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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -2
रस
मीमांसा

       काव्य का लक्ष्य

 

काव्य या कविकर्म के लक्ष्य को हम क्रम से तीन भागों में बाँट सकते हैं-

    (1) शब्दविन्यास द्वारा श्रोता का ध्‍यान आकर्षित करना।

    (2) भावों का स्वरूप प्रत्यक्ष करना।

    (3) नाना पदार्थों के साथ उनका प्रकृत संबंध प्रत्यक्ष करना।

    मेरी समझ में काव्य का अंतिम लक्ष्य तीसरा है। यह दूसरी बात है कि अपनी शक्ति के अनुसार कोई पहली सीढ़ी पर रह जाता है, कोई दूसरी ही तक पहुँच पाता है। श्रोता के संबंध में यदि हम पहले दो विभागों का ही विचार करते हैं तो कविता केवल आनंद या मनोरंजन की वस्तु प्रतीत होती है।

                             ×                   ×                     ×

...भाव के विषय का कैसा ही यथातथ्य चित्रण क्यों न हो यदि उसके वर्णन के अंतर्गत ही उक्त भाव को शब्द और चेष्टा द्वारा प्रकट करनेवाला न होगा, तो        [ शास्‍त्रीय दृष्टि से रस कच्चा ही समझा जायगा। इसका निचोड़ यह निकला कि रससंचार का प्रयासी कवि विषय को श्रोता या दर्शक के सामने नहीं रखता वास्तव में किसी वर्णित पात्र के सामने रखता है। इस [ ढंग से जो कविता श्रोता या दर्शक को संबोधन करके [ कही जाती है और जिसका उद्देश्य पाठक या श्रोता में भाव   [ संचार करके उसे किसी ओर प्रवृत्त करना [ रहता है वह 'रस-काव्य' नहीं।1 मतलब यह है कि रसविधायक कवि का काम श्रोता या पाठक में भावसंचार करना नहीं उसके समक्ष भाव का रूप प्रदर्शित करना है [ जिसके दर्शन से श्रोता के हृदय में भी उक्त भाव की अनुभूति होती है जो प्रत्येक दशा में आनन्दस्वरूप ही रहता है।

    अब विचारने की बात है कि क्या प्रत्येक दशा में इस रीति से 'साधारणीकरण' होता है। दो राजा युद्ध के लिए सन्नद्ध हैं। उनमें से किसी के संबंध में कोई ऐसी बात नहीं कही गई है कि जिससे हमें उसपर क्रोध हो सके। दोनों समान रूप से सज्जन, वीर और उदार हैं। उनमें से यदि किसी के क्रोध का दृश्य सामने लाया

 

1. यहाँ पर मूल प्रति में फूल बना हुआ है पर उससे संबद्ध अंश अनुपलब्ध है।

जाएगा तो क्या दूसरे पर हमें भी क्रोध आ सकता है? मैं समझता हूँ नहीं। ऐसे वर्णन में हमें केवल उस भाव को दर्शाने की निपुणता का अनुभव प्रधान रूप से होगा जिसका लगाव हमारे क्रोध से न होगा। साहित्य के आचार्यों ने काव्य से प्राप्त अनुभव को क्यों आनंदस्वरूप कहा इसका कारण उक्त उदाहरण से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस विवेचन के अनुसार 'मनोरंजन' के अतिरिक्त काव्य का और कोई उच्च उद्देश्य नहीं ठहरता।

    पर क्या हम कह सकते हैं कि आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य का इतना ही परिमित उद्देश्य था? क्या पाठक पर श्रोता के हृदय में वे और किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते थे? क्या उनके क्रोध, शोक और जुगुप्सा के आलम्बन उद्दीपन मनुष्य मात्र के क्रोध, शोक और जुगुप्सा के विषय नहीं हैं? क्या रावण पर क्रोध प्रकट करते हुए राम के मुख से निकले हुए शब्द हमारे हृदय से निकले हुए नहीं प्रतीत होते? रावण और उसके कर्म ऐसे हैं जिन पर मनुष्य जाति क्रोध करने के लिए विवश है। यह क्रोध, भारतीय जनता में ऐसा स्थायी हो गया है कि रामलीला में कभी-कभी कागज के बने रावण को लड़के युद्ध के पहले पत्थरों से मार-मारकर गिरा देते हैं। इनका नाम है साधारणीकरण। विशेष का चित्रण करने में भी 'भाव' के विषय सामान्यत्व की ओर जब कवि की दृष्टि रहेगी तभी यह 'साधारणीकरण' हो सकता है। पर यह सजीव सृष्टिमात्र के हृदय को अपने हृदय में रखनेवाले स्वतंत्र कवियों में ही पाया जायगा। जिनका उद्देश्य राजाओं को प्रसन्न मात्र करना होगा वे ऐसे व्यापक लक्ष्य का निर्वाह नहीं कर सकते।

