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  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -2
रस
मीमांसा
रस

रसात्मक बोध


ज्ञानेंद्रियों से समन्वित मनुष्य जाति जगत् नामक अपार और अगाध रूपसमुद्र में छोड़ दी गई है। न जाने कब से वह इसमें बहती चली आ रही है। इसी की रूपतरंगों से ही उसकी कल्पना का निर्माण और इसी की रूपगति से उसके भीतर विविध भावों या मनोविकारों का विधान हुआ है। सौंदर्य, माधुर्य, विचित्रता, भीषणता, क्रूरता इत्यादि की भावनाएँ बाहरी रूपों और व्यापारों से ही निष्पन्न हुई हैं। हमारे प्रेम, भय, आश्चर्य, क्रोध, करुणा इत्यादि भावों की प्रतिष्ठा करनेवाले मूल आलम्बन बाहर ही के हैं-इसी चारों ओर फैले हुए रूपात्मक जगत् के ही हैं। जब हमारी ऑंखें देखने में प्रवृत्त रहती हैं तब रूप हमारे बाहर प्रतीत होते हैं; जब हमारी वृत्ति अंतर्मुख होती है तब हमारे भीतर दिखाई पड़ते हैं। बाहर भीतर दोनों ओर रहते हैं रूप ही। सुंदर, मधुर, भीषण या क्रूर लगनेवाले रूपों या व्यापारों से भिन्न सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता या क्रूरता कोई पदार्थ नहीं। सौंदर्य की भावना जगना, सुंदर-सुंदर वस्तुओं या व्यापारों का मन में आना ही है। इसी प्रकार मनोवृत्तियों या भावों की सुंदरता, भीषणता आदि की भावना भी रूप होकर मन में उठती है। किसी की दयाशीलता या क्रूरता की भावना करते समय दया या क्रूरता के किसी विशेष व्यापार या दृश्य का मानसिक चित्र  ही मन में रहता है, जिसके अनुसार भावना तीव्र या मंद होती है। तात्पर्य यह कि मानसिक रूपविधान का नाम ही संभावना या कल्पना है।
    मन के भीतर यह रूपविधान दो तरह का होता है। या तो यह कभी प्रत्यक्ष देखी हुई वस्तुओं का ज्यों-का-त्यों प्रतिबिम्ब होता है अथवा प्रत्यक्ष देखे हुए पदार्थों के रूप, रंग, गति आदि के आधार पर खड़ा किया हुआ नया वस्तु व्यापार विधान। प्रथम प्रकार की आभ्यंतर रूपप्रतीति स्मृति कहलाती है और द्वितीय प्रकार की रूपयोजना या मूर्तिविधान  को कल्पना कहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों प्रकार के भीतरी रूपविधानों के मूल हैं प्रत्यक्ष अनुभव किए हुए बाहरी रूपविधान । अत: रूपविधान तीन प्रकार के हुए-
    1. प्रत्यक्ष रूपविधान
    2. स्मृत रूपविधान और
    3. संभावित या कल्पित रूपविधान ।
    इन तीनों प्रकार के रूपविधानों में भावों को इस रूप में जागरित करने की शक्ति होती है कि वे रसकोटि में आ सकें; यही हमारा पक्ष है। संभावित या कल्पित रूपविधान द्वारा जागरित मार्मिक अनुभूति तो सर्वत्र काव्यानुभूति या रसानुभूति मानी जाती है। प्रत्यक्ष या स्मरण द्वारा जागरित वास्तविक अनुभूति भी विशेष दशाओं में रसानुभूति की कोटि में आ सकती है, यहाँ पर हमें यही दिखाना है।
 
 

प्रत्यक्ष रूपविधान


भावुकता की प्रतिष्ठा करनेवाले मूल आधार या उपादान प्रत्यक्ष रूप ही हैं। इन प्रत्यक्ष रूपों की मार्मिक अनुभूति जिनमें जितनी ही अधिक होती है वे उतने ही रसानुभूति के उपयुक्त होते हैं। जो किसी मुख के लावण्य, वनस्थली की सुषमा, नदी या शैलतटी की रमणीयता, कुसुमविकास की प्रफुल्लता, ग्रामदृश्यों की सरल माधुरी  देख मुग्‍ध नहीं होता; जो किसी प्राणी के कष्ट-व्यंजक रूप और चेष्टा पर करुणार्द्र नहीं होता; जो किसी पर निष्ठुर अत्याचार होते देख क्रोध से नहीं तिलमिलाता, उसमें काव्य का सच्चा प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता कभी नहीं हो सकती। जिसके लिए ये सब कुछ नहीं हैं, उसके लिए सच्ची कविता की अच्छी-से-अच्छी उक्ति भी कुछ नहीं है। वह यदि किसी कविता पर वाह-वाह करे तो समझना चाहिए कि या तो भावुकता या सहृदयता की नकल कर रहा है अथवा उस रचना के किसी ऐसे अवयव की ओर दत्तचित्त है जो स्वत: काव्य नहीं है। भावुकता की नकल करनेवाले श्रोता या पाठक ही नहीं कवि भी हुआ करते हैं। वे सच्चे भावुक कवियों की वाणी का अनुकरण बड़ी सफाई से करते हैं और अच्छे कवि कहलाते हैं। पर सूक्ष्म और मार्मिक दृष्टि उनकी रचना में हृदय की निश्चेष्टता का पता लगा लेती है। किसी काल में जो सैकड़ों कवि प्रसिद्ध होते हैं उनमें सच्चे कवि-ऐसे कवि जिनकी तीव्र अनुभूति ही वास्तव में कल्पना को अनुकूल रूपविधान में तत्पर करती है-दस-पाँच ही होते हैं।
    'प्रत्यक्ष' से हमारा अभिप्राय केवल चाक्षुष ज्ञान से नहीं है। रूप शब्द के भीतर शब्द, गंध, रस और स्पर्श भी समझ लेना चाहिए। वस्तुव्यापार वर्णन के अंतर्गत ये विषय भी रहा करते हैं। फूलों और पक्षियों के मनोहर आकार और रंग का ही वर्णन कवि नहीं करते; उनकी सुगंध, कोमलता और मधुर स्वर का भी वे बराबर वर्णन करते हैं। जिन लेखकों या कवियों की घ्राण शक्ति तीव्र होती है वे ऐसे स्थलों की गंधात्मक विशेषता का वर्णन कर जाते हैं जहाँ की गंधविशेष का थोड़ा बहुत अनुभव तो बहुत से लोग करते हैं पर उसकी ओर स्पष्ट ध्‍यान  नहीं देते। खलिहानों और रेलवे स्टेशनों पर जाने से भिन्न-भिन्न प्रकार की गंध का अनुभव होता है। पुराने कवियों ने तुरंत की जोती हुई भूमि से उठी हुई सोंधी महक का,1 हिरनों के द्वारा चरी हुई दूब की ताजी गमक का उल्लेख किया है। फ्रासीसी उपन्यासकार जोला की गंधानुभूति बड़ी सूक्ष्म थी। उसने योरप के कई नगरों और स्थानों की गंध की पहचान बताई है। इसी प्रकार बहुत से शब्दों का अनुभव भी बहुत सूक्ष्म होता है। रात्रि में, विशेषत: वर्षा की रात्रि में, झींगुरों और झिल्लियों के झंकारमिश्रित सीत्कार का बँधा तार सुनकर लड़कपन में मैं यही समझता था कि रात बोल रही है। कवियों ने कलियों के चटकने तक के शब्द का उल्लेख किया है।2
    ऊपर गिनाए हुए तीन प्रकार के रूपविधानों में से अंतिम (कल्पित) ही काव्यसमीक्षकों और साहित्यमीमांसकों के विचार क्षेत्र के भीतर लिए गए हैं और लिए जाते हैं। बात यह है कि काव्य शब्दव्यापार है। शब्द संकेतों के द्वारा ही अंतस् में वस्तुओं और व्यापारों का मूर्तिविधान  करने का प्रयत्न करता है। अत: जहाँ तक काव्य की प्रक्रिया का संबंध है वहाँ तक रूप और व्यापार कल्पित ही होते हैं। कवि जिन वस्तुओं और व्यापारों का वर्णन करने बैठता है वे उस समय उसके सामने नहीं होते, कल्पना में ही होते हैं। पाठक या श्रोता भी अपनी कल्पना द्वारा ही उनका मानस साक्षात्कार करके उनके आलम्बन से अनेक प्रकार के रसानुभव करता है। ऐसी दशा में यह स्वाभाविक था कि कविकर्म का निरूपण करनेवालों का ध्‍यान  रूपविधान के कल्पना पक्ष पर ही रहे; रूपों और व्यापारों के प्रत्यक्ष बोध और उससे संबद्ध वास्तविक भावानुभूति की बात अलग ही रखी जाय।
    उदाहरण के रूप में ऊपर लिखी बात यों कही जा सकती है। एक स्थान पर हमने किसी अत्यंत रूपवती स्‍त्री का स्मित आनन और चंचल भू्रविलास देखा और मुग्‍ध हुए अथवा किसी पर्वत के अंचल की सरस सुषमा देख उसमें लीन हुए। इसके उपरांत किसी प्रतिमालय और चित्रशाला में पहुँचे और रमणी की वैसी ही मधुर मूर्ति अथवा उसी प्रकार के पर्वतांचल का चित्र  देख लुब्ध हुए। फिर एक तीसरे स्थान पर जाकर कविता की कोई पुस्तक उठाई और उसमें वैसी ही नायिका अथवा वैसे ही दृश्य का सरस वर्णन पढ़ रसमग्न हुए। पिछले दो स्थलों की अनुभूतियों को ही कलागत या काव्यगत मान प्रथम प्रकार की (प्रत्यक्ष या वास्तविक) अनुभूति का विचार एकदम किनारे रखा गया। यहाँ तक कि प्रथम से शेष दो का कुछ संबंध ही न समझा जाने लगा। कोरे शब्द-व्यवसायी केशवदासजी को कमल और चंद्र को प्रत्यक्ष      
  1. मेघदूत, पूर्वमेघ, 16।
2. (क)     मदन महीप जू को बालक वसंत ताहि
       प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै। -देव।
    (ख)     तुव जस सीतल पौन परसि चटकी गुलाब की कलियाँ।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र।
देखने में कुछ भी आनंद नहीं आता था; केवल काव्यों में उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के अंतर्गत उनका वर्णन या उल्लेख ही भाता था-
       'देखे मुख भावै अनदेखेई कमल चंद;
                ताते मुख मुखै, सखी! कमलौ न चंद री।
 [ रामचंद्रचंद्रिका ]
    इतने पर भी उनके कवि होने में कोई संदेह नहीं किया गया।
    यही बात योरप में भी बढ़ती-बढ़ती बुरी हद को पहुँची। कलागत अनुभूति को वास्तविक या प्रत्यक्ष अनुभूति से एकदम पृथक् और स्वतंत्र निरूपित करके वहाँ कवि का एक अलग 'काल्पनिक जगत्' कहा जाने लगा। कला समीक्षकों की ओर से यह धारणा उत्पन्न की जाने लगी कि जिस प्रकार कवि के 'काल्पनिक जगत्' के रूपव्यापारों की संगति प्रत्यक्ष या वास्तविक जगत् के रूपव्यापारों से मिलाने की आवश्यकता नहीं, उसी प्रकार उसके भीतर व्यंजित अनुभूतियों का सामंजस्य जीवन की वास्तविक अनुभूतियों में ढूँढ़ना अनावश्यक है। इस दृष्टि से काव्य का हृदय पर उतना ही और वैसा ही प्रभाव स्वीकार किया गया जितना और जैसा किसी परदे के बेल-बूटे, मकान की नक्काशी, सरकस के तमाशे तथा भाँड़ों की लफ्फाजी, उछलकूद या रोनेधोने का पड़ता है। इस धारणा के प्रचार से जाने में या अनजाने में कविता का लक्ष्य बहुत नीचा कर दिया गया। कहीं-कहीं तो वह अमीरों के शौक की चीज समझी जाने लगी। रसिक और गुणग्राहक बनने के लिए जिस प्रकार वे तरह तरह की नई पुरानी, भली बुरी तसवीरें इकट्ठी करते, कलावंतों का गाना-बजाना सुनते, उसी प्रकार कविता की पुस्तकें भी अपने यहाँ सजाकर रखते और कवियों की चर्चा भी दस आदमियों के बीच बैठकर करते। सारांश यह कि 'कला' शब्द के प्रभाव से कवियों का स्वरूप तो हुआ सजावट या तमाशा और उद्देश्य हुआ मनोरंजन या मनबहलाव। यह दशा देख कुछ पुराने मनोविज्ञानियों ने भी काव्य द्वारा प्रेरित विविध भावों के संचार को एक प्रकार की क्रीड़ावृत्ति (Play impulse) ठहराया। यह 'कला' शब्द आजकल हमारे यहाँ भी साहित्यचर्चा में बहुत जरूरी सा हो रहा है। इससे न जाने कब पीछा छूटेगा? हमारे यहाँ के पुराने लोगों ने काव्य को 64 कलाओं में गिनना ठीक नहीं समझा था।
    अब यहाँ पर रसात्मक अनुभूति की उस विशेषता का विचार करना चाहिए जो उसे प्रत्यक्ष विषयों की वास्तविक अनुभूति से पृथक् करती प्रतीत हुई है। इस विशेषता का निरूपण हमारे यहाँ साधारणीकरण के अंतर्गत किया गया है।
    किसी काव्य का श्रोता या पाठक जिन विषयों को मन में लाकर रति, करुणा, क्रोध, उत्साह इत्यादि भावों तथा सौंदर्य, रहस्य, गांभीर्य आदि भावनाओं का अनुभव करता है वे अकेले उसी के हृदय से संबंध रखनेवाले नहीं होते; मनुष्य मात्र की भावात्मक सत्ता पर प्रभाव डालनेवाले होते हैं। इसी से उक्त काव्य को एक साथ पढ़ने या सुननेवाले सहस्रों मनुष्य उन्हीं भावों या भावनाओं का थोड़ा या बहुत अनुभव कर सकते हैं। जबतक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यत: सबके उसी भाव का आलम्बन हो सके तबतक उसमें रसोद्बोधान की पूर्ण शक्ति नहीं आती। इसी रूप में लाया जाना हमारे यहाँ 'साधारणीकरण' कहलाता है। यह सिद्धांत यह घोषित करता है कि सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच से मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को अलग करके देख सके। इसी लोकहृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रसदशा है।
    आलम्बन के जिस साधारणीकरण का ऊपर उल्लेख हुआ है उसका अभिप्राय स्पष्ट हो जाना चाहिए। मेरे विचार में साधारणीकरण प्रभाव का होता है, सत्ता या व्यक्ति का नहीं। जैसे, किसी काव्य में यदि औरंगजेब की घोर निष्ठुरता और क्रूरता पर शिवाजी के भीषण क्रोध की व्यंजना हो तो पाठक का रसात्मक क्रोध औरंगजेब नामक व्यक्ति ही पर होगा; औरंगजेब से अलग क्रूरता की किसी आरोपित सामान्य मूर्ति पर नहीं। रौद्र रस की अनुभूति के समय कल्पना औरंगजेब की ही रहेगी, किसी भी निष्ठुर या क्रूर व्यक्ति की सामान्य और धुँधली भावना नहीं। पाठक या श्रोता के मन में रह-रहकर यही आयगा कि औरंगजेब सामने होता तो उसे खूब पीटते। मतलब यह कि भावना व्यक्तिविशेष की ही रहती है; उसमें प्रतिष्ठा सामान्य स्वरूप की-ऐसे स्वरूप की जो सबके भावों को जगा सके-कर दी जाती है। विभावादि सामान्य रूप में प्रतीत होते हैं, इसका तात्पर्य यही है कि रसमग्न पाठक के मन में यह भेदभाव नहीं रहता कि आलम्बन मेरे हैं या दूसरे के। थोड़ी देर के लिए पाठक या श्रोता का हृदय लोक का सामान्य हृदय हो जाता है। जब आश्रय के साथ अभिन्नता हो गई तब उसके आलम्बन भी अपने आलम्बन हो ही जायँगे।
    किसी काव्य में वर्णित किसी पात्र का किसी कुरूप और दु:शील स्‍त्री पर प्रेम हो सकता है पर उस स्‍त्री के वर्णन द्वारा श्रृंगार रस का आलम्बन नहीं खड़ा हो सकता। अत: ऐसा काव्य केवल भावदर्शक ही होगा, विभाव विधायक कभी नहीं हो सकता। इसी प्रकार रौद्र रस के वर्णन में जबतक आलम्बन का चित्रण इस रूप में न होगा कि वह मनुष्य मात्र के क्रोध का पात्र हो सके तबतक वह वर्णन भावप्रधान ही रहेगा, उसका विभाव पक्ष या तो शून्य अथवा अशक्त होगा। पर भाव और विभाव दोनों पक्षों के सामंजस्य के बिना पूरी और सच्ची रसानुभूति हो नहीं सकती। भावप्रधान काव्यों में होता यह है कि पाठक या श्रोता अपनी ओर से अपनी भावना के अनुसार आलम्बन का आरोप किए रहता है।
    प्राचीन काल में भट्ट और चारण युद्धस्थल में वीर रस की कविताएँ पढ़-पढ़कर वीरों को अस्त्रसंचालन के लिए उत्तेजित किया करते थे। योद्धाओं के सामने कर्मक्षेत्र और शत्रु दोनों प्रत्यक्ष रहते थे। फड़कती हुई कविता सुनकर वे उपस्थित कर्मक्षेत्र विशेष की ओर उन्मुख होते थे। इसी प्रकार आधुनिक काल में भी गत योरोपीय महायुद्ध के समय कैसर और जर्मनों के अत्याचार की न जाने कितनी कहानियाँ फैलाई गईं और उनकी क्रूरता और नृशंसता पर अनेक कविताएँ पत्रिकाओं में इधर-उधर निकली थीं जिन्हें पढ़-पढ़कर न जाने कितने अमेरिकनों का खून उबल उठा होगा और वे जर्मनी के विरूद्ध  युद्धक्षेत्र में कूदे होंगे। ऐसी अवस्था में क्या कोई कह सकता है कि उन कविताओं के पाठकों के क्रोध का आलम्बन कैसर विलियम नामक व्यक्तिविशेष और जर्मन नामक जातिविशेष नहीं थी?। क्या उनकी कल्पना में किसी अनिर्दिष्ट अत्याचारी या क्रूरकर्म का सामान्य रूप ही था? हमारा निश्चय तो यही है कि अत्याचारी या क्रूरकर्मा का लोकसामान्य स्वरूप जब कैसर में आरोपित कर दिया गया तब पाठक या श्रोता के क्रोध नामक भाव का आलम्बन वही व्यक्तिविशेष हो गया। अत: सिद्धांत यही निकला की साधारणीकरण स्वरूप का ही होता है, व्यक्ति या वस्तु का नहीं। इस सिद्धांत का पूर्ण सामंजस्य उस सिद्धांत के साथ हो जाता है जिसका निरूपण मैं अपने पिछले प्रबंधों में कर चुका हूँ।1 वह सिद्धांत यह है कि मन में आलम्बनों का मार्मिक ग्रहण बिम्बग्रहण के रूप में होता है; केवल अर्थग्रहण के रूप में नहीं।
    इस प्रकार 'साधारणीकरण' का अभिप्राय यह है कि किसी काव्य में वर्णित आलम्बन केवल भाव की व्यंजना करनेवाले पात्र (आश्रय) का ही आलम्बन नहीं रहता बल्कि पाठक या श्रोता का भी-एक ही नहीं अनेक पाठकों और श्रोताओं का भी-आलम्बन हो जाता है। अत: उस आलम्बन के प्रति व्यंजित भाव में पाठकों या श्रोताओं का भी हृदय योग देता हुआ उसी भाव का रसात्मक अनुभव करता है। तात्पर्य यह कि रसदशा में अपनी पृथक् सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है अर्थात् काव्य में प्रस्तुत विषय को हम अपने व्यक्तित्व से संबद्ध रूप में नहीं देखते, अपनी योगक्षेम वासना की उपाधि से ग्रस्त हृदय द्वारा ग्रहण नहीं करते; बल्कि निर्विशेष शुद्ध  और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते हैं; इसी को पाश्चात्य समीक्षापद्धति  में अहं का विसर्जन और नि:संगता (Impersonality and Detachment) कहते हैं। इसी को चाहे रस का लोकोत्तरत्व या ब्रह्मानंदसहोदरत्व कहिए चाहे विभावन व्यापार का अलौकिकत्व। अलौकिकत्व का अभिप्राय इस लोक से संबंध न रखनेवाली कोई स्वर्गीय विभूति नहीं। इस प्रकार के केवल भावव्यंजक (तथ्यबोधक नहीं) और स्तुतिपरकशब्दों को समीक्षा के क्षेत्र में घसीटकर पश्चिम में इधर अनेक प्रकार के अर्थशून्य वागाडंबर खड़े किए गए थे। 'कला के लिए' नामक सिद्धांत के प्रसिद्ध व्याख्याकार डॉक्टर
 
1. देखिए काव्य में प्राकृतिक दृश्य नामक निबंध
ब्रैडले बोले-'काव्य आत्मा है।'1 डॉ. मकेल साहब ने फरमाया-'काव्य एक अखंड तत्‍व या शक्ति है जिसकी गति अमर है'2 बंगभाषा के प्रसाद से हिंदी में भी इस प्रकार के अनेक मधुर प्रलाप सुनाई पड़ा करते हैं।
    अब प्रस्तुत विषय पर आते हैं। हमारा कहना यह है कि जिस प्रकार काव्य में वर्णित आलम्बनों के कल्पना में उपस्थित होने पर साधारणीकरण होता है, उसी प्रकार हमारे भावों के कुछ आलम्बनों के प्रत्यय सामने आने पर भी उन आलम्बनों के संबंध में लोक के साथ-या कम-से-कम सहृदयों के साथ-हमारा तादात्म्य रहता है। ऐसे विषयों या आलम्बनों के प्रति हमारा जो भाव रहता है वही भाव और भी बहुत से उपस्थित मनुष्यों का रहता है। वे हमारे और लोक के सामान्य आलम्बन रहते हैं। साधारणीकरण के प्रभाव से काव्यश्रवण के समय व्यक्तित्व का जैसा परिहार हो जाता है वैसा ही प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति के समय भी कुछ दशाओं में होता है। अत: इस प्रकार की प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूतियों को रसानुभूति के अंतर्गत मानने में कोई बाधा नहीं। मनुष्य जाति के सामान्य आलम्बनों के ऑंखों के सामने उपस्थित होने पर यदि हम उनके प्रति अपना भाव व्यक्त करेंगे तो दूसरों के हृदय भी उस भाव की अनुभूति में योग देंगे और यदि दूसरे लोग भाव व्यक्त करेंगे तो हमारा हृदय योग देगा। इसके लिए आवश्यक इतना ही है कि हमारी ऑंखों के सामने जो विषय उपस्थित हों वे मनुष्यमात्र या हृदयमात्र के भावात्मक सत्व पर प्रभाव डालनेवाले हों। रस में पूर्णतया मग्न करने के लिए काव्य में भी यह आवश्यक होता है। जबतक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यत: सबके उसी भाव का आलम्बन हो सके तबतक रस में पूर्णतया लीन करने की शक्ति उसमें नहीं होती।
    जैसा कि ऊपर कह आए हैं रसात्मक अनुभूति के दो लक्षण ठहराए गए हैं-
    (1) अनुभूतिकाल में अपने व्यक्तित्व के संबंध की भावना का परिहार, और
    (2) किसी भाव के आलम्बन का सहृदय मात्र के साथ साधारणीकरण अर्थात् उस आलम्बन के प्रति सारे सहृदयों के हृदय में उसी भाव का उदय।
    यदि हम इन दोनों बातों को प्रत्यक्ष उपस्थित आलम्बनों के प्रति जगनेवाले भावों को अनुभूतियों पर घटाकर देखते हैं तो पता चलता है कि कुछ भावों में तो ये बातें कुछ ही दशाओं से या कुछ अंशों तक घटित होती हैं और कुछ में बहुत दूर तक या बराबर।
    'रति भाव' को लीजिए। गहरी प्रेमानुभूति की दशा में मनुष्य रसलोक में ही पहुँचा रहता है। उसे अपने तनबदन की सुध नहीं रहती, बस सब कुछ भूल कभी
 
1.  Poetry is a Spirit-Bradley.
2.  Poetry is a continuous substance or energy whose progress is immortal-Mackal.
फूला-फूला फिरता है, कभी खिन्न पड़ा रहता है। हर्ष, विषाद, स्मृति इत्यादि अनेक संचारियों का अनुभव वह बीच-बीच में अपना व्यक्तित्व भूला हुआ करता है। पर अभिलाष, औत्सुक्य आदि कुछ दशाओं में अपने व्यक्तित्व का संबंध जितना ही अधिक और घनिष्ठ होकर अंत:करण में स्फुट रहेगा प्रेमानुभूति उतनी ही रसकोटि के बाहर रहेगी। 'अभिलाष' में जहाँ अपने व्यक्तित्व का संबंध अत्यंत अल्प या सूक्ष्म रहता है-जैसे, रूप-अवलोकन मात्र का अभिलाष, प्रिय जहाँ रहे सुख से रहे इस बात का अभिलाष-वहाँ वास्तविक अनुभूति रस के किनारे तक पहुँची हुई होती है। आलम्बन के साधारणीकरण के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि रति भाव की पूर्ण पुष्टि के लिए कुछ काल अपेक्षित होता है। पर अत्यंत मोहक आलम्बन को सामने पाकर कुछ क्षणों के लिए तो प्रेम के प्रथम अवयव1 का उदय एक साथ बहुतों के हृदय में होगा। वह अवयव है, अच्छा या रमणीय लगना।
    'हास' में भी यही बात होती है कि जहाँ उसका पात्र सामने आया कि मनुष्य अपना सारा सुख-दु:ख भूल एक विलक्षण आह्लाद का अनुभव करता है, जिसमें बहुत से लोग एक साथ योग देते हैं।
    अपने निज के लाभवाले विकट कर्म की ओर जो उत्साह होगा वह तो रसात्मक न होगा, पर जिस विकट कर्म को हम लोककल्याणकारी समझेंगे उसके प्रति हमारे उत्साह की गति हमारी व्यक्तिगत परिस्थिति के संकुचित मंडल से बद्ध न रहकर बहुत व्यापक होगी। स्वदेशप्रेम के गीत गाते हुए नवयुवकों के दल जिस साहस भरी उमंग के साथ कोई कठिन या दुष्कर कार्य करने के लिए निकलते हैं, वह वीरत्व की रसात्मक अनुभूति है।2
    क्रोध, भय, जुगुप्सा और करुणा के संबंध में साहित्यप्रेमियों को शायद कुछ अड़चन दिखाई पड़े क्योंकि इनकी वास्तविक अनुभूति दुखात्मक होती है। रसास्वाद  आनंदस्वरूप कहा गया है, अत: दु:खरूप अनुभूति रस के अंतर्गत कैसे ली जा सकती है, यह प्रश्‍न कुछ गड़बड़ डालता दिखाई पड़ेगा। पर 'आनंद' शब्द को व्यक्तिगत  सुखभोग के स्थूल अर्थ में ग्रहण करना मुझे ठीक नहीं जँचता। उसका अर्थ मैं हृदय
 
