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        आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -2रस मीमांसा
 
 ध्वनि
 
        
        
 (चतुर्थ परिच्छेद)
 ध्वनि शब्द का व्यवहार चार पृथक्-पृथक् अर्थों में होता है-(1) जहाँ 
        व्यंग्यार्थ में वाच्यार्थ से अतिशयता हो अर्थात् उत्तम काव्य, (2) जिसके 
        द्वारा व्यंग्यार्थ व्यंजित हो, अर्थात् प्रधान व्यंग्य (3) रसादि की 
        व्यंजना, (4) व्यंजित रसादि।
 यहाँ यह शब्द पहले अर्थ में गृहीत हुआ है और उसका लक्षण इस प्रकार 
        है-जिस काव्य में व्यंग्य अर्थ वाच्य अर्थ की अपेक्षा प्रधान या अधिक 
        चमत्कारक हो वह ध्वनि है। जिसमें व्यंग्य अर्थ गौण हो वह गुणीभूत व्यंग्य 
        है।
 ध्वनि के दो प्रकार हैं-(1) लक्षणामूलक या अविवक्षित वाच्य और
 (2) अभिधामूलक या विवक्षित वाच्य। (अविवक्षित=बाधित)।
 लक्षणामूलक या अविवक्षित वाच्य ध्वनि-अविवक्षितवाच्य ध्वनि के दो 
        प्रकार होते हैं-(1) अर्थांतरसंक्रमित वाच्य और (2) अत्यंततिरस्कृत वाच्य।
 उदाहरण
 अर्थांतरसंक्रमित वाच्य ध्वनि - 'आम आम ही है, इमली इमली ही है, कोइल कोइल 
        ही है, कौआ कौआ ही है। यहाँ आम, कोइल इत्यादि शब्दों के व्यवहार में उक्त 
        ध्वनि है। दूसरे अर्थ की ध्वनि लाक्षणिक है 'व्यंग्यार्थ' है 'मीठे स्वाद 
        का, मीठे गानवाली' इत्यादि इत्यादि। ये लाक्षणिक अर्थ वाच्यार्थ से एकदम 
        भिन्न नहीं हैं, प्रत्युत मुख्यार्थ का विशिष्ट रूप बतलाते हैं। व्यंग्य 
        प्रयोजन है-उत्कृष्टता और निकृष्टता। अर्थांतर संक्रमित वाच्य में सामान्य 
        विशेष भाव या व्यापक व्याप्य संबंध होना चाहिए। वाच्यार्थ को सामान्य या 
        व्यापक होना चाहिए और लक्ष्यार्थ को विशेष या व्याप्य। दूसरे शब्दों में 
        अर्थांतरसंक्रमित वाच्य ध्वनि अजहत्स्वार्था वृत्ति पर आश्रित होती है।
 अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि - अंधा दर्पण, कानी चारपाई, बेसिर पैर की 
        बात।
 न तो दर्पण के ऑंखें ही हुआ करती हैं और न बात के सिर पैर ही। इसलिए 
        वाच्यार्थ अत्यंत तिरस्कृत है। अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि जहत्स्वार्था 
        वृत्ति पर आश्रित होती है।
 सूचना - केवल वैपरीत्य की सत्ता से अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि और 
        अभिधामूलक ध्वनि में भ्रांति न होनी चाहिए। लक्षणा में वैपरीत्य स्वत: 
        होता है और अभिधामूलक ध्वनि में वैपरीत्य की प्रतीति परिस्थिति का बोध हो 
        जाने के अनंतर होती है। निम्नलिखित उदाहरण देखिए-'भगतजी बेधड़क घूमिए, उस 
        कुत्ते  को जो तुम्हें तंग किया करता था नदी किनारे उस कुंज में रहनेवाले 
        सिंह ने मार डाला।'1
 यह अभिधामूलक ध्वनि का उदाहरण है, विपरीत लक्षणामूलक अत्यंततिरस्कृत 
        वाच्य ध्वनि का नहीं। अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि के उदाहरण निम्नलिखित 
        होंगे-
 (क) क्या भरा हुआ सरोवर है कि लोग लोट-लोटकर नहा रहे हैं।
 (ख) यदि यमयातना से प्रेम है तो ईश्वर का भजन न करना।
 पहले उदाहरण (क) में 'भरा हुआ' वस्तुत: 'सूखा हुआ' के अर्थ में है। इसी 
        प्रकार दूसरे उदाहरण (ख) में निषेध बिना किसी खींचतान के विधि का बोध कराता 
        है। 'भगतजी आदि' उदाहरण ऐसा नहीं करता। उसमें निषेध की प्रतीति प्रकरणादि 
        के पर्यालोचन के बाद होती है। इसलिए उसमें लक्षणा नहीं है। नियम यह है कि 
        जिस वाक्य में पदार्थों का संबंध अनुपपन्न होता है उसी में लक्षणा होती है। 
        जहाँ पदों के मुख्य अर्थ का अन्वय हो जाने के उपरांत अवसर या प्रसंग के 
        विचार से बाधा की प्रतीति होती है वहाँ लक्षणा नहीं हो सकती।
 अभिधामूलक या विवक्षित वाच्य ध्वनि - इसके दो प्रकार होते 
