आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -2
रस मीमांसा
काव्य
काव्य की साधना
मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिए दिए दूसरों के भावों,
विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला
चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय
चलता रहता है उसका नाम है जगत्। जब तक कोई अपनी पृथक् सत्ता की भावना को
ऊपर किए इस क्षेत्र के नानारूपों और व्यापारों को अपने योगक्षेम, हानि लाभ,
सुख दु:ख आदि से संबद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से
बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक् सत्ता
की धारणा से छूटकर-अपने आपको बिलकुल भूलकर-विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता
है तब वह मुक्तहृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा
कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी
मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आई है उसे कविता
कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का
समकक्ष मानते हैं।
कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर
लोकसामान्य भावभूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत् की नाना गतियों के मार्मिक
स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर
पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को
लोकसत्ता में लीन किए रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो
सकती है। इस अनुभूतियोग के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार तथा शेष
सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस
प्रकार जगत् अनेक रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक भावात्मक है।
इन अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी समझा जा सकता है जब कि इन सबका
प्रकृत सामंजस्य जगत् के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो
जाय। इन्हीं भावों के सूत्रों से मनुष्यजाति जगत् के साथ तादात्म्य का
अनुभव चिरकाल से करती चली आई है। जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदिम
युगों से ही परिचित है, जिन रूपों और व्यापारों को सामने पाकर वह नर जीवन
के आरंभ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ
मूल या सीधा संबंध है। अत: काव्य के प्रयोजन के लिए हम उन्हें मूल रूप और
मूल व्यापार कह सकते हैं। इस विशाल विश्वु के प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष और
गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को भावों के विषय या आलम्बन बनाने के लिए इन्हीं मूल
रूपों और मूल व्यापारों में परिणत करना पड़ता है। जब तक वे इन मूल मार्मिक
रूपों में नहीं लाए जाते तब तक उन पर काव्यदृष्टि नहीं पड़ती।
वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कछार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़ी, फूल,
शाखा, पशु, पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र इत्यादि ऐसे ही चिरसहचर रूप
हैं। खेत, ढुर्री, हल, झोपड़े, चौपाए इत्यादि भी कुछ कम पुराने नहीं हैं।
इसी प्रकार पानी का बहना, सूखे पत्तों का झड़ना, बिजली का चमकना, घटा का
घेरना, नदी का उमड़ना, मेघ का बरसना, कुहरे का छाना, डर से भागना, लोभ से
लपकना, छीनना, झपटना, नदी या दलदल से बाँह पकड़कर निकालना, हाथ से खिलाना,
आग में झोंकना, गला काटना ऐसे व्यापारों का भी मनुष्य जाति के भावों के साथ
अत्यंत प्राचीन साहचर्य है। ऐसे आदिम रूपों और व्यापारों में, वंशानुगत
वासना की दीर्घ परंपरा के प्रभाव से, भावों के उद्बोधान की गहरी शक्ति
संचित है; अत: इनके द्वारा जैसा रस परिपाक संभव है वैसा कल, कारखाने,
गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज ऐसी वस्तुओं तथा अनाथालय के लिए चेक
काटना, सर्वस्वहरण के लिए जाली दस्तावेज बनाना, मोटर की चरखी घुमाना या
एंजिन में कोयला झोंकना आदि व्यापारों द्वारा नहीं।
काव्य और सृष्टि प्रसार
हृदय पर नित्य प्रभाव रखनेवाले रूपों और व्यापारों को भावना के सामने लाकर
कविता बाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की अंत:प्रकृति का सामंजस्य घटित करती
हुई उसकी भावात्मक सत्ता के प्रसार का प्रयास करती है। यदि अपने भावों को
समेटकर मनुष्य अपने हृदय को शेष सृष्टि से किनारे कर ले या स्वार्थ की
पशुवृत्ति में ही लिप्त रखे तो उसकी मनुष्यता कहाँ रहेगी? यदि वह लहलहाते
हुए खेतों और जंगलों, हरी घास के बीच घूम-घूमकर बहते हुए नालों, काली
चट्टानों पर चाँदी की तरह ढलते हुए झरनों, मंजरियों से लदी हुई अमराइयों और
पटपर के बीच खड़ी झाड़ियों को देख क्षण भर लीन न हुआ, यदि कलरव करते हुए
पक्षियों के आनंदोत्सव में उसने योग न दिया, यदि खिले हुए फूलों को देख वह
न खिला, यदि सुंदर रूप सामने पाकर अपनी भीतरी कुरूपता का उसने विसर्जन न
किया, यदि दीन दु:खी का आर्त्तरनाद सुन वह न पसीजा, यदि अनाथों और अबलाओं
पर अत्याचार होते देख क्रोध से न तिलमिलाया, यदि किसी बेढब और विनोदपूर्ण
दृश्य या उक्ति पर न हँसा तो उसके जीवन में रह क्या गया? इस विश्वऔकाव्य की
रसधारा में जो थोड़ी देर के लिए निमग्न न हुआ उसके जीवन को मरुस्थल की
यात्रा ही समझना चाहिए।
काव्यदृष्टि कहीं तो
(1) नरक्षेत्र के भीतर रहती है,
(2) कहीं मनुष्येतर बाह्य सृष्टि के और
(3) कहीं समस्त चराचर के।
(1) पहले नरक्षेत्र को लेते हैं। संसार में अधिकतर कविता इसी क्षेत्र के
भीतर हुई है। नरत्व की बाह्य प्रकृति और अंत:प्रकृति के नाना संबंधों और
पारस्परिक विधानों का संकलन या उद्भावना ही काव्यों में-मुक्तक हों या
प्रबंध-अधिकतर पाई जाती है।
प्राचीन महाकाव्यों और खंडकाव्यों के मार्ग में यद्यपि शेष दो क्षेत्र भी
बीच-बीच में पड़ जाते हैं पर मुख्य यात्रा नरक्षेत्र के भीतर ही होती है।
वाल्मीकि रामायण में यद्यपि बीच-बीच में ऐसे विशद वर्णन बहुत कुछ मिलते हैं
जिनमें कवि की मुग्ध दृष्टि प्रधानत: मनुष्येतर बाह्य प्रकृति के रूपजाल
में फँसी पाई जाती है, पर उसका प्रधान विषय लोकचरित्र ही है और
प्रबन्धकाव्यों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। रहे मुक्तक या
फुटकर पद्य, वे भी अधिकतर मनुष्य ही की भीतरी बाहरी वृत्तियों से संबंध
रखते हैं। साहित्य शास्त्र की रसनिरूपण पद्धति मंष आलम्बनों के बीच बाह्य
प्रकृति को स्थान ही नहीं मिला है। वह उद्दीपन मात्र मानी गई है। श्रंगार
के उद्दीपन रूप में जो प्राकृतिक दृश्य लाए जाते हैं उनके प्रति रतिभाव
नहीं होता; नायक या नायिका के प्रति होता है। वे दूसरे के प्रति उत्पन्न
प्रीति को उद्दीप्त करने वाले होते हैं; स्वयं प्रीति के पात्र या आलम्बन
नहीं होते। संयोग में वे सुख बढ़ाते हैं और वियोग में काटने दौड़ते हैं। जिस
भावोद्रेक और जिस ब्योरे के साथ नायक या नायिका के रूप का वर्णन किया जाता
है उस भावोद्रेक और उस ब्योरे के साथ उनका नहीं। कहीं-कहीं तो उनके नाम
गिनाकर ही काम चला लिया जाता है।
मनुष्यों के रूप, व्यापार या मनोवृत्तियों के सादृश्य, साधर्म्य की दृष्टि
से जो प्राकृतिक वस्तु व्यापार आदि लाए जाते हैं उनका स्थान भी गौण ही
समझना चाहिए। वे नर संबंधी भावना को ही तीव्र करने के लिए रखे जाते हैं।
(2) मनुष्येतर बाह्य प्रकृति का आलम्बन के रूप में ग्रहण हमारे यहाँ
संस्कृत के प्राचीन प्रबन्धकाव्यों के बीच-बीच में ही पाया जाता है। कहाँ
प्रकृति का ग्रहण आलम्बन के रूप में हुआ है, इसका पता वर्णन की प्रणाली से
लग जाता है। पहले कह आए हैं कि किसी वर्णन में आई हुई वस्तुओं का मन में
ग्रहण दो प्रकार का हो सकता है-बिंबग्रहण और अर्थग्रहण।1 किसी ने कहा
'कमल'। अब इस 'कमल' पद का ग्रहण कोई इस प्रकार भी कर सकता है कि ललाई लिए
हुए सफेद पंखुड़ियों
1. देखिए, काव्य में प्राकृतिक दृश्य, निबंध।
और झुके हुए नाल आदि के सहित एक फूल की मूर्ति मन में थोड़ी देर के लिए आ
जाय या कुछ देर बनी रहे; और इस प्रकार भी कर सकता है कि कोई चित्र उपस्थित
न हो; केवल पद का अर्थ मात्र समझकर काम चला लिया जाय। काव्य के दृश्य
चित्रण में पहले प्रकार का संकेतग्रहण अपेक्षित होता है और व्यवहार तथा
शास्त्रचर्चा में दूसरे प्रकार का। बिंबग्रहण वहीं होता है जहाँ कवि अपने
सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा वस्तुओं के अंग-प्रत्यंग, वर्ण, आकृति तथा उनके
आसपास की परिस्थिति का परस्पर संश्लिष्टव विवरण देता है। बिना अनुराग के
ऐसे सूक्ष्म ब्योरों पर न दृष्टि जा ही सकती है, न रम ही सकती है। अत: जहाँ
ऐसा पूर्ण संश्लिष्टस चित्रण मिले वहाँ समझना चाहिए कि कवि ने बाह्य
प्रकृति को आलम्बन के रूप में ग्रहण किया। उदाहरण के लिए वाल्मीकि का यह
हेमंत वर्णन लीजिए-
अवश्याय निपातेन किद्बिचत्प्रक्लिन्नशाद्वला।
वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा
स्पृशंस्तु विपुलं शीतमुदकं द्विरद:: सुखम्।
अत्यन्ततृषितो वन्य: प्रतिसंहरते करम्॥
अवश्याय तमोनद्धा नीहार तमसावृता :।
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वनराजय ॥
वाष्पसंछन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसा : ।
हिमार्द्रबालुकैस्तीरै सरितो भान्ति साम्प्रतम्॥
जरा जर्जरितै पद्मै: शीर्णकेसरकर्णिका : ।