1. देखिए 'लोभ और प्रीति' नामक निबंध।
2. आजकल के बहुत गंभीर अंगरेजी समालोचक रिचड्र्स (I.A. Richards) को भी कुछ दशाओं में वास्तविक अनुभूति के रसात्मक होने का आभास-सा हुआ है, जैसा कि इन पंक्तियों से प्रकट होता है-
      There is no such gulf between poetry and life as over literary persons sometimes suppose. There is no gap between our every day emotional life and the material of poetry. The verbal expresion of this life, at its finest, is forced to use the technique of poetry. .........If we do not live in consonance with good poetry, We mustlive in consonance with bad poetry, I do not see how we can avoid the conclusion that a general insensitivity to poetry does witness a level of general imaginative life.
Practical Criticism (Summary)
का व्यक्तिबद्ध दशा से मुक्त और हल्‍का होकर अपनी क्रिया में तत्पर होना ही उपयुक्त समझता हूँ। इस दशा की प्राप्ति के लिए समय-समय पर प्रवृत्त होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। करुण-रस-प्रधान नाटक के दर्शकों के ऑंसुओं के संबंध में यह कहना कि 'आनंद में भी तो ऑंसू आते हैं' केवल बात टालना है। दर्शक वास्तव में दु:ख ही का अनुभव करते हैं। हृदय की मुक्त दशा में होने के कारण वह दु:ख भी रसात्मक होता है।
    अब क्रोध आदि को अलग-अलग देखिए। यदि हमारे मन में किसी ऐसे के प्रति क्रोध है जिसने हमें या हमारे किसी संबंधी को पीड़ा पहुँचाई है तो उस क्रोध में रसात्मकता न होगी।
    पर किसी लोकपीड़क या क्रूरकर्मा अत्याचारी को देख-सुनकर जिस क्रोध का संचार हममें होगा वह रसकोटि का होगा जिसमें प्राय: सब लोग योग देंगे। इसी प्रकार यदि किसी झाड़ी से शेर निकलता देख हम भय से काँपने लगें तो यह भय हमारे व्यक्तित्व से इतना अधिक संबद्ध रहेगा कि आलम्बन के पूर्ण स्वरूपग्रहण का अवकाश न होगा और हमारा ध्‍यान अपनी ही मृत्यु, पीड़ा आदि परिणामों की ओर रहेगा। पर जब हम किसी वस्तु की भयंकरता को, अपना ध्‍यान छोड़, लोक से संबद्ध देखेंगे तब हम रसभूमि की सीमा के भीतर पहुँचे रहेंगे। इसी प्रकार किसी सड़ी-गली दुर्गंधयुक्त वस्तु के प्रत्यक्ष सामने आने पर हमारी संवेदना का जो क्षोभपूर्ण संकोच होगा वह तो स्थूल होगा; पर किसी ऐसे घृणित आचरणवाले के प्रति जिसे देखते ही लोकरुचि के विघात या आकुलता की भावना हमारे मन में होगी, हमारी जुगुप्सा रसमयी होगी।
    'शोक' को लेकर विचार करने पर हमारा पक्ष बहुत स्पष्ट हो जाता है। अपनी इष्टहानि या अनिष्टप्राप्ति से जो 'शोक' नामक वास्तविक दुख होता है वह तो रसकोटि में नहीं आता, पर दूसरों की पीड़ा, वेदना देख जो 'करुणा' जगती है उसकी अनुभूति सच्ची रसानुभूति कही जा सकती है। 'दूसरों' से तात्पर्य ऐसे प्राणियों से है जिनसे हमारा कोई विशेष संबंध नहीं। 'शोक' अपनी निज की इष्टहानि पर होता है और करुणा दूसरों की दुर्गति या पीड़ा पर होती है। यही दोनों में अंतर है। इसी अंतर को लक्ष्य करके काव्यगत पात्र (आश्रय) के शोक की पूर्ण व्यंजना द्वारा उत्पन्न अनुभूति को आचार्यों ने शोक रस न कहकर 'करुण रस' कहा है। करुणा ही एक ऐसा व्यापक भाव है जिसकी प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति सब रूपों और सब दशाओं में रसात्मक होती है। इसी से भवभूति ने करुण रस को ही रसानुभूति का मूल माना1 और अंगरेजी कवि शेली ने कहा कि 'सबसे मधुर या रसमयी वाग्धारा वही है जो करुण प्रसंग लेकर चले।'2
 
     1.श्‍लोक के लिए देखिए 'काव्य के विभाग' में पादटिप्पणी।
2.  Our sweetest songs are those that tell of sadest thought. —To a Skylark.
    अब प्रकृति के नाना रूपों पर आइए। अनेक प्रकार के प्राकृतिक दृश्यों को सामने प्रत्यक्ष देख हम जिस मधुर भावना का अनुभव करते हैं क्या उसे रसात्मक न मानना चाहिए? जिस समय दूर तक फैले हरे-भरे टीलों के बीच से घूम-घूमकर बहते हुए स्वच्छ नालों, इधर-उधर उभरी हुई बेडौल चट्टानों और रंग-बिरंगे फूलों से गुछी हुई झाड़ियों की रमणीयता में हमारा मन रमा रहता है, उस समय स्वार्थमय जीवन की शुष्कता और विरसता से हमारा मन कितनी दूर रहता है। यह रसदशा नहीं तो और क्या है? उस समय हम विश्‍वकाव्य के एक पृष्ठ के पाठक के रूप में रहते हैं। इस अनंत दृश्य काव्य के हम सदा कठपुतली की तरह काम करनेवाले अभिनेता ही नहीं बने रहते; कभी-कभी सहृदय दर्शक की हैसियत को भी पहुँच जाते हैं। जो इस दशा को नहीं पहुँचते उनका हृदय बहुत संकुचित या निम्नकोटि का होता है। कविता उनसे बहुत दूर की वस्तु होती है; कवि वे भले ही समझे जाते हों। शब्दकाव्य की सिद्धि के लिए वस्तुकाव्य का अनुशीलन परम आवश्यक है।
    उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध है कि रसानुभूति प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति से सर्वथा पृथक् कोई अंतवृत्ति नहीं है बल्कि उसी का एक उदात्त और अवदात्त स्वरूप है। हमारे यहाँ के आचार्यों ने स्पष्ट सूचित कर दिया है कि वासनारूप में स्थित भाव ही रसरूप में जगा करते हैं। यह वासना या संस्कार वंशानुक्रम से चली आती हुई दीर्घ भावपरम्परा का मनुष्य जाति की अंत:प्रकृति में निहित संचय है।


 
स्मृत रूपविधान


 
जिस प्रकार हमारी ऑंखों के सामने आए हुए कुछ रूपव्यापार हमें रसात्मक भावों में मग्न करते हैं उसी प्रकार भूतकाल में प्रत्यक्ष की हुई कुछ परोक्षवस्तुओं का वास्तविक स्मरण भी कभी-कभी रसात्मक होता है। जब हम जन्मभूमि या स्वदेश का, बालसखाओं का, कुमार अवस्था के अतीत दृश्यों और परिचित स्थानों आदि का स्मरण करते हैं, तब हमारी मनोवृत्ति स्वार्थ या शरीरयात्रा के रूखे विधानों से हटकर शुद्ध  भावक्षेत्र में स्थित हो जाती है। नीतिकुशल लोग लाख कहा करें कि 'बीती ताहि बिसारि दे', 'गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ?' पर मन नहीं मानता, अतीत के मधुस्रोत में कभी-कभी अवगाहन किया ही करता है। ऐसा स्मरण वास्तविक होने पर भी रसात्मक होता है। हम सचमुच 'स्मरण' करते हैं और रसमग्न होते हैं।
    स्मृति दो प्रकार की होती है-(क) विशुद्ध स्मृति और (ख) प्रत्यक्षाश्रित (मिश्रित) स्मृति या प्रत्यभिज्ञान।


विशुद्ध स्मृति
यों तो न जाने कितनी बातों का हम स्मरण किया करते हैं, पर इनमें से कुछ बातों का स्मरण ऐसा होता है जो हमारी मनोवृत्ति को शरीरयात्रा के विधानों की उलझन से अलग करके शुद्ध मुक्त भावभूमि में ले जाता है। प्रिय का स्मरण; बाल्यकाल या यौवनकाल के अतीत जीवन का स्मरण, प्रवास में स्वदेश के स्थलों का स्मरण ऐसा ही होता है। 'स्मरण' संचारी भावों में माना गया है जिसका तात्पर्य यह है कि स्मरण रसकोटि में तभी आ सकता है जबकि उसका लगाव किसी स्थायी भाव से हो। किसी को कोई बात भूल गई हो और फिर याद हो जाय; या कोई वस्तु कहाँ रक्खी है, यह ध्‍यान  में आ जाय तो ऐसा स्मरण रसक्षेत्र के भीतर न होगा। अब रहा यह कि वास्तविक स्मरण-किसी काव्य में वर्णित स्मरण नहीं-कैसे स्थायी भावों के साथ संबद्ध होने पर रसात्मक होता है। प्रत्यक्षरूपविधान के अंतर्गत हम दिखा आए हैं कि कैसे प्रत्यक्ष रूपव्यापार हमें रसमग्न करते हैं और कैसे भावों की वास्तविक अनुभूति रसकोटि में आती है। अत: उन्हीं वस्तुओं या व्यापारों का वास्तविक स्मरण रसात्मक होगा जिनकी प्रत्यक्ष अनुभूति रसकोटि में आ सकती है। ऐसी कुछ वस्तुएँ उदाहरण रूप में निर्दिष्ट की जा चुकी हैं, (वस्तुत:) रति, हास और करुणा से संबद्ध स्मरण ही अधिकतर रसात्मक कोटि में आता है।
    'लोभ और प्रीति' नामक निबंध में हम रूप, गुण आदि से स्वतंत्र साहचर्य को भी प्रेम का एक सबल कारण बता चुके हैं। इस साहचर्य का प्रभाव सबसे प्रबल रूप में स्मरण काल के भीतर देखा जाता है। जिन व्यक्तियों की ओर हम कभी विशेष रूप से आकर्षित नहीं हुए थे, यहाँ तक कि जिनसे हम चिढ़ते या लड़ते-झगड़ते थे, देश काल का लंबा व्यवधान पड़ जाने पर हम उनका स्मरण प्रेम के साथ करते हैं। इसी प्रकार जिन वस्तुओं पर आते-जाते केवल हमारी नजर पड़ा करती थी, जिनको सामने पाकर हम किसी विशेष भाव का अनुभव नहीं करते थे। वे भी हमारी स्मृति में मधु में लिपटी हुई आती है। इस माधुर्य का रहस्य क्या है? जो हो, हमें तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि हमारी यह कालयात्रा जिसे जीवन कहते हैं, जिन-जिन रूपों के बीच से होती चली आती है, हमारा हृदय उन सबको पास समेटकर अपनी रागात्मक सत्ता के अंतर्भूत करने का प्रयत्न करता है। यहाँ से वहाँ तक वह एक भावसत्ता की प्रतिष्ठा चाहता है। ज्ञानप्रसार के साथ-साथ रागात्मिका वृत्ति का यह प्रसार एकीकरण या समन्विति की एक प्रक्रिया है। ज्ञान हमारी आत्मा के तटस्थ रूप का संकेत है? रागात्मक हृदय उसके व्यापक स्वरूप का। ज्ञान ब्रह्म है तो हृदय ईश्वर है। किसी व्यक्ति या वस्तु को जानना ही वह शक्ति नहीं है जो उस व्यक्ति या वस्तु को हमारी अंतस्सत्ता में सम्मिलित कर दे। वह शक्ति है राग या प्रेम।
    जैसा कह आए हैं, रति, हास और करुणा से संबद्ध स्मरण ही अधिकतर रसक्षेत्र में प्रवेश करता है। प्रिय का स्मरण, बालसखाओं का स्मरण, अतीत जीवन के दृश्यों का स्मरण प्राय: रतिभाव से संबद्ध स्मरण होता है। किसी दीन-दुखी या पीड़ित व्यक्ति व उसकी विवर्ण आकृति, चेष्टा आदि के स्मरण का लगाव करुणा से होता है। दूसरे भावों के आलम्बनों का स्मरण भी कभी-कभी रससिक्त होता है-पर वहीं जहाँ हम सहृदय द्रष्टा के रूप में रहते हैं अर्थात् जहाँ आलम्बन केवल हमारी ही व्यक्तिगत भावसत्ता से संबद्ध नहीं, संपूर्ण नर-जीवन की भावसत्ता से संबद्ध होते हैं।


प्रत्यभिज्ञान
अब हम उस प्रत्यक्षमिश्रित स्मरण को लेते हैं जिसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यभिज्ञान का थोड़ा-सा अंश प्रत्यक्ष होता है और बहुत-सा अंश उसी के संबंध से स्मरण द्वारा उपस्थित होता है। किसी व्यक्ति को हमने कहीं देखा और देखने के साथ ही स्मरण किया कि यह वही है जो अमुक स्थान पर उस दिन बहुत से लोगों के साथ झगड़ा कर रहा था। वह व्यक्ति हमारे सामने प्रत्यक्ष है। उसके सहारे से हमारे मन में झगड़े का वह सारा दृश्य उपस्थित हो गया जिसका वह एक अंग था। 'यह वही है' इन्हीं शब्दों में प्रत्यभिज्ञान की व्यंजना होती है।
    स्मृति के समान प्रत्यभिज्ञान में भी रससंचार की बड़ी गहरी शक्ति होती है। बाल्य या कौमार जीवन के किसी साथी के बहुत दिनों पीछे सामने आने पर कितने पुराने दृश्य हमारे मन के भीतर उमड़ पड़ते हैं और हमारी वृत्ति उनके माधुर्य में किस प्रकार मग्न हो जाती है! किसी पुराने पेड़ को देखकर हम कहने लगते हैं कि यह वही पेड़ है जिसके नीचे हम अपने अमुक-अमुक साथियों के साथ बैठा करते थे। किसी घर या चबूतरे को देखकर भी अतीत दृश्य इसी प्रकार हमारे मन में छा जाते हैं और हमारा मन कुछ और हो जाता है। कृष्ण के गोकुल से चले जाने पर वियोगिनी गोपियाँ जब-जब यमुना तट पर जाती हैं तब-तब उनके भीतर यही भावना उठती है कि 'यह वही यमुना तट है' और उनका मन काल का परदा फाड़ अतीत के उस दृश्य क्षेत्र में जा पहुँचता है जहाँ श्रीकृष्ण गोपियों के साथ उस तट पर विचरते थे-
मनु ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर।
-बिहारी रत्नाकर, 681।
    प्राचीन कवियों ने भी प्रत्यभिज्ञान के रसात्मक स्वरूप का बराबर विधान किया है। हृदय की गूढ़ वृत्तियों के सच्चे पारखी भावमूर्ति भवभूति ने शंबूक का वध करके दंडकारण्य के बीच फिरते हुए राम के मुख से प्रत्यभिज्ञान की मार्मिक व्यंजना कराई है-
       एते त एव गिरयो विरुवन्मयूरा
           स्तान्येव  मत्तहरिणानि  वनस्थलानि।
       आमंजुवंजुललतानि च तान्यमूनि
           नीरन्‍ध्र  नीलनिचुलानि  सरित्तटानि।1
-उत्तररामचरित 2-23।
    एक दूसरे प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का रसात्मक प्रभाव प्रदर्शित करने के लिए ही उक्त कवि ने उत्तररामचरित में चित्रशाला का समावेश किया है।
    कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्यभिज्ञान की रसात्मक दशा में मनुष्य मन में आई हुई वस्तुओं में ही रमा रहता है, अपने व्यक्तित्व को पीछे डाले रहता है।
    दशा की विपरीतता की भावना लिए हुए जिस प्रत्यभिज्ञान का उदय होता है उसमें करुणा वृत्ति के संचालन की बड़ी गहरी शक्ति होती है कवि और वक्ता बराबर उसका उपयोग करते हैं। जब हम किसी बस्ती, ग्राम या घर के खंडहर को  देखते हैं जिसमें किसी समय हमने बहुत चहल पहल या सुख-समृद्धि देखी थी तब
 
1. मयूरकूजित ये पर्वत वे ही हैं, मत्त हरिणोंवाली ये वनस्थलियाँ वे ही हैं और सुंदर वंजुल (बेंत) लताओं तथा नीले निचुलों (नीले बेंतों) से युक्त ये नदी तट वे ही हैं।
'यह वही है' की भावना हमारे हृदय को एक अनिर्वचनीय करुणा स्रोत में मग्न करती है। अँगरेजी के परम भावुक कवि गोल्डस्मिथ ने प्रत्यभिज्ञान का एक अत्यंत मार्मिक स्वरूप दिखाने के लिए 'ऊजड़ गाम' की रचना की थी।


स्मृत्याभास कल्पना
अबतक हमने रसात्मक स्मरण और रसात्मक प्रत्यभिज्ञान को विशुद्ध रूप में देखा है अर्थात् ऐसी बातों के स्मरण का विचार किया है जो पहले कभी हमारे सामने हो चुकी हैं। अब हम उस कल्पना को लेते हैं जो स्मृति या प्रत्यभिज्ञान का-सा रूप धारण करके प्रवृत्त होती है। इस प्रकार की स्मृति या प्रत्यभिज्ञान में पहले देखी हुई वस्तुओं या बातों के स्थान पर या तो पहले सुनी या पढ़ी हुई बातें हुआ करती हैं अथवा अनुमान द्वारा पूर्णतया निश्चित। बुद्धि और वाणी के प्रसार द्वारा मनुष्य का ज्ञान प्रत्यक्ष बोध तक ही परिमित नहीं रहता, वर्तमान के आगे-पीछे भी जाता है। आगे आनेवाली बातों से यहाँ प्रयोजन नहीं; प्रयोजन है अतीत से। अतीत की कल्पना भावुकों में स्मृति की-सी सजीवता प्राप्त करती है और कभी अतीत का कोई बचा हुआ चिन्‍ह पाकर प्रत्यभिज्ञान का-सा रूप ग्रहण करती है। ऐसी कल्पना के विशेष मार्मिक प्रभाव का कारण यह है कि यह सत्य का आधार लेकर खड़ी होती है। इसका आधार या तो आप्त शब्द (इतिहास) होता है अथवा शुद्ध अनुमान।
    पहले हम स्मृत्याभास कल्पना के उस स्वरूप को लेते हैं जिसका आधार आप्त शब्द या इतिहास होता है। जैसे अपने व्यक्तिगत अतीत जीवन की मधुर स्मृति मनुष्य में होती है वैसे ही समष्टि रूप में अतीत नर जीवन की भी एक प्रकार की स्मृत्याभास कल्पना होती है जो इतिहास के संकेत पर जगती है। इसकी मार्मिकता भी निज के अतीत जीवन की मार्मिकता के ही समान होती है। मानव जीवन की चिरकाल से चली आती हुई अखंड परंपरा के साथ तादात्म्य की यह भावना आत्मा के शुद्ध स्वरूप की नित्यता, अखंडता और व्यापकता का आभास देती है। यह स्मृतिस्वरूपा कल्पना कभी-कभी प्रत्यभिज्ञान का भी रूप धारण करती है। प्रसंग उठने पर जैसे इतिहास द्वारा ज्ञात किसी घटना या दृश्य के ब्योरों को कहीं बैठे-बैठे हम मन में लाया करते हैं और कभी-कभी उनमें लीन हो जाते हैं वैसे ही किसी इतिहासप्रसिद्ध स्थल पर पहुँचने पर हमारी कल्पना चट उस स्थल पर घटित किसी मार्मिक पुरानी घटना अथवा उससे संबंध रखनेवाले कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के बीच हमें पहुँचा देती है, जहाँ से हम फिर वर्तमान की ओर लौटकर कहने लगते हैं कि 'यह वही स्थल है जो कभी सजावट से जगमगाता था, जहाँ अमुक सम्राट सभासदों के बीच सिंहासन पर विराजते थे; यह वही फाटक है जिस पर ये वीर अद्भुत पराक्रम के साथ लड़े थे इत्यादि।' इस प्रकार हम उस काल से लेकर इस काल तक अपनी सत्ता के प्रसार का आरोप क्या, अनुभव करते हैं।1
    सूक्ष्म ऐतिहासिक अधययन के साथ-साथ जिसमें जितनी ही गहरी भावुकता होगी, जितनी ही तत्पर कल्पनाशक्ति होगी उसके मन में उतने ही अधिक ब्योरे आएँगे और पूर्ण चित्र खड़ा होगा। इतिहास का कोई भावुक और कल्पनासम्पन्न पाठक यदि पुरानी दिल्ली, कन्नौज, थानेसर, चित्तौण, उज्जयिनी, विदिशा इत्यादि के खंडहरों पर पहले-पहल भी जा खड़ा होता है तो उसके मन में वे सब बातें आ जाती हैं जिन्हें उसने इतिहासों में पढ़ा था या लोगों से सुना था। यदि उसकी कल्पना तीव्र और प्रचुर हुई तो बड़े-बड़े तोरणों से युक्त उन्नत प्रासादों की, उत्तरीय और उष्णीषधारी नागरिकों की, अलक्तरंजित चरणों में पड़े नूपुर की झंकारों की, कटि के नीचे लटकती हुई कांची की लड़ियों की, धूपवासित केशकलाप और पत्राभंग मंडित गंडस्थल की भावना उसके मन में चित्र -सी खड़ी होगी। उक्त नगरों का यह रूप उसने कभी देखा नहीं है, पर पुस्तकों के पठन-पाठन से इस रूप की कल्पना उसके भीतर संस्कार के रूप में जम गई है जो उन नगरों के ध्‍वंसावशेष के प्रत्यक्ष दर्शन से जग जाती है।
    एक बात कह देना आवश्यक है कि आप्त वचन या इतिहास के संकेत पर चलनेवाली कल्पना या मूर्त भावना अनुमान का भी सहारा लेती है। किसी घटना का वर्णन करने में इतिहास उस घटना के समय भी रीति, वेशभूषा, संस्कृति आदि का ब्योरा नहीं देता चलता। अत: किसी ऐतिहासिक काल का कोई चित्र  मन में लाते समय ऐसे ब्योरों के लिए अपनी जानकारी अनुसार हमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है।
    यह तो हुई आप्त शब्द या इतिहास पर आश्रित स्मृतिरूपी या प्रत्यभिज्ञान रूपी कल्पना। एक प्रकार की प्रत्यभिज्ञान रूपी कल्पना और होती है जो बिलकुल अनुमान के ही सहारे पर खड़ी होती और चलती है। यदि हम एकाएक किसी अपरिचित स्थान के खंडहरों में पहुँच जाते हैं-जिसके संबंध में हमने कहीं कुछ सुना या पढ़ा नहीं है तो भी गिरे पड़े मकानों, दीवारों, देवालयों आदि को सामने पाकर हम कभी-कभी कह बैठते हैं कि 'यह वही स्थान है जहाँ कभी मित्रों की मंडली जमती थी, रमणियों का हास विलास होता था, बालकों का क्रीड़ारव सुनाई पड़ता था इत्यादि। 2 कुछ चिन्‍ह पाकर केवल अनुमान के संकेत पर ही कल्पना इन रूपों और व्यापारों की योजना में तत्पर हो गई। ये रूप और व्यापार हमारे जिस मार्मिक रागात्मक भाव के आलम्बन होते हैं उसका हमारे व्यक्तिगत योगक्षेम से कोई संबंध नहीं, अत: उसकी रसात्मकता स्पष्ट है।
 
1. मिलाइए 'शेष स्मृतियाँ', प्रवेशिका।
2. वही,
    अतीत की स्मृति में मनुष्य के लिए स्वाभाविक आकर्षण है अर्थपरायण। लाख कहा करें कि 'गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा,' पर हृदय नहीं मानता; बार-बार अतीत की ओर जाता है; अपनी यह बुरी आदत नहीं छोड़ता। इसमें कुछ रहस्य अवश्य है। हृदय के लिए अतीत एक मुक्ति लोक है जहाँ वह अनेक प्रकार के बंधनों से छूटा रहता है और अपने शुद्ध रूप में विचरता है। वर्तमान हमें अंधा बनाए रहता है; अतीत बीच-बीच में हमारी ऑंखें खोलता रहता है। मैं तो समझता हूँ कि जीवन का नित्य स्वरूप दिखानेवाला दर्पण मनुष्य के पीछे रहता है; आगे तो बराबर खिसकता हुआ दुर्भेद्य परदा रहता है। बीती बिसारनेवाले 'आगे की सुध रखने का' दावा किया करें, परिणाम अशांति के अतिरिक्त और कुछ नहीं। वर्तमान को सँभालने और आगे की सुध रखने का डंका पीटनेवाले संसार में जितने ही अधिक होते जाते हैं, संघ शक्ति के प्रभाव से जीवन की उलझनें उतनी ही बढ़ती जाती हैं। बीती बिसारने का अभिप्राय है जीवन की अखंडता और व्यापकता की अनुभूति का विसर्जन; सहृदयता भावुकता का भंग-केवल अर्थ की निष्ठुर क्रीड़ा।
    कुशल यही है कि जिनका दिल सही-सलामत है, जिनका हृदय मारा नहीं गया है; उनकी दृष्टि अतीत की ओर जाती है। क्यों जाती है, क्या करने जाती है, यह बताते नहीं बनता। अतीत कल्पना का लोक है, एक प्रकार का स्वप्नलोक है, इसमें तो संदेह नहीं। अत: यदि कल्पना लोक के सब खंडों को सुखपूर्ण मान लें तब तो प्रश्‍न टेढ़ा नहीं रह जाता; झट से यह कहा जा सकता है कि सुख प्राप्त करने जाती है। पर क्या ऐसा माना जा सकता है? हमारी समझ में अतीत की ओर मुड़-मुड़कर देखने की प्रवृत्ति सुख-दु:ख की भावना से परे है। स्मृतियाँ हमें केवल सुखपूर्ण दिनों की झाँकियाँ नहीं समझ पड़तीं। वे हमें लीन करती हैं, हमारा मर्म स्पर्श करती हैं, बस इतना ही हम कह सकते हैं।1 यही बात स्मृत्याभास कल्पना के संबंध में भी समझनी चाहिए। इतिहास द्वारा ज्ञात बातों की मूर्त भावना कितनी मार्मिक, कितनी लीन करनेवाली होती है, न सहृदयों से छिपा है, न छिपाते बनता है। मनुष्य की अंत:प्रकृति पर इसका प्रभाव स्पष्ट है, जैसा कि कहा जा चुका है इसमें स्मृति की-सी सजीवता होती है। इस मार्मिक प्रभाव और सजीवता का मूल है सत्य। सत्य से अनुप्राणित होने के कारण ही कल्पना स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का-सा रूप धारण करती है। कल्पना के इस स्वरूप की सत्यमूलक सजीवता और मार्मिकता का अनुभव करके ही संस्कृत के पुराने कवि अपने महाकाव्य और नाटक इतिहास पुराण के किसी वृत्त का आधार लेकर रचा करते थे।
    'सत्य' से यहाँ अभिप्राय केवल वस्तुत: घटित वृत्त ही नहीं, निश्चयात्मकता से प्रतीत वृत्त भी है। जो बात इतिहासों में प्रसिद्ध चली आ रही है वह यदि पक्के
 
