आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -3
निबन्ध साहित्य
सिद्धांत पक्ष
उत्साह
दु:ख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंदवर्ग में उत्साह का है।
भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दु:खी और कभी कभी
उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान् भी होते हैं। उत्साह में
हम आनेवाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत
कर्म-सुखकीउमंग से अवश्य प्रयत्नवान् होते हैं। उत्साह में कष्ट या हानि
सहने की दृढ़ता के साथ साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनंद का योग रहता है।
साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है। कर्म सौंदर्य के उपासक ही सच्चे
उत्साही कहलाते हैं।
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है
उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है। कष्ट या
हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने
इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किए हैं। इनमें सबसे
प्राचीन और प्रधान युद्ध वीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु तक की
परवा नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता
चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं।
पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित
नहीं होता। उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिए। बिना
बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं।
इसी प्रकार चुपचाप, बिना हाथ पैर हिलाए, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना
साहस और कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना धीरता कही जाएगी। ऐसे
साहस और धीरता को उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं जब कि साहसी या धीर उस
काम को आनंद के साथ करता चला जाए, जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते
हैं। सारांश यह कि आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा में ही उत्साह का
दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं। धाति और साहस
दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है।
दानवीर में अर्थ त्याग का साहस अर्थात् उसके कारण होनेवाले कष्ट या कठिनता
को सहने की क्षमता अंतर्हित रहती है। दानवीरता तभी कही जाएगी जब दान के
कारण दानी को अपने जीवन निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई
देगी। इसी कष्ट या कठिनता की मात्रा या संभावना जितनी ही अधिक होगी,
दानवीरता उतनी ही ऊँची समझी जाएगी। पर इस अर्थ त्याग के साहस के साथ ही जब
तक पूर्ण तत्परता और आनंद के चिद्द न दिखाई पड़ेंगे तब तक उत्साह का स्वरूप
न खड़ा होगा।
युद्ध के अतिरिक्त संसार में और भी ऐसे विकट काम होते हैं जिनमें घोर
शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और प्राण हानि तक की संभावना रहती है। अनुसंधान
के लिए तुषार मंडित अभ्रभेदी अगम्य पर्वतों की चढ़ाई, धारुव देश या सहारा के
रेगिस्तान का सफर, क्रूर, बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में
प्रवेश इत्यादि भी पूरी वीरता और पराक्रम के कर्म हैं। इनमें जिस आनंदपूर्ण
तत्परता के साथ लोग प्रवृत्त हुए हैं वह भी उत्साह ही है।
मनुष्य शारीरिक कष्ट से ही पीछे हटनेवाला प्राणी नहीं है। मनसिक क्लेश की
संभावना से भी बहुत से कर्मों की ओर प्रवृत्त होने का साहस उसे नहीं होता।
जिन बातों से समाज के बीच उपहास, निंदा, अपमन इत्यादि का भय रहता है,
उन्हें अच्छी और कल्याणकारिणी समझते हुए भी बहुत से लोग उनसे दूर रहते हैं।
प्रत्यक्ष हानि देखते हुए भी कुछ प्रथाओं का अनुसरण बड़े बड़े समझदार तक
इसलिए करते चलते हैं कि उनके त्याग से वे बुरे कहे जाएँगे, लोगों में उनका
वैसा आदर सम्मान न रह जाएगा। उसके लिए मन ग्लानि का कष्ट सब शारीरिक
क्लेशों से बढ़कर होता है। जो लोग मन अपमन का कुछ भी ध्याबन न करके, निंदा
स्तुति की कुछ भी परवा न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरुद्धा पूर्ण
तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करते जाते हैं वे एक ओर तो उत्साही और
वीर कहलाते हैं दूसरी ओर भारी बेहया।
किसी शुभ परिणाम पर दृष्टि रखकर निंदा स्तुति, मन अपमन आदि की कुछ, परवा न
करके प्रचलित प्रथाओं का उल्लंघन करनेवाले वीर या उत्साही कहलाते हैं, यह
देखकर बहुत से लोग केवल इस विरुद के लोभ में ही अपनी उछलकूद दिखाया करते
हैं। वे केवल उत्साही या साहसी कहे जाने के लिए ही चली आती हुई प्रथाओं को
तोड़ने की धुम मचाया करते हैं। शुभ या अशुभ परिणाम से उनसे कोई मतलब नहीं,
उनकी ओर उनका ध्या न लेशमात्र नहीं रहता। जिस पक्ष के बीच की सुख्याति का
वे अधिक महत्तव समझते हैं उसकी वाहवाही से उत्पन्न आनंद की चाह में वे
दूसरे पक्ष के बीच की निंदा या अपमन की कुछ परवा नहीं करते। ऐसे ओछे लोगों
के साहस या उत्साह की अपेक्षा उन लोगों का उत्साह या साहस भाव की दृष्टि से
कहीं अधिक मूल्यवान है जो किसी प्राचीन प्रथा की चाहे वह वास्तव में
हानिकारिणी ही हो-उपयोगिता का सच्चा विश्वास रखते हुए प्रथा तोड़नेवालों की
निंदा, उपहास, अपमन आदि सहा करते हैं।
समाज सुधार के वर्तमन आंदोलनों के बीच जिस प्रकार सच्ची अनुभूति से प्रेरित
उच्चाशय और गंभीर पुरुष पाए जाते हैं, उसी प्रकार कुछ मनोवृत्तियों द्वारा
प्रेरित साहसी और दयावान् भी बहुत मिलते हैं। मैंने कई छिछोरों और लंपटों
को विधवाओं की दशा पर दया दिखाते हुए उनके पापाचार के लंबे चौड़े दास्तान हर
दम सुनते सुनाते पाया है। ऐसे लोग वास्तव में काम कथा के रूप में ऐसे
वृत्तांतों का तन्मयता के साथ कथन और श्रवण करते हैं। इस ढाँचे के लोगों से
सुधार के कार्य में कुछ सहायता पहुँचाने के स्थान पर बाधा पहुँचाने की ही
संभावना रहती है। 'सुधार' के नाम पर साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे लोग
गंदगी फैलाते पाए जातेहैं।
उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है। किसी भाव के अच्छे या बुरे होने
का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता
है। वही उत्साह जो कर्तव्या कर्मों के प्रति इतना सुंदर दिखाई पड़ता है,
अकर्तव्या कर्मों की ओर होने पर वैसा श्लाघ्य नहीं प्रतीत होता। आत्मरक्षा,
पररक्षा, देशरक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग दिखाई देती है उसके
सौंदर्य को परपीड़न, डकैती आदि कर्मों का साहस कभी नहीं पहुँच सकता। यह बात
होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस की प्रशंसा संसार में थोड़ी बहुत होती
ही है। अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य और साहस की कथाएँ भी लोग तारीफ
करते हुए सुनते हैं।
अब तक उत्साह का प्रधान रूप ही हमारे सामने रहा, जिसमें साहस का पूरा योग
रहता है। पर कर्ममात्र के संपादन में जो तत्परतापूर्ण आनंद देखा जाता है वह
उत्साह ही कहा जाता है। सब कार्यों में साहस उपेक्षित नहीं होता, पर थोड़ा
बहुत आराम विश्राम, सुबीते आदि का त्याग सबको करना पड़ता है, और कुछ नहीं तो
उठकर बैठना, खड़ा होना या दस पाँच कदम चलना ही पड़ता है। जब तक आनंद का लगाव
किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे
'उत्साह' की संज्ञा प्राप्त नहीं होती। यदि किसी प्रिय मित्र के आने का
समाचार पाकर हम चुपचाप ज्यों के ज्यों आनंदित होकर बैठे रह जाएँ या थोड़ा
हँस भी दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जाएगा। हमारा उत्साह तभी कहा जाएगा
जब हम अपने मित्र का आगमन सुनते ही उठ खड़े होंगे। उससे मिलने के लिए दौड़
पड़ेंगे और उसके ठहरने आदि के प्रबंध में प्रसन्न मुख इधर उधर आते जाते
दिखाई देंगे। प्रयत्न और कर्म संकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं।
प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है। कुछ कर्मों में
तो बुद्धि की तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ साथ चलती है।
उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ पैर चलवाती है, उसी प्रकार बुद्धि से भी काम
कराती है। ऐसे उत्साहवाले वीर को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर-यह
प्रश्न मुद्राराक्षस नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है। चाणक्य और
राक्षस के बीच जो चोटें चली हैं वे नीति की हैं-शस्त्र की नहीं। अत: विचार
करने की बात यह है कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि व्यापार के अवसर पर होती
है अथवा बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा में। हमारे
देखने में तो उद्योग की तत्परता में ही उत्साह की अभिव्यक्ति होती है; अत:
कर्मवीर ही कहना ठीक है।
बुद्धि वीर के दृष्टांत कभी कभी हमारे पुराने ढंग के शास्त्रार्थों में
देखने को मिल जाते हैं। जिस समय किसी भारी शास्त्रार्थी पंडित से भिड़ने के
लिए कोई विद्यार्थी आनंद के साथ सभा में आगे आता है, उस समय उसके बुद्धि
साहस की प्रशंसा अवश्य होती है। वह जीते या हारे, बुद्धि वीर समझा ही जाता
है। इस जमाने में वीरता का प्रसंग उठाकर वाग्वीर का उल्लेख यदि न हो तो बात
अधूरी ही समझी जाएगी। ये वाग्वीर आजकल बड़ी बड़ी सभाओं के मंचों पर से लेकर
स्त्रियों के उठाए हुए पारिवारिक प्रपंचों तक में पाए जाते हैं और काफी
तादाद में।
थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि उत्साह में ध्या न किस पर रहता है। कर्म पर,
उसके फल पर अथवा व्यक्ति या वस्तु पर? हमारे विचार में उत्साही वीर का ध्या
न आदि से अंत तक पूरी कर्म ऋंखला पर से होता हुआ उसकी सफलतारूपी समाप्ति तक
फैला रहता है। इसी ध्यादन से जो आनंद की तरंगें उठती हैं वे ही सारे
प्रयत्न को आनंदमय कर देती हैं। युद्ध वीर में विजेतव्य को आलंबन कहा गया
है। उसका अभिप्राय यही है कि विजेतव्य कर्मप्रेरक के रूप में वीर के ध्याकन
में स्थिर रहता है, वह कर्मस्वरूप का भी निर्धारण करता है। पर आनंद और साहस
के मिश्रित भाव का सीधा लगाव उसके साथ नहीं रहता। सच पूछिए तो वीर के
उत्साह का विषय विजय विधायक कर्म या युद्ध ही रहता है। दानवीर और धर्मवीर
पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। दान दयावश, श्रद्धावश या
कीर्ति लोभवश दिया जाता है। यदि श्रद्धावश दान दिया जा रहा है तो दानपात्र
वास्तव में श्रद्धा का और यदि दयावश दिया जा रहा है तो पीड़ित यथार्थ में
दया का विषय या आलंबन ठहरता है। अत: उस श्रद्धा या दया की प्रेरणा से जिस
कठिन या दुस्साधय कर्मकी प्रवृत्ति होती है उसी की ओर उत्साही का साहसपूर्ण
आनंद उन्मुख कहा जा सकताहै। अत: और रसों में आलंबन का स्वरूप जैसा
निर्दिष्ट रहता है वैसा वीररस में नहीं। बात यह है कि उत्साह एक यौगिक भाव
है जिसमें साहस और आनंद का मेल रहताहै।
जिस व्यक्ति या वस्तु पर प्रभाव डालने के लिए वीरता दिखाई जाती है उसकी ओर
उन्मुख कर्म होता है और कर्म की ओर उन्मुख उत्साह नामक भाव होता है। सारांश
यह है कि किसी व्यक्ति या वस्तु के साथ उत्साह का सीधा लगाव नहीं होता।
समुद्र लाँघने के लिए जिस उत्साह के साथ हनुमन उठे हैं उसका कारण समुद्र
नहीं लाँघने का विकट कर्म है। कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु
या व्यक्ति की भावना नहीं।
किसी कर्म के संबंध में जहाँ आनंदपूर्ण तत्परता दिखाई पड़ी कि हम उसे उत्साह
कह देते हैं। कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूपों
में दिखाई पड़ता है-
1. कर्म भावना से उत्पन्न,
2. फल भावना से उत्पन्न; और
3. आगंतुक, अर्थात् विषयांतर से प्राप्त।
इसमें कर्म भावना प्रसूत आनंद को ही सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए,
जिसमें साहस का योग प्राय: बहुत अधिक रहा करता है। सच्चा वीर जिस समय मैदान
में उतरता है उसी समय उसमें उतना आनंद भरा रहता है जितना औरों को विजय या
सफलता प्राप्त करने पर होता है। उसके सामने कर्म और फल के बीच या तो कोई
अंतर होता ही नहीं या बहुत सिमटा हुआ होता है। इसी से कर्म की ओर वह उसी
झोंक से लपकता है जिस झोंक से साधारण लोग फल की ओर लपका करते हैं। इसी
कर्मप्रवर्तक आनंद की मात्रा के हिसाब से शौर्य और साहस का स्फुरण होता है।
फल की भावना से उत्पन्न आनंद भी साधक कर्मों की ओर हर्ष और तत्परता के साथ
प्रवृत्त करता है। पर फल का लोभ जहाँ प्रधान रहता है वहाँ कर्म विषयक आनंद
उसी फल की भावना की तीव्रता और मंदता पर अवलंबित रहता है। उद्योग के प्रभाव
के बीच जब जब फल की भावना मंद पड़ती है-उसकी आशा कुछ धुधंली पड़ जाती है, तब
तब आनंद की उमंग गिर जाती है और उसी के साथ उद्योग में भी शिथिलता आ जाती
है। पर कर्म भावना प्रधान उत्साह बराबर एकरस रहता है। फलासक्त उत्साही असफल
होने पर खिन्न और दु:खी होता है, पर कर्मासक्त उत्साही केवल कर्मानुष्ठान
के पूर्व की अवस्था में हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि कर्म भावना
प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है। फल भावना प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक
प्रच्छन्न रूप है।
उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिली जुली अनुभूति है जिसकी प्रेरणा से
तत्परता आती है। यदि फल दूर ही पर दिखाई पड़े, उसकी भावना के साथ ही उसका
लेशमात्र भी कर्म या प्रयत्न के साथ लगाव न मालूम हो तो हमारे हाथ पाँव कभी
न उठें और उस फल के साथ हमारा संयोग ही न हो। इससे कर्म ऋंखला की पहली कड़ी
पकड़ते ही फल के आनंद की भी कुछ अनुभूति होने लगती है। यदि हमें यह निश्चय
हो जाए की अमुक स्थान पर जाने से हमें किसी प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो
उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी अत्यंत प्रिय हो जाएगी। हम चल
पड़ेंगे और हमारे अंगों की प्रत्येक गति में प्रफुल्लता दिखाई देगी। यही
प्रफुल्लता कठिन से कठिन कर्मों के साधन में भी देखी जाती है। वे कर्म भी
प्रिय हो जाते हैं और अच्छे लगने लगते हैं। जब तक फल तक पहुँचनेवाला कर्म
पथ अच्छा न लगेगा तब तक केवल फल का अच्छा लगना कुछ नहीं। फल की इच्छा मात्र
हृदय में रखकर जो प्रयत्न किया जाएगा वह अभावमय और आनंदशून्य होने के कारण
निर्जीव सा होगा।
कर्मरुचिशून्य प्रयत्न में कभी कभी इतनी उतावली और आकुलता होती है कि
मनुष्य साधना के उत्तारोत्तार क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही
में चूक जाता है। मन लीजिए कि एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर विचरते हुए किसी
व्यक्ति को नीचे बहुत दूर तक गई हुई सीढ़ियाँ दिखाई दीं और यह मालूम हुआ कि
नीचे उतरने पर सोने का ढेर मिलेगा। यदि उसमें इतनी सजीवता है कि उक्त सूचना
के साथ ही वह उस स्वर्णराशि के साथ एक प्रकार के मनसिक संयोग का अनुभव करने
लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ल और अंग सचेष्ट हो गए, उसे एक एक सीढ़ी
स्वर्णमयी दिखाई देगी, एक एक सीढ़ी उतरने में उसे आनंद मिलता जाएगा, एक एक
क्षण उसे सुख से बीतता हुआ जान पड़ेगा और वह प्रसन्नता के साथ स्वर्णराशितक
पहुँचेगा। इस प्रकार उसके प्रयत्नकाल को भी फलप्राप्ति काल के अंतर्गतही
समझना चाहिए। इसके विरुद्धा यदि उसका हृदय दुर्बल होगा और उसमें इच्छामात्र
ही उत्पन्न होकर रह जाएगी; तो अभाव के बोध के कारण उसके चित्त में यही होगा
