आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -2
रस मीमांसा
भाव
पहले कह आए हैं कि काव्य का लक्ष्य 'भावों' के उपर्युक्त विषयों को सामने
रखकर सृष्टि के नाना रूपों के साथ मानवहृदय का सामंजस्य स्थापित करना है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और 'शील' के संस्थापक हैं। अत: कहा जा सकता
है कि मनुष्य के जीवन की सच्ची झलक काव्य में ही दिखाई पड़ती है।
सुख और दु:ख की इंद्रियज वेदना के अनुसार पहले-पहल राग और द्वेष आदिम
प्राणियों में प्रकट हुए जिनसे दीर्घ परंपरा के अभ्यास द्वारा आगे चलकर
वासनाओं और प्रवृत्तियों का सूत्रपात हुआ। रति, शोक, क्रोध, भय आदि पहले
वासना के रूप में थे, पीछे भावरूप में आए। जात्यंतर परिणाम द्वारा समुन्नत
योनियों का विकास और मनोविज्ञानमय कोश का पूर्णविधान हो जाने पर विविध
वासनाओं की नींव पर रति, हास, शोक, क्रोध इत्यादि 'भावों' की प्रतिष्ठा
हुई। इंद्रियज सुखदु:ख से भावगत हर्ष, शोक आदि में सबसे बड़ी विशेषता तो यह
हुई कि पहले में प्रत्यय-बोध आवश्यक नहीं था, पर दूसरे में प्रत्यय की
प्रधानता हुई-पहले में ध्यान मुख्यत: सुखदु:ख पर रहता था और दूसरे में
हर्षशोक के विषय में रहने लगा। इंद्रियज संवेदन वेदनाप्रधान होता है, वासना
प्रवृत्तिप्रधान होती है और भाव वेद्यप्रधान (आलम्बनप्रधान) होता है।
वासनात्मक प्रवृत्ति में 'लक्ष्य' और 'आलम्बन' भावना या प्रत्ययरूप में
निर्दिष्ट नहीं होते। बहुत से जीव जंतु कोई भारी शब्द या खटका सुनते ही भाग
खड़े होते हैं। मनुष्य भी कभी-कभी ऐसा करता है। इस प्रकार की चेष्टा केवल
इंद्रियज संवेदन पर निर्भर रहती है। प्रत्येक 'भाव' का आदिम वासनात्मक रूप
प्राय: इसी प्रकार का होता है और उसका विधान शरीर की भीतरी और बाहरी बनावट
के अनुसार होता है। जिन क्षुद्र से क्षुद्र जीवों के शरीर में बचाव के लिए
शस्त्राविधान होता है वे बाधा पहुँचाने पर आप-से-आप संस्कारवश जिधर से बाधा
आती हुई जान पड़ती है उस ओर झपट पड़ते हैं। दुर्गंधयुक्त सड़े-गले आहार से जो
विशेष प्रकार का क्षोभ घ्राणेंद्रिय और रसनेंद्रिय में होता है उसकी
अनुभूति जो कभी-कभी वमनेच्छा या मतली के रूप में होती है-घृणा की प्रवृत्ति
का मूल है। आगे चलकर अंत:करण में प्रत्यय या भावना का विधान हो जाने पर ऐसे
पदार्थों के दर्शन और स्पर्श क्या श्रवण मात्र से भी घृणा जाग्रत होने लगी।
इसी प्रकार क्रमश: जुगुप्सा के 'भाव' का विधान हुआ। भावयोजना के सहारे
मनुष्य गंदे और मैले-कुचैले लोगों से ही नहीं बल्कि मलिन अंत:करण वाले
पापियों से भी घृणा करने लगा। 'प्रत्ययबोध' की ओर लक्ष्य करके ही
साहित्यिकों ने 'भाव' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है चित्त की चेतन
दशा विशेष। रति, क्रोध, भय आदि की वासनात्मक अवस्था में किसी चेतन दशा की
अपेक्षा नहीं।
वासना या संस्कार प्राणी में केवल क्रिया के समय में ही नहीं और काल
में भी बराबर निहित रहता है; पर भाव का विधान केवल उद्दीपन और क्रिया के
समय होता है, उसके उपरांत नहीं रह जाता। पात्र के भाव की ही प्रतीति श्रोता
या पाठक को रसरूप में होती है। इसी से साहित्य-दर्पणकार ने प्रतीतिकाल में
ही रस की सत्ता मानी है आगे पीछे नहीं-'न तु दीपेन घट इव पूर्वसिद्धो
व्यज्यते।1'
वासना और भाव में दो बातों का और भेद है। वासना की प्रेरणा से जो
क्रिया होती है उसका रूप निर्दिष्ट होता है, वह सदा उसी रूप की होती है, पर
भाव के अनुसार जो क्रिया होती है वह बहुरूपिणी होती है-अर्थात् वह कभी किसी
प्रकार की होती है, कभी किसी प्रकार की। दूसरी बात यह है कि वासनात्मक
प्रवृत्ति का 'जीवन प्रयत्न' से सीधा लगाव होता है, पर भाव के और लक्ष्य
हुआ करते हैं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि 'भाव' का वासनात्मक प्रवृत्ति
से कोई लगाव नहीं रह जाता। मूल में वासनात्मक प्रवृत्ति बनी रहती है और
'भाव' से उस प्रवृत्ति को उत्तेजना मिलती है। 'भाव' की प्रतिष्ठा से बड़ी
भारी बात यह होती है कि वासनात्मक प्रवृत्ति में जहाँ पहले केवल विषय के
संपर्क काल में ही क्रिया होती थी वहाँ 'भाव' के संकेत रूप में स्थिर होने
के कारण उक्त काल के पहले और पीछे भी क्रिया होने लगी। गाय अपने बछड़े को
सामने पाकर ही प्रसन्न नहीं होती, जंगल से चरकर लौटते समय अपने बछड़े का
ध्यान करके भी बड़े उत्साह के साथ बोलती हुई घर लौटती है। मनुष्य अपने
विरूद्ध शत्रु की तैयारियों की खबर पाकर भी क्रुद्ध होता है और आक्रमण के
पीछे उसका स्मरण करके भी। इस प्रकार 'भाव' की प्रतिष्ठा से प्राणियों के
कर्मक्षेत्र का विस्तार बढ़ गया। 'भाव' मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है। वह
क्षत्पिपासा, कामवेग आदि शरीर वेगों से भिन्न है।
'भाव' का विश्लेषण करने पर उसके भीतर तीन अंग पाए जाते हैं-
(1) वह अंग जो प्रवृत्ति या संस्कार के रूप में अंतस्संज्ञा में रहता
है (वासना)।
(2) वह अंग जो विषय बिंब के रूप में चेतना में रहता है और 'भाव' का
प्रकृत स्वरूप है (भाव, आलम्बन आदि की भावना)।
(3) वह अंग जो आकृति या आचरण में अभिव्यक्त होता है और बाहर देखा
1. साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद 1।
जा सकता है (अनुभाव और नाना प्रयत्न)।
इनमें से प्रथम का वह अंश जो पितृपरंपरा के बीच उत्तरोत्तर बद्धमूल
होता आया है और विषयसंपर्क होते ही उत्तेजित होकर सदा एक ही ढंग की क्रिया
(जैसे सुकड़ना, भागना, छिपना) उत्पन्न करता है 'वासना' या संस्कार कहलाता
है। दूसरे के अंतर्गत आलम्बन के प्रति अनुभूति विशेष के बोध के अतिरिक्त
अनेक प्रकार की भावनाएँ और विचार भी आ जाते हैं। इस रीति से किसी एक 'भाव'
के अधिकार में उच्च और निम्न श्रेणी की अंत:करण वृत्तियों और शरीर
व्यापारों का विधान मिलता है। विवेकात्मक बुद्धिव्यापार भी 'भावों' के शासन
के भीतर आ जाते हैं।
सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य के व्यापार बहुरूपी और
जटिल होते गए, त्यों-त्यों उनके मूल रूप बहुत कुछ आच्छन्न होते गए। भावों
के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और लक्ष्यों की स्थापना होती गई;
वासनाजन्य मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि द्वारा निश्चित व्यापारों काविधान
बढ़ता गया। इस प्रकार बहुत से ऐसे व्यापारों से मनुष्य घिरता गया जिनके साथ
उसके भावों का सीधा लगाव नहीं। जैसे आदि में भय का लक्ष्य अपने शरीर और
अपनी संतति ही की रक्षा तक था; पर पीछे गाय, बैल, अन्न आदि की रक्षा आवश्यक
हुई, यहाँ तक कि होते-होते धान, मान, अधिकार, प्रभुत्व इत्यादि अनेक बातों
की रक्षा की चिंता ने घर किया और रक्षा के उपाय भी वासनाजन्य प्रवृत्ति से
भिन्न प्रकार के होने लगे। इसी प्रकार क्रोध, घृणा, लोभ आदि अन्य भावों के
विषय भी अपने मूल रूपों से भिन्न रूप धारण करने लगे। कुछ भावों के विषय तो
'अमूर्त' तक होने लगे जैसे कीर्ति की लालसा। ऐसे भावों को ही बौद्ध दर्शन
में 'अरूपराग' कहते हैं; पर भावों के विषयों और प्रेरितव्यापारों में यह
प्रत्यक्ष अनेकरूपता आने पर भी उनका संबंध भावों के मूल रूपों और उनके मूल
विषयों से परोक्ष रूप में बना है और बराबर बना रहेगा। किसी का कुटिल भाई
उसे संपत्ति से एकदम वंचित रखने के लिए वकीलों की सलाह से एक नया दस्तावेज
तैयार कराता है। इसकी खबर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है। प्रत्यक्ष रूप में
उसके क्रोध का विषय है वह नया दस्तावेज। पर उस दस्तावेज का संबंध अन्तत:
जाकर इस बात से ठहरता है कि उसे और उसकी संतति को अन्न, वस्त्र न मिलेगा।
अत: उसके क्रोध में और उस कुत्ते के क्रोध में जिसके सामने का भोजन कोई
दूसरा कुत्ता छीन रहा है, सिद्धांतत: कोई भेद नहीं है, भेद है केवल विषय
के थोड़ा रूप बदलकर आने में। इसी रूप बदलने का नाम है सभ्यता। इस रूप बदलने
से होता यह है कि उससे उत्तेजित क्रोध आदि को भी अपना रूप बदलना पड़ता
है-वह भी कुछ कपड़े-लत्ते पहनकर समाज में आता है जिससे मारपीट, छीन-खसोट
आदि भद्दे समझे जानेवाले व्यापारों का कुछ निवारण होता है।
पर यह प्रच्छन्नरूप उतना मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। इसी से इस
प्रच्छन्नता का उद्धाटन 'काव्य' का एक मुख्य कार्य है। ज्यों-ज्यों सभ्यता
बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों यह काम बढ़ता जायगा, मनुष्य की मूल रागात्मिका
वृत्ति से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से
परदों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी
त्यों-त्यों एक ओर तो काव्य की आवश्यकता बढ़ती जाएगी दूसरी ओर कविकर्म कठिन
होता जायगा। ऊपर जिस क्रुद्ध व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है वह यदि क्रोध
से छुट्टी पाकर अपने भाई के चित्त में दया का संचार करना चाहेगा तो क्षुब्ध
होकर उससे कहेगा-'भाई! तुम सब प्रयत्न इसीलिए न करते हो कि तुम पक्की हवेली
में बैठकर हलवा-पूरी खाओ और मैं एक झोपड़ी में बैठा सूखे चने चबाऊँ,
तुम्हारे लड़के दुशाले ओढ़कर निकलें और मेरे बच्चे ठंड से काँपते रहें।' यह
हुआ प्रकृत रूप का प्रत्यक्षीकरण। इसमें सभ्यता के बहुत से आवरणों को हटाकर
वे मूल गोचर रूप सामने रखे गए हैं जिनसे हमारे भावों का सीधा लगाव है और जो
इस कारण भावों को उत्तेजित करने में समर्थ हैं। कोई बात जब इस रूप में आयगी
तभी उसे काव्य का रूप प्राप्त होगा। 'तुमने हमें नुकसान पहुँचाने के लिए
जाली दस्तावेज बनाया' इस वाक्य में रसात्मकता नहीं। इसी बात को ध्यान में
रखकर ध्वनिकार ने कहा है-नहि कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभ:1। इसी
प्रकार देश की आजकल की दशा के वर्णन में यदि हम केवल इस प्रकार के वाक्य
कहते जायँ कि 'हम मूर्ख, बलहीन और आलसी हो गए हैं, हमारा धन विदेश चला जाता
है, रुपये का डेढ़ पाव घी बिकता है, स्त्रीशिक्षा का अभाव है तो वे
छंदोबद्ध होने पर भी काव्य पद के अधिकारी न होंगे। सारांश यह कि काव्य के
लिए अनेक स्थलों पर हमें भावों के विषय के मूल और आदिम रूपों तक जाना होगा
जो मूर्त और गोचर होंगे। जबतक भावों से सीधा लगाव रखनेवाले मूर्त और गोचर
रूप न मिलेंगे तब तक काव्य का वास्तव रूप खड़ा नहीं हो सकता। भावों के
अमूर्त विषयों के आधार भी मूल में मूर्त और गोचर मिलेंगे, जैसे यशोलिप्सा
में कुछ दूर चलकर उस आनंद के उपभोग की प्रवृत्ति छिपी हुई पाई जाएगी जो
अपनी तारीफ कान में पड़ने से हुआ करता है।
काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिंबग्रहण अपेक्षित होता
है। यह बिंबग्रहण निर्दिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है। 'रुपये
का डेढ़ पाव घी मिलता है' इस कथन से कल्पना में यदि कोई बिंब या मूर्ति
उपस्थित होगी तो वह तराजू लिए हुए बनिये की होगी। जिससे हमारे करुण भाव का
सीधा लगाव न होगा। बहुत कम लोगों को घी खाने को मिलता है, अधिकतर लोग
रूखी-सूखी खाकर रहते हैं-इस बात तक हम अर्थग्रहण परंपरा द्वारा इस चक्कर के
साथ पहुँचते हैं-एक रुपये का बहुत कम घी मिलता है इससे रुपयेवाले ही घी खा
सकते हैं; पर रुपयेवाले बहुत कम हैं, इससे अधिक जनता घी नहीं पा सकती,
रूखी-सूखी
1. धवन्यालोक, तृतीय उद्योत, पृष्ठ 148।
खाकर रहती है। यदि इसे व्यंजना कहें तो यह वस्तुव्यंजना होगी जिससे काव्य
को उतना सरोकार नहीं। इस विषय का विस्तृत विवेचन 'शब्दशक्ति' के अंतर्गत
होगा।
ऊपर जो भाव का विश्लेषण किया गया उससे यह स्पष्ट है कि 'भाव' का विधान
हो जाने पर भी वासनात्मक प्रवृत्ति मूल में बनी रहती है। बात यह है कि आदिम
क्षुद्र जंतुओं में पहले सब व्यापार केवल बँधी चली आती हुई सहज प्रवृत्ति
के अनुसार होते रहे फिर आगे चलकर उन्नत जंतुओं में प्रवृत्ति के उत्तेजक
विषय की 'प्रत्यय' के रूप में धारणा भी होने लगी। इस विषय-प्रत्यय के साथ
सुख या दु:ख की अनुभूति का बोध भी मिला समझना चाहिए। अत: भाव उस विशेष रूप
के चित्तविकार को कहते हैं जिसके अंतर्गत विषय के स्वरूप की धारणा,
सुखात्मक या दु:खात्मक अनुभूति का बोध और प्रवृत्ति के उत्तेजन से विशेष
कर्मों की प्रेरणा पूर्वापर संबद्ध संघटित हों। संक्षेप में-
प्रत्ययबोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ़ संश्लेष
का नाम 'भाव' है।
मन के प्रत्येक वेग को भाव नहीं कह सकते, मन का वही वेग 'भाव' कहला
सकता है जिसमें चेतना के भीतर आलम्बन आदि प्रत्यय रूप से प्रतिष्ठित होंगे।
मनोविज्ञानियों के अनुसार प्रधान भाव हैं-क्रोध, भय, हर्ष, शोक, घृणा,
आश्चर्य और जिज्ञासा। भावविधान के भीतर जिस प्रकार प्रवृत्तियाँ हैं उसी
प्रकार मनोवेग मात्र भी हैं जिन्हें आलम्बनप्रधान न होने के कारण हम 'भाव'
नहीं कह सकते, जैसे चकपकाहट, घबराहट, सोने या टहलने को जी करना इत्यादि।
इच्छा भी एक प्रकार का मनोवेग ही है, पर 'भाव' पर पहुँचता हुआ
स्वतंत्रविधान नहीं। उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं होता, दूसरे भावों के
लक्ष्य को लेकर वह चलता है। उसमें निश्चयात्मिका बुद्धि का योग अधिक होता
है। उसमें दूरस्थ लक्ष्य या परिणाम धारणा अधिक स्फुट होती है इससे वेग की
मात्रा कम होती है। पर इस 'इच्छा' से स्थिति-भेद के अनुसार कुछ संचारी
भावों की उत्पत्ति होती है, जैसे, इच्छा की पूर्ति के अच्छे लक्षण दिखाई
देने पर आशा, पूर्ति में विलंब होने से व्याकुलता, पूर्ति न होने से
नैराश्य, पूर्ति की ओर यथेष्ट अवसर न हो सकने पर विषाद इत्यादि। कहने की
आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक विधान का एक निर्दिष्ट लक्ष्य हुआ करता है और
भाव एक मानसिक शारीरिक विधान या व्यवस्था है। मनुष्य के प्रधान भावों के
लक्ष्य परिणाम कभी-कभी इतने दूरस्थ हुआ करते हैं कि पूर्ति के पहले 'इच्छा'
के लिए अवकाश रहा करता है।
भावों के वर्गीकरण का प्रयत्न आधुनिक वैज्ञानिकों ने इधर छोड़-सा दिया
है। उन्होंने दो भेद किए हैं-मूल और तद्भव। जिस भाव की अनुभूति किसी दूसरे
भाव की पूर्वानुभूति की आश्रित न हो वह मूल भाव है-जैसे, क्रोध, भय, हर्ष,
शोक, आश्चर्य। जो दूसरे भाव की अनुभूति के आश्रय से उत्पन्न हो वह तद्भव
है-जैसे, दया, कृतज्ञता, पश्चात्ताप इत्यादि। दया के अनुभव के लिए यह
आवश्यक है कि दूसरे के शोक या पीड़ा की-सी अवस्था का हम पहले अनुभव कर चुके
हों।
भावविधान की सबसे आधुनिक मीमांसा शैंड ने की है। उन्होंने निरूपित
किया कि अंत:करण वृत्तियों का विधान भी एक शासनव्यवस्था के रूप में है
जिसके अनुसार विशेष-विशेष 'वेग' और 'प्रवृत्तियाँ' विशेष-विशेष 'भावों' के
शासन के भीतर रहती हैं और 'भावों' का भी 'भावकोशों' के भीतर न्यास होता है।
किसी एक अवसर पर उपर्युक्त तीन अवयवों से युक्त जो चित्तविकार उपस्थित होगा
वह तो भाव होगा। पर चित्त में ऐसी स्थिर प्रणाली की प्रतिष्ठा हो जाती है
जिसके कारण या जिसके भीतर समय-समय पर कई भावों की अभिव्यक्ति हुआ करती है।
इस स्थिर प्रणाली का नाम भावकोश है। इस निरूपण के अनुसार प्रीति (रति) और
वैर 'भाव' नहीं है भावकोश मात्र हैं जिनके भीतर स्थितिभेद से अनेक भाव
प्रकट होते रहते हैं। 'रति' को ही लीजिए। प्रिय का साक्षात्कार होने पर
हर्ष, वियोग होने पर विषाद, उस पर कोई विपत्ति आने से उसे खोने की शंका,
उसे दु:ख पहुँचानेवाले को देख क्रोध इत्यादि अनेक भावों का स्फुरण 'रति' की
प्रणाली स्थिर हो जाने से हुआ करता है। इन भावों के अतिरिक्त 'रति' की न तो
कोई स्वतंत्र सत्ता है और न कोई विशेष स्वरूप। सारांश यह कि रति कोई एक भाव
नहीं जिसकी कोई विशेष अनुभूति किसी एक अवसर पर होती हो। प्रीति, वैर, गर्व,
अभिमान, तृष्णा, इंद्रियलोलुपता इत्यादि भावकोश ही माने गए हैं। प्रीति
आलम्बनभेद से अनेक रूप धारण करती है-जैसे, दांपत्य रति, वात्सल्य रति,
मैत्री, स्वदेश-प्रेम, धर्मप्रेम, सत्यप्रेम इत्यादि।
भावकोश से अभिप्राय भावसमष्टि नहीं है बल्कि अंत:करण में संघटित एक
प्रणाली मात्र है जिसमें कई भिन्न-भिन्न भावों का संचार हुआ करता है। जैसे,
'रति' की प्रणाली के भीतर जो भाव प्रकट होते हुए कहे गए हैं 'रति' उनसे
संयोजित कोई मिश्र भाव नहीं है। इसी प्रकार बैर आदि को भी समझिए। रति या
'प्रीति' के विपरीत गति बैर की है। दोनों के लक्ष्य में भेद है। जिन-जिन
भावों की अभिव्यक्ति रतिप्रणाली के भीतर कही गई उन सबकी अभिव्यक्ति बैर
प्रणाली के भीतर भी होती है; पर विपरीत स्थितियों में। जैसे बैरी के
साक्षात्कार से हर्ष के स्थान पर विषाद, उसके दूर होने से विषाद के स्थान
पर हर्ष होता है, इसी प्रकार और सब समझिए। पर बैर को हम इन भावों के मिश्रण
से संघटित कोई एक भाव नहीं कह सकते। कहने की आवश्यकता नहीं कि चित्त की ये
स्थितियाँ जिन्हें भावकोश कहते हैं स्थायी होती हैं। अत: इनमें लक्ष्यसाधन
के लिए बुद्धि या विवेक से काम लेने का अधिक अवकाश प्राप्त रहता है। जैसे,
यदि किसी पर क्रोध होगा तो उसपर आक्रमण करने की प्रबल प्रेरणा होगी, चाहे
उस समय के आक्रमण से उसकी कोई हानि संभव न हो, हमारी ही हानि संभव हो। पर
जिससे बैर होगा उसे हानि पहुँचाने का यत्न खूब सोच-विचारकर बुद्धि की पूरी
सहायता लेकर किया जायगा। यहाँ तक कि किस 'भाव' का प्रकाश लक्ष्यसाधन में
सहायक होगा और किसका बाधक इसका विचार करके कोई भाव तो प्रकट किया जायगा और
कोई दबाया जायगा। भाव में संकल्प वेगयुक्त होते हैं पर भावकोश में धीर और
संयत। मनुष्य में शील या आचरण की प्रतिष्ठा भावप्रणाली की स्थापना के
अनुसार होती है। इस भावकोश का विधान भावविधान से उच्चतर है, अत: इसका
विकास पीछे मानना चाहिए।
अब अपने यहाँ माने हुए साहित्य के भावों का विवेचन करना चाहिए। हमारे
यहाँ रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, आश्चर्य, जुगुप्सा और निर्वेद ये
नौ भाव गिनाए गए हैं। ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से हास, उत्साह
और निर्वेद को छोड़ शेष सब भाव वे ही हैं जिन्हें आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने
मूल भाव कहा है। निर्वेद को अभावरूप मानकर अभी विवेचन के बाहर रखता हूँ।
शेष आठ का ही विचार किया जाता है। ये सब-के-सब 'स्थायी' भाव कहलाते हैं।
'स्थायी' शब्द से आचार्यों का क्या अभिप्राय है यह अच्छी तरह समझ लेना
चाहिए। स्थायित्व के दो अर्थ हो सकते हैं-
(1) किसी एक भाव का एक ही अवसर पर इस आधिपत्य के साथ बना रहना कि उसके
उपस्थितिकाल में अन्य भाव अथवा मनोवेग उसके शासन के भीतर प्रकट हों और वह
ज्यों-का-त्यों बना रहे।
(2) किसी मानसिक स्थिति का इतने दिनों तक बना रहना कि उसके कारण
भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न भाव प्रकट होते रहें।
कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्यों का अभिप्राय प्रथम प्रकार के
स्थायित्व से है क्योंकि 'रति' ही एक ऐसा स्थायी है जिसमें द्वितीय प्रकार
का दीर्घकालव्यापी स्थायित्व घटित होता है, शेष में प्रथम प्रकार का
स्थायित्व ही पाया जाता है। अत: आठ भावों में से रति भाव ही ऐसा है जो
आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से भी 'स्थायी' है। जान पड़ता है कि भोज1 आदि
