आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -3
निबन्ध साहित्य
सिद्धांत पक्ष
मनोविकारों का विकास
मूल तत्व की दोरंगी झलक का नाम व्यक्तावस्था है। यदि दु:ख के बिना सुख है
तो यह अव्यक्त है। जीव अपने अस्तित्व की घोषणा द्वंद्वाभास ही से आरंभ करता
है। उच्च प्राणी कहलानेवाला मनुष्य भी भावों की एक जोड़ी लेकर धरती पर गिरता
है। उसके छोटे से हृदय में पहले दु:ख और आनंद भर ही के लिए जगह रहती है। ये
मनोवेग ऐसे हैं जो मनुष्य यदि जन्म से स्ववर्गियों से अलग रखा जाय तो भी
उत्पन्न होंगे। पेट के भरे रहने या खाली रहने के अनुभव ही से इनका आरंभ
होता है। इन उद्वेगों के लिए दूसरे व्यक्तियों के साथ की अपेक्षा नहीं।
जीवनारंभ में इन्ही दोनों के चिद्द हँसना और रोना देखे जाते हैं। यह न
समझना चाहिए कि और प्रकार के भाव भी शिशु के हृदय में उमड़ते हैं पर वह उनका
बोध नहीं करा सकता। प्रकृति इतना अन्याय कभी नहीं कर सकती। बच्चे के हृदय
में उसी रूप में भाव उत्पन्न होते हैं जिस रूप में वह व्यंजित करता है। यह
बात इस विचार से प्रत्यक्ष हो जाएगी कि इन्हीं दोनों मनोवेगों से क्रमश: और
दूसरे मनोवेगों की उत्पत्ति और विकास होता है। सब मनोवेग दु:ख और आनंद ही
के सामाजिक विकार हैं। दु:ख ही के गर्भ में क्रोध, भय, करुणा, घृणा और
ईर्ष्या आदि के भाव रहते हैं जो आगे चलकर समाज के साथ संबंध बढ़ने और शरीर
के साथ साथ मनसिक शक्तियों के पुष्ट और प्रशस्त होने पर पृथक् पृथक् रूप
में प्रकट होने लगते हैं। जैसे यदि शरीर में कहीं सुई चुभने की पीड़ा हो तो
केवल दु:ख होगा। पर यदि यह ज्ञान हो जाय कि सुई चुभानेवाला कोई दूसरा
व्यक्ति है तो दु:ख अनष्टि वा प्रतिकार की प्रबल इच्छा से मिश्रित हो जाएगा
और क्रोध कहलावेगा। जिस शिशु को पहले अपने ही दु:ख का ज्ञान होता था बढ़ने
पर उसे अनुमन द्वारा औरों का क्लेश देखकर भी दु:ख होने लगता है जिसे हम
करुणा वा दया कहते हैं। इसी प्रकार अज्ञान वा जिस पर अपना वश न हो ऐसे कारण
से पहुँचनेवाले भावी अनिष्ट के निश्चय से जो दु:ख होता है वह भय कहलाता है।
शिशु को जिसे यह निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती भय बिलकुल नहीं होता। यहाँ
तक कि उसे मारने के लिए हाथ उठाएँ तो वह विचलित न होगा क्योंकि वह यह नहीं
निश्चय कर सकता कि इस हाथ उठाने का परिणाम दु:ख होगा।
इसी प्रकार जैसे जैसे संबंध, काल, मात्रा और स्थान आदि का ज्ञान और विवेक
शिशु में होता जाता है वैसे ही वैसे उसी आनंद से संतोष, प्रसन्नता, उत्साह,
प्रेम, लोभ, आदि फूट फूट कर निकलने लगते हैं। जिस प्रकार दु:ख पहुँचानेवाले
का ज्ञान होने पर हमें क्रोध होता है उसी प्रकार जिससे आनंद मिला है उसका
ज्ञान होने पर हम उस पर प्रसन्न होते हैं और उसे भी प्रसन्न करना चाहते
हैं। जो बात हम जैसी चाहते हैं यदि किसी से वैसी ही बन पड़ी तो हमें संतोष
होता है। यदि उससे बढ़कर हुई तो हमें प्रसन्नता होती है। इसी प्रकार आनेवाले
सुख को सोचकर हमें उत्साह होता है और उसके निमित्त हम किसी कार्य में
प्रवृत्त होते हैं। प्रकृति को मनुष्य से काम कराना मंजूर रहता है इसी से
सुख के अनुभव की अपेक्षा भावी सुख की आशा बहुत बलवती होती है। संतोष और
प्रसन्नता की अपेक्षा उत्साह में कहीं अधिक क्रियोत्पादिनी शक्ति होती है।
कोई किसी पर संतुष्ट वा प्रसन्न होगा तो बहुत करेगा उसे कुछ दे दिला देगा
पर यदि वह भावी आनंद के अनुमन से उत्साहित होगा तो कोसों पैदल चलेगा, नदी
नाले पार करेगा और रात रात भर जागेगा। लोग कहते हैं कि जब हमारा काम हो
जाएगा तब तुम्हें इतना देंगे पर जब वह काम हो जाता है तब देने का जी नहीं
करता। इसी से कहा गया है कि Man never is but will be happy अर्थात मनुष्य
सुखी नहीं है पर सुखी होगा। किसी पर प्रसन्न होकर फिर उसे प्रसन्न करने के
लिए जिस भाव की प्रेरणा से हम अनेक प्रकार के आयोजन करते हैं और श्रम उठाते
हैं वह भी उत्साह ही कहलाता है क्योंकि उसे प्रसन्न देखकर हमें जो संतोष
होगा उसी की चाह से हम दौड़धूप करते हैं। देशोपकारियों के आगमन पर जो उत्साह
दिखाया जाता है वह इसी प्रकार का है।
जिससे हमें बराबर किसी प्रकार का सुख मिलता है वा एकबारगी अत्यंत सुख मिलता
है उसका ज्ञान होने पर उससे हमें प्रेम हो जाता है अर्थात उसके सामीप्य की
एक स्थायी इच्छा जिसे हम एक प्रकार का लोभ कह सकते हैं चित्त में स्थान कर
लेती है जो अभाव में बड़ा उग्र रूप धारण करती है। शिशु अपनी माता का दूध पी
पी कर सुखी होता है और उससे प्रेम करता है। युवक किसी युवती के रूप गुण आदि
को देख कर एकबारगी आनंदित हो उठता है और उसका अत्यंत सान्निधय चाहता है।
इसी से कवि लोग ऐसे प्रेम को 'रूप का लोभ' भी कहते हैं। इधर उधर सुनाई भी
पड़ता है कि 'वे उसके रूप पर लुभा गए'।
संसार में दु:ख की निवृत्ति की अधिक और चटपट आवश्यकता होती है इसी से उसका
इतना स्पष्ट विश्लेषण हुआ है। आनंद के इतने स्पष्ट विभाग नहीं हुए हैं।
संतोष, प्रसन्नता, उत्साह आदि के अनुभव प्राय: एक ही से जान पड़ते हैं।
उनमें इतना भेद नहीं जान पड़ता जितना क्रोध, भय, करुणा, घृणा, ईर्ष्या आदि
में परस्पर मालूम होता है। इससे यह अनुमन होता है कि संसार में जितने रूपों
में दु:ख की निवृत्ति की आवश्यकता पड़ती है उतने रूपों में प्राप्त सुख के
उपभोग की नहीं। प्रकृति या नियामक आत्मा संसार मे जीवों के लिए कठिनाइयाँ
अधिक समझती है इसी से उसने उनको दूर करने के लिए अधिक उग्र उपाय रखे हैं।
सारांश यह कि सजीवता दु:ख निवृत्ति के लिए छटपटाने ही का नाम है, पड़े पड़े
आनंद के चसक लेने का नहीं।
मनुष्य जिस समय होश सँभाल कर समाज में प्रवेश करता है वह अपने आनंद और दु:ख
के बहुत से अंशों को क्रिया और दशा पर अवलंबित कर अपने जीवन को अधिक
विस्तृत और व्यापक बनाता है। इस व्यापकत्व के लिए लालायित होना आत्मा का
गुण है। समाज के संसर्ग से ही दु:ख और आनंद के अनेक मनोविकारों की सृष्टि
होती है। क्रोध, करुणा, ईर्ष्या, राग आदि के आधार के लिए दूसरे प्राणियों
और वस्तुओं की अपेक्षा होती है।