कि कैसे झट से नीचे पहुँच जाएँ। उसे एक एक सीढ़ी उतरना बुरा मालूम होगा और
आश्चर्य नहीं कि वह या तो हारकर बैठ जाए या लड़खड़ाकर मुँह के बल गिर पड़े।
फल की विशेष आसक्ति से कर्म के लाघव की वासना उत्पन्न होती है; चित्त में
यही आता है कि कर्म बहुत कम या बहुत सरल करना पड़े और फल बहुत सा मिल जाए।
श्रीकृष्ण ने कर्म मार्ग से फलासक्ति की प्रबलता हटाने का बहुत ही स्पष्ट
उपदेश दिया; पर उनके समझाने पर भी भारतवासी इस वासना से ग्रस्त होकर कर्म
से तो उदास हो बैठे और फल के इतने पीछे पड़े कि गरमी में ब्राह्मण को एक
पेठा देकर पुत्रा की आशा करने लगे; चार आने रोज का अनुष्ठान कराके व्यापार
में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति, धान धन्य की वृद्धि तथा और भी न
जाने क्या क्या चाहने लगे। आसक्ति प्रस्तुत या उपस्थित वस्तु में ही ठीक
कही जा सकती है। कर्म सामने उपस्थित रहता है। इससे आसक्ति उसी में चाहिए।
फल दूर रहता है, इससे उसकी ओर कर्म का लक्ष्य काफी है। जिस आनंद से कर्म की
उत्तेलजना होती है और जो आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का
नाम उत्साह है।
कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न भी
पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करनेवाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में
अच्छी रहेगी; क्योंकि एक तो कर्म काल में उसका जो जीवन बीता वह संतोष या
आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि
मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल पहले से कोई बना बनाया पदार्थ नहीं होता।
अनुकूल प्रयत्न कर्म के अनुसार, उसके एक एक अंग की योजना होती है। बुद्धि
द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है।
किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है। वह वैद्यों के यहाँ से जब तक
औषधि ला लाकर रोगी को देता जाता है और इधर उधर दौड़धूप करता जाता है तब तक
उसके चित्त में जो संतोष रहता है-प्रत्येक नए उपचार के साथ जो आनंद का
उन्मेष होता रहता है-यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा
रहता। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह
में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दु:ख में बँटता।
इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस
कठोर दु:ख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच सोचकर होता कि मैंने पूरा
प्रयत्न नहीं किया।
कर्म में आनंद अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के
उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्तव्या को
वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए
चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है, वही लोकोपकारी कर्मवीर का सच्चा
सुख है। उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न
हो जाए; बल्कि उसी समय से थोड़ा थोड़ा करके मिलने लगता है, जब से वह कर्म की
ओर हाथ बढ़ाता है।
कभी कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनंद के कारण एक ऐसी
स्फूर्ति होती है जो बहुत से कार्यों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर करती है।
इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किए
जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी
भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े
हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को भी लोग उत्साह
ही कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुख प्राप्ति की आशा या निश्चय
से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के
साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग
में लगे हैं जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की आशा है तो हम उस
उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्राय: अपना
उत्साह दिखा देते हैं।
यह बात उत्साह में नहीं, अन्य मनोविकारों में बराबर पाई जाती है। यदि हम
किसी बात पर क्रुद्धा बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात
सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उसपर झुँझला उठते हैं। इस झुँझलाहट का न तो
कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति व्याघात
को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झुंझलाहट द्वारा
हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में हैं और क्रोध ही में रहना चाहते हैं।
क्रोध को बनाए रखने के लिए हम उन बातों से भी क्रोध ही संचित करते हैं
जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते। इसी प्रकार यदि हमारा
चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम अन्य विषयों में भी अपना
उत्साह दिखा देते हैं। यदि हमारा मन बढ़ा हुआ रहता है तो हम बहुत से काम
प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसी बात का विचार करके
सलाम साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने के पहले अर्दलियों से उनका मिजाज
पूछ लिया करते हैं।
[चिन्तामणि, भाग-1]
श्रद्धाभक्ति
किसी मनुष्य में जनसाधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख उसके संबंध
में जो एक स्थायी आनंदपद्धाति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा
कहते हैं। श्रद्धा महत्तव की आनंदपूर्ण स्वीकृति के साथ साथ पूज्य बुद्धि
का संचार है। यदि हमें निश्चय हो जाएगा कि कोई मनुष्य बड़ा वीर, बड़ा सज्जन,
बड़ा गुणी, बड़ा दानी, बड़ा विद्वान्, बड़ा परोपकारी वा बड़ा धार्मात्मा है तो
वह हमारे आनंद का एक विषय हो जाएगा। हम उसका नाम आने पर प्रशंसा करने
लगेंगे, उसे सामने देख आदर से सिर नवाएँगे; किसी प्रकार का स्वार्थ न रहने
पर भी हम सदा उसका भला चाहेंगे, उसकी बढ़ती से प्रसन्न होंगे और अपनी पोषित
आनंदपद्धाति में व्याघात पहुँचने के कारण उसकी निंदा न सह सकेंगे। इससे
सिद्ध होता है कि जिन कर्मों के प्रति श्रद्धा होती है उनका होना संसार को
वांछित है। यही विश्वकामना श्रद्धा की प्रेरणा का मूल है।
प्रेम और श्रद्धा में अंतर यह है कि प्रेम स्वाधीन कार्यों पर उतना निर्भर
नहीं-कभी कभी किसी का रूप मात्र, जिसमें उसका कुछ भी हाथ नहीं उसके प्रति
प्रेम उत्पन्न होने का कारण होता है, पर श्रद्धा ऐसी नहीं है। किसी की
सुंदर ऑंख या नाक देखकर उसके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होगी, प्रीति
उत्पन्न हो सकती है। प्रेम के लिए इतना ही बस है कि कोई मनुष्य हमें अच्छा
लगे, पर श्रद्धा के लिए आवश्यक यह है कि मनुष्य किसी बात में बढ़ा हुआ होने
के कारण हमारे सम्मान का पात्र हो। श्रद्धा का व्यापार स्थल विस्तृत है,
प्रेम का एकांत। प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार। किसी
मनुष्य से प्रेम रखनेवाले दो ही एक मिलेंगे, पर उसपर श्रद्धा रखनेवाले
सैकड़ों, हजारों, लाखों क्या करोड़ों मिल सकते हैं। सच पूछिए तो इसी श्रद्धा
के आश्रय से उन कर्मों के महत्तव का भाव दृढ़ होता है जिन्हें धर्म कहते हैं
और जिनमें मनुष्य समाज की स्थिति है। कर्तव्यर से बढ़कर कर्म का स्मारक
दूसरा नहीं। कर्म की क्षमता प्राप्त करने के लिए बार बार कर्तव्यग ही की ओर
ऑंख उठती है। कर्मों से कर्तव्ये की स्थिति को जो मनोहरता प्राप्त हो जाती
है उसपर मुग्ध होकर बहुत से प्राणी उन कर्मों की ओर प्रेरित होते है।
कर्तव्ये अपने सत्कर्म द्वारा एक विस्तृत क्षेत्र में मनुष्य की
सद्वृत्तियों के आकर्षण का एक शक्ति केंद्र हो जाता है। जिस समाज में किसी
ज्योतिष्मान शक्ति केंद्र का उदय होता है उस समाज में भिन्न भिन्न हृदयों
से शुभ भावनाएँ मेघखंडों के समन उठकर तथा एक ओर और एक साथ अग्रसर होने के
कारण परस्पर मिलकर, इतनी घनी हो जाती हैं कि उनकी घटा सी उमड़ पड़ती है और
मंगल की ऐसी वर्षा होती है कि सारे दु:ख और क्लेश बह जाते हैं।
हमारे अंत:करण में प्रिय के आदर्श रूप का संघटन उसके शरीर या व्यक्ति मात्र
के आश्रय से हो सकता है, पर श्रद्धेय के आदर्श रूप का संघटन उसके फैलाए हुए
कर्म तंतु के उपादान से होता है। प्रिय का चिंतन हम ऑंख मूँदे हुए, संसार
को भुलाकर करते हैं, पर श्रद्धेय का चिंतन हम ऑंख खोले हुए, संसार का कुछ
अंश सामने रखकर करते हैं। यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है। प्रेमी
प्रिय को अपने लिए और अपने को प्रिय के लिए संसार से अलग करना चाहता है।
प्रेम में केवल दो पक्ष होते हैं, श्रद्धा में तीन। प्रेम में कोई
मध्यरस्थ् नहीं, पर श्रद्धा में मध्यकस्थ अपेक्षित है। प्रेमी और प्रिय के
बीच कोई और वस्तु अनिवार्य नहीं, पर श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच कोई
वस्तु चाहिए। इस बात का स्मरण रखने से यह पहचानना उतना कठिन न रह जाएगा कि
किसी के प्रति किसी का कोई आनंदांतर्गत भाव प्रेम है या श्रद्धा। यदि किसी
कवि का काव्य बहुत अच्छा लगा, किसी चित्रकार का बनाया चित्र बहुत सुंदर
जँचा और हमारे चित्त में उस कवि या चित्रकार के प्रति एक सुहृद्भाव उत्पन्न
हुआ तो वह श्रद्धा है; क्योंकि यह काव्य या चित्ररूप मध्य स्थ द्वारा
प्राप्त हुआ है।
प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है; पर श्रद्धा का कारण
निर्दिष्ट और ज्ञात होता है। कभी कभी केवल एक साथ रहते रहते दो प्राणियों
में यह भाव उत्पन्न हो जाता है कि वे बराबर साथ रहें; उनका साथ कभी न छूटे।
प्रेमी प्रिय के संपूर्ण जीवनक्रम के सतत साक्षात्कार का अभिलाषी होता है।
वह उसका उठना, बैठना, चलना फिरना, सोना, खाना पीना सब कुछ देखना चाहता है।
संसार में बहुत से लोग उठते बैठते, चलते फिरते हैं, पर सबका उठना बैठना,
चलना फिरना उसको वैसा अच्छा नहीं लगता। प्रेमी प्रिय के जीवन को अपने जीवन
से मिलाकर एक निराला मिश्रण तैयार करना चाहता है। वह दो से एक करना चाहता
है। सारांश यह है कि श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों पर से होती हुई
श्रद्धेय तक पहुँचती है और प्रीति में प्रिय पर से होती हुई उसके कर्मों
आदि पर आ जाती है। एक में व्यक्ति को कर्मों द्वारा मनोहरता प्राप्त होती
है, दूसरी में कर्मों को व्यक्ति द्वारा। एक में कर्म प्रधान है, दूसरी में
व्यक्ति।
किसी के रूप को स्वयं देखकर हम तुरंत मोहित होकर उससे प्रेम कर सकते हैं,
पर उसके रूप की प्रशंसा किसी दूसरे से सुनकर चट हमारा प्रेम नहीं उमड़
पड़ेगा। कुछ काल तक हमारा भाव लोभ के रूप में रहेगा, पीछे वह प्रेम में
परिणत हो सकता है। बात यह है कि प्रेम एकमात्र अपने ही अनुभव पर निर्भर
रहता है; पर श्रद्धा अपनी सामाजिक विशेषता के कारण दूसरों के अनुभव पर भी
जगती है। रूप की भावना का बहुत कुछ संबंध व्यक्तिगत रुचि से होता है। अत:
किसी के रूप और हमारे बीच यदि तीसरा व्यक्ति आया तो इस व्यापार में
सामाजिकता आ गई; क्योंकि हमें उस समय यह ध्या न हुआ कि उस रूप से एक तीसरे
व्यक्ति को आनंद या सुख मिला और हमें भी मिल सकता है। जब तक हम किसी के रूप
का बखान सुनकर 'वाह वाह' करते जाएँगे तब तक हम एक प्रकार के लोभी अथवा
रीझनेवाले या कद्रदान ही कहलाएँगे, पर जब हम उसके दर्शन के लिए आकुल होंगे,
उसे बराबर अपने सामने ही रखना चाहेंगे, तब प्रेम का सूत्रपात समझा जाएगा।
श्रद्धाभाजन पर श्रद्धावान अपना किसी प्रकार का अधिकार नहीं चाहता, पर
प्रेमी प्रिय के हृदय पर अपना अधिकार चाहता है।
श्रद्धा एक सामाजिक भाव है, इससे अपनी श्रद्धा के बदले में हम श्रद्धेय से
अपने लिए कोई बात नहीं चाहते। श्रद्धा धारण करते हुए हम अपने को उस समाज
में समझते हैं जिसके किसी अंश पर-चाहे हम व्यष्टि रूप में उनके अंतर्गत न
भी हों-जानबूझकर उसने कोई शुभ प्रभाव डाला। श्रद्धा स्वयं ऐसे कर्मों के
प्रतिकार में होती है जिसका शुभ प्रभाव अकेले हम पर नहीं बल्कि सारे मनुष्य
समाज पर पड़ सकता है। श्रद्धा एक ऐसी आनंदपूर्ण कृतज्ञता है जिसे हम केवल
समाज के प्रतिनिधि रूप में प्रकट करते हैं। सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार
पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए समाज ने प्रत्येक व्यक्ति को
प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है। यह काम उसने इतना भारी समझा है कि उसका भार
सारे मनुष्यों को बाँट दिया है, दो चार मननीय लोगों के ही सिर पर नहीं छोड़
रखा है। जिस समाज में सदाचार श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध प्रकट करने के
लिए जितने ही अधिक लोग तत्पर पाए जाएँगे उतना ही वह समाज जागृत समझा जाएगा।
श्रद्धा की सामाजिक विशेषता एक इसी बात से समझ लीजिए कि जिस पर हम श्रद्धा
रखते हैं उसपर चाहते हैं कि और लोग भी श्रद्धा रखें-जिस पर हमारा प्रेम
होता है उससे और दस पाँच आदमी प्रेम रखें-इसकी हमें परवा क्या, इच्छा ही
नहीं होती; क्योंकि हम प्रिय पर लोभवश एक प्रकार का अनन्य अधिकार या इजारा
चाहते हैं। श्रद्धालु अपने भाव में संसार को भी सम्मिलित करना चाहता है, पर
प्रेमी नहीं।
जब तक समष्टि रूप में हमें संसार के लक्ष्य का बोध नहीं होता और हमारे
अंत:करण में सामान्य आदर्शों की स्थापना नहीं होती तब तक हमें श्रद्धा का
अनुभव नहीं होता। बच्चों में कृतज्ञता का भाव पाया जाता है पर सदाचार के
प्रति उस कृतज्ञता का नहीं, जिसे श्रद्धा कहते हैं। अपने साथ किए जानेवाले
जिस व्यवहार के लिए वे कृतज्ञ होते हैं उसी को दूसरों के साथ होते देख
कर्तव्या के प्रति कृतज्ञ होना वे देर में सीखते हैं-उस समय सीखते हैं जब
वे अपने को किसी समुदाय का अंग समझने लगते हैं। अपने साथ या किसी विशेष
मनुष्य के साथ किए जानेवाले व्यवहार के लिए जो कृतज्ञता होती है वह श्रद्धा
नहीं है। श्रद्धालु की दृष्टि सामान्य की ओर होनी चाहिए, विशेष की ओर नहीं।
अपने संबंधी के प्रति किसी को कोई उपकार करते देख यदि हम कहें कि उसपर
हमारी श्रद्धा हो गई है तो यह हमारा पाखंड है, हम झूठ मूठ अपने को ऐसे उच्च
भाव का धारणकर्तव्यं प्रकट करते हैं। पर उसी सज्जन को दस पाँच और ऐसे
आदमियों के साथ जब हम उपकार करते देखें जिन्हें हम जानते तक नहीं और इस
प्रकार हमारी दृष्टि विशेष से सामान्य की ओर हो जाए, तब यदि हमारे चित्त
में उसके प्रति पहले से कहीं अधिक कृतज्ञता या पूज्य बुद्धि का उदय हो तो
हम श्रद्धालु की उच्च पदवी के अधिकारी हो सकते हैं। सामान्य रूप में हम
किसी के गुण या शक्ति का विचार सारे संसार से संबद्धा करके करते हैं, अपने
से या किसी विशेष प्राणी से संबद्धा करके नहीं। हम देखते हैं कि किसी
मनुष्य में कोई गुण या शक्ति है जिसका प्रयोग वह चाहे जहाँ और जिसके प्रति
कर सकता है।
श्रद्धा का मूल तत्व है दूसरे का महत्तव स्वीकारना। अत: जिनकी स्वार्थबद्धा
दृष्टि अपने से आगे नहीं जा सकती अथवा अभिमन के कारण जिन्हें अपनी ही बड़ाई
के अनुभव की लत लग गई है उनकी इतनी समायी नहीं कि वे श्रद्धा ऐसे पवित्र
भाव को धारण करें। स्वार्थियों और अभिमानियों के हृदय में श्रद्धा नहीं टिक
सकती। उनका अंत:करण इतना संकुचित और मलिन होता है कि वे दूसरों की कृति का
यथार्थ मूल्य नहीं परख सकते।
स्थूल रूप से श्रद्धा तीन प्रकार की कही जा सकती है-
1. प्रतिभा संबंधिनी
2. शील संबंधिनी, और
3. साधन संपत्ति संबंधिनी।
प्रतिभा से मेरा अभिप्राय अंत:करण की उस उद्भाविका क्रिया से है जिसके
द्वारा कला, विज्ञान आदि नाना क्षेत्रों में नई नई बातें या कृतियाँ