कुछ साहित्य मीमांसकों का ध्यान रति के इस स्थायित्व की ओर गया था। उन्हें
कुछ इस प्रकार भासित हुआ होगा कि रति ही एक मात्र शुद्ध स्थायी है तब तो
उन्होंने कहा कि श्रृंगार ही एक मात्र रस है।
अब यहाँ पर यह विचार करना चाहिए कि रति की भावरूप में संचारियों से
भिन्न अलग सत्ता है अथवा आधुनिक मनोविज्ञानियों के अनुसार वह एक
'प्रतीतिपद्धति' मात्र है जिसमें भिन्न-भिन्न भाव प्रकट होते रहते हैं।
हमारे यहाँ के आचार्यों ने और भावों के समान 'रति' की भी एक निर्दिष्ट भाव
के रूप में किसी एक क्षण में अभिव्यक्ति मानी है-
अन्त:करणवृत्तिरूपस्य रत्यादेराशुविनाशित्वेऽपि
संस्कारात्मनाचिरकाल स्थायित्वाद्यावद्रसप्रतीतिकालमनुसन्धानाच्च
स्थायित्यवम्
-(प्रभा प्रदीप)
1. देखिए, 'श्रृंगार प्रकाश'।
भाव की गतिविधि का पता अनुभावों द्वारा बहुत कुछ मिल सकता है। कुछ
मनोविज्ञानियों ने तो अनुभावों को 'भाव' का कार्य न मानकर भाव का स्वगतभेद
या अवयव ही माना है। विभाव, अनुभाव और संचारी द्वारा रसव्यंजना होती है यह
तो प्रसिद्ध ही है। इसमें से संचारी को छोड़ दें तो वह भावव्यंजना होगी। अत:
अनुभाव द्वारा भाव की प्रवृत्ति का पता चल सकता है। पर कभी-कभी कठिनता यह
होती है कि संचारी स्वयं स्फुट न होने पर भी अपना अनुभाव प्रकट करता है और
वह अनुभाव प्रधान भाव का ही अनुभाव मान लिया जाता है, संचारी का नहीं।
जैसे, नायक के स्पर्श से नायिका को यदि रोमांच हो तो वह रोमांच हर्ष से
होगा, पर हर्ष रति के कारण हुआ इससे वह रोमांच भी उपचार से रति भाव का ही
अनुभाव कह दिया जाता है। ऐसी दशा में यह देखना चाहिए कि रति भाव का अपना
कोई अलग अनुभाव होता है या नहीं। श्रृंगार रस का नीचे प्रसिद्ध उदाहरण
लीजिए-
शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किद्बिचच्छनै -
निद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्य पत्युर्मुखम्।
विस्त्रब्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गंडस्थलीं -
लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता।
-अमरुशतक, 72
अर्थात् नवोढ़ा नायिका ने वासगृह को शून्य देखकर शय्या से धीरे-धीरे कुछ
उठकर निद्रा के बहाने लेटे हुए पति के मुख को बड़ी देर तक देखा (कि कहीं
जागते तो नहीं हैं) फिर (सोता हुआ समझकर) विश्वासपूर्वक चुंबन किया; पर
उसके गंडस्थल को (हर्ष से) पुलकित देखकर उस बाला ने लज्जा से मुँह नीचा कर
लिया और प्रिय ने हँसते हुए उसका बहुत देर तक चुंबन किया।
इस उदाहरण में नायक का 'पुलक' तो हर्ष का सूचक है, पर चुंबन शुद्ध
रतिभाव का अनुभाव है। इससे सिद्ध हुआ कि रति भाव की, संचारियों से भिन्न,
अपनी अलग प्रवृत्ति भी होती है। स्पर्श, चुंबन, आलिंगन इत्यादि व्यक्तिगत
रति भाव भी बँधी हुई प्रवृत्तियाँ हैं। इसी प्रकार उसका लक्ष्य भी अलग कहा
जा सकता है।1 उसका लक्ष्य होता है विषय या आलम्बन के स्वरूप के अनुरूप उसके
साथ संयोग। किसी भाव की औरों से अलग 'प्रवृत्ति' और 'लक्ष्य' का पता पाना
उसकी सत्ता का पता पाना है। मानसिक अवस्था के विश्लेषण द्वारा भाव के
स्वरूप लक्षण (Static) के
1. इसे प्रापाणक न्याय भी कहते हैं। जिस प्रकार घी, चीनी आदि कई वस्तुओं को
एकत्र करने से बढ़िया मिठाई बनती है, उसी प्रकार अनेक उपादानों के योग से
सुंदर वस्तु तैयार होने के दृष्टांत में यह उक्ति कही जाती है। साहित्यवाले
विभाव, अनुभाव आदि द्वारा रस का परिपाक सूचित करने के लिए इसका प्रयोग
बराबर करते हैं।
-हिंदी शब्दसागर, पृष्ठ 908।
स्थान पर उस अवस्था के साथ संश्लिष्ट व्यापार आदि के निर्देश द्वारा
तटस्थ लक्षण (Dynamic) विवृति ही आजकल के मनोविज्ञानी अधिक समीचीन समझते
हैं। उनका कथन है कि किसी 'भाव' के अंतर्गत बहुत से मानसिक विकारों का
सन्निवेश हो सकता है, पर उन सब विकारों के कथन से उस 'भाव' की प्रतीति का
पूर्ण स्वरूप नहीं निरूपित होता है। जैसे, ईष्या के अंतर्गत बाधित अभिमान,
क्रोध, विषाद अपनी उन्नति से नैराश्य इत्यादि कई भावों का गूढ़ न्यास पाया
जाता है। पर ये सब चित्तविकार उस भाव की ठीक-ठीक प्रतीति नहीं करा सकते
जिसे ईष्या कहते हैं। 'पानकरसन्याय' से ही उसकी प्रतीति होती है जो केवल
आस्वाद्य है अर्थात् प्रत्यक्षानुभावगम्य है, शब्दगम्य नहीं।
उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि जिसे 'रति स्थायी' कहते हैं वह तो
सचमुच कोई एक 'भाव' नहीं है, पर उसका प्रकृत मूल कोई एक भाव अवश्य है जिसकी
स्थायी दशा का नाम है रति या प्रीति। जिस प्रकार एक भावविधान के भीतर वासना
के रूप में कुछ प्रवृत्तियाँ अंतर्हित रहती हैं उसी प्रकार भावप्रणाली या
भावकोश के भीतर उसकी नींव देनेवाला मूलभाव भी अंतर्हित रहता है, केवल
विषयोत्तेजन पाकर प्रतीति काल में अभिव्यक्त हुआ करता है। शैंड आदि
मनोविज्ञानियों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि प्रत्येक 'भाव' उस
स्थायी अंतर्हित दशा को प्राप्त कर सकता है जिसे 'भावकोश' या स्थायी कहते
हैं। क्रोध को ही लीजिए। क्रोध की ही 'स्थायी दशा' बैर है जिसमें जैसे अनेक
भावों की अभिव्यक्ति होती है वैसे ही क्रोध की भी हो जाया करती है। अत:
क्रोध वास्तव में स्थायी भाव नहीं है, स्थायी भाव है बैर। इसी से प्रीति के
मुकाबले में बैर ही का नाम लिया जाता है, जैसे-'बैर प्रीति नहिं दुरत
दुराए'।-(तुलसी)।
अब यह निश्चय करना रह गया कि रति या प्रीति नाम की पद्धति का मूल
संस्थापक भाव क्या कहा जा सकता है। मैं तो उसे राग कहना अच्छा समझता हूँ।
लोभ भी कह सकते हैं। किसी व्यक्ति या वस्तु पर 'लुभाना' बोलचाल में भी
बराबर आता है। 'प्रीति' के अर्थ में 'लोभ' शब्द योरप की सैक्सन आदि प्राचीन
भाषाओं में गया और अँगरेजी में 'लव' (Love) के रूप में अबतक बना है।1 इससे
यह प्रकट होता है कि बोलचाल की प्राचीन आर्यभाषा में 'पूर्वराग' को लोभ
शब्द से व्यक्त करते थे। और भावों के समान किसी एक अवसर पर व्यक्तिगत लोभ
या राग की प्रवृत्ति का प्रकाश होता है इस बात को हमारी भाषा ही पुकार कर
कह रही है। किसी बच्चे पर जब कोई हाथ फेरता हुआ उसे चूमता-पुचकारता है तब
लोग कहते हैं कि वह उसे 'प्यार कर रहा है', ठीक उसी प्रकार जैसे जब कोई
किसी की ओर लाल ऑंखें करके कड़े स्वर से बोलता है तब कहा जाता है कि वह
क्रोध कर रहा है।
1. मिलाइए, 'लोभ और प्रीति' निबंध से।
यह एक बँधी हुई बात है कि जिन तथ्यों या भावनाओं के लिए किसी भाषा में
शब्द हैं उनकी ओर तो उस भाषा के बोलनेवालों का ध्यान जाता है; पर जिनके
लिए शब्द नहीं हैं उनकी ओर बहुत कम जाता है। बहुत से ऐसे भाव या मानसिक
अवस्थाएँ हैं जिनके लिए एक भाषा में शब्द हैं, दूसरी में नहीं। 'ग्लानि' और
'संकोच' शब्द लीजिए जिनके ठीक-ठीक तात्पर्य को प्रकट करनेवाले शब्द अँगरेजी
में नहीं हैं। मनोविज्ञान के भावनिरूपण में यह बात सबसे अधिक लक्षित होती
है। अत: हिन्दी में इस विषय पर जो ग्रन्थ लिखे जायँ उनमें अपने यहाँ के उन
सब शब्दों पर पूर्ण विचार किया जाय जो भावों या मानसिक अवस्थाओं के द्योतक
हैं। इस प्रणाली के अवलंबन से इस बात की बहुत कुछ आशा है कि हम भी कुछ नया
रंग-ढंग ला सकेंगे। केवल ऑंख मूँदकर अँगरेजी के शब्दों का अनुवाद कर जाने
से न तो काम ही चलेगा और न हमारा पुरुषार्थ ही प्रकट होगा। 'भावुकता' का
विकास पाश्चात्यों की अपेक्षा पूर्वीय जातियों में अधिक हुआ है। इसके लिए
हम दुनियाँ में बदनाम हैं। अत: मनोविज्ञान के और अंगों में न सही,
भावनिरूपण में औरों की अपेक्षा हम शायद कुछ कर सकें। भाषा का 'भावनाओं' के
साथ इतना घनिष्ठ संबंध है कि शब्दसंकेत के सहारे पर विचारों के लिए बहुत
कुछ मार्ग खुलता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-गिरा अरथ जल
बीचि सम कहियत भिन्न, न भिन्न।
जैसा कहा जा चुका है-प्रत्येक 'भाव' स्थायी दशा को प्राप्त हो सकता है
पर सबकी स्थायी दशा समान रूप से परिस्फुट नहीं होती। इससे कुछ के लिए तो
निर्दिष्ट शब्द हैं, कुछ के लिए नहीं। नीचे भावों के सामने उनकी स्थायी
दशाएँ दी जाती हैं-
भाव स्थायी दशा
राग रति
हास ×
आश्चर्य ×
शोक संताप
क्रोध बैर1
भय आशंका
जुगुप्सा विरति
1. क्रोध और बैर के संबंध का आभास एंजिल ने भी क्रोध की प्रवृत्ति के वर्णन
में इस प्रकार दिया है-
(1) We are angry at the open insult and i perhaps moved to
enduring hatred by the obnoxious and in scrupulous enemy. Page 351.
(2) When anger is deliberate and, develops hate. Shand Page 37.
इनमें से रति, बैर और विरति तो पूर्णतया परिस्फुट हैं। उनके अस्तित्व
में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। शोक और भय की स्थायी दशाओं के
लिए जो शब्द रखे गए हैं संभव हो वे ठीक न हों, पर उन दशाओं का अस्तित्व
अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी इष्ट व्यक्ति या वस्तु की हानि, पीड़ा या
दुर्दशा से जो शोक उत्पन्न होता है वह मन में घर कर लेता है और 'संताप' के
रूप में बराबर बना रहता है। किसी मृत व्यक्ति या नष्ट वस्तु के संबंध में
कभी-कभी संताप की ऐसी प्रणाली स्थापित हो जाती है कि हम समय-समय पर उसके
लिए ऑंसू बहाया करते हैं, ठंडी साँसें लिया करते हैं। अपने मित्र के साथ
बैठकर जिस स्थान पर हम बातचीत या हँसी-ठट्ठा किया करते थे, मित्र के न रहने
पर उस स्थान से होकर जब कभी हम जा निकलते हैं चित्त की दशा कुछ और ही हो
जाया करती है। इस दशा का दौरा कुछ लोगों के जीवन-भर में हुआ करता है। इसी
प्रकार जिसका 'भय' मन में समा जाता है और स्थान कर लेता है उसकी आशंका
बराबर बनी रहती है। भय के संचारियों में 'शंका' भी रखी गई है और उसका अर्थ
'अनर्थ का तर्कण'1 कहा गया है। पर तर्कण बुद्धि का व्यापार है। भावप्रणाली
या भावकोश के प्रसंग में कहा जा चुका है कि बुद्धि की सहायता का अवकाश किसी
एक भाव के प्रतीतिकाल में वैसा नहीं रहता जैसा उस भाव की स्थायी दशा में
रहता है। भय की तीव्र अनुभूति के साथ तो अनर्थ का चित्र ही एकबारगी मन के
सामने आ जायगा, तर्कण का अवकाश कहाँ रहेगा? अत: 'शंका' यदि केवल कल्पना के
रूप में है (जैसे वह कहीं आता न हो) तो उसे 'भाव' का संचारी समझिए और यदि
तर्कण के रूप में है (जैसे यदि वहाँ जाकर छिपते हैं तो भी उसके मित्र वहाँ
कई एक हैं, उसे पता लग जायगा) तो उसे भाव की स्थायी दशा का संचारी समझिए।
अब रहे हास और आश्चर्य जिनकी दशाएँ इतनी व्यक्त नहीं हैं कि उनके अलग
नाम रखे जायँ। जिसकी बेढंगी चाल या बेढंगी बातों पर हम हँसा करते हैं उसके
प्रति प्राय: चित्त की ऐसी स्थायी दशा हो जाती है कि उसका ध्यान या प्रसंग
आने पर हमें बराबर हँसी आ जाया करती है। हम उसे बराबर विनोद की दृष्टि से
देखा करते हैं। वह जिंदगी-भर हमारे लिए एक खिलौना या तमाशा-सा रहता है।
उसके साथ हमारा एक प्रकार का विनोद संबंध स्थापित हो जाता है। हास्य में
किसी और भाव या चित्त विकार की गुंजाइश संचारी के रूप में होती है या नहीं
इसका विचार आगे किया जायगा। आश्चर्य के संबंध में भी वही बात कही जा सकती
है जो हास के संबंध में कही गई है। जिस व्यक्ति या वस्तु की लोकोत्तर
असाधारणता
1. परक्रौर्यात्मदोषाद्यै : शंकानर्थस्यतर्कणम्,
साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, 191।
से हमें आश्चर्य हुआ उसके संबंध में कभी-कभी आश्चर्य की प्रणाली स्थापित हो
जाती है और हमारे हृदय की ऐसी स्थिति हो जाती है कि हम उसे जब कभी देखते
हैं या उसका जब कभी ध्यान करते हैं तब लोकोत्तर महत्त्व के आरोप के साथ।
यहाँ तक कि हृदय की ऐसी स्थायी स्थिति में किसी प्रकार की बाधा हमें असह्य
होगी और जो कोई उस व्यक्ति या वस्तु को साधारण कहेगा उससे हम लड़ खड़े होंगे।
महात्माओं के संबंध में जो अलौकिक कथाओं का ढेर लग जाता है वह मनुष्य की
इसी मानसिक स्थिति के प्रसाद से।
इस बात की ओर एक बार फिर ध्यान दिला देना मैं आवश्यक समझता हूँ कि
जिस प्रकार रति, बैर और विरति नाम की स्थायी दशाएँ अधिक परिस्फुट होने के
कारण अपने मूल भावों से कुछ विशिष्ट प्रतीत होती हैं उसी प्रकार बाकी चार
स्थायी दशाएँ नहीं, इसी से मनोविज्ञानियों का ध्यान उनकी ओर नहीं गया और
इसी से हमारे यहाँ के साहित्यिक भावनिरूपण में भी प्रत्येक 'भाव' की स्थायी
दशा उस प्रकार परिस्फुट नहीं की गई है जिस प्रकार राग की स्थायी दशा 'रति'।
पर क्रोध की स्थायी दशा बैर भी इस प्रकार परिस्फुट किया जा सकता है कि
प्राय: वे सब सुखात्मक या दु:खात्मक चित्तविकार जो 'रति' के संचारी होकर
आते हैं उसके भी संचारी होकर आएँ। जैसे, जिसके साथ बैर है उसके निधन या
कष्ट पर हर्ष, उसकी विजय या सफलता पर विषाद, उसकी विभूति देख-सुनकर ईष्या,
उसके विरूद्ध अपने प्रयत्न के विफल होने पर लज्जा, उसकी संभावित हानि के
संबंध में औत्सुक्य, उसकी की हुई हानि को देखकर उसकी स्मृति, इस प्रकार
धृति, चपलता, चिंता इत्यादि सब संचारी भाव आ सकते हैं। काव्यों में इनके
उदाहरण बराबर पाए जायँगे। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मूल भाव अपनी
स्थायी दशा का संचारी होकर बराबर आया करेगा ठीक उसी प्रकार जैसे 'भाव' के
प्रतीतिकाल के भीतर उसी की कुछ अंतर्दशाएँ (जैसे त्रास, अमर्ष) संचारी के
रूप में आती हुई कही गई हैं। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि 'अनुभाव'
भाव ही के हुआ करते हैं (चाहे प्रधान के हों या संचारी के) उसकी स्थायी दशा
के नहीं-अर्थात् 'अनुभाव' जब प्रकट होंगे तब किसी भाव या उसके संचारी के
प्रतीतिकाल में।
कोई भाव अपनी भावदशा में ही है या स्थायी दशा को प्राप्त हुआ है इसकी
पहचान संचारियों में हो सकती है। कोई भाव या वेगयुक्त चित्त विकार या तो
सुखात्मक होगा या दु:खात्मक। भावदशा में सुखात्मक भाव का संचारी सुखात्मक
भाव या चित्त विकार ही होगा और दु:खात्मक का दु:खात्मक। बात यह है कि
सुखात्मक भाव के अनुभव काल में दु:खात्मक चित्तविकार के आ जाने से और
दु:खात्मक के अनुभव काल में सुखात्मक चित्तविकार के आ जाने से भाव बाधिात
होकर तिरोहित हो जायगा। पर स्थायी दशा प्राप्त होने पर यह बात नहीं रहती।
स्थायी दशा को विरूद्ध या अविरूद्ध कोई भाव संचारी रूप में आकर तिरोहित
नहीं कर सकता।1 स्थायी का यह लक्षण ग्रंथों में स्वीकार किया गया है पर
'रति' को छोड़ (जो 'राग' की स्थायी दशा है) क्रोध आदि भावों में यह लक्षण
नहीं घटता। सुखात्मक भावों से निष्पन्न हास्य, वीर और अद्भुत रसों के
संचारियों में कोई दु:खात्मक भाव या चित्तविकार न मिलेगा; इसी प्रकार
दु:खात्मक भावों से निष्पन्न करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स रसों के
संचारियों में हर्ष आदि सुखात्मक भाव या चित्तविकार न मिलेंगे।
ऊपर के स्थायित्व विवेचन में 'उत्साह' छोड़ दिया गया है। उत्साह की
स्थायी दशा का अनुसंधान करने में हमें एक दूसरी ही कोटि का स्थायित्व मिलता
है जिससे मनुष्य के स्वभाव का निर्माण होता है। अब तक जिस स्थायित्व का
विचार किया गया वह एक ही आलम्बन के प्रति था। पर किसी भाव के प्रकृतिस्थ हो
जाने पर वह एक ही आलम्बन से बद्ध नहीं रहता, समय-समय पर भिन्न-भिन्न आलम्बन
ग्रहण करता रहता है। यदि राग या लोभ प्रकृतिस्थ हो गया है तो वह किसी एक ही
व्यक्ति या वस्तु के प्रति रति या प्रीति के रूप में परिमित न रहेगा, अनेक
व्यक्तियों या वस्तुओं की ओर लपका करेगा और अपने आश्रय को प्रेमी, रसिक
अथवा लोभी, लंपट आदि लोक से कहलाएगा। इसी प्रकार यदि क्रोध प्रकृतिस्थ हो
गया है तो एक ही व्यक्ति के प्रति 'बैर' के रूप में न टिकेगा, बल्कि अनेक
व्यक्तियों के प्रति समय-समय पर प्रकट हुआ करेगा जिससे मनुष्य क्रोधी या
चिड़चिड़ा कहलाएगा। जिस किसी की प्रकृति में शोक या विषाद ओतप्रोत हो जायगा
उसमें यदि केवल अपने ही दु:ख या हानि के अनुभव की सामर्थ्य होगी तो वह अनेक
व्यक्तियों या वस्तुओं से खिन्नता प्राप्त किया करेगा और रोना, मनहूस या
मुहर्रमी कहलाएगा और यदि उसमें दूसरों की हानि या दु:ख की अनुभूति की
वृत्ति प्रबल होगी तो दयावान् कहलाएगा। इसी प्रकार किसी एक ही व्यक्ति या
वस्तु से नहीं अनेक-अनेक अवसरों पर अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं से डरनेवाले
को भीरु या डरपोक, बात बात पर हरएक आदमी को देखकर हँसनेवाले को हँसोड़ या
ठट्ठेबाज, हरएक वस्तु से नाक सिकोड़नेवाले को छिनछिना या तुनकमिजाज तथा
जितनी वस्तुएँ सामने आयँ उनमें से बहुतों को देख चकपकाने या आश्चर्य
करनेवाले को चकपका या कौआ कहते हैं।
भाव के इस प्रकार प्रकृतिस्थ हो जाने की अवस्था को हम शीलदशा कहेंगे।
उत्साह का अर्थ है साहस की उमंग जो किसी कठिन कर्म की ओर प्रवृत्त करती
है। उत्साह में आलम्बन और लक्ष्य स्थिर और परिस्फुट नहीं होते इसी से
1. अविरुद्धा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षम:।
आस्वादांकुरकन्दोऽसौ भाव: स्थायीति संमत:॥
-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, 174।
मनोविज्ञानियों ने प्रधान भावों की गिनती में उसे नहीं रखा है। यद्यपि
ग्रन्थों में प्रतिमल्ल, दानपात्र और दयापात्र को उत्साह का आलम्बन कहा गया
है पर भाव के अनुभूति काल में इन व्यक्तियों की ओर वैसा ध्यान नहीं रहता
जैसा और भावों के प्रतीति काल में रहता है। किसी शत्रु के विरूद्ध यात्रा
के समय किसी योद्धा के हृदय में जो उमंग होती है उसमें अपने पराक्रम का
ध्यान प्रधान रहता है; शत्रु का नहीं। दिग्विजय या अश्वमेध की यात्रा के
आरंभ में कोई शत्रु निश्चित नहीं रहता पर उत्साह बराबर प्रकट किया जाता है
जिससे श्रोता या दर्शक को वीर रस की पूर्ण अनुभूति होती है। इसी प्रकार
दानवीर या दयावीर में यदि दानपात्र की ओर ध्यान प्रधान माना जाय तो भक्ति
या करुण का भाव प्रधान होगा इससे उत्साह के यदि आलम्बन हो सकते हैं तो
युद्ध, दान, दया आदि के कर्म।1 धर्मवीर में तो धर्म अर्थात् धर्मकार्य को
आलम्बन मानना ही पड़ा है। किसी एक कर्म की विद्यमानता एक अवसर के आगे नहीं
रह सकती। उत्साह के एक अवसर के उपरांत दूसरे अवसर पर कर्म भी दूसरा हो
जायगा। इस कारण उत्साह जब अनेकावसर व्यापी स्थायित्व की ओर चलेगा तब वह
'शील दशा' को ही प्राप्त समझा जायगा। और भावों के समान किसी एक आलम्बन के
प्रति उसकी 'स्थायी दशा' नहीं कही जा सकती। जो वीर होगा वह किसी एक ही
व्यक्ति के प्रति नहीं, उपयुक्त व्यक्तिमात्र के साथ वीरता दिखलानेवाले ही
वीर कहलाते हैं।
'भाव' के संबंध में यह कहा जा चुका है कि वह आलम्बनप्रधान होता है
अर्थात् उसमें आलम्बन की भावना 'प्रत्यय' के रूप में परिस्फुट होती है।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक भाव एक ही आलम्बन के प्रति स्थायी दशा को प्राप्त
हो सकता है। जब कि ये बातें उत्साह में नहीं घटतीं तो वह मन का वेग मात्र
है। फिर आचार्यों ने उसे प्रधान भावों की गिनती में रखा क्यों? संचारियों
में क्यों न डाल दिया? रस में उसकी प्रयोजकता के विचार से। आश्रय या पात्र
में उसकी व्यंजना द्वारा श्रोता या दर्शक को ऐसा विविक्त रसानुभव होता है
जो और रसों के समकक्ष है।
इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि साहित्यिकों का सारा भावनिरूपण रस की