नालशेषैर्हिम ध्व स्तैर्न भान्ति कमलाकरा:॥
(रामायण अरण्यकांड, सर्ग 16)
मनुष्येतर बाह्य प्रकृति का इसी रूप में ग्रहण 'कुमारसंभव' के आरंभ तथा
'रघुवंश' के बीच बीच में मिलता है। नाटक यद्यपि मनुष्य ही की भीतरी बाहरी
वृत्तियों के प्रदर्शन के लिए लिखे जाते हैं और भवभूति अपने मार्मिक और
तीव्र अन्तवृत्तिविधान के लिए ही प्रसिद्ध हैं, पर उनके 'उत्तररामचरित' में
कहीं कहीं बाह्य प्रकृति के बहुत ही सांग और संश्लिष्टल खंड चित्र पाए जाते
हैं। पर मनुष्येतर बाह्य प्रकृति को जो प्रधानता 'मेघदूत' में मिली है वह
संस्कृत के और किसी काव्य में नहीं। 'पूर्वमेघ' तो यहाँ से वहाँ तक प्रकृति
की ही एक मनोहर झाँकी या भारतभूमि के
1. वन की भूमि, जिसकी हरी-हरी घास ओस गिरने से कुछ गीली हो गई है, तरुण धूप
के पड़ने से कैसी शोभा दे रही है। अत्यंत प्यासा जंगली हाथी बहुत शीतल जल के
स्पर्श से अपनी सूँड़ सिकोड़ लेता है। बिना फूल के वनसमूह कुहरे के अंधकार
में सोए से जान पड़ते हैं। नदियाँ, जिनका जल कुहरे से ढका हुआ है और जिनमें
सारस पक्षियों का पता केवल उनके शब्द से लगता है, हिम से आर्द्र बालू के
तटों से ही पहचानी जाती हैं। कमल जिनके पत्तेश जीर्ण होकर झड़ गए हैं जिनकी
केसरकर्णिकाएँ टूटफूटकर छितरा गई हैं, पाले से धवस्त होकर नाल मात्र खड़े
हैं।
स्वरूप का ही मधुर ध्याड़न है। जो इस स्वरूप के ध्याएन में अपने को भूलकर
कभी कभी मग्न हुआ करता है वह घूम-घूमकर वक्तृता दे या न दे, चंदा इकट्ठा
करे या न करे, देशवासियों की आमदनी का औसत निकाले या न निकाले, सच्चा
देशप्रेमी है। मेघदूत न कल्पना की क्रीड़ा है न कला की विचित्रता। वह है
प्राचीन भारत के सबसे भावुक हृदय की अपनी प्यारी भूमि की रूपमाधुरी पर सीधी
सादी प्रेमदृष्टि।
अनंत रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है-कहीं मधुर, सुसज्जित या सुंदर
रूप में; कहीं रूखे, बेडौल या कर्कश रूप में; कहीं भव्य, विशाल या विचित्र
रूप में; कहीं उग्र, कराल या भयंकर रूप में। सच्चे कवि का हृदय उसके इन सब
रूपों में लीन होता है क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं,
बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है। जो केवल
प्रफुल्लप्रसूनप्रसार के सौरभ-संचार, मकरंद लोलुपमधुपगुंजार, कोकिलकूजित
निकुंज और शीतल सुखस्पर्श समीर इत्यादि की ही चर्चा किया करते हैं वे विषयी
भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिमबिंदुमंडित
मरकताभशाद्वलजाल, अत्यंत विशाल गिरिशिखर से गिरते हुए जलप्रपात के गंभीर
गर्त से उठी हुई सीकर नीहारिका के बीच विविधवर्णस्फुरण की विशालता, भव्यता
और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं-सच्चे
भावुक या सहृदय नहीं। प्रकृति के साधारण असाधारण सब प्रकार के रूपों में
रमानेवाले वर्णन हमें वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि संस्कृत के प्राचीन
कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक रचना में तो अधिकतर
प्राकृतिक वस्तुओं का अलग अलग उल्लेख मात्र उद्दीपन की दृष्टि से किया है।
प्रबंध रचना में जो थोड़ा बहुत संश्लिष्टल चित्रण किया है वह प्रकृति की
विशेष रूप विभूति को लेकर ही। अँगरेजी के पिछले कवियों में वर्ड्सवर्थ की
दृष्टि सामान्य, चिर परिचित, सीधे साधे प्रशांत और मधुर दृश्यों की ओर रहती
थी, पर शेली की असाधारण, भव्य और विशाल की ओर।
साहचर्य संभूत रस के प्रभाव से सामान्य सीधे सादे चिर परिचित दृश्यों में
कितने माधुर्य की अनुभूति होती है! पुराने कवि कालिदास ने वर्षा के प्रथम
जल से सिक्त तुरंत की जोती हुई धरती तथा उसके पास बिखरी हुई भोली चितवनवाली
ग्रामवनिताओं में, साफ सुथरे ग्रामचैत्यों और कथाकोविद ग्रामवृद्धों में
इसी प्रकार के माधुर्य का अनुभव किया था। आज भी इसका अनुभव लोग करते हैं।
बाल्य या कौमार अवस्था में जिस पेड़ के नीचे हम अपनी मंडली के साथ बैठा करते
थे, चिड़चिड़ी बुढ़िया की जिस झोपड़ी के पास से होकर हम आते जाते थे उनकी मधुर
स्मृति हमारी भावना को बराबर लीन किया करती है। बुढि़या की झोपड़ी में न कोई
चमक दमक थी, न कला कौशल का वैचित्रय। मिट्टी की दीवारों पर फूस का छप्पर
1. मेघदूत, पूर्वमेघ, 16, 32।
पड़ा था, नींव के किनारे चढ़ी हुई मिट्टी पर सत्यानासी के नीलाभहरित कटीले
कटावदार पौधे खड़े थे जिनके पीले फूलों के गोल संपुटों के बीच लाल लाल
बिंदियाँ झलकती थीं।
जो केवल अपने विलास या शरीर सुख की सामग्री ही प्रकृति में ढूँढ़ा करते हैं
उनमें रस रागात्मक 'सत्वा' की कमी है जो व्यक्त सत्ता मात्र के साथ एकता की
अनुभूति में लीन करके हृदय के व्यापकत्व का आभास देता है। संपूर्ण सत्ताएँ
एक ही परम सत्ता और संपूर्ण भाव एक ही परम भाव के अंतर्भूत हैं। अत: बुद्धि
की क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैत भूमि पर पहुँचता है उसी भूमि तक हमारा
भावात्मक हृदय भी इस सत्वरस के प्रभाव से पहुँचता है। इस प्रकार अंत में
जाकर दोनों पक्षों की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। इस समन्वय के बिना
मनुष्यत्व की साधना पूरी नहीं हो सकती।
मनुष्येतर प्रकृति के बीच के रूप व्यापार कुछ भीतरी भावों या तथ्यों की भी
व्यंजना करते हैं। पशु पक्षियों के सुख–दु:ख, हर्ष-विषाद, राग-द्वेष,
तोष-क्षोभ, कृपा-क्रोध इत्यादि भावों की व्यंजना जो उनकी आकृति, चेष्टा,
शब्द आदि से होती है, वह तो प्राय: बहुत प्रत्यक्ष होती है। कवियों को उन
पर अपने भावों का आरोप करने की आवश्यकता प्राय: नहीं होती। तथ्यों का आरोप
या संभावना अलबत वे कभी कभी किया करते हैं। पर इस प्रकार का आरोप कभी कभी
कथन को 'काव्य' के क्षेत्र से घसीटकर 'सूक्ति' या 'सुभाषित' के क्षेत्र में
डाल देता है। जैसे, 'कौवे सबेरा होते ही क्यों चिल्लाने लगते हैं? वे समझते
हैं कि सूर्य अंधकार का नाश करता बढ़ा आ रहा है, कहीं धोखे में हमारा भी नाश
न कर दे।'1 यह सूक्ति मात्र है, काव्य नहीं। जहाँ तथ्य केवल आरोपित या
संभावित रहते हैं वहाँ वे अलंकार रूप में ही रहते हैं। पर जिन तथ्यों का
आभास हमें पशु पक्षियों के रूप, व्यापार या परिस्थिति में ही मिलता है वे
हमारे भावों के विषय वास्तव में हो सकते हैं। मनुष्य सारी पृथ्वी छेकता चला
जा रहा है। जंगल कट कटकर खेत, गाँव और नगर बनते चले जा रहे हैं।
पशुपक्षियों का भाग छिनता चला जा रहा है। उनके सब ठिकानों पर हमारा निष्ठुर
अधिकार होता चला जा रहा है। वे कहाँ जायँ? कुछ तो हमारी गुलामी करते हैं।
कुछ हमारी बस्ती के भीतर या आसपास रहते हैं और छीन झपटकर अपना हक ले जाते
हैं। हम उनके साथ बराबर ऐसा ही व्यवहार करते हैं मानो उन्हें जीने का कोई
अधिकार ही नहीं है। इन तथ्यों का सच्चा आभास हमें उनकी परिस्थिति से मिलता
है। अत: उनमें से किसी की चेष्टा विशेष में इन तथ्यों की मार्मिक व्यंजना
की प्रतीति काव्यानुभूति के अंतर्गत होगी। यदि कोई बंदर हमारे सामने से कोई
खाने पीने की चीज उठा ले जाय और किसी पेड़ के ऊपर बैठा बैठा हमें घुड़की दे,
1. वयं काका वयं काका जल्पन्तीति प्रगेद्विका:।
तिमिरारिस्तमो हन्यादिति शङ्कितमानसा:॥
तो काव्यदृष्टि से हमें ऐसा मालूम हो सकता है कि-
देते हैं घुड़की यह अर्थ ओज भरी हरि
'जीने का हमारा अधिकार क्या न गया रह?
पर-प्रतिषेधके प्रसार बीच तेरे, नर!
क्रीड़ामय जीवन उपाय है हमारा यह।
दानी जो हमारे रहे, वे भी दास तेरे हुए,
उनकी उदारता भी सकता नहीं तू सह।
फूली फली उनकी उमंग उपकार की तू
छेकता है जाता, हम जायँ कहाँ, तू ही कह!'1
पेड़-पौधो, लता, गुल्म आदि भी इसी प्रकार कुछ भावों या तथ्यों की व्यंजना
करते हैं जो कभी कभी कुछ गूढ़ होती है। सामान्य दृष्टि भी वर्षा की झड़ी के
पीछे उनके हर्ष और उल्लास को; ग्रीष्म के प्रचंड आतप में उनकी शिथिलता और
म्लानता को; शिशिर के कठोर शासन में उनकी दीनता को; मधुकाल में उनके
रसोन्माद, उमंग और हास को, प्रबल वात के झकोरों में उनकी विकलता को, प्रकाश
के प्रति उनकी ललक को देख सकती है। इसी प्रकार भावुकों के समक्ष वे अपनी
रूपचेष्टा आदि द्वारा कुछ मार्मिक तथ्यों की भी व्यंजना करते हैं। हमारे
यहाँ के पुराने अन्योक्तिकारों ने कहीं कहीं इस व्यंजना की ओर ध्या न दिया
है। 'कहीं कहीं' का मतलब यह है कि बहुत जगह उन्होंने अपनी भावना का आरोप
किया है, उनकी रूपचेष्टा या परिस्थिति से तथ्यचयन नहीं। पर उनकी विशेष
परिस्थितियों की ओर भावुकता से ध्यानन देने पर बहुत से मार्मिक तथ्य सामने
आते हैं। कोसों तक फैली कड़ी धूप में तपते मैदान के बीच एक अकेला वट वृक्ष
दूर तक छाया फैलाए खड़ा है। हवा के झोंकों से उसकी टहनियाँ और पत्ते
हिलहिलकर मानो बुला रहे हैं। हम धूप से व्याकुल होकर उसकी ओर बढ़ते हैं।
देखते हैं उनकी जड़ के पास एक गाय बैठी ऑंख मूँदे जुगाली कर रही है। हम लोग
भी उसी के पास आराम से जा बैठते हैं। इतने में एक कुत्ता जीभ बाहर निकाले
हाँफता हुआ उस छाया के नीचे आता है और हममें से कोई उठकर उसे छड़ी लेकर
भगाने लगता है। इस परिस्थिति को देख हममें से कोई भावुक पुरुष उस पेड़ को इस
प्रकार संबोधन करे तो कर सकता है-
काया की न छाया यह केवल तुम्हारी, द्रुम !
अंतस् के मर्म का प्रकाश यह छाया है।
भरी है इसी में वह स्वर्ग स्वप्न धार, अभी
जिसमें न पूरा पूरा नर बह पाया है।
शांतिसार शीतल प्रसार यह छाया धान्य !