    कवि को अपने कार्य में अंत:करण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है-कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान हैं। बुद्धि की सहायता तो काव्य के बाह्यरूप में पड़ती है। वासना की सहकारिणी होकर जब कल्पना काम करती है तभी वह काव्योचित कल्पना होती है। वासना [ और कल्पना के सहयोग से भावों के विषय भी प्रत्यक्ष किए जाते हैं और भाव भी व्यक्त किए जाते हैं। सच्चे काव्य में प्रत्यक्षीकरण के लिए इन दोनों का संयोग परम आवश्यक है। सच्चा कवि उसी व्यक्ति या वस्तु का स्वरूप कल्पना में लाएगा जिसके प्रति उसकी किसी प्रकार की अनुभूति होगी। पात्र द्वारा भाव की व्यंजना करने में कवि के दो रूप होते हैं-सहज और आरोपित। यदि व्यंजित किए जानेवाले भाव का आलम्बन सामान्य है-ऐसा है जो मनुष्य मात्र के चित्त में वही भाव उत्पन्न कर सकता है-तो समझना चाहिए कि कवि अपने सहज रूप में उसे प्रकट कर रहा है। जैसे रावण के प्रति राम का क्रोध। यदि व्यंजित किया जानेवाला भाव ऐसा नहीं है [ तो समझना चाहिए कि वह उसे आरोपित रूप में प्रकट कर रहा है जैसे राम के प्रति रावण का क्रोध। आरोपित भाव कवि अनुभव नहीं करता, कल्पना द्वारा लाता है। आश्रय की स्थिति में अपने को समझकर आलम्बन के प्रति कवि भी यदि उसी भाव का अनुभव करता है जिस भाव का आश्रय करता है तो कवि उस भाव का प्रदर्शन सहज रूप में करता है। यदि कवि का भाव उदासीन है या अनौचित्य ज्ञान के कारण विरक्त है तो आश्रय के भाव का प्रदर्शन वह केवल आरोपित या आहार्य रूप में करता है।

    ऐसे स्थल पर रसाभास या भावाभास ही मानना चाहिए। जो त्रुटि है उसी की ओर लोगों ने ध्‍यान  दिया पर आचार्यों ने तिर्यक् विषयक रतिभाव का जो उल्लेख रसाभास के भीतर किया उससे यह स्पष्ट लक्षित हो जाता है कि जिस भाव के प्रति कवि या श्रोता का मन उदासीन है उसको भी रसाभास या भावाभास के ही भीतर वे रखना चाहते थे। मृगी के प्रति मृग जिस रतिभाव का अनुभव करता है वह अनुचित नहीं है। बात यह है कि मृगी रूप आलम्बन में श्रोता या पाठक अपने दांपत्य रति की पूर्ण चरितार्थता का अनुभव नहीं कर सकता। 1

    अपने यहाँ के आचार्यों के दिए संकेतों के अनुसार प्राचीन काव्यों की प्रकृति का अनुसंधान करने से पूर्ण रस का यही स्वरूप निर्दिष्ट होता है जो ऊपर कहा गया है। इसे स्वीकार कर लेने पर भारतीय काव्य प्रकृति के निरूपण के लिए आदर्शात्मक (Idealistic); शिक्षात्मक (Didactic) आदि रस और भाव के क्षेत्र के बाहर के शब्दों के व्यवहार की आवश्यकता नहीं रह जाती। लोककल्याण के निमित्त प्रतिष्ठित धर्म और नीति के लक्ष्य पर पहुँचनेवाला एक दूसरा अधिक सुगम और आकर्षक मार्ग अलग खुला हुआ है इसका पूर्ण आभास हमारे यहाँ के प्राचीन काव्य देते हैं। आदर्शात्मक कहने से चरित्र में साधारणत्व का होना अनिवार्य समझा जाता है। पर आगे चलकर दिखाया जायगा कि पूर्ण रस के संचार के लिए सर्वत्र असाधारणत्व अपेक्षित नहीं होता। साधारण-असाधारण  दोनों प्रकार के चरित्र द्वारा पूर्ण रस की अनुभूति हो सकती है। पूर्ण रस में कसर आलम्बन के अनौचित्य और अनुपयुक्तता के कारण होगी, साधारणत्व के कारण नहीं। आलम्बन के प्रति श्रोता की जिस उदासीनता का उल्लेख हुआ है वह सच पूछिए तो विशेषत्व के कारण होती है, जो आलम्बन मनुष्य जाति की सामान्य प्रकृति से संबंध नहीं रखता, आश्रय की विशेष प्रकृति या स्थिति से ही संबंध रखता है, उसके प्रति आश्रय के भाव का भागी श्रोता या पाठक पूर्णरूप से नहीं हो सकता। इस सहानुभूति के अभाव से रस का पूरा परिपाक न होगा। राम के प्रति रावण के, शकुंतला के प्रति दुर्वासा के, एक अच्छे राजा के प्रति दूसरे अच्छे राजा के क्रोध के साथ योग देने से श्रोता या पाठक का क्रोध नहीं जायगा। अत: ऐसे क्रोध के अनुभव-संचारी से पुष्ट वर्णन द्वारा भी रौद्र रस की पूर्ण

 

1. प्रतिनायक निष्टत्वे तदवदधमपात्रतिर्य्यगादिगते।

   श्रृंगारे अनौचित्यम्....................................