दृष्टि से है। 'दयावीर' को लीजिए जो कि एक संकर भाव है। उसमें प्रधान भाव
तो रहता है करुणा या दया का, पर उसके साथ 'उत्साह' का भी योग हो जाता है।
पहले हमें किसी व्यक्ति के दु:ख पर दया उत्पन्न होकर ऐसे कर्मों की प्रेरणा
उत्पन्न करती है जिनसे उसका दु:ख दूर हो सकता है। यदि कर्म साधारणतया
साध्य हुआ तब तो दया के अतिरिक्त और भाव या मनोवेग की सहायता अपेक्षित
नहीं होती पर यदि कर्म दु:साध्य, कष्टकर या असाधारण हुआ तो साथ ही एक और
दूसरे मनोवेग अर्थात् साहस की उमंग (उत्साह) का योगदान आवश्यक होता है।
1. Interest transfered from the end to the means.
यहाँ पर शंका उठती है कि जब प्रधान प्रवर्तक दया या करुणा है तब आचार्यों
ने 'दयावीर' को उत्साह या वीर रस के अंतर्गत क्यों रखा? दयावीर के लिए दया
को
प्रधान भावों में क्यों नहीं गिन लिया? यहाँ पर भी कहना पड़ता है कि रस की
दृष्टि से। आश्रय द्वारा व्यक्त किया हुआ भाव साधारणीकरण के प्रभाव से
श्रोता या दर्शक में भी उसी भाव की रसरूप में अनुभूति उत्पन्न करता है।
आश्रय के शोक या दु:ख का अनुभव श्रोता या दर्शक के हृदय में परदु:खजन्य
दु:ख अर्थात् दया या करुणा के रूप में होगा। इसी प्रकार और 'भावों' के
अनुभव भी साधारण्य से ही अर्थात् सहानुभूति के रूप में ही श्रोता या दर्शक
में माने गए हैं। अत: रसनिष्पत्ति के लिए आश्रय द्वारा व्यंजित प्रधान भाव
सहानुभूत्यात्मक नहीं रखा गया है। साधारणीकृत भाव का फिर रसरूप में
साधारणीकरण ठीक नहीं समझा गया।
उपर्युक्त विवेचन का संक्षिप्त परिणाम यह निकला कि जिन्हें साहित्य में
भाव कहते हैं उनकी तीन दशाएँ मिलती हैं-भावदशा, स्थायीदशा और शीलदशा। नीचे
तीनों दशाओं का चक्र दिया जाता है-
एक अवसर पर एक अनेक अवसरों पर एक अनेक अवसरों पर अनेक
आलम्बन के प्रति आलम्बन के प्रति आलम्बन के प्रति
भावदशा स्थायीदशा शीलदशा
राग रति स्नेहशीलता, रसिकता,
लोभ, तृष्णा, लंपटता
हास (अनभिधोय) हँसोड़पन,विनोदशीलता
उत्साह × वीरता, तत्परता
आश्चर्य (अनभिधोय) भौचक्कापन
शोक संताप खिन्नता
क्रोध बैर क्रोधशीलता, उग्रता,
चिड़चिड़ापन
भय आशंका भीरुता
जुगुप्सा विरति तुनकमिजाजी
इस तालिका में 'शीलदशाओं' के नाम स्थायीदशाओं से भिन्न देखकर यह न
समझना चाहिए कि नामभेद सर्वत्र ही मिलेगा। श्रद्धाभक्ति किसी में एक
व्यक्ति के प्रति होती है तब भी लोग कहते हैं कि 'उसमें अमुक के प्रति
श्रद्धा है' और बड़ों के प्रति सामान्यत: होती है तब भी कह दिया जाता है कि
'उसमें बड़ों के प्रति श्रद्धा है-यह नहीं कहा जाता है 'बड़ों के प्रति
श्रद्धाशीलता है'। पर 'वह श्रद्धावान् है' इतना कहने से ही यही समझा जाता
है कि वह श्रेष्ठ व्यक्तियों (आचार्य आदि) या वस्तुओं (जैसे धर्म) के प्रति
साधारणत: श्रद्धा रखनेवाला है। शीलदशाओं का समूह बहुत बड़ा है। आलम्बनप्रधान
अर्थात् प्रत्ययबोधाश्रित मुख्य भावों से ही शीलदशा की प्रतिष्ठा नहीं
होती, 'भावदशा' तक न पहँचनेवाले मन के वेगों और प्रवृत्तियों के चिराभ्यास
से भी भिन्न भिन्न शीलदशाएँ मनुष्य की प्रकृति में प्रतिष्ठित होती
हैं-जैसे, आलस्य से आलसीपन, लज्जा से लज्जाशीलता, अवहित्था से दुराव का
स्वभाव, असूया से ईष्यालु प्रकृति इत्यादि। इसी प्रकार संकोचशीलता;
स्पर्द्धाशीलता, जो वस्तु देखी उसे अपनाने की प्रकृति इत्यादि अनेक प्रकार
की शीलदशाओं का विधान भिन्न-भिन्न वेगों और प्रवृत्तियों के पकड़ने से होता
है। मनोविज्ञानियों ने 'स्थायीदशा' और 'शीलदशा' के भेद की ओर ध्यान न देकर
दोनों प्रकार की मानसिक दशाओं को एक ही में गिना दिया है। इन्होंने रति,
बैर, धनतृष्णा, इंद्रियपरायणता, अभिमान इत्यादि सबको स्थायी भावों की कोटि
में डाल लिया है। पर मैंने जिस आधार पर भेद करना आवश्यक समझा है उसका विवरण
ऊपर दिया जा चुका है।
अब काव्य में इन तीनों दशाओं का उपयोग किस प्रकार होता है इस पर थोड़ा
विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। लक्षणग्रंथों में रसव्यंजना की जो
परिपाटी बताई गई है उसका पालन तो अपनी अंतर्दशाओं (संचारियों) के सहित
दशाभाव से ही हो जाता है। 'राग' ही 'रति स्थायी' के रूप में अधिकतर देखा
जाता है और भाव प्राय: नहीं। पर यह दिखाया जा चुका है कि बैर (क्रोध की
स्थायीदशा) इत्यादि का रसपूर्ण वर्णन भी इस प्रकार हो सकता है कि उसमें वे
सब संचारी प्राय: आ जायँ जो रति में आते हैं। इस प्रकार और भावों की
'स्थायीदशाओं' को भी लेने से 'रसक्षेत्र' का विस्तार बढ़ जाता है। जैसे, यदि
कोई शत्रु पर कुपित होकर तत्काल लाल ऑंखें किए उसकी ओर दौड़ पड़े तो यह दौड़ना
या झपटना भावदशा के अनुभाव के अंतर्गत होगा; पर यदि वह बैठकर शत्रु के नाश
का उपाय स्थिर करता है और फिर उन उपायों के साधन में धीरता के साथ प्रवृत्त
होता है तो उसका यह व्यापार क्रोध की स्थायीदशा 'बैर' के अंतर्भूत होगा।
राम का समुद्रतट पर बैठकर धीरतापूर्वक सेतु बँधवाना 'अनुभाव' के अंतर्गत
नहीं कहा जा सकता (क्योंकि अनुभाव किसी भावदशा में ही होता है) पर धैर्य
अवश्य व्यंजित करता है, जो क्रोध की भावदशा से नहीं प्रकट हो सकता। यह
सूचित किया जा चुका है कि 'स्थायीदशा' में भाव का अधिकार बुद्धि पर भी हो
जाता है अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति भी 'भाव' के आदेश पर परिचालित होने
लगती है। यहाँ पर जिज्ञासा हो सकती है कि क्या बुद्धि की क्रिया का सारा
ब्योरा भी भावविधान के अंतर्गत आ जाता है। नहीं; भावविधान के अंतर्गत केवल
'बुद्धि का क्रिया करना' यह बात होती है, स्वयं क्रिया नहीं। केवल बुद्धि
की विलक्षणतासूचक जो बातें होती हैं वे 'रस' में नहीं घुलतीं।
घटनाक्रमप्रधान आख्यानों (उपन्यास, कहानी आदि) में तो वे अच्छी तरह खप जाती
हैं, पर रसप्रधान प्रबंधकाव्यों में वे रस का परिपोषण नहीं करतीं।
'शीलदशा' का उपयोग काव्य में कहाँ तक होता है, अब यह देखना चाहिए। यों
देखने में रसयोजना में उसका प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखाई पड़ता। रूढ़ि के
अनुसार पूर्ण रस की निष्पत्ति में 'अनुभाव' आवश्यक होता है और अनुभाव केवल
'भावदशा' का व्यंजक होता है। मुक्तक या उद्भट में जो रस की रस्म अदा की
जाती है उसमें शीलदशा का समावेश नहीं होता। उसका उद्देश्य तो क्षणिक
मनोरंजन मात्र होता है। पर उच्च लक्ष्य रखनेवाले, मनुष्य की प्रकृति का
संस्कार या निर्माण करने की सामर्थ्य रखनेवाले प्रबंधकाव्य या नाटक के
चरित्रचित्रण का आधार 'शीलदशा' ही है। रामायण में राम की धीरता और
गम्भीरता, लक्ष्मण की उग्रता और असहनशीलता, बड़ों के प्रति भरत की
श्रद्धाभक्ति इत्यादि का चित्रण भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न
व्यक्तियों के प्रति किए हुए व्यवहारों के मेल से ही हुआ है। आलम्बन का
स्वरूप संघटित करने में उपादानरूप होकर 'शीलदशा' रसोत्पत्ति में पूरा योग
देती है। आश्रय की दृष्टि जिस प्रकार आलम्बन के बाह्य रूप पर जाती है उसी
प्रकार उसके आभ्यंतर स्वरूप पर भी जाती है। उस आभ्यंतर स्वरूप की योजना
भिन्न-भिन्न 'शीलों' से ही होती है। आलम्बन के रूप की धारणा से जिस प्रकार
आश्रय में अश्रु, पुलक आदि अनुभाव प्रकट होते हैं उसी प्रकार उसके शील की
धारणा से भी। जिसमें शील को देख-सुनकर इस प्रकार ये अनुभाव न प्रकट हों
गोस्वामी तुलसीदासजी उसे जड़ समझते हैं। वे साफ कहते हैं कि-
'सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ॥'
इतनी चेतावनी देकर गोस्वामीजी राम के शील स्वभाव को इस प्रकार विशद रूप
में अंकित करते हैं-
सिसुपन तें पितु मातु बंधा गुरु सेवक सचिव सखाउ।
कहत राम बिधुबदन रिसौहैं सपनेहु लख्यो न काउ॥
खेलत संग अनुज बालक नित जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत देत दिवावत दाउ॥
सिला साप संतापबिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय चरन छुए को पछिताउ॥
भवधनु भंजि निदरि भूपति, भृंगुनाथ खाइ गए ताउ।
छमि अपराध छमाइ पायँ परि, इतो न अनत अमाउ॥
कहयो राज, बन दियो नारिबस, गलि गलानि गयो राउ।
ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों निज तनु मरम कुघाउ॥
कपि सेवा बस भए कनौड़े, कहयो पवनसुत आउ।
दैबे को न कछू ऋनियाँ हौं, धनिक तु पत्रा लिखाउ॥
अपनाए सुग्रीव विभीषन, तिन न तज्यो छल छाउ।
भरत सभा सनमानि सराहत होत न हृदय अघाउ॥
निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत सुनत, कहत 'फिरि गाउ'॥
-विनयपत्रिका-100।
भावों का वर्गीकरण
स्थायी
पहले कह आए हैं कि भावों के वर्गीकरण का प्रयत्न मनोविज्ञानियों ने इधर
छोड़-सा दिया है। पर काव्य के प्रयोजन के लिए कोई ऐसा वर्गविधान अवश्य होना
चाहिए जिसके आधार पर रसविरोध तथा विरूद्ध, अविरूद्ध संचारियों की व्याख्या
हो सके। भाव के लक्षण में कहा जा चुका है कि उसमें अनुभूति संश्लिष्ट रहती
है। अनुभूति दो प्रकार की हो सकती है, सुखात्मक और दु:खात्मक। इसी के
अनुसार भावों के दो वर्ग किए जा सकते हैं-सुखात्मक और दु:खात्मक। प्रेम,
उत्साह, श्रद्धा, भक्ति, औत्सुक्य, गर्व आदि के साथ सुखात्मक अनुभूति लगी
रहती है इससे ये सुखात्मक हैं। शोक, क्रोध, भय, घृणा, लज्जा, उग्रता,
अमर्ष, असूया, विषाद इत्यादि दु:खात्मक हैं। नीचे आठों भाव दोनों वर्गों
में विभक्त करके दिए जाते हैं-
सुखात्मक वर्ग में जो चार भाव रखे गए हैं उनमें 'राग' और 'हास' के
सुखात्मक होने में कोई संदेह हो ही नहीं सकता। 'उत्साह' भी सुखात्मक भाव है
उसकी सूचना हर्ष, धैर्य आदि संचारी भाव भी दे रहे हैं और शब्दार्थ के संबंध
में लोकप्रवृत्ति भी। साधारण बोलचाल में 'उत्साह' या 'उछाह' से आनंद या
आनंद की उमंग का ही अर्थ लिया जाता है। आश्चर्य के संबंध में दो प्रश्न
उठाए जा सकते हैं-
(1) क्या दु:खात्मक अनुभवपूर्वक इसकी प्रतीति नहीं होती?
(2) इसे सुख और दु:ख दोनों से उदासीन क्यों न कहें?
पहले प्रश्न के संबंध में यह कहना कि दु:खदायी वस्तुएँ भी अद्भुत हो
सकती हैं पर यहाँ आलम्बन के किसी स्वरूपविशेष की सत्तामात्र से प्रयोजन
नहीं है, यहाँ तो यह देखना है कि आलम्बन के किसी स्वरूप के प्रति आश्रय या
श्रोता के हृदय में परिस्थिति या अवसर के विचार से किसी भाव के स्फुट रूप
में उद्भूत होने की संभावना रहेगी या नहीं। किसी प्रकार के दु:ख के
क्षोभकारी अनुभव की दशा में चित्त को क्या इतना अवकाश मिल सकता है कि वह
किसी वस्तु या व्यापार की लौकिकता अलौकिकता की ओर जमे? मैं समझता हूँ शायद
ही कभी। साहित्य के आचार्यों ने तो हर्ष को अद्भुत या संचारी कहकर
'आश्चर्य' का सुखात्मक भाव होना स्पष्ट ही कर दिया है।1 आजकल के
मनोविज्ञानियों ने भी उनके अनुकूल मत प्रकट किया है।2
दूसरी बात आश्चर्य को उदासीन मानने की है। आश्चर्य में अद्भुत वस्तु पर
ध्यान का जमना ही चित्त का लगना सूचित करता है, उदासीनता नहीं। थोड़ी देर
के लिए आश्चर्य की कोई उदासीन अवस्था मान भी लें तो उस अवस्था का ग्रहण
काव्य में नहीं हो सकता। काव्य रसात्मक होता है, 'रस' भावमय होता है और
भावों के साथ अनुभूति लगी रहती है जो या तो सुखात्मक होगी अथवा दु:खात्मक।
आश्चर्य कई रंग बदलता है। यदि उसमें जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है तो
आश्चर्य की चमत्कृति जिसमें बुद्धि की क्रिया का एकदम विराम रहता है, थोड़ी
देर ठहर पाती है। बात यह है कि जिज्ञासा अग्रसर हो जाने के कारण बुद्धि
तरंग कारण के अन्वेषण में तत्पर हो जाती है और आश्चर्य के मूल स्वरूप का
अंत हो जाता है।
'हास' यों तो केवल मन का एक वेग मात्र है, पर 'भावों' में जिस हास को
स्थान दिया गया है वह ऐसा है जिसके आश्रयगत होने पर श्रोता या दर्शक को भी
1. वितिर्कांवेगसंभ्रान्तिहर्षांद्या व्यभिचारिण:।
-साहित्यदर्पण, 3, 245।
2. The cases in which there is something requgnent in an object which
is at the same time felt as wonderful and where in the rapugnancy is
only in part counteracted are exceptional. The wonderful is ordinarily
an object of delight. Hence it is that we find the terms 'admiration'
and 'wonder' often combined.