प्रीति सा पसारे इसे कैसी हरी काया है।
1. देखिए, 'हृदय का मधुर भार'।
हे नर ! तू प्यारा इस तरु का स्वरूप देख,
देख फिर घोर रूप तूने जो कमाया है॥ 1
ऊपर नरक्षेत्र और मनुष्येतर सजीव सृष्टि के क्षेत्र का उल्लेख हुआ है।
काव्य दृष्टि कभी तो इन पर अलग अलग रहती है और कभी समष्टि रूप में समस्त
जीवन क्षेत्र पर। कहने की आवश्यकता नहीं कि विच्छिन्न दृष्टि की अपेक्षा
समष्टि दृष्टि में अधिक व्यापकता और गंभीरता रहती है। काव्य का अनुशीलन
करनेवाले मात्र जानते हैं कि काव्यदृष्टि सजीव सृष्टि तक ही बद्ध नहीं
रहती। वह प्रकृति के उस भाग की ओर भी जाती है जो निर्जीव या जड़ कहलाता है।
भूमि, पर्वत, चट्टान, नदी, नाले, टीले, मैदान, समुद्र, आकाश, मेघ, नक्षत्र
इत्यादि की रूपगति आदि से भी हम सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता, भव्यता,
विचित्रता, उदासी, उदारता, संपन्नता इत्यादि की भावना प्राप्त करते हैं।
कड़कड़ाती धूप के पीछे उमड़ी हुई घटा की श्यामल स्निग्धता और शीतलता का अनुभव
मनुष्य क्या पशु पक्षी, पेड़ पौधे तक करते हैं। अपने इधर उधर हरी भरी
लहलहाती प्रफुल्लता का विधान करती हुई नदी की अविराम जीवनधारा में हम
द्रवीभूत औदार्य का दर्शन करते हैं। पर्वत की ऊँची चोटियों में विशालता और
भव्यता का; वात विलोड़ित जल प्रसार में क्षोभ और आकुलता का, विकीर्ण घनखण्ड
मंडित, रश्मि रंजित सांध्यस दिगंचल में चमत्कारपूर्ण सौंदर्य का, ताप से
तिलमिलाती धारा पर धूल झोंकते हुए अंधड़ के प्रचंड झोंकों में उग्रता और
उच्छृंखलता का; बिजली की कँपानेवाली कड़क और ज्वालामुखी के ज्वलंत स्फोट में
भीषणता का आभास मिलता है। ये सब विश्वकरूपी महाकाव्य की भावनाएँ या
कल्पनाएँ हैं। स्वार्थभूमि से परे पहुँचे हुए सच्चे अनुभूति-योगी या कवि
इनके द्रष्टा मात्र होते हैं।
जड़ जगत् के भीतर पाए जानेवाले रूप, व्यापार या परिस्थितियाँ अनेक मार्मिक
तथ्यों की भी व्यंजना करती हैं। जीवन के तथ्यों के साथ उनके साम्य का बहुत
अच्छा मार्मिक उद्धाटन कहीं कहीं हमारे यहाँ के अन्योक्तिकारों ने किया है।
जैसे, इधर नरक्षेत्र के बीच देखते हैं तो सुख समृद्धि और संपन्नता की दशा
में दिन रात घेरे रहनेवाले, स्तुति का खासा कोलाहल खड़ा करनेवाले, विपत्ति
और दुर्दिन में पास नहीं फटकते; उधार जड़जगत् के भीतर देखते हैं तो भरे हुए
सरोवर के किनारे जो पक्षी बराबर कलरव करते रहते हैं वे उसके सूखने पर अपना
अपना रास्ता लेते हैं-
कोलाहल सुनि खगन के, सरवर! जनि अनुरागि।
ये सब स्वारथ के सखा, दुर्दिन दैहैं त्यागि।
दुर्दिन दैहैं त्यागि, तोय तेरो जब जैहै।
दूरहि ते तजि आस, पास कोऊ नहि ऐहै॥ 2
1. देखिए, 'हृदय कामधुर भार'।
2. अन्योक्ति कल्पद्रुम, प्रथम शाखा, 41।
इसी प्रकार सूक्ष्म और मार्मिक दृष्टिवालों को और गूढ़ व्यंजना भी मिल सकती
है। अपने इधर उधार हरियाली और प्रफुल्लता का विधान करने के लिए यह आवश्यक
है कि नदी कुछ काल तक एक बँधी हुई मर्यादा के भीतर बहती रहे। वर्षा की उमड़ी
हुई उच्छृंखलता में पोषित हरियाली और प्रफुल्लता का ध्वं स सामने आता है।
पर यह उच्छृंखलता और ध्वंपस अल्पकालिक होता है और इसके द्वारा आगे के लिए
पोषण की नई शक्ति का संचय होता है। उच्छृंखलता नदी की स्थायी वृत्ति नहीं
है। नदी के इस स्वरूप के भीतर सूक्ष्म मार्मिक दृष्टि लोकगति के रूप का
साक्षात्कार करती है। लोकजीवन की धारा जब एक बधे मार्ग पर कुछ काल तक अबाध
गति से चलने पाती है तभी सभ्यता के किसी रूप का पूर्ण विकास और उसके सुख
शांति की प्रतिष्ठा होती है। जब जीवन प्रवाह क्षीण और अशक्त पड़ने लगता है
और गहरी विषमता आने लगती है तब नई शक्ति का प्रवाह फूट पड़ता है जिसके वेग
की उच्छृंखलता के सामने बहुत कुछ ध्वं स भी होता है। पर यह उच्छृंखलता का
वेग जीवन का या जगत् का नित्य स्वरूप नहीं है।
(3) पहले कहा जा चुका है कि नरक्षेत्र के भीतर बद्ध रहने वाली काव्य-दृष्टि
की अपेक्षा संपूर्ण जीवन क्षेत्र और समस्त चराचर के क्षेत्र से मार्मिक
तथ्यों का चयन करने वाली दृष्टि उत्तरोत्तर अधिक व्यापक और गंभीर कही
जाएगी। जब कभी हमारी भावना का प्रसार इतना विस्तीर्ण और व्यापक होता है कि
हम अनंत व्यक्त सत्ता के भीतर नरसत्ता के स्थान का अनुभव करते हैं तब हमारी
पार्थक्य बुद्धि का परिहार हो जाता है। उस समय हमारा हृदय ऐसी उच्च भूमि पर
पहुँचा रहता है जहाँ उसकी वृत्ति प्रशांत और गंभीर हो जाती है, उसकी
अनुभूति का विषय ही कुछ बदल जाता है।
तथ्य चाहे नरक्षेत्र के ही हों, चाहे अधिक व्यापक क्षेत्र के हों, कुछ
प्रत्यक्ष होते हैं और कुछ गूढ़। जो तथ्य हमारे किसी भाव को उत्पन्न करें
उसे उस भाव का आलम्बन कहना चाहिए। ऐसे रसात्मक तथ्य आरंभ में
ज्ञानेंद्रियाँ उपस्थित करती हैं। फिर ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त
सामग्री से भावना या कल्पना उनकी योजना करती है। अत: यह कहा जा सकता है कि
ज्ञान ही भावों के संचार के लिए मार्ग खोलता है। ज्ञान प्रसार के भीतर ही
भावप्रसार होता है। आरंभ में मनुष्य की चेतन सत्ता अधिकतर इंद्रियज ज्ञान
की समष्टि के रूप में ही रही। फिर ज्यों ज्यों अंत:करण का विकास होता गया
और सभ्यता बढ़ती गई त्यों त्यों मनुष्य का ज्ञान बुद्धिव्यवसायात्मक होता
गया। अब मनुष्य का ज्ञानक्षेत्र बुद्धिव्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर
बहुत ही विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का
विस्तार बढ़ाना पड़ेगा। विचारों की क्रिया से, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान
द्वारा उद्धाटित परिस्थितियों और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का मूर्त और
सजीव चित्रण भी-उसका इस रूप में प्रत्यक्षीकरण भी कि वह हमारे किसी भाव का
आलम्बन हो सके-कवियों का काम और उच्च काव्य का एक लक्षण होगा। कहने की
आवश्यकता नहीं कि इन तथ्यों और परिस्थितियों के मार्मिक रूप न जाने कितनी
वार्ता की तह में छिपे होंगे।
काव्य और व्यवहार
भावों या मनोविकारों के विवेचन में हम कह चुके हैं कि मनुष्य को कर्म में
प्रवृत्त करने वाली मूल वृत्ति भावात्मिका है। केवल तर्क बुद्धि या विवेचना
के बल से हम किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। जहाँ जटिल बुद्धि-व्यापार
के अनंतर किसी कर्म का अनुष्ठान देखा जाता है वहाँ भी तह में कोई भाव या
वासना छिपी रहती है। चाणक्य जिस समय अपनी नीति की सफलता के लिए किसी
निष्ठुर व्यापार में प्रवृत्त दिखाई पड़ता है उस समय वह दया, करुणा आदि सब
मनोविकारों या भावों से परे दिखाई पड़ता है। पर थोड़ा अंतर्दृष्टि गड़ाकर
देखने से कौटिल्य को नचाने वाली डोर का छोर भी अंत:करण के रागात्मक खंड की
ओर मिलेगा। प्रतिज्ञापूर्ति की आनंदभावना और नंदवंश के प्रति क्रोध या वैर
की वासना बारी बारी से उस डोर को हिलाती हुई मिलेगी। अर्वाचीन राष्ट्रनीति
के गुरुघंटाल जिस समय अपनी किसी गहरी चाल से किसी देश की निरपराध जनता का
सर्वनाश करते हैं उस समय वे दया आदि दुर्बलताओं से निर्लिप्त केवल बुद्धि
के कठपुतले दिखाई पड़ते हैं। पर उनके भीतर यदि छानबीन की जाय तो कभी अपने
देशवासियों के सुख की उत्कंठा, कभी अन्य जाति के प्रति घोर विद्वेष, कभी
अपनी जातीय श्रेष्ठता का नया या पुराना घमंड, इशारे करता हुआ मिलेगा।
बात यह है कि केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम को करने या न करने के
लिए तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक।
जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारी भावना में आती है जो आह्लाद,
क्रोध, करुणा, भय, उत्कंठा आदि का संचार कर देती है तभी हम उस काम को करने
या न करने के लिए उद्यत होते हैं। शुद्ध ज्ञान या विवेक में कर्म की
उत्तेजना नहीं होती। कर्मप्रवृत्ति के लिए मन में कुछ वेग का आना आवश्यक
है। यदि किसी जनसमुदाय के बीच कहा जाय कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया
प्रतिवर्ष उठा ले जाता है तो संभव है कि उस पर कुछ प्रभाव न पड़े। पर यदि
दारिद्रय और अकाल का भीषण और करुण दृश्य दिखाया जाय, पेट की ज्वाला से जले
हुए कंकाल कल्पना के सम्मुख रखे जायँ और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी
हुई माता का आर्तक्रंदन सुनाया जाय तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से
व्याकुल हो उठेंगे और इस दशा को दूर करने का यदि उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य
करेंगे। पहले ढंग की बात करना राजनीतिज्ञ या अर्थशास्त्री का काम है और
पिछले प्रकार का दृश्य भावना में लाना कवि का। अत: यह धारणा कि काव्य
व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता
तो भावप्रसार द्वारा कर्मण्य के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है।
उक्त धारणा का आधार यदि कुछ हो सकता है तो यही कि जो भावुक या सहृदय होते
हैं, अथवा काव्य के अनुशीलन से जिनके भावप्रसार का क्षेत्र विस्तृत हो जाता
है, उनकी वृत्तियाँ उतनी स्वार्थबद्ध नहीं रह सकतीं। कभी कभी वे दूसरों का
जी दुखने के डर से; आत्मगौरव, कुलगौरव या जातिगौरव के ध्यातन से अथवा जीवन