   -साहित्य-दर्पण 3-264

अनुभूति नहीं हो सकती। पर कवि के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह सर्वत्र पूर्ण रस ही लाया करे।

    भारी-भारी महाकाव्यों का प्रधान विषय बनाने के योग्य अवश्य प्राचीन महाकविअसाधारण चरित्र ही मानते थे। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की वाग्धारा जब प्रवाहोन्मुख हुई थी तब उन्होंने ऐसे चरित्र की जिज्ञासा  नारदजी से की थी।1 महाकाव्य के योग्य आदर्श पुरुष और आदर्श चरित्र जब उन्हें मिल गया तब वे रामायण ऐसे विशद महाकाव्य की रचना में प्रवृत्त हुए। पर उस प्रधान स्थायी चरित्र के भीतर सामान्य चरित्रों का स्वाभाविक वर्णन भी बराबर है। उसमें यहाँ तक राम और भरत के चरित्र का असाधारण उत्कर्ष और रावण के चरित्र का असाधारण अपकर्ष ही नहीं; बल्कि कैकेयी की स्‍त्रीसुलभ साधारण ईष्या, मंथरा की साधारण कुटिलता, सुग्रीव की व्यावहारिक कृतज्ञता आदि की भी झलक उसके भीतर है। सारांश यह कि आदिकवि के महाकाव्य में देवता और राक्षस ही नहीं साधारण मनुष्य भी हैं। कालिदास ने रघुवंश और कुमारसंभव ऐसे महाकाव्यों के लिए ही साधारण आदर्श चरित्र की आवश्यकता समझी, मेघदूत ऐसे खंडकाव्य के लिए नहीं जिसमें न विरही यक्ष साधारण है न उसका विरह और न मेघ के मार्ग में पड़नेवाले प्राकृतिक दृश्य। पर यह काव्य संस्कृत साहित्य में अपने ढंग का सबसे निराला है। इसी प्रकार मालविकाग्निमित्र ऐसे नाटकों की रचना आदर्श चरित्र लेकर नहीं हुई है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि सब प्रकार के भारतीय काव्य आदर्श प्रधान हैं। मनुष्य जाति में अधिकतर पाई जानेवाली साधारण वृत्तियों का वास्तविक चित्रण कहीं है ही नहीं।

    अधिकांश काव्यों में कृत्रिमता अवश्य पाई जाती है। पर उसका कारण सर्वत्र उच्च आदर्श चरित्र या दृश्य की योजना नहीं है बल्कि अन्धपरम्परानुसरण और रीति ग्रन्थों का कठोर शासन है।

रीतिग्रंथों का बुरा प्रभाव

काव्यरीति का निरूपण थोड़ा बहुत सब देशों के साहित्य में पाया जाता है। पर हमारे यहाँ के कवियों को रीतिग्रन्थों ने जैसा चारों ओर से जकड़ा वैसा और कहीं के कवियों को नहीं। इन ग्रन्थों के कारण उनकी दृष्टि संकुचित हो गई, लक्षणों की कवायद पूरी करके वे अपने कर्त्‍तव्य की समाप्ति मानने लगे, काव्य का स्वरूप संघटित करने के स्थान पर वे बाहरी सजावट में अधिक उलझने लगे। सारांश यह कि वे इस बात को भूल चले कि किसी वर्णन का उद्देश्य श्रोता के हृदय पर प्रभाव डालना है। बात यह है कि ग्रंथ सीमा का अतिक्रमण कर गए। रसनिरूपण में भावों और रसों को

 