—Shand (Foundations of Character)
रसरूप में हास की अनुभूति होती है। वह आलम्बनप्रधान होता है। यों ही
प्रसन्नता के कारण (जैसे शत्रु के विरूद्ध अपनी सफलता पर) जो हँसी आती है
वह 'भाव' की कोटि में नहीं-वह मन की उमंग या शरीर का व्यापार मात्र है,
उसके प्रदर्शन से श्रोता या दर्शक के हृदय में हास की अनुभूति नहीं हो
सकती।
हास और आश्चर्य दोनों लक्ष्यहीन होने के कारण किसी प्रकार की इच्छा
संकल्प या प्रयत्न की ओर प्रवृत्त नहीं करते। इसी से उनके द्वारा जो
मनोरंजन होता है वह विश्रामस्वरूप जान पड़ता है। हम चारपाई पर पड़े-पड़े बड़े
आराम के साथ लोगों पर हँस सकते हैं तथा अद्भुत और अनूठी वस्तु को ऑंख
निकाले और मुँह बाए ताक सकते हैं। कोई विशेष इच्छा या संकल्प नहीं उत्पन्न
होता जिसकी पूर्ति के निमित्त शरीर या मन को कोई प्रयास करना पड़े। मोटे
आदमी जो जल्दी क्रोध, भय आदि करने का श्रम नहीं उठाने जाते मसखरापन अकसर
किया करते हैं। आचार्यों ने हास्य की यही विशेषता लक्ष्य करके निद्रा और
आलस्य को उसका संचारी कहा है।1 हलके मनोरंजन के लिए घड़ी आध घड़ी जी बहलाने
के लिए लोग प्राय: हँसी-दिल्लगी के चुटकुले सुनते या अजायबखाने की सैर को
जाते हैं। काव्य को इसी प्रकार के हलके मनोरंजन की सामग्री समझे जाने पर
अद्भुत चमत्कारपूर्ण फुटकल उक्तियों के कहनेवालों की गिनती बड़े-बड़े कवियों
में होने लगी।
शोक भी अपने विषाद आदि संचारियों के सहित प्रयत्नशून्य दिखाई पड़ता है
क्योंकि वह प्रयत्नकाल में नहीं रहता, प्रयत्न के विफल होने पर अथवा
प्रयत्न द्वारा कोई आशा न होने पर ही होता है। क्रोध और भय दोनों में
ध्यान देने की बात यह है कि आलम्बन का स्वरूप वही रहता है-मुख्य भेद यह
लक्षित होता है कि एक में अपनी सामर्थ्य की ओर ध्यान रहता है और दूसरे
में दूसरे की।
पहले कह आए हैं कि आधुनिक मनोविज्ञानियों ने क्रोध, भय, आनंद और शोक को
मूल भाव कहा है। इनमें से साहित्य के 'भावों' की गिनती में आनंद को छोड़ और
सब आ गए हैं। शोक के रखे जाने और आनंद के न रखे जाने का कारण क्या है? इसका
एकमात्र उत्तर यही हो सकता है कि 'रस-विधान' की दृष्टि से ऐसा किया है।
साहित्यिकों का सारा भावनिरूपण रस के विचार से किया गया है। आश्रय के जिस
भाव की व्यंजना से श्रोता या दर्शक के चित्त में भी आलम्बन के प्रति वही
भाव साधारण्याभिमान से उपस्थित हो सकता है उसी को रस का प्रवर्तक मानकर
आचार्यों ने प्रधान भाव की कोटि में रखा है। इस बात को अच्छी तरह ध्यान
में रखना चाहिए। शोक का आलम्बन ऐसा होता है कि वह मनुष्य मात्र को क्षुब्ध
कर सकता है पर आनंद में यह बात नहीं है। किसी अज्ञात और अपरिचित व्यक्ति को
भी प्रिय के मरण आदि का विलाप करते सुन सुननेवालों की ऑंखों में ऑंसू आ
जाते
1. निद्रालस्यावहित्थाद्या अत्रा स्युर्व्यभिचारिण:। -साहित्यदर्पण,
3-216
हैं पर किसी को पुत्र जन्म पर आनंद प्रकट करते देख राह चलते आदमी आनंद से
नाच नहीं उठते। किसी के आनंदोत्सव में उन्हीं का हृदय पूर्ण योग देता है
जिनसे उसका लगाव या प्रेम होता है पर किसी के शोक में योग देने के लिए
मनुष्य मात्र का हृदय प्रकृति द्वारा विवश है। इसी से आनंद को रस के प्रधान
प्रवर्तक भावों में स्थान न देकर आचार्यों ने हर्ष को केवल संचारी रूप में
रखा है। इस युक्तपूर्णविधान से उनकी सूक्ष्मदर्शिता का पता चलता है। यही
कारण ईष्या को भी प्रधान भावों में स्थान न देने का है। यद्यपि ईष्या
विषयोन्मुख होने के कारण मनोविज्ञान की दृष्टि से भाव स्थायी ही है, पर
आश्रय किसी व्यक्ति के प्रति ईष्या व्यंजित करके श्रोता या दर्शक को भी
उक्त व्यक्ति के रस-रूप में ईष्या का अनुभव नहीं करा सकता। प्रधान भावों के
संबंध में ये मोटी बातें कहकर अब संचारियों की ओर आता हूँ।
संचारी
पाश्चात्य भाववेत्ता शैंड के भावनिरूपण के अनुसार प्रत्येक भाव एक प्रकार
का व्यवस्था-चक्र है जिसके साथ शेष भावों का संबंध भी अव्यक्त रूप में लगा
रहता है। क्रोध, भय, आनंद और शोक जो मूलभाव कहे गए हैं उनमें से प्रत्येक
का संबंध बाकी औरों से रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके लक्ष्य की पूर्ति
न होने पर शोक या विषाद, पूर्ति हो जाने पर आनंद, कठिनाइयाँ दिखाई देने पर
पूर्ति न होने की आशंका तक हो सकती है। भूतों के पंच पंचीकरण की-सी
व्यवस्था समझिए।1
भारतीय साहित्यिकों की स्थायी संचारी व्यवस्था भी संबंध व्यवस्था ही
है, पर विशेष प्रकार की। वह अधिकार व्यवस्था के रूप में है। मनोविज्ञानियों
की ऊपर लिखी संबंधव्यवस्था में मूल या जनक भाव स्वप्रवर्तित अन्य भाव के
उदय के समय अपना स्वरूप विसर्जित कर देता है। जैसे, जिससे हमारा प्रेम है
उसे पीड़ित करनेवाले पर जिस समय हमें क्रोध आयगा उस समय रति भाव की अनुभूति
के लिए कोई अवकाश चित्त में न रहेगा। पर साहित्य में रति के जो संचारी कहे
गए हैं उनके प्रतीति काल में रति का आभास बना रहेगा। नायिका मान समय में जो
क्रोध प्रकट करेगी वह ऐसा बलवान न होगा कि 'रति भाव' को सर्वथा हटा सके। अब
देखना यह चाहिए वह व्यवस्था क्या है जिसके अनुसार 'भावों' का ऐसा अविचल पद
प्राप्त रहता है कि स्वप्रवर्तित आगंतुक भावों के आ जाने से भी उनका स्वरूप
सर्वथा तिरोहित
1. वेदांतसार के अनुसार प्रत्येक स्थूल भूत में शेष चार भूतों के अंश भी
वर्तमान रहते हैं। भूतों की यह स्थूल स्थिति पंचीकरण द्वारा होती है जो इस
प्रकार होता है। पाँचों भूतों को पहले दो बराबर-बराबर भागों में विभक्त
किया फिर प्रत्येक के प्रथमार्ध को चार-चार भागों में बाँटा। फिर इन सब
बीसों भागों को लेकर अलग रखा। अंत में एक-एक भूत के द्वितीयार्ध में इन बीस
भागों में चार भाग फिर से इस प्रकार रखे कि जिस भूत का द्वितीयार्ध हो उसके
अतिरिक्त शेष चार भूतों का एक भाग उसमें आ जाय।
-हिंदी शब्दसागर, 'पंचीकरण' के अंतर्गत।
नहीं होता। मनोविज्ञानियों के संबद्ध भावों की आलोचना करने से प्रकट होता
है कि उनके विषय यदि प्रवर्तक भाव के आलम्बनों से भिन्न हों तो भी आश्रय का
ध्यान मुख्यत: उन्हीं की ओर रहता है। पर संचारियों का विषय यदि प्रधान
भाव के आलम्बन से भिन्न हुआ तो भी उनकी ओर ध्यान मुख्यत: नहीं होता,
अर्थात् वे विषय आलम्बन नहीं कहे जा सकते। इसी आलम्बन की स्थिरता के आधार
पर भारतीय साहित्यकारों ने 'भाव' की अविचलता या स्थायित्व को खड़ा किया है।
आलम्बन ही वह कील है जिससे प्रधान भाव हटने नहीं पाता।
विरोध और अविरोध के विचार से संचारियों के चार भेद किए जा सकते
हैं-सुखात्मक, दु:खात्मक, उभयात्मक और उदासीन।
सुखात्मक दु:खात्मक उभयात्मक उदासीन
गर्व,औत्सुक्य, लज्जा,असूया, आवेग,स्मृति,
वितर्क,
हर्ष,आशा,मद, अमर्ष,अवहित्था विस्मृति,
दैन्य,मति,श्रम,
संतोष,चपलता, त्रास,विषाद, जड़ता,स्वप्न, निद्रा,
मृदुलता, धैर्य शंका,चिंता, चित्त की चंचलता विवोध
नैराश्य,उग्रता,
मोह,आलस्य,
उन्माद,असंतोष,
ग्लानि,अपस्मार,
मरण,व्याधि
सुखात्मक भावों के साथ सुखात्मक संचारी और दु:खात्मक भावों के साथ
दु:खात्मक संचारी परस्पर अविरूद्ध होंगे। इसी प्रकार सुखात्मक भाव के साथ
दु:खात्मक संचारी और दु:खात्मक के साथ सुखात्मक संचारी विरूद्ध होंगे।
उभयात्मक संचारी सुखात्मक भी हो सकते हैं और दु:खात्मक भी; जैसे आवेग हर्ष
में भी हो सकता है और भय आदि में भी। भाव के साथ जो विरोध अविरोध ऊपर कहा
गया है वह जातिगत है अर्थात् सजातीय विजातीय का विरोध है। इसके अतिरिक्त
आश्रयगत और विषयगत विरोध जिस भाव या वेग से होगा वह संचारी हो ही नहीं
सकता। जैसे, क्रोध के बीच-बीच में आलम्बन के प्रति यदि शंका, त्रास या दया
आदि मनोविकार प्रकट होते हुए कहे जायँ तो उनसे क्रोध की पुष्टि न होगी। यही
बात युद्धोत्साह के बीच में त्रास आदि के होने से होगी। अत: ये मनोविकार
क्रोध और उत्साह के संचारी नहीं हो सकते। कारण यह कि क्रोध के बीच में यदि
शंका या त्रास हो जाय तो जितने काल तक शंका या त्रास की स्थिति रहेगी उतने
काल तक क्रोध का अस्तित्व न माना जायगा। सारांश यह कि किसी भाव को पुष्ट
करनेवाला मनोविकार वही होगा जो भाव को लक्ष्य और प्रवृत्ति से हटानेवाला न
होगा।
एक बार इस बात का फिर स्मरण कर लेना चाहिए कि स्थायीदशा को प्राप्त
होने पर भी भाव का मूल स्वरूप बीच-बीच में अवसर या उत्तेजना पाकर उदित हुआ
करता है। स्थायी दशा के बीच-बीच में मूल स्वरूप के इस स्थिति काल को हम
भावदशा भी कहेंगे। जैसे, नायक के प्रति राग के रति रूप में स्थायी हो जाने
पर जिस प्रकार हर्ष, अमर्ष आदि संचारी भाव प्रकट होंगे वैसे ही कभी-कभी
नायक के मिलने पर भाव का मूल स्वरूप भी अपनी निज की प्रवृत्ति (आलिंगन,
चुंबन आदि) के सहित प्रकट हुआ करेगा। इसी प्रकार जिससे बैर होगा उस पर
समय-समय पर क्रोध भी हुआ करेगा। भाव के मूल स्वरूप के इस उदयकाल में केवल
अविरूद्ध संचारी ही प्रकट हो सकते हैं। विरूद्ध संचारी जब प्रकट होंगे तब
अकेले, भाव के मूल स्वरूप के साथ कभी नहीं। अत: जहाँ विरूद्ध संचारी हों
वहाँ तो चट, बिना किसी सोच-विचार के, स्थायी दशा समझ लेनी चाहिए। पर स्थायी
दशा ऐसी भी होती है जिसमें भाव का मूल स्वरूप स्फुट नहीं होता; केवल
अविरूद्ध संचारी के अनुभाव आदि द्वारा ही भाव की भी व्यंजना हो जाती है।
जैसे, नायक के दर्शन से पुलक होना मात्र ही यदि कह दिया जाय तो रति भाव
व्यंजना द्वारा समझ लिया जायगा। ऐसी दशा में अविरूद्ध संचारी यदि भाव का
अवयव होता है-जैसा कि उक्त उदाहरण में है-तो भाव का स्वरूप श्रोता को तुरंत
स्फुट हो जाता है। जहाँ वह अवयव नहीं होता वहाँ व्यंजक वाक्य को सावधानी से
रखना भी पड़ता है और समझना भी। जैसे; यदि कहा जाय कि 'अमुक को देखते ही वह
वस्त्रादि न सँभालकर कभी नीचे कभी ऊपर जाने लगी' तो सुननेवाले को यह संदेह
रह जाता है कि ऐसा आवेग 'रति भाव' के कारण हुआ या भय के। अत: प्रिया या
नायक शब्द रखने से रति भाव के ग्रहण में और 'शत्रु' शब्द अथवा 'विकराल' आदि
विशेषण रखने से भय के ग्रहण में सहायता पहुँचेगी।
अब देखना चाहिए कि आचार्यों ने यों ही मनमाने ढंग पर कुछ भावों को
प्रधान भावों में और कुछ को संचारियों में रख दिया है अथवा किसी सिद्धांत
पर ऐसा किया है। केवल यह जानकर ही आधुनिक जिज्ञासा तुष्ट नहीं हो सकती कि
ग्रंथों में यह भाव प्रधान कहे गए हैं और ये संचारी। 'क्यों' पूछनेवालों की
उपेक्षा अब नहीं की जा सकती। अत: जिस सिद्धांत पर यह भेदविधान स्थित है
उसका पता लगाना चाहिए। उस सिद्धांत का कुछ आभास यद्यपि मैं कुछ ही पहले
अन्य प्रसंग में दे आया हूँ पर यहाँ उसे फिर से स्पष्ट कर देना आवश्यक है।
इस बात को बराबर ध्यान में रखने का अनुरोध किया जा चुका है कि
साहित्य के आचार्यों का सारा भावनिरूपण रस की दृष्टि से-अर्थात् किसी भाव
की व्यंजना श्रोता या दर्शक में भी उसी भाव की-सी प्रतीति के विचार से-किया
गया है। अत: जो भाव ऐसे हैं जिन्हें किसी पात्र को प्रकट करते देख या सुनकर
दर्शक या श्रोता भी उन्हीं भावों का-सा अनुभव कर सकते हैं, वे तो प्रधान
भावों में रखे गए हैं, शेष भाव और मन के वेग संचारियों में डाले गए हैं।
जैसे किसी आलम्बन के प्रति आश्रय को शोक या क्रोध प्रकट करते देख उस आलम्बन
के मर्मस्पर्शी स्वरूप और 'भाव' की विशद व्यंजना के बल से श्रोता या दर्शक
को उक्त दोनों भावों का रसरूप में परिणत होना अनुभव होता है, अत: वे प्रधान
भावों की श्रेणी में रखे गए। पर आश्रय को किसी बात की शंका किसी से ईष्या,
किसी पर गर्व, किसी से लज्जा प्रकट करते देख श्रोता या दर्शक को भी शंका,
ईष्या, गर्व, लज्जा आदि का अनुभव न होगा, दूसरे भावों का हो तो हो। इसी से
ये भाव प्रधान न माने जाकर संचारी माने गए हैं। पर इससे यह मतलब नहीं कि ये
भाव सदा प्रधान भावों के द्वारा प्रवर्तित होकर अनुचर के रूप में ही आया
करते हैं,स्वतंत्र रूप में आते ही नहीं। ये स्वतंत्र रूप में अपने निज के
अनुभवों के सहित भी आते हैं पर पूर्ण रस की अवस्था को नहीं प्राप्त
होते-अर्थात् ऐसी दशा को नहीं पहुँचते जिसमें श्रोता या दर्शक भी आश्रय में
उनकी विशद व्यंजना देख उनका अनुभव हृदय में करने लगें और समान अनुभाव प्रकट
करने लगें। सारांश यह कि प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही
कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे-
रसावस्थ : परं भाव: स्थायितां प्रतिपद्यते।
-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद।
नियत प्रधान भावों के स्वरूप निर्धारण के लिए 'रसावस्था' का वही अर्थ
लेना चाहिए जो ऊपर कहा गया है। 'विभाव, अनुभाव और संचारी तीनों के मेल से
जिसकी व्यंजना हो सके'1 यह प्रचलित अर्थ लेने से कुछ काम तो निकल जाता है
पर प्रधानता के स्वरूप का ठीक-ठीक निर्देश नहीं होता। इस अर्थ को ग्रहण
करने से यही पहचान मिलती है कि जो संचारी होंगे उनकी व्यंजना में तीनों का
मेल नहीं होगा, कोई उपादान खंडित रहेगा। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि
संचारियों में जो भाव गिनाए गए हैं उनकी व्यंजना अनुभाव द्वारा भी प्राय:
होती है। अत: कमी पड़ेगी तो संचारी की-अर्थात् जो नियत संचारी हैं, इस लक्षण
के अनुसार,स्वतंत्र या प्रधान रूप से आने पर भी वे संचारी से रहित होंगे।
इस संबंध में दो बातें कहनी हैं-
(1) जो भाव संचारियों में गिनाए गए हैं उनके प्रधान या स्वतंत्र रूप से
आने पर उनके अंतर्गत भी संचारी भाव आ सकते हैं। लज्जा को लीजिए। इसमें जिस
व्यक्ति से लज्जा होगी वह आलम्बन और उसका ताकना, झाँकना, उद्दीपन, सिर
झुकाना आदि अनुभाव और अवहित्था संचारी कही जा सकती है। इसी प्रकार असूया या
ईष्या के अंतर्गत अमर्ष संचारी होकर आ सकता है।
(2) इससे सिद्ध हुआ कि किसी भाव की 'विभाव, अनुभाव और संचारी के
1. विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:।
-नाटयशास्त्र, षष्ठ अधयाय:।
मेल से व्यंजना' ही श्रोता या दर्शक में उस भाव का अनुभाव नहीं करा सकती
अर्थात् पूर्ण रस की निष्पत्ति नहीं कर सकती। तीनों संयोजकों द्वारा लज्जा
की व्यंजना देखने से श्रोता या दर्शक के मन के सामने लज्जा का पूर्ण स्वरूप
भर खड़ा होगा, हृदय में लज्जा का अनुभव न उत्पन्न होगा।
उपर्युक्त विवेचन से यह परिणाम निकला कि 'भावों' के स्वरूप के भीतर ही
वह वस्तु है जिसके अनुसार प्रधान और संचारी का विभाग हो जाता है। वह वस्तु
है आलम्बन। आलम्बन या तो सामान्य होता है या विशेष। जो सामान्य आलम्बन होगा
उसके प्रति मनुष्य मात्र का कम-से-कम सहृदय मात्र का-वही भाव होगा जो आश्रय
का है। जो विशेष आलम्बन होगा उसके प्रति श्रोता या दर्शक स्वभावत: उसी भाव
का अनुभव न करेगा जिसे व्यंजित करता हुआ आश्रय दिखाया गया है-दूसरे 'भाव'
का अनुभव वह कर सकता है। इस विभेद को ध्यान में रखकर विचार करने से यह
स्पष्ट हो जाता है कि प्रधान भावों की गिनती में वे ही भाव रखे गए हैं
जिनके आलम्बन 'सामान्य' हो सकते हैं। शेष भाव या मनोवेग संचारियों की
श्रेणी में डाले गए हैं क्योंकि उनमें से किसी के स्वतंत्र विषय होंगे भी
तो भी श्रोता या दर्शक का ध्यान उनकी ओर प्रवृत्त नहीं रहेगा।
गिनाए हुए संचारियों की सूची से ही पता चल जाता है कि उनका क्षेत्र
बहुत व्यापक है। संचारी के अंतर्गत 'भाव' के पास तक पहुँचनेवाले अर्थात
स्वतंत्र विषययुक्त और लक्ष्ययुक्त मनोविकार और मन के क्षणिक वेग ही नहीं
बल्कि शारीरिक और मानसिक अवस्थाएँ तथा स्मरण, वितर्क आदि अंत:करण की और
वृत्तियाँ भी आ गई हैं।
स्वतंत्र विषयवाले भाव
इनमें तीन मनोविकार ही ऐसे हैं जिनके विषय प्रधान विषय के आलम्बन से
स्वतंत्र हो सकते हैं-गर्व, लज्जा और असूया। इनके विषयों का विचार करते समय
यह ध्यान रखना चाहिए कि विषय या आलम्बन 'भाव' का कारण नहीं है। जैसे किसी
के साथ हम बुराई कर चुके रहते हैं तो उसे सामने पाकर हम लज्जित होते हैं।
अत: बुराई तो हुई हमारी लज्जा का कारण; जिसे सामने पाकर हम लज्जित होते हैं
वह हुआ विषय। जिससे हम ईष्या रखते हैं वह है विषय; उसके गुण, धन, वैभव आदि
हैं कारण, जिसपर हम गर्व प्रकट करते हैं वह हुआ विषय और उसके गुण, वैभव,
शक्ति आदि कारण। रति, क्रोध आदि प्रधान भावों के आलम्बनों के संबंध में भी
यही समझना चाहिए। जैसे, नायिका आलम्बन, और उसका रूप, गुण आदि कारण,
अनिष्टकारी व्यक्ति आलम्बन और अनिष्ट कारण, मृत या पीड़ित व्यक्ति आलम्बन और
उसकी मृत्यु पीड़ा आदि कारण कहे जायँगे। इसी प्रकार और भी समझिए। कारण आधेय
होता है और विषय आश्रय आधार। लज्जा,ईष्या और गर्व के यद्यपि स्वतंत्र विषय
होते हैं पर उनकी ओर उतना ध्यान नहीं रहता जितना कारणों की ओर रहता है।
'आश्रय' का ध्यान तो कुछ रहता भी है, पर श्रोता या दर्शक का ध्यान कुछ
भी नहीं रहता। अत: स्वतंत्र विषय रखने पर भी ये आलम्बन प्रधान नहीं हैं।
इनके विषय आलम्बनपद प्राप्त नहीं होते। आलम्बन वही विषय कहा जा सकता है
जिसके प्रत्यय का बोध प्रधान होकर बना रहे। अत: आलम्बन प्रधान भावों के ही
विषय को कह सकते हैं। गर्व, लज्जा के संबंध में यह बात ध्यान देने की है
कि उनमें कारण विषयगत नहीं होता, आश्रयगत होता है। इसी से पाश्चात्य
मनोविज्ञानियों ने गर्व को 'ममत्व' (Self love) के अंतर्गत रखा है जो उनकी
व्यवस्था के अनुसार 'स्थायी भाव' है। हमारी प्रस्ताविक व्यवस्था के अनुसार
गर्व या अभिमान शीलदशा को ही प्राप्त पाया जाता है। ऐसा शायद ही होता हो कि
कोई किसी एक ही व्यक्ति से समय-समय पर शेखी किया करता हो।
मन के वेग
अब रहे मन के वेग। ये स्वतंत्र रूप में बहुत कम आते हैं अधिकतर किसी 'भाव'
के कारण उत्पन्न होकर उसी के अंतर्गत उद्भूत और विलीन होते हैं। जैसे, भय,
आश्चर्य, हर्ष आदि के कारण आवेग, लज्जा के कारण अवहित्था, रति के कारण
औत्सुक्य, शोक, दु:ख आदि के कारण ग्लानि, साथ-साथ उत्पन्न होती हैं। हर्ष
और विषाद के मूल में भी व्यक्त या अव्यक्त रूप में रति, शोक, जुगुप्सा आदि
भाव रहते हैं क्योंकि इष्ट या प्रिय तथा अनिष्ट या अरुचिकर की प्राप्ति से
ही हर्ष और विषाद का संबंध रहता है।
अमर्ष, त्रास, हर्ष और विषाद तो क्रोध, भय, राग और शोक के ही
आलम्बननिरपेक्ष तथा लक्ष्य या संकल्पविहीन अवयव हैं जो कभी तो प्रधान भावों
के साथ संचारी रूप में आते हैं और कभी स्वतंत्र रूप में। निंदा, अपमान आदि
के असहन से उत्पन्न क्षणिक क्षोभ मात्र का नाम 'अमर्ष' है-जिसका बाह्य
चिन्ह ऑंखें लाल होना, त्योरी चढ़ना, तर्जन आदि हैं।1 किसी शब्द या रूप के
गोचर होने पर एकबारगी कँपा या चौंका देनेवाला वेग 'त्रास'2 है जिससे न तो
विषय की स्फुट धारणा रहती है, न लक्ष्यसाधन की ओर गति। आरंभ में ही दिखाया
जा चुका है कि यह भय का प्रत्ययबोधशून्य आदिम वासनात्मक रूप है जो पूर्ण
समुन्नत अंत:करण न रखनेवाले क्षुद्र जंतुओं में होता है और मनुष्य आदि
उन्नत प्राणियों में भी किसी-किसी अवसर पर देखा जाता है।3 जिस वेग की
प्रेरणा से लोग एकबारगी कर्तव्यशून्य होकर हार मानकर बैठ जाते हैं वह
'विषाद' है।4 जैसे मेघनाथ का वध सुनकर रावण को हुआ था। प्राय: ऐसा होता है
कि इस आलम्बननिरपेक्ष वेग के उदय के पीछे आलम्बनप्रधान भाव 'शोक' स्फुरित
होता है। त्रास और अमर्ष के संबंध में भी अधिकतर ऐसा ही होता है। कोई
व्यक्ति यदि पास ही घोड़ों की टाप सुने तो एकबारगी चौंककर काँप उठेगा; फिर
शत्रु को सामने पाकर 'भय' नामक भाव का अनुभव करेगा। अमर्ष में भी ऐसा होता
है कि पहले किसी का कटु वचन सुनते ही हम क्षुब्ध हो जाते हैं फिर उस कटु
वचन कहनेवाले की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रकार राग की पूर्ण अभिव्यक्ति
भी हर्ष के उपरांत होती है। पहले नायिका को देख नायक हर्षित होकर तब आलिंगन
आदि की ओर प्रवृत्त होता है। अत: संचारियों का यह सामान्य लक्षण लेकर कि वे
प्रधान भाव के कारण होते हैं यह शंका उठाई जा सकती है कि जो जिसका कारण है
वह उसके पीछे कैसे उत्पन्न हो सकता है। अमर्ष, त्रास, हर्ष और विषाद चारों
के संबंध में ऊपर ही जो यह कह दिया गया कि ये क्रोध, भय, राग और शोक के ही
अवयव हैं उसी में इसका समाधान मौजूद है। अंगी का कोई अंग प्रधान या लक्षक
अंग के पहले प्रकट हो सकता है। सारांश यह कि संचारी रूप में अमर्ष, त्रास,
हर्ष और विषाद का क्रोध आदि के साथ कार्यकारण संबंध नहीं है अंगागिभाव
संबंध है। साहित्य के आचार्यों ने क्रोध, राग, भय और शोक के इन
आलम्बननिरपेक्ष शुद्ध वेग रूप अवयवों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी देख इनको
अलग करके संचारियों में रख लिया। भावों और उनके इन अवयवों के अनुभावों को
चाहें
1. निन्द क्षेपापमानादेरमर्षोऽभिनिविष्टता।
नेत्ररागशिर:कम्पभ्रूमक्षेत्तार्जनादिकृत्॥ -साहित्यदर्पण, 6-156।
2. निर्घातविद्युदुल्काद्यैस्त्रास: कम्पादिकारक:॥ -साहित्यदर्पण,
3-1-64।
3. देखिए 'भाव' शीर्षक अधयाय का प्रारम्भिक अंश।
4. उपयाभा जन्मा तु विषाद: सत्वसंक्षय:। -साहित्यदर्पण, 3-167।
तो हम अलग कर सकते हैं। उन अवयवों के उदय तक केवल सात्विक अनुभाव रहेंगे;
भाव का उदय हो जाने पर कायिक अनुभाव होंगे।
उक्त चारों वेगों के जो स्वरूप ग्रंथों में बताए गए हैं उनसे भी इस
बात का पूरा संकेत मिल जाता है कि वे क्रोध, भय, राग और शोक के ही अवयव
हैं। अमर्ष में नेत्रराग, शिराकंप, भ्रूभंग और तर्जन का होना; त्रास में
कंपादि होना; हर्ष में अश्रु, पुलक आदि का होना1 और विषाद में नि:श्वास,
उच्छ्वास आदि होना कहा गया है।2 ये सब व्यापार क्रमश: क्रोध, भय, राग और
शोक के अनुभावों में पाए जायँगे। संचारियों के जो बाह्य चिन्ह साहित्य
ग्रंथों में बताए गए हैं वे एक प्रकार से उनके अनुभाव ही हैं।
अन्य अंत:करणवृत्तियाँ
अब स्मृति, चिंता, वितर्क, मति आदि अंत:करण की अन्य वृत्तियों को लीजिए जो
रागात्मिका नहीं हैं। किसी बात का स्मरण करना, चिंता करना, तर्कवितर्क करना
ये सब मन के वेग नहीं हैं, धारणा, बुद्धि आदि के व्यापार हैं जो
वेदपाठियों, तार्किकों, मीमांसकों आदि में पूर्ण रूप में देखे जाते हैं।
फिर इनका ग्रहण काव्य में कैसे हुआ? काव्य में इनका ग्रहण वहीं तक समझना
चाहिए जहाँ तक वे प्रत्यक्ष रूप में भावों के द्वारा प्रेरित प्रतीत होते
हों। 'प्रत्यक्ष रूप में' कहने का अभिप्राय यह है कि भाव प्रधान रूप से
परिस्फुट हो जिससे श्रोता या दर्शक का ध्यान 'भाव' पर रहे, इन अंत:करण के
व्यापारों और इनके ब्योरों पर नहीं। परोक्ष रूप में तो मनुष्य के सहारे
व्यापार और वृत्तियाँ भावव्यवस्था के अनुसार परिचालित होती हैं। मतलब यह कि
'भाव' की प्रधानता स्पष्ट रहनी चाहिए। उसे इस प्रकार व्यंजित होना चाहिए
कि उक्त अंत:करण वृत्तियों की सत्ता उसी की सत्ता के भीतर दिखाई पड़े।
शील के आधारनिरूपण में शैंड ने भी संकल्पात्मिका और निश्चयात्मिका
वृत्ति (बुद्धि) को 'भावों' के शासन के भीतर लाकर विचार किया है। उन्होंने
इस बात को मानते हुए भी कि मनुष्य की रागात्मक सत्ता से परे समष्टिरूप एक
आत्मसत्ता भी है जो भिन्न-भिन्न 'भावों' की प्रवृत्तियों को दबाकर कभी-कभी
कर्मविवेक करती है, शील के वैज्ञानिक आधारनिरूपण में उसका विचार
निष्प्रयोजन ठहराया है। प्राय: सब देशों के तत्त्वज्ञ महात्मा 'राग' और
'विवेक' को परस्परविरोधी कहकर रागों के दमन का उपदेश करते आए हैं। पर यदि
ऐसा विरोध हो भी तो उसका विचार न करके जहाँ बुद्धि या विवेक अपनी परमावस्था
को प्राप्त होकर कर्मनिर्णायक के रूप में दिखाई पड़े वहाँ भी मूल प्रेरक या
प्रवर्तक 'सत्य प्रेम' नामक स्थायी भाव को ही 1.हर्षस्त्विष्टावाप्तेर्मन:
प्रसादोऽश्रुगदगदादिकर:। -साहित्यदर्पण
3-165।
2. नि:श्वासोच्छ्वासहृत्तापसहायान्वेषणादिकृत्। -साहित्यदर्पण 3-176।
मानना चाहिए। रति भाव के आलम्बन मनुष्य या प्राणी ही नहीं 'सत्य', 'धर्म'
आदि अरूप पदार्थ भी हो सकते हैं, यह पहले कहा जा चुका है।1 अत: शील की
वैज्ञानिक व्याख्या के लिए यह सिद्धांत स्वीकार करके चलना पड़ेगा कि 'समस्त
संकल्पात्मिका और निश्चयात्मिका वृत्तियाँ किसी 'भाव' या मनोवेग द्वारा
प्रेरित होती हैं और उसके शासन में रहकर उसके लक्ष्य के अनुकूल चलती हैं।2'
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मति, शंका, वितर्क आदि यदि किसी भाव
के कारण उत्पन्न हों और वह भाव स्पष्ट रूप से व्यंजित होता हो तभी उनका
ग्रहण काव्य में हो सकता है। यों ही प्रसंग आने पर कोई बात सोचने लगना या
किसी बात का स्मरण करना काव्यभावांतर्गत न होगा। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते
हैं-
स्मृति (क) जहाँ जहाँ ठाढ़ौ लख्यो स्यामु सुभग सिरमौरु।
बिन हूँ उन छिनु गहि रहतु दृगनु अजौं वह ठौरु॥
-बिहारी रत्नाकर, 82।
(ख) मनु ह्नै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर॥
-बिहारी रत्नाकर, 681।
मति- असंशयं क्षत्रापरिग्रहक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि मे मन:।
-अभिज्ञानशाकुंतल प्रथम अंक, 21।
चिंता- जब तें इत तें घनश्याम सुजान अचानक ही बल संग सिधारे।
कर पै मुखचंद धरे सजनी नित सोचति है तू कहा मन मारे3 ॥
1. देखिए 'भाव' शीर्षक अध्याय, अनुच्छेद 12।
2. Our personality does not seem to be the sum of the dispositions of
our emotions and sentiments. These are our many selves; but there is
also our one self. This enigmatical self which reflects on their
systems, estimates them, and however loath to do it, sometimes chooses
between their ends, seems to be the cetral fact of our personlity. If
this be the fact, it is not the kind of fact which we can take into
accont. The science of character will be the science of our sentiments
and emotions-of these many selves, not of this one self. The working
assumption of our science must be the acceptance of this law-‘‘All
intellectual and voluntary processes are elicited by the system of
impulse, emotion or sentiment and subordinated to its end’’- Shand
(Foundations of Character).