1.   मिलाइए 'शेष स्मृतियां', प्रवेशिका।
 
प्रमाणों से पुष्ट भी न हो तो भी लोगों के विश्वास के बल पर उक्त प्रकार की स्मृतिस्वरूपा कल्पना का आधार हो जाती है। आवश्यक होता है केवल इस बात का बहुत दिनों से जमा हुआ विश्वास कि इस प्रकार की घटना इस स्थल पर हुई थी। यदि ऐसा विश्वास सर्वथा विरूद्ध प्रमाण उपस्थित होने पर विचलित हो जायगा तो वैसी सजीव कल्पना न जागेगी।1 संयोगिता के स्वयंवर की कथा को लेकर कुछ काव्य और नाटक रचे गए। ऐतिहासिक अनुसंधान द्वारा वह सारी कथा अब कल्पित सिद्ध हो गई है। अत: इतिहास के ज्ञाताओं के लिए उन काव्यों या नाटकों में वर्णित घटना का ग्रहण शुद्ध कल्पना की वस्तु के रूप में होगा, स्मृत्याभास कल्पना की वस्तु के रूप में नहीं।
    पहले कहा जा चुका है कि मानव जीवन का नित्य और प्रकृत स्वरूप देखने के लिए दृष्टि जैसी शुद्ध होनी चाहिए वैसी अतीत के क्षेत्र के बीच ही वह होती है। वर्तमान में तो हमारे व्यक्तिगत रागद्वेष से वह ऐसी बँधी रहती है कि हम बहुत-सी बातों को देखकर भी नहीं देखते। प्रसिद्ध प्राचीन नगरों और गढ़ों के खंडहर; राजप्रासाद आदि जिस प्रकार सम्राटों के ऐश्वर्य, विभूति, प्रताप, आमोदप्रमोद और भोगविलास के स्मारक हैं उसी प्रकार उनके अवसाद, विषाद, नैराश्य और घोर पतन के। मनुष्य की ऐश्वर्य, विभूति, सुख, सौंदर्य की वासना अभिव्यक्त होकर जगत् के किसी छोटे या बड़े खंड को अपने रंग में रँगकर मानुषी सजीवता प्रदान करती है। देखते-देखते काल उस वासना के आश्रय मनुष्यों को हटाकर किनारे कर देता है। धीरे-धीरे उनका चढ़ाया हुआ ऐश्वर्य विभूति का वह रंग भी मिटता जाता है। जो कुछ शेष रह जाता है वह बहुत दिनों तक ईंट-पत्थर की भाषा में एक पुरानी कहानी कहता रहता है। संसार का पथिक मनुष्य उसे अपनी कहानी समझकर सुनता है, क्योंकि उसके भीतर झलकता है जीवन का नित्य और प्रकृत स्वरूप।2
    कुछ व्यक्तियों के स्मारक चिन्‍ह तो उनके पूरे प्रतिनिधि या प्रतीक बन जाते हैं और उसी प्रकार हमारी घृणा या प्रेम के आलम्बन हो जाते हैं जिस प्रकार लोक के बीच अपने जीवनकाल में वे व्यक्ति थे। ऐसे व्यक्ति घृणा या प्रेम को अपने पीछे भी बहुत दिनों तक जगत् में जगाते रहते हैं। ये स्मारक न जाने कितनी बातें अपने पेट में लिए कहीं खड़े, कहीं बैठे, कहीं पड़े हैं।
    किसी अतीत जीवन के ये स्मारक या तो यों ही-शायद काल की कृपा से-बने रह जाते हैं अथवा जानबूझकर छोड़े जाते हैं। जानबूझकर कुछ स्मारक छोड़ जाने की कामना भी मनुष्य की प्रकृति के अंतर्गत है। अपनी सत्ता के सर्वथा लोप की भावना मनुष्य को असह्य है। अपनी भौतिक सत्ता तो वह बनाए नहीं रख सकता।
 
1. मिलाइए, शेष स्मृतियाँ, प्रवेशिका।
2. मिलाइए, वही।
अत: वह चाहता है कि उस सत्ता की स्मृति ही किसी जनसमुदाय के बीच बनी रहे। वाह्य जगत् में नहीं तो अंतर्जगत् के किसी खंड में ही वह बना रहना चाहता है।
इसे हम अमरत्व की आकांक्षा या आत्मा के नित्यत्व का इच्छात्मक आभास कह सकते हैं। अपनी स्मृति बनाए रखने के लिए कुछ मनस्वी कला का सहारा लेते हैं और उसके आकर्षक सौंदर्य की प्रतिष्ठा करके विस्मृति के खड्ड में झोंकनेवाले काल के हाथों को बहुत दिनों तक-सहस्रों वर्ष तक थामे रहते हैं। इस प्रकार ये स्मारक काल के हाथों को कुछ थामकर मनुष्य की कई पीढ़ियों की ऑंखों से ऑंसू बहवाते चले चलते हैं। मनुष्य अपने पीछे होनेवाले मनुष्यों को अपने लिए रुलाना चाहता है।1
    सम्राटों की अतीत जीवनलीला के धवस्त रंगमंच वैषम्य की एक विशेष भावना जगाते हैं। उनमें जिस प्रकार भाग्य के ऊँचे-से-ऊँचे उत्थान का दृश्य निहित रहता है वैसे ही गहरे पतन का भी। जो जितने ही ऊँचे पर चढ़ा दिखाई देता है गिरने पर वह उतना ही नीचे जाता दिखाई देता है। दर्शकों को उसके उत्थान की ऊँचाई जितनी कुतूहलपूर्ण और विस्मयकारिणी होती है उतनी ही उसके पतन की गहराई मार्मिक और आकर्षक होती है। असामान्य की ओर लोगों की दृष्टि भी अधिक दौड़ती है और टकटकी भी अधिक लगती है। अत्यंत ऊँचाई से गिरने का दृश्य कोई कुतूहल के साथ देखता है, कोई गंभीर वेदना के साथ।2
    जीवन तो जीवन है; चाहे राजा का हो चाहे रंक का। उसके सुख और दु:ख दो पक्ष होंगे ही। इनमें से कोई पक्ष स्थिर नहीं रह सकता। संसार और स्थिरता? अतीत के लम्बे-चौड़े मैदान के बीच इन उभय पक्षों की घोर विषमता सामने रखकर कोई भावुक जिस भावधारा में डूबता है उसी में औरों को डुबाने के लिए शब्दस्रोत भी बहाता है। इस पुनीत भावधारा में अवगाहन करने से वर्तमान की-अपने-पराए की-लगी लिपटी मैल छँटती है और हृदय स्वच्छ होता है। ऐतिहासिक व्यक्तियों वा राजकुलों के जीवन की जिन विषमताओं की ओर सबसे अधिक ध्‍यान जाता है वे प्राय: दो ढंग की होती हैं-सुख-दु:ख संबंधी तथा उत्थान पतन संबंधी। सुख-दु:ख की विषमता की ओर जिसकी भावना प्रवृत्त होगी वह एक ओर तो जीवन का भोगपक्ष-यौवनमद, विलास की प्रभूत सामग्री, कला सौंदर्य की जगमगाहट, रागरंग और आमोद-प्रमोद की चहल-पहल-और दूसरी ओर अवसाद, नैराश्य, कष्ट, वेदना इत्यादि के दृश्य मन में लाएगा। बड़े-बड़े प्रतापी सम्राटों के जीवन को लेकर भी वह ऐसा ही करेगा। उनके तेज, प्रताप, पराक्रम इत्यादि की भावना वह इतिहासविज्ञ पाठक की सहृदयता पर छोड़ देगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि सुख और दु:ख के बीच का वैषम्य जैसा मार्मिक होता है वैसा ही उन्नति और अवनति, प्रताप और
 
1. 'शेष स्मृतियाँ, प्रवेशिका।
2. वही।
द्रास के बीच का भी। इस वैषम्यप्रदर्शन के लिए एक ओर तो किसी के पतनकाल के असामर्थ्य, दीनता, विवशता, उदासीनता इत्यादि के दृश्य सामने रखे जाते हैं, दूसरी ओर उसके ऐश्वर्यकाल के प्रताप, तेज, पराक्रम इत्यादि के वृत्त स्मरण किए जाते हैं।1
    इस दु:खमय संसार में सुख की इच्छा और प्रयत्न प्राणियों का लक्षण है। यह लक्षण मनुष्य में सबसे अधिक रूपों में विकसित हुआ है। मनुष्य की सुखेच्छा कितनी प्रबल, कितनी शक्तिशालिनी निकली! न जाने कब से वह प्रकृति को काटती छाँटती, संसार का कायापलट करती चली आ रही है। वह शायद अनंत है, 'आनंद' का अनंत प्रतीक है। वह इस संसार में न समा सकी तब कल्पना को साथ लेकर उसने कहीं बहुत दूर स्वर्ग की रचना की। चतुर्वर्ग में इसी सुख का नाम 'काम' है। यद्यपि देखने में 'अर्थ' और 'काम' अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, पर सच पूछिए तो 'अर्थ', 'काम' का ही एक साधन ठहरता है, साध्‍य रहता है काम या सुख ही। अर्थ है संचय, आयोजन और तैयारी की भूमि। काम भोगभूमि है। मनुष्य कभी अर्थभूमि पर रहता है, कभी कामभूमि पर। अर्थ और काम के बीच जीवन बाँटता हुआ वह चला चलता है। दोनों का ठीक सामंजस्य सफल जीवन का लक्षण है। जो अनन्य भाव से अर्थसाधना में ही लीन रहेगा वह हृदय खो देगा; जो ऑंख मूँदकर कामचर्या में ही लिप्त रहेगा वह किसी अर्थ का न रहेगा। अकबर के जीवन में अर्थ और काम का सामंजस्य रहा। औरंगजेब बराबर अर्थभूमि पर ही रहा। मुहम्मदशाह सदा काम भूमि पर ही रहकर रंग बरसाते रहे।2
 
 
 
1. मिलाइए शेष स्मृतियाँ, प्रवेशिका।
2. वही।

कल्पित रूपविधान

 
 
कल्पना
काव्य वस्तु का सारा रूपविधान इसी की क्रिया से होता है। आजकल तो भाव की बात दब-सी गई है केवल इसी का नाम लिया जाता है क्योंकि 'कवि की नूतन सृष्टि' केवल इसी की कृति समझी जाती है। पर जैसा कि हम अनेक स्थलों पर कह चुके हैं, काव्य के प्रयोजन की कल्पना वही होती है जो हृदय की प्रेरणा से प्रवृत्त होती है और हृदय पर प्रभाव डालती है। हृदय के मर्मस्थल पर स्पर्श तभी होता है जब जगत् या जीवन का कोई सुंदर रूप, मार्मिक दशा या तथ्य मन में उपस्थित होता है। ऐसी दशा या तथ्य की चेतना से मन में कोई भाव जगता है जो उस दशा या तथ्य की मार्मिकता का पूर्ण अनुभव करने और कराने के लिए उसके कुछ चुने हुए ब्योरों की मूर्त भावनाएँ खड़ी करता है। कल्पना का यह प्रयोग प्रस्तुत के संबंध में समझना चाहिए जो विभाव पक्ष के अंतर्गत है। श्रृंगार, रौद्र, वीर, करुण आदि रसों के आलम्बनों और उद्दीपनों के वर्णन, प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन सब इसी विभाव पक्ष के अंतर्गत हैं।
    सारा रूपविधान कल्पना ही करती है अत: अनुभाव कहे जानेवाले व्यापारों और चेष्टाओं द्वारा आश्रय को जो रूप दिया जाता है वह भी कल्पना ही द्वारा। पर भावों के द्योतक शारीरिक व्यापार या चेष्टाएँ परिमित होती हैं, वे रूढ़ या बँधी हुई होती हैं। उनमें नएपन की गुंजाइश नहीं, पर आश्रय के वचनों की अनेकरूपता की कोई सीमा नहीं। इन वचनों की भी कवि द्वारा कल्पना ही की जाती है।1
    वचनों द्वारा भावव्यंजना के क्षेत्र में कल्पना को पूरी स्वच्छंदता रहती है। भाव की ऊँचाई, गहराई की कोई सीमा नहीं। उसका प्रसार लोक का अतिक्रमण कर सकता है। उसकी सम्यक् व्यंजना के लिए प्रकृति के वास्तविक विधान कभी-कभी पर्याप्त नहीं जान पड़ते। मन की गति का वेग अबाध होता है। प्रेम के वेग में प्रेमी प्रिय
 
1. मिलाइए, भाव या मनोविकार, निबंध।
को अपनी ऑंखों में बसा हुआ कहता है, उसके पाँव रखने के लिए पलकों के पाँवड़े बिछाता है, उसके अभाव में दिन के प्रकाश में भी चारों ओर शून्य या अंधकार देखता है, अपने शरीर की भस्म उड़ाकर उसके पास तक पहुँचाना चाहता है। इसी प्रकार क्रोध के वेग में मनुष्य शत्रु को पीसकर चटनी बना डालने के लिए खड़ा होता है, उसके घर को खोदकर तालाब बना डालने की प्रतिज्ञा करता है। उत्साह या वीरता की उमंग में वह समुद्र पाट देने, पहाड़ों को उखाड़ फेंकने का हौसला प्रकट करता है।
    ऐसे लोकोत्तरविधान करनेवाली कल्पना में भी यह देखा जाता है कि जहाँ कार्यकारण-विवेचनपूर्वक वस्तुव्यंजना का टेढ़ा रास्ता पकड़ा जाता है वहाँ वैचित्रय-ही-वैचित्रय रह जाता है, मार्मिकता दब जाती है। जैसे, यदि कोई कहे कि 'कृष्ण के वियोग में राधा का दिन-रात रोना सुनकर लोग घर-घर में नावें बनवा रहे हैं' तो यह कथन मार्मिकता की हद के बाहर जान पड़ेगा।
    विभाव पक्ष के ही अंतर्गत हम उन सब प्रस्तुत वस्तुओं और व्यापारों को भी लेते हैं जो हमारे मन में सौंदर्य, माधुर्य, दीप्ति, कांति, प्रताप, ऐश्वर्य, विभूति इत्यादि की भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। ऐसी वस्तुओं और व्यापारों की योजना करनेवाली प्रतिभा भी विभाव विधायिनी ही समझनी चाहिए। कवि कभी-कभी सौंदर्य, माधुर्य, दीप्ति इत्यादि की अनूठी सृष्टि खड़ी करने के लिए चारों ओर से सामग्री एकत्र करके पराकाष्ठा को पहुँची हुई लोकोत्तर योजना करते हैं, यह भी कविकर्म के अंतर्गत है, पर सर्वत्र अपेक्षित उसकी कोई नित्य प्रक्रिया नहीं। मन के भीतर लोकोत्तर उत्कर्ष की झाँकियाँ तैयार करना भी कल्पना का एक काम है। इस काम में कविता उसे प्राय: लगाया करती है। कुछ लोग तो कल्पना और कविता का यही काम ही बताते हैं-खासकर वे लोग जो काव्य को स्वप्न का सगा भाई मानते हैं। जैसे स्वप्न को वे1 अंतस्संज्ञा में निहित अतृप्त वासनाओं की अंतर्व्यंजना कहते हैं, वैसे ही काव्य को भी। संसार में जितना अद्भुत, सुंदर,मधुर, दीप्त हमारे सामने आता है; जितना सुख, समृद्धि, सद्वृत्ति, सद्भाव, प्रेम, आनंद हमें दिखाई पड़ता है, उतने से तृप्त न होने के कारण अधिक की इच्छाएँ हमारी अंतस्संज्ञा में दबी पड़ी रहती हैं। इसी प्रकार शक्ति, उग्रता, प्रचंडता, उथल-पुथल, ध्‍वंस इत्यादि को हम जितने बढ़े-चढ़े रूप में देखना चाहते हैं उतने बढ़े-चढ़े रूप में कहीं न देख हमारी इच्छा चेतना या संज्ञा के नीचे अज्ञात दशा में दबी पड़ी रहती है। वे ही इच्छाएँ तृप्ति के लिए कविता के रूप में व्यक्त होती हैं और श्रोताओं को भी तृप्त करती हैं।
    इस संबंध में हम यहाँ इतना ही कहना चाहते हैं कि काव्य सर्वथा स्वप्न के रूप की वस्तु नहीं है। स्वप्न के साथ यदि उसका कुछ मेल है तो केवल इतना
 
1. फ्रायड आदि नूतन मनोवैज्ञानिक।
ही कि स्वप्न भी हमारी बाह्य इंद्रियों के सामने नहीं रहता और काव्यवस्तु भी। दोनों के आविर्भाव का स्थान भर एक है, स्वरूप में भेद है। कल्पना में आई हुई वस्तुओं की प्रतीति से स्वप्न में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की प्रतीति भिन्न प्रकार की होती है। स्वप्नकाल की प्रतीति प्राय: प्रत्यक्ष ही के समान होती है। दूसरी बात यह है कि काव्य में शोक प्रसंग भी रहते हैं। शोक की वासना की तृप्ति शायद ही कोई प्राणी चाहता हो।
    उपर्युक्त सिद्धांत का ही एक अंग कामवासना का सिद्धांत है जिसके अनुसार काव्य का संबंध और कलाओं के समान कामवासना की तृप्ति से है। यहाँ पर इतना ही समझ लेना आवश्यक है कि यह मत काव्य को 'ललित कलाओं' में गिनने का परिणाम है। कलाओं के सम्बन्ध में, जिनका लक्ष्य केवल सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न करना है, यह मत कुछ ठीक कहा जा सकता है। इसी से 64 कलाओं का उल्लेख हमारे यहाँ कामशास्त्र के भीतर हुआ है। पर काव्य की गिनती कलाओं में नहीं की गई है।
    अब तक जो कुछ कहा गया है वह प्रस्तुत के संबंध में है। पर काव्य में प्रस्तुत के अतिरिक्त अप्रस्तुत भी बहुत अधिक अपेक्षित होता है, क्योंकि साम्यभावना काव्य का बड़ा शक्तिशाली अस्त्र है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अप्रस्तुत की योजना भी कल्पना ही द्वारा होती है। आधुनिक पाश्चात्य समीक्षा क्षेत्र में तो 'कल्पना' शब्द से अधिकतर अप्रस्तुत विधायिनी कल्पना ही समझी जाती है। अप्रस्तुत की योजना के संबंध में वही बात समझनी चाहिए जो प्रस्तुत के संबंध में हम कह आए हैं अर्थात् उसकी योजना भी यदि किसी भाव के संकेत पर होगी-सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता, कांति, दीप्ति इत्यादि की भावना में वृद्धि करनेवाली होगी-तब तो वह काव्य के प्रयोजन की होगी; यदि केवल रंग, आकृति, छोटाई, बड़ाई आदि का ही हिसाब-किताब बैठाकर की जाएगी  तो निष्फल ही नहीं बाधाक भी होगी। भाव की प्रेरणा से जो अप्रस्तुत लाए जाते हैं उनकी प्रभविष्णुता पर कवि की दृष्टि इस बात पर रहती है कि इनके द्वारा भी वैसी ही भावना जगे जैसी प्रस्तुत के संबंध में है।
    केवल शास्त्रस्थितिसंपादन1 से कविकर्म की सिद्धि समझ कुछ लोगों ने स्‍त्री की कटि की सूक्ष्मता व्यक्त करने के लिए भेड़ या सिंहिनी की कटि सामने रख दी है, चंद्रमंडल और सूर्यमंडल के उपमान के लिए दो घंटे सामने कर दिए हैं, पर ऐसे अप्रस्तुतविधान केवल छोटाई, बड़ाई या आकृति को ही पकड़कर, केवल उसी का हिसाब-किताब बैठाकर, हुए हैं; उस सौंदर्य की भावना की प्रेरणा से नहीं जो
 
1. संधिसंध्‍यंगघटनं रसाभिव्यक्त्यपेक्षया।
   न तु केवलया शास्त्रस्थितिसंपादनेच्छया॥
-ध्‍वन्यालोक, 3-12।
उस नायिका या चंद्रमंडल के संबंध में रही होगी। यह देखकर संतोष होता है कि हिंदी की वर्तमान कविताओं में प्रभावसाम्य पर ही विशेष दृष्टि रहती है।
    भाषाशैली को अधिक व्यंजक, मार्मिक और चमत्कारपूर्ण बनाने में भी कल्पना ही काम करती है। कल्पना की सहायता यहाँ पर भाषा की लक्षणा और व्यंजना नाम की शक्तियाँ करती हैं। लक्षणा के सहारे ही कवि ऐसी भाषा का प्रयोग बेधड़क कर जाते हैं जैसी सामान्य व्यवहार में नहीं सुनाई पड़ती। ब्रजभाषा के कवियों में घनानंद इस प्रसंग में सबसे अधिक उल्लेखयोग्य हैं। भाषा को वे इतनी वशवर्तिनी समझते थे कि अपनी भावना के साथ उसे जिधर चाहते थे उधर बेधड़क मोड़ते थे। कुछ उदाहरण लीजिए-
    (1) अरसानि गही वह बानि कछू सरसानि सों आनि निहोरत है।
    (2) ह्नै है सोऊ घरी भाग उघरी अनंदघन,
        सुरस बरसि, लाल, देखिहौ हमै हरी।
    (3) उघरो जग, छाय रहे 'घनआनंद' चातक ज्यों तकिए अब तौ।
    (4) मिलत न केहूँ भर राबरी अमितलाई
        हिये ये किये विसाल जे विछोह छत हैं।
    (5) भूलनि चिन्हारि दोऊ है न हो हमारे ताते,
        बिसरनि रावरी हमै लै बिसरति है।
    (6) उजरनि बसी है हमारी अँखिआनि देखौ,
        सुबस सुदेश जहाँ भावत बसंत हौ।
    ऊपर के उद्धरणों के रेखांकित स्थलों में भाषा की मार्मिक वक्रता एक-एक करके देखिए। (1) बानि धीमी या शिथिल पड़ गई कहने में उतनी व्यंजना न दिखाई पड़ी अत: कवि ने कृष्ण का आलस्य न कहकर उनकी बानि (आदत) का आलस्य करना कहा। (2) अपने को खुले भाग्यवाली न कहकर नायिका ने उस घड़ी को खुले भाग्यवाली कहा, इससे सौभाग्यदशा एक व्यक्ति ही तक न रहकर उस घड़ी के भीतर संपूर्ण जगत् में व्याप्त प्रतीत हुई। विशेषण के इस विपर्यय से कितनी व्यंजकता आ गई! (3) मेघ का छाना और उघड़ना तो बराबर बोला जाता है, पर कवि ने मेघ के छाए रहने और श्रीकृष्ण के ऑंखों में छाए रहने के साथ-ही-साथ जग का उघड़ना (खुलना, तितर-बितर होना या तिरोहित होना) कह दिया जिसका लक्ष्यार्थ हुआ जगत् के फैले हुए प्रपंच का ऑंखों के सामने से हट जाना, चारों ओर शून्य दिखाई पड़ना। (4) कृष्ण की अमिलताई (न मिलना) हृदय के घाव में भी भर गई है जिससे उसका मुँह नहीं मिलता और वह नहीं पूजता। भरा भी रहना और न भरना या पूजना में विरोध का चमत्कार भी है। (5) हम कभी-कभी आत्मविस्मृत हो जाते हैं; इससे जान पड़ता है कि आप हमें लिए दिए भूलते हैं अर्थात् उधर आप हमें भूलते हैं, इधर हमारी सत्ता ही तिरोहित हो जाती है। (6) हमारी ऑंखों के सामने उजाड़ बसा है अर्थात् ऑंखों के सामने शून्य दिखाई पड़ता है। इसमें भी विरोध का चमत्कार अत्यंत आकर्षक है।
    आजकल हमारी वर्तमान काव्यधारा की प्रवृत्ति इसी प्रकार की लाक्षणिक वक्रता की ओर विशेष है। यह अच्छा लक्षण है। इसके द्वारा हमारी भाषा की अभिव्यंजना शक्ति के प्रसार की बहुत कुछ आशा है। श्री सुमित्रानंदन पंत की रचना से कुछ उदाहरण लेकर देखिए-
    (1) धूलि की ढेरी में अनजान। छिपे हैं मेरे मधुमय गान।
    (2) रुदन, क्रीड़ा, आलिंगन।
        शशि की सी ये कलित कलाएँ किलक रही हैं पुर पुर में।
    (3) मर्म पीड़ा के हास।
    (4) अहह! यह मेरा गीला गान।
    (5) तड़ित सा, सुमुखि! तुम्हारा ध्‍यान
       प्रभा के पलक मार, उर चीर
       गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर।
    (6) लाज में लिपटी उषा समान।
    घनानंद की वाग्विशेषताओं को ध्‍यान  में रखते हुए अब ऊपर के उद्धरणों के रेखांकित प्रयोगों की लाक्षणिक प्रक्रिया देखिए-
    (1) धूलि की ढेरी=तुच्छ या असार कहा जानेवाला संसार। मधुमय गान=मधुमय गान के विषय=मधुर  और सुंदर वस्तुएँ। (2) कलाएँ किलक रही हैं=जोर से हँस रही हैं=आनंद का प्रकाश कर रही हैं। (3) पीड़ा के हास=पीड़ा का विकास या प्रसार (विरोध का चमत्कार)। (4) गीला गान=आर्द्र हृदय या अश्रुपूर्ण व्यक्ति की वाणी (सामान्य) कथन में जो गुण व्यक्ति का कहा जाता है वह गान का कहा गया; (विशेषण विपर्यय)। (5) प्रभा के पलक मार=पल-पल पर चमककर। गूढ़ गर्जन=छिपी हुई हृदय की धड़कन। (6) लाज=लज्जा से उत्पन्न ललाई।
    इन प्रयोगों का आधार या तो किसी-न-किसी प्रकार की साम्य भावना है अथवा किसी वस्तु का उपलक्षण या प्रतीक के रूप में ग्रहण। दोनों बातें कल्पना ही के द्वारा होती हैं। उपलक्षणों या प्रतीकों का एक प्रकार का चुनाव है जो मूर्तिमत्त, मार्मिकता या आतिशय्य आदि की दृष्टि से होता है-जैसे, शोक या विषाद के स्थान पर अश्रु, हर्ष और आनंद के स्थान पर हास, प्रिय-प्रेमी के लिए मुकुल-मधुप, यौवन काल या संयोग काल के लिए मधुमास, शुभ्र के स्थान पर रजत या हंस, दीप्त के स्थान पर स्वर्ण इत्यादि। यह सारा व्यवसाय कल्पना ही का है।
    काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिए अनिवार्य है। काव्य की कोई उक्ति कान में पड़ते समय जब काव्यवस्तु के साथ-साथ वक्ता या बोद्धव्य पात्र की कोई मूर्त भावना भी खड़ी रहती है तभी पूरी तन्मयता प्राप्त होती है।
    प्रत्यक्ष रूपविधान के उपादान से ही कल्पित रूपविधान होता है। जन्मांध अपने मन में स्पष्ट रूपविधान नहीं कर सकते। जिस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूति से कलानुभूति या काव्यानुभूति को एकदम अलग कहने की चाल योरप में चली उसी प्रकार प्रत्यक्ष रूपविधान से कल्पित रूपविधान को असम्बद्ध घोषित करने की रूढ़ि प्रतिष्ठित हुई। 'कल्पना' की एक निराली दुनिया कही जाने लगी और कवि लोग दूसरी सृष्टि बनानेवाले विश्वामित्र हुए। पर थोड़ा विचार करने पर यह उक्ति स्तुतिपरक ही ठहरती है। सारे वर्ण, सारी रूपरेखाएँ जिनसे कल्पित मूर्तिविधान  होता है बाह्य जगत् के प्रत्यक्ष बोध से प्राप्त हुई हैं। हम मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, तृण, गुल्म, नदी, पर्वत, भूमि, चट्टान इत्यादि देखी हुई वस्तुओं के अतिरिक्त वस्तुओं की कल्पना नहीं कर सकते। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई (या गहराई) के अतिरिक्त और विस्तार मन में नहीं ला सकते। हम इतना ही कर सकते हैं कि चार मुँहवाले मनुष्य की कल्पना करें, सोने के पंखवाले पक्षी उड़ाएँ, मरकत, पद्मराग की प्रभावाले पेड़ खड़े करें, सोने की रेत पर चाँदी की धारा बहाएँ; माणिक्य और नीलम की चट्टानें बिछाएँ। पर असली ढाँचे मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, रेत, नदी, चट्टान आदि के ही रहेंगे, उनमें रंग, रूप चाहे जैसे भरें। ऐसी दशा में यह कहना कि प्रत्यक्ष रूपविधान से कवि के काल्पनिक रूपविधान का कोई संबंध नहीं, बात बनाना ही माना जायगा।
    इन ढाँचों को लेकर हम विलक्षण रंगरूप की वस्तुएँ खड़ी कर सकते हैं, पर यह स्पष्ट समझ रखना चाहिए कि उन वस्तुओं का रूपरंग प्रकृति से जितना ही दूर घसीटा जायगा उतनी ही वे वस्तुएँ कल्पना में कम देर तक टिकेंगी। घोड़े के मुँहवाले किन्नर, पुखराज की चट्टानों और सोने की रेत के बीच से बहती हुई नदियाँ, आग के बने हुए शरीर एक क्षण के लिए मन में आ सकते हैं; पर सोने की चिड़ियाँ की तरह चट उड़ जायँगे। पर जैसा कि मैं अपने अन्य प्रबन्धों में दिखा चुका हूँ, हृदय के मर्म को स्पर्श करने के लिए, सच्ची और गहरी अनुभूति उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है कि कल्पना में आई हुई वस्तुएँ कुछ देर टिकें, मन उनका बिम्बग्रहण कुछ काल तक किए रहे।
    काव्यभूमि जीवन से, जगत् से परे नहीं है। वह वस्तुव्यापार योजना जो केवल विलक्षणता, नवीनता या अलौकिकता दिखाने के लिए की जाएगी, जिसमें जगत् या जीवन का कोई मार्मिक पक्ष, गंभीर या साधारण, व्यक्त होता न दिखाई पड़ेगा, वह काव्य का ठीक लक्ष्य पूरा न कर सकेगी।