        हैं-असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य और संलक्ष्यक्रम व्यंग्य।
 (क) असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य - रस, भाव, रसाभाव, भावाभास इसके उदाहरण 
        हैं।
 सूचना - इससे रसों और भावों की असंख्यता प्रकट होती है। लेखक 
        (साहित्यदर्पणकार) ने चुंबन आलिंगनादि को भी इसी के अंतर्गत रखा है। किंतु 
        विभाव और अनुभाव सदा वाच्य होते हैं व्यंग्य नहीं। केवल स्थायी और 
        संचारी     [ भाव ]  व्यंग्य हो सकते हैं।
 (ख) संलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि - के तीन प्रकार होते हैं-(1) शब्द 
        शक्त्युद्भव ध्वनि, (2) अर्थशक्त्युद्भव ध्वनि और (3) उभयशक्त्युद्भव 
        ध्वनि।
 (1) शब्दशक्त्युद्भव ध्वनि के दो प्रकार हैं-वस्तुरूप और अलंकाररूप।
 (क) वस्तुरूप का उदाहरण-(स्वयंदूती वचन-पथिक, इन उठे हुए पयोधरों को 
        देखकर यदि ठहरना चाहते हो तो ठहर जाव। 2) (पयोधर=मेघ और स्तन)।
 1. भम धम्मिअ बीसत्थो सी सुणओ अज्ज मारिओ देण।
 गोलाणईकच्छकुंडगबासिणा दरीऽसीहेण:॥
 2. पन्थिअ ण एत्थ सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गामे।
 उष्णअ पओहरं पेक्खिऊण जइ वससि ता वससु॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 176।
 व्यंग्य वस्तु है 'यहाँ ठहरो और सहवास का सुख लूटो'।
 प्रश्न - क्या इस उक्ति में रसाभास व्यंग्य नहीं है। स्वयंदूती के कथन 
        में (प्रथम अधयाय1) विश्वनाथ ने रसाभास माना है। हम लोगों के सामने जो 
        उदाहरण है उसमें श्लिष्ट 'पयोधर' शब्द केवल वस्तु व्यंजित करता है। अब 
        प्रश्न यह है कि क्या व्यंजना इसके आगे भी जाती है।
 समाधान - हाँ, निश्चय ही। और इस प्रकार [ यह ] व्यंग्यार्थ में 
        अर्थमूलक व्यंजना का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इसलिए यह माना जाता है कि 
        व्यंजना शक्ति के द्वारा एक के बाद एक वस्तुओं और भावों की माला व्यंजित हो 
        सकती है। जैसे अनुभाव के द्वारा संचारी भाव व्यंजित हो सकता है और तदुपरांत 
        संचारी के द्वारा स्थायी भाव। ठीक इसी प्रकार व्यंग्य वस्तु के द्वारा 
        व्यंग्य भाव या रस व्यंजित हो सकता है।
 (ख) शब्द शक्ति से अलंकार व्यंग्य - श्लेष के द्वारा सादृश्य (उपमा) 
        की व्यंजना इसका उदाहरण होगा। (अन्योक्ति कल्पद्रुम के पद उदाहरण में दिए 
        जा सकते हैं।)
 (2) अर्थशक्त्युद्भव ध्वनि - यह या तो वस्तु के रूप में होती है या 
        अलंकार के रूप में। इनमें से प्रत्येक या तो स्वत:सम्भवी होगी या 
        कविप्रौढ़ोक्ति सिद्ध (कल्पित), जैसे 'कौओं को सफेद करनेवाली चंद्रिका' जो 
        कहीं उपलब्ध नहीं होती।
 इन चारों के विभिन्न प्रकार के मिश्रणों द्वारा बारह प्रकार की 
        अर्थशक्त्युद्भव ध्वनि हो सकती है। ये बारहों प्रकार प्रबंध (जैसे 
        गृध्रगोमायुसंवाद) में भी हो सकते हैं इसलिए अर्थशक्त्युद्भव ध्वनि के 
        चौबीस भेद हो जाते हैं।
 उदाहरण
 स्वत:सम्भवी वस्तु से वस्तु व्यंग्य-'इस बालक के पिता इस कुएँ का खारा पानी 
        न पीएँगे। मैं झटपट तमालाकुल सोते पर जाती हूँ। पुराने नरसल की गाँठें देह 
        में खरोंट डालें तो डालें।'2 'नरसल की खरोंट' स्वत:सम्भवी वस्तु है। इसके 
        द्वारा भावी रतिचिन्ह के गोपन की व्यंजना हो रही है।
 स्वत:सम्भवी वस्तु से व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य - 'दक्षिण दिशा में जाने 
        से
 
 1. अता एत्थ णिमज्जइ एत्थ अहं दिअसअं पलोएहि।
 मा पहिअ रत्तिअंधिअ सज्जाये मह णिमज्जहिसि॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 20।
 2. दृष्टिं हे प्रतिवेशिनि क्षणमिहाप्यस्मद्गृहे दास्यसि
 प्रायेणास्य शिशो: पिता न विरसा: कौपीरप: पास्यति।
 एकाकिन्यपि यामि सत्वरमित: स्रोतस्तमालाकुलं
 नीरन्ध्रास्तनुमालिखन्तु जरठच्छेदा नलग्रन्थय:॥