3. साहित्यदर्पण में उदाहृत प्राकृत की निम्नलिखित गाथा से मिलाइए
कमलेण बिअसिएण संजोएती बिरोहिणं ससिबिम्बम्।
करअलपल्लत्थमुही किं चिंतसि सुमुहि अंतराहिअहिअआ॥
कमलेन विकसितेन संयोजयन्ती विराधिनं शशिनम्।
करतलपर्यस्तमुखी किं चिंतयसि सुमुखि ; अन्तराहितहृदय॥
-तृतीय परिच्छेद, श्लोक 171।
वितर्क-(क) जौं हौं कहौं रहिए तौ प्रभुता प्रगट होति,
चलन कहौ तो हितहानि नाहि सहनै।
-कविप्रिया, 10-20।
(ख) कि रुद्ध: प्रिययां कदाचिदथवा सख्या ममोद्वेजित :।
किं वा कारणगौरवं किमपि यन्नाद्यागतो बल्लभ :॥
-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद; विरहोत्कंठिता।
इन उदाहरणों में मूल में रति भाव व्यंजित है। यह ऊपर कह आए हैं कि
धारणा, बुद्धि आदि के ये व्यापार 'भाव' की स्थायी दशा में ही होते हैं,
भावदशा में नहीं। जैसे, यदि उक्त चारों वृत्तिया¡ संचारी होकर आयँगी तो
क्रोध की भावदशा में नहीं, 'बैर' नामक उसकी स्थायी दशा में ही आयँगी।
अनिष्टकारी के संबंध में यदि क्रोध स्थायी दशा को प्राप्त होगा तो समय-समय
पर उसके द्वारा किए हुए अनिष्ट का स्मरण, 'यह उसी का काम है और किसी का
नहीं' इस प्रकार का निश्चय, 'वह हाथ में नहीं आ रहा है' इसकी चिंता, 'वह
कहीं भाग गया या यहीं छिपा हुआ है' इस प्रकार का वितर्क हुआ करेगा।
'शंका' तो भय का ही वितर्कप्रधान रूप है जो आलम्बन के दूरस्थ होने पर
प्रकट होता है। इसमें वेग नहीं होता और न आलम्बन उतना स्फुट होता है। इसका
प्रादुर्भाव या तो स्वतंत्र रूप में होता है अथवा भय की स्थायी दशा में;
भावदशा में नहीं होता जब कि अनिष्टकारी या अनिष्ट बिलकुल पास आया रहता है।
भूषण में 'शंका' के बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जैसे-
(क) बीजापूर, गोलकुंडा, आगरा, दिली के कोट
बाजे बाजे रोज दरवाजे उघरत हैं।
-भूषणग्रंथावली, शिवाबावनी, 30।
(ख) चौंकि चौंकि चकता कहत चहूँधा तें यारों,
लेत रहौ खबरि कहाँ लौं शिवराज है।
-वही, छंद, 34।
'वितर्क' और 'शंका' में भेद यह है कि वितर्क में अनुमान का व्यभिचार
इष्ट और अनिष्ट दोनों पक्षों में बारी-बारी से हो सकता है, पर 'शंका' में
'भय' के लेश के कारण अनुमान अनिष्ट पक्ष में ही जाया करता है। वाल्मीकिजी
ने एक ही प्रसंग में दोनों के उदाहरण बहुत ही स्पष्ट दिए हैं। मारीच को मार
आश्रम की ओर लौटते हुए रामचंद्रजी इस प्रकार शंका प्रकट करते हैं-
दु:खिता खरघातेन राक्षसा : पिशिताशना : ।
तै: सीता निहता घौरैर्भविष्यति , न संशय :॥
-वाल्मीकीय रामायण, सर्ग 58, श्लोक 16।
आश्रम में जानकी को न पाकर रामचंद्रजी इस प्रकार वितर्क करते हैं-
हता-मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति।
निलीनाऽप्यथवा भीरुरथवा वनमाश्रिता॥
गता विचेतुं पुष्पाणि , फलान्यपि च वा पुन:।
अथवा पद्मिनीं याता, जलार्थं वा नदीं गता॥
-वही, सर्ग 60, श्लोक 8-9।
गोस्वामीजी ने राम के वनवास की अवधि बीतने पर भरत का वितर्क दिखाया है।
यह संचारी का बहुत अच्छा उदाहरण है, राम के प्रेम में भरत मग्न हैं उनके
नयनजलजात भी स्रवते हैं, उन्हें सगुन जानकर हर्ष भी होता है और वे इस
प्रकार वितर्क भी करते हैं-
कारन कौन नाथ नहिं आए। जानि कुटिल प्रभु मोहिं बिसराए॥आदि
-रामचरितमानस, सप्तम सोपान, 1।
अन्य अंत:करण वृत्तियों में जिस प्रकार भयलेशयुक्त ऊहा 'शंका' रखी गई
है उसी प्रकार हर्षलेशयुक्त ऊहा 'आशा' और विषादलेशयुक्त 'नैराश्य' को भी रख
सकते हैं। जो 33 संचारी कहे गए हैं वे उपलक्षण मात्र हैं, संचारी और भी हो
सकते हैं। जिस प्रकार स्मृति है उसी प्रकार 'विस्मृति' भी रखी जा सकती है।
मानसिक अवस्थाएँ
दैन्य, मद, जड़ता, चपलता इत्यादि मानसिक अवस्थाएँ दो प्रकार की होती
हैं-प्रकृतिगत और आगंतुक। आगंतुक रूप में ही वे संचारी होती हैं क्योंकि
उनका किसी 'भाव' के कारण प्रकट होना स्पष्ट रहता है। किसी मानसिक अवस्था की
एक स्थिर प्रणाली का प्रकृतिस्थ हो जाना मूल में चाहे किसी 'भाव' के कारण
ही हो पर अभिव्यक्ति काल में उक्त भाव के साथ उस अवस्था का प्रत्यक्ष संबंध
न दिखाई देने से वह स्वतंत्र ही कही जाएगी। इस प्रकार की प्रकृतिगत मानसिक
अवस्थाएँ रस की बँधी लीक पीटनेवाले फुटकरिए कवियों के काम की चाहे न हों पर
चरित्रचित्रण में बड़े मतलब की हैं। किसी सीधे-सादे सज्जन के दैन्य भाव,
किसी दुष्ट की स्वाभाविक उग्रता, बालकों की चपलता, ज्ञानियों की धीरता
इत्यादि देखने-सुनते से श्रोता या दर्शक का मनोरंजन ही नहीं होता बल्कि
सज्जन, दुष्ट, बालक, ज्ञानी, आलसी इत्यादि के ठीक-ठीक स्वरूप का
प्रत्यक्षीकरण होता है जिससे इन भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के प्रति
उपयुक्त भावों की प्रतिष्ठा होती है। जो ज्ञानियों और सज्जनों पर श्रद्धा,
दुष्टों से घृणा, बालकों से स्नेह और आलसियों से विरक्ति या उपहास का भाव
रखने में अभ्यस्त हो गया उसके चरित्र के सुधारने में कसर ही क्या रह गई?
मतलब यह कि इन मानसिक अवस्थाओं को 'शीलदशा' में देखकर प्रवृत्ति और
निवृत्ति दोनों को उत्तेजना मिलती है।
भावों के प्रत्यक्ष संबंध से संचारियों के रूप में इन मानसिक अवस्थाओं
की जहाँ अभिव्यक्ति होती है वहाँ उनमें प्रधान 'भावों' के प्रभाव से बहुत
कुछ वेग आ जाता है। जैसे, भय के कारण जो दैन्य होगा वह इतना प्रबल होगा कि
मानापमान का भाव बिलकुल दबा रहेगा और दीनता दिखलानेवाला व्यक्ति दस आदमियों
के सामने भय के आलम्बन से हाथ जोड़ेगा, गिड़गिड़ाएगा और अपने को तुच्छातितुच्छ
बनाएगा। ऐसे स्थल पर ध्यान प्रधानत: भय की ओर ही रहेगा, दैन्य की ओर
नहीं। लोग यही कहेंगे कि यह डर के मारे गिड़गिड़ा रहा है। इसी प्रकार भक्ति
(जो बड़ों के प्रति पूज्यबुद्धिमिश्रित रति ही है) के उद्रेक से अर्थात्
पूज्य के अलौकिक महत्व के ध्यान में लीन होने से अपनी लघुता की जो सुखद
अनुभूति1 होती है उसमें भी बहुत कुछ जोर रहता है। भक्तवर गोस्वामी
तुलसीदासजी ने दोनों प्रकार के 'दैन्य' का परिचय दिया है-प्रकृतिगत का भी
और भावाश्रित का भी। रामचरितमानस की भूमिका में वे अपनी दीन प्रकृति का इस
प्रकार उल्लेख करते हैं-
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बाल वचन मन लाई।
कविनहोहुँ,नहिंवचनप्रवीनू। सकल कला सब विद्या हीनू॥
अपने इष्टदेव के महत्व के अनुभव से प्रेरित 'दैन्य' के जो पवित्रा
उद्गार उनके भक्तिपूर्ण अंत:करण से निकले हैं वे भक्ति के अभ्यास का मार्ग
दिखानेवाले हैं-
(क) जब लगि मैं न दीन, दयालु तै; मैं न दास, तैं स्वामी॥
तब लगि जो दु:ख सहेउँ कहेउँ नहिं जद्यपि अंतरजामी।
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत श्रुति गावै।
-विनयपत्रिका, 113।
(ख) राम सों बड़ो है कौन? मो सों कौन छोटो?
राम सों खरो है कौन? मो सों कौन खोटो?
-विनयपत्रिाका, 72।
भक्तिपूर्ण अंत:करण से किस प्रकार मान-अपमान का भाव निकल जाता है,
देखिए-
लोग कहैं पोचु सो न सोचु न सँकोचु मेरे,
ब्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं।
तुलसी अकाज काज राम ही के रीझे खीझे
प्रीति की प्रतीति मन मुदित रहत हौं॥
-विनयपत्रिका, 76।
'मद' नामक अवस्था या तो मद्यपान आदि के कारण होती है अथवा प्रेम की
1. बड़ों सुख कहत बड़े सौं, बलि, दीनता।-तुलसी।
-विनयपत्रिका, 262।
उमंग या अभिमान आदि के कारण।1 दांपत्य रति के वेग से उत्पन्न मद के उदाहरण
तो लक्षण ग्रंथों में मिलते हैं। पर अभिमान के जोर करने पर भी लोग
बहँकी-बहँकी बातें करते हैं। भले-बुरे का ध्यान नहीं रखते किसी की कुछ
सुनते नहीं, जो जी में आता है कहते करते हैं। इससे स्पष्ट है कि 'मद' गर्व
का भी संचारी होकर आता है। यह तो दिखाया ही जा चुका है कि संचारियों के
पाँच वर्गों में से प्रथम वर्ग में जो तीन आलम्बनयुक्त भाव हैं वे
संचारियों के सहित भी आ सकते हैं।
जिस 'जड़ता' का विचार रसनिरूपण में हुआ है वह किसी भाव के उद्रेक से
अंत:करण की बोधात्मक क्रिया का कुछ काल के लिए बंद-सा हो जाना है। जैसे,
प्रिय के विदेशगमन का सहसा संवाद पाते ही नायिका की यह दशा हो जाना कि उसे
'मैं कहाँ हूँ, आसपास कौन बैठा है, क्या कहता है, क्या करता है' इत्यादि का
कुछ भी ज्ञान न रहे। इसे मानसिक स्तंभ कह सकते हैं। इसके साथ ही शरीरस्तंभ
भी होता है अथवा यों कहिए कि 'स्तंभ' ही के दो पक्ष होते हैं एक मानसिक और
एक शारीरिक। इनमें से प्रथम तो संचारियों की कोटि में रखा गया और द्वितीय
अनुभाव के भीतर डाल दिया गया। अब पूछिए कि क्यों एक प्रकार का स्तंभ तो
संचारियों में रखा गया और दूसरे प्रकार का सात्विक में। इसका कारण विवेचन
करने पर यही प्रतीत होता है कि सात्विक अनुभाव में वही वस्तु रखी गई है जो
बाहर शरीर पर लक्षित हो। मानसिक अवस्था स्वयं गोचर नहीं होती उसका कोई
चिन्ह या संकेत गोचर होता है। 'अनुभाव' किसी 'भाव' का सूचक होता है अत:
मानसिक अवस्था जो सूच्य हुआ करती है वह सूचकों में नहीं रखी गई, संचारियों
में रखी गई।
'जड़ता' का ही एक हल्का रूप 'बुद्धिमांध' है जो किसी भाव की समुपस्थिति
के कारण भी थोड़ी देर के लिए हो सकता है और स्थायी दशा में प्रकृतिस्थ भी
देखा जाता है। शोक या विषाद के समय कभी-कभी किसी की कही हुई साधारण बात भी
समझ में नहीं आती। किसी 'भाव' के संचारी के रूप में 'जड़ता' के इस हलके रूप
पर चाहे उतना ध्यान न दिया जाय पर प्रकृतिस्थ दशा में यह हास्य के आलम्बन
की रूपयोजना में बहुत काम आता है। बेवकूफों पर हँसने का रिवाज बहुत पुराना
है, इसी से बहुत से लोग सिर्फ दूसरों को हँसाने के लिए बेवकूफ बना करते
हैं। नाटकों के विदूषक ऐसे ही बने हुए बेवकूफ हुआ करते हैं।
लज्जा, भय आदि के कारण अपने मन के भाव को छिपाने की प्रवृत्ति जिस
अवस्था में हो उसे 'अवहित्था' कहते हैं।2
उग्रता सच पूछिए तो, क्रोध का ही एक अवयव है। पर कभी-कभी सर्वांगपूर्ण
1. सम्मोहानन्दसभेदा मदो मद्योपयोगज:। साहित्यदर्पण, 2-146।
2. एवं वादिनि देवषौं पार्श्वे पितुरधोमुखी॥
लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती॥
साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, पृष्ठ 131, विमला टीका।
क्रोध के न प्रकट होने पर भी उसका आविर्भाव होता है। कभी-कभी उसी तक बात
खतम हो जाती है, बाकी बातों की नौबत नहीं आती। किसी-किसी का तो किंचित्
'तीव्र स्वर' से ही काम निकल जाता है, विशेषत: ऊँची पद मर्यादावालों का।
जिसके वचन या कर्म के कारण उग्रता उत्पन्न होती है उसके हृदय में उस उग्रता
के दर्शन से साधारणत: क्रोध, भय या विषाद का संचार होता है। संचारियों में
जब उग्रता ली गई तब 'मृदुलता' या 'कोमलता' भी क्यों न ली जाय? जिस प्रकार
'उग्रता' के दर्शन से क्रोध, भय या विषाद का संचार होता है उसी प्रकार
जिसके साथ मृदुलता का व्यवहार किया जाता है उसके हृदय में व्यवहार करनेवाले
के प्रति प्रेम या श्रद्धा भक्ति का संचार होता है। प्रेम और करुणा में ये
प्रवृत्तियाँ मृदुल हो जाती हैं। अत: श्रृंगार और करुण दोनों रसों में
'मृदुलता' संचारी होकर आ सकती है। प्रिय और मधुर वचन इसके सूचक होते हैं।
अन्य की मनस्तुष्टि का अभिलाष प्रेम और करुणा दोनों में रहता है। उसी
अभिलाष की पूर्ति के साधन में 'मृदुता' योग देती है। दु:ख में किसी की
सहायता हमसे नहीं बन पड़ती तो हम मृदु वचनों से ही उसे सांत्वना देने का
प्रयत्न करते हैं। जिस प्रकार प्रकृतिगत उग्रता में लोक के अनिष्ट की ओर
प्रवृत्ति झलकती है उसी प्रकार 'मृदुलता' में इष्टापूर्त की प्रवृत्ति। यह
लोकरंजन प्रवृत्ति जिसमें होती है उसका स्वभाव मृदुल कहा जाता है। राम के
'मृदुल स्वभाव' का गोस्वामी तुलसीदासजी ने मुग्ध होकर स्थान-स्थान पर
उल्लेख किया है। भरतजी राम के आगमन के संबंध में तर्क-वितर्क करते हुए अंत
में अपने मन को यही समझाकर ढाँढ़स बँधाते हैं कि-
जन-अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीनबंधु अति मृदुल सुभाऊ।
-रामचरितमानस, सप्तम सोपान, 1।
'मृदुलता' और 'उग्रता' दोनों का चित्र गोस्वामीजी ने परशुराम और
लक्ष्मण के संवाद के प्रसंग में साथ ही किया है। लक्ष्मणजी के उग्र भाषण पर
उत्तेजित परशुराम बीच-बीच में राम के मृदु वचनों से ठंडे पड़ते गए हैं।
'उग्रता' के साथ 'निष्ठुरता' या 'निर्दयता' के मेल से 'क्रूरता' का
आविर्भाव होता है। यद्यपि 'निर्दयता' उग्रता से अलग भी देखी जाती है। पर
वहाँ निर्दयता की ओर अंत:करण की प्रवृत्ति नहीं होती। किसी दीन अनाथ का
सर्वस्व नीलाम कराते हुए बनिये में कुछ भी उग्रता नहीं होती। वह बहुत ही
भलमनसाहत, ईमानदारी और नम्रता दिखाता हुआ तथा धर्म और न्याय की बातें कहता
हुआ पाया जाता है। वह उस दीन-अनाथ का अनिष्ट नहीं चाहता बल्कि रुपये के लोभ
के आगे उसके इष्ट अनिष्ट, भले बुरे या मरने जीने की ओर कुछ ध्यान ही नहीं
देता। जड़ के प्रति अनन्य 'रति भाव' के कारण और 'भावों' के हिसाब से वह मानो
स्वयं जड़त्व को प्राप्त रहता है। किसी की दयनीय दशा देख-सुनकर दया न करना
कठोरहृदयता है। किसी की दशा दयनीय कर देने में अंत:करण से प्रवृत्त होना
निर्दयता है। क्रोध द्वारा प्रेरित कर्मों के समय ही यह मानसिक अवस्था देखी
जाती है। किसी अन्य इच्छा या संकल्प द्वारा प्रेरित कर्म दूसरे के देखने
में निर्दय प्रतीत हो सकते हैं पर निर्दयता वहाँ कर्ता के अंत:करण में नहीं
रहती। अपना काम लेते समय उसके करने में किसी अधीन या सेवक को जो घोर कष्ट
हो रहा है उसका कुछ ख्याल न करना दूसरों के देखने में निर्दयता ही है। पर
इस प्रकार की मानसिक अवस्था का विचार स्वार्थपरता आदि के साथ शील में ही हो
सकता है, भाव के संचारियों में नहीं। जिस 'मानसिक अवस्था' का अस्तित्व अपनी
प्रवृत्ति के सहित आश्रय के अंत:करण में हो उसी का ग्रहण 'भावों' के
संचारियों में हो सकता है। यदि कोई राजा अपनी अत्यंत प्रिया पत्नी के
तोषार्थ दूसरी स्त्री से उत्पन्न पुत्र के वध के लिए उद्यत दिखाया जाय तो
उसका कर्म निर्दय होने पर भी 'निर्दयता' उसके अंत:करण में जाग्रत नहीं कही
जाएगी । वह जो पुत्र को मारने जा रहा है वह अपनी निर्दयता की प्रवृत्ति से
नहीं। अत: निर्दयता श्रृंगार की संचारी नहीं कही जा सकती। किसी अनगढ़ मूर्ख
को हँसी-हँसी में चिढ़ाते-चिढ़ाते कोई गढ्ढे में ढकेल दे और उसके हाथ-पैर टूट
जायँ तो यह कर्म निर्दय अवश्य कहा जायगा, पर ढकेलनेवाले के अंत:करण में
निर्दयता के अभाव के कारण निर्दयता को हास्य रस का संचारी नहीं कह सकते।
इसी प्रकार 'रौद्र' को छोड़ और सब रसों से इसका बहिष्कार हो जाता है।
'मोह' और 'जड़ता' ये दोनों मिलती-जुलती अवस्थाएँ हैं। 'जड़ता' है एकदम ठक
हो जाना जिसमें मनुष्य की शारीरिक और मानसिक दोनों क्रियाएँ एक क्षण के लिए
बंद-सी हो जाती हैं। यह अवस्था इष्ट और अनिष्ट दोनों के दर्शन और श्रवण से
हो सकती है।1 इसमें चित्त की व्याकुलता नहीं रहती। 'मोह' दु:खावेग के कारण
ही होता है और उसमें चित्त की व्याकुलता और मूर्च्छा होती है।2 प्रिय को
सामने पाकर कभी-कभी भावातिरेक के कारण कुछ क्षण तक न तो मुँह से कोई बात
निकलती है, न पैर आगे बढ़ते हैं, टकटकी लगाकर ताकने के सिवा उनसे कुछ नहीं
बन पड़ता। यह अवस्था जड़ता है जो अचिंतित अथवा अद्भुत विषय के अकस्मात् सामने
आने पर भी होती है। पति का मरण सुनने पर रति को मूर्च्छा आ जाने से क्षण
भर के लिए सुख-दु:ख का कुछ भी ज्ञान नहीं रह गया।3 यह अवस्था मोह की है।
स्वप्न के संबंध में इस बात की ओर ध्यान दिला देना फिर आवश्यक है कि
संचारियों के पाँच वर्गों में से प्रथम वर्ग को छोड़ और किसी में विषय
प्रधान भाव
1. अप्रतिपत्तिर्जड़ता स्यादिष्टानिष्टदर्शनश्रुतिभि:। -साहित्यदर्पण,
3-148।
2. मोहो विचिन्तता भौतिदु:खावेगानु चिंतनै:।
मूर्च्छनाज्ञानपतनभ्रमणादर्शनादिकृत्॥ -साहित्यदर्पण, 3-150।
3. तीव्राभिषक्ष्प्रभवेण वृत्तिं मोहेन संस्तम्भयतेन्द्रियाणाम्।
