन बढ़ते हुए विचारों का मेल देश के परम्परागत
साहित्य से करा देता। ऐसे ही पुरुष के रूप में बाबू हरिश्चन्द्र साहित्य
क्षेत्र में उतरे। उन्होंने हमारे जीवन के साथ हमारे साहित्य को फिर से लगा
दिया। बड़े भारी विच्छेद से उन्होंने हमें बचाया।
वे सिद्ध वाणी के अत्यन्त सरस हृदय कवि थे। इससे एक ओर तो उनकी लेखनी से
श्रृंगार रस के ऐसे रसपूर्ण और मर्मस्पर्शी कवित्त सवैये निकलते थे, जो
उनके जीवनकाल में ही इधर उधर लोगों के मुँह से सुनाई पड़ने लगे थे और दूसरी
ओर स्वदेश प्रेम से भरे हुए उनके लेख और कविताएँ चारों ओर देश के मंगल का
मंत्र सा फूँकती थीं। अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे
पद्माकर और द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंगदेश के
मधुसूदनदत्ता और हेमचन्द्र की श्रेणी में, एक ओर तो राधा कृष्ण की भक्ति
में झूमते हुए 'नई भक्तमाल' गूँथते दिखाई देते थे, दूसरी ओर टीकाधारी बंगला
भगतों की हँसी उड़ाते तथा स्त्रीश शिक्षा, समाज सुधार आदि पर व्याख्यान देते
पाए जाते थे। प्राचीन और नवीन का यही सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का
विशेष माधुर्य है। साहित्य के एक नवीन युग के आदि में प्रवर्तक के रूप में
खड़े होकर उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि नए नए या बाहरी भावों को पचाकर
इस ढंग से मिलाना चाहिए कि वे अपने ही साहित्य के विकसित अंग से लगें।
प्राचीन और नवीन के उस सन्धिकाल में जैसी शीतल और मृदुल कला का संचार
अपेक्षित था, वैसी ही शीतल और मृदुल कला के साथ भारतेन्दु का उदय हुआ;
इसमें सन्देह नहीं।
कविता की नवीन धारा के बीच भारतेन्दु की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति
का था। नीलदेवी, भारतदुर्दशा आदि नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देशदशा
की जो मार्मिक व्यंजना है, वह तो है ही; बहुत सी स्वतन्त्र कविताएँ भी
उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं देश के अतीत गौरव गाथा का गर्व, कहीं वर्तमान
अधोगति की क्षोभ भरी वेदना, कहीं भविष्य की भावना से जगी हुई चिन्ता
इत्यादि अनेक पुनीत भावों का संचार पाया जाता है। 'विजयिनी विजय वैजयंती'
में जो मिस्र में, भारतीय सेना की विजय प्राप्ति पर लिखी गई थी, देश प्रेम
व्यंजक कैसे भिन्न भिन्न संचारी भावों के उद्गार हैं। कहीं गर्व, कहीं
क्षोभ, कहीं विषाद!''सहसन बरसन सों सुन्यों जो सपने नहिं कान, सो जय आरज
शब्द'' को सुन और ''फरकि उठी सबकी भुजा, खरकि उठी तलवार। क्यों आपुहि ऊँचे
भए आर्य मोंछ के बार'' का कारण जान प्राचीन आर्य गौरव का गर्व कुछ आ ही रहा
था कि वर्तमान अधोगति का दृश्य ध्यायन में आया और फिर वही 'हाय भारत!' की
धुन
हाय वहै भारत भुव भारी । सब ही विधि सों भई दुखारी।।
हाय पंचनद! हा पानीपत !अजहुँ रहे तुम धरनि विराजत।।
हाय चित्तौर! निलज तू भारी।अजहु खरो भारतहि मँझारी।।
तुममें जल नहिं जमुना गंगा।बढ़हु बेगि किन प्रबल तरंगा।।
बोरहु किन झट मथुरा कासी।धोवहु वह कलंक की रासी।।
'चित्तौर', 'पानीपत' इन नामों में ही इतिहासविज्ञ हिन्दू हृदय के लिए कितने
भावों की व्यंजना भरी है। उनके लिए ये नाम ही काव्य हैं। यदि कोई कवि केवल
इन दो चार नामों को एक साथ ले ले तो वह अपना बहुत कुछ काम कर चुका। ये आप
ही कल्पना के कपाट खोल ऐसे ऐसे दृश्य सामने ला देंगे जिनसे क्षुब्ध होकर
हृदय अनेक गम्भीर भावनाओं में मग्न हो जाएगा।
'भारत दुर्दशा' में आलस्य आदि को लाकर इस कवि ने देश दशा को इस ढंग से
झलकाया है कि नए और पुराने ढाँचों के लोगों का मन लगे। इस कलाकार में बड़ा