1. वाल्मीकीय रामायण, बालकांड, प्रथम सर्ग 1-5 तक।

गिनाने का यह प्रभाव पड़ा कि जो बातें भावों और रसों के निर्दिष्ट शब्दों के भीतर आती हुई उन्हें प्रत्यक्ष रूप से न दिखाई पड़ीं उनके वर्णन से उन्हें कोई प्रयोजन ही न रह गया। केवल गिनी गिनाई बातों को निर्दिष्ट शैली के अनुसार ऑंख मूँदकर कह दिया, बस पूर्ण रस की रसम अदा हो गई। प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन का हिंदी काव्यों में जो अभाव पाया जाता है उसका मुख्य कारण यही है। रस, नायिका, अलंकार आदि के लक्षण और उदाहरण जानना जब साहित्य पाठकों के लिए आवश्यक हो गया तब कवियों को एक ही पद्य में पूर्ण रस लाने का हौसला बढ़ा। कुछ बातें तो कविजी ने कहीं और कुछ बातें नायिका, अलंकार आदि का इशारा पाकर पाठक आप लगा लेने लगे। इस प्रकार उस स्वरूपचित्रण से बहुत कुछ छुट्टी पा जाने से लोग पदक्रीड़ा में प्रवृत्त हुए, वर्ण्य वस्तुओं को गिनाने और उनका वर्गीकरण करने से बाह्य और आभ्यंतर दोनों सृष्टियों की अनेकरूपता का काव्यों में अभाव सा हो चला। जिस प्रकार बाहर दृश्यों के अनंत रूप हैं उसी प्रकार मनुष्य की मानसिक स्थिति के भी, जिस प्रकार पृथ्वी पर अनेक प्रकार के दृश्य हैं उसी प्रकार मनुष्य भी अनेक स्वभाव और चरित्रवाले हैं। उद्दीपन की कुछ वस्तुओं के गिनाने और नायक नायिका के धीराधीरा, धीरोदात्त इत्यादि भेद निर्दिष्ट करने से दोनों ओर की अनेकता पर पर्दा सा डाल दिया गया। धीरोदात्त, धीरोदधत, धीरललित और धीरप्रशांत जो चार प्रकृति के नायक कहे गए हैं, क्या उनमें जितनी प्रकृति के मनुष्य हो सकते हैं सब आ जाते हैं? विविध प्रवृत्तियों के मेल से संघटित जो अनेक स्वभाव के मनुष्य दिखाई पड़ते हैं, उनके स्पष्टीकरण के लिए मानव प्रकृति के अन्वीक्षण की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता उक्त चार प्रकार के ढाँचे तैयार मिलने से पिछले कवियों को न रह गई। इसी से हमारे यहाँ के अधिकांश नाटकों में नाटकस्थ पात्र निर्दिष्ट साँचों में ढले हुए होते हैं। नायिकाओं के जो भेद किए गए वे भी केवल श्रृंगार की दृष्टि से, सर्वव्यापारव्यापी प्रकृतिभेद की दृष्टि से नहीं। निम्न वर्ग की अशिक्षित स्त्रियों की सामान्य द्वेषपूर्ण कुटिलता और इधर का उधर लगाने की प्रवृत्ति का जो उदाहरण मंथरा के रूप में वाल्मीकि ने दिया वह नायिकाभेद के ग्रन्थों में नहीं मिलेगा। सारांश यह है कि नायक नायिकाभेद चरित्र-चित्रण में सहायक नहीं हुए, बाधक हुए। उसके अनुसार जिन प्रबन्धकाव्यों या नाटकों में पात्रों की योजना हुई उनमें मानव प्रकृति के बहुत ही थोड़े अंश का चित्र  हमें मिलता है-सो भी परम्पराभुक्त और पिष्टपेषित। इसी से सामान्य चरित्रचित्रों की जो अनेकरूपता हम योरप के काव्यों और नाटकों में पाते हैं वह यहाँ के नहीं।

    जिस प्रकृतिक्षेत्र के एक-एक अंग का दर्शन कवि का काम है उसके बीच पगडंडियाँ निकाल देने से कवियों की यात्रा तो सुगम हो गई पर उसका अधिकांश उनकी दृष्टि से दूर हो गया। कवि को प्रकृति कानन में विचरण करना रहता है, दूसरे प्रयोजन से यात्रा करनेवालों के समान केवल इस पार से उस पार निकल जाना नहीं। आवश्यकता से अधिक लीक बना देने से लीक पीटनेवालों की संख्या अवश्य बहुत बढ़ गई-पर इससे काव्य के व्यापक उद्देश्य की अधिक सिद्धि नहीं हुई। लीक पीटने की शिक्षा रीतिग्रन्थ लिखनेवाले आचार्यों ने ही दी, यह बात कुछ अलंकारों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाती है। रूपकातिशयोक्ति को लीजिए जिसमें पहेली के ढंग पर केवल उपमानों का कथन होता है, उपमेयों को पाठक अपना समझते-बूझते रहते हैं। यह तभी संभव है जब उपमान नियत हों। इस वस्तु की उपमा इस वस्तु से कवि देते आए हैं यह साधारण तभी हो सकता है जब एक ही उपमा का खूब पिष्टपेषण हुआ हो।