अज्ञानभर्तृव्यसना मूर्हूत्तं कृतोपकारेव रतिर्बभूव॥
-कुमारसंभव, 3-73।
के आलम्बन से भिन्न नहीं हो सकता। रति, क्रोध, भय इत्यादि में केवल उसी को
स्वप्न में देखना संचारी होगा जिससे रति या भय हो, अथवा जिस पर क्रोध हो।
शारीरिक या मानसिक क्रिया में तत्पर न होने की प्रवृत्ति जिस अवस्था
में हो वह अलसता है। यह अवस्था शारीरिक या मानसिक श्रांति के कारण होती है।
यद्यपि साहित्य के ग्रंथों में शारीरिकश्रम और गर्भ आदि के कारण उत्पन्न
आलस्य को संचारी कहा है1 पर संचारी का लक्षण उस पर ठीक-ठीक नहीं घटता है।
जब तक उसका किसी भाव के साथ प्रत्यक्ष संबंध न हो-सीधा लगाव न हो-तब तक वह
संचारी कैसा? रात भर जगी हुई स्त्री बैठे-बैठे जँभाई लेती है तो इससे
श्रोता या दर्शक को 'रति भाव' के अनुभव में कुछ सहायता पहुँचती हुई मुझे तो
नहीं मालूम पड़ती। इस प्रकार की अलसता का वर्णन उस भद्दी रुचि का परिचायक है
जिसके अनुसार मध्या और प्रौढ़ा की रति का निर्लज्जता के साथ वर्णन होने
लगा। प्रेम के साथ इस शारीरिक श्रम से उत्पन्न आलस्य का केवल बादरायण संबंध
दिखाई पड़ता है। जिस क्रिया या व्यापार से शारीरिक श्रम (थकावट) हुआ वह तो
भावप्रेरित क्या भाव का अंश तक कहा जा सकता है पर इससे उस श्रम को और उस
श्रम से उत्पन्न आलस्य को भाव द्वारा प्रेरित संचारी नहीं कह सकते। यदि कोई
वीर तलवार चलाते-चलाते थक जाय जिससे उसे आलस्य आ जाय तो क्या आलस्य वीर रस
का संचारी कहा जायगा? हास्य रस में जो निद्रा और आलस्य संचारी कहे गए हैं
उनके संबंध में भी यही प्रश्न उठता है। यदि कोई हँसते-हँसते थक जाय और उस
थकावट के कारण उसे नींद या आलस्य आने लगे तो यह नींद या आलस्य हसन-क्रिया
के परिणाम श्रम का परिणाम है, हास्य के भाव का पोषक संचारी नहीं। अत:
आलस्य के वर्णन को किसी भाव का संचारी मानना मेरी समझ में ठीक नहीं। उसे
स्वतंत्र ही मानना चाहिए।
किसी भाव के वेग के कारण जो मानसिक शैथिल्य होता है उसे 'ग्लानि' कहते
हैं। दु:ख, पश्चात्ताप या शोक के आवेग से शिथिल मन का किसी काम की ओर
उत्साहित न होना शोक का ग्लानि संचारी कहा जा सकता है। 'ग्लानि' के लक्षण
में दु:ख और मनस्ताप से उत्पन्न शैथिल्य के अतिरिक्त परिश्रम, भूख, प्यास
आदि से उत्पन्न शैथिल्य भी ले लिया गया है।2 पर उपर्युक्त विवेचन के अनुसार
दु:ख और मनस्ताप से उत्पन्न शिथिलता ही संचारी के रूप में कही जा सकती है।
इसी
1. आलस्यं श्रमगर्भांद्यैजांडयं जृम्भासितादिकृत्।
-साहित्यदर्पण, 3-155।
2. रत्यायासमनस्ताप क्षुत्पिपासादिसंभवा।
ग्लानिर्निष्प्राणताकम्पकार्यानुस्साहतादिकृत्॥
-साहित्यदर्पण 3-170।
से मैंने ग्लानि को शारीरिक अवस्था में न रखकर मानसिक अवस्था में रखा है।
अंगग्लानि 'श्रम' से कुछ भिन्न नहीं प्रतीत होती। अत: उसपर विचार शारीरिक
अवस्था के अंतर्गत 'श्रम' में ही किया जायगा। किसी अरुचिकर वस्तु के सामने
रहने से भी मन पर जोर पड़ता है इससे उससे उत्पन्न शैथिल्य ग्लानि ही है।
किसी बात से ऊब जाना भी ग्लानि ही है।
'उन्माद' नामक मानसिक अवस्था राग, शोक, क्रोध, भय आदि कई भावों की
भावदशा और स्थायीदशा के कारण उत्पन्न हो सकती है।1 जिस प्रकार राग की
भावदशा में लोग कभी-कभी थोड़ी देर के लिए उन्मत्त प्रलाप आदि करते हैं उसी
प्रकार उसकी रति नायक स्थायी दशा में भी बहुत दिनों के लिए या सब दिन के
लिए पागल हो जाते हैं। हमारे बंगाली भाइयों के प्रेम का तो पागलपन एक बड़ा
भारी अंग है। अत: प्रेम के उन्माद के अधिक वर्णन को यदि हम 'गौड़ी पद्धति'
कहना चाहें तो कह सकते हैं। गिरीष घोष के नाटकों में शायद ही कुछ नाटक ऐसे
निकलें जिनमें कोई 'उन्मादिनी' न हो! और भावों के कारण भी उन्माद होता है।
जिस प्रकार क्रोधोन्मत्त होकर लोग बहुत-सी बेठिकाने की बातें कर बैठते हैं
उसी प्रकार बैर के प्रतिशोध के लिए भी बरसों पागल होकर घूमते देखे जाते
हैं। किसी के शोक में पागल होना तो प्रसिद्ध ही है। जुगुप्सा या विरति से
भी उन्माद की-सी दशा हो सकती है। शेक्सपियर का 'हैमलेट' इसका उदाहरण है।
अपने चाचा और माता के कृत्य से उसे जो विरक्ति हुई उसने उसकी दशा उन्मत्त
की-सी कर दी।
'साहित्यदर्पण' के लक्षण के अनुसार संतोष या तुष्टि ही का नाम 'धृति'
प्रतीत होता है। पर मैं स्पष्टता के लिए उसे 'धैर्य' से भिन्न रखना ठीक
नहीं समझता। नायक के गुणों में 'धैर्य' का जो लक्षण कहा गया है उसी का
ग्रहण कर संचारी का नाम मैंने 'धैर्य' ही रखा है। हिंदीवालों ने यही अर्थ
ग्रहण किया है। बड़े-बड़े विघ्न उपस्थित होने पर भी अपने व्यवसाय में अविचलित
रखनेवाली मानसिक अवस्था का नाम धैर्य है।2 वीर रस में धैर्य प्राय: संचारी
होकर आता है। युद्धयात्रा के समय विकट पर्वत, नदी आदि पड़ने पर भी बराबर
अग्रसर होने का प्रयत्न किए जाना धैर्य सूचित करता है। इसी प्रकार किसी
वस्तु को दान करते समय उस वस्तु के अभाव से होनेवाले कष्ट, कठिनाई आदि की
कुछ परवाह न करना, किसी धर्मसाधन के मार्ग में घोर कष्ट देखकर भी उसपर
अग्रसर होते जाना धैर्य का सूचक होगा। कफन माँगते हुए राजा हरिश्चंद्र अपनी
रानी को पहचान लेने पर भी कफन माँगते ही रहे। 'धैर्य' के समान 'अधैर्य' भी
संचारी होकर आ सकता है, जैसे-
1. चित्तसम्मोह उन्माद: कामशोकभयादिभि:।
अस्थानहासरुदितगीतप्रलपनादिकृत॥ -वही, 3-160
2- मिलाइए रसकुसुमाकर, तृतीय कुसुम, पृष्ठ 23।
हरस्तु किंचित्परिवृत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशि:।
उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि॥
-साहित्यदर्पण, तृतीय अधयाय, विमलाटीका, पृष्ठ 164।
इष्ट की प्राप्ति से इष्ट की पूर्ति के अनुभव का नाम 'संतोष' है। रति,
क्रोध और उत्साह में यह प्राय: संचारी होकर आता है। तत्वज्ञान द्वारा
प्राप्त संतोष को संचारियों में नहीं ले सकते। प्रिय का साक्षात्कार होने
पर उसके रूपदर्शन और वचनश्रवण से नेत्रों और कानों का तृप्त होना संतोष ही
कहा जायगा। जैसे-
आई भले हौ चली सखियान मैं पाई गोबिंद के रूप की झाँकी।
त्यों पद्माकर हार दियो गृह-काज कहा अरु लाज कहाँ की।
है नख तें सिख लौं मृदु माधुरी बाँकियै भौंहैं, बिलोकनि बाँकी।
आज की या छवि देखि भटू! अब देखिबे को न रहयो कछु बाकी॥
-जगद्विनोद 331।
इसी प्रकार जिसपर क्रोध है उसके यथेष्ट उत्पीड़न से और किस कर्म के
प्रति उत्साह है उसके सम्यक् साधन से भी बराबर संतोष होता है। 'संतोष' के
समान 'असंतोष' के उदाहरण भी काव्यों में बहुत सुंदर मिलते हैं-विशेषत:
श्रृंगार में, जैसे-
मोहन अनूप बने रूप ठगी ऑंखैं इतै,
इनकी उरझ की छबीले येई साखियै।
पीवति अघाय प्यास बाढ़ियै रहति महा
अहा अचरज कहौ कहा कहि भाखियै।
जानमनि जीवन उदार रिझवार छैल,
जसुधा-कुँवर गुन गहि अभिलाखियै।
चोप चातकी है भई आनंद के घन हौ जू,
सुदरस रस दै रसीले रस राखियै॥
राग, द्वेष, हास्य आदि की प्रेरणा से उत्पन्न वह मानसिक अस्थिरता चपलता
कहलाती है जिसके अनुसार लोग अनेक प्रकार की ऐसी चेष्टाएँ प्रदर्शित करते
हैं जो नियमित प्रयत्न की दशा को नहीं पहुँचती।1-जैसे, नायक को देखकर
नायिका का बिना प्रयोजन इधर-उधर करने लगना, किसी को खोदकर या चपत लगाकर
भागना इत्यादि; किसी बेढंगे मूर्ख को देखकर कहने लगना कि हट जाओ सामने से,
अमुक शास्त्रीजी आते है।2; द्वेष के पात्र को देखते ही उसके ऊपर कटु
व्यंग्य छोड़ने लगना
1. मात्सर्यद्वेषरागादेश्चापल्यं त्वनवस्थिति:।
तत्रा भर्त्सनपारुष्यस्वच्छन्दाचरणादय:। -साहित्यदर्पण,
3-169।
2. गुरोर्गिर: पंच दिनान्यधीत्य वेदान्तशास्त्रणि दिनत्रायं च।
अमी समाघ्राय च तर्कवादान्समागता: कुक्कुटामिश्रपादा:॥
-साहित्यदर्पण, 152।
इत्यादि-इत्यादि। श्रृंगार के संचारी चलपता का यह बहुत अच्छा उदाहरण है-
वह साँकरी कुंज की खोरी अचानक राधिका माधव भेंट भई।
मुसक्यानि भली अँचरा की अली त्रिबली की बली पर डीठि गई।
झहराय, झुकाय, रिसाय 'ममारख' बाँसुरिया हँसि छीनि लई।
भृकुटी मटकाय, गोपाल के गाल में ऑंगुरी ग्वालि गड़ाय गई।
-काव्यप्रभाकर, 5-378।
जिससे घृणा या द्वेष हो उसे देखकर भला-बुरा या अप्रिय वचन कहने लगना भी
'चपलता' ही के अंतर्गत माना जायगा, पर तभी तक जबतक उग्रता न प्रकट होगी।
यदि कटु वचन उग्रता लिए होगा तो वह 'उग्रता' का सूचक होगा चपलता का नहीं।
रामचरितमानस में लक्ष्मण और परशुराम के संवाद के समय लक्ष्मण के प्राय: सब
वचन चपलता के उदाहरण हैं। केवल कहीं-कहीं उग्रता व्यंजित होती है, जैसे-
भृगुकुल समुझि, जनेउ बिलोकी। जो कछु कहेहु सहेउँ रिस रोकी॥
'मारने के लिए हाथ खुजलाना', 'बिना बोले रहा न जाना' आदि वाक्य 'चपलता'
ही सूचित करते हैं।
शारीरिक अवस्थाएँ
शारीरिक अवस्थाओं के संबंध में कुछ विशेष नहीं कहना है। केवल इतनी बात फिर
से कह देना चाहता हूँ कि भाव द्वारा समुपस्थित शारीरिक अवस्था का ग्रहण
संचारियों के अंतर्गत इसलिए हुआ है कि उनसे भी भाव की तीव्रता या व्यापकता
के अनुभव में सहायता मिलती है। जो शारीरिक अवस्था किसी भाव के प्रभाव से
नहीं उपस्थित हुई यों ही अन्य प्राकृतिक कारणों से उपस्थित हुई है उसे भाव
के संचारियों में नहीं ले सकते।
पहले 'श्रम' को लीजिए। 'श्रम' के दो अर्थ हो सकते हैं-एक तो
व्यापाराधिक्य या किसी क्रिया का निरंतर साधन, दूसरा उससे उत्पन्न अग्लानि
या थकावट। साहित्यदर्पण में दूसरा अर्थ ग्रहण किया गया है1 पर मैं उसे यहाँ
पहले ही अर्थ में रखता हूँ। किसी के प्रेम में यदि कोई दौड़-धूप करे, विद्या
की प्राप्ति के लिए रात-रात भर बैठकर पढ़ता रहे, गड़ा हुआ खजाना पाने के लिए
दिन-भर मिट्टी खोदता रहे तो उसका यह दौड़ना धूपना, रात-भर बैठना या दिन-भर
मिट्टी खोदना क्रमश: व्यक्ति, विद्या या धन के प्रति रति भाव का संचारी कहा
जा सकता है। पर इस दौड़-धूप के कारण यदि कोई थककर बैठ जाय या रात-भर मेहनत
करने से शिथिल हो जाय
1. खेदोरत्यधवगत्यादे: श्वासनिद्रादिकृच्छम:।
-साहित्यदर्पण 3-146।
तो यह थकना या शिथिल होना रति भाव से दूर पड़ जाने के कारण-क्रिया या
व्यापार के व्यवधान से उसके साथ प्रत्यक्ष संबंध न रखने के कारण-संचारी
नहीं कहा जा सकता।
तो क्या 'अंगग्लानि' को संचारियों में लेना ही न चाहिए? लेना चाहिए, पर
वहाँ जहाँ उसका भाव के साथ सीधा संबंध हो। आरंभ ही में भाव का जो विश्लेषण
किया गया है उसके अनुसार भाव के स्वरूप के भीतर अंग रूप में अनुभाव भी आ
जाते। कायिक अनुभाव शारीरिक क्रिया या व्यापार के रूप में ही होते हैं। अत:
उनसे अंगग्लानि या थकावट उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार की थकावट संचारी के
अंतर्गत कही जा सकती है। जैसे, बार-बार आलिंगन गर्जन-तर्जन या अस्त्राचालन
इत्यादि से उत्पन्न थकावट। पर भाव स्थायी दशा में जो प्रयत्न किए जायँगे
जैसे, मार्ग चलना आदि उनसे उत्पन्न थकावट संचारी नहीं होगी, केवल उक्त
प्रयत्न या व्यापार संचारी होंगे, जैसा कि श्रम के प्रसंग में कहा जा चुका
है। 'अंगग्लानि' या थकावट का स्वतंत्र (जो किसी का संचारी न हो) वर्णन भी
सौकुमार्य आदि का सूचक होकर बहुत ही रोचक होता है। जैसे-
'जल को गए लक्खन, हैं लरिका, परिखो पिय छाँह घरीक ह्नै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि डाढ़े।'
तुलसी रघुवीर प्रिया श्रम जानि कै, बैठि विलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥
-तुलसीकृत कवितावली, अयोध्याकांड, 12।
निद्रा और विबोध दोनों का संबंध यद्यपि चेतना की प्रवृत्ति और निवृत्ति
से है पर वे अधिकतर शरीर धर्म के रूप में ही दिखाई पड़ते हैं। इसी से उन्हें
मानसिक अवस्था में न रखकर शारीरिक अवस्था में रखा है। प्रिय के ध्यान का
सुख अनुभव करते-करते नायिका का सो जाना और विरह-वेदना से नींद न आना क्रमश:
निद्रा और विबाध के उदाहरण होंगे! यों ही सोते हुए मनुष्य का जाग पड़ना
'विबोध' संचारी न होगा। इसी प्रकार मरण, व्याधि और अपस्मार भी तभी संचारी
होंगे जब किसी भाव के कारण होंगे, अन्यथा नहीं।
संचारियों के रूप में जिन मानसिक अवस्थाओं और वेगों या भावों का उल्लेख
हुआ है उनमें से बहुत से शीलदशा को प्राप्त या प्रकृतिस्थ देखे जाते हैं।
इस रूप में उनका वर्णन पात्रों (आश्रय और आलम्बन) की गुण-योजना के प्रसंग
में किया जायगा।
संचारियों के विषय के संबंध में दो-चार बातें कहकर अब इस प्रकरण को
समाप्त करता हूँ। संचारियों में कुछ तो ऐसे हैं जिनके विषय होते ही नहीं
केवल कारण होते हैं। जैसे, सब शारीरिक अवस्थाएँ; मद, जड़ता, मोह, उन्माद और
ग्लानि ये मानसिक अवस्थाएँ और आवेग नामक वेग। भाव वर्ग के तीनों भावों
(गर्व, लज्जा और असूया) को छोड़ और सब संचारियों के या तो प्रधान भाव के
आलम्बन ही विषय होते हैं अथवा उनसे (आलम्बनों से) संबंध रखनेवाली वस्तुएँ।
इस प्रकार कहीं-कहीं आलम्बन के रूप, गुण, चेष्टा आदि कारण ही संचारियों के
विषय होते हैं। जिसके प्रति रति भाव है उसकी मुसकान देखकर या उसके वचन
सुनकर भी हर्ष होता है और उसकी कोई वस्तु देखकर भी, जैसा कि नायक के उड़ाए
हुए कबूतर को देखकर बिहारी की नायिका को हुआ है1। वचन श्रवण आदि के प्रति
औत्सुक्य भी होता है। प्रिय के किसी अंग या चेष्टा मात्र से हर्ष का होना
रति भाव का उत्कर्ष व्यंजित करता है। जिसके वचन मात्र सुनकर, जिसकी ऑंख या
केश देखकर ही हर्ष होता है उसके पूर्ण समागम के आनंद का क्या कहना है? इसी
प्रकार जिसका शोक होता है उसके किसी एक अंग, चेष्टा या गुण का स्मरण आने पर
भी विषाद होता है उसके कपड़े-लत्ते देखकर भी। मोटेतौर पर कहा जा सकता है कि
प्राय: समस्त विषययुक्त संचारियों के विषय वे ही होते हैं जो या तो उनके
प्रधान भावों के आलम्बन होते हैं या आलम्बनगत (जैसे, नायिका की चेष्टा आदि)
उद्दीपन। आलम्बनबाह्य उद्दीपन केवल हर्ष और विषाद के विषय होते हैं-जैसे,
रति भाव का हर्ष संचारी नायक के दर्शन स्पर्श से भी होता है, नायक का संवाद
लाती हुई सखी आदि को देखकर भी तथा वन, उपवन, चंद्रिका आदि आलम्बनबाह्य
विषयों को देखकर भी। पर इन आलम्बनबाह्य विषयों की ओर ध्यान प्रधान रूप
में नहीं रहता।
साहित्य के ग्रंथों में संचारियों के बाह्य चिन्ह भी बताए गए हैं जो
वास्तव में उनके अनुभव ही हैं। जैसे, गर्व में तनकर खड़ा होना, अवज्ञा करना,
अँगूठा आदि दिखाना; अवहित्था में अनभीष्ट कार्य की ओर प्रवृत्ति दिखाना,
दूसरी ओर देखना; चिंता में दीर्घनिश्वास लेना, सिर झुकाना, हाथ पर गाल
रखना, माथा सुकोड़ना इत्यादि। इन बाह्य चिन्हों का उपयोग पात्र या आश्रय के
चित्रण में बहुत आवश्यक होता है जिसका विचार 'विभाव' के अंतर्गत किया
जायगा। आश्रय द्वारा शब्दव्यंजना न होने पर भी कभी-कभी इनके द्वारा संचारी
की व्यंजना हो जाती है। जैसे, किसी बात को सुनकर यदि कोई सिर झुकाकर और हाथ
पर गाल रखकर बैठ जाय, उसके माथे पर बल आ जाय तो चट चिंता में पड़ना समझ लिया
जा सकता है।
इन बाह्य चिन्हों को भिन्न-भिन्न भावों के अनुभावों के साथ मिलाने से
इस बात का भी पता चलता है कि कौन-कौन संचारी किन-किन प्रधान भावों के अवयव
होते हैं। संचारियों की सूची में पाँच ऐसे हैं जो किसी-न-किसी प्रधान भाव
के अवयव भी हुआ करते हैं, अमर्ष, त्रास, विषाद, उग्रता और जड़ता। त्रास भय
का, विषाद
1. ऊँचैं चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेतु।
झलकित दृग मुलकित बदनु, तनु पुलकित किहिं हेतु॥
-बिहारी रत्नाकर, 374।
शोक का, जड़ता आश्चर्य का तथा अमर्ष और उग्रता क्रोध के अवयव हैं। इन
संचारियों के बाह्य चिन्ह वे ही हैं जो क्रोध, भय, शोक और आश्चर्य के
अनुभाव कहे गए हैं-जो भाव और वेग आदि नियम संचारियों में रखे गए हैं वे
कभी-कभी प्रधान होकर भी आते हैं। यह प्रधानता दो प्रकार की हो सकती है-
(1) वह प्रधानता जो किसी नियत प्रधान भाव के स्फुट न होने से प्रतीत
हो।
(2) वह प्रधानता जो नियम प्रधान भाव के स्फुट होने पर भी उसके ऊपर
प्राप्त हो।