उपस्थित की जाती हैं। यह ग्रहण और धारणा शक्ति से भिन्न है, जिसके द्वारा
इधर उधर से प्राप्त ज्ञान (विद्वता) संचित किया जाता है। कला संबंधिनी
श्रद्धा के लिए श्रद्धालु में भी थोड़ी बहुत मार्मिक निपुणता चाहिए, इससे
उसका अभाव कोई भारी त्रुटि नहीं, वह क्षम्य है। यदि किसी उत्तम काव्य या
चित्र की विशेषता न समझने के कारण हम कवि या चित्रकार पर श्रद्धा न कर सकें
तो यह हमारा अनाड़ीपन है-हमारे रुचि संस्कार की त्रुटि है। इसका उपाय यही है
कि समाज कला संबंधिनी मर्मज्ञता के प्रचार की व्यवस्था करे, जिससे विविधा
कलाओं के सामान्य आदर्श की स्थापना जनसमूह में हो जाए। पर इतना होने पर भी
कला संबंधिनी रुचि की विभिन्नता थोड़ी बहुत अवश्य रहेगी। अश्रद्धालु रुचि का
नाम लेकर ईर्ष्याा या अहंकार के दोषारोपण से बच जाया करेंगे।
पर शील संबंधिनी श्रद्धा प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य् है। शील या धर्म के
सामान्य लक्षण संसार के प्रत्येक सभ्य जन समुदाय में प्रतिष्ठित हैं। धर्म
ही से मनुष्य-समाज की स्थिति है, अत: उसके संबंध में किसी प्रकार का
रुचिभेद, मतभेद आदि नहीं। सदाचार के प्रति यदि हम श्रद्धा नहीं रखते तो
समाज के प्रति अपने कर्तव्यर का पालन नहीं करते। यदि किसी को दूसरों के
कल्याण के लिए भारी स्वार्थ त्याग करते देख हमारे मुँह से 'धन्य' भी न
निकला तो हम समाज के किसी काम के न ठहरे, समाज को हमसे कोई आशा नहीं, हम
समाज में रहने योग्य नहीं। किसी कर्म में प्रवृत्त होने से पहले यह स्वीकार
करना आवश्यक होता है कि वह कर्म या तो हमारे लिए या समाज के लिए अच्छा है।
इस प्रकार की स्वीकृति कर्म की पहली तैयारी है। श्रद्धा द्वारा हम यह
आनंदपूर्वक स्वीकार करते हैं कि कर्म के अमुक अमुक दृष्टांत धर्म के हैं,
अत: श्रद्धा धर्म की पहली सीढ़ी है। धर्म के इस प्रथम सोपान पर प्रत्येक
मनुष्य को रहना चाहिए, जिसमें जब कभी अवसर आए तब वह कर्मरूपी दूसरे सोपान
पर हो जाए।
अब रह गई साधन संपत्ति संबंधिनी श्रद्धा की बात। यहाँ पर साधन संपन्नता का
ठीक ठीक भाव समझ लेना आवश्यक है। साधन संपत्ति का अनुपयोग भी हो सकता है,
सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी हो सकता है। किसी को पद्य रचने की
अच्छी अभ्यास संपन्नता है। यदि शिक्षा द्वारा उसके भाव उन्नत हैं, वह सहृदय
है तो वह अपनी इस संपन्नता का उपयोग मनोहर उच्चभावपूर्ण काव्य प्रस्तुत
करने में कर सकता है; यदि उसकी अवस्था ऐसी नहीं है तो वह या तो साधारण, भाव
शून्य गद्य को गीतिका, शिखरिणी आदि नाना छंदों में परिणत करेगा या अपनी
भद्दी और कुरुचिपूर्ण भावनाओं को छंदोबद्धा करेगा। उसके इस कृत्य पर
श्रद्धा रखनेवाले भी बहुत मिल जाएँगे। ऐसे व्यक्ति के प्रति जो श्रद्धा
होती है वह साधन संपन्नता पर ही होती है, साध्ये की पूर्णता पर नहीं।
देशी कारीगरी, चित्रकारी, संगीत आदि में नियम पालन के अभ्यास द्वारा
प्राप्त इस साधन संपन्नता पर ही इधर बहुत दिनों से अधिक ध्याकन दिया जाने
लगा था और मनव हृदय पर इन मनोहारिणी कलाओं के प्रभाव का बहुत कम विचार होने
लगा था। बहुत से पुराने मकानों की कारीगरी देखिए तो उनमें बहुत सा काम
गिचपिच किया हुआ दिखाई देगा, ऐसे महीन बेलबूटों की भिन्न भिन्न पटरियाँ
दीवारों में जमाई हुई मिलेंगी जो बिना ऑंख को पास ले जाकर सटाए स्पष्ट न
जान पड़ेंगे। सारे मकान को एक बार में देखने से इन सबों का सम्मिलित प्रभाव
दृष्टि और मन पर क्या पड़ेगा, इसका कुछ भी विचार बनानेवालों ने नहीं किया,
यह स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। ऐसे कामों में अभ्यास का तथा समय और श्रम के व्यय
(या अपव्यय) का पूरा परिचय मिलता है, पर विचार और सहृदयतापूर्वक उनके उपयोग
का बहुत कम। समझने की बात है कि इमारत हाथ पर लेकर देखने की चीज नहीं है,
दस पाँच हाथ दूर पर खड़े होकर देखने की चीज है।
चित्रकारी की दशा भी इसी प्रकार की हो गई थी। राधा कृष्ण कदंब के नीचे खड़े
हैं। कदंब की एक एक पत्तीू अलग अलग बारीकी के साथ बनी दिखाई पड़ती है। राधा
की चुनरी की एक एक बूटी बड़ी सावधानी और मेहनत के साथ बनाई गई है। देखनेवाले
को यह नहीं जान पड़ता कि वह कुछ दूर पर खड़ा होकर कदंब और राधा कृष्ण को एक
साथ देख रहा है, बल्कि यह जान पड़ता है कि कभी तो पत्तियाँ गिनने के लिए वह
पेड़ पर चढ़ता है और कभी नमूना लेने के लिए चुनरी हाथ में लेता है। ऐसी
रचनाओं के प्रति यदि श्रद्धा प्रकट की जायगी तो वह अभ्यास, श्रम और बारीकी
अर्थात् साधन संपन्नता के विचार से होगी, साध्यी की पूर्णता अर्थात् कला के
विचार से नहीं, जिसका उद्देश्य मनव हृदय पर मधुर प्रभाव डालता है।
संगीत के पेचपाँच देखकर भी हठयोग याद आता है। जिस समय कोई कलावंत पक्का
गाना गाने के लिए आठ अंगुल मुँह फैलाता है और 'आ आ' करके विकल होता है, उस
समय बड़े बड़े धीरों का धैर्य छूट जाता है-दिन दिन भर चुपचाप बैठे रहनेवाले
बड़े बड़े आलसियों का आसन डिग जाता है। जो संगीत नाद की मधुर गति द्वारा मन
में माधुर्य का संचार करने के लिए था वह इन पक्के लोगों के हाथ में पड़कर
केवल स्वरग्राम की लंबी चौड़ी कवायद हो गया। श्रद्धालुओं के अंत:करण की
मार्मिकता इतनी स्तब्धा हो गई कि एक खरश्वान के गले से भी इस लंबी कवायद को
ठीक उतरते देख उनके मुँह से 'वाह वाह', 'ओहो हो' निकलने लगा। काव्य पर
शब्दालंकार आदि का इतना बोझ लादा गया कि उसका सारा रूप ही छिप गया। बात यह
हुई कि इन विविधा कलाओं के जितने अभ्यासगम्य और श्रमसाध्यू अंग थे वे तो हद
से बाहर घसीटे गए और जितने सहृदयता से संबंध रखनेवाले थे उनपर ध्याअन ही न
रहा। यदि ये कलाएँ मूर्तिमन रूप धारण करके सामने आतीं तो दिखाई पड़ता कि
किसी को जलोदर हुआ है, किसी को फीलपाँव! इनकी दशा सोने और रत्नों से जड़ी
गुठली धारदार तलवार की सी हो गई।
किसी मनुष्य में बहुत अधिक शारीरिक बल देख उसपर जन साधारण की श्रद्धा होती
है और होनी चाहिए। प्रो. राममूर्ति को मोटर रोकते, लोहे की मोटे मोटे सीकड़
तोड़ते, छाती पर 40 मन का पत्थर रखते, हाथी खड़ा करते और गाड़ी दौड़ाते देख
उनके शारीरिक बल के कारण उनपर श्रद्धा होती है। अब इस संपन्नता का वे
सदुपयोग भी कर सकते हैं, दुरुपयोग भी कर सकते हैं और अनुपयोग भी कर सकते
हैं। वे इसके द्वारा किसी भारी संकट से अपनी या दूसरे की रक्षा भी कर सकते
हैं और किसी निरपराध को पीड़ित भी कर सकते हैं पर हमारी श्रद्धा बिना
सदुपयोग या दुरुपयोग की संभावना की कल्पना किए शुभ साधन संपन्नता ही पर
होती है, कोरे विद्वानों के प्रति जो श्रद्धा होती है वह भी साधन संपन्नता
ही पर होती है। उसके उपयोग की निपुणता या प्रतिभा पर निर्भर नहीं होती।
विद्वता किसी विषय की बहुत सी बातों की जानकारी का नाम है, जिसका संचय बहुत
कष्ट, श्रम और धारणा से होता है। यह बात विद्वान् की प्रतिभा पर निर्भर है
कि वह ज्ञान का भंडारी और उपयोगकर्तव्यी दोनों हो-अर्थात् वह उत्तम चिंतक,
वक्ता, लेखक, अन्वेषक या कवि भी होकर उस संचित साधन का उपयोग करे और अपने
मूल विचारों का प्रभावपूर्ण प्रकाश करे। यदि विद्वान् में यह प्रतिभा नहीं
है, यह शक्ति नहीं है, तो वह अपनी संचित जानकारी को कला कुशल और
प्रतिभाशाली लेखकों या तत्तवान्वेषकों के सामने रख दे कि वे उससे
आवश्यकतानुसार काम लें। इस रीति से उसकी विद्वता सामाजिक उपयोग में आ
जाएगी।
भिन्न भिन्न मनसिक संस्कार के लोगों में किसी विषय से संबंध रखनेवाली
श्रद्धा भिन्न भिन्न मात्रा की हुआ करती है। यदि किसी को शारीरिक बल,
साहस्य या चतुराई पर अत्यंत अधिक श्रद्धा है तो वह इनका दुरुपयोग देखकर भी
बनी रह सकती है। अत्याचारियों के बल, डाकुओं के साहस और लंपटों की चालाकी
की तारीफ संसार में थोड़ी बहुत होती ही है। एक बात और है, यदि किसी पर किसी
एक विषय में अत्यंत अधिक श्रद्धा है तो उसकी अन्य विषयों की त्रुटियों पर
ध्यालन नहीं जाता और कभी ध्यांन भी जाता है तो वे भी सुहावनी लगती हैं। कोई
प्रतिभाशाली कवि विलासप्रिय, मद्यप या सनकी है तो जो अत्यंत काव्य प्रेमी
होंगे उनकी घृणा को उसके ये दुर्गुण पूर्ण रूप से आकर्षित न कर सकेंगे।
यहाँ तक कि उसके इन दुर्गुणों की चर्चा भी वे बड़ी रुचि के साथ करेंगे और
सुनेंगे। बात यह है कि मनुष्य का अंत:करण एक है। उसकी एक साथ दो परस्पर
विरुद्धा स्थितियाँ नहीं हो सकतीं। इस प्रकार की मनसिक स्तब्धता को
श्रध्दांधाता कह सकते हैं। यद्यपि श्रध्दांधा समाज में उतना अनर्थकारी नहीं
हो सकता, उतना अपराधी नहीं ठहराया जा सकता, जितना मदांधा, क्रोधंधा या
ईष्यांधा, पर उसकी श्रद्धा के बढ़ते बढ़ते क्रियमाण रूप धारण करने पर और शील
संबंधिनी चेतना को बिलकुल जवाब मिल जाने पर समाज के अनिष्ट में ब्याज से
सहायता पहुँच सकती है।
यदि किसी अपव्ययी और मद्यप कवि पर अत्यंत श्रद्धालु होकर कोई उसकी आर्थिक
सहायता करता जाता है तो वह उस अन्याय और उपद्रव का थोड़ा बहुत उत्तरदाता
अवश्य होता है जो कविजी अपने सहवर्तियों के बीच करने में समर्थ होते हैं।
यदि किसी पहलवान के बल पर प्रसन्न होकर कोई उसे हलवा पूरी खाने के लिए कुछ
महीना बाँधाता है तो उसके गुंडेपन के कारण लोगों की पहुँची हुई पीड़ा के दोष
का वह कम से कम उतना भाग अवश्य पा सकता है जितना इंद्रकृत हत्या की बँटाई
के समय बहुतों को मिला था। उद्देश्य के अभाव के बल से यद्यपि इन
श्रद्धालुओं पर दोष उतना सटीक नहीं लग सकता, पर समाज की दृष्टि में वे दान
के पात्रता संबंधी अविवेक के अभियोग से नहीं बच सकते।
अब यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि शील, कला और साधन संपत्ति श्रद्धा के इन
तीनों विषयों में से किसका ध्या न मनुष्य को पहले होना चाहिए और किसका
पीछे। इसका बेधड़क यही उत्तर दिया जा सकता है कि जन साधारण के लिए शील का ही
सबसे पहले ध्याोन होना स्वाभाविक है; क्योंकि उसका संबंध मनुष्य मात्र की
सामान्य स्थिति रक्षा से है। उसके अभाव में समाज या उस आधार की स्थिति ही
नहीं रह सकती जिसमें कलाओं की उपयोगिता या मनोहारिता का प्रसार और साधन
संपत्ति की प्रचुरता का वितरण और व्यवहार होता है।
दूसरों की श्रद्धा संसार में एक अत्यंत वांछनीय वस्तु है, क्योंकि वह एक
प्रकार का ऐसा परकीय निश्चय या विश्वास है जिसके सहारे स्वकीय कार्य सुगम
होता है-जीवन की कठिनता कम होती है। जिस पर लोगों की अश्रद्धा होती है-उसके
लिए व्यवहार के सब सीधा और सुगम मार्ग बंद हो जाते हैं-उसे या तो काँटों पर
या ढाई कोस नौ दिन में चलना पड़ता है। पर जो किसी प्रकार दूसरों की श्रद्धा
संपादित कर लेता है, उसके पैर रखने के लिए फूलों की पंखुड़ियाँ-आजकल लाल
कनातें बिछाई जाती हैं। समाज में ये वस्तुएँ सच्चे गुणियों और परोपकारियों
के लिए हैं पर इन्हें छीनने और चुराने की ताक में बहुत से चोर, चाईं और
लुटेरे रहते हैं जो इनके द्वारा स्वार्थ साधन करना या अपनी तुच्छ मनसिक
वृत्तियों को तृप्त करना चाहते हैं। इनसे समाज को हर घड़ी सावधान रहना
चाहिए। इन्हें सामाजिक दंड देने के लिए उसे सदा सन्नद्धा रहना चाहिए। ये
अनेक रूपों में दिखाई पड़ते हैं-कोई गेरुआ वस्त्रा लपेटे धर्म का डंका पीटता
दिखाई देता है, कोई देश हितैषिता का लंबा चोगा पहने देशोद्धार की पुकार
करता पाया जाता है।
मनुष्य किसी ओर तीन प्रकार से प्रवृत्त होता है-मन से, वचन से और कर्म से।
इनमें से मन तो देखने दिखाने की चीज नहीं। वाणी और कार्यप्रणाली की नकल की
जाती है और बड़ी सफाई से की जाती है। हितोपदेश के गदहे ने तो बाघ की खाल ही
ओढ़ी थी, पर ये लोग बाघ की बोली भी बोल लेते हैं। कहीं कहीं केवल वचन ही से
काम निकल जाता है। एक दिन मैं काशी की एक गली से जा रहा था, एक ठठेरे की
दूकान पर कुछ परदेशी यात्री किसी बरतन का मोलभाव कर रहे थे और कह रहे थे कि
इतना नहीं, इतना लो तो लें। इतने ही में सौभाग्यवश दूकानदारजी को
ब्रह्मज्ञानियों के वाक्य याद आ गए और उन्होंने चट कहा-'माया छोड़ो और इसे
ले लो।' सोचिए तो, काशी ऐसा पुण्य क्षेत्र! वहाँ न माया छोड़ी जाएगी तो कहाँ
छोड़ी जाएगी। थोड़े दिन हुए, किसी लेखक ने कहीं पढ़ा कि प्रतिभाशाली लोग कुछ
उग्रता और पागलपन लिए होते हैं। तब से वे बराबर अपने में इन दोनों शुभ
लक्षणों की स्थापना के यत्न में लगे रहते हैं। सुनते हैं कि पहले में वे
कुछ कृतकार्य भी हुए हैं, पर पागलपन की नकल करना कुछ हँसी खेल नहीं; भूल
चूक से कुछ समझदारी की बातें मुँह से निकल ही जाती हैं।
जैसे और सब विद्याओं की, वैसी ही परश्रद्धाकर्षण की विद्या की भी आजकल खूब
उन्नति हुई है। आश्चर्य नहीं कि इसके लिए कुछ दिनों में एक अलग विद्यालय
खुले। श्रद्धा के यथार्थ कारण का जितना ही अभाव हो, आकर्षण की अपनी विद्या
में उतना ही दक्ष समझना चाहिए। आजकल सार्वजनिक उद्योगों की बड़ी धुम रहा
करती है और बहुत से लोग निराहार परोपकार व्रत करते सुने जाते हैं। ऊपर कहा
जा चुका है कि पर श्रद्धा के सहारे कार्य में सुगमता आती है, अत: किसी
कार्य साधना के लिए जो लोग प्रयत्न द्वारा दूसरों के हृदय में श्रद्धा
उत्पन्न करते हैं वे उस कार्य के अनुसार चतुर, नीति कुशल, धूर्त या पाखंडी
कहे जाते हैं, पर संसार में बहुत ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें अपने ऊपर
परायी श्रद्धा के चिंतन से जो एक प्रकार का आनंद मिलता है उसकी लत पड़ जाती
है। वे पर श्रद्धा को मनोरंजन या मनसिक भोग विलास की एक सामग्री समझते हैं।
वे परायी श्रद्धा केवल इसी निमित्त चाहते हैं, और किसी उद्देश्य से नहीं।
ऐसे पर श्रद्धाभिलाषियों को मनसिक दुर्वव्य सन रहता है और वे उसी प्रकार
दुर्वव्यससनी कहे जा सकते हैं जिस प्रकार शराबी, गँजेड़ी और चंडूबाज आदि। पर
समाज की श्रद्धा ऐसे अपव्यय के लिए नहीं है, प्रयोजन के लिए है। ऐसे लोग
अपनी धुन में कभी कभी बड़े बड़े सार्वजनिक कार्य भी छोड़ बैठते हैं जिनका होना
उन्हें इतना अभीष्ट नहीं होता जितना अपने द्वारा होना। ये लोग पहचाने इस
प्रकार जाते हैं कि उन कार्यों से अपने नाम का वियोग घड़ी भर भी नहीं सह
सकते, यहाँ तक कि यदि वे दूसरों को कोई ऐसा कार्य हाथ में लेते देखते हैं
जिसमें समाज के साधुवाद की संभावना होती है तो इनका पेट फूलने लगता है और
ये या तो गुप्त रूप से उसमें विघ्न की व्यवस्था करते हैं या कम से कम उसके
महत्तच को बहुत कम करके दिखाया करते हैं। दूसरी पहचान यह है कि वे लोग ऐसे
ही काम ठानते हैं जिनका नाम और आडंबर बड़ा होता है।
ऊपर कहा जा चुका है कि श्रद्धावान् अपनी श्रद्धा द्वारा श्रद्धेय में कोई
ऐसा परिवर्तन उपस्थित नहीं करना चाहता जिसका अपने लिए कोई अनुकूल फल हो।
श्रद्धावान् श्रद्धेय को प्रसन्न करने की इच्छा कर सकता है, पर उस
प्रसन्नता से आप कोई लाभ उठाने की नहीं। श्रद्धा न्याय बुद्धि के पलड़े पर
तुली हुई एक वस्तु है जो दूसरे पलड़े पर रखे हुए श्रद्धेय के गुण, कर्म आदि
के हिसाब से होती है। श्रद्धा सत्कर्म या सद्गुण ही का मूल्य है जिससे और
किसी प्रकार का सौदा नहीं हो सकता; पर जब कि इस व्यापार युग में ज्ञान
बिकता है, न्याय बिकता है, धर्म बिकता है-तब श्रद्धा ऐसे भाव क्यों न बिके?
पर असली भाव तो इस लेन देन के व्यवहार के लिए उपस्थित नहीं किए जा सकते।
खैर, नकली सही। एक भाव पर दूसरे भाव की कलई करके हम बाजार में क्यों न
जाएँ? अपनी भीरुता या चापलूसी को हम 'श्रद्धा श्रद्धा' कहकर गलियों और
संवादपत्रों में क्यों न पुकारें? ऐसे झूठे श्रद्धावानों से घिरकर झूठे
श्रद्धा पात्र सच्चे श्रद्धा पात्रों को क्यों न मात करें, जब कि आजकल झूठे
मोती सच्चे मोतियों को मात करते हैं?