 -वही, पृष्ठ 178।
 (दक्षिणायन होने से) सूर्य का तेज भी मंद हो जाता है। परंतु उसी दिशा में 
        रघु का प्रताप पांडय देश के राजाओं से नहीं सहा गया।'1
 यहाँ सम्भवी वस्तु है सूर्य की मंदता और रघु के समक्ष दक्षिण के नरेशों 
        की पराजय'। यहाँ व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य है। अर्थात् रघु का प्रताप सूर्य 
        के प्रताप से बढ़कर है। (अलंकार कल्पित अर्थात् कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध है।)
 स्वत:सम्भवी अलंकार से स्वत:सम्भवी वस्तु व्यंग्य - 'उस वेणुहारी को 
        दूर से अपनी ओर झपटते देख बलराम ने भी सँभलकर पराक्रम के साथ उसे ऐसा देखा 
        जैसे मत्त मातंग को केसरी देखे।2
 स्वत:सम्भवी अलंकार से कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार व्यंग्य - 'रण में 
        क्रोध से ओठ चबाते हुए जिस राजा ने शत्रु-नारियों के ओठों को पति के प्रगाढ़ 
        दंतक्षत की व्यथा से छुड़ा दिया।3 वह दूसरों के ओठों की रक्षा कैसे करेगा जो 
        अपने ही ओठ चबा रहा है - स्वत:सम्भवी विरोधलंकार। समुच्चय अलंकार व्यंग्य 
        है। इधर ओठ चबाए उधर शत्रु मारे गए।
 कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध वस्तु से व्यंग्य वस्तु - 'युवतियों की ओर लक्ष्य 
        रखनेवाले मुखों से युक्त नवपल्ल्वरूप पत्रा (पंख) वाले नए-नए आम के बौरों 
        के बाण वसंत में कामदेव तैयार करता है।'4 यहाँ धनुर्धर काम के बाण 
        कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध मात्र है जिससे 'कामोद्दीपन काल' वस्तु व्यंग्य है।
 कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध वस्तु से अलंकार व्यंग्य - 'हे वीर, केवल रात्रि 
        में ही चंद्रमा की किरणों से प्रकाशित होनेवाले भुवनमंडल को अब आपकी कीर्ति 
        दिन रात शोभित कर रही है।5 यहाँ 'कीर्ति का प्रकाश' कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध 
        वस्तु है जिससे व्यतिरेक
 
 1. दिसि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि।
 तस्यामेव रघो: पाण्डया: प्रतापं न विषेहिरे॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 178।
 2. आपतन्तममुं दूरादूरीकृतपराक्रम:।
 बलोऽवलोकयामास मातंगमिव केसरी॥
 -वही, पृष्ठ 179।
 3. गाढकांतदशनक्षतव्यथासंकटादरिवधूजनस्य य:।
 ओष्ठविद्रुमदलान्यमोचयन्निदर्शयन्युधि रूषा निजाधरम्॥
 -वही
 4. सज्जेहि सुरहिमासोण दाव अप्पेइ जुअइजणलक्खमुहे।
 अहिणवसहआरमुहे णवपल्लवपत्तले अणंगस्य सरे॥
 -वही।
 5. रजनीषु विमलभानो: करजालेन प्रकाशितं वीर।
 धावलयति भुवनमंडलमखिलं तव कीर्तिसन्तति: सततम्॥
 -वही, 180
 अलंकार व्यंग्य है अर्थात् कीर्ति चाँदनी से अधिक प्रकाश करनेवाली है।
 कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य वस्तु - 'उस समय रावण की 
        मुकुटमणियों के बहाने राक्षस-श्री के ऑंसू पृथ्वी पर गिरे।'1 मुकुट से 
        मणियों का गिरना अपशकुन है। इसलिए अपह्नुति अलंकार के द्वारा श्री के ऑंसू 
        गिराए गए हैं। श्री के ऑंसू कल्पित हैं, अत: कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार है। 
        इससे 'राक्षसों की शक्ति के विनाश' वस्तु की व्यंजना हो रही है।
 कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य अलंकार - 'हे त्रिकलिंग देशतिलक 
        आपकी अकेली कीर्तिराशि इंद्रपुरी की स्त्रियों के अनेक भूषणों के रूप में 
        परिणत हो गई-चोटी में मल्लिका के पुष्प हुई, हाथ में श्वेत कमल, गले में 
        हार, शरीर में चंदनलेप।2 यहाँ आरोप के कारण रूपक अलंकार है, जो कविकल्पित 
        है। इसके द्वारा 'आप पृथ्वी पर रहते हुए स्वर्ग के निवासियों का उपकार करते 
        हैं' यह विभावना अलंकार व्यंग्य है।
 (लेखक  [ साहित्यदर्पणकार ]  ने पात्रों (नायकादि) की उक्तियों के 