प्रस्तुत रूपविधान

कल्पित रूपविधान दो प्रकार का होता है-
    (1) प्रस्तुत रूपविधान और
    (2) अप्रस्तुत रूपविधान ।

    यह प्रस्तुत रूपविधान हमारे पुराने आचार्यों का विभाव पक्ष1 है जिसके अंतर्गत आलम्बन और उद्दीपन दोनों हैं। विचार करने से उद्दीपन दो प्रकार के निकलेंगे-आलम्बनगत और आलम्बन से बाहर के। यहाँ पर हम प्रस्तुत रूपविधान का आलम्बन की दृष्टि से ही विचार करेंगे। इस विचार में आलम्बनगत या आलम्बन से बाहर, पर आलम्बन से लगाव रखनेवाली वस्तुएँ भी आ सकती हैं। आलम्बन से हमारा अभिप्राय केवल रसग्रन्थों में गिनाए आलम्बनों से नहीं, उन सब वस्तुओं और व्यापारों से है जिनके प्रति हमारे मन में किसी भाव का उदय होता है। जैसे, यदि कहीं कवि प्रकृति के किसी रमणीय खंड का वर्णन पूरी तन्मयता के साथ, पूरा ब्योरा देते हुए करता है तो वहाँ वह दृश्य या प्रकृति ही आलम्बन होगी। अपने पूर्वप्रबन्‍धों 2 और समीक्षाओं में मैं यह दिखा चुका हूँ कि प्रकृति का वर्णन दोनों रूपों में हो सकता है-आलम्बन के रूप में भी, उद्दीपन के रूप में भी। कुमारसम्भव के आरंभ का हिमालयवर्णन, मेघदूत का नाना प्रदेश वर्णन आलम्बन के रूप में ही समझना चाहिए। ऋतुसंहार में दिया हुआ प्रकृतिवर्णन उद्दीपन के रूप में है। एक ही कवि कालिदास ने प्रकृति का आलम्बन के रूप में भी वर्णन किया है और उद्दीपन के रूप में भी। आलम्बनके
 
1. विभाव पक्ष के अंतर्गत वस्तुएँ दो रूपों में लाई जाती हैं-वस्तुरूप में और अलंकाररूप में, अर्थात् प्रस्तुतरूप में और अप्रस्तुत रूप में। मान लीजिए कि कोई कवि कृष्ण का वर्णन कर रहा है। पहले वह कृष्ण के श्याम या नील वर्ण शरीर को, उसपर पड़े हुए पीतांबर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोरमुकुट आदि को सामने रखता है। यह विन्यास वस्तुरूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुनातट, निकुंज की लहराती लताओं, चंद्रिका, कोकिलकूजन आदि का होगा। इनके साथ ही यदि कृष्ण के शोभा वर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है तो यह विन्यास अलंकाररूप में होगा।
2. देखिए 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य', निबंध।
रूप में जिस वस्तु का ग्रहण होता है भाव उसी के प्रति होता है; उद्दीपन के रूप में जिसका ग्रहण होता है भाव उसके प्रति नहीं रहता, किसी अन्य के प्रति रहता है।
    उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कोरा प्रकृतिवर्णन भी रसात्मक होता है। आलम्बनमात्र का वर्णन भी बराबर रसात्मक होता है इस बात को पुराने आचार्यों ने भी स्वीकार किया है-
सद्भावश्चेद्विभावादेर्द्वयोरेकस्य  वा भवेत्।
झटित्यन्यसमाक्षेपे  तथा दोषो न विद्यते।
-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, 17।
    इसके उदाहरण में जो पद्य दिया गया है वह मालविका के अंगप्रत्यंग का तन्मयता के साथ किया हुआ वर्णन मात्र है।1 इतने ब्योरे के साथ वर्णन करने की प्रवृत्ति में ही वर्णनकर्ता के मन में सौंदर्य के प्रभाव, औत्सुक्य आदि का आभास मिलता है। इसी प्रकार ऑंखें फाड़-फाड़कर देखने आदि अनुभावों का आक्षेप भी हो जाता है और रतिभाव की भी व्यंजना हो जाती है। यही बात कोरे प्रकृतिवर्णन में भी समझिए।
    पाश्चात्य समीक्षकों ने 'कल्पना' का ऐसा पल्ला पकड़ा कि उन्होंने कल्पित रूपविधान को ही एक प्रकार से काव्य का लक्ष्य ठहराया। हमारे यहाँ काल्पनिक रूपविधान साधन की कोटि में रखा गया है; साध्‍य वस्तु रसानुभूति ही रखी गई है। भारतीय काव्यदृष्टि के अनुसार कवि की कल्पना भावों की प्रेरणा से ही रूपविधान में प्रवृत्त होती है और श्रोता या पाठक की कल्पना उस रूपविधान को ग्रहण कर भावों को जगाती है। जो रूपयोजना कवि के मन में कार्यरूप में रहती है वही श्रोता या पाठक के अन्तस् में जाकर कारणरूप हो जाती है। अत: कल्पना की वही रूपयोजना काव्य के अंतर्गत आ सकती है जो श्रोता या पाठक के मन में कोई भाव जगाने में समर्थ हो, भाव जगाने में वही रूपयोजना समर्थ होगी जो जगत् या जीवन का कोई गूढ़ या मार्मिक तथ्य सामने लाएगी, जो विश्‍व के किसी अनुरंजनकारी, क्षोभकारी या विस्मयकारी विधान का चित्र  होगी।
    यदि हम किसी कारखाने का पूरे ब्योरे के साथ वर्णन करें, उसमें मजदूर किस व्यवस्था के साथ क्या-क्या काम करते हैं ये सब बातें अच्छी तरह सामने रखें तो ऐसे वर्णन से किसी व्यवसायी का ही काम निकल सकता है, काव्यप्रेमी के हृदय
 
1. दीर्घांक्षंशरदिन्दुकान्ति वदनं बाहू नतावंसयो:
   संक्षिप्तं निबिडोन्नतस्तनमुर: पार्श्वे प्रमृष्टे इव।
   मध्‍य: पाणिमितो नितम्बि जघनं पादावरालाङ्गुली,
   छन्दोनर्तयितुर्यथैव मानस: श्लिष्टं तथास्या वपु:।
-मालविकाग्निमित्र, 2-3।
पर कोई प्रभाव न होगा। बात यह है कि ये सब विधान जीवन के मूल और सामान्य स्वरूप से बहुत दूर के हैं। पर यदि हम उसी कारखाने के पास बने हुए मजदूरों के झोपड़ों के भीतर के जीवन का चित्रण करें, रोटी के लिए झगड़ते हुए कृशकाय बच्चों पर झल्लाती हुई माँ का दृश्य सामने लाएँ तो कविकर्म में हमारे वर्णन का उपयोग हो सकता है।
    अब यहाँ पर काव्य और सभ्यता के संबंध का सवाल सामने आता है। सभ्यता का स्वरूप उत्तरोत्तर बदलता चला आ रहा है। आज से सौ वर्ष पहले उसका जो स्वरूप था वह आज नहीं है, आज जो उसका स्वरूप है वह पचास वर्ष पीछे न रहेगा। अब विचारणीय यह है कि क्या कविता को भी सभ्यता का एक अंग होकर आज कुछ और कल कुछ और होते हुए चलना चाहिए अथवा सभ्यता के बाहरी और भीतरी दोनों स्वरूपों को बाह्य आवरण के रूप में रखकर एकरस धारा के रूप में चलना चाहिए। हमारा कहना है कि दूसरा मार्ग ही सच्ची कविता का मार्ग हो सकता है। सभ्यता के साथ-साथ वह चलेगी पर उसी का एक विधान होकर नहीं। वह अपनी मूल सत्ता स्वतंत्र रखेगी, किसी काल की सभ्यता की नकल करना, केवल नवीनता दिखाने के लिए पुरानी से भिन्न लगने वाली बातें खड़ी करना; रेल, तार, हवाईजहाज, क्लब, सिनेमा इत्यादि का उल्लेख कर देना ही आधुनिक कविता करना नहीं कहा जा सकता। आधुनिक सभ्यता ने जो नई-नई वस्तुएँ प्रस्तुत की हैं; उनके संबंध में हमारा अपना विचार तो यही है कि उनके वर्णन में स्वत: कोई रागात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति कई शताब्दियों तक न आएगी। यह हो सकता है कि चलित जीवन के साथ उनके घनिष्ठता के साथ मिलते जाने से परिस्थिति के चित्रों में वे कभी-कभी दिखाई पड़ा करेंगी, पर प्राय: उदासीन रहेंगी, रसप्रक्रिया में कोई योग न देंगी। इन वस्तुओं का काव्य में बहुत दिनों तक वही स्थान रहेगा जो हमारे यहाँ के आचार्यों ने सरस वाक्यों के भीतर नीरस वाक्यों का बताया है।1
    अँगरेजी कविता में रेलगाड़ी और अगिनबोट की पहले-पहल चर्चा करनेवाले कवि वर्ड्सवर्थ थे। इनको कविता के भीतर घुसने का पास उन्होंने कुछ हिचकते हुए, अपने मन को बहुत कुछ समझाते-बुझाते हुए दिया था।
    'हे पृथ्वी और समुद्र की गति और साधन! तुम हमारी पुरानी रसभावना के साथ मेल नहीं खाते हो, पर अब यह न होगा कि तुम इस कारण अनुपयुक्त समझे जाओ। तुम्हारी उपस्थिति चाहे प्रकृति की रमणीयता को कितना ही भ्रष्ट करे पर मन को भविष्य के हेरफेर का ऐसा आगम ज्ञान, दृष्टि की वह सीधा, प्राप्त करने में बाधा
 
1. रसवत्पद्यान्तर्गतनीरसपदानामिव पद्यरसेन प्रबन्धरसेनैव तेषां रसवत्ताक्षीकारात्।-साहित्यदर्पण, प्रथम परिच्छेद।
न देगी जिससे यह खुले कि तुम तत्‍वत: हो क्या'।1
    पीछे टेनिसन (Tennyson) और ब्राउनिंग (Browning) आदि कई कवि कविता में रेलगाड़ी लाए पर असली कविता के रंग में नहीं-कुतूहल या विनोद के रंग में। केवल एमिली डिकिंसन (Emily Dickinson) ने उनको प्रेम का थोड़ा बहुत आलम्बन बनाया। राबर्ट निकोल्स (Robert Nickols), सिटवेल (Sacheverell Sitwell) आदि आजकल के कवियों ने जीवन की एक सामान्य वस्तु मानकर उसका कुछ ब्योरे के साथ वर्णन किया है।
    लारा राइडिंग (Laura Riding) और राबर्ट ग्रेव्ज (Robert Graves) ने आजकल होनेवाली अँगरेजी कविता पर जो पुस्तक (A Servey of Modernist Poetry) लिखी है उसमें आधुनिक सभ्यता और कविता के संबंध में यह मत प्रकट किया है कि वही आधुनिक कविता कविता होगी जिसमें जानबूझकर आधुनिकता का रंग न चढ़ाया गया होगा, जिसकी रचना यह समझकर न होगी कि आधुनिक सभ्यता के क्या-क्या अनुरोध हैं, क्या-क्या बातें लाई जायँ जिससे वह आधुनिक लगे। ऐसी कविता एक साथ ही पुरानी भी होगी और नई भी। एक ओर तो उसकी प्रकृति के भीतर काव्य अपने सत्य सर्वकालव्यापी स्वरूप में स्थित रहेगा दूसरी ओर वह आधुनिक जीवन और सभ्यता के मेल में होगी।2
 
1.  Motion and Means on land and sea at war
      With old poetic feeling, not for this
      Shall ye, by poets even, be judged amiss
      Nor Shall your presence, howsoe'er it mar
      The loveliness of Nature, prove a bar
      To the mind's gaining that prophetic sense
      Of future change, that point of vision, whence
      May be discovred what in soul ye are.
2.  The modernist poetry can appear equally at all stages of historical development from Wordsworth to Miss Moor. And it does appear when the poet forget’s what is the correct literary conduct demanded of him in relation to contemporary institutions (with civilization speaking through criticism) and can write a poem having the power of survival inspite of its disregarding these demands, a poem of purity–of a certain old fashionedness of reaction against the time to archaism or of retreat to nature and the primitive passions. All poetry that deserves to endure is at once old fashioned and modernist.
  ×××
      The relation of a poet’s poetry to Poetry as a whole and to the time in which it is written is the problem of critcism; and if this problem becomes part of the making of a poem, it adds to the unconscious consciousness of the poet when he is in the act of composition, an alieu element–a conscious consciousness what we may call the ‘historical effort’.
—A survey of modernist poetry
    'कल्पना' और 'व्यक्तित्व' की, पाश्चात्य समीक्षाक्षेत्र में इतनी अधिक मुनादी हुई कि काव्य के और सब पक्षों से दृष्टि हटकर इन्हीं दो पर जा जमी। 'कल्पना' काव्य का बोधपक्ष है। कल्पना में आई हुई रूपव्यापार योजना का कवि या श्रोता को अंत:साक्षात्कार या बोध होता है। पर इस बोधपक्ष के अतिरिक्त काव्य का भावपक्ष भी है। कल्पना को रूपयोजना के लिए प्रेरित करनेवाले और कल्पना में आई हुई वस्तुओं में श्रोता या पाठक को रमानेवाले रति, करुणा, क्रोध, उत्साह, आश्चर्य इत्यादि भाव या मनोविकार होते हैं। इसी से भारतीय दृष्टि ने भावपक्ष को प्रधानता  दी और रस के सिद्धांत की प्रतिष्ठा की। पर पश्चिम में 'कल्पना' 'कल्पना' की पुकार के सामने धीरे-धीरे समीक्षकों का ध्‍यान भावपक्ष से हट गया और बोधपक्ष ही पर भिड़ गया। काव्य की रमणीयता उस हल्‍के आनंद के रूप में ही मानी जाने लगी जिस आनंद के लिए हम नई-नई, सुंदर, भड़कीली और विलक्षण वस्तुओं को देखने जाते हैं। इस प्रकार कवि तमाशा दिखानेवाले के रूप में और श्रोता या पाठक तटस्थ तमाशबीन के रूप में समझे जाने लगे। केवल देखने का आनंद कुछ विलक्षण को देखने का कुतूहल मात्र होता है।
    'कल्पना' और 'व्यक्तित्व' पर एकदेशीय दृष्टि रखकर पश्चिम में कई प्रसिद्ध 'वादों' की इमारतें खड़ी हुईं। इटली निवासी क्रोसे (Benedetto Croce) ने अपने 'अभिव्यंजनावाद' के निरूपण में बड़े कठोर आग्रह के साथ कला की अनुभूति को ज्ञान या बोधस्वरूप ही माना है। उन्होंने उसे स्वयंप्रकाश ज्ञान (Intuition)-प्रत्यक्ष ज्ञान तथा बुद्धि व्यवसायसिद्ध या विचारप्रसूत ज्ञान से भिन्न केवल कल्पना में आई हुई वस्तुव्यापार योजना का ज्ञान मात्र माना है। वे इस ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान और विचारप्रसूत ज्ञान दोनों से सर्वथा निरपेक्ष,स्वतंत्र और स्वत: पूर्ण मानकर चले हैं। वे इस निरपेक्षता को बहुत दूर तक घसीट ले गए हैं। भावों या मनोविकारों तक को उन्होंने काव्य की उक्ति का विधायक अवयव नहीं माना है। पर न चाहने पर भी अभिव्यंजना या उक्ति के अनभिव्यक्त पूर्व रूप में भावों की सत्ता उन्हें स्वीकार करनी पड़ी है। उससे अपना पीछा वे छुड़ा नहीं सके हैं।1
    काव्यसमीक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति की ऐसी दीवार खड़ी हुई, 'विशेष' के स्थान पर सामान्य या विचारसिद्ध ज्ञान के आ घुसने का इतना डर समाया कि कहीं-कहीं आलोचना भी काव्यरचना के ही रूप में होने लगी। कला की कृति की परीक्षा के लिए विवेचनपद्धति का त्याग-सा होने लगा। हिंदी की मासिक पत्रिकाओं में समालोचना
 
1.  Matter is emotivity nor aesthetically elaborated i.e. imprression. Form is elaboration and expression × × × Sentiments or impressions pass by means of words from the obscure region of the soul into the clarity of the contemplative spirit.
—‘Aesthetics.’
के नाम पर आजकल जो अद्भुत और रमणीय शब्दयोजना मात्र कभी-कभी देखने में आया करती है वह इसी पाश्चात्य प्रवृत्ति का अनुकरण है।
    पर यह भी समझ रखना चाहिए कि काव्य का विषय सदा 'विशेष' होता है, 'सामान्य' नहीं; वह 'व्यक्ति' सामने लाता है, 'जाति' नहीं। यह बात आधुनिक कलासमीक्षा के क्षेत्र में पूर्णतया स्थिर हो चुकी है। अनेक व्यक्तियों के रूप-गुण आदि में विवेचन द्वारा कोई वर्ग या जाति ठहराना, बहुत-सी बातों को लेकर कोई सामान्य सिद्धांत प्रतिपादित करना, यह सब तर्क और विज्ञान का काम है-निश्चयात्मिक, बुद्धि का व्यवसाय है। काव्य का काम है कल्पना में बिंब (Images) या मूर्त भावना उपस्थित करना; बुद्धि के सामने कोई विचार (Concept) लाना नहीं। 'बिंब' जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा; सामान्य या जाति का नहीं।1
    इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि शुद्ध काव्य की शक्ति सामान्य तथ्य या सिद्धांत के रूप में नहीं होती। कविता वस्तुओं या व्यापारों का बिंब ग्रहण कराने का प्रयत्न करती है। अर्थग्रहण मात्र से उसका काम नहीं चलता। बिंबग्रहण जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा सामान्य या जाति का नहीं। जैसे, यदि कहा जाय कि 'क्रोध में मनुष्य बावला हो जाता है' तो यह काव्य की उक्ति न होगी। काव्य की उक्ति तो किसी क्रुद्ध मनुष्य के उग्र वचनों और उन्मत्त चेष्टाओं को कल्पना में उपस्थित भर कर देगी। कल्पना में जो कुछ उपस्थित होगा वह व्यक्ति या वस्तु विशेष ही होगा। सामान्य या 'जाति' की तो मूर्त भावना हो ही नहीं सकती।2
 