के किसी पक्ष की उत्कर्ष भावना में मग्न होकर अपने लाभ के कर्म में अतत्पर
या उससे विरत देखे जाते हैं। अत: अर्थागम से हृष्ट, 'स्वकार्यं साधयेत्' के
अनुयायी काशी के ज्योतिषी और कर्मकांडी, कानपुर के बनिये और दलाल, कचहरियों
के अमले और मुख्तार, ऐसों को कार्यभ्रंशकारी मूर्ख, निरे निठल्ले या
खब्त-उल-हवास समझ सकते हैं। जिनकी भावना किसी बात के मार्मिक पक्ष का
चित्रानुभव करने में तत्पर रहती है, जिनके भाव चराचर के बीच किसी को भी
आलम्बनोपयुक्त रूप या दशा में पाते ही उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं, वे सदा अपने
लाभ के ध्यान से या स्वार्थबुद्धि द्वारा ही परिचालित नहीं होते। उनकी यही
विशेषता अर्थपरायणों को-अपने काम से काम रखनेवालों को-एक त्रुटि सी जान
पड़ती है। कवि और भावुक हाथ पैर न हिलाते हों यह बात नहीं है। पर अर्थियों
के निकट उनकी बहुत सी क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं होता।
मनुष्यता की उच्च भूमि
मनुष्य की चेष्टा और कर्मकलाप से भावों का मूल संबंध निरूपित हो चुका है और
यह भी दिखाया जा चुका है कि कविता इन भावों या मनोविकारों के क्षेत्र को
विस्तृत करती हुई उनका प्रसार करती है। पशुत्व से मनुष्यत्व में जिस प्रकार
अधिक ज्ञान प्रसार की विशेषता है उसी प्रकार अधिक भाव प्रसार की भी। पशुओं
के प्रेम की पहुँच प्राय: अपने जोड़े, बच्चों या खिलाने पिलानेवालों तक ही
होती है; इसी प्रकार उनका क्रोध भी अपने सतानेवालों तक ही जाता है, स्ववर्ग
या पशुमात्र को सतानेवालों तक नहीं पहुँचता। पर मनुष्य में ज्ञान प्रसार के
साथ साथ भाव प्रसार भी क्रमश: बढ़ता गया है। अपने परिजनों, अपने
सम्बन्धियों, अपने पड़ोसियों, अपने देशवासियों, क्या मनुष्य और प्राणिमात्र
तक से प्रेम करने भर की जगह उसके हृदय में बन गई। मनुष्य की त्योरी मनुष्य
को ही सतानेवाले पर नहीं चढ़ती; गाय, बैल और कुत्तोंब, बिल्ली को सतानेवाले
पर भी चढ़ती है। पशु की वेदना देखकर भी उसके नेत्र सजल होते हैं। बंदर को
शायद बँदरिया के मुँह में ही सौंदर्य दिखाई पड़ता होगा, पर मनुष्य पशु
पक्षी, फूल पत्तेप और रेत-पत्थर में भी सौंदर्य पाकर मुग्धड़ होता है। इस
हृदय प्रसार का स्मारक स्तंभ काव्य है जिसकी उत्तेजना से हमारे जीवन में एक
नया जीवन आ जाता है। हम सृष्टि के सौंदर्य को देखकर रसमग्न होने लगते हैं,
कोई निष्ठुर कार्य हमें असह्य होने लगता है, हमें जान पड़ता है कि हमारा
जीवन कई गुना बढ़कर सारे संसार में व्याप्त हो गया है।
कविवाणी के प्रसाद से हम संसार के सुख दु:ख, आनंद, क्लेश आदि का शुद्ध
स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं। इस प्रकार के अनुभव के अभ्यास से
हृदय का बंधन खुलता है और मनुष्यता की उच्च भूमि की प्राप्ति होती है। किसी
अर्थपिशाच कृपण को देखिए, जिसने केवल अर्थलोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया,
श्रद्धा, भक्ति आत्माभिमान आदि भावों को एकदम दबा दिया है और संसार के
मार्मिक पक्ष से मुँह मोड़ लिया है। न सृष्टि के किसी रूप माधुर्य को देख वह
पैसों का हिसाब किताब भूल कभी मुग्ध होता है, न किसी दीन दुखिया को देख कभी
करुणा से द्रवीभूत होता है, न कोई अपमानसूचक बात सुनकर क्रुद्ध या क्षुब्ध
होता है। यदि उससे किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाय तो वह मनुष्य
धार्मानुसार क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ कहेगा कि
'जाने दो, हमसे क्या मतलब; चलो अपना काम देखें।' यह महा भयानक मानसिक रोग
है। इससे मनुष्य मर जाता है। इसी प्रकार किसी महाक्रूर पुलिस कर्मचारी को
जाकर देखिए जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के
दु:ख और क्लेश की भावना स्वप्न में भी नहीं होती। ऐसों को सामने पाकर
स्वभावत: यह मन में आता है कि क्या इनकी भी कोई दवा है? इनकी दवा कविता है।
कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका
अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है।
भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत् के साथ पूर्ण
तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भाव सत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व
हृदय हो जाता है। उसकी अश्रुधारा में जगत् की अश्रुधारा का, उसके हास विलास
में जगत् के आनंदनृत्य का, उसके गर्जन तर्जन में जगत् के गर्जन तर्जन का
आभास मिलता है।
भावना या कल्पना
आरंभ में ही हम काव्यानुशीलन को भावयोग कह आए हैं और उसे कर्मयोग और
ज्ञानयोग के समकक्ष बता आए हैं। यहाँ पर अब यह कहने की आवश्यकता प्रतीत
होती है कि 'उपासना' भावयोग का ही एक अंग है। पुराने धार्मिक लोग उपासना का
अर्थ 'ध्यानन' ही लिया करते हैं। जो वस्तु हमसे अलग है, हमसे दूर प्रतीत
होती है, उसकी मूर्ति मन में लाकर उसके सामीप्य का अनुभव करना ही उपासना
है। साहित्य वाले इसी को 'भावना' कहते हैं और आजकल के लोग 'कल्पना'। जिस
प्रकार भक्ति के लिए उपासना या ध्याउन की आवश्यकता होती है उसी प्रकार और
भावों के प्रवर्तन के लिए भी भावना या कल्पना अपेक्षित होती है। जिनकी
भावना या कल्पना शिथिल या अशक्त होती है, किसी कविता या सरस उक्ति को पढ़
सुनकर उनके हृदय में मार्मिकता होते हुए भी वैसी अनुभूति नहीं होती। बात यह
है कि उनके अंत:करण में चटपट वह सजीव और स्पष्ट मूर्तिविधान नहीं होता जो
भावों को परिचालित कर देता है। कुछ कवि किसी बात के सारे मार्मिक अंगों का
पूरे ब्योरे के साथ चित्रण कर देते हैं, पाठक या श्रोता की कल्पना के लिए
बहुत कम काम छोड़ते हैं और कुछ कवि कुछ मार्मिक खंड रखते हैं जिन्हें पाठक
की तत्पर कल्पना आपसे आप पूर्ण करती है।
कल्पना दो प्रकार की होती है-विधायक और ग्राहक। कवि में विधायक कल्पना
अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक। अधिकतर कहने का
अभिप्राय यह है कि जहाँ कवि पूर्ण चित्रण नहीं करता वहाँ पाठक या श्रोता को
भी अपनी ओर से कुछ मूर्तिविधान करना पड़ता है। यूरोपीय साहित्यमीमांसा में
कल्पना को बहुत प्रधानता दी गई है। है भी यह काव्य का अनिवार्य साधन; पर है
साधन ही, साध्यद नहीं, जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है। किसी प्रसंग
के अंतर्गत कैसा ही विचित्र मूर्तिविधान हो, पर यदि उसमें उपयुक्त भाव
संचार की क्षमता नहीं है तो वह काव्य के अंतर्गत न होगा।
मनोरंजन
प्राय: सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरंजन है। पर जैसा कि हम
पहले कह आए हैं कविता का अंतिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का
प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है। इतने
गंभीर उद्देश्य के स्थान पर केवल मनोरंजन का हल्का उद्देश्य सामने रखकर जो
कविता का पठन-पाठन या विचार करते हैं वे रास्ते में ही रह जानेवाले पथिक के
समान हैं। कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरांत कुछ और भी
होता है और वही और सब कुछ है। मनोरंजन वह शक्ति है जिससे कविता अपना प्रभाव
जमाने के लिए मनुष्य की चित्तवृत्ति को स्थिर किए रहती है, उसे इधर उधर
जाने नहीं देती। अच्छी से अच्छी बात को भी कभी लोग केवल कान से सुन भर लेते
हैं, उसकी ओर उनका मनोयोग नहीं होता। केवल यही कहकर कि 'परोपकार करो',
'दूसरों पर दया करो', 'चोरी करना महापाप है', हमें यह आशा कदापि न करनी
चाहिए कि कोई अपकारी उपकारी, कोई क्रूर दयावान् या कोई चोर साधु हो जाय।
क्योंकि ऐसे वाक्यों के अर्थ की पहुँच हृदय तक होती ही नहीं, वह ऊपर ही ऊपर
रह जाता है। ऐसे वाक्यों द्वारा सूचित व्यापारों का मानव जीवन के बीच कोई
मार्मिक चित्र सामने न पाकर हृदय उनकी अनुभूति की ओर प्रवृत्त ही नहीं
होता।
पर कविता अपनी मनोरंजन शक्ति द्वारा पढ़ने या सुननेवाले का चित्त रमाए रहती
है, जीवन-पट पर उक्त कर्मों की सुंदरता या विरूपता अंकित करके हृदय के
मर्मस्थलों का स्पर्श करती है। मनुष्य के कर्मों में जिस प्रकार दिव्य
सौंदर्य और माधुर्य होता है उसी प्रकार कुछ कर्मों में भीषण कुरूपता और
भद्दापन होता है। इसी सौंदर्य या कुरूपता का प्रभाव मनुष्य के हृदय पर पड़ता
है और इस सौंदर्य या कुरूपता का सम्यक् प्रत्यक्षीकरण कविता ही कर सकती है।
कविता की इसी रमाने वाली शक्ति को देखकर जगन्नाथ पंडितराज ने रमणीयता का
पल्ला पकड़ा और उसे काव्य का साध्य् स्थिर किया तथा यूरोपीय समीक्षकों ने
'आनंद' को काव्य का चरम लक्ष्य ठहराया। इस प्रकार मार्ग को ही अंतिम गंतव्य
स्थल मान लेने के कारण बड़ा गड़बड़झाला हुआ। मनोरंजन या आनंद तो बहुत सी बातों
में हुआ करता है। किस्सा-कहानी सुनने में भी पूरा मनोरंजन होता है; लोग
रात-रात भर सुनते रह जाते हैं। पर क्या कहानी सुनना और कविता सुनना एक ही
बात है? हम रसात्मक कथाओं या आख्यानों की बात नहीं कहते हैं; केवल
घटना-वैचित्रयपूर्ण कहानियों की बात कहते हैं। कविता और कहानी का अंतर
स्पष्ट है। कविता सुननेवाला किसी भाव में मग्न रहता है और कभी-कभी बार-बार
एक ही पद्य सुनना चाहता है, पर कहानी सुननेवाला आगे की घटना के लिए आकुल
रहता है। कविता सुननेवाला कहता है, ''जरा फिर तो कहिए।'' कहानी सुनने वाला
कहता है, ''हाँ! तब क्या हुआ?''