        उदाहरण को पृथक् माना है। उनका कहना है कि कविप्रौढ़ोक्ति की अपेक्षा 
        कविनिबद्ध वक्ता की प्रौढ़ोक्ति में विशेष चमत्कार होता है क्योंकि वे 
        उक्तियाँ ऐसे व्यक्तियों की होती हैं जो स्वयं उसका अनुभव करनेवाले होते 
        हैं। 'रसगंगाधर' ने यह बात नहीं मानी।)3
 कविनिबद्ध वक्ता की प्रौढ़ोक्ति से सिद्ध वस्तु द्वारा व्यंग्य वस्तु - 
        'हे सुमुखि! इस सूए के बच्चे ने किस पर्वत पर कितने दिनों तक क्या तप किया 
        है कि यह तुम्हारे ओठ के सदृश लाल बिम्बफल का स्वाद ले रहा है।'4 सुग्गे का 
        तप कल्पित वस्तु है। व्यंग्य वस्तु यह है कि रमणी के अधरों की प्राप्ति बड़ी 
        तपस्या से होती है। यद्यपि यहाँ पर प्रतीप अलंकार है तथापि वह-व्यंग्य 
        वस्तु को व्यंजित नहीं करता।
 वक्ता की प्रौढ़ोक्ति सिद्ध वस्तु से व्यंग्य अलंकार - 'हे सखि! वसंत 
        में काम के बाणों ने करोड़ों की संख्या प्राप्त करके पंचता छोड़ दी और 
        वियोगिनियों को पंचता
 
 1. दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्षणं     राक्षसश्रिय:।
 मणिव्याजेन पर्यस्ता: पृथिव्यामश्रुबिन्दव:॥
 2. धम्मिल्ले नवमल्लिकासमुदयो हस्ते सिताम्भोरुहं
 हार: कण्ठतटे पयोधरयुगं  श्रीखण्डलेपो  घन:।
 एकोऽपि  त्रिकलिंगभूमतिलक त्वत्कीर्तिराशिर्ययौ
 नानामण्डनतां   पुरन्दरपुरीकामभ्रुवां   विग्रहे॥  -साहित्यदर्पण, 180।
 3. देखिए साहित्यदर्पण, विमला टीका, पृष्ठ 182।
 4. शिखरिणि क्व नु नाम कियच्चिरं किमभिधानमसावकरोतप:।
 सुमुखि येन तवाधरपाटलं दशति बिम्बफलं शुकशावक:॥      -वही, 181।
 प्राप्त हुई।'1
 कवि की कल्पना यह है-कामदेव के बाण करोड़ों की संख्या में हो गए हैं
 जिससे वियोगियों की मृत्यु हो रही है। इससे उत्प्रेक्षा अलंकार व्यंग्य है। 
        (बाणों की पंचता मानो वियोगियों को प्राप्त हो गई है।)
 वक्ता के प्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य वस्तु - 'हे क्रोधशीले! 
        चमेली की कली पर गूँजता हुआ भ्रमर ऐसा मालूम होता है मानो कामदेव की विजय 
        यात्रा का विजयशंख बज रहा है।2 उत्प्रेक्षा अलंकार कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध है 
        और इससे इस वस्तु की व्यंजना होती है कि यह प्रेम का समय है, मान का नहीं।
 वक्ता के प्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य अलंकार - 'हे सुंदर! 
        हजारों स्त्रियों से भरे हुए तुम्हारे हृदय में अवकाश न पाकर वह कामिनी और 
        सब काम छोड़कर दिन-रात अपने दुर्बल शरीर को और भी दुर्बल बना रही है।3 यहाँ 
        काव्यलिंग अलंकार (नायक के हृदय में स्थान न पाकर) कल्पित है। इससे दूसरा 
        अलंकार विशेषोक्ति व्यंग्य है। वह दुर्बल और क्षीण होने पर भी हृदय में 
        स्थान नहीं पा रही है।
 (3) उभयशक्त्युद्भव ध्वनि - इसके उपभेद नहीं होते। यह केवल वाक्यगत 
        होती है। अन्य दो भेद (शब्दशक्त्युद्भव और अर्थशक्त्युद्भव) पदगत और 
        वाक्यगत दोनों होते हैं। अन्योक्ति कल्पद्रुम में वसंत की अन्योक्ति उदाहरण 
        का काम देगी।4 उस पद्य में 'माधव' और 'द्विज' शब्द के स्थान पर उनके 
        पर्यायवाची नहीं रखे जा सकते। इसलिए शब्दक्त्युद्भव है, किंतु इन शब्दों को 
        पर्यायवाची शब्दों से बदल सकते हैं।
 पदगत और वाक्यगत ध्वनि-
 पद्य के केवल एक पद में जो ध्वनि होती है वह पदगत कहलाती है, जो अनेक
 
 1. सुभगे   कोटिसंख्यत्वमुपेत्य   मदनाशुगै:।
 वसन्ते पंचता त्यक्ता पंचतासीद्वियोगिनाम्॥
 -साहित्यदर्पण, 181।
 2. मल्लिकामुकुले चण्डि भाति गुंजन्मधुव्रत:।
 प्रयाणे पंचबाणस्य शंखमापूरयन्निव॥
 3. महिलासहस्सभरिए तुह हिअएस्सुहअ सा अमाआन्ती।
 अणुदिणमणण्णकम्मा अंग तणुअं पि तणुएइ॥  -वही।
 4. हितकारी ऋतुराज तुम साजत जग आराम।
 सुमन सहित आसा भरो दलहिं करौ अभिराम॥
 दलहिं करौ अभिराम कामप्रद द्विजगुन गावैं।