1. अभिव्यंजनावाद (Expressionism) के प्रवर्तक क्रोसे (Benedetto Croce) ने कला के बोधपक्ष और तर्क के बोधपक्ष को इस प्रकार अलग-अलग दिखाया है-(क) Intutive knowledge, knowledge obtained through the imagination, knowledge of the individual or of individul things, (ख) Logical knowledge, knowledge obtained through the intellect, knowledge of the universal,' knowledge of the relations between individual things.       —Aeshetics by Benedetto Croce.
2. साहित्यशास्त्र में नैयायिकों की बातें ज्‍यों-की-त्यों ले लेने से काव्य के स्वरूपनिर्णय में जो बाधा पड़ी है उसका एक उदाहरण 'संकेतग्रह' का प्रसंग है। उसके अंतर्गत कहा गया है कि संकेतग्रह 'व्यक्ति' का नहीं होता है, 'जाति' का होता है। तर्क में भाषा के संकेत मात्र (Symbolic aspect) से ही काम चलता है जिसमें अर्थग्रहण मात्र पर्याप्त होता है। अत: न्याय में तो जाति का संकेतग्रह कहना ठीक है पर काव्य में भाषा के प्रत्यक्षीकरण पक्ष (Presentative aspect) से काम लिया जाता है जिसमें शब्द द्वारा सूचित वस्तु का बिम्बग्रहण होता है अर्थात् उसकी मूर्ति कल्पना में खड़ी हो जाती है। काव्यमीमांसा के क्षेत्र में न्याय का यह हाथ बढ़ाना डॉक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण को भी खटका है। उन्होंने कहा है-It is however, to be regretted that during the last 500 years the Nyaya has been mixed up with Law Rhetaric etc. and thereby has hampered the growth of those branches of knowleqe upon which it has grown up as a sort of parasite. —Introduction (The Nyaya Sutras)
    अब यह देखना चाहिए कि हमारे यहाँ विभावन व्यापार में जो 'साधारणीकरण' कहा गया है उसके विरूद्ध तो यह सिद्धांत नहीं जाता। विचार करने पर स्पष्ट हो जायगा कि दोनों में कोई विरोध नहीं पड़ता। विभावादिक साधारणतया प्रतीत होते हैं, इस कथन का अभिप्राय यह नहीं है कि रसानुभूति के समय श्रोता या पाठक के मन में आलम्बन आदि विशेष व्यक्ति या विशेष वस्तु की मूर्त भावना के रूप में न आकर सामान्यत: व्यक्ति मात्र या वस्तु मात्र (जाति) के अर्थसंकेत के रूप में आते हैं। 'साधारणीकरण' का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष आती है वह जैसे काव्य में वर्णित 'आश्रय' के भाव का आलम्बन होती है वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलम्बन हो जाती है। जिस व्यक्तिविशेष के प्रति किसी भाव की व्यंजना कवि या पात्र करता है, पाठक या श्रोता की कल्पना में वह व्यक्तिविशेष ही उपस्थित रहता है। हाँ, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पाठक या श्रोता की मनोवृत्ति या संस्कार के कारण वर्णित व्यक्ति विशेष के स्थान पर कल्पना में उसी के समान धर्मवाली कोई मूर्तिविशेष आ जाती है। जैसे, यदि किसी पाठक या श्रोता का किसी सुंदरी से प्रेम है तो श्रृंगार रस की फुटकल उक्तियाँ सुनने के समय रह-रहकर आलम्बन रूप में उसकी प्रेयसी की मूर्ति ही उसकी कल्पना में आएगी। यदि किसी से प्रेम न हुआ तो सुंदरी की कोई कल्पित मूर्ति उसके मन में आएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कल्पित मूर्ति भी विशेष ही होगी-व्यक्ति की ही होगी।
    कल्पना में मूर्ति तो विशेष ही की होगी, पर वह मूर्ति ऐसी होगी जो प्रस्तुत भाव का आलम्बन हो सके, जो उसी भाव को पाठक या श्रोता के मन में भी जगाए जिसकी व्यंजना आश्रय अथवा कवि करता है। इससे सिद्ध हुआ कि साधारणीकरण आलम्बनत्व धर्म का होता है। व्यक्ति तो विशेष ही रहता है। पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती है जिसके साक्षात्कार से सब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा या बहुत होता है। तात्पर्य यह कि आलम्बन रूप में प्रतिष्ठित व्यक्ति, समान प्रभाववाले कुछ धर्मों की प्रतिष्ठा के कारण, सबके भावों का आलम्बन हो जाता है। विभावादि सामान्य रूप में प्रतीत होते हैं-इसका तात्पर्य यही है कि रसमग्न पाठक के मन में यह भेदभाव नहीं रहता कि यह आलम्बन मेरा है या दूसरे का। थोड़ी देर के लिए पाठक या श्रोता का हृदय लोक का सामान्य हृदय हो जाता है। उसका अपना अलग हृदय नहीं रहता।
    'साधारणीकरण' के प्रतिपादन में पुराने आचार्यों ने श्रोता (या पाठक) और आश्रय (भावव्यंजना करनेवाला पात्र) के तादात्म्य की अवस्था का ही विचार किया है जिसमें आश्रय किसी काव्य नाटक के पात्र के रूप में आलम्बनरूप किसी दूसरे पात्र के प्रति किसी भाव की व्यंजना करता है और श्रोता (या पाठक) उसी भाव का रसरूप में अनुभव करता है। पर रस की एक नीची अवस्था और है जिसका हमारे यहाँ के साहित्य ग्रन्थों में विवेचन नहीं हुआ है। उसका भी विचार करना चाहिए। किसी भाव की व्यंजना करनेवाला, कोई क्रिया या व्यापार करनेवाला पात्र भी शील की दृष्टि से श्रोता (या दर्शक) के किसी भाव का जैसे श्रद्धा, भक्ति, घृणा, रोष, आश्चर्य, कुतूहल या अनुराग का-आलम्बन होता है। इस दशा में श्रोता या दर्शक का हृदय उस पात्र के हृदय से अलग रहता है-अर्थात् श्रोता या दर्शक उसी भाव का अनुभव नहीं करता जिसकी व्यंजना पात्र अपने आलम्बन के प्रति करता है, बल्कि व्यंजना करनेवाले उस पात्र के प्रति किसी और ही भाव का अनुभव करता है। यह दशा भी एक प्रकार की रसदशा ही है-यद्यपि इसमें आश्रय के साथ तादात्म्य और उसके आलम्बन का साधारणीकरण नहीं रहता। जैसे, कोई क्रोधी या क्रूर प्रकृति का पात्र यदि किसी निरपराध या दीन पर क्रोध की प्रबल व्यंजना कर रहा है तो श्रोता या दर्शक के मन में क्रोध का रसात्मक संचार न होगा; बल्कि क्रोध प्रदर्शित करनेवाले उस पात्र के प्रति अश्रद्धा, घृणा आदि का भाव जगेगा। ऐसी दशा में आश्रय के साथ तादात्म्य या सहानुभूति न होगी, बल्कि श्रोता या पाठक उक्त पात्र के शीलद्रष्टा या प्रकृतिद्रष्टा के रूप में प्रभाव ग्रहण करेगा और यह प्रभाव भी रसात्मक ही होगा। पर इस रसात्मकता के प्रभाव को हम मध्‍यम कोटि की ही मानेंगे।
    जहाँ पाठक या दर्शक किसी काव्य या नाटक में सन्निविष्ट पात्र या आश्रय के शीलद्रष्टा के रूप में स्थित होता है वहाँ भी पाठक या दर्शक के मन में कोई-न-कोई भाव थोड़ा बहुत अवश्य जगा रहता है; अंतर इतना ही पड़ता है कि उस पात्र का आलम्बन पाठक या दर्शक का आलम्बन नहीं होता, बल्कि वह पात्र ही पाठक या दर्शक के किसी भाव का आलम्बन रहता है : इस दशा में भी एक प्रकार का तादात्म्य और साधारणीकरण होता है। तादात्म्य कवि के उस अव्यक्त भाव के साथ होता है जिसके अनुरूप वह पात्र का स्वरूप संघटित करता है। जो स्वरूप कवि अपनी कल्पना में लाता है उसके प्रति उसका कुछ-न-कुछ भाव अवश्य रहता है। वह उसके किसी भाव का आलम्बन अवश्य होता है। अत: पात्र का स्वरूप कवि के जिस भाव का आलम्बन रहता है, पाठक या दर्शक के भी उसी भाव का आलम्बन प्राय: हो जाता है। जहाँ कवि किसी वस्तु (जैसे-हिमालय, विंधयाटवी) या व्यक्ति का केवल चित्रण करके छोड़ देता है वहाँ कवि ही आश्रय के रूप में रहता है। उस वस्तु या व्यक्ति का चित्रण वह उसके प्रति कोई भाव रखकर ही करता है। उसी के भाव के साथ पाठक या दर्शक का तादात्म्य रहता है; उसी का आलम्बन पाठक या दर्शक का आलम्बन हो जाता है।
    आश्रय की जिस भावव्यंजना को श्रोता या पाठक का हृदय कुछ भी अपना न सकेगा उसका ग्रहण केवल शीलवैचित्रय के रूप में होगा और उसके द्वारा घृणा, विरक्ति, अश्रद्धा, क्रोध, आश्चर्य, कुतूहल इत्यादि में से ही कोई भाव उत्पन्न होकर अपरितुष्ट दशा में रह जायगा। उस भाव की तुष्टि तभी होगी जब कोई दूसरा पात्र आकर उसकी व्यंजना वाणी और चेष्टा द्वारा उस बेमेल या अनुपयुक्त भाव की व्यंजना करनेवाले प्रथम पात्र के प्रति करेगा। इस दूसरे पात्र की भावव्यंजना के साथ श्रोता या दर्शक की पूर्ण सहानुभूति होगी। अपरितुष्ट भाव की आकुलता का अनुभव प्रबन्धकाव्यों, नाटकों और उपन्यासों के प्रत्येक पाठक को थोड़ा बहुत होगा। जब कोई असामान्य दुष्ट अपनी मनोवृत्ति की व्यंजना किसी स्थल पर करता है तब पाठक के मन में बार-बार यही आता है कि उस दुष्ट के प्रति उनके मन में जो घृणा या क्रोध है उनकी भरपूर व्यंजना वचन या क्रिया द्वारा कोई पात्र आकर करता। क्रोधी परशुराम तथा अत्याचारी रावण की कठोर बातों का जो उत्तर लक्ष्मण और अंगद, देते हैं उससे कथा श्रोताओं की अपूर्व तुष्टि होती है।
    इस संबंध में सबसे ध्‍यान  देने की बात यह है कि शीलविशेष के परिज्ञान से उत्पन्न भाव की अनुभूति और आश्रय के साथ तादात्म्य दशा की अनुभूति (जिसे आचार्यों ने रस कहा है) दो भिन्न कोटि की रसानुभूतियाँ हैं। प्रथम में श्रोता या पाठक अपनी पृथक् सत्ता अलग सँभाले रहता है, द्वितीय में अपनी पृथक् सत्ता का कुछ क्षणों के लिए विसर्जन कर आश्रय की भावात्मक सत्ता में मिल जाता है। उदात्त वृत्तिवाले आश्रय की भावव्यंजना में भी यह होगा कि जिस समय तक पाठक या श्रोता तादात्म्य की दशा में पूर्ण रसमग्न रहेगा उस समय तक भावव्यंजना करनेवाले आश्रय को अपने से अलग रखकर उसके शील आदि की ओर दत्तचित्त न रहेगा। उस दशा के आगे पीछे ही वह उसकी भावनात्मक सत्ता से अपनी भावात्मक सत्ता को अलग कर उसके शील सौंदर्य की भावना कर सकेगा। भावव्यंजना करनेवाले किसी पात्र या आश्रय के शील सौंदर्य की भावना जिस समय रहेगी उस समय वही श्रोता या पाठक का आलम्बन रहेगा और उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति या प्रीति टिकी रहेगी।
    हमारे यहाँ के आचार्यों ने श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य दोनों में रस की प्रधानता  रक्खी है, इसी से दृश्य काव्य में भी उनका लक्ष्य तादात्म्य और साधारणीकरण की ओर रहता है। पर योरप के दृश्य काव्यों में शीलवैचित्रय या अंत:प्रकृति वैचित्रय की ओर ही प्रधान लक्ष्य रहता है जिसके साक्षात्कार से दर्शक को आश्चर्य या कुतूहल मात्र की अनुभूति होती है। अत: इस वैचित्रय पर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। वैचित्रय के साक्षात्कार से केवल तीन बातें हो सकती हैं-
    (1) आश्चर्यपूर्ण प्रसादन;
    (2) आश्चर्यपूर्ण अवसादन; या
    (3) कुतूहल मात्र।
    आश्चर्यपूर्ण प्रसादन शील के चरम उत्कर्ष अर्थात् सात्त्विक आलोक के साक्षात्कार से होता है। भरत का राम की पादुका लेकर विरक्त भाव में बैठना, राजा हरिश्चंद्र का अपनी रानी से आधा कफन माँगना, नागानंद नाटक में जीमूतवाहन का भूखे गरुड़ से अपना मांस खाने के लिए अनुरोध करना इत्यादि शीलवैचित्रय के ऐसे दृश्य हैं जिनसे श्रोता या दर्शक के हृदय में आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा या भक्ति का संचार होता है। इस प्रकार के उत्कृष्ट शीलवाले पात्रों की भावव्यंजना को अपनाकर वह उसमें लीन भी हो सकता है। ऐसे पात्रों का शील विचित्र  होने पर भी भावव्यंजना के समय उनके साथ पाठक या श्रोता का तादात्म्य हो सकता है।
    आश्चर्यपूर्ण अवसादन शील के अत्यंत पतन अर्थात् तामसी घोरता के साक्षात्कार से होता है। यदि किसी काव्य या नाटक में हूण सम्राट मिहिरकुल पहाड़ की चोटी पर से गिराए जाते हुए मनुष्य के तड़पने, चिल्लाने आदि की भिन्न-भिन्न चेष्टाओं पर भिन्न-भिन्न ढंग से अपने आह्लाद की व्यंजना करे तो उसके आह्लाद में किसी श्रोता या दर्शक का हृदय योग न देगा, बल्कि उसकी मनोवृत्ति की विलक्षणता और घोरता पर स्तंभित, क्षुब्ध या कुपित होगा। इसी प्रकार दु:शीलता की और     विचित्रताओं के प्रति श्रोता की आश्चर्यमिश्रित विरक्ति, घृणा आदि जगेगी।
    जिन सात्त्विकी और तामसी प्रकृतियों की चरम सीमा का उल्लेख ऊपर हुआ है, सामान्य प्रकृति से उनकी आश्चर्यजनक विभिन्नता केवल उनकी मात्रा में होती है। वे किसी वर्गविशेष की सामान्य प्रकृति के भीतर समझी जा सकती हैं। जैसे, भरत आदि की प्रकृति शीलवानों की प्रकृति के भीतर और मिहिरकुल की प्रकृति क्रूरों की प्रकृति के भीतर मानी जा सकती है। पर कुछ लोगों के अनुसार ऐसी अद्वितीय प्रकृति भी होती है जो किसी वर्गविशेष की भी प्रकृति के भीतर नहीं होती। ऐसी प्रकृति के साक्षात्कार से न स्पष्ट प्रसादन होगा, न स्पष्ट अवसादन-एक प्रकार का मनोरंजन या कुतूहल ही होगा। ऐसी अद्वितीय प्रकृति के चित्रण को डंटन (Theodore Watts Dunton) ने कवि की नाटकीय या निरपेक्ष दृष्टि (Dramatic or Absolute vision) का सूचक और काव्यकला का चरम उत्कर्ष कहा है। उनका कहना है कि साधारणत: कवि या नाटककार भिन्न-भिन्न पात्रों की उक्तियों की कल्पना अपने ही को उनकी परिस्थिति में अनुमान करके किया करते हैं। वे वास्तव में यह अनुमान करते हैं कि यदि हम उनकी दशा में होते तो कैसे वचन मुँह से निकालते। तात्पर्य यह कि उनकी दृष्टि सापेक्ष होती है; वे अपनी ही प्रकृति के अनुसार चरित्रचित्रण करते हैं। पर निरपेक्ष दृष्टिवाले नाटककार एक नवीन नर प्रकृति की सृष्टि करते हैं। नूतन निर्माणवाली कल्पना उन्हीं की होती है।
    डंटन ने निरपेक्ष दृष्टि को उच्चतम शक्ति तो ठहराया, पर उन्हें संसार भर में दो ही तीन कवि उक्त दृष्टि से संपन्न मिले जिनमें मुख्य शेक्सपियर हैं। पर शेक्सपियर के नाटकों में कुछ विचित्र  अंत:प्रकृति के पात्रों के होते हुए भी अधिकांश ऐसे पात्र हैं जिनकी भावव्यंजना के साथ पाठक या दर्शक का पूरा तादात्म्य रहता है। 'जूलियस सीजर' नाटक में अंटोनियो के लंबे भाषण से जो क्षोभ उमड़ा पड़ता है उसमें किसका हृदय योग न देगा? डंटन के अनुसार शेक्सपियर की दृष्टि की निरपेक्षता के उदाहरणों में हैमलेट का चरित्रचित्रण है। पर विचारपूर्वक देखा जाय तो हैमलेट की मनोवृत्ति भी ऐसे व्यक्ति की मनोवृत्ति है जो अपनी माता का घोर विश्वासघात और जघन्य शीलच्युति देख अर्धविक्षिप्त सा हो गया हो। परिस्थिति के साथ उसके वचनों का असामंजस्य उसकी बुद्धि की अव्यवस्था का द्योतक है। अत: उसका चरित्र भी एक वर्गविशेष के चरित्र के भीतर आ जाता है। उसके बहुत से भाषणों को प्रत्येक सहृदय व्यक्ति अपनाता है। उदाहरण के लिए आत्मग्लानि और क्षोभ से भरे हुए वे वचन जिनके द्वारा वह स्‍त्री जाति की भर्त्सना करता है। अत: हमारे देखने में ऐसी मनोवृत्ति का प्रदर्शन, जो किसी दशा में किसी की हो ही नहीं सकती, केवल ऊपरी मन बहलाव के लिए खड़ा किया हुआ कृत्रिम तमाशा ही होगा। पर डंटन साहब के अनुसार ऐसी मनोवृत्ति का चित्रण नूतन सृष्टिकारिणी कल्पना का सबसे उज्ज्वल उदाहरण होगा।
    'नूतन सृष्टि निर्माणवाली कल्पना' की चर्चा जिस प्रकार योरप में चलती आ रही है उसी प्रकार भारतवर्ष में भी। पर हमारे यहाँ यह कथन अर्थवाद के रूप में-कवि और कविकर्म की स्तुति के रूप में-ही गृहीत हुआ, शास्‍त्रीय सिद्धांत या विवेचन के रूप में नहीं। योरप में अलबत यह एक सूत्रों-सा बनकर काव्यसमीक्षा के क्षेत्र में भी जा घुसा है। इसके प्रचार का परिणाम वहाँ यह हुआ कि कुछ रचनाएँ इस ढंग की भी हो चलीं जिनमें कवि ऐसी अनुभूतियों की व्यंजना की नकल करता है जो न वास्तव में उसकी होती हैं और न किसी की हो सकती हैं। इस नूतन सृष्टिनिर्माण के अभिनय के बीच दूसरे जगत् के पंछियों की उड़ान शुरू हुई। शेली के पीछे पागलपन की नकल करनेवाले बहुत से खड़े हुए थे; वे अपनी बातों का ऐसा रूपरंग बनाते थे जो किसी और दुनिया की लगें या कहीं की न जान पड़ें।1
    यह उस प्रवृत्ति का हद के बाहर पहुँचा रूप है जिसका आरंभ योरप में एक  प्रकार से पुनरुत्थानकाल (Renaissance) के साथ ही हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि उस काल के पहले काव्य की रचना काल को अखण्ड, अनंत और भेदातीत मानकर तथा लोक को एक सामान्य सत्ता समझकर की जाती थी। रचना करनेवाले यह ध्‍यान  रखकर नहीं लिखते थे कि इस काल के आगे आनेवाला काल कुछ और प्रकार का होगा अथवा इस वर्तमान काल का स्वरूप सर्वत्र एक ही नहीं है-किसी
 
1.  After Shelly’s music began to captivate the world certain poets set to work upon the theory that between themselves and the other portion of the human race there is a wide gulf fixed. Their theory was that they were to sing, as far as possible, like birds of another worlds. ……It might also be said that the poetic atmosphere became that of the supreme palace of wonder-Bedlam.
                Bailey, Dobell and smith were not Bedlamites, but men of common sense. They only affected madness. The country from which the followers of Shelly sing to our lower world was named ‘Nowhere.’
—‘Poetry and the Renaissance of Wonder’ by Theodore watts Dunton.
जनसमूह के बीच पूर्ण सभ्य काल है, किसी के बीच उससे कुछ कम; किसी जनसमुदाय के बीच कुछ असभ्यकाल है, किसी के बीच उससे बहुत अधिक। इसी प्रकार उन्हें इस बात की ओर ध्‍यान  देने की आवश्यकता नहीं होती थी कि लोक भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से बना होता है जो भिन्न-भिन्न रुचि और प्रवृत्ति के होते हैं। 'पुनरुत्थानकाल' से धीरे-धीरे इस तथ्य की ओर ध्‍यान बढ़ता गया, प्राचीनों की भूल प्रकट होती गई। अंत में इशारे पर ऑंख मूँदकर दौड़नेवाले बड़े-बड़े पण्डितों ने पुनरुत्थान की कालधारा को मथकर 'व्यक्तिवाद' रूपी नया रत्न निकाला। फिर क्या था? शिक्षित समाज में व्यक्तिगत विशेषताएँ देखने-दिखाने की चाह बढ़ने लगी।
    काव्यक्षेत्र में किसी 'वाद' का प्रचार धीरे-धीरे उसकी सारसत्ता को ही चर जाता है। कुछ दिनों में लोग कविता न लिखकर 'वाद' लिखने लगते हैं। कला या काव्य के क्षेत्र में 'लोक' और 'व्यक्ति' की उपर्युक्त धारणा कहाँ तर्कसंगत हैं, इसपर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। लोक के बीच जहाँ बहुत-सी भिन्नताएँ देखने में आती हैं वहाँ कुछ अभिन्नता भी पाई जाती है। एक मनुष्य की आकृति से दूसरे मनुष्य की आकृति नहीं मिलती, पर सब मनुष्यों की आकृतियों को एक साथ लें तो ऐसी सामान्य आकृतिभावना भी बँधती है जिसके कारण हम सबको मनुष्य कहते हैं। इसी प्रकार सबकी रुचि और प्रकृति में भिन्नता होने पर भी कुछ ऐसी अन्तर्भूमियाँ हैं जहाँ पहुँचने पर अभिन्नता मिलती है। ये अन्तर्भूमियाँ नरसमष्टि की रागात्मिका प्रकृति के भीतर हैं। लोकहृदय की यही सामान्य अन्तर्भूमि परखकर यहाँ 'साधारणीकरण' सिद्धांत की प्रतिष्ठा की गई है। वह सामान्य अन्तर्भूमि कल्पित या कृत्रिम नहीं है। काव्यरचना की रूढ़ि या परंपरा, सभ्यता के न्यूनाधिक विकास, जीवन-व्यापार के बदलनेवाले बाहरी रूप-रंग इत्यादि पर स्थित नहीं है। इसकी नींव गहरी है। इसका संबंध हृदय के भीतरी मूल देश से है, उसकी सामान्य वासनात्मक सत्ता से है।
    जिस 'व्यक्तिवाद' का ऊपर उल्लेख हुआ है उसने स्वच्छंदता के आन्दोलन (Romantic Movement) के उत्तरकाल से बड़ा ही विकृत रूप धारण किया। यह व्यक्तिवाद यदि पूर्णरूप से स्वीकार किया जाय तो कविता लिखना व्यर्थ ही समझिए। कविता इसीलिए लिखी जाती है कि एक की भावना सैकड़ों, हजारों क्या लाखों दूसरे आदमी ग्रहण करें। जब एक के हृदय के साथ दूसरे के हृदय की कोई समानता ही नहीं तब एक के भावों को दूसरा क्यों और कैसे ग्रहण करेगा? ऐसी अवस्था में तो यही संभव है कि हृदय द्वारा मार्मिक या भीतरी ग्रहण की बात ही छोड़ दी जाय; व्यक्तिगत विशेषता के वैचित्रय द्वारा ऊपरी कुतूहल मात्र उत्पन्न कर देना ही बहुत समझा जाय। हुआ भी यही। और हृदयों से अपने हृदय की खिन्नता और विचित्रता दिखाने के लिए बहुत से लोग एक-एक काल्पनिक हृदय निर्मित करके दिखाने लगे। काव्य क्षेत्र 'नकली हृदयों' का एक कारखाना हो गया!
    ऊपर जो कुछ कहा गया उससे जान पड़ेगा कि भारतीय काव्यदृष्टि भिन्न-भिन्न विशेषों के भीतर से 'सामान्य' के उद्धाटन की ओर बराबर रही है। किसी-न-किसी 'सामान्य' के प्रतिनिधि होकर ही 'विशेष' हमारे यहाँ के काव्यों में आते रहे हैं। पर योरोपीय काव्यदृष्टि इधर बहुत दिनों से विरलविशेष की विधान की ओर रही है। हमारे यहाँ के कवि उस सच्चे तार की झंकार सुनाने में ही संतुष्ट रहे जो मनुष्य मात्र के हृदय के भीतर से होता हुआ गया है। पर उन्नीसवीं शताब्दी के बहुत से विलायती कवि ऐसे हृदयों के प्रदर्शन में लगे जो न कहीं होते हैं और न हो सकते हैं। सारांश यह कि हमारी वाणी भावक्षेत्र के बीच 'भेदों में अभेद' को ऊपर करती रही और उनकी वाणी झूठे सच्चे विलक्षण भेद खड़े करके लोगों को चमत्कृत करने में लगी।
    उन्माद का अभिनय करनेवाले कुछ कवियों का उल्लेख हो चुका है। उनकी नकल बंग भाषा के काव्यक्षेत्र में हुई और उस नकल की नकल निरालापन दिखाने के लिए हिंदी में अब इस बीसवीं सदी में हो रही है। 1
    योरप में तो इस उन्माद के अभिनय को समाप्त हुए बहुत दिन हो गए; वहाँ तो अब वह एक पुराने जमाने की बात हो गई। इसी प्रकार रहस्यवादी प्रतीकवाद (Symbolism or Decadence) उन्नीसवीं शताब्दी समाप्त होने के पहले ही अतीत दशा को प्राप्त हो गया। पर बंग भाषा के प्रसाद से न जाने कब के मरे हुए आंदोलनों  की नकल हिंदी में अब हो रही है-काव्यरचना के क्षेत्र में भी और आलोचना के क्षेत्र में भी।
    योरप में साहित्यसंबंधी आंदोलनों की आयु बहुत थोड़ी होती है। कोई आंदोलन 10 या 12 वर्ष से ज्यादा नहीं चलता। ऐसे आंदोलनों के कारण वहाँ इस बीसवीं शताब्दी में आकर काव्यक्षेत्र के बीच बड़ी गहरी गड़बड़ी और अव्यवस्था फैली। काव्य की स्वाभाविक उमंग के स्थान पर नवीनता के लिए आकुलता मात्र रह गई। कविता
 
1. ये बंगाश्रयी अब कभी-कभी अँगरेजी साहित्य की प्रगति का भी कुछ परिचय प्रकट करने के लिए 'शेली और रवींद्रनाथ का दर्शन' भी दिखाने चल पड़ते हैं, पर अँगरेजी कविता की दो पंक्तियों का भी अनुवाद जहाँ करना पड़ा उनका असली रूप खुल जाता है, जैसे-
      A sensitive plant in a garden grew
      and the young winds fed it with silver dew
   अब इसका स्कूली तर्जुमा देखिए-
   'एक होशमंद पौधा बगीचे में उगा। युवती हवा इसे चाँदी की ओस पिलाने लगी।'
(सुधा, आषाढ़, जुलाई, 1930)
   खेद इस बात पर होता है कि ऐसे लोग 'रवींद्रनाथ और शेली के दर्शन' पर विराट नोट लिखकर उसे संपादकीय कालमों तक में पहुँचा देते हैं। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादक यदि थोड़ी सावधानी रखें, तो ऐसी अनधिकार चेष्टाओं की बहुत कुछ रोक हो जाय। इसके कारण हिंदी साहित्य का सिर ऊँचा होने के स्थान पर नीचा ही होगा।
चाहे हो, चाहे न हो, कोई नवीन रूप या रंग ढंग अवश्य खड़ा हो। पर कोरी नवीनता केवल मरे हुए आंदोलनों का इतिहास छोड़ जाय तो छोड़ जाय, कविता नहीं खड़ी कर सकती। केवल नवीनता और मौलिकता की बढ़ी-चढ़ी सनक में सच्ची कविता की ओर ध्‍यान कहाँ तक रह सकता है। कुछ लोग तो नए-नए ढंग की उच्छृंखलता, वक्रता, असम्बद्धता, अनर्गलता इत्यादि का ही प्रदर्शन करने में लगे; थोड़े से ही सच्ची भावनावाले कवि प्रकृत मार्ग पर चलते दिखाई पड़ने लगे। समालोचना भी अधिकतर हवाई ढंग से होने लगी।
    रहस्यवादी प्रतीकवाद, मुक्तछंदवाद, 'कला का उद्देश्य कलावाद' इत्यादि तो अब वहाँ बहुत दिन के मरे हुए आंदोलन समझे जाते हैं। इस बीसवीं शताब्दी के आंदोलन में अभिव्यंजनावाद (Expressionism), जार्जकाल प्रवृत्ति (Georginaism), मूर्तिमत्तवाद (Imagism), संवेदनावाद (Impressionism) और नवीन मर्यादावाद (New Classicism) मुख्य हैं। इनमें से 'अभिव्यंजनावाद' का कुछ परिचय मैं 'काव्य में रहस्यवाद' नाम के निबंध में दे चुका हूँ। पिछले चार वाद बिलकुल हाल के हैं।
    जार्जकाल की प्रवृत्ति का निचोड़ है 'प्रकृति का फिर आश्रय लेना।' गत योरोपीय महायुद्ध के दो-तीन वर्ष पहले रूपर्ट ब्रुक (Rupert Brooke) प्रकृति की ओर बड़ी झोंक से बढ़े और उसे बड़े प्रेम से अपनाया। प्रकृति के चिर-परिचित सादे और सामान्य दृश्यों के माधुर्य ने उनके मन में घर कर लिया था। दृश्यावली की चमक-दमक, तड़क-भड़क, भव्यता, विशालता की ओर जिस प्रकार उनका मन नहीं जाता था उसी प्रकार वचनवक्रता, भाषा की ऐंठ और उछल-कूद, कल्पना की उड़ान की ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। उनमें थी प्रकृति के चिर-परिचित रूपों की ओर बालकों की-सी ललक और उमंग। उन्होंने प्रकृति के गम्भीरपन की ओर उतना ध्‍यान न दिया, उनकी वाणी में उतना गुरुत्व न था; पर भाव की सच्चाई अवश्य थी। उन्होंने सामान्य घरेलू जीवन  और उसमें काम आनेवाली वस्तुओं को बड़े प्यार की दृष्टि से देखा था। सन् 1915 में उनका देहांत हो गया। ठीक उन्हीं के पथ के पथिक हेराल्ड मोनरो (Harold Monro) हैं जिनकी एक कविता है 'बिल्ली के पीने का दूध'। प्रकृति की ओर लौटनेवालों में डी. ला. मेयर (walter De La Mare) भी हैं, पर उनमें दृष्टि का विस्तार, भव्यता का आभास और भाषा की प्रगल्भता अधिक है।
     मूर्तिमत्तवाद (Imagism) के प्रवर्तक फ्ंलिट (F.S. Flint) थे जिनकी 'तारक
 