    इस अनंत विश्‍व के भावोत्तोजक रूप भी अनंत हैं। पर कुछ महापुरुषों ने वर्ण्य वस्तुओं तक को गिनाने का प्रयास किया। केशवदासजी को इस हवा का सबसे पिछला झोंका लगा, इससे उनकी कविप्रिया में वर्ण्य वस्तुओं की खासी फिहरिस्त मौजूद है-

कविन कहे कवितान के अलंकार द्वै रूप।

एक कहै साधारणै एक विशिष्ट सरूप॥

सामान्यालंकार ,को चारि प्रकार प्रकास।

वर्ण, वर्ण्य, भू, राजश्री भूषण केसवदास॥

-कविप्रिया, पाँचवाँ प्रभाव 2-3

इसी सामान्यालंकार के अंतर्गत संपूर्ण वर्ण्य सामग्री का फलस्वरूप विवेचित है। विशेषालंकार के अंतर्गत वर्णन शैली अर्थात् प्रसिद्ध उपमादि अलंकारों का वर्णन हुआ है।

    किसी आचार्य ने1 कह दिया कि महाकाव्य में इतने सर्ग होने चाहिए और इन इन वस्तुओं का वर्णन होना चाहिए। फिर क्या था, जिसे महाकाव्य लिखने का हौसला हुआ उसे झख मारकर उन सब वस्तुओं का वर्णन करना पड़ा, चाहे कथा के प्रसंग में किसी वस्तु की आवश्यकता बिलकुल न हो। इस प्रकार उन्हें अप्रासंगिक वर्णन का भी समावेश अपने काव्यों में करना पड़ा। जलविहार और श्मशान का प्रसंग चाहे कथा में न आता हो पर कविजी को उसे लाना चाहिए।

    सच्चे काव्य में सहज भाव प्रधान होता है। आरोपित नहीं। उसमें कवि, पात्र और श्रोता तीनों के हृदय का समन्वय होता है जिससे काव्य का जो प्रकृत लक्ष्य है, पदार्थों के साथ भावों के प्रकृत संबंध का प्रत्यक्षीकरण-जगत् के साथ हमारी रागात्मिका वृत्ति का सामंजस्य-वह सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही काव्य अमर या चिरस्थायी होते हैं जिनमें मनुष्यमात्र अपने भावों के आलम्बन पाते हैं।

    जो काव्य न कवि की अनुभूति से संबंध रखते हैं, न श्रोता की, उनमें केवल कल्पना और बुद्धि के सहारे भावों के स्वरूप का प्रदर्शन होता है। यदि हम किसी भाव के स्वरूपप्रदर्शन मात्र का विचार करते हैं, श्रोता के हृदय में उसके संचार का

 

1. देखिए, विश्‍वनाथ महापात्राकृत साहित्यदर्पण, छठा परिच्छेद, श्‍लोक 315-324

नहीं, तो कविता केवल ऊपरी दिलबहलाव या मनोरंजन की वस्तु प्रतीत होती है और

कवि का कार्य चित्रकार के कार्य से अधिक महत्त्व का नहीं जान पड़ता। जैसे चित्रकार नाना रंगों के मेल से पहले लोगों का ध्‍यान  चित्र  की ओर ले जाता है फिर आकार और भाव प्रदर्शित करके उनका मनोरंजन करता है, वैसे ही कवि भी अपने सुंदर और चटकीले शब्दों द्वारा श्रोता या पाठक को आकर्षित करता है, फिर किसी भाव का स्वरूप दिखाकर बैठे ठाले लोगों को एक प्रकार के आनंद का अनुभव करा देता है। जो काव्य की पहुँच यहीं तक समझते हैं वे इतना ही कह सुनकर संतुष्ट हो जाते हैं कि जिस प्रकार चित्रकार अपने रंगों से पदार्थों का रूप दिखाता है, उसी प्रकार कवि अपने शब्दों से दिखाता है। वे प्रदर्शन की कुशलता मात्र पर संतुष्ट होते हैं, प्रदर्शित वस्तु चाहे कुछ हो। प्रदर्शित वस्तु या विषय का मनुष्यमात्र की वासनात्मक प्रकृति से कहाँ तक संबंध है-वह वस्तु या विषय मनुष्यमात्र के हृदय को कहाँ तक स्पर्श कर सकती है-यह देखने का झंझट वे नहीं उठाते। यदि कविजी ने किसी हाथी की झूल का वर्णन कर दिया और उसमें सहस्रों सूर्य उतार लाए या किसी का त्योरी बदलना, दाँत पीसना और बड़बड़ाना दिखा दिया-बिना इसका निर्देश किए कि जिस पर त्योरी बदली जा रही है वह कैसा है-तो बस उनकी वाहवाही हो गई। क्या इसके भी कहने की आवश्यकता है कि ऐसी रचना मनुष्य के हृदय की भीतरी तह तक नहीं पहुँचती केवल ऊपरी दिलबहलाव भर करती है। इसी हलकेपन के कारण बहुत से लोग काव्य को विलास की सामग्री और अमीरों के शौक की चीज समझने लगे। भाँटों और कवियों में कोई भेद ही न रह गया। भोज ऐसे राजा बात बनानेवाले खुशामदियों को कवि कहकर लाखों का पुरस्कार देने लगे। उसी भोज की तारीफों के पुल बाँधनेवाले उसके प्रताप1 को सूर्य से भी बढ़कर बतानेवाले चारों ओर से आते थे जिसके सामने ही विदेशी इस देश में आकर भारतीयों की इतनी दुर्दशा करने लगे थे।