दु:ख से निकले हुए मनोविकारों की ओर ध्यान देते हुए पहले हम उनको लेते हैं
जो दु:ख से अपनी रक्षा के हेतु रखे गए हैं, जैसे-क्रोध और भय।
क्रोध
क्रोध दु:ख के कारण के साक्षात्कार वा अनुमन से उत्पन्न होता है।
साक्षात्कार से मेरा अभिप्राय केवल इंद्रियों पर संघात से नहीं बल्कि दु:ख
और उसके कारण के संबंध के परिज्ञान से है। जैसे 3-4 महीने के बच्चे को कोई
हाथ उठाकर मार दे तो उसने हाथ उठाते तो देखा है पर अपनी पीड़ा और उस हाथ
उठाने से क्या संबंध है यह वह नहीं जानता है। अत: वह केवल रोकर अपना दु:ख
मात्र प्रकट कर देता है। दु:ख के कारण के साक्षात्कार के निश्चय के बिना
क्रोध का उदय नहीं हो सकता। दु:ख के हेतु पर प्रबल प्रभाव डालने में
प्रवृत्त करने की मनसिक क्रिया होने के कारण क्रोध का आविर्भाव बहुत पहले
देखा जाता है। शिशु अपनी माता की आकृति से अभ्यस्त हो ज्यों ही यह जान जाता
है कि दूध इसी से मिलता है, भूखा होने पर वह उसकी आहट या रोने में कुछ
क्रोध के चिद्द दिखाने लगता है।
सामाजिक जीवन के लिए क्रोध की बड़ी आवश्यकता है। यदि क्रोध न हो तो जीव बहुत
से दु:खों की चिर निवृत्ति के लिए यत्न ही न करे। कोई मनुष्य किसी दुष्ट के
नित्य दो चार प्रहार सहता है। यदि उसमें क्रोध का विकास नहीं हुआ है तो वह
केवल आह ऊह करेगा जिसका उस दुष्ट पर कोई प्रभाव नहीं। उस दुष्ट के हृदय में
दया आदि उत्पन्न करने में बड़ी देर लगेगी। प्रकृति किसी को इतना समय ऐसे
छोटे छोटे कामों के लिए नहीं दे सकती। भय के द्वारा भी प्राणी अपनी रक्षा
करता है पर समाज में इस प्रकार की दु:ख निवृत्ति चिर स्थायिनी नहीं होती।
मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं कि क्रोध के समय क्रोधकर्ता के हृदय में
भावी दु:ख से बचने या औरों को बचाने की इच्छा ही रहती है बल्कि प्रकृति ने
क्रोध को इसी अभिप्राय से रखा है।
ऊपर कहा जा चुका है कि क्रोध दु:ख के कारण के परिज्ञान या साक्षात्कार से
होता है। अत: एक तो जहाँ इस ज्ञान में त्रुटि हुई वहाँ क्रोध धोखा देता है।
दूसरी बात यह है कि क्रोध जिस ओर से दु:ख आता है उसी ओर देखता है अपने
धारणाकर्ता की ओर नहीं। जिससे दु:ख पहुँचा है या पहुँचेगा उसका नाश हो वा
उसे दु:ख पहुँचे यही क्रोध का लक्ष्य है, जिसे दुख पहुँचा है उसका फिर क्या
होगा इससे उसे कुछ सरोकार नहीं। इसी से एक तो मनोवेग ही एक दूसरे को परिमित
किया करते हैं दूसरे विचारशक्ति भी उनपर अंकुश रखती है। यदि क्रोध इतना
उग्र हुआ कि हृदय के दु:ख के कारण की अवरोधवरोधिनी शक्ति के रूप और परिमाण
के विचार तथा भय आदि और विचारों के संचार के लिए जगह ही न रही तो बहुत हानि
पहुँच जाती है। जैसे कोई सुने कि उसका शत्रु बीस आदमी लेकर उसे मारने आ रहा
है। और वह चट क्रोध से व्याकुल होकर बिना शत्रु की शक्ति का विचार या भय
किए उसे मारने के लिए अकेला दौड़े तो उसके मारे जाने में बहुत कम संदेह है।
अत: कारण के यथार्थ निश्चय के उपरांत आवश्यक मात्रा में ही क्रोध वह काम दे
सकता है जिसके लिए उसका विकास होता है।
कभी कभी लोग अपने कुटुम्बियों या स्नेहियों से झगड़कर उन्हें थोड़ा सा दु:ख
पहुँचाने के अभिप्राय से अपना सिर तक पटक देते हैं। यह सिर पटकना अपने को
दु:ख पहुँचाने के अभिप्राय से नहीं होता क्योंकि बिलकुल बेगानों के साथ कोई
ऐसा नहीं करता। जब किसी को क्रोध में सिर पटकते देखें तो समझ लेना चाहिए कि
उसका क्रोध ऐसे व्यक्ति के ऊपर है जिसे उसके सिर पटकने की परवाह है अर्थात्
जिसे उसके सिर फूटने से यदि उस समय नहीं तो आगे चलकर दु:ख पहुँचेगा।
क्रोध का वेग इतना प्रबल होता है कि कभी कभी मनुष्य यह विचार नहीं करता कि
जिसने दु:ख पहुँचाया है उसमें दु:ख पहुँचाने की इच्छा थी या नहीं। इसी से
कभी तो वह अचानक पैर कुचल जाने पर किसी को मार बैठता है और कभी ठोकर खाकर
कंकड़ पत्थर तोड़ने लगता है। चाणक्य ब्राह्मण अपना विवाह करने जाता था। मार्ग
में कुश उसके पैर में गड़े। वह चट मट्ठा और कुदाली लेकर पहुँचा और कुशों को
उखाड़ उखाड़ कर उनकी जड़ों में मट्ठा देने लगा। मैंने देखा कि एक ब्राह्मण
देवता चूल्हा फूँकते फूँकते हैरान हो गए, जब आग नहीं जली, तब उस पर कोप
करके चूल्हे में पानी डाल किनारे हो गए। इस प्रकार का क्रोध असंस्कृत है।
यात्रियों ने बहुत सी ऐसी जंगली जातियों का हाल लिखा है जो रास्ते में
पत्थर की ठोकर लगने पर बिना उसको चूर चूर किए आगे नहीं बढ़ते। इस प्रकार का
क्रोध अपने दूसरे भाइयों के स्थान को दबाए हुए है। अधिक अभ्यास के कारणयदि
कोई मनोवेग अधिक प्रबल पड़ गया तो वह ऊपर कहे हुए विश्लेषण को व्यर्थ कर
मनुष्य को फिर बचपन से मिलती जुलती अवस्था में ले जाकर पटक देताहै।
जिससे एक बार दु:ख पहुँचा पर उसके दोहराए जाने की संभावना कुछ भी नहीं है
उसको जो कष्ट पहुँचाया जाता है वह प्रतिकार कहलाता है। एक दूसरे से अपरिचित
दो आदमी रेल पर चले जाते हैं। इनमें से एक को आगे ही के स्टेशन पर उतरना
है। स्टेशन तक पहुँचते पहुँचते बात ही बात में एक ने दूसरे को एक तमाचा जड़
दिया और उतरने की तैयारी करने लगा। अब दूसरा मनुष्य भी यदि उतरते उतरते
उसको एक तमाचा लगा दे तो यह उसका प्रतिकार या बदला कहा जायगा क्योंकि उसे
फिर उसी व्यक्ति से तमाचे खाने की संभावना का कुछ भी निश्चय नहीं था। जहाँ
और दु:ख पहुँचाने की कुछ भी संभावना होगी वहाँ शुद्ध प्रतिकार नहीं होगा।
हमारा पड़ोसी कई दिनों से नित्य आकर हमें दो चार अंड बंड सुना जाता है। यदि
हम उसको एक दिन पकड़ कर पीट दें तो हमारा यह कर्म शुद्ध प्रतिकार नहीं
कहलावेगा क्योंकि नित्य गाली सुनने के दु:ख से बचने के परिणाम की ओर भी
हमारी दृष्टि रही। इन दोनों अवस्थाओं को ध्यानपूर्वक देखने से पता लगेगा कि
दु:ख से उद्विग्न होकर दु:खदाता को कष्ट पहुँचाने की प्रवृत्ति दोनों में
है, पर एक में वह परिणाम इत्यादि के विचार को बिलकुल छोड़े हुए है और दूसरे
में कुछ लिए हुए। इनमें से पहले प्रकार का क्रोध निष्फल समझा जाता है। पर
थोड़े धैर्य के साथ सोचने पर जान पड़ेगा कि इस प्रकार के क्रोध से स्वार्थ