भारी गुण यह था कि इसने नए और पुराने विचारों को अपनी रचनाओं में इस सफाई
से मिलाया कि कहीं से जोड़ मालूम न हुआ। पुराने भावों और आदर्शों को लेकर
इन्होंने नए आदर्श खड़े किए। देखिए, 'नीलदेवी' ने एक देवता के मुँह से
भारतवर्ष का कैसा मर्मभेदी भविष्य कहलाया
सब भाँति दैव प्रतिकूल होय यहि नासा।
अब तजहु बीरवर भारत की सब आसा।।
अब सुख सूरज को उदय नहीं इत ह्नैहै।
मंगलमय भारत भुव मसान ह्नै जै है।।
राजा सूरजदेव के मारे जाने पर रानी नीलदेवी ने जिस रीति से भगवान् को
पुकारा है वह कोई नई बात नहीं। वह वही रीति है जिससे द्रौपदी ने भगवान् को
पुकारा था। भेद इतना ही है कि द्रौपदी ने अपनी लज्जा रखने के लिए, अपना
संकट हटाने के लिए, पुकार मचाई थी; नीलदेवी ने देश की लज्जा रखने के लिए,
देश का संकट दूर करने के लिए पुकारा है
कहाँ करुनानिधि केशव सोए?
जागत नाहिं, अनेक जतन करि भारतवासी रोए॥
बड़ा भारी काम भारतेन्दु ने यह किया कि स्वदेशाभिमान, स्वजाति प्रेम, समाज
सुधार आदि की आधुनिक भावनाओं के प्रवाह के लिए हिंदी को चुना तथा इतिहास,
विज्ञान, उपन्यास, पुरावृत्त इत्यादि अनेक समयानुकूल विषयों की ओर हिंदी को
दौड़ा दिया। अब यह देखना है कि यदि वे कवि थे तो किस ढंग के थे? विषय
क्षेत्र के विचार से देखते हैं तो प्राय: तीन ढंग के कवि पाए जाते हैं, कुछ
तो नर प्रकृति के वर्णन में ही अधिकतर लीन रहते हैं, कुछ बाह्य प्रकृति के
वर्णन में और कुछ दोनों में समान रुचि रखते हैं। पिछले वर्ग में वाल्मीकि,
कालिदास, भवभूति इत्यादि संस्कृत के प्राचीन कवि ही आते हैं।
बाबू हरिश्चन्द्र अधिकांश भाषा कवियों के समान प्रथम प्रकार के कवियों में
थे। यद्यपि इन्होंने अपनी कविता द्वारा नए नए संस्कार, उत्पन्न किए; पर
उसके स्वरूप को परम्परानुसार ही रखा। मानवी वृत्तियों ही के मर्मस्पर्शी
अंशों को छाँटकर उन्होंने मनोविकारों को तीव्र और परिष्कृत करने का प्रयत्न
किया, दूसरी प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की मर्मस्पर्शिनी शक्ति पर
बहुत कम ध्याोन दिया। इन्होंने मनुष्य को सारी सृष्टि के बीच रखकर नहीं
देखा, उसे उसी के उठाए हुए घेरे में रखकर देखा। मनुष्य की दृष्टि को उसके
फैलाए हुए प्रपंचावरण से बाहर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र की ओर ले जाने का
प्रयास इन्होंने नहीं किया। बात यह है कि हिंदी साहित्य का उत्थान ही ऐसे
समय में हुआ जब लोगों की दृष्टि बहुत कुछ संकुचित हो चुकी थी। वाल्मीकि,
कालिदास और भवभूति के आदर्श लोगों के सामने से हट चुके थे।
हमारे आदिकवि वाल्मीकि के हृदय में जो भावुकता थी, वह कुछ काल पीछे मंद
पड़ने लगी। जिस तन्मयता के साथ उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण किया है, उसकी
परम्परा कालिदास, भवभूति तक पाई जाती है। वाल्मीकि के हेमंत वर्णन में कैसा
सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण है। उनके वर्षा वर्णन में भी यही बात है
क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं,
नभ: प्रकीर्णाम्बुधारं विभाति।
क्वचित् क्वचित्पर्वत-सन्निरुध्दं
रूपं यथा शांतमहार्णवस्य।।
व्यामिश्रितं सर्जकदंब-पुष्पै
नर्वं जलं पर्वत-धातु-ताम्रम्।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं
शैलापगा: शीघ्रतरं वहंति।।
उपर्युक्त वर्णन में किस सूक्ष्मता के साथ कविकुल गुरु ने ऐसे प्राकृतिक
व्यापारों का निरीक्षण किया है जिनको बिना किसी अनूठी उक्ति के गिना देना
ही कल्पना को परिष्कार और भाव को संचार करने के लिए बहुत है। कालिदास के