मन को अनुरंजित करना, उसे सुख या आनंद पहुँचाना ही यदि कविता का अंतिम
लक्ष्य माना जाय तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई। परंतु क्या कोई कह
सकता है कि वाल्मीकि ऐसे मुनि और तुलसीदास ऐसे भक्त ने केवल इतना ही समझकर
श्रम किया कि लोगों को समय काटने का एक अच्छा सहारा मिल जायगा? क्या इससे
गंभीर कोई उद्देश्य उनका न था? खेद के साथ कहना पड़ता है कि बहुत दिनों से
बहुत से लोग कविता को विलास की सामग्री समझते आ रहे हैं। हिंदी के रीतिकाल
के कवि तो मानो राजाओं-महाराजाओं की कामवासना उत्तेजित करने के लिए ही रखे
जाते थे। एक प्रकार के कविराज तो रईसों के मुँह में मकरध्वनज रस झोंकते थे,
दूसरे प्रकार के कविराज कान में मकरध्व ज रस की पिचकारी देते थे। पीछे से
तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे। गर्मी के मौसम
के लिए एक कविजी व्यवस्था करते हैं-
सीतल गुलाबजल भरि चहबच्चन में, डारि कै कमलदल न्हायबे को धँसिए।
कालिदास अंग अंग अगर अतर संग, केसर उसीर नीर घनसार धँसिए।
जेठ में गोविन्द लाल! चन्दन के चहलन, भरि भरि गोकुल के महलन बसिए।
इसी प्रकार शिशिर के मसाले सुनिए-
गुलगुली गिलमै, गलीचा हैं, गुनीजन हैं,
चिक हैं, चिराकैं हैं, चिरागन की माला है।
कहै पदमाकर है गजक गजा हूँ सजी,
सज्जा है, सुरा है, सुराही हैं, असु प्याला हैं।
सिसिर के पाला को न व्यापत कसाला,
तिन्हैं जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं।
सौंदर्य
सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है। यूरोपीय कला
समीक्षा की यह एक बड़ी ऊँची उड़ान या बड़ी दूर की कौड़ी समझी गई है। पर वास्तव
में यह भाषा के गड़बड़झाले के सिवा और कुछ नहीं है। वीर कर्म से पृथक् वीरत्व
कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही सुंदर वस्तु से पृथक् सौंदर्य कोई पदार्थ नहीं।
कुछ रूपरंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो हमारे मन में आते ही थोड़ी देर के
लिए हमारी सत्ता पर ऐसा अधिकार कर लेती हैं कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता
है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में ही परिणत हो जाते हैं। हमारी
अंतस्सत्ता की यही तदाकार परिणति सौंदर्य की अनुभूति है। इसके विपरीत कुछ
रूपरंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनकी प्रतीति या जिनकी भावना हमारे मन में
कुछ देर टिकने ही नहीं पाती और एक मानसिक आपत्ति सी जान पड़ती है। जिस वस्तु
के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से तदाकार परिणति जितनी ही अधिक होगी उतनी ही
वह वस्तु हमारे लिए सुंदर कही जाएगी । इस विवेचन से स्पष्ट है कि भीतर बाहर
का भेद व्यर्थ है। जो भीतर है वही बाहर है।
यही बाहर हँसता-खेलता, रोता-गाता, खिलता-मुरझाता जगत् भीतर भी है जिसे हम
मन कहते हैं। जिस प्रकार यह जगत् रूपमय और गतिमय है उसी प्रकार मन भी। मन
भी रूपगति का संघात ही है। रूप मन और इंद्रियों द्वारा संघटित है या मन और
इंद्रियाँ रूपों द्वारा, इससे यहाँ प्रयोजन नहीं। हमें तो केवल यही कहना है
कि हमें अपने मन का और अपनी सत्ता का बोध रूपात्मक ही होता है।
किसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से हमारी अपनी सत्ता के बोध का
जितना ही अधिक तिरोभाव और हमारे मन की उस वस्तु के रूप में जितनी ही पूर्ण
परिणति होगी उतनी ही बढ़ी हुई हमारी सौंदर्य की अनुभूति कही जाएगी । जिस
प्रकार रूपरेखा या वर्णविन्यास से किसी की तदाकारपरिणति होती है उसी प्रकार
की रूपरेखा या वर्णविन्यास उसके लिए सुंदर है। मनुष्यता की सामान्य भूमि पर
पहुँची हुई संसार की सब सभ्य जातियों में सौंदर्य के सामान्य आदर्श
प्रतिष्ठित हैं। भेद अधिकतर अनुभूति की मात्रा में पाया जाता है। न सुंदर
को कोई एकबारगी कुरूप कहता है और न बिलकुल कुरूप को सुंदर। जैसा कि कहा जा
चुका है, सौंदर्य का दर्शन मनुष्य मनुष्य ही में नहीं करता है; प्रत्युत
पल्लवगुंफित पुष्पहास में, पक्षियों के पक्षजाल में, सिंदूराभ सांध्य
दिगंचल के हिरण्यमेखला मंडित घनखण्ड में, तुषारावृत तुंग गिरिशिखर में,
चंद्रकिरण से झलझलाते निर्झर में और न जाने कितनी वस्तुओं में वह सौंदर्य
की झलक पाता है।
जिस सौंदर्य की भावना में मग्न होकर मनुष्य अपनी पृथक् सत्ता की प्रतीति का
विसर्जन करता है वह अवश्य एक दिव्य विभूति है। भक्त लोग अपनी उपासना या
ध्यातन में इसी विभूति का अवलंबन करते हैं। तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक
भक्त राम और कृष्ण की सौंदर्य भावना में मग्न होकर ऐसी मंगलदशा का अनुभव कर
गए हैं जिसके सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता।
कविता केवल वस्तुओं के ही रंगरूप में सौंदर्य की छटा नहीं दिखाती, प्रत्युत
कर्म और मनोवृत्ति के सौंदर्य के भी अत्यंत मार्मिक दृश्य सामने रखती है।
वह जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी के मुखमण्डल आदि का सौंदर्य मन में लाती है
उसी प्रकार उदारता, वीरता, त्याग, दया, प्रेमोत्कर्ष इत्यादि कर्मों और
मनोवृत्तियों का सौंदर्य भी मन में जगाती है। जिस प्रकार वह शव को नोचते
हुए कुत्तों् और शृगालों के वीभत्स व्यापार की झलक दिखाती है उसी प्रकार
क्रूरों की हिंसावृत्ति और दुष्टों की ईष्या आदि की कुरूपता से भी क्षुब्ध
करती है। इस कुरूपता का अवस्थान सौंदर्य की पूर्ण और स्पष्ट अभिव्यक्ति के
लिए समझना चाहिए। जिन मनोवृत्तियों का अधिकतर बुरा रूप हम संसार में देखा
करते हैं उनका भी सुंदर रूप कविता ढूँढ़कर दिखाती है। दशवदन निधानकारी राम
के क्रोध के सौंदर्य पर कौन मोहित न होगा?
जो कविता रमणी के रूपमाधुर्य से हमें तृप्त करती है वही उसकी अंतर्वृत्ति
की सुंदरता का आभास देकर हमें मुग्ध् करती है। जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ पर
बैठी हुई राजकुमारी तिलोत्तमा के अंग प्रत्यंग की सुषमा को अंकित किया है
उसी ने नवाबनंदिनी आयशा के अंतस् की अपूर्व सात्विकी ज्योति की झलक दिखाकर
पाठकों को चमत्कृत किया है। जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के बीच वन, पर्वत,
नदी, निर्झर आदि की रूपविभूति से हम सौंदर्यमग्न होते हैं उसी प्रकार
अंत:प्रकृति में दया, दाक्षिण्य, श्रद्धा, भक्ति आदि वृत्तियों की स्निग्धा
शीतल आभा में सौंदर्य लहराता हुआ पाते हैं। यदि कहीं बाह्य और आभ्यंतर
दोनों सौंदर्यों का योग दिखाई पड़े तो फिर क्या कहना है! यदि किसी अत्यंत
सुंदर पुरुष की धीरता, सत्यप्रियता आदि अथवा किसी अत्यंत रूपवती स्त्री की
सुशीलता, कोमलता और प्रेमपरायणता आदि भी सामने रख दी जाय तो सौंदर्य की
भावना सर्वांगपूर्ण हो जाती है।
सुंदर और कुरूप काव्य में बस ये ही दो पक्ष हैं। भला बुरा, शुभ अशुभ, पाप
पुण्य, मंगल अमंगल, उपयोगी अनुपयोगी-ये सब शब्द काव्यक्षेत्र के बाहर के
हैं। ये नीति, धर्म व्यवहार, अर्थशास्त्र आदि के शब्द हैं। शुद्ध
काव्यक्षेत्र में न कोई बात भली कही जाती है न बुरी; न शुभ न अशुभ, न
उपयोगी न अनुपयोगी। सब बातें केवल दो रूपों में दिखाई जाती हैं सुंदर और
असुंदर। जिसे धार्मिक शुभ या मंगल कहता है कवि उसके सौंदर्य पक्ष पर आप भी
मुग्धा रहता है और दूसरों को भी मुग्ध करता है। जिसे धर्मज्ञ अपनी दृष्टि
के अनुसार शुभ या मंगल समझता है उसी को कवि अपनी दृष्टि के अनुसार सुंदर
कहता है। दृष्टिभेद अवश्य है। धार्मिक की दृष्टि जीव के कल्याण, परलोक में
सुख, भवबंधन से मोक्ष आदि की ओर रहती है। पर कवि की दृष्टि इन सब बातों की
ओर नहीं रहती। वह उधर देखता है जिधर सौंदर्य दिखाई पड़ता है। इतनी सी बात
ध्याबन में रखने से ऐसे झमेलों में पड़ने की आवश्यकता बहुत कुछ दूर हो जाती
है कि 'कला में सत् असत्, धर्माधर्म का विचार होना चाहिए या नहीं', 'कवि को
उपदेशक बनना चाहिए या नहीं'।
कवि की दृष्टि तो सौंदर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो-वस्तुओं के
रूपरंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में। उत्कर्ष साधन के लिए,
प्रभाव की वृद्धि के लिए, कवि लोग कई प्रकार के सौंदर्यों का मेल भी किया
करते हैं। राम की रूपमाधुरी और रावण की विकरालता भीतर का प्रतिबिम्ब सी जान
पड़ती है। मनुष्य के भीतरी बाहरी सौंदर्य के साथ चारों ओर की प्रकृति के
सौंदर्य को भी मिला देने से वर्णन का प्रभाव कभी कभी बहुत बढ़ जाता है।
चित्रकूट ऐसे रम्य स्थान में राम और भरत जैसे रूपवानों की रम्य अंत:प्रकृति
की छटा का क्या कहना है !
चमत्कारवाद
काव्य के संबंध में 'चमत्कार', 'अनूठापन' आदि शब्द बहुत दिनों से लाए जाते
हैं। चमत्कार मनोरंजन की सामग्री है, इसमें संदेह नहीं। इससे जो लोग
मनोरंजन को ही काव्य का लक्ष्य समझते हैं वे यदि कविता में चमत्कार ही
ढूँढ़ा करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पर जो लोग इससे ऊँचा और गंभीर
लक्ष्य समझते हैं वे चमत्कार मात्र को काव्य नहीं मान सकते। 'चमत्कार' से
हमारा अभिप्राय यहाँ प्रस्तुत वस्तु के अद्भुतत्व या वैलक्षण्य से नहीं जो
अद्भुत रस के आलम्बन से होता है। 'चमत्कार' से हमारा तात्पर्य उक्ति के
चमत्कार से है जिसके अंतर्गत वर्णविन्यास की विशेषता (जैसे अनुप्रास में),
शब्दों की क्रीड़ा (जैसे श्लेजष, यमक आदि में), वाक्य की वक्रता या वचनभंगी
(जैसे काव्यार्थापत्ति, परिसंख्या, विरोधभास, असंगति इत्यादि में) तथा
अप्रस्तुत वस्तुओं का अद्भुतत्व अथवा प्रस्तुत वस्तुओं के साथ उनके सादृश्य
या संबंध की अनहोनी दूरारूढ़ कल्पना (जैसे उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि में)
इत्यादि बातें आती हैं।
चमत्कार का प्रयोग भावुक कवि भी करते हैं, पर किसी भाव की अनुभूति को तीव्र
करने के लिए। जिस रूप या मात्रा में भाव की स्थिति है उसी रूप और उसी
मात्रा में उसकी व्यंजना के लिए प्राय: कवियों को व्यंजना का कुछ असामान्य
ढंग पकड़ना पड़ता है। बातचीत में देखा जाता है कि कभी कभी हम किसी को मूर्ख न
कहकर 'बैल' कह देते हैं। इसका मतलब यह है कि उसकी मूर्खता की जितनी गहरी
भावना मन में है वह 'मूर्ख' शब्द से नहीं व्यक्त होती। इसी बात को देखकर
कुछ लोगों ने यह निश्चय किया कि यही चमत्कार या उक्तिवैचित्रय ही काव्य का
नित्य लक्षण है। इस निश्चय के अनुसार कोई वाक्य, चाहे वह कितना ही
मर्मस्पर्शी हो, यदि उक्तिवैचित्रयशून्य है तो काव्य के अंतर्गत न होगा और
कोई काव्य जिसमें किसी भाव या मनोविकार की व्यंजना कुछ भी न हो पर
उक्तिवैचित्रय हो, वह खास काव्य कहा जायगा। उदाहरण के लिए पद्माकर का यह
सीधा सादा वाक्य लीजिए-
''नैन नचाय कही मुसकाय 'लला फिर आइयो खेलन होरी'।''
अथवा मंडन का यह सवैया लीजिए-
अलि ! हौं तो गई जमुना - जल को, सो कहा कहौं,वीर ! विपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई , इतनेई में गागर सीस धरी॥
रपट्यो पग, घाट चढ्यो न गयो, कवि मंडन ह्नै कै बिहाल गिरी।
चिरजीवहु नन्द को बारो अरी, गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी॥
इसी प्रकार ठाकुर की यह अत्यंत स्वाभाविक वितर्क-व्यंजना देखिए-
वा निरमोहिनी रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वैहै।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौ पहिचानति ह्वैहै॥
ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति ह्वैहै।
आवत हैं नित मेरे लिए, इतनौ तो बिसेष कै जानति ह्वैहै॥
मंडन ने प्रेमगोपन के जो वचन कहलाए हैं वे ऐसे ही हैं जैसे जल्दी में
स्वभावत: मुँह से निकल पड़ते हैं। उनमें विदग्धता की अपेक्षा स्वाभाविकता
कहीं अधिक झलक रही है। ठाकुर के सवैये में भी अपने प्रेम का परिचय देने के
लिए आतुर नए प्रेमी के चित्त के वितर्क की बड़े सीधे सादे शब्दों में, बिना
किसी वैचित्रय या लोकोत्तर चमत्कार के, व्यंजना की गई है। क्या कोई सहृदय
वैचित्रय के अभाव के कारण कह सकता है कि इनमें काव्यतव्च नहीं है?