साधन तो नहीं होता पर परोक्ष रूप में परमार्थ साधन अवश्य हो जाता है। दु:ख
पहुँचानेवाले से हमें फिर दु:ख पहुँचने का डर न सही पर समाज को है। इससे
उसे उचित दंड देने से पहले तो उसी की शिक्षा या भलाई हो जाती है फिर समाज
के और लोगों का भी बचाव हो जाता है। क्रोधकर्ता की दृष्टि तो इन परिणामों
की ओर नहीं रहती है पर सृष्टिविधान में इस प्रकार की क्रोध की नियुक्ति है
इन्हीं परिणामों के लिए।
क्रोध सब मनोविकारों से फुरतीला है इसीलिए अवसर पड़ने पर यह और दूसरे भी
मनोविकारों का साथ देकर उनकी सहायता करता है। कभी वह दया के साथ कूदता है
कभी घृणा के। एक क्रूर कुमार्गी किसी अनाथ अबला पर अत्याचार कर रहा है।
हमारे हृदय में इस अनाथ अबला के प्रति दया उमड़ रही है। पर दया की पहुँच तो
आर्त ही तक है। यदि वह स्त्री भूखी होती तो हम उसे कुछ रुपया पैसा देकर
अपने दया के वेग को शांत कर लेते। पर यहाँ तो उस दु:ख का हेतु मूर्तिमन तथा
अपने विरुद्धा प्रयत्नों को ज्ञानपूर्वक व्यर्थ करने की शक्ति रखनेवाला है।
ऐसी अवस्था में क्रोध ही उस अत्याचारी के दमन के लिए उत्तेजित करता है
जिसके बिना हमारी दया ही व्यर्थ जाती है। क्रोध अपनी इस सहायता के बदले में
दया के यश को नहीं बाँटता। यद्यपि काम क्रोध करता है पर नाम दया का ही होता
है। लोग यही कहते हैं उसने दया करके बचा लिया। क्रोध दया का साथ न दे तो
दया अपने अनुकूल प्रमाण उपस्थित ही नहीं कर सकती। एक अघोरी हमारे सामने
मक्खियाँ मार मारकर खा रहा है और हमें घिन लग रही है। हम उससे नम्रतापूर्वक
हटने के लिए कह रहे हैं और वह नहीं सुन रहा है। चट हमें क्रोध आ जाता है और
हम उसे बलात् हटाने में प्रवृत्त हो जाते हैं।
बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। जिससे हमें दु:ख पहुँचा उसपर हमने जो
क्रोध किया वह यदि हमारे हृदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह बैर कहलाता
है। इस स्थायी रूप में टिक जाने के कारण क्रोध की क्षिप्रता और हड़बड़ी तो कम
हो जाती है पर वह और धैर्य, विचार और युक्ति, के साथ दु:खदाता को पीड़ित
करने की प्रेरणा बराबर बहुत काल तक किया करता है। क्रोध अपना बचाव करते हुए
शत्रु को पीड़ित करने की युक्ति आदि सोचने का समय नहीं देता पर बैर इसके लिए
बहुत समय देता है। वास्तव में क्रोध और बैर में केवल काल भेद है। दु:ख
पहुँचने के साथ ही दु:खदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा क्रोध और कुछ काल बीत
जाने पर बैर है। किसी ने हमें गाली दी। यदि हमने उसी समय उसे मार दिया तो
हमने क्रोध किया। अब मन लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद
हमें कहीं मिला। अब यदि फिर बिना गाली दिए हमने उसे मिलने के साथ ही मार
दिया तो यह हमारा बैर निकालना हुआ। इस विवरण से स्पष्ट है कि बैर उन्हीं
प्राणियों में होता है जिनमें धारणा या भावों के संचय की शक्ति होती है।
पशु और बच्चे किसी से बैर नहीं मनते। वे क्रोध करते हैं और थोड़ी देर के बाद
भूल जाते हैं। क्रोध का यह स्थायी रूप भी आपदाओं की पहिचान करा कर उनसे
बहुत काल तक बचाए रखने के लिए दिया गया है।
भय
क्रोध के समन भय भी दु:ख से बचाने के कार्य पर नियुक्त है। पर इन दोनों में
अंतर यह है कि क्रोध दु:ख के निमित्त पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है
और भय उसकी पहुँच से अपने को बाहर करने के लिए। क्रोध का कार्य जैसा बड़ा और
विचारापेक्ष है वैसे ही उसका फल भी अधिक स्थायी है अर्थात् वह क्रोध की
स्थिति के अनंतर भी या तो बराबर या बहुत दिनों तक रहता है। पर ऐसे सज्ञान
प्राणियों के बीच जिनमें भाव बहुत काल तक संचित रहते हैं और ऐसे उन्नत समाज
में जहाँ एक व्यक्ति के पहुँच और परिचय का विस्तार बहुत बड़ा होता है प्राय:
भय का फल भय के भोग काल तक ही रहता है। जहाँ वह भय भूला कि आफत आई। यदि कोई
मनुष्य किसी बात पर आप से बुरा मन गया और आप को मारने के लिए दौड़ा तो उस
समय भय के उद्वेग में आप भाग कर अपने को बचा लेंगे। पर संभव है कि उस
मनुष्य का क्रोध जो आप पर है वह उसी समय दूर न हो जाय बल्कि कुछ दिन के लिए
बैर के रूप में टिक जाय तो उसके लिए आपके सामने आना फिर कोई कठिन बात नहीं
होगी। प्राणियों की अनुन्नत दशा ही में भय से अधिक काम निकलता है जबकि
भावों के संचय की शक्ति नहीं होती और समाज का ऐसा उन्नत गठन नहीं होता कि
बहुत से लोगों को एक दूसरे का पता और उनके विषय में जानकारी रहती हो। जंगली
मनुष्यों के परिचय का विस्तार बहुत थोड़ा होता है। बहुत सी ऐसी जंगली
जातियाँ हैं जिनमें कोई एक व्यक्ति बीस से अधिक आदमियों को नहीं जानता। अत:
उसे दस या पन्द्रह कोस ही पर रहनेवाला यदि कोई दूसरा जंगली मिले और मारने
दौड़े तो वह भागकर अपनी रक्षा उसी समय तक के लिए नहीं बल्कि सब दिन के लिए
कर सकता है। पर सभ्य, उन्नत और विस्तृत समाज में भय के द्वारा स्थायी रक्षा
की उतनी संभावना नहीं होती। इसी से जंगली और असभ्य जातियों में ही भय अधिक
होता है। उनके देवी देवता भय द्वारा ही कल्पित हैं। किसी आपत्ति वा दु:ख से
बचने के लिए ही वे उसकी पूजा करते हैं। अति भय असभ्यता का पहला लक्षण है।
अशिक्षित होने के कारण अधिकांश भारतवासी भी भय के उपासक हैं। वे जितना
सम्मान एक थानेदार या तहसीलदार का करते हैं उतना किसी विद्वान् या कॉलेज के
अध्यापक का नहीं। जब तक यह दशा रहे तब तक भारत को असभ्य समझना चाहिए और जब
इसका विपर्यय देख पड़े तब उसकी उन्नति में संदेह न करना चाहिए।
चलने फिरने वाले बच्चों में जिनमें भाव देर तक नहीं टिकते और दु:ख परिहारका
ज्ञान वा बल नहीं होता भय अधिक होता है। बहुत से बच्चे तो किसी अपरिचित
आदमी को देखते ही घर के भीतर भागते हैं। पशुओं में भी भय अधिक देखा जाताहै।
दु:ख के चेतन कारण का ज्ञान हुए बिना प्राय: क्रोध नहीं होता पर भय को कारण
के निर्दिष्ट किए जाने की आवश्यकता नहीं है, इतना भर मालूम हो जाना चाहिए
कि दु:ख पहुँचेगा। यदि कोई किसी से आकर कहे कि कल तुम्हारे हाथ पाँव टूट
जाएँगे तो उसे क्रोध नहीं आवेगा पर भय हो सकता है। पर यदि उसी से कहा जाय