कुमारसंभव का हिमालय वर्णन, रघुवंश में उस वन का वर्णन जहाँ नंदिनी को लेकर
दिलीप गए हैं, तथा मेघदूत में यक्ष के बताए हुए मार्ग का वर्णन बार बार
पढ़ने योग्य है। भवभूति का तो कहना ही क्या है। देखिए
एते त एव गिरयो विरुवन्मयूरा
स्तान्येव मत्तहरिणानि वनस्थलानि।
आमंजुवंजुल लतानि च तान्यमूनि,
नीरंधा्र-नील-निचुलानि सरित्ताटानि।।
इन महाकवियों ने कथा प्रसंग के अतिरिक्त जहाँ वर्णन की रोचकता के लिए
मनुष्य व्यापार दिखाए हैं, वहाँ इन्होंने ऐसे ही स्थलों के व्यापारों को
दिखलाया है जहाँ मनुष्य से प्रकृति की सन्निकटता है, जैसे ग़्रामों के आसपास
किसानों का खेत जोतना या काटना, ग्वालों का गाय चराना इत्यादि इत्यादि।
जैसे मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है
(क) त्वय्यात्तां कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञै:
प्रीतिस्निग्धौर्जनपदवधूलोचनै: पीयमान:।
सद्यस्सीकरोत्कर्षण-सुरभि: क्षेत्रमारुह्य मालं
किद्बिचत्पश्चाद ब्रज लघुगति चितदेवोत्तोरेण।।
(ख) कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुधा तजहिं मोह मद माना।।
सच्चे कवि ऋतु आदि के वर्णन में ऐसे ही व्यापारों को सामने लाए हैं। ऐसे
कवि ग्रीष्म में छाया के नीचे बैठकर हाँफते हुए कुत्तों और पानी में बैठी
हुई भैंसों का उल्लेख चाहे भले ही कर जायँ, पर पसीने से तर रोकड़ मिलाते हुए
मुनीम जी की ओर ध्याहन न देंगे।
मनुष्य के व्यापार परिमित और संकुचित हैं। अत: वाह्य प्रकृति के अनंत और
असीम व्यापारों के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंशों को सामने करके भावना या कल्पना
को शुद्ध और विस्तृत करना भी कवि का धर्म है, धीरे-धीरे लोग इस बात को भूल
चले। इधर उच्च श्रेणी के भी जो कवि हुए, उन्होंने अधिकतर मनुष्य की चित्त
वृत्तियों के विविध रूपों को कौशल और मार्मिकता के साथ दिखाया, पर वाह्य
प्रकृति की स्वच्छंद क्रीड़ा की ओर कम ध्यादन दिया। पीछे से तो
राजाश्रयलोलुप मॉंगते कवियों के कारण कविता केवल वाक्पटुता या शब्दों का
शतरंज बन गई; विषयी लोगों के काम की चीज हो गई। भर्तृहरि के समय ही से यह
दुरवस्था आरम्भ हो गई थी जिस पर उन्होंने दु:ख के साथ कहा था
पुरा विद्वत्तासीदुपशमवतां क्लेशहतये
गता कालेनासौ विषयसुख-सिद्धयैर्विषयिणाम्।
वन, नदी, पर्वत आदि इन याचक कवियों को क्या दे देते जो वे उनका वर्णन करने
जाते। सूर और तुलसी आदि स्वच्छंद कवियों ने हिंदी कविता को उठाकर खड़ा ही
किया था कि रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों ने उसके पैर छानकर उसे गंदी गलियों
में भटकने के लिए छोड़ दिया। फिर क्या था, नायिकाओं के पैरों में मखमल से
सुर्ख बिछौने गड़ने लगे। यदि कोई षड्ऋतु की लीक पीटने खड़े हुए तो कहीं शरद्
की चाँदनी से किसी विरहिणी का शरीर जलाया, कहीं कोयल की कूक से कलेजों के
टूक किए, कहीं किसी को प्रमोद से प्रमत्त किया। उन्हें तो इन ऋतुओं को
उद्दीपन मात्र मान संयोग या वियोग की दशा का वर्णन करना रहता था। उनकी
दृष्टि प्रकृति के इन व्यापारों पर तो जमती नहीं थी, नायक या नायिका ही पर
दौड़ दौड़कर जाती थी अत: उनके नायक या नायिका की अवस्था विशेष का प्रकृति की
दो चार इनी गिनी वस्तुओं से जो सम्बन्ध होता था, उसी को दिखाकर वे किनारे
हो जाते थे।
बाबू हरिश्चन्द्र ने यद्यपि समयानुकूल प्रसंग छेड़ नए नए संस्कार उत्पन्न
किए पर उन्होंने भी प्रकृति पर प्रेम न दिखाया। उनका जीवन वृत्तान्त पढ़ने
से भी पता लगता है कि वे प्रकृति के उपासक न थे। उन्हें जंगल, पहाड़, नदी
आदि को देखने का उतना शौक न था। वे अपने भाव ''दस तरह के आदमियों के साथ उठ