कला कुशल या सदाचारी अपने चारों ओर प्रसन्नता देखना चाहता है; अत: अपनी
श्रद्धा द्वारा हम अपनी प्रसन्नता का निश्चय मात्र कराते हैं। हमारी
प्रसन्नता से उसे अपनी सामर्थ्य का बोध हो जाता है और उसका उत्साह बढ़ता है।
इस प्रकार अपनी श्रद्धा द्वारा हम भी समाज का मंगल साधन करते हैं। दूसरे की
श्रद्धा का श्रद्धेय पर इतना ही प्रभाव पड़ना चाहिए, इससे अधिक नहीं। यदि
हमारी श्रद्धा के कारण वह हमें किसी प्रकार का लाभ पहुँचाना चाहता है तो वह
हमारी श्रद्धा को खुशामद समझता है और हमारा अपमन करता है। श्रद्धा में
याचकता का भाव लेश मात्र भी नहीं है। श्रद्धा द्वारा हम अपने हृदय का परिचय
मात्र देते हैं कि उसमें मार्मिकता या धर्म भाव है, सात्तिवक आचरण या
प्रतिभा की कला में प्रसन्न होने की क्षमता है। यदि हमें किसी पर श्रद्धा
है तो हमें उसके पास जाकर यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि 'महाराज मेरी यह
श्रद्धा स्वीकार हो'। इस प्रकार की स्वीकृति की हमें कोई आवश्यकता नहीं। हम
अपनी श्रद्धा लिए अपने घर बैठे रह सकते हैं। या उसे इस रीति से प्रकट कर
सकते हैं जिस पर श्रद्धेय का कोई वश नहीं। यदि हमें किसी सुलेखक पर श्रद्धा
है और वह हमसे रुष्ट है तो भी हम उसका सच्चा चित्र और चरित्र छाप सकते हैं।
इसका स्वत्व हमें समाज द्वारा प्राप्त है-इसका हक हमें कानूनन हासिल है पर
वहीं यदि हम उस सुलेखक से प्रेम करने चलें, उसके साथ साथ लगे फिरें और हरदम
उसे घेरे रहें तो वह हमें हटा सकता है। श्रद्धा प्रदर्शित करने का जितना
विस्तृत सामाजिक अधिकार हमें प्राप्त है उतना उसके विपरीत भाव अश्रद्धा या
घृणा प्रकट करने का नहीं, क्योंकि श्रद्धा यदि हमने भूल से या स्वार्थवश
प्रकट की तो किसी को उतनी हानि नहीं, पर यदि घृणा भूल से या द्वेषवश प्रकट
की तो व्यर्थ का असंतोष और दु:ख फैल सकता है।
ऊपर कहा जा चुका है कि श्रद्धा के विषय तीन हैं-शील, प्रतिभा और साधन
संपत्ति। शील या धर्म से समाज की स्थिति, प्रतिभा से रंजन और साधन संपत्ति
से शील साधन और प्रतिभा विकास दोनों की संभावना है। श्रद्धेय समाज की
स्थिति या सुख का विधान करता है और समाज उसकी स्थिति और सुख का विधान करता
है। समाज अपने श्रद्धालु प्रतिनिधियों को कभी तो उसे आपत्ति से बचाने के
लिए भेजता है-कभी कुछ्र भेंट उसके सामने रखने के लिए। श्रद्धावश जो दान
दिया जाता है वह उसी प्रकार की भेंट है। सच्चा दान दो प्रकार का होता है-एक
वह जो दयावश दिया जाता है, दूसरा वह जो श्रद्धावश दिया जाता है। पंडितों,
विद्वानों और धार्मिकों को जो दान दिया जाता है वह दयावश दिया जाता है।
अंधो, लूलों और लँगड़ों को जो दान दिया जाता है वह श्रद्धावश दिया जाता है।
श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। जनसाधारण
अपनी दया द्वारा केवल असामर्थ्य के उपस्थित परिणामों का, कुछ स्थान के बीच
और कुछ काल तक के लिए निवारण कर सकते हैं, अत: श्रद्धा द्वारा वे ऐसे
असाधारण जनों को अपने वित्तनुसार थोड़ी थोड़ी शक्ति दान करते हैं जो
असामर्थ्य के कारणों के निराकरण में समर्थ होते हैं।
श्रद्धावश दान में उपयोगिता का तत्व छिपा हुआ है। स्मृतियों में श्रद्धावश
दान पर बड़ा जोर दिया गया है और ऐसे दान के विषय में पात्रापात्र का विचार
भी खूब किया गया है। विद्या दान में रत विद्वानों को, परोपकार में रत
कर्मवीरों को, मनवज्ञान की वृद्धि में तत्पर तत्तवान्वेषकों को जो अभाव हो
उसे हमें समाज की भूख समझनी चाहिए। इन्हें जो कुछ हम श्रद्धावश देते हैं,
वह ठीक समाज के दुरुस्त पेट में जाता है, जहाँ से रस रूप में उसका संचार
अंग अंग में होता है। इसके विरुद्धा स्वार्थियों, अन्यायियों आदि को जो कुछ
दिया जाता है वह समाज के अंग में उसी प्रकार नहीं लगता जिस प्रकार अतिसार
या संग्रहणीवाले को खिलाया हुआ अन्न। भारतवर्ष में श्रद्धा का संबंध दान के
साथ इतना गहरा समझा जाता है कि अश्रद्धापूर्वक दिया हुआ दान निष्फल माना
जाता है। इसी से शुष्क प्रथानुसरण के रूप में भी यदि कुछ दिया जाता है तो
श्रद्धा का नाम ले लिया जाता है। पंडों पुरोहितों को देते हुए यजमन भी कहता
है कि 'महाराज! इतनी ही श्रद्धा है' और पंडे पुरोहित भी कहते हैं कि 'जितनी
श्रद्धा हो उतना दो', यद्यपि इन पंडों और पुरोहितों के संबंध में सदा यह
निश्चय नहीं रहता कि वे बड़े विद्वान्, बड़े धार्मिक या बड़े परोपकारी हैं।
मनोविकार के उपयुक्त विषयों के निश्चय में कभी कभी बुद्धि की भी थोड़ी बहुत
आवश्यकता होती है। क्योंकि एक ही व्यक्ति के प्रति किसी को श्रद्धा होती है
और किसी को अश्रद्धा। इसका कारण घृणा के अंतर्गत अच्छी तरह दिखाया गया है।
श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। जब पूज्य भाव की वृद्धि के साथ
श्रद्धाभाजन के सामीप्य लाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के
साक्षात्कार की वासना हो, तब हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए।
जब श्रद्धेय के दर्शन, श्रवण, कीर्तन, ध्या,न आदि से आनंद का अनुभव होने
लगे-जब उससे संबंध रखनेवाले श्रद्धा के विषयों के अतिरिक्त बातों की ओर भी
मन आकर्षित होने लगे, तब भक्तिरस का संचार समझना चाहिए। जब श्रद्धेय का
उठना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, क्रोध करना आदि भी हमें अच्छा लगने लगे
तब हम समझ लें कि हम उसके भक्त हो गए। भक्ति की अवस्था प्राप्त होने पर हम
अपने जीवनक्रम पर भी अपना कुछ प्रभाव रखना चाहते हैं। कभी हम अर्पण करते
हैं और कभी याचना करते हैं। सारांश यह कि भक्ति द्वारा हम भक्ति भाजन से
विशेष घनिष्ठ संबंध स्थापित करते हैं-उसकी सत्ता में विशेष रूप से योग देना
चाहते हैं। किसी के प्रति श्रद्धा धारण करके हम बहुत करेंगे तो समय समय पर
उसकी प्रशंसा करेंगे, उसकी निंदा करनेवालों से झगड़ा करेंगे या कभी कुछ
उपहार लेकर उपस्थित होंगे, पर जिसके प्रति हमारी अनन्य भक्ति हो जाएगी वह
अपने जीवन के बहुत से अवसरों पर हमें अपने साथ देख सकता है। वह अपने बहुत
से उद्योगों में हमारा योगदान पा सकता है। भक्त वे ही कहला सकते हैं जो
अपने जीवन का बहुत अंश स्वार्थ (परिवार व शारीरिक सुख आदि) से विभक्त करके
किसी के आश्रय से किसी ओर लगा सकते हैं, इसी का नाम है आत्मनिवेदन।
महात्माओं के ऊपर श्रद्धामात्र करके हम उन्हें जीवनशक्ति द्वारा उपार्जित
कोई फल अर्पित कर सकते हैं, पर उनके भक्त होकर हम अपने जीवन ही के कुछ अंश
को अर्पित कर देते हैं। किसी वीरव्रती महात्मा पर बहुत श्रद्धालु होकर हम
आर्थिक सहायता द्वारा उसके लिए कुछ सुबीता कर सकते हैं, अपने वचनों से उसे
प्रसन्न और उत्साहित कर सकते हैं, पर उसके भक्त बनकर हम अपने शारीरिक बल को
उसका शारीरिक बल बनाएँगे, अपनी जानकारी और चतुराई को उसकी जानकारी और
चतुराई बनाएँगे, अपनी वाग्मिता को उसकी वाग्मिता बनाएँगे, अपनी तत्परता को
उसकी तत्परता बनाएँगे, यहाँ तक कि जो कुछ हमसे होगा उसे हम उसका कर डालेंगे
और इसी प्रकार उसके जीवन में अपने जीवन का योग देकर उसके सामाजिक महत्तव या
प्रभाव को बढ़ाएँगे और उसके थोड़े बहुत हम भी भागी होंगे। श्रद्धा द्वारा हम
दूसरे के महत्तव के किसी अंश के अधिकारी नहीं हो सकते, पर भक्ति द्वारा हो
सकते हैं। यहाँ तक कि दूसरे की भक्ति करके हम तीसरे की भक्ति के अधिकारी हो
सकते हैं। राम पर अनन्य भक्ति करके हनुमन, अन्य राम भक्तों की भक्ति के
अधिकारी हुए।
श्रद्धालु महत्तव को स्वीकार करता है, पर भक्त महत्तव की ओर अग्रसर होता
है। श्रद्धालु अपने जीवनक्रम को ज्यों का त्यों छोड़ता है; पर भक्त उसकी
काटछाँट में लग जाता है। अपने आचरण द्वारा दूसरों की भक्ति के अधिकारी होकर
ही संसार के बड़े बड़े महात्मा समाज के कल्याण साधन में समर्थ हुए हैं। गुरु
गोविंद सिंह को यदि केवल दंडवत करनेवाले और गद्दी पर भेंट चढ़ानेवाले
श्रद्धालु ही मिलते, दिन रात साथ रहनेवाले अपने सारे जीवन को अर्पित
करनेवाले भक्त न मिलते तो वे अन्याय दमन में कभी समर्थ न होते। इससे भक्ति
के सामाजिक महत्तव को, इसकी लोकहितकारिणी शक्ति को स्वीकार करने में किसी
को आगा पीछा नहीं हो सकता। सामाजिक महत्तव के लिए आवश्यक है कि या तो
आकर्षित करो या आकर्षित हो। जैसे इस आकर्षण विधान के बिना अणुओं द्वारा
व्यक्त पिंडों का आविर्भाव नहीं हो सकता, वैसे ही मनव जीवन की विशद
अभिव्यक्ति भी नहीं हो सकती।
भक्ति में किसी ऐसे सान्निधय की प्रवृत्ति होती है जिसके द्वारा हमारी
महत्तव के अनुकूल गति का प्रसार और प्रतिकूल गति का संकोच होता है। इस
प्रकार का सामीप्य लाभ करके हम अपने ऊपर पहरा बिठा देते हैं-अपने को ऐसे
स्वच्छ आदर्श के सामने कर देते हैं जिससे हमारे कर्मों का प्रतिबिंब ठीक
ठीक दिखाई पड़ता है। जिसे अपनी वास्तविक क्षुद्रता का परिज्ञान अरुचिकर होगा
वह सापेक्षिकता के भय से ऐसे महत्तवादर्श का सामीप्य कभी न चाहेगा, दूर दूर
भागा फिरेगा। 'हमीं हम' वाले 'तुम भी' नहीं सह सकते, 'तुम्हीं तुम' की क्या
बात है? ऐसे लोग तो स्वयं अपने लिए भक्त ढूँढ़ने निकलते हैं। भक्ति के लिए
दैन्य अर्थात् दूसरे के महत्तव के साथ अपने लघुत्व की भावना पहली बात है।
इस भावना को जब हम मुक्त हृदय से मुग्ध होकर धारण करेंगे और दूसरे पर
श्रद्धा कर लेंगे, तब हम उसके महत्तव के सतत साक्षात्कार के लिए, अनेक
रूपों में परिचय के लिए उसके सामीप्य की इच्छा करते हुए इस श्रद्धा में
प्रेम का भी मिश्रण करेंगे और अपने बहुत से क्रियाकलाप को अपने पूज्य
प्रेमपात्र के अधीन करके स्वयं महत्तव के अभ्यास में प्रवृत्त होंगे। जन
साधारण के लिए इस प्रकार के आश्रय द्वारा महत्तव प्राप्ति सुगम होती है। जो
उच्च पथ पहले कष्टकर और श्रमसाध्य् जान पड़ता है वही भक्ति के बल से मनोहर
लगने लगता है।
व्यक्ति संबंधहीन सिद्धांतमार्ग निश्चयात्मिका बुद्धि को चाहे व्यक्त हो,
पर प्रवर्तक मन को अव्यक्त रहते हैं। वे मनोरंजनकारी तभी लगते हैं, जब किसी
व्यक्ति के जीवनक्रम के रूप में देखे जाते हैं। शील की विभूतियाँ अनंत
रूपों में दिखाई पड़ती हैं। मनुष्य जाति ने जब से होश सँभाला, तब से वह इन
अनंत रूपों को महात्माओं के आचरणों तथा आख्यानों और चरित्र संबंधी पुस्तकों
में देखती चली आ रही है। जब इन रूपों पर मनुष्य मोहित होता है, तब सात्विक
शील की ओर आप से आप आकर्षित होता है। 'सदा सत्य बोलो', 'दूसरों की भलाई
करो', 'क्षमा करना सीखो'-ऐसे ऐसे सिद्धांत वाक्य किसी को बार बार बकते सुन
वैसा ही क्रोध आता है जैसे किसी बेहूदे की बात सुनकर। जो इस प्रकार की
बातें करता चला जाय उससे चट कहना चाहिए-'बस चुप रहो, तुम्हें बोलने की तमीज
नहीं, तुम बच्चों या कोल भीलों के पास जाओ। ये बातें हम पहले से जानते हैं।
मनव जीवन के बीच हम इसके सौंदर्य का विकास देखना चाहते हैं। यदि तुम्हें
दिखाने की प्रतिभा या शक्ति हो तो दिखाओ, नहीं तो चुपचाप अपना रास्ता लो।
'गुण प्रत्यक्ष नहीं होता, उसके आश्रय और परिणाम प्रत्यक्ष होते हैं।
अनुभवात्मक मन को आकर्षित करनेवाले आश्रय और परिणाम हैं, गुण नहीं। ये ही
अनुभूति के विषय हैं। अनुभूति पर प्रवृत्ति और निवृत्ति निर्भर है। अनुभूति
मन की पहली क्रिया है, संकल्प विकल्प दूसरी। अत: सिद्धांत पथों के संबंध
में जो आनंदानुभव करने की बातें हैं, जो अच्छी लगने की बातें हैं, वे
पथिकों में तथा उनके चारों ओर पाई जाएँगी। सत्पथ के दीपक उन्हीं के हाथ में
हैं या वे ही सत्पथ के दीपक हैं। सत्तवोन्मुख प्राणियों के लिए ऐसे पथिकों
के सामीप्य लाभ की कामना करना स्वाभाविक ही है।
सामीप्य से अभिप्राय केवल किसी के साथ साथ बना रहना नहीं है। श्रवण, कीर्तन
और स्मरण आदि भी सामीप्य ही के विधान हैं। वाह्य और आभ्यंतर दोनों
प्रयत्नों से सामीप्य की सिद्धि होती है। स्मरण द्वारा हम अपने आराधय को,
उसके कर्मक्षेत्र को अपने अंत:करण के सामने उपस्थित करते हैं। यहाँ पर यह
कहा जा सकता है कि जब हम इष्ट के कर्मक्षेत्र को सामने लाते हैं तब उसमें
ऐसे लोग भी तो आ जाते हैं जिन पर हमारी कुछ भी भक्ति नहीं। हाँ, आते अवश्य
हैं। इनके द्वारा हमारे इष्ट के स्वरूप का पूर्ण विकास दिखाई पड़ता है-इनके
बीच उनका (इष्टका) रंग और खुल पड़ता है। यदि राम हमारे काम के हैं तो रावण
भी हमारे काम का है। एक में हम अपने लिए प्रवृत्ति का क्रम पाते हैं, दूसरे
में निवृत्ति का। जीवन में इस निवृत्ति और प्रवृत्ति का प्रवाह साथ साथ
चलता है। दुराचारी भी यदि अपने दुराचार का फल संसार के सामने पूर्ण रूप से
भोग लेता है तो समाज के लिए उपयोगी ठहर जाता है राम के हाथ से मारे जाने से
रावण का जीवन भी सार्थक हो गया। यदि पापी अपने पाप का फल एकांत में या
आत्मा में ही, भोगकर चला जाता है तो वह अपनी जीवन की सामाजिक उपयोगिता की
एकमात्र संभावना को भी नष्ट कर देता है। इसी से बहुत से प्रायश्चितो के
विधान में किए हुए पापों का सबके समक्ष कथन आवश्यक होता है।
पाप का फल छिपानेवाला पाप छिपानेवाले से अधिक अपराधी है पर ऐसे बहुत से लोग
होते हैं जो किसी का घर जलाते हाथ जलता है तो कहते हैं कि होम करते जला है।
दुराचारियों के जीवन का सामाजिक उपयोग करने के लिए ही, संसार में धर्म की
मर्यादा स्थापित करने के लिए ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त
किया। यदि अधर्म में तत्पर कौरवों का नाश न होता और पांडव जीवन भर मारे
मारे ही फिरते तो संसार में अन्याय और अधर्म की ऐसी लीक खिंच जाती जो
मिटाने से न मिटती। जिस समाज में सुख और वैभव के रंग में रँगी अधर्म की ऐसी
लीक दिखाई पड़े उसमें रक्षा करनेवाली आत्मा का अभाव तथा विश्वात्मा की विशेष
कला के अवतार की आवश्यकता समझनी चाहिए, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा
है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
यदि कहीं पाप है, अन्याय है, अत्याचार है तो उनका आशुफल उत्पन्न करना और