कि 'कल दो एक आदमी (चाहे उनका नाम न भी लिया जाय) तुम्हारा हाथ पैर तोड़
देंगे तो वह तुरंत त्योरी बदल कर कहेगा कि 'कौन हैं हाथ पैर तोड़ने वाले,
देखेंगे।'
क्लेश के कारण के ज्ञान होने पर जो भय होता है उसमें उस कारण पर प्रभाव
डालने की अक्षमता का अवश्य निश्चय होता है। यदि यह निश्चय ठीक हुआ तब तो भय
को अपने उचित स्थान पर समझना चाहिए। यदि यह निश्चय कठिनाइयों और आपत्तियों
को दूर करने के अनभ्यास के कारण स्वभाव के अंतर्गत आ गया है तो उसे कायरता
कहना चाहिए।
दु:ख के निश्चय के अभाव में केवल संभावना के अनुमन से जो भय होता है उसे
आशंका कहते हैं। वह इतनी प्रबल नहीं होती। जैसे कोई जंगल में चला जाता है
और रास्ते भर डरता है कि कहीं बाघ न मिल जाय। यदि उसे ठीक ठीक भय होता तो
वह लौट जाता, आगे पैर ही न रखता। दु:ख की कोटि में जो स्थान भय का है आनंद
के विभाग में वही उत्साह का है। भय के अनुग्र रूप आशंका का उलटा आशा है।
भय दो प्रकार का होता है, एक असाध्य और दूसरा साध्य। असाध्य भय वह है
जिसमें यह पूरा निश्चय हो जाय कि चाहे हम किसी अवस्था में रहें दु:ख अवश्य
ही पहुँचेगा।
साध्य भय वह है जिसमें जिस अवस्था में मनुष्य है उसी अवस्था में बने रहने
से किसी ज्ञात कारण द्वारा दु:ख पहुँचने का निश्चय हो। इसमें मनुष्य को
बचाव के लिए प्राप्त अवस्था से भिन्न अवस्था में होना पड़ता है, यद्यपि कभी
कभी इस अवस्थांतर से भी उसकी रक्षा नहीं होती। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के
किनारे बैठे वा आनंद से बातचीत करते चले जा रहे हैं। इतने में सामने शेर की
आहट मालूम हुई। अब इन दोनों व्यक्तियों को उसी अवस्था में रहने से अर्थात्
बैठे ही रह जाने वा जिस ओर जिस प्रकार से जा रहे हैं उसी ओर उसी प्रकार
चलते रहने से आपत्ति का निश्चय है। अत: यदि वे बैठै हैं तो उठकर भागने वा
पेड़ इत्यादि पर चढ़ने का यत्न करेंगे और यदि चले जा रहे हैं तो जितने वेग से
जा रहे हैंउससे अधिक वेग से किसी दूसरी ओर जिधर छिपने के लिए स्थान होगा
उधर चलेंगे।
जिस कार्य के करने से मनुष्य को भय होगा उस कार्य के करने के पहले भी लोग
कहते हैं कि उस कार्य से भय मालूम होता है। जैसे कोई किसी से कहे कि इस
गङ्ढे को फाँद जाओ वा जिधर शेर बैठा है उधर से निकल जाओ और वह कहे कि डर
मालूम होता है तो उसे यथार्थ में डर नहीं मालूम होता है बल्कि हिचक मालूम
होती है। भय से उसका चित्त तो उस समय विचलित होगा जब वह कार्य को आरम्भ कर
देगा वा करता होगा। हाँ, भय लगने का भय मालूम होता हो तो बात दूसरी है। जब
तक दु:ख का उपादान अपनी क्रिया से हमारा सामीप्य लाभ करता न जान पड़ेगा तब
तक यथार्थ में भय न जान पड़ेगा। जब तक कुएँ में गिरना वा न गिरना, शेर की
माँद में जाना वा न जाना अपने हाथ में है तब तक भय कैसा। हिचक वह है जिससे
लोग कोई काम करें ही नहीं और भय वह है जिससे लोग करते हुए काम ही छोड़ दें।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जुलाई 1912)
घृणा
सृष्टि विस्तार से अभ्यस्त होने पर प्राणियों को कुछ विषय ग्राह्य और कुछ
अग्राह्य प्रतीत होने लगते हैं। इन अग्राह्य विषयों के उपस्थित होने पर जो
दु:ख होता है उसे घृणा कहते हैं। सुबीते के लिए हम यहाँ घृणा के दो विभाग
करते हैं-स्थूल और मनसिक। स्थूल घृणा, ऑंख, कान और नाक इन्हीं तीन
इन्द्रियों से संबंध रखती है। हम चिपटी नाक और कानी ऑंख से सुसज्जित चेहरे
को देख घृणा करते हैं। खरस्वान खर्राट की तान सुनकर कान में उँगली डालते
हैं और म्युनिसिपैलिटी की मैलागाड़ी सामने आने पर नाक पर रूमाल रखते हैं। रस
और स्पर्श अकेले घृणा नहीं उत्पन्न कर सकते। रस का भला या बुरा अनुभव तो कई
अंशों में घ्राण से मिला हुआ है। यहाँ पर यह न समझना चाहिए कि हम
इन्द्रियानुभव और मनोवेग को एक करते हैं। विषष का भला व बुरा लगना उसका
ज्ञान मात्र नहीं है कुछ और भी है। मनसिक घृणा मन में कुछ अपनी ही क्रिया
से आरोपित और कुछ शिक्षा द्वारा प्राप्त आदर्शों के प्रतिकूल विषयों की
उपस्थिति से उत्पन्न होती है। यह मनसिक घृणा स्थूल घृणा से भिन्न है।
निर्लज्जता की कथा कितनी ही सुरीली तान में सुनायी जाय घृणा उत्पन्न ही
करेगी। कैसा ही गंदा आदमी परोपकार करे उसे देख श्रद्धा उत्पन्न हुए बिना न
रहेगी। आनंद की कोटि में मनसिक घृणा का उलटा श्रद्धा है।
ऐसे अग्राह्य और प्रतिकूल विषयों के उपस्थित काल में इन्द्रिय वा मन का
व्यापार अच्छा नहीं लगता, इससे या तो प्राणी ऐसे विषयों को दूर करना चाहता
है अथवा अपने इन्द्रिय वा मन के व्यापार को बंद करना। इसके अतिरिक्त वह और
कुछ नहीं करना चाहता। क्रोध और घृणा में जो अंतर है वह यहाँ देखा जा सकता
है। क्रोध का विषय पीड़ा वा हानि पहुँचानेवाला होता है इससे क्रोधी उसे नष्ट
करने में प्रवृत्त होता है। घृणा का विषय इन्द्रिय वा मन के व्यापार में
संकोच मात्र उत्पन्न करनेवाला है। इसी से मनुष्य को उतना उग्र उद्वेग नहीं
होता और वह घृणा के विषय की हानि करने में तुरंत बिना कुछ और विचार किए
प्रवृत्त नहीं होता। हम अत्याचारी पर क्रोध और व्यभिचारी पर घृणा करते हैं।
क्रोध और घृणा के बीच एक अन्तर और ध्यान देने योग्य है। घृणा का विषय हमें
घृणा का दु:ख पहुँचाने के विचार से हमारे सामने उपस्थित नहीं होता पर क्रोध
का चेतन विषय हमें आघात वा पीड़ा पहुँचाने के उद्देश्य से हमारे सामने
उपस्थित होता है वा समझा जाता है। न दुर्गंध ही इसलिए हमारी नाक में घुसती
है कि हमें घिन लगे और न व्यभिचारी ही इसलिए व्यभिचार करता है कि हमें उसकी
करतूत सुन उससे घृणा करने का दु:ख उठाना पड़े। यदि घृणा का विषय जानबूझ कर
हमें घृणा का दु:ख पहुँचाने के अभिप्राय से हमारे सामने उपस्थित हो तो
हमारा ध्यान उस घृणा के विषय से हटकर उसकी उपस्थिति के कारण की ओर हो जाता
है और हम क्रोध साधन में तत्पर हो जाते हैं। यदि आपको किसी के पीले दाँत
देख घिन लगेगी तो आप अपना मुँह दूसरी ओर फेर लेंगे उसके दाँत नहीं तोड़ने
जायँगे। पर यदि जिधर जिधर आप मुँह फेरते हैं उधर उधर वह भी आकर खड़ा हो तो