अब इनके सामने उन केवल चमत्कारवाली उक्तियों का विचार कीजिए जिनमें कहीं
कोई कवि किसी राजा की कीर्ति की धवलता चारों ओर फैलती देख यह आशंका प्रकट
करता है कि कहीं मेरी स्त्री के बाल भी सफेद न हो जायँ1 अथवा प्रभात होने
पर कौवों के काँव काँव का कारण यह भय बताना है कि कालिमा या अंधकार का नाश
करने में प्रवृत्त सूर्य कहीं उन्हें काला देख उनका भी नाश न कर दे।2 भोज
प्रबंध तथा और सुभाषित संग्रहों में इस प्रकार की उक्तियाँ भरी पड़ी हैं।
केशव की रामचन्द्रिका में पचीसों ऐसे पद्य हैं जिनमें अलंकारों की भद्दी
भरती के चमत्कार के सिवा हृदय को स्पर्श करनेवाली या किसी भावना में मग्न
करनेवाली कोई बात न मिलेगी। उदाहरण के लिए पताका और पंचवटी के ये वर्णन
लीजिए-
1. यथा यथा भोजयशो विवर्धाते सितां त्रिलोकीमिव कर्तुमुद्यतम्।
तथा तथा मे हृदयं विदूयते प्रियालकावलिधावलत्वशंकया॥
-भोजप्रबंध, 76॥
2. देखिए पीछे, पृष्ठ 8।
पताका
अति सुंदर अतिसाधु । थिर न रहति पल आधु॥
परम तपोमय मानि। दंडधारिणी जानि॥
पंचवटी
बेर भयानक सो अति लगै। अर्क समूह जहाँ जगमगै॥
पांडव की प्रतिमा सम लेखौ। अर्जुन भीम महामति देखौ॥
है सुभगा सम दीपति पूरी। सिन्दुर औ तिलकावलि रूरी॥
राजति है यह ज्यों कुलकन्या । धाय विराजति है सँग धन्या॥
क्या कोई भावुक इन उक्तियों को शुद्ध काव्य कह सकता है? क्या वे उसके मर्म
का स्पर्श कर सकती हैं?
ऊपर दिए अवतरणों में हम स्पष्ट देखते हैं कि किसी उक्ति की तह में उसके
प्रवर्तक रूप में यदि कोई भाव या मार्मिक अन्तर्वृत्ति छिपी है तो चाहे
वैचित्रय हो या न हो, काव्य की सरसता बराबर पाई जाएगी । पर यदि कोरा
वैचित्रय या चमत्कार है तो थोड़ी देर के लिए कुछ कुतूहल या मनबहलाव चाहे हो
जाय पर काव्य की लीन करनेवाली सरसता न पाई जाएगी । केवल कुतूहल तो
बालवृत्ति है। कविता सुनना और तमाशा देखना एक ही बात नहीं है। यदि सब
प्रकार की कविता में केवल आश्चर्य या कुतूहल का ही संचार मानें तब तो अलग
अलग स्थायी भावों की रसरूप में अनुभूति और भिन्न भिन्न भावों के आश्रयों के
साथ तादात्म्य का कहीं प्रयोजन ही नहीं रह जाता।
यह बात ठीक है कि हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है, उसके मर्म का जो स्पर्श होता
है, वह उक्ति ही के द्वारा। पर उक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह सदा
विचित्र , अद्भुत या लोकोत्तर हो-ऐसी हो जो सुनने में नहीं आया करती या
जिसमें बड़ी दूर की सूझ होती है। ऐसी उक्ति जिसे सुनते ही मन किसी भाव या
मार्मिक भावना (जैसे प्रस्तुत वस्तु का सौंदर्य आदि) आदि में लीन होकर
एकबारगी कथन के अनूठे ढंग, वर्णविन्यास या पद प्रयोग की विशेषता, दूर की
सूझ, कवि की चातुरी या निपुणता इत्यादि का विचार करने लगे, वह काव्य नहीं,
सूक्ति है। बहुत से लोग काव्य और सूक्ति को एक ही समझा करते हैं। पर इन
दोनों का भेद सदा ध्याआन में रहना चाहिए। जो उक्ति हृदय में कोई भाव जागरित
कर दे या उसे प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की मार्मिक भावना में लीन कर दे, वह
तो है काव्य। जो उक्ति केवल कथन के ढंग के अनूठेपन, रचनावैचित्रय, चमत्कार,
कवि के श्रम या निपुणता के विचार में ही प्रवृत्त करे, वह है सूक्ति।
यदि किसी उक्ति में रसात्मकता और चमत्कार दोनों हों तो प्रधानता का विचार
करके सूक्ति या काव्य का निर्णय हो सकता है। जहाँ उक्ति में अनूठापन अधिक
मात्रा में होने पर भी उसकी तह में रहनेवाला भाव आच्छन्न नहीं हो जाता वहाँ
भी काव्य ही माना जायगा। जैसे, देव का यह सवैया लीजिए-
साँसन ही में समीर गयो अरु ऑंसुन ही सब नीर गयौ गरि।
तेज गयो गुन लै अपनौ अरु भूमि गई तन की तनुता करि॥
देव जियै मिलिबेई की आस कै, आसहु पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तें मुखफेरि हरै हँसि हेरि हियो जो लियो हरि जू हरि॥
सवैये का अर्थ यह है कि वियोग में उस नायिका के शरीर को संघटित करनेवाले
पंचभूत धीरे धीरे निकलते जा रहे हैं। वायु दीर्घ नि:श्वासों के द्वारा निकल
गई, जलतत्वव सारा ऑंसुओं ही ऑंसुओं में ढल गया, तेज भी न रह गया-शरीर की
सारी दीप्ति या कांति जाती रही, पार्थिव तत्वओ के निकल जाने से शरीर भी
क्षीण हो गया, अब तो उसके चारों ओर आकाश ही आकाश रह गया है-चारों ओर शून्य
दिखाई पड़ रहा है। जिस दिन से श्रीकृष्ण ने उसकी ओर मुँह फेरकर ताका है और
मंद मंद हँसकर उसके मन को हर लिया है उसी दिन से उसकी यह दशा है।
इस वर्णन में देवजी ने विरह की भिन्न-भिन्न दशाओं में चार भूतों के निकलने
की बड़ी सटीक उद्भावना की है। आकाश का अस्तित्व भी बड़ी निपुणता से चरितार्थ
किया है। यमक, अनुप्रास आदि भी हैं। सारांश यह कि उनकी उक्ति में एक पूरी
सावयव कल्पना है, मजमून की पूरी बंदिश है। पूरा चमत्कार या अनूठापन है। पर
इस चमत्कार के बीच में भी विरह वेदना स्पष्ट झलक रही है, उसकी चकाचौंधा में
अदृश्य नहीं हो गई है। इसी प्रकार मतिराम के इस सवैये की पिछली दो
पंक्तियों में वर्षा के रूपक का जो व्यंग्यचमत्कार है वह भाव सबलता के साथ
अनूठे ढंग से गुंफित है-
दोऊ अनंद सो ऑंगन माँझ विराजैं असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई॥
आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।
ऑंखिन ते गिरे ऑंसू के बूँद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाई॥
इसके विरूद्ध बिहारी की उन उक्तियों में जिनमें विरहिणी के शरीर के पास ले
जाते ही शीशी का गुलाबजल सूख जाता है;1 उसके विरह-ताप की लपट के मारे माघ
के महीने में भी पड़ोसियों का रहना कठिन हो जाता है,2 कृशता के कारण विरहिणी
साँस खींचने के साथ दो चार हाथ पीछे और साँस छोड़ने के साथ दो चार
1. औंधाई सीसी सुलखि विरह बरति बिललात।
बीचही सूखि गुलाब गौ, छींटौ छुई न गात॥
2. आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेह बस सखी सबै ढिग जाति॥
हाथ आगे उड़ जाती है,1 अत्युक्ति का एक बड़ा तमाशा ही खड़ा किया गया है। कहाँ
यह सब मजाक कहाँ विरहवेदना!
यह कहा जा चुका है कि उमड़ते हुए भाव की प्रेरणा से अकसर कथन के ढंग में कुछ
वक्रता आ जाती है। ऐसी वक्रता काव्य की प्रक्रिया के भीतर रहती है। उसका
अनूठापन भावविधान के बाहर की वस्तु नहीं। उदाहरण के लिए दासजी की ये
विरहदशासूचक उक्तियाँ लीजिए-
अब तौ बिहारी के वे बानक गए री,
तेरी तन दुति केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,
साँसन को भरिबो द्रुपदजा को चीर भो।
हिय को हरष मरु धरनि को नीर भो,
री! जियरो मनोभव सरन को तुनीर भो।
एरी ! बेगि करिकै मिलापु थिर थापु ,
न तौ आपु अब चहत अतनु को सरीर भो॥
ऐसी ही भाव प्रेरित वक्रता द्विजदेव की इस मनोहर उक्ति में है-
तू जो कही,! सँखि लोनो सरूप, सो मो अँखियान को लोनी गई लगि।
प्रेम के स्फुरण की विलक्षण अनुभूति नायिका को हो रही है-कभी ऑंसू आते हैं,
कभी अपनी दशा पर आप अचरज होता है, कभी हलकी सी हँसी आ जाती है कि अच्छी बला
मैंने मोल ली। इसी बीच अपनी अन्तरंग सखी को सामने पाकर किंचित् विनोदचातुरी
की भी प्रवृत्ति होती है। ऐसी जटिल अन्तर्वृत्ति द्वारा प्रेरित उक्ति में
विचित्रता आ ही जाती है। ऐसी चित्तवृत्तियों के अवसर घड़ी घड़ी नहीं आया
करते। सूरदासजी का 'भ्रमरगीत' ऐसी भावप्रेरित वक्र उक्तियों से भरा पड़ा है।
उक्ति की वहीं तक की वचनभंगी या वक्रता के संबंध में हमसे कुंतकजी का
'वक्रोक्ति: काव्यजीवितम्' मानते बनता है, जहाँ तक कि वह भावानुमोदित हो या
किसी मार्मिक अन्तवृत्ति से संबद्ध हो; उसके आगे नहीं। कुंतकजी की वक्रता
बहुत व्यापक है जिसके अंतर्गत वे वाक्यवैचित्रय की वक्रता और वस्तुवैचित्रय
की वक्रता दोनों लेते हैं। सालंकृत वक्रता के चमत्कार ही में वे काव्यत्व
मानते हैं। योरप में भी आजकल क्रोचे के प्रभाव से एक प्रकार का
वक्रोक्तिवाद जोर पर है। विलायती वक्रोक्तिवाद लक्षणाप्रधान है। लाक्षणिक
चपलता और प्रगल्भता में ही, उक्ति के अनूठे स्वरूप में ही, बहुत से लोग
वहाँ कविता मानने लगे हैं। उक्ति ही काव्य होती है, यह तो सिद्ध बात है।
हमारे यहाँ भी व्यंजक वाक्य ही काव्य माना जाता है। अबप्रश्नउ
1. इत आवति चलि जाति उत चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिंडोंरैं सै रहै लगी उसासनु साथ॥
यह है कि कैसी उक्ति, किस प्रकार की व्यंजना करनेवाला वाक्य। वक्रोक्तिवादी
कहेंगे कि ऐसी उक्ति जिसमें कुछ वैचित्रय या चमत्कार हो, व्यंजना चाहे
जिसकी हो, या किसी ठीक ठीक बात की न भी हो। पर जैसा कि हम कह चुके हैं,
मनोरंजन मात्र काव्य का उद्देश्य माननेवाले उनकी इस बात का समर्थन करने में
असमर्थ होंगे। वे किसी लक्षणा में उसका प्रयोजन अवश्य ढूँढ़ेंगे।
काव्य की भाषा
कविता में कही गई बात चित्र रूप में हमारे सामने आनी चाहिए। यह हम पहले कह
आए हैं। अत: उसमें गोचर रूपों का विधान अधिक होता है। वह प्राय: ऐसे रूपों
और व्यापारों को ही लेती है जो स्वाभाविक होते हैं और संसार में सबसे अधिक
मनुष्यों को सबसे अधिक दिखाई पड़ते हैं।
अगोचर बातों या भावनाओं को भी, जहाँ तक हो सकता है, कविता स्थूल गोचर रूप
में रखने का प्रयास करती है। इस मूर्तिविधान के लिए वह भाषा की लक्षणा
शक्ति से काम लेती है। जैसे 'समय बीता जाता है' कहने की अपेक्षा 'समय भागा