संसार के समक्ष रखना, लोकरक्षा का कार्य है। अपने ऊपर किए जानेवाले
अत्याचार और अन्याय का फल ईश्वर के ऊपर छोड़ना व्यक्तिगत आत्मोन्नति के लिए
चाहे श्रेष्ठ हो; पर यदि अन्यायी या अत्याचारी अपना हाथ नहीं खींचता है तो
लोकसंग्रह की दृष्टि से वह उसी प्रकार आलस्य या कायरपन है जिस प्रकार अपने
ऊपर किए हुए, उपकार का कुछ भी बदला न देना कृतघ्नता है।
अब भगवद्भक्ति को लीजिए। ऊपर जो कुछ कहा गया उससे स्पष्ट हो गया होगा कि
मनुष्य की भक्ति के आधार क्या क्या हैं। मनुष्य विश्व विधान का एक क्षुद्र
चेतन अंश है। उसमें धर्म, अधर्म, दया, निष्ठुरता आदि से भाव विश्व के उतने
ही अंश से संबंध रखते हैं जितने के भीतर उसे कार्य करना है। यह कार्य और
कुछ नहीं, अपनी समष्टि स्थिति और सुख संतोष का प्रयत्न मात्र है। अपने
कार्यक्षेत्र के बाहर यदि वह अपने इन भावों का सामंजस्य ढूँढ़ता है तो नहीं
पाता है-कहीं उसे 'जीवो जीवस्य जीवनम्' का सिद्धांत चलता दिखाई पड़ता है,
कहीं लाठी और भैंस का। वह सोचता है कि इन बातों का अनुसरण मनुष्य समाज में
भी जानबूझकर क्यों न किया जाए, यह नहीं सोचता कि मनुष्य जाति की स्थिति इन
अवस्थाओं से बहुत आगे बढ़ी है और चेतना की श्रेणी में उससे आगे की ओर से कोई
भूमि दिखाई नहीं पड़ रही है। वह दया को निरर्थक समझ अपने अंत:करण का एक अंग
ही खंडित करना चाहता है। वह किसी को काना देखकर अपनी एक ऑंख फोड़ने चलता है।
कुछ दिन पहले की सभ्यता मनुष्य जीवन को देवतुल्य बनाने में थी; अब
मर्कटतुल्य और मत्स्यतुल्य बनाने में समझी जाने लगी है। पर यह सभ्यता जड़त्व
और नाश की ओर ले जानेवाली है जब हृदय की कुछ उदात्त प्रवृत्तियाँ बोझ मालूम
होने लगी हैं। तब और प्राणियों की अपेक्षा अपने अंत:करण की पूर्णता का गर्व
मनुष्य जाति कब तक कर सकती है? उसके मार्मिक अंग की व्यापकता के हास और
स्तब्धता की वृद्धि के भयंकर परिणाम का आभास यूरोप दे रहा है। अंत:करण की
जितनी वृत्तियाँ हैं उनमें से कोई निरर्थक नहीं-सबका उपयोग है। इनमें से
किसी की शक्ति फालतू नहीं। यदि मनुष्य इनमें से किसी को निष्क्रिय करने का
अभ्यास डालेगा तो अपनी पूर्णता को खोएगा और अपनी स्थिति को जोखिम में
डालेगा।
मिट्टी के ढेले, गुलाब के पौधो, कुत्तो और बिल्ली की अपेक्षा मनुष्य अपने
में अंशी का अधिक अंश समझता है-उस सर्वात्मा का अधिक अंश समझता है-विश्व
विधान जिसकी नित्य क्रिया है; अत: स्थिति रक्षा विधान की जो जो बातें अपने
में हैं उनका अभाव उसे अंशी या सर्व में मनते नहीं बनता। दया, दाक्षिण्य,
प्रेम, क्रोध आदि अपनी अंशात्मा में देखते हुए सर्वात्मा में उनके अभाव की
धारणा मनुष्य करे तो कैसे करे? अत: ज्ञान क्षेत्र में ईश्वर की खोज हम उतने
ही घेरे में करेंगे जितने में इंद्रियों की सहायता लेकर बुद्धि पहुँचती है
और कर्मक्षेत्र में उसकी भावना हम उसे उतने ही भावों से परिमित करके करेंगे
जितने की हमारे मन में जगह है। हम हैं, हम समझते हैं कि हम हैं और हम चाहते
हैं कि हम रहें, ऐसी अवस्था में हम अपने स्थिति रक्षा संबंधी भावों को
परमावस्था पर पहुँचाकर ही उस परम भावमय की भावना करेंगे। हम उसे धर्ममय,
दयामय, प्रेममय मानेंगे और यह प्रेम उसी रूप का होगा जिस रूप में उसका
व्यवहार मनुष्य जाति में दिखाई पड़ता है, जिस रूप में मनुष्य जाति को उसकी
आवश्यकता पड़ती है। अत्याचारी से पीड़ित होकर मनुष्य उसके कोप का आह्नान करता
है, आपद्ग्रस्त होकर उसकी दया का भिखारी होताहै, सुख से संपन्न होकर उसके
धन्यवाद के लिए हाथ उठाता है, भक्ति से पूर्ण होकरउसके आश्रय की वांछा करता
है। ये ही व्यवहार वह मनुष्यों के साथ भी करता है।
अपने व्यवहार पथ में आश्रय प्राप्ति के निमित्त मनुष्य के लिए ईश्वर की
स्वानुरूप भावना ही संभव है। स्वानुभूति द्वारा ही वह उस परमानुभूति की
धारणा कर सकता है। इसी से भर्तृहरि ने 'स्वानुभूत्यैकमनव' कहकर नमस्कार
किया है। यदि चिन्मय में अपनी इतनी अनुभूति का भी निश्चय मनुष्य को न हो वह
प्रार्थना आदि क्यों करने जाए? कुत्तो प्रार्थना क्यों नहीं करते? उनमें
धर्म की प्रतिष्ठा नहीं है-अर्थात् वे चेतना की उस भूमि तक नहीं पहुँचे हैं
जिनमें समष्टि स्थिति की रक्षा से संबंध रखने वाले भावों का संचार होता है।
वे यह नहीं जानते कि एक दूसरे को काटने दौड़ने से कुक्कुर समाज की उन्नति और
वृद्धि नहीं हो सकती। समष्टि रक्षा या धर्म की ओर प्रवृत्त करनेवाले दया
आदि भाव उन्हें प्राप्त नहीं हैं। उनमें स्वार्थ का भाव है, परमार्थ का भाव
नहीं। 'धार्मो रक्षति रक्षित:' की धारणा उन्हें नहीं होती। जहाँ धर्मभाव है
वहीं ईश्वर की भावना है। जिन प्राणियों में जिन भावों का विकास नहीं हुआ है
उनमें उनकी चरितार्थता की आवश्यकता प्रकृति नहीं समझती।
भक्ति का स्थान मनव हृदय है-वहीं श्रद्धा और प्रेम के संयोग से उसका
प्रादुर्भाव होता है। अत: मनुष्य की श्रद्धा के जो विषय ऊपर कहे जा चुके
हैं उन्हीं को परमात्मा में अत्यंत विशद रूप में देखकर ही उसका मन खिंचता
है और वह उस विशद रूप विशिष्ट का सामीप्य चाहता है, उसके हृदय में जो
सौंदर्य का भाव है, जो शील का भाव है, जो उदारता का भाव है, जो शक्ति का
भाव है, उसे वह अत्यंत पूर्ण रूप में परमात्मा में देखता है और ऐसे पूर्ण
पुरुष की भावना से उसका हृदय गद्गद हो जाता है और उसका धर्मपथ आनंद से
जगमगा उठता है। धर्मक्षेत्र या व्यवहार पथ में वह अपने मतलब भर ही ईश्वरता
से प्रयोजन रखता है। राम, कृष्ण आदि अवतारों में परमात्मा की विशेष कला देख
एक हिंदू के हृदय की सारी शुभ और आनंदमयी वृत्तियाँ उनकी ओर दौड़ पड़ती हैं,
उनके प्रेम, श्रद्धा आदि को बड़ा भारी अवलंब मिल जाता है। उसके सारे जीवन
में एक अपूर्व माधुर्य और बल का संचार हो जाता है। उसके सामीप्य का आनंद
लेने के लिए कभी वह उनके अलौकिक रूप सौंदर्य की भावना करता है, कभी उनकी
बाललीला के चिंतन से विनोद प्राप्त करता है, कभी धर्म-बलपूर्ण उनके निर्मल
चरित्र का गान करता है, कभी सिर झुकाकर वंदना करता है, यहाँ तक कि जब जी
में आता है, प्रेम से भरा उलाहना भी देता है। यह हृदय द्वारा अर्थात् आनंद
अनुभव करते हुए धर्म में प्रवृत्त होने का सुगम मार्ग है। भक्ति हृदय से की
जाती है। बुद्धि से भक्ति करना ऐसे ही है जैसे नाक से खाना और कान से
सूँघना। हमारे यहाँ भक्ति विधान के अंतर्गत श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवा,
अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन ये नौ बातें ली गई हैं। जैसा कि
ऊपर कहा जा चुका है कोरी श्रद्धा में याचकता का भाव नहीं है, जब प्रेम के
साथ उसका संयोग होता है तभी इस भाव की प्राप्ति होती है। श्रद्धावान्
श्रद्धेय पर अपने निमित्त किसी प्रकार का प्रभाव डालना नहीं चाहता, पर भक्त
दाक्षिण्य चाहताहै।
रामलीला, कृष्णलीला आदि सामीप्य सिद्धि के विधान हैं। सामीप्य की कामना,
भक्तवर रसखान ने बड़ी मार्मिकता से इस प्रकार प्रकट की है-
मानुष हों तो वही 'रसखान'
बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हों तो कहा बस मेरो,
चरौं नित नंद के धोनु मझारन।
पाहन हों तो वही गिरि को,
जो किए हरि छत्रा पुरंदर धारन।
जो खग हों तो बसेरो करौ,
मिलि कालिंदी कूल कदंब केडारनड्ड
रामलीला द्वारा लोग वर्ष में एक बार अपने पूज्यदेव की आदर्श मनवलीला का
माधुर्य देखते हैं। जिस समय दूर दूर के गाँवों के लोग एक मैदान में आकर
इकट्ठे होते हैं तथा एक ओर जटा मुकुटधारी विजयी राम लक्ष्मण्ा की मधुर
मूर्ति देखते हैं और दूसरी ओर तीरों से बिंधा रावण का विशाल शरीर जलता
देखते हैं, उस समय वे धर्म के सौंदर्य पर लुब्धा और अधर्म की घोरता पर
क्षुब्धा हो जाते हैं। इसी प्रकार जब कृष्णलीला में जीवन की प्रफुल्लता के
साथ धर्मरक्षा के अलौकिक बल का विकास देखते हैं, तब हमारी जीवन धारणा की
अभिलाषा दूनी चौगुनी हो जाती है। हिंदू जाति इन्हीं की भक्ति के बल से इनकी
प्रतिकूल अवस्थाओं के बीच अपना स्वतंत्र अस्तित्व बचाती चलती चली आई
है-इन्हीं की अद्भुत आकर्षणशक्ति से वह इधर उधर ढलने नहीं पाई है। राम और
कृष्ण को बिना ऑंसू बहाए छोड़ना हिंदू जाति के लिए सहज नहीं था, क्योंकि ये
अवतार अलग टीले पर खड़े होकर उपदेश देनेवाले नहीं थे, बल्कि मनव जीवन में
पूर्ण रूप से सम्मिलित होकर उसके एक एक अंग की मनोहरता दिखानेवाले थे। मंगल
के अवसरों पर उनके गीत गाए जाते हैं-विमाताओं की कुटिलता की, बड़ों के आदर
की, दुष्टों के दमन की, जीवन के कष्ट की, घर की, वन की, संपद की, विपद की
जहाँ चर्चा होती है, वहाँ इनका स्मरण किया जाता है।
संसार से तटस्थ रहकर शांति सुखपूर्वक लोक व्यवहार संबंधी उपदेश देनेवालों
का उतना अधिक महत्तव हिंदू धर्म में नहीं है जितना संसार के भीतर घुसकर
उसके व्यवहारों के बीच सात्विक विभूति की ज्योति जगानेवालों का है। हमारे
यहाँ उपदेशक ईश्वर के अवतार नहीं माने गए हैं। अपने जीवन द्वारा कर्म
सौंदर्य संघटित करने वाले ही अवतार कहे गए हैं। कर्म सौंदर्य के योग से
उनके स्वरूप में इतना माधुर्य आ गया है कि हमारा हृदय आप से आप उनकी ओर
खिंचा पड़ता है। जो कुछ हम करते हैं-खेलना, कूदना, हँसना, बोलना, क्रोध
करना, शोक करना, प्रेम करना, विनोद करना, उन सबमें सौंदर्य लाते हुए हम
जिन्हें देखेंगे उन्हीं की ओर ढल सकतेहैं।वे हमें दूर से रास्ता दिखानेवाले
नहीं हैं, आप रास्ते में चलकर हमें अपने पीछेलगाने क्या खींचनेवाले हैं। जो
उसके स्वरूप पर मोहित न हो वह निस्संदेह जड़है।
सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउड्ड
जो उनका नाम सुनकर पुलकित होता है, जो उनके स्वरूप पर मोहित होता है, उसके
सुधारने की बहुत कुछ आशा हो सकती है। जो संसार या मनुष्यत्व का सर्वथा
त्याग न कर दे, उसके लिए शुद्ध सात्विक जीवन का यही मार्ग है। रागों के
संपूर्ण दमन की अपेक्षा रागों का परिष्कार ज्यादा काम में आनेवाली बात है।
निर्लिप्त रहकर दूसरों का गला काटनेवालों से लिप्त होकर दूसरों की भलाई
करनेवाले लोक कल्याण के विचार से कहीं अच्छे हैं।
जनता के संपूर्ण जीवन को स्पर्श करनेवाला क्षत्रियधर्म के इसी व्यापकत्व के
कारण हमारे मुख्य अवतार राम और कृष्ण क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय धर्म ऐकांतिक
नहीं है। उसका संबंध लोकरक्षा से है। 'कोई राजा होगा तो अपने घर का होगा'
इससे बढ़कर झूठ शायद ही कोई मिले। झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की
जा सकती। कर्म सौंदर्य की योजना क्षत्रिय जीवन में जितने रूप में संभव है,
उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ
विनय, पराक्रम के साथ रूप माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुख भोग के साथ
परदु:खकातरता; प्रताप के साथ कठिन धर्म पथ का अवलंबन इत्यादि कर्म सौंदर्य
के इतने अधिक प्रकार के उत्कर्ष योग और कहाँ घट सकते हैं। इसी से क्षत्रिय
धर्म के सौंदर्य में जो मधुर आकर्षण है वह अधिक व्यापक, अधिक मर्मस्पर्शी
और अधिक स्पष्ट है। मनुष्य की संपूर्ण रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर
ले जाने और विशुद्ध करने की सामर्थ्य उसमें है।
संसार में मनुष्य मात्र की समन वृत्ति कभी नहीं हो सकती। इस बात को भूलकर
जो उपदेश दिए जाया करते हैं वे पाखंड के अंतर्गत आते हैं। वृत्तियों की
भिन्नता के बीच से जो मार्ग निकल सकेगा वही लोकरक्षा का मार्ग होगा, वही
धर्म का चलता हुआ मार्ग होगा। जिसमें शिष्टों के आदर, दीनों पर दया,
दुष्टों के दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, वही
सर्वाúपूर्ण लोकधर्म का मार्ग होगा। क्षत्रियधर्म पालन की आवश्यकता संसार
में सब दिन बनी रहेगी। कोई व्यापार युग उसे नहीं हटा सकता। किसी अनाथ अबला
पर अत्याचार करने पर एक क्रूर पिशाच को हम उद्यत देख रहे हैं। समझाना
बुझाना या तो व्यर्थ है अथवा उसका समय ही नहीं है। ऐसी दशा में यदि उस अबला
की रक्षा इष्ट है, तो हमें चटपट उस कर्म में प्रवृत्त होना होगा जिससे उस
दुष्ट को बाधा पहुँचे। उस समय का हमारा क्रोध कितना सुंदर और अक्रोध कितना
गर्हित होगा।
[चिन्तामणि, भाग-1]
करुणा
जब बच्चे को संबंधज्ञान कुछ कुछ होने लगता है तभी दु:ख के उस भेद की नींव
पड़ जाती है जिसे करुणा कहते हैं। बच्चा पहले परखता है कि जैसे हम हैं वैसे
ही ये और प्राणी भी हैं और बिना किसी विवेचना क्रम के स्वाभाविक प्रवृत्ति
द्वारा, वह अपने अनुभवों का आरोप दूसरे प्राणियों पर करता है। फिर
कार्यकारण संबंध से अभ्यस्त होने पर दूसरों के दु:ख के कारण या कार्य को
देखकर उनके दु:ख का अनुमन करता है और स्वयं एक प्रकार का दु:ख अनुभव करता
है। प्राय: देखा जाता है कि जब माँ झूठमूठ 'ऊँ ऊँ' करके रोने लगती है तब
कोई कोई बच्चे भी रो पड़ते हैं। इसी प्रकार जब उसके किसी भी भाई या बहिन को
कोई मारने उठता है तब वे कुछ चंचल हो उठते हैं।
दु:ख की श्रेणी में प्रवृत्ति के विचार से करुणा का उलटा क्रोध है। क्रोध
जिसके प्रति उत्पन्न होता है उसकी हानि की चेष्टा की जाती है। करुणा जिसके
प्रति उत्पन्न होती है, उसकी भलाई का उद्योग किया जाता है। किसी पर प्रसन्न
होकर भी लोग उसकी भलाई करते हैं। इस प्रकार पात्र की भलाई की उत्तेनजना
दु:ख और आनंद दोनों की श्रेणियों में रखी गई है। आनंद की श्रेणी में ऐसा
कोई शुद्ध मनोविकार नहीं है, जो पात्र की हानि की उत्ते्जना करे, पर दु:ख
की श्रेणी में ऐसा मनोविकार है जो पात्र की भलाई की उत्तेगजना करता है। लोभ
से, जिसे मैंने आनंद की श्रेणी में रखा है, चाहे कभी कभी और व्यक्तियों या
वस्तुओं की हानि पहुँच जाए पर जिसे जिस व्यक्ति या वस्तु का लोभ होगा, उसकी
हानि वह कभी न करेगा। लोभी महमूद ने सोमनाथ को तोड़ा, पर भीतर से जो जवाहरात
निकले उनको खूब सँभालकर रखा। नूरजहाँ के रूप में लोभी जहाँगीर ने शेर अफगन