  *  Wherever attempts at sheer newness in poetry were made, they merely ended in dead movements.
        ×                                      ×          ×
      Criticsim became more dogmatic and unreal, poetry more eccentric and chastic.
—A Survey of Modernist Poetry, by Laura Riding and Robert Graves, (1927)
जाल में' नाम की पुस्तक सन् 1909 में प्रकाशित हुई थी। इस संप्रदाय में डूलिट्ल (Hilda Doolittle H.D.) और अल्डिगटन (Rechard Aldiagton) भी थे, यद्यपि अल्डिगटन धीरे-धीरे इसके बाहर निकल आए। इन लोगों का सिद्धांत था मूर्तरूप में ही विषय को रखना, अत: ये छोटी-छोटी कविताएँ ही ठीक समझते थे, जिनका चित्र  मन में एक बार में आ सके। बड़ी और लंबी कविताओं के ये विरोधी थे। अपने सिद्धांत के अनुसार ये मूर्ति भावना खड़ी करनेवाले (Concrete) शब्द ही कविता के उपयुक्त समझते थे, भाववाचक (Abstract) शब्दों को दूर रखने की सलाह देते थे। इनका कहना था कि मूर्त भावनावाले शब्द कल्पना में स्पष्ट और स्थायी रूपविधान भी करते हैं और सबको समान रूप से बोधगम्य भी होते हैं। वर्णनात्मक (Descriptive) और विचारात्मक (Philosophical) कविता का ये विरोध करते थे। इनके सिद्धांत में सत्य का बहुत कुछ आधार था, पर ये उसे बुहत दूर तक घसीट ले गए।
    विचार करने पर यह बात साफ सामने आती है कि काव्य चित्रविद्या और संगीत दोनों की पद्धति यों का कुछ-कुछ अनुसरण करता है। विभाव और अनुभाव दोनों में रूपविधान होता है जिसका उसी प्रकार कल्पना द्वारा स्पष्ट ग्रहण वांछित होता है जिस प्रकार नेत्र द्वारा चित्र का। अत: मूर्त भावना की आवश्यकता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। अँगरेजी कविता में मूर्तिमत्तवाद का एक अलग आंदोलन खड़ा होने के बहुत पहले ही फ्रांस में इसका कुछ आभास दिया गया था। सन् 1884 में वाट्स डंटन ने अँगरेजी के प्रसिद्ध विश्‍वकोश (Encyclopaedia Britanica) में कविता पर जो प्रबंध दिया था उसमें उन्होंने काव्य का लक्षण यह लिखा था-
        Absolute poetry is the concrete and artistic expression of the human mind in emotional and rhythmical language.
    'भावमयी और लयमयी भाषा में मनुष्य के हृदय की मूर्त और कलात्मक व्यंजना ही कविता है।'
    संवेदनावाद (Impressionism)-जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, चित्रविद्या के समान संगीत कला की पद्धति का भी अवलम्बन कविता करती है। इस पक्ष को लेकर भी फ्रांस की आधुनिक कविता में आंदोलन खड़ा हुआ है। बहुत से लोग वहाँ काव्य को संगीत के निकट लाने के लिए उठ खड़े हुए हैं। वे शब्दों के प्रयोग में उनके अर्थों पर ध्‍यान देना उतना आवश्यक नहीं बताते जितना उनकी नादशक्ति पर। जैसे यदि मधुमक्खियों के समूह के धावे का वर्णन होगा तो 'भिन-भिन' 'मिन-मिन' ऐसी ध्‍वनिवाले, हवा के बहने या पत्तों के बीच चलने का वर्णन होगा तो 'सर-सर', 'मर्मर' ऐसी ध्‍वनिवाले शब्द इकट्ठे किए जायँगे। हिंदी की पुरानी वीर रस की कविताएँ पढ़नेवाले 'कड़क', 'तड़क', 'चटाक', 'पटाक' से तथा अमृतध्‍वनि छंद से अच्छी तरह परिचित होंगे। सूदन कवि के-
धड़धद्धरं  धड़धद्धरं,  भड़भब्भरं  भड़भब्भरं !
तड़तत्तरं  तड़तत्तरं,  कड़कक्करं  कड़कक्करं॥
(सुजानचरित्र, पृष्ठ 186।)
 [ ऐसे ध्वन्यात्मक शब्दों से ]  लोगों के घबराने का कारण यही है कि उनमें नादसंवेदन मात्र है अर्थ कुछ नहीं। नये पुराने सब कवियों ने व्यापार चित्रण करते समय कहीं-कहीं शब्दों के प्रयोग में नाद की अनुकृति का प्रयत्न किया है। भवभूति के वर्णनों में यह बात कई जगह मिलती है। अँगरेजी कवियों की भी कई पंक्तियाँ इसके लिए प्रसिद्ध हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के-
' ककन किंकिनि  नूपुर धुनि सुनि '
में भी झंकार का नाद चित्र है। पर असल कवियों ने इसका समावेश बड़े कौशल और सफाई के साथ बहुत कम जगह किया है। इसके लिए वे अर्थशक्तिशून्य शब्द नहीं लाए हैं। पर योरप में साहित्य संबंधी आंदोलनों के चक्कर में पड़कर बहुत से लोग ऑंखों में  [ पर ]  पट्टी बाँधकर एक सीधा में कुछ दिनों तक दौड़ते चले जाते हैं। यही दशा फ्रांस में हुई है। अक्षरों की ध्‍वनि में बड़ी लंबी-चौड़ी व्यंजना मानकर वे अक्षरों पर मुख्य ध्‍यान रखते हुए शब्दविन्यास कर चलते हैं।
    संवेदनावाद को लेकर सबसे विलक्षण तमाशा कमिंग्ज साहब (E.E. Cummings) ने खड़ा किया है। उन्होंने उक्त फरांसीसी प्रवृत्ति के साथ मूर्तिमत्त का सिद्धांत मिलाकर पदभंग, पदलोप, वाक्यलोप, अक्षरविन्यास, चरणविन्यास इत्यादि के नए-नए करतब दिखाए हैं। जैसे-
    सि-पाही स ( ी ) टी-देता है।     
    उसकी रचना का ढंग दिखाने के लिए उनकी एक कविता थोड़े से आवश्यक हेरफेर के साथ नीचे देता हूँ। यद्यपि उसकी विचित्रताएँ बहुत कुछ अँगरेजी भाषा और उसके छंदों की मात्रा आदि से संबंध रखती हैं और हिंदी में नहीं दिखाई जा सकतीं फिर भी कुछ अंदाजा हो जायगा। कविता यह है-
सूर्यास्त1
    सं-दंश
    स्वर्ण 'गुंन्' जाल
    सिखर पर
 
  *  Stinging
      gold swarms
      upon ahe spires
      silver
    रजत
        पाठ करता है
    बड़े-बड़े घंटे बजते हैं गेरू से
    मोटे निठल्ले नगाड़े
        और एक उत्तुंग
    पवन
    खींचता है
    सागर
    को
    स्वप्न
    से
      chants litanies the
      great Bells are ringing with rose
              the lewd fat bells
                        and a tall
      wind
      is dragging
      the
      sea
      with
      dream
      –S
   इसकी विशेषताएँ जो बताई गई हैं, संक्षेप में दी जाती हैं-
              The lines do not begin with capitals. The spacing does not suggest any regular verse form, though it seems to be systematic. No punctuation marks are used. There is no obvious grammar either of the prose or of the poetic kind. It seems impossible to read the poem as a logical seqence. A great many words essential to the coherence of the ideas have been deliberately omitted: and the entire effect is so sketchy that the Poem might be made to mean almost anything or nothing.
× × ×
              The heavy alliteration in S in the first seven lines, confirmed in the last by the solitary capitalized S, cannot be discarded. The first word ‘Stinging’, taken alone suggests a sharp feeling. In the second line ‘swarms’ developes the alliternation, at the same time colouring ‘Stinging’ with the association of golden bees, ‘Silver’ brings us back to the contract between cold and warm in the first and second lines (‘Stinging’ suggest cold in contract with the various suggestions of warmth in the ‘gold swarms’) because ‘silver’ reminds one of cold water as ‘gold’ does of Warm light. Two suppressed S words, both disguised in ‘silver’ and gold, are ‘sea’ and ‘sun’, ‘Sea itself does not actually occur until the twelfth line, when the S alliteration has flagged : separted from alliterative association it becomes the definite image ‘Sea’ and the centre around which the poem                                                    ®
    यह समुद्र के किनारे सूर्यास्त का वर्णन है जिसका विषय यह है। समुद्र की खारी हवा काटती-सी है। डूबते सूर्य की किरनें ऊँची उठी तरंग की श्वेत फेनिल चोटी पर पड़कर नीली मधुमक्खियों के फैले हुए झुंड-सी लगती हैं। वह ऊपर उठी लहर देवमन्दिर के मंडप-सी जान पड़ती है जिसके भीतर पाठ होता है, बड़े-बड़े घंटे बजते हैं, गेरू से पुते दरवाजे होते हैं, नगाड़े बजते हैं, तोंदवाले मोटे निठल्ले पुजारी बैठे रहते हैं। हवा समुद्र के जल को वैसे ही खींचती जान पड़ती है जैसे मछुवा जाल खींचता हो। सूर्यास्त हो जाता है। धुँधलापन, फिर अंधकार हो जाता है; लोग सोते हैं।
    अब किस ढंग से इन सब बातों की संवेदना उत्पन्न करने के लिए शब्दविधान  किया गया है, थोड़ा-सा यह देखिए। 'सं' से सनसनाहट अर्थात् हवा चलने की और 'दंश' से चमड़ा फटने, पानी की ठंडक और मधुमक्खी के डंक मारने की संवेदना उत्पन्न की गई है। 'स्वर्ण' से सूर्य की किरणों और मधुमक्खियों के पीले रंग का आभास दिया गया है। 'गुंन्' से गुनगुनाहट या गुंजार को मिलाकर मन्दिरों में होनेवाले शब्द तथा समुद्र के गर्जन, छीटों के 'कलकल' का आभास दिया गया है। लटकते हुए घंटे की मूर्त भावना में लहरों के नीचे ऊपर झूलने का भी संकेत है। 'गेरू' में संध्‍या की ललाई झलकाई गई है। फिर दूसरे 'नगाड़े' में निकलती हुई तोंद का संकेत है। रचना के प्रथम खंड में 'सूर्य' और 'समुद्र' शब्द नहीं रखे गए हैं। स्वर्ण में तपे सोने के ताप और चमक की भावना रखकर सूर्य का और 'रजत' में शीतलता और स्वच्छता की भावना रखकर जलराशि या समुद्र का संकेत भर कर दिया गया है। इसमें 'स' के अनुप्रास से भी सहायता ली गई है। पहले खंड में यह अनुप्रास 'स' से आरंभ होनेवाले 'सूर्य' और 'समुद्र' दो लुप्त शब्दों की ओर भी इशारा करता है। कमिंग्ज साहब की समझ में यह विषय को ठीक वैसे ही सामने रखना है जैसे संवेदना उत्पन्न होती है। इसमें ऐसे शब्द नहीं हैं जो अर्थसम्बन्ध मिलाने के लिए या व्याकरण के अनुसार वाक्यविन्यास के लिए लाए जाते हैं पर संवेदना उत्पन्न करने में काम नहीं देते। उनके अनुसार यह खालिस कविता है जिसमें से भाषा, व्याकरण, तात्पर्यबोध आदि का अनुरोध पूरा करनेवाले फालतू शब्द निकाल दिए गए हैं।
    वास्तव में कमिंग्ज की इस प्रवृत्ति के मूल में क्या है? काव्यदृष्टि की परिमित  और प्रतिभा के अवकाश के बीच 'नवीनता' के लिए नैराश्यपूर्ण आकुलता। 'सूर्योदय',
 
®          is to be built up. But once it has appeared there is little more to be said; the poem trails off, closing with the large S echo of the last line. The hyphen before this S detaches it from ‘dream’. In a realistic sense S might stand for the alteration of quiet and hiss in wave movement.
—A Survey of modernist Poetry
'सूर्यास्त' आदि बहुत पुराने विषय हैं जिन पर न जाने कितने कवि अच्छी-से-अच्छी कविता कर गए हैं। अब इन्हीं को लेकर जो नवीनता दिखाना चाहेगा वह मार्मिक दृष्टि के प्रसार के अभाव में सिवा इसके कि नए-नए वादों का अंधा-अनुसरण करे, शब्दों की कलाबाजी दिखाए, पहेली बनाए और करेगा क्या? पर इस प्रकार के ढकोसलों पर सहृदय समाज क्यों ध्‍यान देने जायगा? वर्तमान कवियों में कमिंग्ज का नाम शायद ही कोई लेता हो।
    इन नाना 'वादों' से अब पाश्चात्य कविमंडली अपना पीछा छुड़ाना चाहती है। अब किसी कविता के संबंध में किसी 'वाद' का नाम लेना फैशन के खिलाफ माना जाने लगा है। कविता की सच्ची कला किस प्रकार 'वादग्रस्त' होकर विलीन होने लगती है यह बात बिना दिखाई पड़े कैसे रह सकती है। अब कोई 'वादी' समझे जाने में कवि अपना मान नहीं समझते। 'उन्हें अब यह नहीं कहना पड़ता कि हम 'व्यक्तिवादी' हैं (जैसा कि मूर्तिमत्तवादी कहा करते थे), हम 'रहस्यवादी' या 'छायावादी' हैं (जैसा कि इंगलिस्तान, आयर्लैंड के उस मरे हुए आन्दोलन के कवि कहा करते थे) अथवा हम 'प्रकृतिवादी' हैं (जैसा कि जार्जकाल के विगत आन्दोलनवाले कहा करते थे)'।1
    इन बहुत सी 'वाद' व्याधियों का प्रवर्तक है 'व्यक्तिवाद' जो बहुत पुराना रोग है। पुराने रोग जल्दी पीछा नहीं छोड़ते। एक न एक रूप में बहुत दिनों तक बने रहते हैं। यही दशा व्यक्तिवाद की है जिसकी नींव भेदभाव पर है। अबतक 'कवि के व्यक्तित्व' के नाम पर भेदप्रदर्शन होता था; अब उसकी 'कृति के व्यक्तित्व'  के नाम पर होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। अबतक किसी कविता में उसके कवि के व्यक्तित्व को प्रधान वस्तु कहने की चाल थी। पर अब 'कृति' ही प्रधान वस्तु कही जाने लगी है और उसकी सत्ता कवि और श्रोता (या पाठक) दोनों से स्वतंत्र ठहराई जाने लगी है। कवि के 'व्यक्तित्व' का परिहार यह कहकर किया जाने लगा है कि जैसे पुत्र का व्यक्तित्व पिता के व्यक्तित्व से अलग विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार किसी काव्यरचना का व्यक्तित्व उसके कवि के व्यक्तित्व से पृथक् और स्वतंत्र होना चाहिए। इसपर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'व्यक्तिवाद' बना हुआ है, केवल उसने अपनी जगह बदल दी है। लोक से विशेषता और विचित्रिता तो बनी रहने दी गई है, अंतर इतना ही पड़ा है कि अबतक उस
 
1.  The modernist poet does have to issue programme declaring his intentions toward the reader or to issue an announcement of tactics. He does not have to call himself an individualist (As the Imagist poet did) or a mystic (As the poet of the Anglo-Irish dead movement did) or a naturalist (as the poet of the Georgian dead movement did).
—A Survey of Modernist Poetry.
विशेषता या विचित्रता को कवि की कहते थे, अब कृति की कहेंगे।
    बात सुलझते-सुलझते फिर उलझन में पड़ गई क्योंकि भेदवाद का फंदा न छूट पाया। कवि और श्रोता दोनों पक्षों से 'व्यक्तित्व' को अलग हटाकर उसकी प्रतिष्ठा कृति में ले जाकर कर दी गई। विलायत की 'साहित्य सरकार' की इस नई कार्रवाई का मतलब यही हुआ कि किसी कविता का न तो कवि के हृदय के साथ सामंजस्य हो न श्रोता के हृदय के साथ। उसकी भावव्यंजना को दोनों अपनाएँ न, तटस्थ होकर तमाशे की तरह देखें। इस मनोवृत्ति को 'कल्पना' और 'कला' इन दो शब्दों ने और भी दृढ़ कर रखा है। जब कविता केवल कल्पना का खेल समझी जाएगी  और भावुकता की 'सेंटीमेंटैलिटी' (Sentimentality) कहकर उपेक्षा की जाएगी तब काव्य का प्रकृत स्वरूप दृष्टि के सामने आने का साहस कैसे कर सकता है? जबकि 'कला' शब्द का इतना शोर है तब काव्य के पढ़ने-सुनने से उत्पन्न अनुभूति उससे अधिक गहरी, उससे अधिक ममस्पर्शिनी, कैसे समझी जा सकती है, जो किसी चित्र , इमारत, बेलबूटे की नक्काशी आदि के सामने आने पर होता है? मेरा विश्वास तो यही है कि कविता या उसकी समीक्षा जब तक भेदभाव का आधार हटाकर अभेदभाव के आधार पर न प्रतिष्ठित होगी तब तक उसका स्वरूप इसी तरह झंझट और खींचतान में पड़ा रहेगा। अभेदभाव की भूमि तैयार करने का नाम ही 'साधारणीकरण' है।
    यह ठीक है कि प्रत्यक्ष वास्तविक अनुभूति से किसी काव्य के पठन, श्रवण से उत्पन्न रसानुभूति में एक बड़ी विशेषता होती है। यह विशेषता यह है कि इस दशा में अपनी पृथक् सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है अर्थात् प्रस्तुत विषय को हम अपनी योगक्षेम वासना की उपाधि से ग्रस्त हृदय द्वारा ग्रहण नहीं करते, निर्विशेष, शुद्ध और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते हैं। इस मुक्त हृदय को व्यापक आत्मा का ही एक पक्ष समझना चाहिए। अब हमारा कहना यह है कि प्रत्यक्ष और वास्तविक अनुभूति  के समय भी कभी-कभी हमारा हृदय मुक्त रहता है। अत: भावों की प्रत्यक्ष वास्तविक अनुभूति भी रसकोटि की हो सकती है, और कभी-कभी होती है।

अप्रस्तुत रूपविधान


प्रस्तुत-अप्रस्तुत भेद का निरूपण यह मानकर किया गया है कि किसी काव्य में जगत् या जीवन से संबंध रखनेवाली कोई-न-कोई वस्तु या तथ्य अवश्य होता है। उसी वस्तु या तथ्य के हृदयग्राह्य पक्ष का प्रत्यक्षीकरण तथा उसके प्रति जागरित हृदय की वृत्तियों का विवरण काव्य का लक्ष्य हुआ करता है। पर इधर कुछ दिनों से योरोपीय समीक्षकों में से कुछ लोग, जैसे अभिव्यंजनावादी (Expressionists) काव्य में कोई 'वस्तु' या विषय होना स्वीकार नहीं करते। 'कला' शब्द की बढ़ती हुई पुकार के साथ स्वर मिलाने के लिए उन्होंने यह कहना आरंभ किया कि काव्य का कोई विषय या व्यंग्य वस्तु (या भाव) नहीं होता अर्थात् जिस रूप में कोई काव्यात्मक काव्य हमारे सामने आता है उससे अलग कोई आधार वस्तु ढूँढ़ना व्यर्थ है। उनकी इस उक्ति में सत्य का अंश केवल इतना ही है कि आधार वस्तु या तथ्य का बोध रसानुभूति नहीं है; उसके मार्मिक पक्ष की अनुभूति का स्वरूप ही काव्यानुभूति तथा उस अनुभूति को उत्पन्न करनेवाला शब्दविधान ही काव्य है। पर यह कहना कि काव्य में कोई आधार वस्तु या तथ्य की नींव होती ही नहीं, वह शून्य में स्थित रहता है बैठकबाजी के सिवा और कुछ नहीं।
    रसानुभूति में बोधवृत्ति का उपादान बराबर रहता है। उसे हम अलग नहीं कर सकते। किसी वस्तु या तथ्य के मार्मिक पक्ष की प्रतीति या बोध लिए हुए ही सच्ची रसानुभूति होती है। वस्तु या तथ्य का मार्मिक पक्ष उस वस्तु या तथ्य से अलग कोई वस्तु नहीं होता, उसी के अंतर्भूत होता है। 'सत्' के भीतर ज्ञान का विषय भी रहता है हृदय का भी। उसी सत् को कोई सिर्फ जानकर रह जाता है और कोई उसके समक्ष हृदय निकालकर रखने लगता है। 'वह स्‍त्री मुसकरा रही है, कोई तो यही जानकर रह जाता है और कोई अपने को सुधासिक्त आलोक-रेखा से संपृक्त या शुभ्र मधुधारा में मग्न बतलाता है। क्या कोई कह सकता है कि सुधासिक्त आलोक 'रेखा' या 'शुभ्र मधुधारा' ही सब कुछ है, स्‍त्री के मुसकान का काव्यविधान  में कोई योग नहीं? यदि ऐसा माना जाय तो फिर कुछ इनीगिनी प्रियदर्शन, सुंदर, भीषण, प्रकांड अथवा अद्भुत वस्तुओं की विचित्र और अलौकिक योजना मात्र ही काव्य कहा जायगा जिसका प्रभाव उतना ही हो सकता है जितना कागज की फुलवाड़ी, सजावट के गुलदस्ते या सरकस के तमाशे का होता है। पर मैं काव्य के प्रभाव को इससे कहीं अधिक गंभीर और अंतस्तलस्पर्शी मानता हूँ। उसे जीवन की एक शक्ति समझता हूँ।
    शुद्ध सच्चे काव्य में दो पक्ष अवश्य रहते हैं-जगत् या जीवन का कोई तथ्य तथा उसके प्रति किसी प्रकार की अनुभूति। योरप के कुछ समीक्षक साहित्य क्षेत्र में नई हवा-चाहे उस हवा के झोंके में काव्य का प्रकृत स्वरूप ही क्यों न उड़ता दिखाई दे-बहाने के उद्योग में किस प्रकार इन दोनों को हवा बतलाने लगे थे यह उपर्युक्त विवरण से समझा जा सकता है। उक्ति या शब्दविधान को आधारभूत कोई विषय ही मानने की आवश्यकता नहीं तब जगत् या जीवन का कोई तथ्य कहाँ रहा? इसी प्रकार भावों की सच्ची और स्वाभाविक अनुभूति (Sentimentality) सेंटीमेंटैलिटी कहकर टाली गई और कलानुभूति उससे सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र अनुभूति बतलायी गई। मतलब यह है कि जिस अनुभूति से मनुष्य हाथ-पैर हिलाता है, जिस अनुभूति से शुभाशुभ कर्मों का प्रवर्तन होता है, जिस अनुभूति से मानवी प्रकृति का उत्तरोत्तर उत्कर्ष होता है वह इन कलाविदों के अनुसार काव्य के किसी उपयोग की नहीं। अब दूसरी कोटि की अनुभूति रही कौन? वही जो कोई तमाशा, नकल, नक्काशी, बेलबूटे आदि देखने पर उत्पन्न होती है।
    हमारा वक्तव्य यह है कि प्रकृत काव्य का सारा स्वरूपविधान जगत् या
जीवन की किसी वस्तु या तथ्य की ओर संकेत करता है। वही वस्तु या तथ्य
कल्पना द्वारा उपस्थित काव्य सामग्री को व्यवस्थित ढंग से संयोजित करके एक कृति का स्वरूप देता है। जबतक भीतर किसी वस्तु या तथ्य का ढाँचा न होगा तबतक सुंदर से सुंदर संदर्भहीन रूपसमूह इमारत में लगनेवाली नक्काशीदार खंभों, पटरियों इत्यादि का पड़ा हुआ ढेर सा होगा। अत: काव्य में जगत् या जीवन की किसी वस्तु या तथ्य का होना, प्रस्तुत पक्ष का होना, अनिवार्य है। आध्‍यात्मिक  कविता भी वही सच्ची होगी जो अव्यक्त की ओर संकेत करनेवाले किसी तथ्य के आधार पर होगी।
    जब काव्य में कोई 'प्रस्तुत' अवयव होना आवश्यक ठहरा तब उसके अतिरिक्त और जो कुछ रूपविधान होगा वह अप्रस्तुत होगा। पर इस अप्रस्तुत अवयव का होना अनिवार्य नहीं। कोरे वस्तुव्यापारवर्णन अथवा स्वाभावोक्ति में अप्रस्तुतविधान नहीं रहता; पर रसात्मकता रहती है। यदि प्रस्तुत तथ्य अर्थात् उसके अंतर्भूत, वस्तु, व्यापार मार्मिक हैं तो उनका ज्यों-का-त्यों चित्रण मात्र भी भावमग्न करनेवाला काव्य होता है।
    हमें यहाँ अप्रस्तुत रूपविधान पर कुछ विचार करना है जो काव्य में किसी-न-किसी वेश में, चाहे अलंकार रूप में चाहे लक्षणा के रूप में, प्राय: रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांति, अपह्नुति, दीपक, अप्रस्तुत-प्रशंसा इत्यादि सादृश्यमूलक अलंकारों के अतिरिक्त और अलंकारों में भी कुछ-न-कुछ अप्रस्तुत रूपविधान मिलेगा। अब देखना यह है कि प्रस्तुत रूपों के साथ अप्रस्तुत रूपों की जो योजना की जाती है वह किस दृष्टि से, उसका प्रकृत उद्देश्य क्या होता है। साहित्यग्रंथों में उपमा, रूपक इत्यादि के निरूपण में अप्रस्तुत का आधार केवल सादृश्य या साधर्म्य  ही लिखा पाया जाता है।
    विचार करने पर इन दोनों में प्रभावसाम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचंडता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इसी प्रकार के हैं। केवल रूपरंग आकार या व्यापार को ऊपर-ऊपर से देखकर या नापजोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना, वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कविकर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्‍य या अभ्यासगम्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी तब बहुत से उपमान केवल बाहरी नापजोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिए सिंहिनी और भिड़ सामने लाई जाने लगी।
    कहीं-कहीं तो बाहरी सादृश्य या साधर्म्य  अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभाव साम्य लेकर ही अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् (Simbolic) होते हैं-जैसे, सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान् या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अँधेरी रात, संध्‍या की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भावतरंग के लिए झंकार; भावप्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि।
    अप्रस्तुत किस प्रकार एकदेशीय, सूक्ष्म और धुँधले पर मर्मव्यंजक साम्य का धुँधला सा आधार लेकर खड़े किए जाते हैं, यह बात नीचे के कुछ उद्धरणों से स्पष्ट हो जाएगी -
    (1) उठ उठ री लघु लघु लोल लहर।
       करुणा की नव अँगड़ाई सी, मलयानिल की परछाईं सी,
                           इस सूखे तट पर छहर छहर॥
(लहर=सरस कोमल भाव। सूखा तट=शुष्क जीवन। अप्रस्तुत या उपमान भी लाक्षणिक हैं।)
    (2) गूढ़ कल्पना-सी कवियों की, अज्ञाता के विस्मय-सी
       ऋषियों के गंभीर हृदय-सी, बच्चों के तुतले भय-सी।-'छाया'।
    (3) गिरिवर के उर से उठ उठ कर,
       उच्चाकांक्षाओं  से तरुवर / हैं झाँक रहे नीरव नभ पर।
(उठे हुए पेड़ों का साम्य मनुष्य के हृदय की उन उच्च आकांक्षाओं से जो लोक के परे जाती हैं।)
    (4) वनमाला के गीतों सा निर्जन में बिखरा है मधुमास।
    साम्यभावना हमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधानेवाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं। पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव वहीं उत्पन्न करती है जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर खड़ी होती है। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ या अगूढ़ व्यंजना करती रहती है। इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्यविधान होगा वह मनमाना आरोप मात्र होगा। इस अनंत विश्‍व महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्यविधान  होता है वह मार्मिक और उद्बोधक होता है। जैसे-
दुखदावा  से  नव  अंकुर,
पाता जग जीवन का वन!
करुणार्द्र विश्‍व का गर्जन,
बरसाता नव जीवन कण!
खुल खुल नव नव इच्छाएँ,
फैलातीं  जीवन  के  दल!
 