जाता है' कहना वह अधिक पसंद करेगी। किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया
खा जाना; कोई बात पी जाना, दिन ढलना या डूबना, मन मारना, मन छूना, शोभा
बरसना, उदासी टपकना इत्यादि ऐसी ही कविसमयसिद्ध उक्तियाँ हैं जो बोलचाल में
रूढ़ि होकर आ गई हैं। लक्षणा द्वारा स्पष्ट और सजीव आदान प्रदान का विधान
प्राय: सब देशों के कविकर्म में पाया जाता है। कुछ उदाहरण देखिए-
(क) धान्य भूमि वनपंथ पहारा।
जहँ जहँ नाथ पॉंवतुम धारा ॥ - तुलसी ।
(ख) मनहु उमगि अँग अँग छवि छलकै । - तुलसी।
(ग) चूनरि चारु चुई सी परै A
(घ) बनन में बागन में बगरो बसंत है । - पद्माकर।
(ङ) वृंदाबन बागन पै बसंत बरसो परै । - पद्माकर।
(च) हौं तो स्याम रंग में चोराय चित चोराचोरी ,
बोरत तो बोरयो पै निचोरत बनै नहीं । - पद्माकर।
(छ) एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल ,
हाल ही चलौ तौ चलौ , जोरे जुरि जायगी A
कहैं पद्माकर नहीं तौ ये झकोरे लगे ,
औरै लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जायगी A
तौ ही लगि चैन जौ लौं चेतिहै न चंदमुखी,
चेतैगी कहूँ तौ चाँदनी में चुरि जायगी A
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वस्तु या तथ्य के पूर्ण प्रत्यक्षीकरण तथा भाव
या मार्मिक अंतर्वृत्ति के अनुरूप व्यंजना के लिए लक्षणा का बहुत कुछ सहारा
कवि को लेना पड़ता है।
भावना को मूर्त रूप में रखने की आवश्यकता के कारण कविता की भाषा में दूसरी
विशेषता यह रहती है कि उसमें जाति संकेतवाले शब्दों की अपेक्षा
विशेष-रूप-व्यापार-सूचक शब्द अधिक रहते हैं। बहुत से ऐसे शब्द होते हैं
जिनसे किसी एक का नहीं बल्कि बहुत से रूपों या व्यापारों का एक साथ चलता सा
अर्थग्रहण हो जाता है। ऐसे शब्दों को हम जाति संकेत कह सकते हैं। ये
मूर्तविधान के प्रयोजन के नहीं होते। किसी ने कहा 'वहाँ बड़ा अत्याचार हो
रहा है'। इस अत्याचार शब्द के अंतर्गत मारना, पीटना, डॉंटना, डपटना, लूटना,
पाटना इत्यादि बहुत से व्यापार हो सकते हैं, अत: 'अत्याचार' शब्द के सुनने
से उन सब व्यापारों की एक मिली जुली अस्पष्ट भावना थोड़ी देर के लिए मन में
आ जाती है; कुछ विशेष व्यापारों का स्पष्ट चित्र या मूर्त रूप नहीं खड़ा
होता। इससे ऐसे शब्द कविता के उतने काम के नहीं। ये तत्वरनिरूपण, शास्त्री
यविचार आदि में ही अधिक उपयोगी होते हैं। भिन्न भिन्न शास्त्रोंए में बहुत
से शब्द तो विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं।
शास्त्रमीमांसक और तत्वबनिरूपक को किसी सामान्य तथ्य या तत्व तक पहुँचने की
जल्दी रहती है इससे वह किसी सामान्य धर्म के अंतर्गत आनेवाली बहुत सी बातों
को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक का अलग अलग दृश्य देखने दिखाने
में नहीं उलझता।
पर कविता कुछ वस्तुओं और व्यापारों को मन के भीतर मूर्त रूप में लाना और
प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कुछ देर रखना चाहती है। अत: उक्त प्रकार के
व्यापक अर्थसंकेतों से ही उसका काम नहीं चल सकता। इससे जहाँ उसे किसी
स्थिति का वर्णन करना रहता है वहाँ वह उसके अंतर्गत सबसे अधिक
मर्मस्पर्शिनी कुछ विशेष वस्तुओं या व्यापारों को लेकर उनका चित्र खड़ा करने
का आयोजन करती है। यदि कहीं के घोर अत्याचार का वर्णन करना होगा तो वह कुछ
निरपराध व्यक्तियों के वध, भीषण यंत्रणा, स्त्री बच्चों पर निष्ठुर प्रहार
आदि का क्षोभकारी दृश्य सामने रखेगी। 'वहाँ घोर अत्याचार हो रहा है' इस
वाक्य द्वारा वह कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न कर सकती। अत्याचार शब्द के
अंतर्गत न जाने कितने व्यापार आ सकते हैं, अत: उसे सुनकर या पढ़कर संभव है
कि भावना में एक भी व्यापार स्पष्ट रूप से न आए या आए भी तो ऐसा जिसमें
मर्म को क्षुब्ध करने की शक्ति न हो।
उपर्युक्त विचार से ही किसी व्यवहार या शास्त्र के पारिभाषिक शब्द भी काव्य
में लाए जाने योग्य नहीं माने जाते। हमारे यहाँ के आचार्यों ने पारिभाषिक
शब्दों के प्रयोग को 'अप्रतीत्व' दोष माना है। पर दोष स्पष्ट होते हुए भी
चमत्कार के प्रेमी कब मान सकते हैं? संस्कृत के अनेक कवियों ने वेदांत,
आयुर्वेद, न्याय के पारिभाषिक शब्दों को लेकर बड़े बड़े चमत्कार खड़े किए हैं
या अपनी बहुज्ञता दिखाई है। हिन्दी के किसी मुकदमेबाज कविता कहनेवाले ने
'प्रेमफौजदारी' नाम की एक छोटी सी पुस्तक में श्रृंगार रस की बातें अदालती
कार्रवाइयों पर घटाकर लिखी है। 'एकतरफा डिगरी', 'तनकीह' ऐसे ऐसे शब्द चारों
ओर अपनी बहार दिखा रहे हैं, जिन्हें सुनकर कुछ अशिक्षित या भद्दी रुचिवाले
वाह वाह भी कर देते हैं।
शास्त्र के भीतर निरूपित तथ्य को भी जब कोई कवि अपनी रचना के भीतर लेता है
तब वह पारिभाषिक तथा अधिक व्याप्तिवाले जातिसंकेत शब्दों को हटाकर उस तथ्य
को व्यंजित करनेवाले कुछ विशेष मार्मिक रूपों और व्यापारों का चित्रण करता
है। कवि गोचर और मूर्त रूपों के द्वारा ही अपनी बात कहता है। उदाहरण के लिए
गोस्वामी तुलसीदासजी के ये वचन लीजिए-
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तब कृपापात्र जन जागै।
इसमें माया में पड़े हुए जीवन की अज्ञानदशा का काव्यपद्धति पर कथन है। और
देखिए, प्राणी आयु भर क्लेश निवारण और सुखप्राप्ति का प्रयास करता रह जाता
है और कभी वास्तविक सुख शांति प्राप्त नहीं करता, इस बात को गोस्वामीजी यों
सामने रखते हैं-
डासत ही गई बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ ! नींद भरि सोयो।
भविष्य का अज्ञान अत्यंत अद्भुत और रहस्यमय है जिसके कारण प्राणी आनेवाली
विपत्ति की कुछ भी भावना न करके अपनी दशा में मग्न रहता है। इस बात को
गोस्वामीजी ने 'चरै हरित तृन बलिपसु' इस चित्र द्वारा व्यक्त किया है।
अँगरेज कवि पोप ने भी भविष्य के अज्ञान का यही मार्मिक चित्र लिया है,
यद्यपि उसने इस अज्ञान को ईश्वर का बड़ा भारी अनुग्रह कहा है-
उस बलिपशु को देख आज जिसका तू, रे नर !
अपने रँग में रक्त बहाएगा बेदी पर !
होता उसको ज्ञान कहीं तेरा है जैसा ,
क्रीड़ा करता कभी उछलता फिरता ऐसा?
अंतकाल तक हरा हरा चारा चभलाता।
हनन हेतु उस उठे हाथ को चाटे जाता।
आगम का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह 1 ॥
बातचीत में भी जब किसी को अपने कथन द्वारा कोई मार्मिकता का प्रभाव
1. The lamb thy riot dooms to bleed today
Had he thy reason, would he skip and play?
Pleased to the last he crops the flow’ry food’
And licks the hand just raised to shed his blood,
The blindness to the future kindly given.
—Essay on Man.
उत्पन्न करना होता है तब वह इसी पद्धति का अवलम्बन करता है। यदि अपनी पत्नी
पर अत्याचार करनेवाले किसी व्यक्ति को उसे समझाना है तो वह कहेगा कि
'तुमने इसका हाथ पकड़ा है'; यह न कहेगा कि 'तुमने इसके साथ विवाह किया है'।
'विवाह' शब्द के अंतर्गत न जाने कितने विधिविधान हैं जो सबके सब एकबारगी मन
में आ भी नहीं सकते और उतने व्यंजक या मर्मस्पर्शी नहीं होते। अत: कहने
वाला उनमें से जो सबसे अधिक व्यंजक और स्वाभाविक व्यापार 'हाथ पकड़ना' है,
जिससे सहारा देने का चित्र सामने आता है, उसे भावना में लाता है।
तीसरी विशेषता कविता की भाषा में वर्णविन्यास की है। 'शुष्को
वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे ' और 'नीरसतरुरिह विलसति पुरत:' का भेद हमारी
पंडितमंडली में बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। काव्य एक बहुत ही
व्यापक कला है। जिस प्रकारर् मूर्तविधान के लिए कविता चित्र विद्या की
प्रणाली का अनुसरण करती है उसी प्रकार नादसौष्ठव के लिए वह संगीत का कुछ
कुछ सहारा लेती है। श्रुतिकटु मानकर कुछ वर्णों का त्याग, वृत्तविधान, लय,
अंत्यानुप्रास आदि नादसौंदर्य साधन के लिए ही हैं। नादसौष्ठव के निमित्त
निरूपित वर्णविशिष्टता को हिंदी के हमारे कुछ पुराने कवि इतनी दूर तक घसीट
ले गए कि उनकी बहुत सी रचना बेडौल और भावशून्य हो गई। उसमें अनुप्रास की
लंबी लड़ी-वर्णविशेष की निरंतर आवृत्ति-के सिवा और किसी बात पर ध्याउन नहीं
जाता। जो बात भाव या रस की धारा का मन के भीतर अधिक प्रसार करने के लिए थी,
वह अलग चमत्कार या तमाशा खड़ा करने के लिए काम में लाई गई।
नादसौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है। तालपत्रा, भोजपत्रा, कागज आदि का
आश्रय छूट जाने पर भी वह बहुत दिनों तक लोगों की जिह्वा पर नाचती रहती है।
बहुत सी उक्तियों को लोग, उनके अर्थ की रमणीयता इत्यादि की ओर ध्यातन ले
जाने का कष्ट उठाए बिना ही प्रसन्नचित्त रहने पर गुनगुनाया करते हैं। अत:
नादसौंदर्य का योग भी कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिए कुछ न कुछ
आवश्यक होता है। इसे हम बिलकुल हटा नहीं सकते। जो अंत्यानुप्रास को फालतू
समझते हैं, वे छंद को पकड़े रहते हैं, जो छंद को भी फालतू समझते हैं, वे लय
में ही लीन होने का प्रयास करते हैं। संस्कृत से संबंध रखनेवाली भाषाओं में
नाद-सौंदर्य के समावेश के लिए बहुत अवकाश रहता है। अत: अँगरेजी आदि अन्य
भाषाओं की देखादेखी, जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को हम इस
विशेषता से वंचित कैसे कर सकते हैं?