 लहि सुबास सुखधाम बातबर ताप नसावैं॥
 बरनै दीनदयाल हिये माधव धुनि प्यारी।
 श्रवन सुखद सुक बेन विमल बिलसै हितकारी॥ 4॥
 पदों में होती है वह वाक्यगत कहलाती है (यह विभाजन तर्कपूर्ण नहीं जान पड़ता 
        वस्तुत: विशिष्ट पद या पदों पर आश्रित व्यंग्य को पदगत ही कहना चाहिए)।
 उदाहरण
 अर्थांतर संक्रमितवाच्य ध्वनि पदगत - 'उसी के नेत्र नेत्र होंगे जिसके 
        सामने यह तरुणी होगी।'1
 अर्थांतर संक्रमितवाच्य ध्वनि वाक्यगत - 'देख! मैं तुझसे कहता हूँ 
        यहाँ विद्वानों की मंडली है अपनी बुद्धि को स्थिर करके काम 
        करना।'2 ल्क्ष्यार्थ-मैं-तुझसे ज्ञानवृद्ध और तेरा हितकारी; तुझसे=तू जो 
        अनुभवी और विद्वान् नहीं है। व्यंग्यार्थ-मेरा उपदेश तेरे लिए हितकर है।)
 असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि पदगत - 'वह लावण्य! वह कांति! वह रूप! और 
        वह वचनावली! उस समय तो ये सब अमृतवर्षी थे परंतु अब अत्यंत संतापकारी हो गए 
        हैं।'3 (वह के द्वारा पहले तो असाधारण और अवर्णनीय सौंदर्य की व्यंजना होती 
        है (वस्तु) और फिर विप्रलंभ श्रृंगार (रस) की। इसलिए असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य 
        है। 'वह' पद यद्यपि कई बार प्रयुक्त हुआ है पर वह एक ही पद है अत: पदगत 
        ध्वनि है)।
 शब्दशक्ति मूलक वस्तुध्वनि पदगत - 'एकांतवास की आज्ञा देने में तत्पर 
        और भुक्तिमुक्ति देनेवाला सदागम (सच्छास्र अथवा अच्छे पुरुष का आना) किसे 
        आनंदित नहीं करता4? यहाँ व्यंग्य वस्तु पुरुषसमागम है।
 प्रश्न - इसमें उपमानोपमेय भाव क्यों नहीं है जैसा कि अलंकार द्वारा 
        व्यंग्य वस्तु के उदाहरणों में हुआ करता है?
 समाधान - क्योंकि यह विवक्षित (इच्छित) नहीं है।
 शब्दशक्तिमूलक पदगत अलंकार ध्वनि - 'अलौकिक बुद्धि से युक्त संपूर्ण 
        पृथ्वी को धारण करनेवाला यह कोई पुरुषोत्तम राजा सुशोभित है।'5 यहाँ 
        सादृश्य विवक्षित  है इसलिए उपमा व्यंग्य है।
 
 1. धन्य: स एव तरुणो नयने तस्यैव नयने च॥
 युवजनमोहनविद्या भवितेयं यस्य समुखे सुमुखी॥      -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 
        183।
 2. त्वामस्मि वच्मि विदुषां समवायोऽत्रा तिष्ठति।
 आत्मीयां मतिमास्थाय स्थितिमत्रा विधेहि तत्॥ -वही, पृष्ठ 183।
 3. लावण्यं  तदसौ  कान्तिस्तद्रूपं  स  वच:क्रम:।
 तदा    सुधास्पदमभूदधुना  तु  ज्वरो   महान्॥      -वही, पृष्ठ 184।
 4. भुक्तिमुक्तिकृदेकान्तसमादेशनतत्पर:।
 कस्य   नानन्दनिष्यन्दं    विदधाति   सदागम:॥    -वही, पृष्ठ 185।
 5. अनन्यसाधारणधीर्धृताखिलवसुन्धर:।
 राजते  कोऽपि  जगति स  राजा  पुरुषोत्तम:॥  -वही, पृष्ठ 186।
 अर्थशक्तिमूलक स्वत:सम्भवी वस्तु से वस्तु ध्वनि - 'तूने अभी सायंकाल 
        स्नान किया है। शरीर में शीतल चंदन का लेप किया है, सूर्य अस्त हो गया है 
        (धूप भी नहीं है और आराम से धीरे-धीरे तू यहाँ आई है; तेरी सुकुमारता 
        अद्भुत है जो इस समय तू ऐसी क्लांत हो गई है')1। तूने परपुरुष के साथ संभोग 
        किया है-यह वस्तु व्यंग्य है। यहाँ अत्यंत व्यंजक शब्द 'अधुना' (इस समय) 
        है, इसलिए यह पदगत है।
 असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि में प्रकृतिगत, प्रत्ययगत, उपसर्गगत, ध्वनि 
        -(उदाहरणों के लिए देखिए-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 191, 192, 193)।2
 सूचना
 (उदाहरणों से यह स्पष्ट नहीं है कि पदांशगत केवल असंलक्ष्यक्रम में ही हो 
        सकता है।)
 अभिज्ञानशाकुंतल से दिए गए उद्धरण चलापाक्षं दृ्रूष्ट इत्यादि में हता: 
        (मरा) शब्द प्रकृतिगत ध्वनि का उदाहरण बताया गया है। (हन्=मारना)। किंतु 
        यह शब्द लक्ष्यार्थ के अनंतर व्यंग्य को व्यंजित करता है इसलिए यहाँ 
        लक्षणामूलक ध्वनि है। किंतु असंलक्ष्यक्रम अभिधामूलक ध्वनि के अंतर्गत 