    जहाँ आचार्यों ने पूर्ण रस माना है वहाँ तीन हृदयों का समन्वय चाहिए। आलम्बन द्वारा भाव की अनुभूति प्रथम तो कवि में चाहिए फिर उसके वर्णित पात्र में और फिर श्रोता या पाठक में विभाव द्वारा जो 'साधारणीकरण' कहा गया है वह तभी चरितार्थ हो सकता है। यदि श्रोता के हृदय में भी प्रदर्शित भाव का उदय न हुआ-उस भाव की सहानुभूति से भिन्न प्रकार का आनंद रूप अनुभव हुआ तो 'साधारणीकरण' कैसा? क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि के वर्णन यदि श्रोता के हृदय में आनंद का संचार करें तो या तो श्रोता सहृदय नहीं या कवि ने बिना इन भावों का स्वयं अनुभव किए

1. भोजप्रतापं तु विधाय धात्रा शेषेर्निरस्तै: परिमाणुभि: किम्।

   हरेकरेऽभूत्पविरम्बरे  च  भानु पयोलेरुदरे  कृशानु:

   -भोजप्रबंध, 92

उनका रूप प्रदर्शित किया है। कवि को 'कलानिपुण' और 'सहृदय' दोनों होना चाहिए। 'कलानिपुणता' और 'सहृदता' अब दोनों एक ही वस्तु नहीं। बहुत से लोग सहृदय होते हैं, पर अपनी प्रबल वासनात्मक अनुभूति को व्यक्त करने की निपुणता उनमें नहीं होती। इसी प्रकार इसका उलटा भी होता है। बहुत से काव्यों के बन जाने और लक्षण ग्रन्थों की भरमार हो जाने से इधर बहुत दिनों से हृदयहीनों के लिए जैसे बुद्धि और कल्पना के सहारे काव्य का सा स्वरूप खड़ा कर देना सुगम हो गया है वैसे ही काव्य का रसिक या शौकीन बनना भी। भाव का विषय केवल वह व्यक्ति ही नहीं होता जिसे आलम्बन कहते हैं उसके रूप, गुण, कर्म आदि भी होते हैं। कभी-कभी तो अन्य भाव के कारण श्रोता की दृष्टि निर्दिष्ट व्यक्ति वा आलम्बन से हटकर वर्णित रूप, गुण आदि के सहारे वैसा ही कोई और व्यक्ति अपने भाव के आश्रय के लिए कल्पित कर लेती है। 'कुमारसंभव' में पार्वती के अंग प्रत्यंग के वर्णन और शिव के प्रेम को पढ़कर श्रोता उस वर्णन द्वारा रतिभाव का अनुभव तो करता है, पर अनुभूति के साथ पार्वती देवी को कल्पना में नहीं रखता-हटाए रहता है। इसी प्रकार राम के इस विलाप को पढ़कर-

रे वृक्षा: पर्वतस्था गिरिगहनलता वायूना वीज्यमाना।

रामोऽहं व्याकुलात्मा दशरथतनय: शोकशुक्रेण दग्ध:

बिम्बोष्ठी चारुनेत्री सुविपुलजघना बद्धनागेंद्र कांची।

हा! सीता केन नीता मम हृदयगता को भवान्केन दृष्टा॥

-हनुमन्नाटक, अंक 5, श्‍लोक10

    कोई अपनी प्रियतमा के ध्‍यान में भी लीन हो सकता है। इस प्रकार रत्यादि स्थायी भावों का सामान्य रूप से प्रतीत होना साहित्य के आचार्यों ने स्वीकार किया है।