को मरवाया, पर नूरजहाँ को बड़े चैन से रखा।
ऊपर कहा जा चुका है कि मनुष्य ज्यों ही समाज में प्रवेश करता है, उसके सुख
और दु:ख का बहुत सा अंश दूसरे की क्रिया या अवस्था पर अवलंबित हो जाता है
और उसके मनोविकारों के प्रवाह तथा जीवन के विस्तार के लिए अधिक क्षेत्र हो
जाता है। वह दूसरों के दु:ख से दु:खी और दूसरों के सुख से सुखी होने लगता
है। अब देखना यह है कि दूसरों के दु:ख से दु:खी होने का नियम जितना व्यापक
है क्या उतना ही दूसरों के सुख से सुखी होने का भी। मैं समझता हूँ, नहीं।
हम अज्ञात कुलशील मनुष्य के दु:ख को देखकर भी दु:खी होते हैं। किसी दु:खी
मनुष्य को सामने देख हम अपना दु:खी होना तब तक के लिए बंद नहीं रखते जब तक
कि यह न मालूम हो जाए कि वह कौन है, कहाँ रहता है और कैसा है; यह और बात है
कि यह जानकर कि जिसे पीड़ा पहुँच रही है उसने कोई भारी अपराध या अत्याचार
किया है, हमारी दया दूर या कम हो जाए। ऐसे अवसर पर हमारे ध्याधन के सामने
वह अपराध या अत्याचार आ जाता है और उस अपराधी या अत्याचारी का वर्तमन क्लेश
हमारे क्रोध की तुष्टि का साधक हो जाताहै।
सारांश यह है कि करुणा की प्राप्ति के लिए पात्र में दु:ख के अतिरिक्त और
किसी विशेषता की अपेक्षा नहीं। पर आनंदित हम ऐसे ही आदमी के सुख को देखकर
होते हैं जो या तो हमारा सुहृद या संबंधी हो अथवा अत्यंत सज्जन, शीलवान् या
चरित्रवान् होने के कारण समाज का मित्र या हितकारी हो। यों ही किसी अज्ञात
व्यक्ति का लाभ या कल्याण सुनने से हमारे हृदय में किसी प्रकार के आनंद का
उदय नहीं होता। इससे प्रकट है कि दूसरों के दु:ख से दु:खी होने का नियम
बहुत व्यापक है और दूसरों के सुख से सुखी होने का नियम उसकी अपेक्षा परिमित
है। इसके अतिरिक्त दूसरों को सुखी देखकर जो आनंद होता है उसका न तो कोई अलग
नाम रखा गया है और न उनमें वेग या प्रेरणा होती है। पर दूसरों के दु:ख के
परिज्ञान से जो दु:ख होता है, वह करुणा, दया आदि नामों से पुकारा जाता है
और अपने कारण को दूर करने की उत्तेुजना करता है।
जबकि अज्ञात व्यक्ति के दु:ख पर दया बराबर उत्पन्न होती है तो जिस व्यक्ति
के साथ हमारा अधिक संसर्ग होता है, जिसके गुणों से हम अच्छी तरह परिचित
रहते हैं, जिसका रूप हमें भला मालूम होता है उसके उतने ही दु:ख पर हमें
अवश्य अधिक करुणा होगी। किसी भोलीभाली सुंदरी रमणी को, किसी सच्चरित्रा
परोपकारी महात्मा को, किसी अपने भाई बंधु को दु:ख में देख, हमें अधिक
व्याकुलता होगी। करुणा की तीव्रता का सापेक्ष विधान जीवन निर्वाह की सुगमता
और कार्य विभाग की पूर्णता के उद्देश्य से समझना चाहिए।
मनुष्य की प्रकृति में शील और सात्तिवकता का आदि संस्थापक यही मनोविकार है।
मनुष्य की सज्जनता या दुर्जनता अन्य प्राणियों के साथ उसके संबंध या संसर्ग
द्वारा ही व्यक्त होती है। यदि कोई मनुष्य जन्म से ही किसी निर्जन स्थान
में अपना निर्वाह करे तो उसका कोई कर्म सज्जनता या दुर्जनता की कोटि में न
आएगा। उसके सब कर्म निर्लिप्त होंगे। संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन का
उद्देश्य दु:ख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति है। अत: सबके उद्देश्य को एक
साथ जोड़ने से संसार का उद्देश्य सुख का स्थापन और दु:ख का निराकरण हुआ। अत:
जिन कर्मों से संसार के इस उद्देश्य के साधन हों वे उत्तम हैं। प्रत्येक
प्राणी के लिए उससे भिन्न प्राणी संसार है। जिन कर्मों से दूसरे के
वास्तविक सुख का साधन और दु:ख की निवृत्ति हो वे शुभ और सात्तिवक हैं तथा
जिस अंत:करणवृत्ति से इन कर्मों में प्रवृत्ति हो वह सात्तिवक है। कृपा या
अनुग्रह से भी दूसरों के सुख की योजना की जाती है, पर एक तो कृपा अनुग्रह
में आत्मभाव छिपा रहता है और उनकी प्रेरणा से पहुँचाया हुआ सुख एक प्रकार
का प्रतिकार है। दूसरी बात यह है कि नवीन सुख की योजना की अपेक्षा प्राप्त
दु:ख की निवृत्ति की आवश्यकता अत्यंत अधिक है।
दूसरे के उपस्थित दु:ख से उत्पन्न दु:ख का अनुभव अपनी तीव्रता के कारण
मनोविकारों की श्रेणी में माना जाता है पर अपने भावी आचरण द्वारा दूसरे के
संभाव्य दु:ख का ध्या न या अनुमन, जिसके द्वारा हम ऐसी बातों से बचते हैं
जिनसे अकारण दूसरे को दु:ख पहुँचे, शील या साधारण सद्वृत्ति के अंतर्गत
समझा जाता है। बोलचाल की भाषा में तो 'शील' शब्द से चित्त की कोमलता या
मुरौवत ही का भाव समझा जाता है, जैसे-'उनकी ऑंखों में शील नहीं है', 'शील
तोड़ना अच्छा नहीं', दूसरों का दु:ख दूर करना और दूसरों को दु:ख न पहुँचाना
इन दोनों बातों का निर्वाह करनेवाला नियम न पालने का दोषी हो सकता है, पर
दु:खशीलता या दुर्भाव का नहीं। ऐसा मनुष्य झूठ बोल सकता है, पर ऐसा नहीं
जिससे किसी का कोई काम बिगड़े या जी दुखे। यदि वह किसी अवसर पर बड़ों की कोई
बात न मानेगा तो इसलिए कि वह उसे ठीक नहीं जँचती या वह उसके अनुकूल चलने
में असमर्थ है, इसलिए नहीं कि बड़ों का अकारण जी दुखे।
मेरे विचार में तो 'सदा सत्य बोलना', 'बड़ों का कहना मनना' ये नियम के
अंतर्गत हैं, शील या सद्भाव के अंतर्गत नहीं। झूठ बोलने से बहुधा बड़े बड़े
अनर्थ हो जाते हैं इसी से उसका अभ्यास रोकने के लिए यह नियम कर दिया गया कि
किसी अवस्था में झूठ बोला ही न जाए। पर मनोरंजन, खुशामद और शिष्टाचार आदि
के बहाने संसार में बहुत सा झूठ बोला जाता है जिस पर कोई समाज कुपित नहीं
होता। किसी किसी अवस्था में तो धर्मग्रंथों में झूठ बोलने की इजाजत तक दे
दी गई है, विशेषत: जब इस नियम भंग द्वारा अंत:करण की किसी उच्च और उदार
वृत्ति का साधन होता हो। यदि किसी के झूठ बोलने से कोई निरपराध और निस्सहाय
व्यक्ति अनुचित दंड से बच जाए तो ऐसा झूठ बोलना बुरा नहीं बतलाया गया है
क्योंकि नियम शील या सद्वृत्ति का साधक है, समकक्ष नहीं। मनोवेग वर्जित
सदाचार दंभ या झूठी कवायद है। मनुष्य के अंत:करण में सात्तिवकता की ज्योति
जगानेवाली यही करुणा है। इसी से जैन और बौद्धाधर्म में इसको बड़ी प्रधानता
दी गई है और गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
पर उपकार सरिस न भलाई। पर पीड़ा सम नहिं अधामाईड्ड
यह बात स्थिर और निर्विवाद है कि श्रद्धा का विषय किसी न किसी रूप में
सात्तिवक शील ही होता है। अत: करुणा और सात्तिवकता का संबंध इस बात से और
भी सिद्ध होता है कि किसी पुरुष को दूसरे पर करुणा करते देख तीसरे को करुणा
करनेवाले पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। किसी प्राणी में और किसी मनोवेग को
देख श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती। किसी को क्रोध, भय, ईर्ष्याच, घृणा, आनंद
आदि करते देख लोग उसपर श्रद्धा नहीं कर बैठते। क्रिया में तत्पर करनेवाली
प्राणियों की आदि अंत:करणवृत्ति मन का मनोवेग है। अत: इन मनोवेगों में जो
श्रद्धा का विषय हो वही सात्तिवकता का आदि संस्थापक ठहरा। दूसरी बात यह भी
ध्या न देने की है कि मनुष्य के आचरण के प्रवर्तक भाव या मनोविकार ही होते
हैं, बुद्धि नहीं। बुद्धि दो वस्तुओं के रूपों को अलग अलग दिखला देगी, यह
मनुष्य के मन के वेग या प्रवृत्ति पर है कि वह उनमें से किसी एक को चुनकर
कार्य में प्रवृत्त हो। यदि विचार कर देखा जाए तो स्मृति, अनुमन, बुद्धि
आदि अंत:करण की सारी वृत्तियाँ केवल मनोवेगों की सहायक हैं, वे भावों या
मनोवेगों के लिए उपयुक्त विषय मात्र ढूँढ़ती हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति पर
भाव को और भावना को तीव्र करनेवाले कवियों का प्रभाव प्रकट ही है।
प्रिय के वियोग से जो दु:ख होता है उसमें कभी कभी दया या करुणा का भी कुछ
अंश मिला रहता है। ऊपर कहा जा चुका है कि करुणा का विषय दूसरे का दु:ख है।
अत: प्रिय के वियोग में इस विषय की भावना किस प्रकार होती है, यह देखना है।
प्रत्यक्ष निश्चय कराता है और परोक्ष अनिश्चय में डालता है। प्रिय व्यक्ति
के सामने रहने से उसके सुख का जो निश्चय होता रहता है, वह उसके दूर होने से
अनिश्चय में परिवर्तित हो जाता है। अत: प्रिय के वियोग पर उत्पन्न करुणा का
विषय प्रिय के सुख का निश्चय है। जो करुणा हमें साधारणजनों के वास्तविक
दु:ख के परिज्ञान से होती है, वही करुणा हमें प्रियजनों के सुख के अनिश्चय
मात्र से होती है। साधारणजनों का तो हमें दु:ख असह्य होता है, पर प्रियजनों
के सुख का अनिश्चय ही। अनिश्चय बात पर सुखी या दु:खी होना ज्ञानवादियों के
निकट अज्ञान है, इसी से इस प्रकार के दु:ख या करुणा को किसी किसी प्रांतिक
भाषा में 'मोह' भी कहते हैं। सारांश यह कि प्रिय से वियोगजनित दु:ख में जो
करुणा का अंश रहता है उसका विषय प्रिय के सुख का अनिश्चय है। राम जानकी के
वन चले जाने पर कौशल्या उनके सुख के अनिश्चय पर इस प्रकार दु:खी होती हैं-
बन को निकरि गए दोउ भाई।
सावन गरजै, भादौं बरसै, पवन चलै पुरवाई।
कौन बिरिछ तर भीजत ह्नै हैं राम लखन दोउ भाई। (-गीता )
प्रेमी को यह विश्वास कभी नहीं होता कि उसके प्रिय के सुख का ध्या न जितना
वह रखता है उतना संसार में और भी कोई रख सकता है। श्रीकृष्ण गोकुल से मथुरा
चले गए जहाँ सब प्रकार का सुख वैभव था; पर यशोदा इसी सोच में मरती रहीं कि-
प्रात समय उठि माखन रोटी को बिन माँगे दैहै?
को मेरे बालक कुँवर कान्ह को छिन छिन आगे लैहै ?
और उद्धाव से कहती हैं-
संदेसो देवकी सों कहियो।
हौं तो धाय तिहारो सुत को, कृपा करत ही रहियोड्ड
उबटन, तेल और तातो जल, देखत ही भजि जाते।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम क्रम करि कै न्हातेड्ड
तुम तो टेब जानतिहि ह्नैहौ, तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल लडैतहि माखन रोटी भावैड्ड
अब यह सूर मोहि निसि बासर बड़ो रहत जिय सोच।
अब मेरे अलकलड़ैते लालन ह्नैहै करत सँकोचड्ड
वियोग की दशा में गहरे प्रेमियों को प्रिय के सुख का अनिश्चय ही नहीं,
कभीकभी घोर अनिष्ट की आशंका तक होती है, जैसे एक पति वियोगिनी संदेह करती
है-
नदी किनारे धुऑं उठत है, मैं जानूँ कुछ होय।
जिसके कारण मैं जली, वही न जलता होयड्ड
शुद्ध वियोग का दु:ख केवल प्रिय के अलग हो जाने की भावना से उत्पन्न क्षोभ
या विषाद है जिसमें प्रिय के दु:ख आदि की कोई भावना नहीं रहती।
जिस व्यक्ति से किसी की घनिष्ठता और प्रीति होती है वह उसके जीवन के बहुत
से व्यापारों तथा मनोवृत्तियों का आधार होता है। उसके जीवन का बहुत सा अंश
उसी के संबंध द्वारा व्यक्त होता है। मनुष्य अपने लिए संसार आप बनाता है।
संसार तो कहने सुनने के लिए है, वास्तव में किसी मनुष्य का संसार तो वे ही
लोग हैं जिनसे उसका संसर्ग या व्यवहार है। अत: ऐसे लोगों में से किसी का
दूर होना उसके संसार के एक प्रधान अंश का कट जाना या जीवन के एक अंग का
खंडित हो जाना है। किसी प्रिय या सुहृदय के चिरवियोग या मृत्यु के शोक के
साथ करुणा या दया का भाव मिलकर चित्त को बहुत व्याकुल करता है। किसी के
मरने पर प्राणी उसके साथ किए हुए अन्याय या कुव्यवहार तथा उसकी इच्छापूर्ति
करने में अपनी त्रुटियों का स्मरण कर और यह सोचकर कि उसकी आत्मा कोसंतुष्ट
करने की भावना सब दिन के लिए जाती रही, बहुत अधीर और विकल होते हैं।
सामाजिक जीवन की स्थिति और पुष्टि के लिए करुणा का प्रसार आवश्यक है।
समाजशास्त्र के पश्चिमी ग्रंथकार कहा करें कि समाज में एक दूसरे की सहायता
अपनी अपनी रक्षा के विचार से की जाती है; यदि ध्यासन से देखा जाय तो
कर्मक्षेत्र में परस्पर सहायता की सच्ची उत्तेीजना देनेवाली किसी न किसी
रूप में करुणा ही दिखाई देगी। मेरा यह कहना नहीं कि परस्पर की सहायता का
परिणाम प्रत्येक का कल्याण नहीं है। मेरे कहने का अभिप्राय है कि संसार में
एक दूसरे की सहायता विवेचना द्वारा निश्चित इस प्रकार के दूरस्थ परिणाम पर
दृष्टि रखकर नहीं की जाती बल्कि मन को स्वत: प्रवृत्त करनेवाली प्रेरणा से
की जाती है। दूसरे की सहायता करने से अपनी रक्षा की भी संभावना है, इस बात
या उद्देश्य का ध्यादन प्रत्येक, विशेषकर सच्चे सहायक को तो नहीं रहता। ऐसे
विस्तृत उद्देश्यों का ध्या न तो विश्वात्मा स्वयं रखती है; वह उसे
प्राणियों की बुद्धि ऐसी चंचल और मुंडे मुंडे भिन्न वस्तु के भरोसे नहीं
छोड़ती। किस युग में और किस प्रकार मनुष्यों ने समाज रक्षा के लिए एक दूसरे
की सहायता करने की गोष्ठी की होगी, यह समाजशास्त्र के बहुत से वक्ता लोग ही
जानते होंगे। यदि परस्पर सहायता की प्रवृत्ति पुरखों की उस पुरानी पंचायत
ही के कारण होती और यदि उसका उद्देश्य वहीं तक होता जहाँ तक समाजशास्त्र के
वक्ता बतलाते हैं, तो हमारी दया मोटे, मुस्टंडे और समर्थ लोगों पर जितनी
होती उतनी दीन, अशक्त और अपाहिज लोगों पर नहीं, जिनसे समाज को उतना लाभ
नहीं। पर इसका बिलकुल उलटा देखने में आता है। दु:खी व्यक्ति जितना ही असहाय
और असमर्थ होगा उतनी ही अधिक उसके प्रति हमारी करुणा होगी। एक अनाथ अबला को
मार खाते देख हमें जितनी करुणा होगी उतनी एक सिपाही या पहलवान को पिटते देख
नहीं। इससे स्पष्ट है कि परस्पर साहाय्य के जो व्यापक उद्देश्य हैं उनको
धारण करनेवाला मनुष्य का छोटा सा अंत:करण नहीं, विश्वात्माहै।
दूसरों के, विशेषतया अपने परिचितों के, थोड़े क्लेश या शोक पर जो वेगरहित
दु:ख होता है, उसे सहानुभूति कहते हैं। शिष्टाचार में इस शब्द का प्रयोग
इतना अधिक होने लगा है कि यह निकम्मा सा हो गया है। अब प्राय: इस शब्द से
हृदय का कोई सच्चा भाव नहीं। सहानुभूति के तार, सहानुभूति की चिट्ठियाँ लोग
यों ही भेजा करते हैं। यह छद्म शिष्टता मनुष्य के व्यवहार क्षेत्र से
सच्चाई के अंश को क्रमश: चरती जा रही है।
करुणा अपना बीज अपने आलंबन या पात्र में नहीं फेंकती है अर्थात् जिस पर
करुणा की जाती है वह बदले में करुणा करनेवाले पर भी करुणा नहीं करता, जैसा
कि क्रोध और प्रेम में होता है-बल्कि कृतज्ञ होता अथवा श्रद्धा या प्रीति