आश्चर्य नहीं कि वह थप्पड़ खा जाय। यदि होली में कोई गंदी गालियाँ बकता चला
जाता है तो घृणा मात्र लगने पर आप उसे मारने न लग जायँगे उससे दूर हटेंगे
पर यदि जहाँ जहाँ आप जाते हैं वहाँ वहाँ वह भी आपके साथ साथ अश्लील बकता
जाता है तो आप उसपर टूट पड़ेंगे।
घृणा के दु:ख और पीड़ा के बीच जो अन्तर है वह स्पष्ट है। वज्रपात के शब्द का
अनुभव भद्दे गले के आलाप के अनुभव से भिन्न है। ऑंख में किरकिरी पड़ना और
बात है सड़ी बिल्ली सामने आना और बात। यदि कोई स्त्री आपके सामने मीठे
शब्दों में कलुषित प्रस्ताव करे तो उसके प्रति आपको घृणा होगी पर वही
स्त्री यदि आपको छड़ी लेकर मारने आवे तो आप उस पर क्रोध करेंगे। घृणा का
भाव शांत है, उसमें क्रियोत्पादिनी शक्ति नहीं है। घृणा निवृत्ति का मार्ग
दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का। यदि हम किसी से घृणा करेंगे तो बहुत
करेंगे उसकी राह बचाएँगे। उससे बोलेंगे नहीं पर यदि किसी पर आप क्रोध
करेंगे तो ढूँढ़कर उससे मिलेंगे और उसे और नहीं तो दस पाँच ऊँची नीची
सुनावेंगे। घृणा विषय से दूर ले जानेवाली है और क्रोध हानि पहुँचाने की
प्रवृत्ति उत्पन्न कर विषय के पास ले जानेवाला है। कहीं कहीं घृणा क्रोध का
शांत रूपांतर प्रतीत होती है। साधारण लोग जिन बातों पर क्रोध करते देखे
जाते हैं साधु लोग उनसे घृणा मात्र करके, और यदि साधुता ने बहुत जोर दिया
तो उदासीन ही होकर रह जाते हैं। दुर्जनों की गाली सुनकर साधारण लोग क्रोध
करते हैं पर साधु लोग उपेक्षा ही करके संतोष कर लेते हैं। जो क्रोध एक बार
उत्पन्न होकर सामान्य लोगों में बैर के रूप में टिक जाता है वही क्रोध साधु
लोगों में घृणा के रूप में टिकता है। दोनों के जो भिन्न भिन्न परिणाम हैं
वे प्रत्यक्ष हैं। यदि जिसपर एक बार क्रोध उत्पन्न हुआ उसका व्यवहार
आकस्मिक है तो बैर कर बैठना और यदि बराबर अग्रसर होनेवाला है तो घृणा मात्र
करना निष्फल है।
आजकल की बनावटी सभ्यता वा शिष्टता में 'घृणा' शब्द बैर वा क्रोध को छिपाने
का काम दे जाता है। यदि हमें किसी से बैर है तो हम दस पाँच सभ्यों के बीच
बैठकर कहते हैं कि हमें उससे घृणा है। इस बात से हमारी चालाकी प्रत्यक्षहै।
बैर का आधार व्यक्तिगत है, घृणा का सार्वजनिक। बैर के नाम पर यह समझा जाता
है कि कहीं दो वा अधिक मनुष्यों के लक्ष्य का परस्पर विरोध हुआ है पर घृणा
का नाम सुनकर अधिकतर यही अनुमन होता है कि समाज के लक्ष्य वाआदर्श का विरोध
हुआ है। बैर करना एक छोटी बात समझी जाती है अत: बैर के स्थान पर घृणा का
नाम ले लेने से हमारा बदला और बचाव दोनों हो जाता है।
स्थूल घृणा के विषय प्राय: सब मनुष्यों के लिए समन हैं। सुगंध और दुर्गंध,
सौंदर्य और भद्दापन इत्यादि के विषय में प्राय: एक मत रहता है। यह दूसरी
बात है कि एक प्रकार की सुगंधकी अपेक्षा दूसरी प्रकार की सुगंध किसी को
बहुत अच्छी लगे, पर गुलाब की गंधको कोई दुर्गंध नहीं कहेगा। मनसिक घृणा और
श्रद्धा के मूलाधार भी सब मनुष्यों में समन और निर्दिष्ट हैं। वेश्यागमन,
जुआ, मद्यपान, स्वार्थपरता, कायरता, आलस्य, लंपटता, पाखंड, अनधिकार चर्चा,
मिथ्याभिमन आदि विषय उपस्थित होने पर सब मनुष्य घृणा करने के लिए विवश हैं।
इसी प्रकार से स्वार्थ, परोपकार, इन्द्रियसंयम आदि पर श्रद्धा होना एक
प्रकार स्वाभाविक सा हो गया है। मतभेद वहाँ देखा जाता है जहाँ और और विषयों
को पार कर लोग अनुबंध द्वारा इन मूलाधारों तक पहुँचते हैं। यदि एक ही
व्यापार में एक आदमी को घृणा मालूम हो रही है और दूसरे को नहीं तो यह समझना
चाहिए कि पहला उस व्यापार के आगे पीछे चारों ओर जिन रूपों की उद्भावना करता
है दूसरा नहीं। दलबल सहित भरत को वन में आते देख निषाद को उनके प्रति घृणा
उत्पन्न हो रही है और राम को नहीं। क्योंकि निषादराज भरत के आगमन में असहाय
राम को मार निष्कंटक राज्य करने की उद्भावना करता है और राम नहीं। इस
प्रकार के भेद का कारण मनुष्य के अनुबंध ज्ञान की उलटी गति है। सृष्टि का
क्रम मूल आधार से सिद्ध रूपों की ओर चलता है, पर अनुबंध ज्ञान का क्रम या
तो सिद्ध रूप के पीछे मूल आधार की ओर जाता है अथवा आगे परिणाम की कल्पना
करता है। प्रत्येक व्यक्ति के अनुबंध ज्ञान की गति एक ही ओर को नहीं हो
सकती। किसी सिद्ध रूप को पाकर हर एक आदमी अनुबंध द्वारा उससे वास्तविक
संबंध रखनेवाले अत: समन रूपों तक नहीं पहुँच सकता। एक बात को देखकर हर एक
आदमी उसका एक ही वा समन कारण और परिणाम नहीं बतलावेगा। किसी रियासत के नौकर
ने अपने एक मित्र से कहा कि ''तुम कभी भूलकर भी इस रियासत में नौकरी न
करना।'' इस कथन में एक आदमी को तो हित कामना की झलक दिखलाई पड़ रही है और
दूसरे को ईर्ष्या की। इससे एक उसपर श्रद्धा करता है दूसरा घृणा। जहाँ घृणा
के मूलाधार प्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आते हैं वहाँ कोई मतभेद नहीं
दिखाई देता। पर कभी कभी ये विषय स्वयं हमारे सामने नहीं आते,उनके अनुमानित
आभास हमारे सामने रहते हैं जो और और विषयों (आधारों) के भीआभास हो सकते
हैं। घृणा संबंधी इस प्रकार का मतभेद सभ्य जातियों में जिनमें उद्देश्यों
के छिपाने की चाल बहुत है, अधिक देखा जाता है। एक ही आदमी को कोई परम
धार्मिक राजनीतिक नेता समझता है कोई मक्कार। एक ही राजकीय कार्रवाई को कोई
व्यापार की स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रयत्न समझता है कोई राज्य का लोभ।
मूसाई और ईसाई लोग देवपूजकों से इसलिए घृणा नहीं करते कि वे छोटी छोटी
वस्तुओं पर श्रद्धा भक्ति करते हैं बल्कि यह समझकर कि वे उनके जमीन और आसमन
बनानेवाले खुदा से दुश्मनी किए बैठे हैं। अपने बनाने और पालने वाले से बैर
ठानना कृतघ्नता है। अत: उनकी घृणा आरोपित कृतघ्नता के प्रति है देवपूजा के
प्रति नहीं। संस्कार द्वारा ऐसे आरोपों पर यहाँ तक विश्वास बढ़ा कि अरब और
यहूद की धर्म पुस्तकों में मूर्तिपूजन वा देवाराधान महापातक ठहराया गया।
ऍंगरेज कवि मिल्टन ने प्राचीन जातियों के देवताओं को शैतान की फौज के सरदार