यह शैशव का सरल हास है,
सहसा उर से है आ जाता!
यह ऊषा का नव विकास है,
जो रज को है रजत बनाता!
यह लघु लहरों का विलास है,
कलानाथ जिसमें खिंच आता!
×××
हँस पड़े कुसुमों में छविमान,
जहाँ जग में पदचिन्‍ह पुनीत!
वहीं सुख में ऑंसू बन प्राण,
ओस में लुढ़क दमकते गीत!
-गुंजन
मेरा अनुराग फैलने दो,
नभ के अभिनव कलरव में !
जाकर सूनेपन के तम में,
वन किरन कभी आ जाना !
अखिल की लघुता आई बन,
समय का सुंदर वातायन
देखने को अदृष्ट नर्त्तन !
-लहर
जल उठा स्नेह दीपक-सा,
नवनीत  हृदय  था  मेरा।
अब शेष धूम रेखा से,
चित्रित कर रहा अँधेरा॥
-ऑंसू
    मनमाने आरोप, जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्रय का कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। प्रकृति के वस्तु व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत अधिक चलन हो जाने से कहीं-कहीं ये आरोप वस्तु व्यापारों की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर जा पड़ते हैं, जैसे चाँदनी के इस वर्णन में-
    (1) जग के दुख दैन्य शयन पर/ यह रुग्णा जीवन बाला।
       पीली पड़, निर्बल कोमल,/ कृश देह लता कुम्हलाई।
       विवसना, लाज में लिपटी;/ साँसों में शून्य समाई॥
    चाँदनी अपने-आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्‍त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पड़ती है-
    (2) नीले नभ के शतदल पर,
       वह बैठी शारद हासिनि।
       मृदु करतल पर शशिमुख धर,
       नीरव अनिमिष एकाकिनि॥   -ऑंसू
    इसी प्रकार ऑंसुओं को 'नयनों के बाल' कहना भी व्यर्थ-सा है। नीचे की जूठी प्याली भी (जो बहुत आया करती है) किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़ती है-
    (3) लहरों में प्यास भरी है,
       है भँवर पात्र से खाली।
       मानस का सब रस पीकर,
       ढुलका दी तुमने प्याली॥
    प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य की भावना सदैव स्‍त्री सौंदर्य का आरोप करके करना उक्त भावना की संकीर्णता सूचित करता है। कालिदास ने भी मेघदूत में निर्विध्‍या और सिंधु नदियों में स्‍त्री सौंदर्य की भावना की है।1 जिसमें नदी और मेघ के प्रकृत संबंध की रमणीय व्यंजना होती है। ग्रीष्म में नदियाँ सूखती-सूखती पतली हो जाती
 
1. [  पूर्व मेघ, 30-31।  ] 
हैं और तपती रहती हैं। उनपर जब मेघ छाया करता है तब वे शीतल हो जाती हैं और उस छाया को अंक में धारण किए दिखाई देती हैं। वहीं मेघ बरसकर उनकी क्षीणता दूर करता है। दोनों के बीच इसी प्राकृतिक संबंध की व्यंजना ग्रहण करके कालिदास ने अप्रस्तुतविधान किया है। पर सौंदर्य की भावना सर्वत्र स्‍त्री का चित्र  चिपकाकर करना खेल-सा हो जाता है। हिंदी की नई रंगत की कविता में उषा सुंदरी के कपोलों की ललाई, रजनी के रत्नजटित केशकलाप, दीर्घनि:श्वास और अश्रुबिंदु तो रूढ़ हो ही गए हैं; किरन, लहर, चंद्रिका, छाया, तितली सब अप्सराएँ या परियाँ बनकर ही सामने आने पाती हैं। इसी तरह प्रकृति के नाना व्यापार भी चुंबन, आलिंगन, मधुग्रहण, मधुदान; कामिनी की क्रीड़ा इत्यादि में अधिकतर परिणत दिखाई देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारों का अपना-अपना सौंदर्य भी है जो एक ही प्रकार की वस्तु या व्यापार के आरोप द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो सकता।
    हिंदी की नई काव्यधारा में साम्य पहले उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक ऐसे अलंकारों के बड़े-बड़े साँचों के भीतर ही फैलाकर दिखाया जाता था। यह अब प्राय: थोड़े में या तो लाक्षणिक प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता है अथवा कुछ प्रच्छन्न रूपकों में प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता है या पूरे प्रसंग के लिए दृष्टांत, अर्थांतरन्यास आदि का सहारा न लेकर अब अन्योक्ति ही अधिक चलती है। यह बहुत ही परिष्कृत पद्धति  है।
    अधिकतर अलंकारों का विधान सादृश्य के आधार पर होता है। सादृश्य की योजना दो दृष्टियों से की जाती है-स्वरूपबोध के लिए और भाव तीव्र करने के लिए। कवि लोग सदृश वस्तुएँ भाव तीव्र करने के लिए ही अधिकतर लाया करते हैं पर बाह्य कारणों से अगोचर तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए जहाँ सादृश्य का आश्रय लिया जाता है वहाँ कवि का लक्ष्य स्वरूपबोध भी रहता है। भगवद्भक्तों की ज्ञानगाथा में सादृश्य की योजना दोनों दृष्टियों से रहती है। 'माया' को ठगिनी और काम, क्रोध आदि को बटपार, संसार को मायका और ईश्वर को पति रूप में दिखाकर बहुत दिनों से रमते साधु उपदेश देते आ रहे हैं। पर इन सदृश वस्तुओं की योजना से केवल स्वरूप बोध ही नहीं होता, भावोत्तेजना भी प्राप्त होती है। बल्कि यों कहना चाहिए कि उत्तेजित भाव ही उन सदृश वस्तुओं की कल्पना कराता है। विरक्तों के हृदय में माया और काम, क्रोध आदि का भाव ही उस भय की ओर ध्‍यान ले जाता है जो ठगों और बटपारों से होता है। तात्पर्य यह कि स्वरूपबोध के लिए भी काव्य में जो सदृश वस्तु लाई जाती है उसमें यदि भाव उत्तेजित करने की शक्ति भी हो तो काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हो जाती है। नाना राग बन्धनों से युक्त इस संसार के छूटने का दृश्य कैसा मर्मस्पर्शी है! भावुक हृदय में उसका क्षणिक साम्य मायके से स्वामी के घर जाने में दिखाई पड़ता है। बस इतनी ही झलक मिल सकती है। सदृश वस्तु के इस कथन द्वारा अगोचर आध्‍यात्मिक तथ्यों का कुछ स्पष्टीकरण भी हो जाता है और उनकी रुखाई भी दूर हो जाती है।
    सादृश्य की योजना में पहले यह देखना चाहिए कि जिस वस्तु, व्यापार या गुण के सदृश वस्तु, व्यापार या गुण सामने लाया जाता है वह ऐसा तो नहीं है जो किसी भाव-स्थायी या क्षणिक-का आलम्बन या आलम्बन का अंग हो। यदि प्रस्तुत वस्तु, व्यापार आदि ऐसे हैं तो यह विचार करना चाहिए कि उनके सदृश अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार भी उसी भाव के आलम्बन हो सकते हैं या नहीं। यदि कवि द्वारा लाए हुए अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार आदि ऐसे हैं तो कविकर्म सिद्ध समझना चाहिए। उदाहरण के लिए रमणी के नेत्र, वीर का युद्धार्थ गमन और हृदय की कोमलता लीजिए। इन तीनों के वर्णन क्रमश: रतिभाव, उत्साह और श्रद्धा द्वारा प्रेरित समझे जायँगे। और कवि का मुख्य उद्देश्य यह ठहरेगा कि वह श्रोता को भी इन भावों की रसात्मक अनुभूति कराए। अत: जब कवि कहता है कि नेत्र कमल के समान हैं, वीर सिंह के समान झपटता है और हृदय नवनीत के समान है तो ये सदृश वस्तुएँ सौंदर्य, वीरत्व और कोमल सुखदता की व्यंजना भी साथ-ही-साथ करेंगी। इनके स्थान पर यदि हम रसात्मकता का विचार न करके नेत्र के आकार, झपटने की तेजी और प्रकृति की नरमी की मात्रा पर ही दृष्टि रखकर कहें कि 'नेत्र बड़ी कौड़ी या बादाम के समान हैं' 'वीर बिल्ली की तरह झपटता है' और 'हृदय सेमर के घूए के समान है' तो काव्योपयुक्त कभी न होगा। कवियों की प्राचीन परंपरा में जो उपमान बधे चले आ रहे हैं उनमें अधिकांश सौंदर्य आदि की अनुभूति के उत्तेजन होने के कारण रस में सहायक होते हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो आकार आदि ही निर्दिष्ट करते हैं, सौंदर्य की अनुभूति अधिक करने में सहायक नहीं होते जैसे जंघों की उपमा के लिए हाथी की सूँड़, नायिका की कटि की उपमा के लिए भिड़ या सिंहनी की कमर इत्यादि। इनसे आकार, चढ़ाव-उतार और कटि की सूक्ष्मता भर का ज्ञान होता है, सौंदर्य की भावना नहीं उत्पन्न होती; क्योंकि न तो हाथी की सूँड़ में ही दांपत्य रति के अनुकूल अनुरंजनकारी सौंदर्य है और न भिड़ की कमर में ही। अत: रसात्मक प्रसंगों में इस बात का ध्‍यान रहना चाहिए कि अप्रस्तुत (उपमान) भी उसी प्रकार के भाव के उत्तेजक हों, प्रस्तुत जिस प्रकार के भाव के उत्तेजक हों।
    उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि ऐसे प्रसंगों में पुरानी बँधी हुई उपमाएँ ही लाई जायँ, नई न लाई जायँ। 'अप्रसिद्धि' मात्र उपमा का कोई दोष नहीं, पर नई उपमाओं की सारी जिम्मेदारी कवि पर होती है। अत: रसात्मक प्रसंगों में ऊपर लिखी बातों का ध्‍यान रखना आवश्यक है। जहाँ कोई रस स्फुट न भी हो वहाँ भी यह देख लेना चाहिए कि किसी पात्र के लिए जो उपमान लाया जाय वह उस भाव के अनुरूप हो जो कवि ने उस पात्र के संबंध में अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और पाठक के हृदय में भी प्रतिष्ठित करना चाहता है। राम की सेवा करते हुए लक्ष्मण के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है अत: उनकी सेवा का यह वर्णन जो गोस्वामीजी ने किया है कुछ खटकता है।
सेवत लषण सिया रघुबीरहि। जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि॥
    इस दृष्टांत में लक्ष्मण का सादृश्य जो अविवेकी पुरुष से किया गया है उससे सेवा का आधिक्य तो प्रकट होता है पर लक्ष्मण के प्रति प्रतिष्ठित भाव में व्याघात पड़ता है। यह यहाँ कहा जा सकता है कि लक्ष्मण का सादृश्य अविवेकी पुरुष के साथ कवि ने नहीं दिखाया है बल्कि लक्ष्मण के सेवा कर्म का सादृश्य अविवेकी के सेवा कर्म से दिखाया गया है। ठीक है, पर लक्ष्मण का कर्म श्‍लाघ्य है और अविवेकी का निंद्य, इसलिए ऐसे अप्रस्तुत कर्म को मेल में रखने से प्रस्तुत कर्मसंबंधिनी भावना में बाधा अवश्य पड़ती है। रसात्मक प्रसंगों में केवल किसी बात के आधिक्य या न्यूनता की हद से काम नहीं चलता। जो भावुक और रसज्ञ न होकर केवल अपनी दूर की पहुँच दिखाना चाहते हैं वे कभी-कभी आधिक्य या न्यूनता की हद दिखाने में ही फँसकर भाव के प्रकृत स्वरूप को भूल जाते हैं। कोई ऑंखों के कोनों को कान तक पहुँचाता है, कोई नायिका को ब्रह्म के समान अगोचर और सूक्ष्म बताता है, कोई यार की कमर कहाँ है, किधर है, यही पता लगाने में रह जाता है। नायिका श्रृंगार का आलम्बन होती है। उसके स्वरूप के संघटन में इस बात का ध्‍यान [ रखना ]   चाहिए कि उसकी रमणीयता बनी रहे। प्राचीन कवि जहाँ मृणाल की ओर संकेत करके सूक्ष्मता और सौंदर्य एक साथ दिखाते थे, वहाँ लोग या तो भिड़ की कमर सामने लाने लगे या कमर ही गायब करने लगे। चमत्कारवादी इसमें अद्भुत रस का आनंद मानने लगे। पर सोचने की बात है कि नायिका अद्भुत रस का आलम्बन है या श्रृंगार रस का। श्रृंगार रस के आलम्बन में 'अद्भुत' केवल सौंदर्य का विशेषण हो सकता है। 'अद्भुत सौंदर्य' हम दिखा सकते हैं पर सौंदर्य को गायब नहीं कर सकते।
    किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अंतवृत्ति जब उस भाव के पोषक स्वरूप गढ़कर या काट-छाँटकर सामने रखने लगती है तब हम उसे सच्ची कविकल्पना कह सकते हैं। यों ही सिरपच्ची करके बिना किसी भाव में मग्न हुए कुछ अनोखे रूप खड़े करना या कुछ को कुछ कहने लगना या तो बावलापन है या दिमागी कसरत; सच्चे कवि की कल्पना नहीं। वास्तव के अतिरिक्त या वास्तव के स्थान पर जो रूप सामने लाए गए हों उनके संबंध में यह देखना चाहिए कि वे किसी भाव की उमंग में उस भाव को सँभालने या बढ़ानेवाले होकर आ खड़े हुए हैं या यों ही तमाशा दिखाने के लिए-कुतूहल उत्पन्न करने के लिए-जबरदस्ती पकड़कर लाए गए हैं। यदि ऐसे रूपों की तह में उनके प्रवर्तक या प्रेषक भाव का पता लग जाय तो समझिए कि कवि के हृदय का पता लग गया और वे रूप हृदय प्रेरित हुए। अंगरेजी कवि कालरिज ने, जिसने कविकल्पना पर अच्छा विवेचन किया है अपनी एक कविता में ऐसे रूपावरण को आनंदस्वरूप आत्मा से निकला हुआ कहा है; जिसके प्रभाव से जीवन में रोचकता रहती है। जब तक यह रूपावरण (कल्पना का) जीवन में साथ लगा चलता है तब तक दु:ख की परिस्थिति में भी आनंद स्वप्न नहीं टूटता। पर धीरे-धीरे यह दिव्य आवरण हट जाता है और मन गिरने लगता है। भावोद्रेक और कल्पना में इतना घनिष्ठ संबंध है कि एक काव्य मीमांसक ने दोनों को एक ही कहना ठीक समझकर कह दिया है-'कल्पना आनंद है। (Imaginiation is joy)। सच्चे कवियों की कल्पना की बात जाने दीजिए, साधारण व्यवहार में भी लोग जोश में आकर कल्पना का जो व्यवहार बराबर किया करते हैं वह भी किसी पहाड़  को 'शिशु' और 'पांडव' कहनेवाले कवियों के व्यवहार से कहीं उचित होता है। किसी निष्ठुर कर्म करनेवाले को यदि कोई 'हत्यारा' कह देता है तो वह सच्ची कल्पना का उपयोग करता है; क्योंकि विरक्ति या घृणा के अतिरेक से प्रेरित होकर ही उसकी अंतवृत्ति हत्यारे का रूप सामने करती है जिससे भाव की मात्रा के अनुरूप आलम्बन खड़ा हो जाता है। 'हत्यारा' शब्द का लाक्षणिक प्रयोग ही विरक्ति की अधिकता का व्यंजक है। उसके स्थान पर यदि कोई उसे 'बकरा' कहे, तो या तो किसी भाव की व्यंजना न होगी या किसी ऐसे भाव की होगी जो प्रस्तुत विषय के मेल में नहीं। कहलानेवाला कोई भाव अवश्य चाहिए और उस भाव को प्रस्तुत वस्तु के अनुरूप होना चाहिए। भारी मूर्ख को लोग जो 'गदहा' कहते हैं वह इसीलिए कि 'मूर्ख' कहने से उनका जी नहीं भरता-उनके हृदय में उपहास अथवा तिरस्कार का जो भाव रहता है उसकी व्यंजना नहीं होती।
    कहने की आवश्यकता नहीं कि अलंकारविधान में उपयुक्त उपमान लाने में कल्पना ही काम करती है। जहाँ वस्तु, गुण या क्रिया के पृथक्-पृथक् साम्य पर ही कवि की दृष्टि रहती है वहाँ वह उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का सहारा लेता है और जहाँ व्यापारसमष्टि या पूर्ण प्रसंग का साम्य अपेक्षित होता है वहाँ दृष्टांत, अर्थांतरन्यास और अन्योक्ति का। उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट है कि प्रस्तुत के मेल में जो अप्रस्तुत रखा जाय-चाहे वह वस्तु, गुण या क्रिया हो अथवा व्यापारसमष्टि-वह प्राकृतिक और चित्ताकर्षक हो तथा उसी प्रकार का भाव जगानेवाला हो जिस प्रकार का प्रस्तुत व्यापारसमष्टि के समन्वय में कवि की सहृदयता का जिस पूर्णता के साथ हमें दर्शन होता है उस पूर्णता के साथ वस्तु, क्रिया आदि के पृथक्-पृथक् समन्वय में नहीं। इसी से सुंदर अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिणी होती हैं। चुना हुआ अप्रस्तुत व्यापार जितना ही प्राकृतिक होगा, जितना ही अधिक मनुष्य जाति के आदिम जीवन
  *  Dejection Ode, 4th April, 1802,
  †  G, W. Mackael’s Lectures on Poetry,
में सुलभ दृश्यों के अंतर्गत होगा-उतना ही रमणीय और अनुरंजनकारी होगा। कोई गोपिका या राधा स्वप्न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृतिव्यापी और गूढ़ व्यापार सूर ने रखा है, देखिए-
हमको सपनेहू में सोच।
जा दिन तें बिछुरे नंदनंदन या दिन ते यह पोच।
मनौ गोपाल आए मेरे घर, हँसि कर भुजा गही।
कहा करौं बैरिनि भइ निंदिया, निमिष न और रही।
ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि कै आनंदी पिय जानि।
सूर पवन मिलि निठुर बिधाता चपल कियो जल आनि॥
    स्वप्न में अपने ही मानस में किसी का रूप देखने और जल में अपना ही प्रतिबिंब देखने का कैसा गूढ़ और सुंदर साम्य है। इसके उपरांत पवन द्वारा प्रशांत जल के हिल जाने से छाया का मिट जाना कैसा भूतव्यापी व्यापार स्वप्नभंग के मेल में लाया गया है।
    इसी प्रकार प्राकृतिक चित्रों द्वारा सूर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है। जैसे, गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी विरह से तड़फड़ा रही हैं, पर कृष्ण राजसुख के आनंद में फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात वे इस चित्र  के द्वारा कहतेहैं-
सागर कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल पीन।
    जैसा ऊपर कहा गया है, जिसे निर्माण करनेवाली-सृष्टि खड़ी करनेवाली कल्पना कहते हैं उसकी पूर्णता किसी एक प्रस्तुत वस्तु के लिए कोई दूसरी अप्रस्तुत वस्तु-जो कि प्राय: कवि परंपरा में प्रसिद्ध हुआ करती है-रख देने में उतनी नहीं दिखाई पड़ती जितनी किसी एक पूर्ण प्रसंग के मेल का कोई दूसरा प्रसंग-जिसमें अनेक प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की नवीन योजना रहती है-रखने में देखी जाती है। सूरदासजी ने कल्पना की इस पूर्णता का परिचय जगह-जगह दिया है। कबीर, जायसी आदि कुछ रहस्यवादी कवियों ने इस जीवन का मार्मिक स्वरूप तथा परोक्ष जगत् की कुछ धुँधली-सी झलक दिखाने के लिए अन्योक्ति की पद्धति  का अवलम्बन किया है; जैसे-
हंसा प्यारे ! सरवर तजि कहँ जाय?
जेहि सरवर बिच मोती चुनते, बहु विधि केलि कराय।
सूख ताल, पुरइनि जल छोड़े, कमल गयो कुँभिलाय।
कह कबीर जो अबकी बिछुरै, बहुरि मिलैं कब आय॥
    रहस्यवादी कवियों के समान भक्त सूर की कल्पना की कभी-कभी इस लोक का अतिक्रमण करके आदर्श लोक की ओर संकेत करने लगती है; जैसे-
चकई  री ! चलि  चरन-सरोवर  जहाँ  न  प्रेम  वियोग।
निसि दिन राम राम की वर्षा, भय रुज नहिं दुख सोग।
जहाँ सनक से मीन, हंस शिव, मुनिजन नख रवि प्रभा प्रकास।
प्रफुलित कमल, निमिष नहि ससि डर, गुंजत निगम सुवास।
जेहि सर सुभग मुक्ति मुक्ता फल, सुकृत अमृत रस पीजै।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम ! इहाँ कहा रहि कीजैं?
पर एक व्यक्तिवादी सगुणोपासक कवि की उक्ति होने के कारण इस चित्र में वह रहस्यमयी अव्यक्तता या धुँधालापन नहीं है। कवि अपनी भावना को स्पष्ट और अधिक व्यक्त करने के लिए जगह-जगह आकुल दिखाई पड़ता है। इसी से अन्योक्ति का मार्ग छोड़ जगह-जगह उसने रूपक का आश्रय लिया है। इसी अन्योक्ति का दीनदयाल गिरिजी ने अच्छा निर्वाह किया है-
चल चकई ! तेहि सर विषै जहँ नहिं रैन बिछोह।
रहत एकरस दिवस ही, सुहृद हंस-संदोह।
सुहृद हंस-संदोह कोह अरु द्रोह न जाको।
भोगत सुख-अंबोह, मोह-दुख होय न ताको।
बरनै दीनदयाल भाग्य बिन जाय न सकई।
पिय मिलाप नित रहै, ताहि सर चल तू चकई॥
    कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर जो बात कही गई है वह ऐसी वस्तुओं के संबंध में कही गई है जिनका वर्णन, कवि किसी भाव में मग्न होकर, उसी भाव में मग्न करने के लिए, करता है-जैसे, नायिका का वर्णन, प्राकृतिक शोभा का वर्णन वीर कर्म का वर्णन इत्यादि। जहाँ वस्तुएँ ऐसी होती हैं कि उनके संबंध में अलग कोई उपयुक्त भाव (जैसे रति, भय, हर्ष, घृणा, श्रद्धा इत्यादि) नहीं होता, केवल उनके रूप, गुण, क्रिया आदि का ही गोचर स्पष्टीकरण करना या अधिकता न्यूनता की ही भावना तीव्र करना अपेक्षित होता है-उनके द्वारा किसी भाव की अनुभूति की वृद्धि करना नहीं-वहाँ आकृति, गुण आदि का निरूपण और आधिक्य या न्यूनता का बोध करानेवाली सदृश वस्तुओं से ही प्रयोजन रहता है। हाथियों के डीलडौल, तलवार की धार, किसी कर्म की कठिनता, खाई की चौड़ाई इत्यादि के वर्णन में केवल इस प्रकार का सादृश्य अपेक्षित रहता है जैसे पहाड़ के समान हाथी, बाल की तरह धार, पहाड़-सा काम, नदी-सी खाई इत्यादि।
    आधिक्य या न्यूनता सूचित करने के लिए ऊहात्मक या वस्तुव्यंजनात्मक शैली का विधान कवियों में तीन प्रकार का देखा जाता है।
    (1) ऊहा की आधारभूत वस्तु असत्य अर्थात् कवि प्रौढ़ोक्ति सिद्ध है।
    (2) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप सत्य या स्वत:सम्भवी है और किसी प्रकार की कल्पना नहीं की गई है।
    (3) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप तो सत्य है पर उसके हेतु की कल्पना की गई है।
    इनमें से प्रथम प्रकार के उदाहरण वे हैं जिन्हें बिहारी ने विरहताप के वर्णन में दिया है-जैसे, पड़ोसियों को जाड़े की रात में भी बेचैन करनेवाला, या बोतल में भरे गुलाबजल को सुखा डालनेवाला ताप; दूसरे प्रकार का उदाहरण एक स्थल पर जायसी ने बहुत अच्छा दिया है, पर वह विरहताप के वर्णन में नहीं है, काल की दीर्घता वर्णन में है। आठ वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौरगढ़ घेरे रहा। इस बात को एक बार तो कवि ने साधारण इतिवृत्त के रूप में कहा, पर उससे वह गोचर प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सका जिसका प्रयत्न काव्य करता है। आठ वर्ष के दीर्घत्व के अनुमान के लिए फिर उसने यह दृश्य आधार सामने रखा-
आइ साह अमराव जो लाए। फरे, झरे पै गढ़ नहि पाए॥
    सच पूछिए तो वस्तु व्यंजनात्मक या ऊहात्मक पद्धति का इसी रूप में अवलम्बन सबसे अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। इसमें अनुमान का आधार सत्य या स्वत:सम्भवी है। जायसी अनुमान या ऊहा के आधार के लिए ऐसी वस्तु सामने लाए हैं जिसका स्वरूप प्राकृतिक है और जिससे सामान्यत: सब लोग परिचित होते हैं। इसी प्रकार एक गीत में एक वियोगिनी नायिका कहती है कि 'मेरा प्रिय दरवाजे पर जो नीम का पेड़ लगा गया था वह बढ़कर अब फूल रहा है, पर प्रिय न लौटा।' आधार के सत्य और प्राकृतिक स्वरूप के कारण इस उक्ति से कितना भोलापन बरस रहा है!
    सुकुमारता की अत्युक्तियाँ अस्वाभाविकता के कारण, केवल ऊहा द्वारा मात्रा या परिमाण के आधिक्य की व्यंजना के कारण, कोई रमणीय चित्र  सामने नहीं लातीं। प्राचीन कवियों के 'शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्य्य' का जो प्रभाव हृदय पर पड़ता है वह खरोंच और छालेवाले सौकुमार्य का नहीं। कहीं-कहीं गुण की अवस्थिति मात्र का दृश्य जितना मनोरम होता है उतना उस गुण के कारण उत्पन्न दशांतर का चित्र  नहीं। जैसे नायिका के होंठ की ललाई का वर्णन करते-करते यदि कोई 'तद्गुण' अलंकार की झोंक में यह कह डाले कि जब वह नायिका पीने के लिए पानी होठों से लगाती है तब वह खून हो जाता है तो यह दृश्य कभी रुचिकर नहीं लग सकता। ईंगुर, बिंबा आदि सामने रखकर उस लाली की मनोहर भावना उत्पन्न कर देना ही काफी समझना चाहिए। उस लाली के कारण क्या बातें पैदा हो सकती हैं इसका हिसाब-किताब बैठाना जरूरी नहीं।
    इसी प्रकार की विरसतापूर्ण अत्युक्ति ग्रीवा की कोमलता और स्वच्छता के इस वर्णन में भी है-
पुनि तेहि ठाँव परीं तिनि रेखा। घूँट जो पीक लीक सब देखा।
    इस वर्णन से तो चिड़ियों के अंडे से तुरंत फूटकर निकले हुए बच्चे का चित्र  सामने आता है। वस्तु या गुण का परिमाण अत्यंत अधिक बढ़ाने से ही सर्वत्र सरसता नहीं आती। इस प्रकार की वस्तुव्यंग्य उक्तियों की भरमार उस काल से आरंभ हुई जबसे 'ध्‍वनि' का आग्रह बहुत बढ़ा, और सब प्रकार की व्यंजनाएँ उत्तम काव्य समझी जाने लगीं। पर वस्तुव्यंजनाएँ ऊहा द्वारा ही की और समझी जाती हैं, सहृदयता से उनका नित्य संबंध नहीं होता।
    तीसरे प्रकार का विधान भी प्रथम प्रकार के विधान से अधिक उपयुक्त होता है। इसमें हेतूत्प्रेक्षा का सहारा लिया जाता है जिसमें 'अप्रस्तुत' वस्तुओं का गृहीत दृश्य वास्तविक होता है, केवल उसका हेतु कल्पित होता है। हेतु परोक्ष हुआ करता है। इससे उसकी अतथ्यता सामने आकर प्रतीति में बाधा डालती नहीं जान पड़ती। सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है। इनमें से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार उत्कर्ष की व्यंजना के लिए बड़ा शक्तिशाली होता है। लोक में कार्य और कारण एक साथ बहुत ही कम देखे जाते हैं। प्राय: कारण परोक्ष ही रहता है। अत: रूप या क्रिया यदि अपने प्रकृत रूप में हमारे सामने रख दी गई तो वह उस प्रभाव का प्रमाण-स्वरूप लगने लगती है जिसे कवि खूब बढ़ाकर दिखाना चाहता है और हम इस बात की छानबीन में नहीं पड़ने जाते कि हेतु ठीक है या नहीं।
    भारतीय काव्यपद्धति में उपमान चाहे उदासीन हों, पर भाव के विरोधी कभी नहीं होते। 'भाव' से मेरा अर्थ वही है जो साहित्य में लिया जाता है। 'भाव' का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्यबोध मात्र नहीं बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल अवस्था विशेष है जिसमें शरीरवृत्ति और मनोवृत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके स्वरूप के अंतर्गत अपनी हानि या अपमान की बात तात्पर्यबोध, उग्र वचन और कर्म की प्रवृत्ति का वेग तथा त्योरी चढ़ना, ऑंखें लाल होना, हाथ उठना ये सब बातें रहती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि-से इन सबके समष्टिविधान का नाम क्रोध का भाव है। रौद्ररस के प्रसंग में कवि लोग जो उपमान लाते हैं वे भी संतापदायक या उग्र होते हैं, जैसे अग्नि। क्रोध से रक्तवर्ण नेत्रों की उपमा जब कोई कवि देगा तब अंगार आदि की देगा, रक्त कमल या बंधूक पुष्प की नहीं। इसी प्रकार श्रृंगार रस में रक्त, मांस, फफोले, हवी आदि का बीभत्स दृश्य सामने आना अरुचिकर प्रतीत होता है। पर जहाँ केवल 'तात्पर्य' के उत्कर्ष का ध्‍यान प्रधान रहेगा-खयाल की बारीकी या बलंदपरवाजी पर ही नजर रहेगी वहाँ भाव के स्वरूप का उतना विचार न रह जायगा। फारसी की शायरी में ही विप्रलम्भ श्रृंगार के अंतर्गत ऐसे बीभत्स दृश्य प्राय: लाए जाते हैं।
    यदि कवि सच्चा है, शेष सृष्टि के साथ उसके हृदय का पूर्ण सामंजस्य है, उसमें सृष्टिव्यापिनी सहृदयता है तो उसके सादृश्यविधान में एक बात और लक्षित होगी। वह जिस सदृश वस्तु या व्यापार की ओर ध्‍यान ले जायगा कहीं-कहीं उससे मनुष्य को और प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपने संबंध की बड़ी सच्ची अनुभूति होगी। विरहताप से झुलसी और सूखी हुई नागमती को जब प्रिय के आगमन का आभास मिलता है तब उसकी दशा कैसी होती है-
जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई। परहिं बूँद औ सोंधि बसाई॥
ओहि भाँति पलुही सुख बारी। उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥
    इसमें मनुष्य देखता है कि जिस प्रकार संताप और आह्लाद के चिह्न मेरे शरीर में दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही पेड़-पौधों के भी। इस प्रकार उनके साथ अपने संबंध की अनुभूति का उदय उसके हृदय में होता है। ऐसी अनुभूति द्वारा मानव हृदय का प्रसार करने में जो कवि समर्थ हो वह धन्य है। 'शरीर पनपना' आदि लाक्षणिक प्रयोग जो बोलचाल में आ गए हैं वे ऐसे ही कवियों की कृपा से हुए हैं।
    'सांग-रूपक' के गुण-दोष का भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोप सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर ही होता है। अधिकतर देखा जाता है कि 'निरंग-रूपक' में तो सादृश्य और साधर्म्य का ध्‍यान रहता है पर सांग और परम्परित में इनका पूरा निर्वाह नहीं होता और जल्दी हो भी नहीं सकता। दो में से एक का भी पूरा निर्वाह हो जाय तो बड़ी बात है; दोनों का एक साथ निर्वाह तो बहुत कम देखा जाता है। सादृश्य से हमारा अभिप्राय बिम्ब-प्रतिबिम्ब रूप और साधर्म्य से वस्तु-प्रतिवस्तु धर्म है। साहित्य-दर्पणकार का यह उदाहरण लेकर विचार कीजिए-
    'रावण-रूप अवर्षण से क्लांत देवता-रूप शस्य को इस प्रकार वाणी-रूप अमृत जल से सींच वह कृष्णरूप मेघ अन्तर्हित हो गया।'1
    इस उदाहरण में रावण और अवर्षण में रूपसादृश्य नहीं है; केवल साधर्म्य  है। इस प्रकार देवता और शस्य में तथा वाणी और जल में कोई रूपसादृश्य नहीं है, साधर्म्य मात्र है। पर विष्णु और काले मेघ में सादृश्य और साधर्म्य  दोनों हैं-विष्णु का स्वरूप भी नील जलद का सा है और धर्म भी उसी के समान लोकानंद प्रदान करता है। पर सांगरूपक में कहीं-कहीं तो केवल अप्रस्तुत (उपमान) दृश्य को किसी प्रकार बढ़ाकर पूरा करने का ही ध्‍यान कवियों को रहता है। वे यह नहीं देखने जाते कि एक-एक अंग या ब्योरे में किसी प्रकार का सादृश्य या साधर्म्य है अथवा नहीं। विनयपत्रिका के 'सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी' वाले पद में रूपक के अंगों की योजना अधिकतर इसी प्रकार की है।
    यद्यपि साहित्य के आचार्यों ने साम्य से कहे हुए विरोधी रस या भाव को (विभाव आदि को भी) दोषाधायक नहीं माना है, पर इस प्रकार के आरोपों से रस की प्रतीति में व्याघात अवश्य पड़ता है, वाग्वैदग्‍ध्‍य द्वारा मनोरंजन चाहे कुछ हो जाय। काव्य में बिंब स्थापना (Imagery) प्रधान वस्तु है। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों में यह पूर्णता को प्राप्त है। अँगरेजी कवि शेली इसके लिए प्रसिद्ध हैं। भाषा के
 