        है, लक्षणामूलक ध्वनि के अंतर्गत नहीं।
 निम्नलिखित उदाहरण के रूप में गृहीत हो सकते हैं-
 (क) प्रत्यय या अव्ययगत-चमारों तक ने चंदा दिया।
 (ख) मुखड़ा सधुक्कड़। वर्ण और रचना में व्यंग्यों के उदाहरण वैदर्भी रीति
 
 1. सायं स्नानमुपसितं मलयजेनाक्ष् समालेपितं
 यातोऽस्ताचलमौलिमम्बरमणिर्बिस्रब्धमत्रागति :।
 आश्चर्यं तवसौकुमार्यमभित:क्लान्तासि येनाधुना
 नेत्रद्वन्द्वममीलनव्यतिकरं शक्नोति ते नासितुम्॥
 -वही।
 2. प्रकृतिगत-
 चलापाक्षं दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं
 रहस्याख्वायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचर:।
 करौ व्याधुन्वत्या! पिवसि रतिसर्वस्वमधुरं
 वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकरहतास्त्वं खलु कृती॥
 प्रत्ययगत-
 मुहुरक्ष्लिसंकूताधरोष्ठं प्रतिवेधाक्षरविक्लवाभिरामम्।
 मुखमसविवर्ति पक्ष्मलाक्ष्या: कथमप्युन्नसितं न चुम्बितं तु॥
 उपसर्गगत-
 'न्यक्कारोह्ययमेव', देखिए पृष्ठ 220 की पाद टिप्प्णी सं. 3।
 के माधुर्यव्यंजक वर्णों आदि में तथा अन्यत्र खोजने चाहिए।
 
        संकर और संसृष्टि ध्वनि
 संकर-जहाँ विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का एक ही आश्रय (शब्द और अर्थ) हो 
        या वे अन्योन्याश्रित हों तो संकर ध्वनि होती है, 'जैसे पीनस्तनों से 
        सुशोभित दीर्घ और चंचल नेत्रवाली प्रिय के आगमन के महोत्सव में द्वार पर 
        खड़ी हुई मांगलिक पूर्ण कलश और कमलों की वंदनवार बिना यत्न के ही संपादित कर 
        रही है।'1 यहाँ रूपक अलंकार (स्तन=कलश और नेत्र=कमल तोरण) तथा व्यंग्य 
        श्रृंगार दोनों एक ही आश्रय में हैं।
 गुणीभूत व्यंग्य
 व्यंग्य अर्थ या तो अन्य (रसादि) का अंग होता है या काकु से आक्षिप्त होता 
        है या वाच्यार्थ का ही उपपादक (सिद्धि का अंगभूत) होता है अथवा वाच्य की 
        अपेक्षा उसकी प्रधानता संदिग्ध रहती है या वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ की बराबर 
        प्रधानता रहती है अथवा व्यंग्य अर्थ अस्फुट रहता है, गूढ़ अत्यंत अगूढ़ 
        (स्पष्ट) या असुंदर होताहै।
 उदाहरण
 रसादि का अंग रस - स्मर्यमाण श्रृंगार करुणा का अंग। 'हा! यह वह हाथ है जो 
        रशना का आकर्षण करता था, कपोलों का स्पर्श करता था'2 इत्यादि।
 (यह ध्यान में रखने की बात है कि ऐसे उदाहरणों में पूरा पद्य मध्यम 
        काव्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यहाँ निश्चय ही रस है और अप्रधान व्यंग्य 
        उसका
 अंग है। लेखक  [ साहित्यदर्पणकार ]  ने इसे स्वीकार किया है-(देखिए पृष्ठ 
        202)।3
 
 1. अत्युन्नतस्तनयुगा तरलायताक्षी
 द्वारि स्थिता तदुपयानमहोत्सवाय।
 सा पूर्णकुम्भनवनीरजतोरणस्रक्
 संभारमड्गलमयत्नकृतं विधत्ते॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 195।
 2. अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दन:।
 नाभ्यूरूजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसन: कर:॥
 -वही, पृष्ठ 196।
 3. किं च यत्रा वस्त्वलंकाररसादिरूप व्यंग्यानां रसाभ्यन्तरे 
        गुणीभावस्तत्रा प्रधानकृत एवं काव्यव्यवहार: तदुक्तं तेनोऽव
 प्रकारोऽयं गुणीभूतव्यङ्गोऽपिध्वनिरूपताम्।
 धत्ते रसादि तात्पर्यपर्यालोचनया पुन:॥
 वाच्यार्थ का उपपादक - 'हे राजेंद्र पृथ्वी और आकाश के मध्य सर्वत्र 
        प्रकाश करता हुआ वैरि वंश का दावानल रूप यह आपका प्रताप सर्वत्र जग रहा 
        है।'1 (श्लेष द्वारा शत्रु में बाँस का आरोप व्यंग्य है। पर यह व्यंग्य 
        अलंकार वाच्यार्थ दावानल का साधक है।)
 इसी प्रकार यदि व्यंजित सादृश्य के अनंतर उपमान शब्द द्वारा कथित होता 
        है तो व्यंग्य का महत्त्व नहीं रह जाता और वह वाच्यार्थ का अंग हो जाता है।
 अस्फुट व्यंग्य - 'संधि करने में सर्वस्व छिनता है और विग्रह करने में 