बैठकर'' प्राप्त करते थे। इसी से मनुष्यों की भीतरी बाहरी वृत्तियाँ अंकित
करने में ही वे तत्पर रहे हैं और नाटकों की ओर उन्होंने विशेष रुचि दिखाई
है। भारत दुर्दशा, नीलदेवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषस्य विषमौषधाम्
आदि देखने से यह बात अच्छी तरह मन में बैठ जायगी।
ऐसा भी कहा जाता है कि एक दिन उनके यहाँ बैठकर एक वेश्या गा रही थी। उसे
देखकर उन्होंने कविता बनाई और पास के लोगों से कहा''देखो यदि हम इनका
सत्संग न रखें तो ये भाव कहाँ से सूझे?'' वे उर्दू कविता के भी प्रेमी थे
जिसमें वाह्य प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण की चाल ही नहीं और जिसमें कल्पना
के सामने आनेवाले चित्रों (imagery) के बीभत्स और घिनौने होने की कुछ परवा
न कर भावों के उत्कर्ष की ही ओर ध्याणन रखा जाता है। यदि ऐसा न होता तो
''मरे हूँ पै ऑंखें ये खुली ही रहि जायँगी'' ऐसे पद्य वे न लिखते। भावों का
उत्कर्ष उन्होंने अच्छा दिखलाया है। वन, नदी, पर्वत आदि के चित्रों द्वारा
मनुष्य की कल्पना को स्वच्छ और स्वस्थ करने का भार उन्होंने अपने ऊपर नहीं
लिया था।
उनकी रचनाओं में विशुद्ध प्राकृतिक वर्णनों का अभाव बराबर पाया जाता है।
वस्तु वर्णन में उन्होंने मनुष्यों की कृति ही की ओर अधिक रुचि दिखाई। जैसे
'सत्य हरिश्चन्द्र' के गंगा के इस वर्णन में
नव उज्जवल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरत बूँद मध्यर मुक्ता मनु पोहति।।
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।।
कासी कहँ प्रिय जानि ललकि भेंटयों उठि धाई।
सपनेहू नहिं तजी, रही अंकम लपटाई।।
कहूँ बँधो नवघाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत।।
धावल धाम चहुँ ओर फरहरत धुजा पताका।
घहरति घंटाधुनि, धामकत धौंसा करि साका।।
माधुरी नौबत बजति, कहँ नारी नर गावत।
वेद पढ़त कहुँ द्विज, कहुँ जोगी ध्यागन लगावत।।
काशी के लोगों के विलक्षण स्वभाव तथा ऊँची ऊँची हवेलियों और तंग गलियों का
वर्णन करने ही के लिए 'काशी छायाचित्र' लिखा गया।
'चंद्रावली नाटिका' में एक जगह यमुना के तट का वर्णन आया है। पर वह भी
परम्परायुक्त (Conventional) ही है। उसमें उपमानों और उत्प्रेक्षाओं आदि की
भरमार इस बात को सूचित करती है कि कवि का मन प्रस्तुत प्राकृतिक वस्तुओं पर
रमता नहीं था, हट हट जाता था। कुछ अंश देखिए
1. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाए।।
किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज निज सोभा।
कैं प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप वारन तीर को सिमिटि सबै छाए रहत।
कैं हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत।।
2. कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।।
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखति ब्रज सोभा।
कै उमगे प्रिय प्रिया प्रेम के अगनित गोभा।।
कै करिकै कर बहु, पीय को टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।।
3. कै पिय पद उपमान जानि यहि निज उर धारत।
कै मुखि कर बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत।।
कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकति झाँईं।
कै ब्रज हरिपद परस हेतु कमला बहु आईं।।
कै सात्त्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमंडल बगरे फिरत।
कै जानि लच्छमी भौन यहि करि सतधा निज जल धारत।।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जनवरी, 1928 ई.)
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