बनाकर बड़ी ही संकीर्णता और कट्टरपन का परिचय दिया है। सीधा सादे गोस्वामी
तुलसीदासजी से भी बिना यह कहे न रहा गया-
जे परिहरि हरिहर चरण भजहिं भूत गण घोर।
तिनकी गति मोहिं देहु विधिा जो जननी मत मोरड्ड
भिन्न भिन्न मत वालों में जो परस्पर घृणा देखी जाती है वह अधिकतर ऐसे ही
आरोपों के कारण है। एक के आचार विचार से जब दूसरा घृणा करता है तब उसकी
दृष्टि यथार्थ में उस आचार विचार पर नहीं रहती है बल्कि ऊपर लिखे घृणा के
सामान्य मूलाधारों में से किसी पर रहती है।
घृणा के विषय में मतभेद का एक और कारण ग्राह्य और अग्राह्य होने के लिए
विषम मात्रा की अनियति है। सृष्टि में बहुत सी वस्तुओं के बीच की सीमाएँ
अस्थिर हैं। एक ही वस्तु व्यापार वा गुण किसी मात्रा में श्रद्धा का विषय
है किसी मात्रा में अश्रद्धा का। इसके अतिरिक्त शिक्षा और संस्कार के कारण
एक ही मात्रा का प्रभाव प्रत्येक हृदय पर एक ही प्रकार का नहीं पड़ता। यह
नहीं है कि एक बात एक आदमी को जहाँ तक अच्छी लगती है वहाँ तक दूसरे को भी
अच्छी लगे। मन में प्रतिकूल बातें रखकर मुँह पर अनुकूल बातें करनेवाले को
एक आदमी शिष्ट और दूसरा कुटिल कहता है। उपचार वा मुँह पर प्रसन्न करनेवाली
बात कहने को जहाँ तक एक आदमी शिष्टता समझता चला जाता है दूसरा वहाँ से
कुटिलता का आरंभ मन लेता है। दो चार बार किसी आदमी को थोड़ी थोड़ी बात पर
रोते वा कोप करते देखकर एक तो उसको दुर्बल चित्त और उद्वेगशील समझता है और
दूसरा उसी को थोड़ी थोड़ी बात पर विलाप करते और आपे के बाहर होते दस बार
देखकर भी उसे सहृदय कहता है। रसिक लोग शुष्क हृदय लोगों से घृणा करते हैं
और शुष्क हृदय लोग रसिकों से। यदि ये दोनों मिलकर एक दिन शुष्कता और रसिकता
की सीमा तय कर डालें तो झगड़ा मिट जाय। शुष्क हृदय लोग नाप तौल कर बतला दें
कि यहाँ तक की रसिकता शोहदापन या विषयासक्ति नहीं है और रसिक लोग यह बतला
दें कि यहाँ तक की शुष्कता कठोर हृदयता नहीं है, बस झगड़ा साफ। पर यह हो
नहीं सकता। दृढ़ता और हठ, धीरता और आलस्य, सहनशीलता और भीरुता, उदारता और
फिजूलखर्ची, किफायत और कंजूसी आदि के बीच की सीमाएँ सब मनुष्यों के हृदय
में न एक हैं और न एक होंगी।
मनोवेग दो प्रकार के होते हैं-प्रत्यावर्ती और अनावर्ती। प्रत्यावर्ती वे
हैं जो एक के हृदय में दूसरे के प्रति उत्पन्न होकर दूसरे के हृदय में भी
पहले के प्रति उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे-क्रोध, घृणा, प्रेम इत्यादि। जिस
पर हम क्रोध करेंगे वह हमारे क्रोध के कारण हम पर भी क्रोध कर सकता है।
जिससे हम प्रेम करेंगे वह हमारे प्रेम को देख हमसे भी प्रेम कर सकता है।
अनावर्ती मनोवेग जिसके प्रति उत्पन्न होते हैं उसके हृदय में यदि करेंगे तो
सदा दूसरे भावों की सृष्टि करेंगे। इनके अंतर्गत भय, दया, ईर्ष्या आदि
हैं। जिससे हम भय करेंगे वह हमसे हमारे भय के प्रभाव से भय नहीं करेगा
बल्कि हम पर दया करेगा। जिसपर हम दया करेंगे वह हमारी दया के कारण हमपर दया
नहीं करेगा बल्कि श्रद्धा करेगा। जिससे हम ईर्ष्या करेंगे वह हमारी
ईर्ष्या को देख हमसे ईर्ष्या नहीं करेगा बल्कि घृणा करेगा।
प्रत्यावर्ती मनोवेग सजातीय संयोग पाकर बहुत जल्दी बढ़ते हैं। एक के क्रोध
को देख दूसरा क्रोध करेगा, दूसरे के क्रोध को देख पहले का क्रोध बढ़ेगा,
पहले का क्रोध देख दूसरे का क्रोध बढ़ेगा, इस प्रकर एक अत्यंत भीषण क्रोध का
दृश्य उपस्थित हो सकता है। इसी प्रकार एक के प्रेम को देख, दूसरे को प्रेम
हो सकता है, दूसरे के प्रेम को बढ़ते देख दूसने का प्रेम और बढ़ सकता है और
अन्त में रात रात भर करवटें बदलते रहने की नौबत आ सकती है। अस्तु,
प्रत्यावर्ती मनोवेगों से बहुत सावधान रहना चाहिए।
अनावर्ती मनोवेग का ऐसे विजातीय मनोवेगों से संयोग होता है जिनसे उनकी
वृद्धि नहीं हो सकती है। जिससे हम भय करेंगे वह हमपर दया करेगा। उसकी दया
को देख हमारा भय बढ़ेगा नहीं। हमें जिससे भय प्राप्त हुआ है उसमें फिर क्रोध
को देख हमारा भय बढ़ सकता है, पर हमारे भय के कारण उसमें नया क्रोध उत्पन्न
नहीं होगा। अपने ऊपर किसी को दया करते देख हम श्रद्धा प्रगट करेंगे, हमारी
श्रद्धा से उसकी दया तत्क्षण बढ़ेगी नहीं। श्रद्धा पर दया नहीं होती है, दया
होती है क्लेश पर। श्रद्धा पर जो वस्तु हो सकती है वह कृपा है। जिसपर हमें
दया उत्पन्न हुई है उसको और क्लेशित वा भयभीत देखकर हमारी दया बढ़ सकती है।
पर हमें दया करते देख (उस दया के कारण) उसका क्लेश वा भय बढ़ेगा नहीं। किसी
की अपने प्रति ईर्ष्या देखकर हम उससे घृणा प्रगट करेंगे। हमारी घृणा उसमें
नई ईर्ष्या उत्पन्न कर उसकी ईर्ष्या बढ़ावेगी नहीं। घृणा पर ईर्ष्या नहीं
होती है। ईर्ष्या होती है किसी की उन्नति वा बढ़ती देखकर। प्रतिकार के रूप
में जो अहित कामना उत्पन्न होती है वह ईर्ष्या नहीं है। घृणा के बदले में
तो घृणा, क्रोध वा बैर होता है।
यह जानकर कि घृणा प्रत्यावर्ती मनोविकारों में से है लोगों को बहुत समझ
बूझकर उसे स्थान देना और प्रकट करना चाहिए। अनुपयुक्त घृणा की स्थिति से
अभाव रूप में और उपयुक्त घृणा के प्रदर्शन से कभी कभी भाव रूप में हानि
पहुँच सकती है। ऊपर कहा जा चुका है कि घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है
अर्थात् अपने विषयों से दूर रहने की प्रेरणा करती है। अत: हमारी घृणा
अज्ञानवश ऐसी वस्तुओं से है जिनसे हमें लाभ पहुँच सकता है तो उनके अभाव का
कष्ट हमें भोगना पड़ेगा। युवा विवाह और शिक्षा आदि से जिन्हें घृणा है वे
उनके लाभों से वंचित रहेंगे। किसी बुद्धिमन मनुष्य से जो मन में घृणा रखेगा
वह उसके सत्संग के लाभों से हाथ धोएगा। उपयुक्त घृणा की यदि वह शुद्ध है तो
प्रगट करने की आवश्यकता नहीं होती। घृणा का उद्देश्य जिसके हृदय में वह
उत्पन्न होती है उसकी क्रियाओं को निर्धारित करना है, जिसके प्रति उत्पन्न
होती है उसपर किसी प्रकार का प्रभाव डालना नहीं। अत: उपयुक्त घृणा को भी
उसके पात्र पर यत्नपूर्वक प्रगट करने की आवश्यकता नहीं है। यदि हमें किसी
आदमी से खालिस घृणा मात्र है तो हम उससे दूर रहेंगे, हमें इसकी जरूरत न