        प्राणों का भी निग्रह होता है। अलाउद्दीन के साथ न तो संधि हो सकती है और न 
        विग्रह।'2
 'अलाउद्दीन के साथ केवल साम और दाम से काम बन सकता है' व्यंग्य है जो 
        स्पष्ट नहीं है। उपमा अथवा दीपक तुल्ययोगिता इत्यादि में होनेवाला 
        व्यंग्यसादृश्य गुणीभूत व्यंग्य का उदाहरण होगा ध्वनि का नहीं।
 जहाँ गुणीभूत व्यंग्य रस का अंग होता है वहाँ पूरा पद्य ध्वनियुक्त 
        माना जाता है। किंतु जहाँ यह रस का अंग नहीं होता प्रत्युत (नगरादि) के 
        वर्णनों आदि का अंग होता है, वहाँ गुणीभूत व्यंग्य या माध्यम काव्य होता 
        है, जैसे-
 जिस नगरी के ऊँचे-ऊँचे प्रासादों में जड़े लाल मणियों का गगनचुंबी 
        प्रकाश यौवन मद से मत्त रमणियों को बिना संध्याकाल के ही संध्या का भ्रम 
        उत्पन्न करके कामकलाओं से पूर्ण भूषणादिरचना में प्रवृत्त करता है।3
 काव्य का तीसरा भेद जिसे चित्र कहते हैं, अस्वीकार कर दिया गया है।
 
        व्यंजना की स्थापना
 नैयायिक और मीमांसक व्यंजना की पृथक् वृत्ति नहीं मानते। अलंकारशास्त्री 
        इसे स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि अभिधा, लक्षणा और तात्पर्य 
        वृत्तियों के कार्य कर चुकने पर इसी वृत्ति से रस, अलंकार या वस्तु 
        व्यंग्यार्थ के रूप में व्यंजित होते हैं। अभिधा व्यंग्यार्थ का बोध कराने 
        में असमर्थ है।
 
 1. दीपयन्रोदसी रन्ध्रमेष ज्वलति सर्वत:।
 प्रतापस्तव राजेन्द्र वैरिवंशदवानल:॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 199।
 2. सन्धौ सर्वस्वहरण विग्रहे प्राणनिग्रह:।
 अल्वावदीन नृपतौ न सन्धिर्न च विग्रह:॥      -वही।
 3. यत्रोन्मदानां प्रमदाजनानामभ्रंलिह: शोणमणीमयूख:।
 सन्ध्याभ्रमं प्राप्नुवतामकाण्डेप्यनङ्गनेपथ्यवि ध विधत्ते॥
 -वही, पृष्ठ 202।
 अभिधा संकेतित अर्थ का बोध कराकर स्थगित हो जाती है। इसलिए तदनंतर अन्य 
        अर्थ का, अर्थात् रस, अलंकार या वस्तु का बोध कराने में वह अक्षम होती है। 
        उदाहरणार्थ रस को लीजिए जो विभाव, अनुभाव, इत्यादि के द्वारा व्यंजित कहा 
        जाता है। अब न तो विभाव (जैसे राम, सीता आदि) और न अनुभाव (जैसे कंपादि) ही 
        किसी रस के द्योतक हैं। रस और विभाव इत्यादि सदृश नहीं हैं। वे एक ही वस्तु 
        नहीं हैं। इतना ही नहीं यदि कोई कहता है कि 'यह श्रृंगार रस है' तो इस 
        वाक्य से किसी रस की कोई व्यंजना नहीं होती। इसके विपरीत रस का नाम लेना 
        दोष है (स्वशब्दवाच्यत्व)। इन सबसे स्पष्ट है कि अभिधा के द्वारा 
        व्यंग्यार्थ की प्रतीति नहीं हो सकती। यह पहले कहा जा चुका है कि मीमांसकों 
        के दो संप्रदाय हैं: एक अभिहितान्वयवादी जो तात्पर्य वृत्ति को स्वीकार 
        करते हैं, दूसरे अन्विताभिधानवादी जो उसे स्वीकार नहीं करते। दोनों व्यंजना 
        को चौथी वृत्ति अस्वीकृत करने में एकमत हैं। अभिहितान्वयवादियों का कहना है 
        कि अभिधा का प्रसार इतना अधिक हो सकता है कि उसकी प्रतीति के अंतर्गत कोई 
        भी अर्थ गृहीत हो सके, चाहे वह कितना ही दूरारूढ़ क्यों न हो। इस कथन से 
        'शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभाव:' सिद्धांत का उल्लंघन हो जाता है। 
        यदि कोई इस सिद्धांत को नहीं मानता तो उससे पूछा जा सकता है कि अभिधा और 
        तात्पर्य से ही काम चल जाता है तो तीसरी वृत्ति लक्षणा की क्या आवश्यकता।
 अन्विताभिधानवादी अपने सूत्रों 'यत्पर: शब्द: स शब्दार्थ:' के बल पर 
        कहते हैं कि अभिधा के द्वारा पूर्णतया व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो सकती है। 
        उनका कहना है कि प्रत्येक वाक्य चाहे वह पौरुषेय हो या अपौरुषेय, किसी 
        कार्य से संबद्ध होता है। काव्य के शब्द भी कार्यपरक होते हैं। उस कार्य का 