करता है। बहुत सी औपन्यासिक कथाओं में यह बात दिखाई गई है कि युवतियाँ
दुष्टों के हाथ से अपना उद्धार करनेवाले युवकों के प्रेम में फँस गई हैं।
कोमल भावों की योजना में दक्ष बँगला के उपन्यास लेखक करुणा और प्रीति के
मेल से बड़े ही प्रभावोत्मादक दृश्य उपस्थित करते हैं।
मनुष्य के प्रत्यक्ष ज्ञान में देश और काल की परिमित अत्यंत संकुचित होती
है। मनुष्य जिस वस्तु को जिस समय और जिस स्थान पर देखता है उसकी उसी समय और
उसी स्थान की अवस्था का अनुभव उसे होता है। पर स्मृति, अनुमन या दूसरों से
प्राप्त ज्ञान के सहारे मनुष्य का ज्ञान इस परिमिति को लाँघता हुआ अपना
देशकाल संबंधी विस्तार बढ़ाता है। प्रस्तुत विषय के संबंध में उपयुक्त भाव
प्राप्त करने के लिए यह विस्तार कभी कभी आवश्यक होता है। मनोविकारों की
उपयुक्तता कभी कभी इस विस्तार पर निर्भर रहती है। किसी मार खाते हुए अपराधी
के विलाप पर हमें दया आती है, पर जब हम सुनते हैं कि कई बार वह बड़े बड़े
अपराध कर चुका है, इससे आगे भी ऐसे ही अत्याचार करेगा, तो हमें अपनी दया की
अनुपयुक्तता मालूम हो जाती है। ऊपर कहा जा चुका है कि स्मृति और अनुमन आदि
भावों या मनोविकारों के केवल सहायक हैं अर्थात् प्रकारांतर से वे उनके लिए
विषय उपस्थित करते हैं। वे कभी तो आप से आप विषयों को मन के सामने लाते
हैं, कभी किसी विषय के सामने आने पर उससे संबंध (पूर्वापर व कार्यकारण
संबंध) रखनेवाले और बहुत से विषय उपस्थित करते हैं जो कभी तो सब के सब एक
ही भाव के विषय होते हैं और उस प्रत्यक्ष विषय से उत्पन्न भाव को तीव्र
करते हैं; कभी भिन्न भिन्न भावों के विषय से उत्पन्न भावों को परिवर्तित या
धीमा करते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मनोवेग या भावों को मंद या दूर
करनेवाली, स्मृति, अनुमनया बुद्धि आदि कोई दूसरी अंत:करणवृत्ति नहीं है, मन
का दूसरा भाव या वेग हीहै।
मनुष्य की सजीवता मनोवेग या प्रवृत्ति में, भावों की तत्परता में है।
नीतिज्ञों और धार्मिकों का मनोविकारों को दूर करने का उपदेश घोर पाखंड है।
इस विषय में कवियों का प्रयत्न ही सच्चा है जो मनोविकारों पर सान ही नहीं
चढ़ाते बल्कि उन्हें परिमार्जित करते हुए सृष्टि के पदार्थों के साथ उनके
उपयुक्त संबंध निर्वाह पर जोर देते हैं। यदि मनोवेग न हो तो स्मृति, अनुमन,
बुद्धि आदि के रहते भी मनुष्य बिलकुल जड़ है। प्रचलित सभ्यता और जीवन की
कठिनता से मनुष्य अपने इन मनोवेगों के मारने और अशक्त करने पर विवश होता
जाता है और इस प्रकार उसके जीवन का स्वाद निकलता जाता है। वन, नदी, पर्वत
आदि को देख आनंदित होने के लिए अब उसके हृदय में उतनी जगह नहीं। दुराचार पर
उसे क्रोध या घृणा होती है पर झूठे शिष्टाचार के अनुसार उसे दुराचारी की
मुँह पर प्रशंसा करनी पड़ती है। जीवन निर्वाह की कठनिता से उत्पन्न स्वार्थ
की शुष्क प्रेरणा के कारण उसे दूसरे के दु:ख की ओर ध्याझन देने, उसपर दया
करने और उसके दु:ख की निवृत्ति का सुख प्राप्त करने की फुरसत नहीं। इस
प्रकार मनुष्य हृदय को दबाकर केवल क्रूर आवश्यकता और कृत्रिम नियमों के
अनुसार ही चलने पर विवश और कठपुतली सा जड़ होता जाता है। उसकी भावुकता का
नाश होता जाता है। पाखंडी लोग मनोवेगों का सच्चा निर्वाह न देख, हताश हो
मुँह बनाकर कहने लगे हैं-''करुणा छोड़ो, प्रेम छोड़ो, आनंद छोड़ो। बस, हाथ पैर
हिलाओ, काम करो।''
यह ठीक है कि मनोवेग उत्पन्न होना और बात है और मनोवेग के अनुसार व्यवहार
करना और बात; पर अनुसारी परिणाम के निरंतर अभाव से मनोवेगों का अभ्यास भी
घटने लगता है। यदि कोई मनुष्य आवश्यकतावश कोई निष्ठुर कार्य अपने ऊपर ले ले
तो पहले दो चार बार उसे दया उत्पन्न होगी; पर जब बार बार दया की प्रेरणा के
अनुसार कोई परिणाम वह उपस्थित न कर सकेगा तब धीरे धीरे उसका दया का अभ्यास
कम होने लगेगा यहाँ तक कि उसकी दया की वृत्ति ही मारी जाएगी।
बहुत से ऐसे अवसर आ पड़ते हैं जिनमें करुणा आदि मनोवेगों के अनुसार
कामनहींकिया जा सकता। पर ऐसे अवसरों की संख्या का बहुत बढ़ना ठीक नहींहै।
जीवन में मनोवेगों के अनुसार परिणामों का विरोध प्राय: तीन वस्तुओं से
होताहै-
1. आवश्यकता, 2. नियम, और 3. न्याय। हमारा कोई नौकर बहुत बुङ्ढा और कार्य
करने में अशक्त हो गया है जिससे हमारे काम में हर्ज होता है। हमें उसकी
अवस्था पर दया तो आती है पर आवश्यकता के अनुरोध से उसे अलग करना पड़ता है।
किसी दुष्ट अफसर के कुवाक्य पर क्रोध तो आता है पर मातहत लोग आवश्यकता के
वश उस क्रोध के अनुसार कार्य करने की कौन कहे, उसका चिद्द तक नहीं प्रकट
होने देते। यदि कहीं पर यह नियम है कि इतना रुपया देकर लोग कोई कार्य करने
पाएँ तो जो व्यक्ति रुपया वसूल करने पर नियुक्त होगा वह किसी ऐसे दीन
अकिंचन को देख जिसके पास एक पैसा भी न होगा, दया तो करेगा पर नियम के
वशीभूत हो उसे वह उस कार्य को करने से रोकेगा। राजा हरिश्चंद्र ने अपनी
रानी शैव्या से अपने ही मृत पुत्रा के कफन का टुकड़ा फड़वा नियम का अद्भुत
पालन किया था। पर यह समझ रखना चाहिए कि यदि शैव्या के स्थान पर कोई दूसरी
स्त्रीं होती तो राजा हरिश्चंद्र के उस नियम पालन का उतना महत्तव न दिखाई
पड़ता; करुणा ही लोगों की श्रद्धा को अपनी ओर अधिक खींचती है। करुणा का विषय
दूसरे का दु:ख है, अपना दु:ख नहीं। आत्मीय जनों का दु:ख एक प्रकार से अपना
ही दु:ख है। इससे राजा हरिश्चंद्र के नियम पालन का जितना स्वार्थ से विरोध
था उतना करुणा से नहीं।
न्याय और करुणा का विरोध प्राय: सुनने में आता है। न्याय से ठीक प्रतिकार
का भाव समझा जाता है। यदि किसी ने हमसे 1000 रु. उधार लिए तो न्याय यह है
कि वह हमें 1000 रु. लौटा दे। यदि किसी ने कोई अपराध किया तो न्याय यह है
कि उसको दंड मिले। यदि 1000 रु. लेने के उपरांत उस व्यक्ति पर कोई आपत्ति
पड़ी और उसकी दशा अत्यंत सोचनीय हो गई तो न्याय पाने के विचार का विरोध
करुणा कर सकती है। इसी प्रकार यदि अपराधी मनुष्य बहुत रोता, गिड़गिड़ाता और
कान पकड़ता है तथा पूर्ण दंड की अवस्था में अपने परिवार की घोर दुर्दशा का
वर्णन करता है, तो न्याय के पूर्ण निर्वाह का विरोध करुणा कर सकती है। ऐसी
अवस्थाओं में करुणा करने का सारा अधिकार विपक्षी अर्थात् जिसका रुपया चाहिए
या जिसका अपराध किया गया है उसको है, न्यायकर्तव्यी या तीसरे व्यक्ति को
नहीं। जिसने अपनी कमाई के 1000 रु. अलग किए या अपराध द्वारा जो क्षतिग्रस्त
हुआ विश्वात्मा उसी के हाथ में करुणा ऐसी उच्च सद्वृत्ति के पालन का शुभ
अवसर देती है। करुणा सेंत का सौदा नहीं है। यदि न्यायकर्तव्य् को करुणा है
तो वह उसकी शांति पृथक् रूप से कर सकता है, जैसे ऊपर लिखे मामले में वह
चाहे तो दुखिया ऋणी को हजार पाँच सौ अपने पास से दे दे या दंडित व्यक्ति
तथा उसके परिवार की और प्रकार से सहायता कर दे। उसके लिए भी करुणा का द्वार
खुला है।
[चिन्तामणि, भाग-1]
लज्जा और
ग्लानि
हम जिन लोगों के बीच रहते हैं अपने विषय में उनकी धारणा का जितना ही अधिक
ध्यान रखते हैं उतना ही अधिक प्रतिबंध अपने आचरण पर रखते हैं। जो हमारी
बुराई, मूर्खता या तुच्छता के प्रमाण पा चुके रहते हैं, उनके सामने हम उसी
धड़ाके के साथ नहीं जाते जिस धड़ाके के साथ औरों के सामने जाते हैं। यहीं
तक नहीं, जिन्हें इस प्रकार का प्रमाण नहीं भी मिला रहता है, उनके आगे भी
कोई काम करते हुए यह सोचकर कुछ आगापीछा होता है कि कहीं इस प्रकार का
प्रमाण उन्हें मिल न रहा हो। दूसरों के चित्त में अपने विषय में बुरी या
तुच्छ धारणा होने के निश्चय या आशंका मात्र से वृत्तियों का जो संकोच होता
है-उनकी स्वच्छंदता के विघात का जो अनुभव होता है-उसे लज्जा कहते हैं। इस
मनोवेग के मारे लोग सिर ऊँचा नहीं करते, मुँह नहीं दिखाते, सामने नहीं आते,
साफ साफ कहते नहीं, और भी न जाने क्या क्या नहीं करते। 'हम बुरे न समझे
जाएँ' यह स्थायी भावना जिसमें जितनी ही अधिक होगी, वह उतना ही लज्जाशील
होगा। 'कोई बुरा कहे चाहे भला' इसकी परवा करके जो काम किया करते हैं वे ही
निर्लज्ज कहलातेहैं।
जिस समाज में हम कोई बुराई करते हैं, जिस समाज में हम अपनी मूर्खता,
धृष्टयता आदि का प्रमाण दे चुके रहते हैं, उसके अंग होने का स्वत्व हम जता
नहीं सकते, अत: उसके सामने अपनी सजीवता के लक्षणों को उपस्थित करते या रखते
नहीं बनता-यह प्रकट करते नहीं बनता कि हम भी इस संसार में हैं। जिसके साथ
हमने कोई बुराई की होती है उसे देखते ही हमारी क्या दशा होती है? हमारी
चेष्टाएँ मंद पड़ जाती हैं। हमारे ऊपर घड़ों पानी पड़ जाता है, हम गड़ जाते हैं
या चाहते हैं कि धरती फट जाती और हम उसमें समा जाते। सारांश यह कि यदि हम
कुछ देर के लिए मर नहीं जाते तो कम से कम अपने जीने के प्रमाण अवश्य समेट
लेतेहैं।
ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि लज्जा का कारण अपनी
बुराई, त्रुटि या दोष हमारा अपना निश्चय नहीं, दूसरे के निश्चय का निश्चय
या अनुमन है, जो हम बिना किसी प्रकार का प्रमाण पाए केवल अपने आचरण या
परिस्थिति विशेष पर दृष्टि रखकर ही कभी कभी कर लिया करते हैं। हम अपने को
दोषी समझें यह आवश्यक नहीं; दूसरे हमें दोषी या बुरा समझें यह भी आवश्यक
नहीं, आवश्यक है हमारा यह समझना कि दूसरा हमें दोषी या बुरा समझता है या
समझता होगा। जो आचरण लोगों को बुरा लगा करता है, जिस अवस्था का लोग उपहास
किया करते हैं, जिस बात से लोग घृणा किया करते हैं यदि हम समझते हैं कि
लज्जित होने के लिए लोगों के देखने में वह आचरण हमसे हो गया, उस अवस्था में
हम पड़ गए या वह बात हमसे बन पड़ी, तो हम लज्जित होने के लिए इसका आसरा न
देखेंगे कि जिन लोगों के सामने ऐसी बात हुई है वे निंदा करें, उपहास करें
या छि: छि: करें। वे निंदा करें या न करें, उपहास करें या न करें, घृणा
प्रकट करें या न करें, पर हम समझते हैं कि मधुशाला उनके पास है, वे उसका
उपयोग करें या न करें। यह अवश्य है कि उपयोग होने पर हमारी लज्जा का वेग या
भार बहुत बढ़ जाता है, पर कभी कभी इसका उलटा भी होता है। जिसके साथ हमने कोई
भारी बुराई की होती है वह यदि दस आदमियों के सामने मिलने पर मौन रहे, हमारा
गुणानुवाद करने लगे, हमसे प्रेम जताने लगे या हमारा उपकार करने लगे, तो
शायद हम अपने डूबने के लिए चुल्लू भर पानी ढूँढ़ने लगेंगे। वन से लौटने पर
रामचंद्र कैकेयी से मिले और ''रामहिं मिलत कैकेयी हृदय बहुत सकुचानि।'' पर
जब लक्ष्मण ''कैकेयी कहँ पुनि पुनि मिले'' तो वह लज्जा से धंस गई होगी।
चित्रकूट में जब राम पहले कैकेयी से मिले होंगे तब उसकी क्या दशा हुई होगी?
निंदा का भय लज्जा नहीं है, भय ही है और कई बातों का, जिसमें लज्जा भी एक
है। हमें निंदा का भय है; इसका मतलब है कि हमें उसके परिणामों का भय
है-अपने कुढ़ने, दु:खी होने, लज्जित होने, हानि सहने इत्यादि का भय है।
विशुद्ध लज्जा अपने विषय में दूसरे की ही भावना पर दृष्टि रखने से होती है।
अपनी बुराई, मूर्खता, तुच्छता इत्यादि का एकांत अनुभव करने से वृत्तियों
में जो शैथिल्य आता है, उसे 'ग्लानि' कहते हैं। इसे अधिकतर उन लोगों को
भोगना पड़ता है जिनका अंत:करण सत्व प्रधन होता है, जिनके संस्कार सात्तिवक
होते हैं, जिनके भाव कोमल और उदार होते हैं, जिनका हृदय कठोर होता है,
जिनकी वृत्ति क्रूर होती है, जो सिर से पैर तक स्वार्थ में निमग्न होते
हैं, उन्हें सहने के लिए संसार में इतनी बाधाएँ, इतनी कठिनाइयाँ, इतने कष्ट
होते हैं कि ऊपर से और इसकी भी न उतनी जरूरत रहती है, न जगह। मन में ग्लानि
आने के लिए यह आवश्यक नहीं कि जो हमारी बुराई, मूर्खता, तुच्छता आदि से
परिचित हों, या परिचित समझे जाते हों, उनका सामना हो। हम अपना मुँह न
दिखाकर लज्जा से बच सकते हैं, पर ग्लानि से नहीं। कोठरी में बंद, चारपाई पर
पड़े पड़े लिहाफ के नीचे भी लोग ग्लानि से गल सकते हैं। चित्रकूट में भरत राम
के मिलाप के स्थान पर जब जनक के आने का समाचार पहुँचा तब ''सुनत जनक आगमन
सब हरखेउ अवधा समाज।'' पर ''गरइ गलानि कुटिल कैकेयी।''
ग्लानि में अपनी बुराई, तुच्छता आदि के अनुभव से जो संताप होता है वह अकेले
में भी होता है और दस आदमियों के सामने प्रकट भी किया जाता है। ग्लानि
अंत:करण की शुद्धि का एक विधन है। उससे इसके उद्गार में अपने दोष, अपराध,
तुच्छता बुराई इत्यादि का लोग दु:ख से या सुख से कथन भी करते हैं-उनमें
दुराव या छिपाव की प्रवृत्ति नहीं रहती है। अपने दोष का अनुभव, अपने अपराध
का स्वीकार, आंतरिक अस्वस्थता का उपचार तथा सच्चे सुधार का द्वार है। 'हम
बुरे हैं' जब तक यह न समझेंगे तब तक अच्छे नहीं हो सकते। 'हम बुरे हैं'
दूसरों के कान में पड़ते ही इसका अर्थ उलट जाता है।
दूसरों को हम अच्छे नहीं लगते, यह समझकर हम लज्जित होते हैं। अत: औरों को
अच्छी न लगनेवाली अपनी बातों को केवल उनकी दृष्टि से दूर रखकर ही बहुत से
लोग न लज्जित होते हैं, न निर्लज्ज कहलाते हैं। दूसरों के हृदय में अज्ञान
की प्रतिष्ठा करके वे उसकी शरण में जाते हैं। पर अज्ञान, चाहे अपना हो चाहे
पराया, सब दिन रक्षा नहीं कर सकता। बलि पशु होकर ही हम उसके आश्रय में पलते
हैं। जीवन के किसी अंग की यदि वह रक्षा करता है तो सर्वांग भक्षण के लिए।
अज्ञान अंधकार स्वरूप है। दीया बुझाकर भागनेवाला यदि समझता है कि दूसरे उसे
देख नहीं सकते, तो उसे यह भी समझ रखना चाहिए कि वह ठोकर खाकर गिर भी सकता
है।
कोई बात ऐसी है जिसके प्रकट हो जाने के कारण हम दूसरों को अच्छे नहीं लगते
हैं। यह जानकर अपने को और प्रकट होने पर अच्छे नहीं लगेंगे, यह समझकर उस
बात को, थोड़े बहुत यत्न से उसके दृष्टिपथ से दूर करके भी जब हम समय पर अपना
बचाव कर सकते हैं, यही नहीं, अपने व्यवधन कौशल पर विश्वास कर सदा बचते चले
जाने की आशा तक-चाहे झूठी ही क्यों न हो-कर सकते हैं, तब हमारा केवल यह
जानना या समझना सदा सुधार की इच्छा ही उत्पन्न करेगा, कैसे कहा जा सकता है?