        मेरी समझ में रसास्वाद का प्रकृत स्वरूप 'आनंद' शब्द से व्यक्त नहीं होता। 'लोकोत्तर', 'अनिर्वचनीय' आदि विशेषणों से न तो उसके अवाचकत्व का परिहार होता है न प्रयोग का प्रायश्चित। क्या क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि आनंद का रूप धारण करके ही श्रोता के हृदय में प्रकट होते हैं, अपने प्रकृत रूप का सर्वथा विसर्जन कर देते हैं, उसे कुछ भी लगा नहीं रहने देते? क्या 'विभावत्व' उनका स्वरूप हरकर उन्हें एक ही स्वरूप-सुख का-दे देता है। क्या दु:ख के भेद सुख के भेद से प्रतीत होने लगते हैं? क्या मृत पुत्र को लिए विलाप करती हुई शैव्या से राजा हरिश्चंद्र का कफन माँगना देख सुनकर ऑंसू नहीं आ जाते, दाँत निकल पड़ते हैं? क्या महमूद के अत्याचारों का वर्णन  [ सुनकर या पढ़कर यह जी में नहीं आता कि वह सामने आता तो उसे कच्चा खा जाते? क्या कोई दुखांत कथा पढ़कर बहुत देर तक उसकी खिन्नता नहीं बनी रहती? 'चित्त का यह द्रुत होना' क्या आनंदगत है? इस आनंद शब्द ने काव्य के महत्त्व को बहुत कम कर दिया है-उसे नाच तमाशे की तरह बना दिया है।

सूक्ति और काव्य

'आनंद' शब्द ने जिस प्रकार काव्य की नीयत को बदनाम किया है, उसी प्रकार 'चमत्कार' शब्द ने उनके रूप को बहुत कुछ बिगाड़ा है। उसके कारण विलक्षण रीति से कोई बात कहना, चाहे वह भावोत्‍तेजक या भावोत्पादक न हो, कविता करना समझा जाने लगा। बात बनानेवाले भी कवि बनाए जाने लगे। 'अनूठी बात' सुनने की उत्कंठा रखनेवाले अपने को काव्यरसिक समझने लगे। काव्य का प्रकृत स्वरूप लोगों की ऑंखों से ओझल हो गया। यहाँ तक कि नारायण पंडित को सर्वत्र अद्भुत रस ही दिखाई देने लगा और उन्होंने कह दिया कि-

        रसे सारश्‍चमत्कार : सर्वत्रप्यनुभूयते।

तच्चमत्कारसारत्वे  सर्वत्रप्यद्भुतो  रस:

काव्य में असाधारणत्व

काव्य में असाधारणत्व वहीं अपेक्षित होता है जहाँ भावों का अत्यंत उत्कर्ष दिखाना होता है। इस उत्कर्ष के लिए कहीं-कहीं असाधारणत्व पहले विभाव में प्रदर्शित होकर भाव (स्थायी) के उत्कर्ष का कारणस्वरूप होता है। जैसे श्रृंगार के आलम्बन के अत्यंत सौंदर्य, करुणा के आलम्बन के अत्यंत दु:, रौद्र के आलम्बन की अतिशय दु:साध्‍यता इत्यादि द्वारा आश्रय के भावों के उत्कर्ष के लिए हेतु प्रस्तुत किया जाता है। पर आगे चलकर दिखाया जायगा कि भावों के उत्कर्ष के लिए भी सर्वत्र आलम्बन का असाधारणत्व अपेक्षित नहीं होता। साधारण से साधारण वस्तु हमारे गंभीर से गंभीर भावों का आलम्बन हो सकती है। साहचर्यजन्य प्रेम कितना बलवान् होता है उसमें प्रवृत्तियों को लीन करने की कितनी शक्ति होती है, सब लोग जानते हैं, पर वह असाधारणत्व पर अवलम्बन नहीं होता। जिनका हमारा लड़कपन में साथ रहा है, जिन पेड़ों के नीचे, टीलों पर, जिन नदी नालों के किनारे हम अपने साथियों को लेकर बैठा करते थे उनके प्रति हमारा प्रेम जीवन भर स्थायी होकर बना रहता है। अत: चमत्कारवादियों की यह समझ ठीक नहीं कि जहाँ असाधारणत्व होता है वहीं इसका परिपाक होता है, अन्यत्र नहीं।

    प्रसंगप्राप्त साधारण असाधारण सभी वस्तुओं का वर्णन कवि कार कर्त्‍तव्य है। काव्यक्षेत्र अजायबखाना या नुमाइशगाह नहीं है। जो सच्चा कवि है उसके द्वारा अंकित साधारण वस्तुएँ भी मन को तल्लीन करनेवाली होती हैं। साधारण के बीच में यथास्थान असाधारण की योजना करना सहृदय और कलाकुशल कवि का काम है। साधारण असाधारण अनेक वस्तुओं के मेल से एक विस्तृत और पूर्ण चित्र  संघटित करनेवाले ही कवि कहे जाने के अधिकारी हैं। साधारण के बीच में ही असाधारण की प्रकृत अभिव्यक्त हो सकती है। साधारण से ही असाधारण की सत्ता है। अत: केवल वस्तु के असाधारणत्व या व्यंजनप्रणाली के असाधारणत्व में ही काव्य समझ बैठना अच्छी समझदारी नहीं।1