होगी कि हम उसके पास जाकर कहें कि ''हमें तुमसे घृणा है''। जब क्रोध, करुणा
वा हित कामना आदि का कुछ मेल रहेगा तभी हम अपनी घृणा प्रगट करने को आकुल
होंगे। हमें जिसपर क्रोध मिश्रित घृणा होगी, उसी के सामने हम अपनी घृणा
प्रगट करके उसे दु:ख पहुँचाना चाहेंगे, क्योंकि दु:ख पहुँचाने की प्रवृत्ति
क्रोध की है घृणा की नहीं। इसी प्रकार जिसके कार्यों से हमें घृणा उत्पन्न
होगी यदि उसपर कुछ दया वा उसके हित की कुछ चिंता होगी तभी हम उसे उन
कार्यों से विरक्त करने के अभिप्राय से उसपर अपनी घृणा प्रगट करने जाएँगे।
पर इन दोनों अवस्थाओं में यह भी हो सकता है कि जिसपर हम घृणा प्रगट करें वह
हमसे बुरा मन जाय।
मनोवेगों को उत्पन्न होने देने और न उत्पन्न होने देने की इच्छा को
मनोवेगों से स्वतंत्र समझना चाहिए। किसी वस्तु से घृणा उत्पन्न होना एक बात
है और घृणा के दु:ख को न उत्पन्न होने देने के लिए उस वस्तु को दूर करने वा
उससे दूर होने की इच्छा दूसरी बात है। हम घृणा के दु:ख का अनुभव वा अनुभव
की आशंका कर चुके तब उससे बचने को आकुल हुए। ऐसी आकुलता को हम 'घृणा लगने
का भय' कह सकते हैं। एक पूछता है ''क्यों भाई! तुम उनके सामने क्यों नहीं
जाते?'' दूसरा कहता है ''उसका चेहरा देखकर, उसकी बात सुनकर हमें क्रोध लगता
है''। इस प्रकार की अनिच्छा को ''क्रोध की अनिच्छा'' कह सकते हैं। किसी
वस्तु का अच्छा लगना एक बात है और उस अच्छा लगने के सुख को उत्पन्न करने के
लिए वस्तु की प्राप्ति की इच्छा दूसरी बात।
घृणा और भय की प्रवृत्ति एक सी है। दोनों अपने अपने विषयों से दूर होने की
प्रेरणा करते हैं। परन्तु भय का विषय भावी हानि का अत्यन्त निश्चय कराने
वाला होता है। और घृणा का विषय उसी क्षण इन्द्रिय वा ज्ञान के व्यापारों
में संकोच उत्पन्न करनेवाला। घृणा के विषय से यह समझा जाता है कि जिस
प्रकार का दु:ख यह दे रहा है उसी प्रकार का देता जायगा पर भय के विषय से यह
समझा जाता है कि अभी और प्रकार का अधिक तीव्र दु:ख देगा। भय क्लेश नहीं है,
क्लेश की छाया है; पर ऐसी छाया है जो हमारे चारों ओर घोर अंधकार फैला सकती
है। सारांश यह कि भय एक अतिरिक्त क्लेश है। यदि जिस बात का हमें भय था वह
हम पर आ पड़ी तो हमें दोहरा क्लेश पहुँचा। इसी से आनेवाली अनिवार्य आपदाओं
की पूर्वापेक्ष्य की हमें उतनी आवश्यकता नहीं, क्योंकि उनसे भय करके हम
अपने को बचा तो सकते नहीं उनके पहले के दिनों के सुख को भी खो अलबत सकते
हैं।
सभ्यता वा शिष्टता के व्यवहार में घृणा उदासीनता के नाम से छिपाई जाती है।
दोनों में जो अंतर है वह प्रत्यक्ष है। जिस बात से हमें घृणा है हम चाहते
क्या आकुल रहते हैं कि वह बात न हो, पर जिस बात से हम उदासीन हैं उसके विषय
में हमें परवा नहीं रहती चाहे हो, चाहे न हो। यदि कोई काम किसी की रुचि के
विरुद्धा होता है तो वह कहता है ''उहँ! हमसे क्या मतलब जो चाहे सो हो''। वह
सरासर झूठ बोलता है, पर इतना झूठ समाज स्थिति के लिए आवश्यक है।
('नागरीप्रचारिणी पत्रिका', सितंबर 1912 ई.)
[चिन्तामणि, भाग-4]
भाव या
मनोविकार
अनुभूति
के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी
केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है। बच्चे के छोटे से हृदय में
पहले सुख और दु:ख की सामान्य अनुभूति भरने के लिए जगह होती है। पेट का भरा
या खाली रहना ही ऐसी अनुभूति के लिए पर्याप्त होता है। जीवन के आरंभ में
इन्हीं दोनों के चिद्द हँसना और रोना देखे जाते हैं पर ये अनुभूतियाँ
बिलकुल सामान्य रूप में रहती हैं, विशेष विशेष विषयों की ओर विशेष विशेष
रूपों में ज्ञानपूर्वक उन्मुख नहीं होतीं।
नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनमें संबंध रखनेवाली इच्छा की
अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या
मनोविकार कहलाते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि सुख और दु:ख की मूल अनुभूति ही
विषय भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा
इत्यादि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करती है। जैसे, यदि शरीर में कहीं सुई
चुभने की पीड़ा हो तो केवल सामान्य दु:ख होगा, पर यदि साथ ही यह ज्ञात हो
जाय कि सुई चुभानेवाला कोई व्यक्ति है तो उस दु:ख की भावना कई मनसिक और
शारीरिक वृत्तियों के साथ संश्लिष्ट होकर उस मनोविकार की योजना करेगी जिसे
क्रोध कहते हैं। जिस बच्चे को पहले अपने ही दु:ख का ज्ञान होता था, बढ़ने पर
असंलक्ष्यक्रम अनुमन द्वारा उसे और बालकों का कष्ट या रोना देखकर भी एक
विशेष प्रकार का दु:ख होने लगता है जिसे दया या करुणा कहते हैं। इसी प्रकार
जिसपर अपना वश न हो ऐसे कारण से पहुँचनेवाले भावी अनिष्ट के निश्चय से जो
दु:ख होता है वह भय कहलाता है। बहुत छोटे बच्चे को, जिसे यह निश्चयात्मिका
बुद्धि नहीं होती, भय कुछ भी नहीं होता। यहाँ तक कि उसे मारने के लिए हाथ
उठाएँ तो भी वह विचलित न होगा; क्योंकि वह निश्चय नहीं कर सकता कि इस हाथ
उठाने का परिणाम दु:ख होगा।
मनोविकारों या भावों की अनुभूतियाँ परस्पर तथा सुख या दु:ख की मूल अनुभूति
से ऐसी ही भिन्न होती हैं जैसे रासायनिक मिश्रण परस्पर तथा अपने संयोजक
द्रव्यों से भिन्न होते हैं। विषय बोध की विभिन्नता तथा उससे संबंध
रखनेवाली इच्छाओं की विभिन्नता के अनुसार मनोविकारों की अनेकरूपता का विकास
होता है। हानि या दु:ख के कारण में हानि या दु:ख पहुँचाने की चेतन वृत्ति
का पता पाने पर हमारा काम उस मूल अनूभूति से नहीं चल सकता जिसे दु:ख कहते
हैं, बल्कि उसके योग से संघटित क्रोध नामक जटिल भाव की आवश्यकता होती है।
जब हमारी इंद्रियाँ दूर से आती हुई क्लेशकारिणी बातों का पता देने लगती
हैं, जब हमारा अंत:करण हमें भावी आपदा का निश्चय कराने लगता है; तब हमारा
काम दु:ख मात्र से नहीं चल सकता बल्कि भागने या बचने की प्रेरणा करनेवाले
भय से चल सकता है। इसी प्रकार अच्छी लगनेवाली वस्तु या व्यक्ति के प्रति जो
सुखानुभूति होती है उसी तक प्रयत्नवान प्राणी नहीं रह सकता, बल्कि उसकी