1. रावणाविग्रहक्लांतमिति वागमृतेन स:।
   अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधो॥ -दशम परिच्छेद।
दो पक्ष होते हैं-एक सांकेतिक (Symbolic) और दूसरा बिंबाधायक (Presentative)। एक में तो नियत संकेत द्वारा अर्थबोध मात्र हो जाता है, दूसरे में वस्तु का बिंब या चित्र अंत:करण में उपस्थित होता है। वर्णनों में सच्चे कवि द्वितीय पक्ष का अवलम्बन करते हैं। वे वर्णन इस ढंग पर करते हैं कि ऐसी वस्तुओं का बिंब ग्रहण कराया जाय, ऐसी वस्तुएँ सामने लाई जायँ, जो प्रस्तुत रस के अनुकूल हों, उसकी प्रतीति में बाधक न हों। सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर आरोप द्वारा भी जो वस्तुएँ लाई जायँ वे भी ऐसी ही होनी चाहिए। वीररस की अनुभूति के समय कुच, तरिवन, सिंदूर आदि सामने लाना या श्रृंगाररस की अनुभूति के अवसर पर मस्त हाथी, भाले, बरछे, सामने रखना रसानुभूति में सहायक कदापि नहीं।
    हम पहले कह आए हैं कि भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होनेवाली युक्ति ही अलंकार है। अत: अलंकारों की परीक्षा इसी दृष्टि से करनी चाहिए कि वे कहाँ तक उक्त प्रकार से सहायक हैं। यदि किसी वर्णन में उनसे इस प्रकार की कोई सहायता नहीं पहुँचती है, तो वे काव्यालंकार नहीं, भार मात्र हैं। यह ठीक है कि वाक्य की कुछ विलक्षणता-जैसे श्‍लेष और यमक-द्वारा श्रोता या पाठक का ध्‍यान आकर्षित करने के लिए भी अलंकार की थोड़ी बहुत योजना होती है, पर उसे बहुत ही गौण समझना चाहिए। काव्य की प्रक्रिया के भीतर ऊपर कही बातों में से किसी एक में भी जिससे सहायता पहुँचती है, उसे उत्तम कहेंगे।
    अलंकार के स्वरूप की ओर ध्‍यान देते ही इस बात का पता चल जाता है कि वह कथन की एक युक्ति या वर्णनशैली मात्र है। यह शैली सर्वत्र काव्यालंकार नहीं कहला सकती। उपमा को ही लीजिए जिसका आधार होता है सादृश्य। यदि कहीं सादृश्ययोजना का उद्देश्य बोध कराना मात्र है तो वह काव्यालंकार नहीं। 'नीलगाय गाय के सदृश होती है' इसे कोई अलंकार नहीं कहेगा। इसी प्रकार 'एकरूप तुम भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम ते नहिं मारेउँ सोऊ॥' में भ्रम अलंकार नहीं है। केवल 'वस्तुत्व' या 'प्रमेयत्व' जिसमें हो वह अलंकार नहीं।1 अलंकार में रमणीयता होनी चाहिए। चमत्कार न कहकर रमणीयता हम इसलिए कहते हैं कि चमत्कार के अंतर्गत केवल भाव, रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष ही नहीं, शब्दकौतुक और अलंकार सामग्री की विलक्षणता भी ली जाती है। जैसे, बादल के स्तूपाकार टुकड़े के ऊपर निकले हुए चंद्रमा को देख यदि कोई कहे कि 'मानो ऊँट की पीठ पर घंटा रखा हुआ है' तो कुछ लोग अलंकार सामग्री की इस विलक्षणता पर-कवि की इस दूर की सूझ पर-ही वाह-वाह करने लगेंगे। पर इस उत्प्रेक्षा से ऊपर लिखे प्रयोजनों में से एक भी सिद्ध नहीं होता। बादल के ऊपर निकलते हुए चंद्रमा को देख हृदय में स्वभावत: सौंदर्य
 
1.साधर्म्य कविसमयप्रसिद्धं कांतिमत्त्वादि न तु वस्तुत्वप्रमेयत्वादि ग्राह्यम्।-विद्याधर।
 
की भावना उठती है। पर ऊँट पर रखा हुआ घंटा कोई ऐसा सुंदर दृश्य नहीं जिसकी योजना से सौंदर्य के अनुभव में कुछ और वृद्धि हो। भावानुभव में वृद्धि करने के गुण का नाम ही अलंकार की रमणीयता है।
    हम ऊपर कह आए हैं कि अलंकार वर्णन करने की अनेक प्रकार की चमत्कारपूर्ण शैलियाँ हैं। इन्हें काव्यों से चुनकर प्राचीन आचार्यों ने नाम रखे और लक्षण बनाए। ये शैलियाँ न जाने कितनी हो सकती हैं। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि जितने
अलंकारों के नाम ग्रंथों में मिलते हैं उतने ही अलंकार हो सकते हैं। बीच-बीच में नए आचार्य नए अलंकार बढ़ाते आए हैं; जैसे, 'विकल्प' अलंकार को अलंकार सर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने ही निकाला था। इसलिए यह न समझना चाहिए कि  काव्यरचना में उतनी ही चमत्कारपूर्ण शैलियों का समावेश हो सकता है जितना नाम रखकर गिना दी गई हैं। बहुत से स्थानों पर कवि ऐसी शैली का अवलम्बन कर जायगा जिसके प्रभाव या चमत्कार की ओर लोगों का ध्‍यान न गया होगा और जिसका नाम न रखा गया होगा; यदि रखा भी गया होगा तो किसी दूसरे देश के रीतिग्रंथ में। उदाहरण के लिए यह पद्य लीजिए-
कँवलहि विरह-विथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥
    'केसर बरन पीर हिय गाढ़ी' इस पंक्ति का अर्थ अन्वयभेद से तीन ढंग से हो सकता है-(1) कमल केसर वर्ण (पीला) हो रहा है, हृदय में गाढ़ी पीर है। (2) गाढ़ी पीर से हृदय केसर वर्ण हो रहा है। (3) हृदय में केसर वर्ण गाढ़ी पीर है। इनमें से पहला अर्थ तो ठीक नहीं होगा, क्योंकि कवि की उक्ति का आधार केवल कमल के हृदय का पीला होना है, सारे कमल का पीला होना नहीं। दूसरा अर्थ अलबत सीधा और ठीक जँचता है, पर अन्वय इस प्रकार खींचतान कर करना पड़ता है-'गाढ़ी पीर हिय केसर बरन।' तीसरा अर्थ यदि लेते हैं तो 'पीर का एक असाधारण विशेषण केसर बरन' रखना पड़ता है।  इस दशा में 'केसर वर्ण' का लक्षणा से अर्थ करना होगा 'केसरवर्ण करनेवाली', 'पीला करनेवाली' और पीड़ा का आतिशय्य लक्षणा का प्रयोजन होगा। पर योरोपीय साहित्य में इस प्रकार की शैली अलंकार रूप से स्वीकृत है और हाईपैलेज (Hypallage) कहलाती है। इसमें कोई गुण प्रकृत गुणी से हटाकर दूसरी वस्तु में आरोपित कर दिया जाता है; जैसे यहाँ पीलेपन का गुण 'हृदय' से हटाकर 'पीड़ा' पर आरोपित किया गया है।
    एक उदाहरण और लीजिए-'जस भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई'। इस वाक्य में 'पलुहाई' की संगति के लिए 'भुइँ' शब्द का अर्थ उसपर के घास-पौधो अर्थात् आधार के स्थान पर आधेय लक्षणा से लेना पड़ता है। बोलचाल में भी इस प्रकार के रूढ़ प्रयोग आते हैं, जैसे इन दोनों घरों में झगड़ा है। योरोपीय अलंकार शास्त्र में आधेय के स्थान पर आधार के कथन की प्रणाली को मेटानमी (Metonymy) अलंकार कहेंगे। इसी प्रकार अंगी के स्थान पर अंग, व्यक्ति के स्थान पर जाति आदि का लाक्षणिक प्रयोग सिनेकडोक (Synecdoche) अलंकार कहा जा सकता है। सारांश यह कि चमत्कार प्रणालियाँ बहुत-सी हो सकती हैं।
    रूप, गुण और क्रिया तीनों का अनुभव तीव्र करने के लिए अधिकतर सादृश्यमूलक उपमा आदि अलंकारों का ही प्रयोग होता है। रूप का अनुभव प्रधानत: चार प्रकार का होता है-अनुरंजक, भयावह, आश्चर्यकारक या घृणोत्पादक। इस प्रकार के अनुभव में सहायक होने के लिए आवश्यक है कि प्रस्तुत वस्तु और आलंकारिक वस्तु में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो अर्थात् अप्रस्तुत (कवि द्वारा लाई हुई) वस्तु प्रस्तुत वस्तु से रूप रंग आदि में मिलती-जुलती हो और उससे उसी भाव के उत्पन्न होने की संभावना हो जो प्रस्तुत वस्तु से उत्पन्न हो रहा हो।
    जहाँ वस्तु या व्यापार अगोचर होता है, वहाँ अलंकार उसके अनुभव में सहायता गोचर रूप प्रदान करके करता है; अर्थात् वह पहले गोचर प्रत्यक्षीकरण करके बोधवृत्ति की कुछ सहायता करता है, तब फिर रागात्मिकता वृत्ति को उत्तेजित करता है। जैसे यदि कोई आनेवाली विपत्ति या अनिष्ट का कुछ भी ध्‍यान न करके अपने रंग में मस्त रहता हो और उसको देखकर कोई कहे कि-'चरै हरित तृन बलि-पसु जैसे' तो इस कथन से उसकी दशा का प्रत्यक्षीकरण कुछ अधिक हो जायगा जिससे उसमें भय का संचार पहले से कुछ अधिक हो सकता है।
    क्रिया और गुण का अनुभव तीव्र कराने के लिए प्रस्तुत-अप्रस्तुत वस्तु के बीच या तो 'अनुगामी' (एक ही) धर्म होता है या वस्तु प्रतिवस्तु या उपचरित। सीधी  भाषा में यों कह सकते हैं कि अलंकार के लिए लाई हुई वस्तु और प्रसंगप्राप्त वस्तु का धर्म या तो एक ही होता है, या अलग-अलग कहे जाने पर भी दोनों के धर्म समान होते हैं; अथवा एक के धर्म का उपचार दूसरे पर किया जाता है। जैसे, उसका हृदय पत्थर के समान है।
    अब गुण का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार पर आइए और देखिए कि एक 'व्यतिरेक' की सहायता से संतों का स्वभाव किस सफाई के साथ औरों से अलग करके दिखाया गया है-
    संत  हृदय  नवनीत  समाना।    कहा कबिन पै कहइ न जाना॥
    निज  परिताप  द्रवै  नवनीता।   पर  दुख  द्रवैं  सुसंत  पुनीता॥
    संतों और असंतों के बीच के भेद को थोड़ा कहते-कहते 'व्याघात' द्वारा कितना बड़ा कह डाला है, जरा यह भी देखिए-
बंदउँ  संत  असज्जन  चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
मिलत एक दारुन दुख देहीं। बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं॥
इस इतने बड़े भेद को थोड़ा कहनेवाले का हृदय कितना बड़ा होगा;
    बहुत से स्थल ऐसे भी होते हैं, जहाँ यह निश्चय करने में गड़बड़ी हो सकती  है कि यहाँ अलंकार है या भाव। इसकी संभावना वहीं होगी जहाँ स्मरण, संदेह और भ्रांति का वर्णन होगा। स्मरण का यह उदाहरण लीजिए-
    बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीर लोचन जल छाए॥
    इसे न विशुद्ध अलंकार ही कह सकते हैं, न भाव ही। उपमेय और उपमान (राम के शरीर, यमुना के जल) के सादृश्य की ओर ध्‍यान देते हैं तो स्मरण अलंकार ठहरता है; और जब अश्रु सात्त्विक की ओर देखते हैं तो स्मरण संचारी भाव निश्चित होता है। सच पूछिए तो इसमें दोनों हैं। पर इसमें संदेह नहीं कि भाव का उद्रेक अत्यंत स्वाभाविक है और यहाँ वही प्रधान है, जैसा कि 'लोचन जल छाए' से प्रकट होता है। विशुद्ध अलंकार तो वहीं कहा जा सकता है जहाँ सदृश वस्तु लाने में कवि का उद्देश्य केवल रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष दिखाना रहता है। अलंकार का स्मरण प्राय: वास्तविक नहीं होता; रूप, गुण आदि के उत्कर्ष प्रदर्शन का एक कौशल मात्र होता है। दूसरी बात ध्‍यान देने की यह है कि स्मरण भाव केवल सदृश वस्तु से ही नहीं होता, संबंधी वस्तु से भी होता है। शुद्ध 'स्मरण' भाव का यह उदाहरण बहुत ही अच्छा है-
जननि निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नयननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ॥
    अब भ्रम का एक ऐसा ही उदाहरण लीजिए। सीताजी अपने जलने के लिए अशोक से अंगार माँग रही थीं। इतने में हनुमान ने पेड़ के ऊपर से राम की 'मनोहर मुद्रिका' गिराई और-
जानि असोक अँगार सीय हरषि उठि कर गह्यो।
    इसी प्रकार जहाँ रामचरितमानस के उत्तरकांड में अयोध्‍या की विभूति का वर्णन है, वहाँ कहा गया है-
मनि मुख मेलि डारि कपि देही।
    इन दोनों उदाहरणों में 'भ्रम' अलंकार नहीं है। अलंकार में भ्रम के विषय की विशेषता होती है, भ्रांत की नहीं। भ्रांत की विशेषता में तो पागलों का भ्रम भी अलंकार हो जायगा। सीता का जो भ्रम है, वह विरह की विह्वलता के कारण और बंदरों का जो भ्रम है, वह पशुत्व के कारण। इस प्रकार का भ्रम अलंकार नहीं, यह बात आचार्यों ने स्पष्ट कह दी है-
मर्मप्रहारकृत -चित विक्षेप -विरहादिकृतोन्मादादिजन्यभ्रान्तेश्च   नालंकारत्वम्।
-उद्योतकार।
    संदेह के संबंध में यही बात समझिए जो ऊपर कही गई है। तीनों में सादृश्य आवश्यक है। संदेह तो अलंकार तभी होगा जब उसको लाने का मुख्य उद्देश्य, रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्ष (अपकर्ष भी) सूचित करना होगा। ऐसा संदेह वास्तविक भी हो सकता है, पर वहाँ अलंकारत्व कुछ दबा-सा रहेगा। जैसे 'की मैनाक कि खगपति होई' में जो संदेह है, वह कवि के प्रबंध-कौशल के कारण वास्तविक भी है और आकार की दीर्घता और वेग की तीव्रता भी सूचित करता है। पर नीचे लिखा उदाहरण यदि लीजिए तो उसमें कुछ भी अलंकारत्व नहीं है-
की तुम हरिदासन महँ कोई। मोरे हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम राम दीन अनुरागी। आए मोहिं करन बड़ भागी॥
 

 
 

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