    इसी प्रकार की एकांगदर्शिता के कारण कवि-कर्मक्षेत्र से सहृदयता धक्के देकर निकाल दी गई और कवि का कर्मक्षेत्र जीवन के कर्जक्षेत्र से काटा जाने लगा। फालतू कल्पना बुद्धि-जो संसार के किसी काम की न ठहरी-कविता के मैदान में दखल जमाने लगीं। जो कल्पना भर के प्राणियों तक के दु:ख को इस रूप में न उपस्थित कर सकी कि हृदय द्रवीभूत होने का कुछ अभ्यास प्राप्त करता, उसे उस क्षेत्र में घुसने की राह क्या खुला खेलने के लिए मैदान मिल गया, जिसमें विश्‍व की अनुभूति को प्रत्यक्ष करनेवाली महती कल्पनाएँ अपना विकास दिखाती आती थीं। एक कविजी किसी राजा के सुयश की फैलती हुई सफेदी से घबराकर कहते हैं-

           यथा  यथा ते  सुयशोऽभिवर्द्धते   सितां  त्रिलोकीमि व  कर्त्‍तमुद्यतम्। 

           तथा तथा  मे  हृदयं  विदूयते प्रियालकालीधवलत्वशंकय॥।                                                 भोजप्रबन्ध, श्‍लोक76

  भला कहिए तो यह किसी हृदय की वास्तविक अनुभूति हो सकती है? श्रोता के हृदय पर इस उक्ति का कोई गहरा प्रभाव पड़ सकता है? क्या यश की शुक्लता का अनुभव चूने की कलई के रूप में ही हुआ करता है? इस प्रकार बातें बनाने को लोग कविता समझने लगे। फिर कविता सिर्फ एक मजाक की चीज या शब्दचातुरीमात्र रह गई। 'सखुनसंज'2 और 'शायर' एक ही चिड़िया का नाम समझनेवाले मुसलमानों के आने पर यह धारणा और भी जड़ पकड़ गई। पर जो सहृदय हैं वे 'सूक्ति' और 'कविता' को एक ही चीज नहीं समझ सकते। 'सुभाषित' और 'भोजप्रबन्ध' की सब सूक्तियाँ कविता नहीं कहला सकतीं। हाँ, भावों का उद्रेक करनेवाली रससूक्ति को अवश्य कविता कह सकते हैं।

    इस प्रकार अनुभूति को जवाब मिल जाने पर जब कल्पना ही का सहारा रह गया, तब 'स्वत:संभवी वस्तु'3 की अपेक्षा 'कविप्रौढ़ोक्ति सिद्ध वस्तु'4 की ओर कवियों का ध्‍यान  अधिक रहने लगा। उत्प्रेक्षा की भरमार रहने लगी-वस्तु और व्यापार का सूक्ष्म निरीक्षण न रह गया। यहाँ पर यह विचार करना आवश्यक हुआ कि काव्य में कल्पना का स्थान क्या है और उसका उपयोग क्या है क्योंकि कुछ लोग काव्य को कल्पना की क्रीड़ा मात्र मान उसे पढ़े लिखों की गपबाजी कहा करते हैं।

    काव्य का आभ्यंतर स्वरूप या आत्मा भाव या रस है। अलंकार उसके बाह्य

 

1. देखिए, 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' नामक निबन्ध।

2. [ वचनविदग्धा, बात समझानेवाला। ]

3. (काव्य के अतिरिक्त लोक में दिखाई पड़नेवाले घट, पट आदि पदार्थ।)

4. (कवि की वचनविदग्धाता से कल्पित पदार्थ जो बाहर नहीं दिखाई देते, जैसे कीर्ति का रंग उज्ज्वल मानना आदि।)

स्वरूप हैं। दोनों में कल्पना का काम पड़ता है। जिस प्रकार विभाव, अनुभाव में हम उसका प्रयोग पाते हैं उसी प्रकार रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों में भी। जबकि रस ही काव्य में प्रधान वस्तु है तब उसके संयोजकों में जो कल्पना का प्रयोग होता है वही आवश्यक और प्रधान ठहरा। रस का आधार खड़ा करनेवाला जो विभावन व्यापार है कल्पना का प्रधान कर्मक्षेत्र वही है। पर वहाँ उसे अनुभूति वा रागात्मिका वृत्ति के आदेश पर कार्य करना पड़ता है। उसे ऐसे स्वरूप खड़े करने पड़ते हैं जिनके द्वारा रति, हास, शोक, क्रोध, घृणा आदि स्वयं अनुभव करने के कारण कवि जानता है कि श्रोता भी अनुभव करेंगे। अपनी अनुभूति की व्यापकता के कारण मनुष्यमात्र की अनुभूति को तथा उसके विषयों को अपने हृदय में रखनेवाले ही ऐसे स्वरूपों को अपने मन में ला सकते हैं।1

 

 

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