हमारी काव्यभाषा में एक चौथी विशेषता भी है जो संस्कृत से ही आई है। वह यह
है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप, गुण या
कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है। ऊपर से देखने में तो पद्य के
नपे हुए चरणों में शब्द खपाने के लिए ही ऐसा किया जाता है, पर थोड़ा विचार
करने पर इससे गुरुतर उद्देश्य प्रकट होता है। सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता
बचाने के लिए की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं,
जिनसे कविता की पूर्ण परिपोषकता नहीं होती। अतएव कवि मनुष्यों के नामों के
स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो
स्वाभाविक और अर्थगर्भित होने के कारण सुननेवाले की भावना के निर्माण में
योग देते हैं। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबंधु चक्रपाणि, मुरलीधर,
सव्यसाची इत्यादि शब्द ऐसे ही हैं।
ऐसे शब्दों को चुनते समय इस बात का ध्या,न रखना चाहिए कि वे प्रकरण विरूद्ध
या अवसर के प्रतिकूल न हों। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी
के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए 'हे गोपिकारमण ! हे वृंदावन
बिहारी !' आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा 'हे मुरारि ! हे कंसनिकंदन
!' आदि संबोधनों से पुकारना उपयुक्त है; क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा कंस
आदि दुष्टों का मारा जाना देखकर उनसे अपनी रक्षा की आशा होती है, न कि उनका
वृंदावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर। इसी तरह किसी आपत्ति से
उद्धार पाने के लिए कृष्ण को 'मुरलीधर' कहकर पुकारने की अपेक्षा 'गिरिधर'
कहना अधिक अर्थसंगत है।
अलंकार
कविता में भाषा की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। वस्तु या व्यापार की
भावना चटकीली करने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुँचाने के लिए कभी किसी
वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है; कभी उसके रूपरंग या गुण
की भावना को उसी प्रकार के और रूपरंग मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप और
धर्मवाली और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है। कभी-कभी बात को भी
घुमा-फिराकर कहना पड़ता है। इस तरह के भिन्न-भिन्न विधान और कथन के ढंग
अलंकार कहलाते हैं। इनके सहारे से कविता अपना प्रभाव बहुत कुछ बढ़ाती है।
कहीं-कहीं तो इनके बिना काम ही नहीं चल सकता। पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि
ये साधन हैं, साध्यन नहीं। साध्य को भुलाकर इन्हीं को साध्य मान लेने से
कविता का रूप कभी-कभी इतना विकृत हो जाता है कि वह कविता ही नहीं रह जाती।
पुरानी कविता में कहीं-कहीं इस बात के उदाहरण मिल जाते हैं।
अलंकार चाहे अप्रस्तुत वस्तुयोजना के रूप में हों (जैसे उपमा, रूपक,
उत्प्रेक्षा इत्यादि में), चाहे वाक्य वक्रता के रूप में (जैसे
अप्रस्तुतप्रशंसा, परिसंख्या, ब्याजस्तुति, विरोध इत्यादि में), चाहे
वर्णविन्यास के रूप में (जैसे अनुप्रास में), लाए जाते हैं वे प्रस्तुत भाव
या भावना के उत्कर्षसाधन के लिए ही। मुख के वर्णन में जो कमल, चन्द्र आदि
सामने रखे जाते हैं वह इसीलिए जिनमें इनकी वर्णरुचिरता, दीप्ति इत्यादि के
योग से सौंदर्य की भावना और बढ़े। सादृश्य या साधर्म्य दिखाना उपमा,
उत्प्रेक्षा इत्यादि का प्राकृत लक्ष्य नहीं है। इस बात को भूलकर कविपरंपरा
में बहुत से ऐसे उपमान चला दिए गए हैं जो प्रस्तुत भावना में सहायता
पहुँचाने के स्थान पर बाधा डालते हैं। जैसे, नायिका का अंगवर्णन सौंदर्य की
भावना प्रतिष्ठित करने के लिए ही किया जाता है। ऐसे वर्णन में यदि कटि का
प्रसंग आने पर भेड़ या सिंह की कमर सामने कर दी जाएगी तो सौंदर्य की भावना
में क्या वृद्धि होगी? प्रभात के सूर्यबिम्ब के संबंध में इस कथन से कि 'है
शोणित कलित कपाल यह किस कापालिक काल को' अथवा शिखर की तरह उठे हुए मेघखंड
के ऊपर उदित होते हुए चन्द्रबिंब के संबंध में इस उक्ति से कि ''मनहुँ
क्रमेलक पीठ पै धरयो गोल घंटा लसत'', दूर की सूझ चाहे प्रकट हो, पर
प्रस्तुत सौंदर्य की भावना की कुछ भी पुष्टि नहीं होती।
पर जो लोग चमत्कार ही को काव्य का स्वरूप मानते हैं वे अलंकार को काव्य का
सर्वस्व कहना ही चाहेंगे। चंद्रालोककार तो कहते हैं कि-
अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती॥
भरतमुनि ने रस की प्रधानता की ओर ही संकेत किया था; पर भामह, उद्भट, आदि
कुछ प्राचीन आचार्यों ने वैचित्रय का पल्ला पकड़ अलंकारों को प्रधानता दी।
इनमें बहुतेरे आचार्यों ने अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में-रस,
रीति, गुण आदि काव्य में प्रयुक्त होनेवाली सारी सामग्री के अर्थ में किया
है। पर ज्यों ज्यों शास्त्री य विचार गंभीर और सूक्ष्म होता गया त्यों
त्यों साध्ये और साधनों को विविक्त करके काव्य के नित्य स्वरूप या मर्मशरीर
को अलग निकालने का प्रयास बढ़ता गया। रुद्रट और मम्मट के समय से ही काव्य का
प्रकृत स्वरूप उभरते उभरते विश्व नाथ महापात्रा के साहित्य दर्पण में साफ
ऊपर आ गया।
प्राचीन गड़बड़झाला मिटे बहुत दिन हो गए। वर्ण्य वस्तु और वर्णनप्रणाली बहुत
दिनों से एक दूसरे से अलग कर दी गई है। प्रस्तुत अप्रस्तुत के भेद ने बहुत
सी बातों के विचार और निर्णय के सीधे रास्ते खोज दिए हैं। अब यह स्पष्ट हो
गया है कि अलंकार प्रस्तुत या वर्ण्य वस्तु नहीं, बल्कि वर्णन की भिन्न
भिन्न प्रणालियाँ हैं, कहने के खास खास ढंग हैं। पर प्राचीन अव्यवस्था के
स्मारक स्वरूप कुछ अलंकार ऐसे चले आ रहे हैं जो वर्ण्य वस्तु का निर्देश
करते हैं और अलंकार नहीं कहे जा सकते-जैसे, स्वभावोक्ति, उदात्त,
अत्युक्ति। स्वभावोक्ति को लेकर कुछ अलंकारप्रेमी कह बैठते हैं कि प्रकृति
का वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार ही है। पर स्वाभावोक्ति अलंकार कोटि में
आ ही नहीं सकती। अलंकार वर्णन करने की प्रणाली है। चाहे जिस वस्तु या तथ्य
के कथन को हम किसी अलंकारप्रणाली के अंतर्गत नहीं ला सकते हैं। किसी वस्तु
विशेष से किसी अलंकारप्रणाली का संबंध नहीं हो सकता।किसी तथ्य तक वह परिमित
नहीं रह सकती। वस्तुनिर्देश अलंकार का काम नहीं, रस-व्यवस्था का विषय है।
किन किन वस्तुओं, चेष्टाओं या व्यापारों का वर्णन किन किन रसों के विभावों
और अनुभावों के अंतर्गत आएगा, इसकी सूचना रसनिरूपण के अंतर्गत ही हो सकती
है।
अलंकारों के भीतर स्वभावोक्ति का ठीक-ठीक लक्षणनिरूपण हो भी नहीं सका है।
काव्यप्रकाश की कारका में यह लक्षण दिया गया है-
स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादे: स्वक्रियारूपवर्णनम्।
अर्थात् 'जिसमें बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह
स्वभावोक्ति है।' प्रथम तो बालकादिक पद की व्याप्ति कहाँ तक है, यही स्पष्ट
नहीं। अत: यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के रूप और व्यापार का
वर्णन स्वभावोक्ति है। खैर, बालक की रूपचेष्टा को लेकर ही स्वभावोक्ति की
अलंकारता पर विचार कीजिए। वात्सल्य में बालक के रूप आदि का वर्णन आलंबन
विभाव के अंतर्गत और उसकी चेष्टाओं का वर्णन, उद्दीपन विभाव के अंतर्गत
होगा। प्रस्तुत वस्तु की रूप, क्रिया आदि के वर्णन को रस क्षेत्र से घसीटकर
अलंकार क्षेत्र में हम कभी नहीं ले जा सकते। मम्मट ही के ढंग के और
आचार्यों के लक्षण भी हैं। अलंकार सर्वस्वकार राजानक रुय्यक कहते हैं-
सूक्ष्म वस्तु स्वभाव यथावद्वर्णनं स्वभावोक्ति: ।
आचार्य दंडी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा है-
नानावस्थं पदार्थानां साक्षाद्विवृण्वती।
स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा ।
बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकारों के भीतर आ ही नहीं सकती। वक्रोक्तिवादी
कुंतक ने भी इसे अलंकार नहीं माना है।
जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्रीत अलंकार लादकर सुंदर नहीं हो सकती, उसी प्रकार
प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की रमणीयता के अभाव में अलंकारों का ढेर काव्य का
सजीव स्वरूप नहीं खड़ा कर सकता। केशवदास के पचीसों पद्य ऐसे रखे जा सकते हैं
जिनमें यहाँ से वहाँ तक उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ भरी हैं, शब्दसाम्य के
बड़े-बड़े खेल तमाशे जुटाए गए हैं पर उनके द्वारा कोई मार्मिक अनुभूति नहीं
उत्पन्न होती। उन्हें कोई सहृदय या भावुक काव्य न कहेगा। आचार्यों ने भी
अलंकारों को 'काव्य शोभाकर', 'शोभातिशायी' आदि ही कहा है। महाराज भोज भी
अलंकार को 'अलमर्थमलंकर्तु:’ ही कहते हैं। पहले से सुंदर अर्थ को ही अलंकार
शोभित कर सकता है। सुंदर अर्थ की शोभा बढ़ाने में जो अलंकार प्रयुक्त नहीं
वे काव्यालंकार नहीं। वे ऐसे ही हैं जैसे शरीर पर से उतारकर किसी अलग कोने
में रखा हुआ गहनों का ढेर। किसी भाव या मार्मिक भावना से असंपृक्त अलंकार
चमत्कार या तमाशे हैं। चमत्कार का विवेचन पहले हो चुका है।
अलंकार हैं क्या? सूक्ष्म दृष्टिवालों ने काव्यों के सुंदर-सुंदर स्थल चुने
और उनकी रमणीयता के कारणों की खोज करने लगे। वर्णन शैली या कथन की पद्धति
में ऐसे लोगों को जो जो विशेषताएँ मालूम होती गईं, उनका उनका वे नामकरण
करते गए। जैसे 'विकल्प' अलंकार का निरूपण पहले-पहल राजानक रुय्यक ने किया।
कौन कह सकता है कि काव्यों में जितने रमणीय स्थल हैं, सब ढूँढ़ डाले गए,
वर्णन की जितनी सुंदर प्रणालियाँ हो सकती हैं, सब निरूपित हो गईं अथवा
जो-जो स्थल रमणीय लगे उनकी रमणीयता का कारण वर्णन प्रणाली ही थी? आदिकाव्य
रामायण से लेकर इधर तक के काव्यों में न जाने कितनी विचित्र वर्णन
प्रणालियाँ भरी पड़ी हैं जो न निर्दिष्ट की गई हैं और न जिनके कुछ नाम रखे
गए हैं।
उपसंहार
कविता पर अत्याचार भी बहुत कुछ हुआ है। लोभियों, स्वार्थियों और खुशामदियों
ने उसका गला दबाकर कहीं अपात्रों की-आसमान पर चढ़ानेवाली-स्तुति कराई है,
कहीं द्रव्य न देनेवालों की निराधार निंदा। ऐसी तुच्छ वृत्तिवालों का
अपवित्र हृदय कविता के निवास के योग्य नहीं। कविता देवी के मंदिर ऊँचे,
खुले, विस्तृत और पुनीत हृदय हैं। सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की
सामग्री में ही सौंदर्य नहीं ढूँढ़ा करते। वे फूस के झोपड़ों, धूल-मिट्टी में
सने किसानों, बच्चों के मुँह में चारा डालते हुए पक्षियों, दौड़ते हुए
कुत्तों। और चोरी करती हुई बिल्लियों में कभी-कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन
करते हैं जिसकी छाया भी महलों और दरबारों तक नहीं पहुँच सकती। श्रीमानों के
शुभागमन पर पद्य बनाना, बात-बात में उनको बधाई देना, कवि का काम नहीं।
जिनके रूप या कर्मकलाप जगत् और जीवन के बीच में उसे सुंदर लगते हैं, उन्हीं
के वर्णन में वह 'स्वांत:सुखाय' प्रवृत्त होता है।
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी
जातियों में, किसी-न-किसी रूप में, पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान
न हो, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा। बात यह है कि मनुष्य
अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मंडल बाँधता चला आ रहा है जिसके भीतर
बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का संबंध भूला-सा रहता है। इस
परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर रहता है। इसी से
अंत:प्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य
जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं।
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