साहित्य के ग्रंथों में जो उदाहरण मिलते हैं वे प्रथम प्रकार की
प्रधानता के हैं। कोई भाव, वेग या मानसिक अवस्था इस प्रधानता को प्राप्त हो
सकती है। यथा,
एवंवादिनि देवर्षो पार्श्वे पितुरधोमुखी।
लीलाकमलपत्राणि गणयाभास पार्वती।
-कुमारसंभव, छठाँ सर्ग, 84।
'पिता के पास बैठी हुई पार्वती के सामने जब सप्तर्षियों ने शिव के साथ
उसके विवाह की चर्चा चलाई तब वह सिर नीचा किए लीलाकमल के दल गिनने लगीं।'
इस पद्य में बाह्य चिन्हों के कथन द्वारा अवहित्था की ही प्रधान रूप से
व्यंजना हुई है, पार्वती का रति भाव स्फुट नहीं किया गया है।
पर संचारियों में रखा हुआ कोई 'भाव' ऐसी प्रधानता भी प्राप्त कर सकता
है कि कोई नियत प्रधान भाव उसका संचारी होकर आए। जैसे, क्रोध असूया का
संचारी होकर आ सकता है और जुगुप्सा गर्व का। जब मंथरा ने राम की धात्री से
उनके यौवराज्य का संवाद पाया तब 'वह अत्यंत ईष्या से उस कैलास सदृश प्रासाद
से उतरी, क्रोध से जलती हुई चली और रोती हुई कैकेयी के पास पहुँची।1'
यहाँ पर मंथरा का क्रोध प्रधान भाव नहीं है, प्रधान भाव है असूया। उसके
कारण उत्पन्न होने से क्रोध उसका संचारी ही कहा जा सकता है। राम प्रधानत:
उसकी ईष्या के आलम्बन हैं क्रोध के नहीं क्योंकि क्रोध अनिष्टकारी के प्रति
होता है, पर राम ने मंथरा का कभी कोई अनिष्ट नहीं किया था।
मंथरा की यह ईष्या विलक्षण है। इसका उद्धाटन आदिकवि की ही प्रतिभा का
काम था। ईष्या समकक्ष के प्रति होती है जिसकी बराबरी करना चाहते हैं पर
1. धात्रयास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जा क्षिप्रममर्षिता।
कैलासशिखराकारत्प्रासादादवरोहत॥
सा दह्यमाना क्रोधेन मन्थरा पापदर्शिनी।
शयानामेव कैकेयीमिदं वचनमब्रवीत्॥
-वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकांड, सप्तम सर्ग, 2-13।
नहीं कर पाते। राजा से दरिद्रा दासी की क्या ईष्या? इस ईष्या का प्रवर्तक
कैकेयी के प्रति मंथरा का अनन्य रति भाव है। जिस पर हमारा अनन्य प्रेम होता
है उसके प्रतिद्वंद्वी के गुण मान की वृद्धि देख हमें भी प्राय: ईष्या होती
है। जिसे हम एकमात्र 'महात्मा' समझते हैं उसके अतिरिक्त अन्य के महत्त्व की
बात हमें प्राय: नहीं सुहाती। हमारे राग और द्वेष के आलम्बनों के संबंध से
हमारे अनेक भावों के और और आलम्बन खड़े होते रहते हैं। जिससे हमें द्वेष
होता है उसके साथ द्वेष रखनेवालों से प्रेम और प्रेम रखनेवालों से द्वेष
प्राय: हमें भी हुआ करता है।
यहाँ तक तो नियत संचारियों की बात हुई। इनके अतिरिक्त प्रधानों में
परिगणित कोई भाव भी दूसरे प्रधान भाव का संचारी होकर आ सकता है-जैसे रति और
उत्साह में हास, युध्दोत्साह में क्रोध। पहले यह कहा जा चुका है कि प्रधान
भावों में आलम्बनों की ओर ध्यान मुख्यत: रहता है। अत: भिन्न आलम्बन
रखनेवाला भाव संचारी नहीं हो सकता, क्योंकि एक ही अवसर पर ध्यान मुख्य
रूप से दो विषयों की ओर नहीं रह सकता। बात ठीक है, पर भिन्न विषय या आलम्बन
की ओर ध्यान स्थित होने से भी यदि प्रधान भाव की गतिप्रवृत्ति में कोई
बाधा न पड़े और संचारी होकर आनेवाला भाव ऐसा हो कि उसका कोई रूप प्रधान भाव
के साथ बराबर लगा रहता हो तो वह भाव संचारी हो सकता है। आलम्बन एक होने पर
भी यदि दो भावों की गति और प्रवृत्ति परस्पर भिन्न है तो उनके बीच स्थायी
संचारी का सम्बन्ध नहीं हो सकता। युध्दोत्साह के संचारी क्रोध को लीजिए।
युध्दोत्साह और क्रोध दोनों की गति या प्रवृत्ति एक ही है। एक ही व्यापार
द्वारा युध्दोत्साह और क्रोध दोनों के लक्ष्य का साधन हो जाता है। शस्त्र
आदि चलाने से युद्धकर्म के प्रति उत्साह की भी तुष्टि होती है और
अनिष्टकारी के नाश की इच्छा की भी। गति और प्रवृत्ति की भिन्नता न होने से
क्रोध युध्दोत्साह का संचारी होकर आ सकता है। अत: यह स्थिर हुआ कि एक भाव
दूसरे भाव का संचारी होकर तभी आ सकता है जब-
(1) उसका विषय वही हो जो प्रधान भाव का आलम्बन है और उसकी कोई अपनी गति
या प्रवृत्ति न हो।
(2) आलम्बन से उसका विषय भिन्न हो उसकी कोई अपनी गति या प्रवृत्ति न
हो, और वह स्वयं ऐसा हो कि प्रधान भाव के साथ उसका कोई रूपांतर लगा रहता
हो।
(3) उसकी गति या प्रवृत्ति वही हो जो प्रधान भाव की है।
भावों का जो चक्र दिया जा चुका है उसमें दो भाव ऐसे मिलते हैं जिनमें
कोई अपनी गति या प्रवृत्ति नहीं होती-हास और आश्चर्य। अत: ये दोनों भाव
श्रृंगार के संचारी होकर आ सकते हैं। हास तो हर्ष के ही एक विशेष रूप का
विकास है और हर्ष राग की भावदशा में बराबर रहता है। अत: नायक-नायिका चाहे
एक-दूसरे को कीचड़ में ढकेलकर हँसें चाहे किसी दूसरे व्यक्ति को देखकर हँसें
उनकी हँसी रति भाव की प्रवृत्ति से हटानेवाली न होगी। इसी प्रकार नायिका का
असाधारण रूपसौंदर्य देख यदि नायक आश्चर्यचकित हो जाय तो भी रति की
प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। पर आश्चर्य का विषय यदि रति भाव के
आलम्बन से भिन्न कोई दूसरा होगा तो वह आश्चर्य श्रृंगार में संचारी न होगा
क्योंकि वह ऐसा भाव नहीं है जिसका कोई रूप राग के साथ अंगरूप से लगा रहता
हो।
स्थायी संचारी का प्रकृति रूप यही है जिसका वर्णन समाप्त हुआ और जो
भावों का अधिष्ठान पात्र को मानने से निर्दिष्ट होता है। पर नाटक या काव्य
को अधिष्ठान मानकर स्थायी संचारी का एक दूसरा अर्थ भी लिया जाता है। उसके
अनुसार किसी काव्य में आदि से अंत तक जो भाव बराबर चला जाय, अन्य भावों के
बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए आ जाने से उच्छिन्न न हो, वह स्थायी भाव है और
जिनका वर्णन बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए आ जाय वे संचारी कहे जायँगे। जैसे
महाभारत में 'शम' प्रधान है, मालतीमाधव में रति, अंधेरनगरी में हास, रामायण
में शोक, सत्यहरिश्चंद्र में शोक इत्यादि। पर स्थायी संचारी का यह अर्थ गौण
है। इसमें इस बात का विचार नहीं हो सकता कि कौन-कौन भाव या वेग किन-किन
प्रधान भावों के संचारी हो सकते हैं। चाहे जो भाव ग्रन्थ में आदि से अंत तक
पाया जाय उसे स्थायी और चाहे जो भाव या वेग बीच-बीच में आए हों उन्हें
संचारी हम ऑंख मूँदकर कह सकते हैं, किसी प्रकार के विवेक की आवश्यकता नहीं।
स्थायी संचारी का यह अत्यंत स्थूल रूप से ग्रहण है।
असम्बद्ध भावों का रसवत् ग्रहण
अबतक भावों का जो वर्णन हुआ वह स्थायी संचारी रूप में संबद्ध मानकर हुआ है।
पर, जैसा कह आए हैं; नियत प्रधान भाव और नियत संचारी दोनों अलग-अलग
असम्बद्ध रूप में भी आते हैं। इस असम्बद्ध में भाव पूर्ण रस पर्यंत पुष्ट
चाहे न माने जायँ पर उनका ग्रहण रस के समान ही होता है क्योंकि श्रोता या
दर्शक के हृदय में उनके द्वारा किसी-न-किसी प्रकार का भावसंचार अवश्य होता
है। जो 'प्रधान भाव' कहे गए हैं वे यदि संचारी आदि से रहित होकर भी आएँ तो
आलम्बन के सामान्य होने पर अपना संचार श्रोता के हृदय में उसी प्रकार करते
हैं जिस प्रकार संचारी आदि से पुष्ट होकर आने पर। किसी दुष्ट के अत्याचार
का वर्णन करके यदि कोई शब्दों द्वारा ही क्रोध प्रकट करता हुआ दिखाया जाय,
अनुभाव या संचारी न लाए जायँ तो भी श्रोता के हृदय में उस दुष्ट आलम्बन के
प्रति क्रोध का अनुभव उत्पन्न होगा, बल इतना ही पड़ेगा कि अनुभावों और
संचारियों के रहने से उसकी तीव्रता तक पहुँचने के लिए जो बना-बनाया मार्ग
मिलता वह न मिलेगा। श्रोता अपनी तीव्र या मंद प्रकृति के अनुसार क्रोध का
तीव्र या मंद अनुभव करेगा। आलम्बन को सामान्य रूप न प्राप्त होने पर भाव का
साधारणीकरण तो न होगा जिससे श्रोता का ध्यान आलम्बन पर रहे और वह उसके
प्रति उसी भाव का अनुभव करे जिस भाव को आश्रय प्रकट करता है पर आश्रय के
भावात्मक स्वरूप का श्रोता को साक्षात्कार होगा जिससे उसके (आश्रय के)
संबंध में वह अपनी कोई सम्मति या अपना कोई भाव स्थिर कर सकेगा। जैसे
शकुंतला पर क्रोध करते हुए दुर्वासा को देख या पढ़कर शकुंतला के प्रति क्रोध
का अनुभव पाठक या दर्शक को न होगा क्योंकि शकुंतला का ऐसा चित्रण नहीं हुआ
है जिससे वह क्रोध का सामान्य आलम्बन हो सके, सबको उसपर क्रोध उत्पन्न हो
सके। ऐसी दशा में श्रोता का ध्यान शकुंतला (आलम्बन) पर न रहकर क्रोध करते
हुए ऋषि (आश्रय) पर रहेगा। यदि वह विचारशील हुआ तो मुनि को क्रोधी समझेगा
और यदि उद्वेगशील हुआ तो उनकी क्रूरता देख विरक्ति, जुगुप्सा या क्रोध का
अनुभव करेगा। स्वतंत्र रूप में आए हुए संचारियों के द्वारा भी श्रोता को
भावप्राप्ति इसी ढंग की होगी। वह उनका अनुभव न करेगा, उनके सहारे और दूसरे
भावों का अनुभव करेगा।
उदय से अस्त तक भावों की तीन अवस्थाएँ मानी जा सकती हैं-उदय, स्थिति और
शांति। ऊपर भावों की जिस अवस्था का उल्लेख हुआ है वह स्थिति की अवस्था है।
पर साहित्य में भावों के उदय और भावों की शांति का प्रभाव भी श्रोता या
दर्शक पर स्वीकार किया गया है और रसतुल्य ही माना गया है। किसी 'भाव' के
संचार का आरंभ मात्र 'भावोदय' कहलाता है, जैसे-
(क) दास जू जा मुखजोति लखे ते सुधाधर जोति खरी सकूचाति है।
आगि लिए चली जाति सो मेरे हिये बिच आगि दिए चली जाति है॥
-काव्यनिर्णय, 4-46।
(ख) कामिनी के कटु बैन, सुनत पिय पलटि चल्यो जब।
छाँड़ी तीय उसास, नीर नयन झलक्यो तब॥ 1
पहले पद्य में 'राग' का उदय और दूसरे में 'विषाद' का उदय समझना चाहिए।
क्षुद्राशय पात्र में किसी प्रसंग के प्रभाव से सहसा किसी उदात्त भाव का
उदय अत्यंत तुष्टिजनक प्रतीत होता है। सदा से दुष्ट कर्म में प्रवृत्त
मनुष्य के हृदय में कुछ देख-सुनकर यदि अपने कर्म से घृणा उत्पन्न होती
दिखाई जाय तो उसका प्रभाव बुरे कामों से जिंदगी भर कानों पर हाथ रखनेवाले
किसी साधु की प्रकट की हुई घृणा के प्रभाव से अधिक मर्मस्पर्शी होगा। इसी
से उपन्यासों में दुर्वृत्त लोगों का अंत में अपने कर्म पर पश्चात्ताप और
लज्जा प्राय: दिखाई जाती है।
किसी 'भाव' का दूर होना भावशांति है, जैसे-
पायँन परि, मृदु बचन कहि, प्रिय कीनी मनुहारि।
नेकु तिरीछे चितै तब, दीने अँसुवा ढारि॥2
इसमें दृष्टिपात और अश्रुपात द्वारा मान या क्रोध की शांति व्यंजित की
गई है।
भावशांति यदि सच्ची हो और उसका कारण कोई प्रबल भाव या वेग ही हो तो
मनुष्य की प्रकृति पर उसका अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रभाव पड़ता है। बुद्धि या
विवेक द्वारा निष्पन्न भावशांति काव्य के उतने काम की नहीं। हल्दीघाटी की
लड़ाई में
1. साहित्यदर्पण में उदाहृत निम्नलिखित छंद से मिलाइए-
चरणपतनप्रत्याख्यानात्प्रसादपराङ्मुखे
निभृतकितवाचारेत्युक्त्वा रुषां परुषीकृते।
व्रजति रमणे नि:श्वस्योच्चै: स्तनस्थितहस्तया
नयनसलिलच्छन्ना दृष्टि: सखीषु निवेशिता॥ -तृतीय परिच्छेद, श्लोक
267।
2. साहित्यदर्पण में उदाहृत निम्नलिखित छंद से मिलाइए-
सुतनु जहिहि कोपं, पश्य पादानतं मां,
न खलु तव कदाचित्कोप एवंविधोऽभूत्।
इति निगदति नाथे तिर्यगामीलिताक्ष्या,
नय जलमनल्पं मुक्तमुक्तं न किंचित्॥ -वही,
जब कुछ मोगल महाराणा प्रताप का पीछा किए चले आते थे और महाराणा अपने घोड़े
पर नदी पार कर चुके थे तब उनके भाई शक्ति सहसा प्रकट हुए। उनका
भ्रातृ-स्नेह उमड़ आया और वे सारा बैर-भाव छोड़ महाराणा के पैरों पर गिरकर
रोने लगे। अनुचित भाव की शांति देख श्रोता या दर्शक को एक अपूर्व
आत्मतुष्टि प्राप्त होती है। कभी-कभी तो जबतक ऐसे भाव की शांति नहीं दिखाई
जाती तबतक श्रोता उसके लिए उत्सुक रहता है। राम के प्रति परशुराम के गर्व
को देख श्रोता मन-ही-मन उसके परिहार के अवसर की प्रतीक्षा करता रहता है जिस
समय राम परशुराम का दिया हुआ धनुष चढ़ा देते हैं और परशुराम नत होकर विनय
करने लगते हैं उस समय पाठक या दर्शक के हृदय पर से एक बोझ-सा हटा जान पड़ता
है। आख्यानरूप प्रबन्धकाव्यों में ऐसे स्थल बहुत आते हैं। अनिष्ट पात्रों
के गर्व, आह्लाद आदि की और इष्ट पात्रों के विषाद, शंका, भय आदि की
निवृत्ति के अवसर के लिए पाठक बराबर उत्सुक रहते हैं। मनुष्य के शीलनिर्माण
में 'भावशांति' का दृश्य 'भावस्थिति' के दृश्य से कम प्रभावोत्पादक नहीं
होता।
कभी-कभी दो या दो से अधिक परस्पर असम्बद्ध भाव एक ही प्रसंग में प्रकट
किए जाते हैं। साहित्य के पंडित लोग ऐसे दो भावों के साथ को 'भावसंधि' और
दो से अधिक भावों के संघात को 'भावशबलता' कहते हैं। चित्त की चंचलता से
भिन्न-भिन्न पक्षों के अंत:करण में उपस्थित होने के कारण एक ही विषयप्रसंग
में दो या कई भावों का क्रमश: संचार होना एक बहुत ही स्वाभाविक बात है। लोग
ऐसा कहते बराबर सुनाई पड़ते हैं कि 'तुम्हारी बात पर हँसी भी आती है क्रोध
भी आता है, दु:ख भी होता है।' ये भाव परस्पर जितने ही विरूद्ध होते हैं
उतना ही चमत्कार जान पड़ता है। एक विषय पर ध्यान के देर तक न जमने के कारण
ऐसे भाव इतने अस्थिर होते हैं कि एक का अनुभव होते न होते दूसरे का उदय हो
जाता है। दोनों के बीच अंतर बहुत सूक्ष्म पड़ता है। यह भावशबलता दो बातों पर
अवलम्बित होती है-
(1) प्रसंगगत विषयों के संयोग वैलक्षण्य पर,
(2) आश्रय के अंत:करण की स्थिति पर।
एक ही प्रसंग के भिन्न-भिन्न पक्ष लेने से विषयों का ऐसा संयोग हो सकता
है कि उन सबकी ओर वृत्ति के उन्मुख होने से लगातार कई भावों का संचार
प्राय: सब मनुष्यों के हृदय में हो सकता है। पर कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
कुछ एक विषय तो सचमुच उपस्थित होते हैं और कुछ के लिए विषयों के रूप,
अंत:करण की तात्कालिक या प्रकृतिगत स्थिति के कारण कल्पना आप-से-आप उसी एक
प्रसंग में से निकालकर खड़ा करती है। विक्षिप्तों की कल्पना तो ऐसे विषयों
को लगातार उपस्थित करने में क्षिप्र होती ही है। पर कभी-कभी वृत्ति की
चंचलता के कारण और मनुष्यों की भी दशा ऐसी हो जाती है। बुद्धि की लगाम
जितनी ही ढीली होगी भावों की यह घुड़दौड़ उतनी ही अधिक होगी। बुद्धि अपनी
प्रधानता की दशा में ऐसे विषयों को जिनका तात्कालिक प्रसंग में कोई प्रयोजन
नहीं, इतना टिकने ही न देगी कि वे कोई भाव उभार सकें। एक खास बनावट के
दिमागवाला आदमी सिर पर दूसरे का बोझ ले जाते समय यह सोचकर गर्व कर सकता है
कि मैं मजदूरी के पैसों से रोजगार करके धनी हो जाऊँगा फिर जो मेरे साथ
हल्का व्यवहार करेंगे उनको मैं देख लूँगा, इत्यादि। पर अर्थकुशल लोगों की
दृष्टि इस प्रकार लक्ष्ययुक्त नहीं हुआ करती। अत: धीर और संयत वृत्ति के
पात्र में भावशबलता यदि दिखाई जा सकती है तो वहीं जहाँ एक ही प्रसंग के
सचमुच ऐसे अनेक पक्ष हों जो भिन्न-भिन्न भावों के विषय हो सकें। उद्वेगशील
जातियों में भावशबलता की संभावना अधिक होती है। हमारे बंगाली भाइयों के
गर्जन-तर्जन और क्रंदन के बीच बहुत अल्प अवकाश अपेक्षित होता है।
किसी एक भाव के कारण भी कभी बुद्धि सिमटकर किनारे हो जाती है और कल्पना
किसी एक ही प्रसंग में अनेक रूपों की उद्भावना करने लगती है। विक्रमोर्वशी
में उर्वशी के स्वर्ग चले जाने पर पुरुरवा विरह वेदना से चंचल होकर कहता
है-
'कहाँ यह निषिद्ध कार्य, कहाँ मेरा चन्द्रवंश! क्या वह फिर कभी दिखाई
पड़ेगी? अहो यह क्या मैंने तो कामादि दोषों का शमन करनेवाले शास्त्र पढ़े
हैं। अहा! क्रोध में भी प्रियदर्शन उसका मुखड़ा! भला निष्कल्मष कृतविद्य लोग
मेरे इस आचरण पर क्या कहेंगे? हाय! वह तो अब स्वप्न में भी दुर्लभ है। हे
चित्त! धीरज धर। न जाने कौन धन्य युवा उसका अधरपान करेगा।''1
इस कथन में पहले वाक्य से वितर्क, दूसरे से उत्कंठा, तीसरे से मति,
चौथे से स्मरण, पाँचवें से शंका, छठे से दैन्य, सातवें से धैर्य और आठवें
से चिंता या ईष्या व्यंजित होती है। अब यहाँ पर यह जानने की इच्छा होती है
कि एक भाव के कारण चित्त की ऐसी चंचल दशा से उस भाव की तीव्रता समझी जा
सकती है या नहीं। यदि भाव का वेग तीव्र होगा तो ध्यान दूसरे विषयों की ओर
जायगा कैसे? इसका उत्तर यह है कि भाव के अधिक तीव्र होने से कभी-कभी