दूसरों का भय हमें भगा सकता है, हमारी बुराइयों को नहीं। दूसरों से हम भाग
सकते हैं, पर अपने से नहीं। जब अपने को हम अच्छे न लगेंगे तब सिवा इसके कि
हम अच्छे हों या अच्छे होने की आशा करें, आत्मग्लानि से बचने का और कोई
दूसरा उपाय न रहेगा। पर जिनके अंत:करण में अच्छे संस्कारों का बीज रहता है,
ग्लानि उन्हीं को होती है।
संकल्प या प्रवृत्ति हो जाने पर बुराई से बचानेवाले तीन मनोविकार
हैं-सात्तिवक वृत्तिवालों के लिए ग्लानि, राजसी वृत्तिवालों के लिए लज्जा
और तामसी वृत्तिवालों के लिए भय। जिन्हें अपने किए पर ग्लानि नहीं हो सकती
वे लोक लज्जा से, जिनमें लोक लज्जा का लेश नहीं रहता वे भय से, बहुत से
कामों को करते हुए हिचकते हैं। प्राय: कहा जाता है कि बहुत से लोग इच्छा
रखते हुए भी बुरे काम लज्जा के मारे नहीं करते। पर लज्जा का अनुभव एक
प्रकार के दु:ख का ही अनुभव है, अत: यह नहीं कहा जा सकता है कि कर्म न करने
पर भी अपनी इच्छा मात्र पर उन्हें यह दु:ख होता है; क्योंकि यदि ऐसा होता
तो वे इच्छा रखते ही क्यों? सच पूछिए तो उन्हें उस दु:ख की आशंका मात्र
रहती है जो लोगों के धिक्कार, बुरी धारणा आदि से उन्हें होगा। वास्तव में
उन्हें लज्जा की आशंका रहती है, इस बात का डर रहता है कि कहीं लज्जित न
होना पड़े। लज्जा का अनुभव तो तभी होगा जब वे कुकर्म की ओर इतने अग्रसर हो
चुके रहेंगे कि यह समझ सकें कि लोगों के मन में बुरी धारणा हो गई होगी। उस
समय उनका पैर आगे नहीं बढ़ेगा।
आशंका अनिश्चयात्मक वृत्ति है। इससे लज्जा ही हो सकती है; जिसका संबंध
दूसरों की धारणा से होता है। ग्लानि की आशंका नहीं हो सकती। क्योंकि उसका
संबंध अपने से कहीं बाहर की बुरी धारणा से तो होता नहीं, अपनी ही बुरी
धारणा से होता है जिसमें अनिश्चय का भाव नहीं रह सकता। जिससे बुराई की
जितनी ही अधिकतम संभावना होती है उसे रोकने का उतने ही पहले से उपाय किया
जाता है। जिन्हें अपने किए पर ग्लानि हो सकती है उनके लिए उतने पहले से
प्रतिबंध की आवश्यकता नहीं होती जितने पहले से उनके लिए होती है, जो केवल
यही समझकर दु:खी होते हैं कि 'लोग बुरा समझते हैं' यह समझकर नहीं कि 'हम
बुरे हैं'। जो निपट निर्लज्ज होते हैं, दूसरों की बुरी धारणा की भी तब तक
परवा नहीं करते जब तब उससे किसी उग्र फल की आशंका नहीं होती, उनके कर्म
प्राय: इतने बुरे, इतने असह्य हुआ करते हैं कि दूसरे उन्हें बुरा समझकर ही
नहीं रह जाते, छि: छि: करके ही संतोष नहीं कर लेते, बल्कि मरम्मत करने के
लिए भी तैयार हो जाते हैं, जिससे उन्हें कभी भयभीत होना पड़ता है, कभी सशंक।
मनुष्य लोकबद्धा प्राणी है, इससे वह अपने को उनके कर्मों के गुण दोष का भी
भागी समझता है जिनसे उनका संबंध होता है, जिनके साथ में वह देखा जाता है।
पुत्रा की अयोग्यता और दुराचार, भाई के दुर्गुण और असभ्य व्यवहार आदि का
ध्यारन करके भी दस आदमियों के सामने सिर नीचा होता है। यदि हमारा साथी
हमारे सामने किसी तीसरे आदमी से बातचीत करने में भारी मूर्खता का प्रमाण
देता है, भद्दी और ग्राम्य भाषा का प्रयोग करता है, तो हमें भी लज्जा आती
है। मैंने कुत्तो के कई शौकीनों को अपने कुत्तो की बदतमीजी पर शरमाते देखा
है। जिसे लोग कुमार्गी जानते हैं, उसके साथ यदि हम कभी देवमंदिर के मार्ग
पर भी देखे जाते हैं तो सिर झुका लेते हैं या बगलें झाँकते हैं। बात यह है
कि जिसके साथ हम देखे जाते हैं, उसका हमारा कितनी बातों में कहाँ तक साथ
है, दूसरों को इसके अनुमन की पूरी स्वच्छंदता रहती है, उनकी कल्पना की कोई
सीमा हम तत्काल बाँधा नहीं सकते।
किसी बुरे प्रसंग में यदि निमित्त रूप से भी हमारा नाम आ जाता है तो हमें
लज्जा होती है-चाहे ऐसा हमारी जानकारी में हुआ हो, चाहे अनजान में। यदि
बिना हमें जताए हमारे पक्ष में कोई कुचक्र रचा जाए तो उसका वृत्तांत फैलने
पर हमें लज्जा क्या ग्लानि तक हो सकती है। लज्जा का होना तो ठीक है क्योंकि
वह दूसरों की धारणा के कारण होती है, अपनी धारणा के कारण नहीं। पर ग्लानि
कैसे होती है, 'हम बुरे या तुच्छ हैं', यह धारणा कहाँ से आती है, यही देखना
है। अपमन होने पर यदि क्रोध के लिए स्थान हुआ तो क्रोध का, नहीं तो अपनी
तुच्छता का अनुभव होता है। दूसरों के चित्त में हमारे प्रति जो प्रेम या
प्रतिष्ठा का भाव रहता है, उसका हास किसी कुचक्र के साथ अपना नाम मात्र का
संबंध समझकर भी, हम समझे बिना नहीं रह सकते। जब स्थिति ऐसी होती है कि इस
हास का न समाधन द्वारा निराकरण कर सकते हैं, न क्रोध द्वारा प्रतिकार तो,
सिवा इसके कि हम अपनी हीनता का अनुभव करें, और कर ही क्या सकते हैं? भरत को
इसी दशा में पाकर राम ने उन्हें समझाया था कि-
तात जायँ जनि करहु गलानी । ईस अधीन जीव गति जानीड्ड
तीनि काल त्रिभुवन मत मोरे । पुन्यसिलोक तात तर तोरेड्ड
उर आनत तुम पर कुटिलाई । जाइ लोक परलोक नसाईड्ड
जिसने इतनी बुराई की वह मेरी माता है, इस भावना से जो लज्जा भरत की थी उसे
दूर करने के लिए ही आगे का वचन है-
दोसु देहिं जननिहिं जड़ तेई।जिन्ह गुरु साधु सभा नहिं सेईड्ड
इस प्रकार दोष देनेवाले से दोषोद्भावना द्वारा अनधिकार का आरोप करके माता
के दोष का परिहार किया गया है।
उत्तम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म पर ग्लानि होती है और मध्यमम कोटि
के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म के किसी कड़घए फल पर। दुष्कर्म के अनेक अप्रिय
फलों में से एक अपमन है, जिसे सहकर अपनी तुच्छता का अनुभव किए बिना लोग
प्राय: नहीं रहते। जिन्हें अपने किसी कर्म की बुराई का ध्याछन अपने आप नहीं
होता उन्हें ध्या न कराने का श्रम उसकी बुराई का विशेष अनुभव करनेवाले,
अपनी बुराई का सब ध्यायन, अपने हाथ का सब धंधा छोड़कर उठाते हैं। इस श्रम से
दूसरों के लिए उनकी बुराई का फल पैदा किया जाता है। उसकी नीरसता और कटुता
कभी कभी अत्यंत ग्लानिकारिणी होती है पर ऑंख खुलने पर जो ऑंख खोलनेवालों को
देख सकें, उनकी ऑंख की दुरुस्ती में बहुत कसर समझनी चाहिए। अपमन या हानि की
ही ग्लानि जो उस अपमन या हानि ही तक ध्याऔन को ले जाए-उसके कारण तक न
बढ़ाए-वह बुराई के मार्ग पर चल चुकनेवालों का थोड़ी देर के लिए पैर थाम या बल
तोड़ सकती है, पर उसका मुँह दूसरी ओर मोड़ नहीं सकती। अपमन का जो दु:ख केवल
इन शब्दों में व्यक्त किया जाता है कि 'हा! हमारी यह गति हुई?' उससे अपमन
करनेवालों का काम तो हो जाता है पर दु:ख करनेवालों का कोई मतलब नहीं
निकलता। जो ग्लानि हमसे यह कहलाए कि 'यदि हमने ऐसा न किया होता तो हमारी यह
गति क्यों होती?' यही पश्चािताप की ग्लानि है जिससे हमारा हृदय पिघलकर किसी
नए साँचे में ढलने के योग्य हो सकता है। अत: कोई ऐसी बुराई करके जिससे चार
आदमियों को कष्ट पहुँचा हो, हम यह समझने में कि 'हमने बुरा किया' जितनी ही
जल्दी करते हैं उतने ही मजे से रहते हैं क्योंकि बहुधा ऐसा है कि जिन्हें
कष्ट पहुँचा रहता है वे हमारी इस समझ का पता पाकर संतुष्ट हो जाते हैं।
अपनी किसी बुराई को बंधया मनकर मन का खटका छुड़ानेवाले धोखा खातेहैं।
अपमन से जो ग्लानि होती है वह दो भावों के आधार पर-'हम ऐसे तुच्छ हैं' और
'हम ऐसे बुरे हैं'-इन दोनों भावों को कभी कभी लोग बड़ी फुरती और सफाई से
रोकते हैं। अपनी तुच्छता का भाव अधिकांश में अपनी असामर्थ्य और दूसरे के
सामर्थ्य का भाव है। हम इतने असमर्थ हैं कि दूसरे हमारा अपमन कर सकते हैं,
इस भाव से निवृत्ति तो लोग चट अपनी सामर्थ्य का परिचय देकर-अपमन करनेवाले
का अपमन करके-कर लेते हैं। रहा अपने दोष या बुराई का भाव, उससे छुटकारा लोग
दोष देनेवालों में दोष ढूँढ़कर कर लेते हैं। इस प्रकार अपनी सामर्थ्य और
दूसरे के दोष की भावना मन में भरकर वे अपनी तुच्छता और बुराई के अनुभव के
लिए कोई कोना खाली ही नहीं छोड़ते। ऐसे लोग चाहे लाख बुराई करें, एक की दस
सुनाने को सदा तैयार रहते हैं। अपने को ऐसा ही कल्पित करके तुलसीदासजी कहते
हैं-
जानत हूँ निज पाप जलधि जिय, जल सीकर सम सुनत लरौंड्ड
रज सम पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि सम रज ते निदरौंड्ड
अकारण अपमन पर जो ग्लानि होती है वह अपनी तुच्छता, अपनी सामर्थ्यहीनता पर
ही होती है। लोक मर्यादा की दृष्टि से हमको इतना सामर्थ्य संपादन करना
चाहिए कि दूसरे अकारण हमारा अपमन करने का साहस न कर सकें। समाज में रहकर मन
मर्यादा का भाव हम छोड़ नहीं सकते। अत: इस सामर्थ्य का अभाव हमें खटक सकता
है। उसकी हमें ग्लानि हो सकती है। जो संसारत्यागी या आत्मत्यागी है उनका
विगतमन होना तो बहुत ठीक है, पर लोकव्यवहार की दृष्टि से अनिष्ट से बचने
बचाने के लिए इष्ट यही है कि हम दुष्टों का हाथ थामें और धृष्टों का
मुँह-उनकी वंदना करके हम पार नहीं पा सकते हैं। इधर हम हाथ जोड़ेंगे, उधर वे
हाथ छोड़ेंगे। असामर्थ्य हमें क्षमा या सहनशीलता का श्रेय भी पूरा पूरा नहीं
प्राप्त करने देगी।
मन लीजिए कि एक ओर से हमारे गुरुजी और दूसरी ओर से एक दंडधारी दुष्ट, दोनों
आते दिखाई पड़ें। ऐसी अवस्था में पहले हमें उस दुष्ट का सत्कार करके तब
गुरुजी को दंडवत् करना चाहिए। पहले उस दुष्ट द्वारा होनेवाले अनिष्ट का
निवारण कर्तव्या है, फिर उस आनंद का अनुभव जो गुरुजी के चरण स्पर्श से
होगा। यदि हम पहले गुरुजी को साष्टांग दंडवत् करने लगेंगे तो बहुत संभव है
कि वह दुष्ट हमारे अंगों को फिर उठाने लायक ही न रखे। यदि हममें सामर्थ्य
नहीं है तो हमें बिना गुरुजी को प्रणाम दंडवत् किए ही भागना पड़ेगा जिसकी
शायद हमें बहुत दिनों तक ग्लानि रहे।
लज्जा का हल्का रूप संकोच है जो किसी काम को करने के पहले ही होता है। कर्म
पूरा होने के साथ ही उसका अवसर निकल जाता है; फिर तो लज्जा ही लज्जा हाथ रह
जाती है। सामान्य से सामान्य व्यवहार में भी संकोच देखा जाता है। लोग अपना
रुपया माँगने में संकोच करते हैं, साफ साफ बात कहने में संकोच करते हैं,
उठने बैठने में संकोच करते हैं। लेटने में संकोच करते हैं, खाने पीने में
संकोच करते हैं यहाँ तक कि एक सभा के सहायकमंत्री हैं जो कार्य विवरण पढ़ने
में संकोच करते हैं, सारांश यह कि एक बेवकूफी करने में लोग संकोच नहीं करते
और सब बातों में करते हैं। इससे उतना हर्ज भी नहीं क्योंकि बिना बेवकूफ हुए
बेवकूफी का बुरा लोग प्राय: नहीं मनते। इतनी क्रियाओं का प्रतिबंधक होने के
कारण संकोच शील का एक प्रधन अंग, सदाचार का एक सहज साधन और शिष्टाचार का
एकमात्र आधार है। जिनमें शील संकोच नहीं, वह पूरा मनुष्य नहीं। बाहरी
प्रतिबंधों से ही हमारा पूरा शासन नहीं हो सकता-उन सब बातों की रुकावट नहीं
हो सकती जिन्हें हमें न करना चाहिए। प्रतिबंध हमारे अंत:करण में होना
चाहिए। यह आभ्यंतर प्रतिबंध दो प्रकार का हो सकता है-एक विवेचनात्मक जो
प्रयत्नसाध्यह होता है, दूसरा मनप्रवृत्यात्मक जो स्वभावज होता है। बुद्धि
द्वारा प्रवृत्ति जबरदस्ती रोकी जाती है, पर लज्जा, संकोच आदि की अवस्था
में प्राप्त होकर प्रवर्तक मन आप से आप रुकता है, चेष्टाएँ आप से आप शिथिल
पड़ती हैं, यही रुकावट सच्ची है। मन की जो वृत्ति बड़ों की बात का उत्तर देने
से रोकती है, बार बार किसी से कुछ माँगने से रोकती है, किसी पर किसी प्रकार
का भार डालने से रोकती है, उसके न रहने से भलमनसाहत भला कहाँ रहेगी? यदि
सबकी धड़क एकबारगी खुल जाय तो एक ओर छोटे मुँह से बड़ी बड़ी बातें निकलने
लगें, चार दिन के मेहमन तरह तरह की फरमाइशें करने लगें, उँगली का सहारा
पानेवाले बाँह पकड़कर खींचने लगें; दूसरी ओर बड़ों का बहुत कुछ बड़प्पन निकल
जाए, गहरे गहरे साथी बहरे हो जाएँ या सूखा जवाब देने लगें; जो हाथ सहारा
देने के लिए बढ़ते हैं वे ढकेलने के लिए बढ़ने लगें-फिर तो भलमनसाहत का भार
उठानेवाले इतने कम रह जाएँ कि उसे लेकर चल ही न सकें।
संकोच इस बात के ध्यारन या आशंका से होता है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं
वह किसी को अप्रिय या बेढंगा तो न लगेगा, उससे हमारी दु:शीलता या धृष्टाता
तो न प्रकट होगी। इस बात का जिन्हें कुछ भी ध्याहन नहीं रहता उनका दस
आदमियों का साथ नहीं निभ सकता और जिन्हें अत्यंत अधिक ध्या न रहता है उनके
भी कामों में बाधा पड़ती है। मनोभावों की परस्पर अनुकूल स्थिति होने से ही
संसार के व्यवहार चलते हैं। यदि एक इस बात का ध्याअन रखता है कि दूसरे को
कोई बात खटके न, बुरी न लगे और दूसरा उसकी हानि, कठिनाई आदि का कुछ भी
ध्याकन नहीं रखता है तो वह स्थिति व्यवहारबाधक है। ऐसी स्थिति में भी संकोच
करनेवालों के काम देर से निकलते हैं या निकलते ही नहीं। पर इससे यह न समझना
चाहिए कि जितने 'अपने संकोची स्वभाव' की शिकायत के बहाने अपनी तारीफ किया
करते हैं वे सब अपनी भलमनसाहत से ही दु:ख भोग करते हैं। ऐसे लोगों में
संकोच का तो नाममात्र न समझना चाहिए। जिन्हें यह कहने में संकोच नहीं कि
'हम बड़े संकोची हैं' उनमें संकोच कहाँ? उन्हें यह कहते देर नहीं कि अमुक
बड़ा निर्लज्ज है, बड़ा दुष्ट है'।
लज्जा या संकोच यदि बहुत अधिक होता है तो उसे छुड़ाने की फिक्र की जाती है
क्योंकि उससे कभी कभी आवश्यकता से अधिक कष्ट उठाना पड़ता है तथा व्यवहार तो
व्यवहार, शिष्टाचार तक का निर्वाह कठिन हो जाता है। सुख से रहने का सीधा
रास्ता बतलानेवाले ने तो 'आहार और व्यवहार' में लज्जा का एकदम त्याग ही
विधोय ठहराया है। पर मुझे तो यहाँ यह देखना है कि बात बात में लज्जा
करनेवालों की मनोवृत्ति कैसी होती है, उनके चित्त में समायी क्या रहती है।
कोई क्रिया या व्यापार किसी को बुरा, बेढंगा या अप्रिय न लगे यह ध्यान तो
निर्दिष्ट और स्पष्ट होने के कारण कुछ विशिष्ट व्यापारों का ही अवरोध करता
है क्योंकि जो जो काम लोगों को बुरे, बेढंगे या अप्रिय लगा करते हैं, उनकी
एक छोटी या बड़ी सूची सबके अनुभव में रहती है। पर जो यही अनिश्चित भावना
रखकर संकुचित होते हैं कि कोई बात 'लोगों को न जाने कैसी लगे' उन्हें न
जाने कितनी बातों में संकोच या लज्जा हुआ करती है। उन्हें बात बात में खटका
होता है कि उनका बैठना न जाने कैसा मालूम होता हो, बोलना न जाने कैसा मालूम
होता हो, हाथ पैर हिलाना न जाने कैसा मालूम होता हो, ताकना न जाने कैसा
मालूम होता हो, यहाँ तक कि उनके ऐसे आदमी का होना-वे कैसे हैं चाहे वे कुछ
भी न जानते हों-न जाने कैसा मालूम होता हो। न जाने कैसे लगने का डर उन्हें
लोगों के लगाव से दूर दूर रखता है। यह आशंका इतनी अव्यक्त होती है, लज्जा
और इसके बीच का अंतर इतना क्षणिक होता है कि साधारणत: इसका लज्जा से अलग
अनुभव नहीं होता।
कुछ लोगों के मुँह से लज्जा या संकोच के मारे आदर सत्कार के आवश्यक वचन
नहीं निकलते, बहुत से लड़कों को प्रणाम करने में लज्जा मालूम होती है, ऐसी
लज्जा किसी काम की नहीं समझी जाती। बच्चों को अपनी तुच्छता, बुराई या
बेढंगेपन की भावना बहुत कम होती है। वे अपनी क्रियाओं में स्वभावत:
स्वच्छंद होते हैं। पर विशेष स्थिति में पड़कर वे इतने भीरु और लज्जालु हो
जाते हैं कि नए आदमियों के सामने नहीं आते, लाख पूछने पर कोई बात मुँह से
नहीं निकालते। ऐसी दशा अधिकतर उन बच्चों की हो जाती है जो बात बात पर, उठते
बैठते, हिलते डोलते, डाँटे, धिक्कारे या चिढ़ाए जाते हैं। लोग अकसर प्यार से
बच्चों को किसी भद्दे, बेढंगे या बुरे आदमी का ध्याढ़न कराकर उन्हें चिढ़ाते
हैं कि 'तुम वही हो'। इस प्रकार उन्हें सहमने, संकोच करने, लज्जित होने आदि
का अभ्यास कराया जाता है जो बढ़ते बढ़ते बहुत बढ़ जाता है।
अपनी त्रुटि, बेढंगेपन, धृष्टचता इत्यादि का परिचय दूसरों को-विशेषत:
पुरुषों को न मिले इसका ध्यागन स्त्रियों में बहुत अधिक और स्वाभाविक होता
है, इसी से उनमें लज्जा अधिक देखी जाती है। वे सदा से पुरुषों के आश्रय में
रहती हैं, इससे हम धृष्ट या अप्रिय न लगें, इसकी आशंका उनमें चिरस्थायिनी
होकर लज्जा के रूप में हो गई है। बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी होती हैं-विशेषत:
बड़े घरों की-जिनके काम धांधो के रूप में भी लोगों के सामने हाथ पैर हिलाने
की धड़क नहीं खुली रहती, अत: उनका अधिक लज्जाशील होना ठीक ही है। लोग लज्जा
को स्त्रियों का भूषण कह कहकर उनमें धृष्टाता के दूषण से बचने का ध्या न और
भी पक्का करते रहे। धीरे धीरे उनके रूप रंग के समन उनकी लज्जा भी पुरुषों
के आनंद और विलास की एक सामग्री हुई। रस कोविद लोग मुग्धा और मधया की लज्जा
का वर्णन कान में डालकर रसिकों को आनंद से उन्मत्ता करने लगे।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसंबर 1918 ई.)
[चिन्तामणि, भाग-1]
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