प्राप्ति, रक्षा या संयोग की प्रेरणा करनेवाले लोभ या प्रेम के वशीभूत होता
है।
अपने मूल रूपों में सुख और दु:ख दोनों की अनुभूतियाँ कुछ बँधीहुई शारीरिक
क्रियाओं की ही प्रेरणा प्रवृत्ति के रूप में करती हैं। उनमें भावना, इच्छा
और प्रयत्न की अनेकरूपता का स्फुरण नहीं होता। विशुद्ध सुख की अनुभूति होने
पर हम बहुत करेंगे-दाँत निकालकर हँसेंगे, कूदेंगे या सुख पहुँचानेवाली
वस्तु से लगे रहेंगे, इसी प्रकार शुद्ध दु:ख में हम बहुत करेंगे-हाथ पैर
पटकेंगे, रोएँगे या दु:ख पहुँचानेवाली वस्तु से हटेंगे-पर हम चाहे कितना ही
उछल कूदकर हँसें, कितना ही हाथ पैर पटककर रोएँ, इस हँसने या रोने को
प्रयत्न नहीं कह सकते। ये सुख और दु:ख के अनिवार्य लक्षण मात्र हैं जो किसी
प्रकार की इच्छा का पता नहीं देते। इच्छा के बिना कोई शारीरिक क्रिया
प्रयत्न नहीं कहला सकती।
शरीर धर्म मात्र के प्रकाश से बहुत थोड़े भावों की निर्दिष्ट और पूर्ण
व्यंजना हो सकती है। उदाहरण के लिए कंप को लीजिए। कंप शीत की संवेदना से भी
हो सकता है, भय से भी, क्रोध से भी और प्रेम के वेग से भी। अत: जब तक
भागना, छिपना या मारना, झपटना इत्यादि प्रयत्नों के द्वारा इच्छा के स्वरूप
का पता न लगेगा तब तक भय या क्रोध की सत्ता पूर्णतया व्यक्त न होगी। सभ्य
जातियों के बीच इन प्रयत्नों का स्थान बहुत कुछ शब्दों ने लिया है। मुँह से
निकले हुए वचन ही अधिकतर भिन्न भिन्न प्रकार की इच्छाओं का पता देकर भावों
की व्यंजना किया करते हैं। इसी से साहित्य मीमांसकों ने अनुभाव के अंतर्गत
आश्रय की उक्तियों को विशेष स्थान दिया है।
क्रोधी चाहे किसी ओर झपटे या न झपटे, उसका यह कहना ही कि 'मैं उसे पीस
डालूँगा' क्रोध की व्यंजना के लिए काफी होता है। इसी प्रकार लोभी चाहे लपके
या न लपके, उसका कहना है कि 'कहीं वह वस्तु हमें मिल जाती' उसके लोभ का पता
देने के लिए बहुत है। वीर रस की जैसी अच्छी और परिष्कृत अनुभूति
उत्साहपूर्ण उक्तियों द्वारा होती है वैसी तत्परता के साथ हथियार चलाने और
रणक्षेत्र में उछलने कूदने के वर्णन में नहीं। बात यह है कि भावों द्वारा
प्रेरित प्रयत्न या व्यापार परिमित होते हैं। पर वाणी के प्रसार की कोई
सीमा नहीं। उक्तियों में जितनी नवीनता और अनेकरूपता आ सकती है या भावों का
जितना अधिक वेग व्यंजित हो सकता है उतना अनुभाव कहलानेवाले व्यापारों
द्वारा नहीं। क्रोध के वास्तविक व्यापार तोड़ना फोड़ना, मारना पीटना इत्यादि
ही हुआ करते हैं, पर क्रोध की उक्ति चाहे जहाँ तक बढ़ सकती है किसी को धूल
में मिला देना, चटनी कर डालना, किसी का घर खोदकर तालाब बना डालना, तो
मामूली बात है। यही बात सब भावों के संबंध में समझिए।
समस्त मनव जीवन के प्रवर्तक भाव या मनोविकार ही होते हैं। मनुष्य की
प्रवृत्तियों की तह में अनेक प्रकार के भाव ही प्रेरक के रूप में पाए जाते
हैं। शील या चरित्र का मूल भी भावों के विशेष प्रकार के संगठन में ही समझना
चाहिए। लोकरक्षा और लोकरंजन की सारी व्यवस्था का ढाँचा इन्हीं पर ठहराया
गया है। धर्म शासन, राज शासन, मत शासन-सब में इनसे पूरा काम लिया गया है।
इनका सदुपयोग भी हुआ है और दुरुपयोग भी। जिस प्रकार लोक कल्याण के व्यापक
उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनुष्य के मनोविकार काम में लाए गए हैं, उसी
प्रकार किसी संप्रदाय या संस्था के संकुचित और परिमित विधान की सफलता के
लिए भी।
सब प्रकार के शासन-चाहे धर्म शासन हो, चाहे राज शासन या संप्रदाय
शासन-मनुष्य जाति के भय और लोभ से पूरा काम लिया गया है। दंड का भय और
अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते
हुए धर्म शासन और मत शासन चलते आ रहे हैं। इनके द्वारा भय और लोभ का
प्रवर्तन उचित सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है। जिस प्रकार
शासकवर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थ सिद्धि के लिए इनसे काम लेते आए हैं, उसी
प्रकार धर्म प्रवर्तक और आचार्य आपके स्वरूप वैचित्रय की रक्षा और अपने
प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी। शासकवर्ग अपने अन्याय और अत्याचार के विरोध
की शांति के लिए भी डराते और ललचाते आए हैं। मत प्रवर्तक अपने द्वेष और
संकुचित विचारों के प्रचार के लिए भी जनता को कँपाते और लपकाते आए हैं। एक
जाति को मूर्ति पूजा करते देख दूसरी जाति के मत प्रवर्तक ने उसे गुनाहों
में दाखिल किया है। एक संप्रदाय को भस्म और रुद्राक्ष धारण करते देख दूसरे
संप्रदाय के प्रचारक ने उसके दर्शन तक में पाप लगाया है। भावक्षेत्र अत्यंत
पवित्र क्षेत्र है। उसे इस प्रकार गंदा करना लोक के प्रति भारी अपराध समझना
चाहिए।
शासन की पहुँच प्रवृत्ति और निवृत्ति की बाहरी व्यवस्था तक ही होती है।
उनके मूल या मर्म तक उनकी गति नहीं होती। भीतरी या सच्ची प्रवृत्ति
निवृत्ति को जागृत रखनेवाली शक्ति कविता है जो धर्म क्षेत्र में शक्ति
भावना को जगाती रहती है। भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है। अपने मंगल और
लोक के मंगल का संगम उसी के भीतर दिखाई पड़ता है। इस संगम के लिए प्रकृति के
क्षेत्र के बीच मनुष्य को अपने हृदय के प्रसार का अभ्यास करना चाहिए। जिस
प्रकार ज्ञान नरसत्ता के प्रसार के लिए है उसी प्रकार हृदय भी। रागात्मिका
वृत्ति के प्रसार के बिना विश्व के साथ जीवन का प्रकृत सामंजस्य घटित नहीं
हो सकता। जब मनुष्य के सुख और आनंद का मेल शेष प्रकृति के सुख सौंदर्य के
साथ हो जाएगा, जब उसकी रक्षा का भाव तृणगुल्म, वृक्षलता, पशु पक्षी, कीट
पतंग, सबकी रक्षा के भाव के साथ समन्वित हो जाएगा, तब उसके अवतार का
उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा और वह जगत् का सच्चा प्रतिनिधि हो जाएगा। काव्य
योग की साधना इसी भूमि पर पहुँचाने के लिए है। सच्चे कवियों की वाणी बराबर
पुकारती आ रही है-
विधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ
खेलत फिरत तिन्हें खेलन फिरन देव
-ठाकुर
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, फरवरी 1915 ई.)
[चिन्तामणि, भाग-1]
|