चित्तविक्षेप हो जाता है और उन्माद की-सी दशा हो जाती है जिससे चित्त एक
पक्ष पर स्थिर न रहकर इधर-उधर दौड़ने लगता है। दूसरा प्रश्न यह उठता है कि
जब एक ही भाव के कारण सब भाव उत्पन्न हुए हैं तब सबके सब करुण विप्रलंभ रति
के संचारी क्यों न माने
1. क्वा कार्य, शशलक्ष्मण: क्व च कुलं, भूयोपि दृश्येत सा,
दोषाणां प्रशमाय न: श्रुतमहो, कोपेऽपि कान्तं मुखम्।
किं वक्ष्यन्त्यपकल्मषा: कृत धिय: स्वप्नेऽपि सा दुर्लभा,
चेत: स्वास्थ्यमुपैहि, क: खलु युवा धन्योऽधरं पास्यति॥
-साहित्यदर्पण, 3-267।
जायँ। इसलिए कि करुण विप्रलंभ यहाँ शब्द और अनुभाव द्वारा प्रधानता से
व्यंजित नहीं है। इन भावों का विचार अलग ही हुआ है। रस पर्यंत पुष्ट
विप्रलंभ रति के साथ यहाँ यदि ये संबद्ध माने जायँ तब तो सबका ग्रहण
विप्रलंभ श्रृंगार रस के रूप में ही होगा पर आचार्यों ने इनके संघात को
रसवत् माना है। सारांश यह कि असम्बद्ध रूप में अलग विचार करने से ये सब भाव
मिलकर भावशबलता के उदाहरण होंगे और आक्षेप द्वारा रति भाव से संबद्ध मानने
से करुण विप्रलंभ के संचारी होंगे।
ऐसा सिद्धांत न रखने से जहाँ कहीं किसी रस में दो संचारी हुए वहाँ भाव
संधि और जहाँ दो से अधिक हुए वहाँ भावशबलता कहनी पड़ेगी। पर रस के प्रबल
प्रभाव के सामने भावसंधि या भावशबलता के चमत्कार का विचार अनावश्यक होगा।
अत: इन दोनों का प्रतिपादन रस के अंगरूप में नहीं होना चाहिए। भावसंधि आदि
का विशुद्ध उदाहरण वही होगा जिसमें दो या कई भाव किसी एक ही स्फुट प्रधान
भाव के संचारी के रूप में न होंगे, स्वतंत्र होंगे। इस दृष्टि से
साहित्यदर्पणकार के इस उदाहरण से-
नयनयुगा सेचनकं मानसवृत्त्यापि दुष्प्रापम् ।
रूपमिदं मदिराक्ष्या मदयति हृदयं दुनोति च मे॥
-साहित्यदर्पण, 3-267।
'दास' का यह उदाहरण अधिक उपयुक्त है-
कंस दलन पर दौर उत, इत राधा हित जोर।
चलि रहि सकै न स्याम चित, ऐंच लगी दुहुँ ओर॥
पहले उदाहरण में हर्ष और विषाद रति के संचारी होकर आए हैं, पर दास के
उदाहरण में उत्साह और रति दो परस्पर स्वतंत्र भावों की संधि है।
साहित्यदर्पणकार के उदाहरण में हर्ष और विषाद के परस्पर अत्यंत विरूद्ध
होने से चमत्कार अधिक है। पर हर्ष और विषाद दो अलग-अलग भावों के शासन में
भी रखे जा सकते हैं। जैसे-
पीहर को न्योतो सुनत, पिय अनुरागिनि नारि।
बिहँसी, दीर्घ उसाँस पुनि लीनी कछुक विचारि।
यहाँ नायिका के हर्ष का कारण माता-पिता का स्नेह और विषाद का कारण नायक
के प्रति अनुराग है। भिन्न-भिन्न आलम्बनों के प्रति होने से हर्ष और विषाद
दोनों का कारण एक ही 'रति भाव' नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भावसंधि का
एक गूढ़ उदाहरण दिया है। जब हनुमानजी ने अशोक के पेड़ से राम की मुद्रिका
सीताजी के सामने गिराई तब-
चकित चितै मुँदरी पहिचानी। हर्ष विषाद हृदय उर आनी॥
-रामचरितमानस, पंचम सोपान।
यहाँ हर्ष तो राम के प्रति रति का संचारी है पर उनका विषाद रति के
संचारी के भीतर नहीं है। इस विषाद का मूल वियोग नहीं है, घोर अनिष्ट की
आशंका है। अत: यह उदाहरण भावसंधि का है। हर्ष और विषाद की परस्पर विजातीयता
से इसमें चमत्कार भी पूरा है। इस संबंध में एक शंका यह उठाई जा सकती है कि
हर्ष और विषाद की यह संधि भाव क्षेत्र में रखी जानी चाहिए या प्रेयस आदि
अलंकारों में। ये भाव रसक्षेत्र के भीतर ही माने जायँगे क्योंकि ये किसी
दूसरी वस्तु या भाव के अंग होकर नहीं आए हैं। केवल वाच्य द्वारा कथन होने
से रसक्षेत्र से निकाले नहीं जा सकते।
विरोध विचार
रस विरोध तीन दृष्टियों से हो सकता है-
(1) आश्रय की दृष्टि से,
(2) आलम्बन की दृष्टि से और
(3) श्रोता की दृष्टि से।
साहित्य ग्रंथों में जो नैरंतर्यकृत विरोध कहा गया है उसे श्रोता की
दृष्टि से समझना चाहिए। उसका अभिप्राय यही है एक भाव को रसरूप में ग्रहण
करने के उपरांत ही तुरंत श्रोता के सामने ऐसे भाव की व्यंजना न की जाय
जिससे उसे अपनी मानसिक स्थिति में सहसा बहुत अधिक परिवर्तन करना पड़े। ऐसे
दो विरूद्ध भावों की पूर्वापर स्थिति होने से दो में से एक का भी प्रभाव
पूर्ण रूप से हृदय पर नहीं हो सकता। मुक्तक में तो इस नैरंतर्यकृत विरोध की
संभावना बहुत ही कम होगी क्योंकि एक पद्य में प्राय: एक ही पूर्ण रस की
व्यंजना की जाती है। उसमें आश्रय और आलम्बन के एक से अधिक जोड़े की गुंजाइश
नहीं होती। प्रबन्धकाव्यों में इस प्रकार के विरोध की आशंका हो सकती है। पर
जो प्रबन्धपटु कवि होगा वह एक भाव की पूर्ण (रस में) व्यंजना हो जाने पर
प्रसंग की स्वाभाविक गति के अनुरोध से दूसरे विरूद्ध भाव के आने के पहले
कुछ अंतर आप से आप डालेगा। इस दृष्टि से नैरंतर्यकृत विरोध का विचार एक
प्रकार से अनावश्यक ही समझिए। अत: आगे जो कुछ कहा जायगा उसे साहचर्यकृत
विरोध के संबंध में ही समझना चाहिए।
पर एक ही रस की व्यंजना के विरूद्ध भाव की व्यंजना न होने पर भी
श्रोता की दृष्टि से विरूद्ध सामग्री घुस सकती है। यह वहाँ होगा जहाँ किसी
भाव के उत्कर्ष आदि की व्यंजना करते समय कवि जाने या अनजाने में ऐसी
वस्तुओं का उल्लेख कर जायगा जो विरूद्ध भाव का आलम्बन या उद्दीपन हो सकती
हैं। जिस पात्र के मुख से ऐसी वस्तुओं के नाम कहलाए जायँगे वह तो अपने भाव
के वेग में उन नामों के संकेत पर, संभव है, ध्यान न दे पर उन शब्दों
द्वारा वस्तु और व्यापार का जो चित्र (Imagery) श्रोता के अंत:करण के
सामने खड़ा होगा उसका विचार रखना परम आवश्यक है क्योंकि रससंचार प्रधानत: उस
चित्र पर अवलंबित होगा। हमारे यहाँ के प्राचीन कवियों ने इस बात का विचार
रखा है कि एक रस के वर्णन के भीतर उसी रस की उत्कर्ष व्यंजना के लिए भी ऐसी
सामग्री सामने न आने पावे जो विरूद्ध भाव का आलम्बन हो सके। श्रृंगार के
वर्णन में ऐसी वस्तुओं का उल्लेख न मिलेगा जिनके सामने आने से भय या
विरक्ति उत्पन्न हो। विप्रलंभ श्रृंगारमें भी विरहिणी के ताप का कमल, आदि
के द्वारा शमन न होना आदि ही वर्णन किया गया है-कलेजे में ऑंवले पड़ना, जख्म
का मुँह खुलना, मवाद बहना आदि नहीं।
फारसी उर्दू की शायरी में उपस्थित चित्र (Imagery) का कुछ भी ध्यान
नहीं रखा गया है, भाव के उत्कर्ष और मुहावरे के जोर पर ही ज्यादा जोर दिया
गया है, जैसे-
(क) बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का,
जो चीरा तो एक कतरए खूँ निकला। -आतिश
(ख) जख्म के भरने तलक नाखुन न बढ़ आयँगे क्या? -गालिब
(ग) ऐ हुमा! क्या मुँह है तेरा पोस्तकंद मुझसे सुन
उस्तख्वाँ मेरे हैं सब वक्फे सगाने कुए दोस्त।
यह तो एक ही रस के भीतर विरूद्ध भाव की सामग्री मात्र आ जाने की बात
हुई। पर कहीं-कहीं एक ही पद्य के भीतर दो रसों या भावों का भी आश्रय आलम्बन
भिन्न-भिन्न रखकर समावेश हो सकता है। ऐसे स्थलों में श्रोता ही की दृष्टि
से विरोध का विचार करना होगा। भावों का जो दो वर्गों में विभाग किया गया है
देखिए वह कहाँ तक इस विचार में काम देता है। उक्त वर्गविधान के अनुसार
प्रथम चतुष्टय के आनंदात्मक भाव परस्पर सजातीय और द्वितीय चतुष्टय के
दु:खात्मक भाव परस्पर सजातीय होंगे। पर द्वितीय चतुष्टय का कोई भाव प्रथम
चतुष्टय के प्रत्येक भाव का विजातीय होगा। इस दृष्टि से करुण, रौद्र, भयानक
और बीभत्स चारों में से प्रत्येक श्रृंगार, हास, वीर और अद्भुत में से
प्रत्येक का विरोधी ठहरता है। पर युद्ध वीर के साथ रौद्र, भयानक और बीभत्स
प्राय: लगे रहते हैं। इसका कारण आलम्बन की अनेकरूपता है। पहले कह आए हैं कि
युध्दोत्साह का आलम्बन युद्ध कर्म ही होता है जिसके भीतर रौद्र, भयानक और
बीभत्स व्यापारों का समावेश होता है। यह युद्धकर्म श्रोता के भाव का भी
आलम्बन होता है यह फिर से कहने की आवश्यकता नहीं, अत: श्रोता अपने आलम्बन
के स्वरूप के भीतर ही इन सब भावों का रसरूप में अनुभव करता है जिससे
वीरोत्साह का रसरूप अनुभव और भी तीव्र होता है। युध्दोत्साह असाधारण उत्साह
है। जो कर्म साधारणत: लोगों के भय, संकोच, दु:ख आदि के विषय हुआ करते हैं
वे असाधारण लोगों के प्रवृत्तयात्मक आनंद के विषय होते हैं। घोर साहस,
कष्टसहिष्णुता आदि युक्त असाधारण उत्साह-ऐसे कर्मों के प्रति उत्साह जिनमें
प्राण जाने पर भारी हानि पहुँचने की संभावना होती है-ही वीर रस के मूल में
रखा गया है, साधारण उत्साह नहीं (जैसे मित्र की अभ्यर्थना की तैयारी आदि की
तत्परता, जिसमें थोड़ा शरीर का आराम या आलस्य ही छोड़ा जाता है)। उत्साह के
असाधारणत्व की प्रतीति उत्पन्न करने के लिए-कर्म की भीषणता या कठिनता
स्पष्ट करने के लिए-भयानक, रौद्र और बीभत्स वीर रस के साथ लगा दिये जाते
हैं। सामान्य उत्साह के साथ इन विजातीय भावों का विरोध ही रहेगा।
अब अद्भुत रस को लीजिए। सजातीय विजातीय के विचार से रौद्र, भयानक,
बीभत्स और करुण के साथ इसका विरोध होना चाहिए। क्योंकि आश्चर्य आनंदात्मक
भावों के अंतर्गत रखा गया है। पर अद्भुत रस के विरोधी भाव साहित्यग्रंथों
में गिनाए ही नहीं गए हैं। जान पड़ता है कि साहित्य मीमांसक लोग यह देखकर
हिचके हैं कि प्रत्येक भाव का आलम्बन अद्भुत हो सकता है और चमत्कारवादियों
के अनुसार तो होना ही चाहिए। पर यहाँ आलम्बन के किसी स्वरूप की सत्ता मात्र
से प्रयोजन नहीं है। उसके प्रति आश्रय या श्रोता के हृदय में किन भावों का
उदय हो सकता है यह निश्चय करना चाहिए। शोक, क्रोध, भय या घृणा के अनुभव की
दशा में क्या चित्त को इतना अवकाश मिल सकता है कि वह किसी वस्तु या व्यापार
की लौकिकता अलौकिकता की ओर जाय? मैं समझता हूँ, नहीं। इसी से अद्भुत रस के
जो उदाहरण पाए जाते हैं वे करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक के साथ नहीं
मिलते। अद्भुत भीषणता, अद्भुत क्रोध आदि में अद्भुत की सत्ता का हमें अलग
अनुभव नहीं हो सकता। कामदेव को भस्म करने के लिए शिव के तृतीय नेत्र से
निकली हुई ज्वाला का वर्णन सुनते ही श्रोता को रौद्र रस का ही अनुभव होगा,
व्यापार की अलौकिकता की ओर उसका ध्यान तत्काल न जाएगा।
आश्रयगत विरोध
कुछ रसों में विरोध उनके भावों के एक ही आश्रय में दिखाए जाने से होता है।
परस्परविरूद्ध भावों को एक ही आश्रय में एक साथ दिखाना दोनों को किसी काम
का न रखना है। जैसे क्रोध और उत्साह के साथ भय का भी एक ही आश्रय में होना
अयुक्त है। युद्ध के प्रति उत्साह प्रकट करनेवाला वीर यदि साथ ही भय भी
प्रकट करे तो उसकी वीरता कहाँ रह जाएगी ? इसी प्रकार क्रोध दिखाने के
साथ-ही-साथ कोई भय भी दिखाता जाय तो उसका क्रोध दर्शक या श्रोता में रौद्र
रस का संचार नहीं कर सकता।
आलम्बनगत विरोध
बहुत से भाव ऐसे होते हैं जो एक ही आलम्बन के प्रति एक साथ नहीं हो सकते
जैसे जिस व्यक्ति के प्रति कोई रति भाव प्रकट कर रहा है उसी के प्रति उसी
अवसर पर वीर भाव या जुगुप्सा का भाव नहीं प्रकट कर सकता। अत: रति के साथ
युद्धवीर का भाव सजातीय होने पर भी एक ही आलम्बन के प्रति होने से विरूद्ध
हो जायगा। भिन्न-भिन्न आलम्बनों के प्रति ये दोनों भाव एक साथ रखे जा सकते
हैं, जैसे-
सीय गौर कपोल पुलकित लखत बारंबार ही।
दनुज कलकल सुनत राघव जटा बाँधि सँभारही॥1
यहाँ एक ही राम में इन दोनों भावों का समावेश दूषित नहीं। एक ही
आलम्बनगत होने से जितने भाव परस्पर विरूद्ध होते हैं उतने और किसी प्रकार
नहीं। सजातीय भाव भी कभी-कभी एक ही आलम्बन के प्रति होने से परस्पर
विरूद्ध हो जाते हैं। जो प्रेम का पात्र दिखाया जा रहा है वह उसी अवसर पर
अवज्ञापूर्ण उपहास और युध्दोत्साह का आलम्बन नहीं बनाया जा सकता। उसी
प्रकार जो क्रोध का आलम्बन है वह साथ ही भय का भी आलम्बन नहीं दिखाया जा
सकता। पर जिस हास्य का विरोध श्रृंगार के साथ कहा गया है वह अवज्ञापूर्ण
हास है। विनोदपूर्ण हास रति भाव के साथ आ सकता है। शिव के विचित्र वेश पर
हास्य की व्यंजना भक्तिभाव के साथ बराबर की गई है। रामचरितमानस में शिव की
बरात का वर्णन ही लीजिए।
पहले कहा जा चुका है कि भावों के अनेक भेद भिन्न-भिन्न आलम्बनों के
स्वरूप की भावना के कारण निर्दिष्ट हुए हैं। इसी भेदव्यवस्था के अनुसार एक
ही आलम्बन में परिस्थितिभेद से कुछ नए स्वरूप की भी योजना हो जाती है।
जैसे, रति भाव का आलम्बन नायिका यदि कुछ दु:ख या पीड़ा में है तो उसे उस
स्वरूप के अतिरिक्त कुछ स्वरूप प्राप्त हो जाता है जो रति भाव का आलम्बन
है। ऐसी दशा में कोई भाव यदि इतना स्थायी है कि आलम्बन के परिस्थितिभेद से
उत्पन्न कोई अन्य भाव विजातीय होने पर भी उसे दबा नहीं सकता और संचारी भी
नहीं कहला सकता तो दोनों भाव एक ही आलम्बन के प्रति एक साथ दिखाए जा सकते
हैं। एक उदाहरण कल्पित कीजिए-
शिलाखंड सों अढुकि सिय गिरी चोट अति खाय।
नयन नीर भरि पुलकि प्रभु लियो अंक में लाय॥
यहाँ पर रति भाव और करुण एक ही आलम्बन के प्रति विरूद्ध नहीं हैं।
जिसे आचार्यों ने श्रृंगार का विरोधी कहा है वह मरणजन्य आदि पूर्ण शोक है
जो अत्यंत दारुण होता है। अल्प कारण से उत्पन्न साधारण करुणा विजातीय होने
पर भी रति भाव की विरोधी नहीं। बहुत से कुशल उपन्यासकारों ने किसी आलम्बन
के प्रति करुणामिश्रित प्रेमभाव की उत्पत्ति बड़ी सहृदयता से दिखाई है।
ऐसे स्थलों में करुणा में विरोध की मात्रा कुछ भी नहीं होती। विरोध की
मात्रा का निर्णय दो भावों की प्रवृत्तियों के मिलान से हो सकता है। जैसे,
रति भाव
आलम्बन को प्यार से प्रसन्न करने के लिए, प्रवृत्त करता है, क्रोध आलम्बन
को पीड़ित
1. मिलाइए, 'लोभ और प्रीति', निबंध।
करने के लिए, जुगुप्सा और भय उससे दूर हटने के लिए, करुणा उसके हितसाधन या
प्रबोध के लिए। अत: रति भाव के साथ क्रोध, भय और जुगुप्सा का विरोध अत्यंत
अधिक है। रति भाव के साथ साधारण करुणा की प्रवृत्ति का विरोध नहीं है।
श्रृंगार के साथ करुणा का जो विरोध कहा गया है वह आश्रय की दृष्टि से-इस
विचार से कि रति भाव की भावदशा एक प्रकार की आनंद दशा है। उस दशा के भीतर
पूर्ण शोक की दशा आकर बाधाक हो सकती है। तात्पर्य यह कि पूर्ण रस की दशा
में ही श्रृंगार और करुण परस्पर विरोधी होंगे, 'उदबुद्धमात्र' भाव के रूप
में नहीं।
अविरोध के कुछ स्थल साहित्य ग्रंथों में गिनाए गए हैं। जहाँ विरोधी भाव
केवल स्मरण किया जाता है, या सादृश्य मात्र दिखाने के लिए लाया जाता है
वहाँ विरोध नहीं माना जाता, जैसे-
पुलकित तनु जाके सहित कीन्हे बिबिधा बिहार।
सो सुरपुर हा! कहति यों मोचति लोचन धार॥
इसी प्रकार यदि रौद्र रस का वर्णन आलंकारिक चमत्कार लाने के लिए ऐसे
शब्दों में किया जाय जो श्रृंगारपक्ष में भी लग सकते हों तो रीति के अनुसार
विरोध नहीं कहा जायगा। शब्दकौतुक की ओर रुचि बढ़ जाने के कारण ऐसे स्थलों पर
विरोध चाहे न कहा जाय पर रस का अच्छा संचार ऐसे वर्णनों से हो नहीं सकता।
किसी रस का संचार उसी के स्पष्ट शब्दों में वर्णन करने से पूर्णतया हो सकता
है। रस यदि श्रोता के हृदय पर पड़ा हुआ प्रभाव है-यदि वह भिन्न-भिन्न भावों
का भिन्न-भिन्न आस्वाद रूप है-तो भिन्न भाव के शब्दों में किसी भाव के कहे
जाने से उसका ठीक-ठीक परिपाक नहीं हो सकता। कोई सहृदय ऐसा वर्णन पसंद नहीं
करेगा।
यदि विरूद्ध भाव किसी दूसरे भाव या रस के अंग होकर आवें तो वे एक साथ
रह सकते हैं। जैसे-
मूर्च्छित लखनहिं लखत नीर नयनन भरि लावत।
सम्मुख निसिचर निरखत ही कोदंड उठावत॥
राघव की वा अवसर की छवि छटा निहारत।
मोहित ह्वै सुर गगन बीच तन मन निज वारत॥
यहाँ 'शोक' और 'उत्साह' दोनों विरोधी भाव रामविषयक रति भाव के अंग होकर
आए हैं, इसमें दोष नहीं। अंत में यह फिर कह देना आवश्यक है कि विरोध का
उपर्युक्त विचार केवल वहाँ के लिए है जहाँ कवि का उद्देश्य पूर्ण रस की
व्यंजना हो। प्रबंध के भीतर बराबर ऐसे अवसर आते हैं जिनमें पात्र दो विरोधी
भावों की खींचतान में पड़ा दिखाई देता है। ऐसी भावसंधि के अवसर पर विरोध का
विचार नहीं किया जाता। वहाँ तो विरोध में ही चमत्कार दिखाई पड़ता है।
|