        परिणाम परमानंद की प्राप्ति है। इसलिए काव्य के वाक्य का तात्पर्य परमानंद 
        हुआ। काव्यगत वाक्य का तात्पर्य समन्वित अर्थ के अतिरिक्त और क्या हो सकता 
        है। इसलिए व्यंजना को पृथक् वृत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं।
 खंडन
 'तत्पर:' शब्द का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है। इसका अभिप्राय या तो 'तदर्थत्व' 
        होगा या तात्पर्य वृत्ति। यदि पहला अभिप्राय हो तो कोई विवाद नहीं क्योंकि 
        व्यंग्यार्थ भी अर्थ ही होता है। यदि दूसरा अभिप्राय हो तो यह पूछा जा सकता 
        है कि क्या अभिहितान्वयवादी मीमांसकों के द्वारा मानी जानेवाली तात्पर्य 
        वृत्ति से ही प्रयोजन है जिसमें संसर्गमर्यादा अर्थात् संबंध का बोधन 
        करनेवाली मर्यादा स्वीकृत है। यदि यह वही है तो यह ध्यान  में रखना चाहिए 
        कि विभिन्न अर्थों का समन्वित अर्थ प्रस्तुत करने के अनंतर तात्पर्य वृत्ति 
        क्षीण हो जाती है। यदि यह तात्पर्य के अतिरिक्त कोई दूसरी वृत्ति है तो 
        चौथी वृत्ति स्वीकृत कर ली गई। अब चाहे उसका जो नाम रखा जाय। यदि यह कहा 
        जाय कि तात्पर्य वृत्ति से अन्वित अर्थ और व्यंजित रस इत्यादि की प्रतीति 
        एक ही समय में और एक ही साथ होती है तो यह बात उपयुक्त नहीं जँचती। क्योंकि 
        किसी ने भी इसे अस्वीकार नहीं किया है कि रस का आस्वाद, विभाव, अनुभाव आदि 
        के अनंतर होता है। यही हेतु है कि विभाव, अनुभाव रसनिष्पत्ति के कारण कहे 
        गए हैं।
 लक्षणा व्यंग्यार्थ की प्रतीति में असमर्थ
 'गाँव पानी में बसा है' उदाहरण में लक्षणा केवल 'पानी के तट पर' अर्थ का 
        बोध कराती है। क्योंकि दूसरे प्रकार से पानी में पद का ठीक-ठीक अर्थ-बोध 
        नहीं हो सकता। किंतु शीतत्व और आर्द्रत्व व्यंग्य अर्थों का द्योतन वह नहीं 
        करती। यही क्यों, [ इतना ही नहीं, ]  व्यंग्यार्थ सदा लक्षणा पर ही आश्रित 
        नहीं होता। उसकी आवश्यकता तो वहाँ पड़ती है जहाँ अन्वयार्थ में बाधा उपस्थित 
        होती है।
 यदि यह तर्क दिया जाय कि लक्षणा में प्रयोजन भी लक्ष्य है तो 'पानी 
        के तट पर' अर्थ वाच्यार्थ होगा और बाधिक वाच्यार्थ होगा। किंतु न तो 'पानी 
        के तट पर' पानी में का मुख्यार्थ ही है और न इसमें अर्थ का बोध ही है। यदि 
        'वह गाँव पानी में बसा है' में शीतत्व और आर्द्रत्व को लक्ष्यार्थ माना जाय 
        तो प्रयोजन क्या होगा। यदि कोई प्रयोजन हो तो वह भी लक्ष्य होगा। इस प्रकार 
        'अनवस्था दोष'1 हो जायगा।
 इतने पर भी कोई यह बात उठा सकता है कि लक्षणा प्रयोजन के सहित अर्थ 
        का बोध कराती है। किंतु अर्थ और प्रयोजन भिन्न-भिन्न हैं इसलिए वे एक ही 
        समय और एक ही साथ लक्षित नहीं हो सकते। एक का बोध दूसरे के अनंतर ही होगा।
 व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न
 भिन्नता 
        बोद्धा, स्वरूप, संख्या, निमित्त, कार्य, प्रतीति, काल, आश्रय विषय इत्यादि 
        की हो सकती है।2
 
 1. उपपाद्योपपादकप्रवाहोऽनबाध: - जब तर्क करते हुए कुछ परिणाम न निकले और 
        तर्क भी समाप्त न हो जैसे कारण का कारण और उसका भी कारण, फिर उसका कारण इस 
        प्रकार का तर्क और अन्वेषण जिसका कुछ ओर छोर न हो-हिंदी शब्दसागर, पृष्ठ 
        98।
 2. बोद्धृतस्वरूपसंख्यानिमित्त कार्यप्रतीतिकालानाम्।
 आश्रय विषयादींनां भेदाद्ख्रभन्नोऽभिधेयतो व्यङ्ग्य॥
 -साहित्यदर्पण, 5-8।
 बोद्धा - वाच्यार्थ का ज्ञान सरलतापूर्वक वैयाकरणों, नैयायिकों इत्यादि 
        को हो सकता है। किंतु व्यंग्यार्थ की प्रतीति केवल सहृदयों को हो सकती है।
 स्वरूप - व्यंजना के द्वारा बहुधा विधि वाक्य का अर्थनिषेध होता है।
 संख्या - व्यंग्य वाक्य विभिन्न व्यक्तियों के प्रति भिन्न-भिन्न अर्थ 
        धारण करता हुआ विविध प्रकार अर्थात् संख्या का हो जाता है। जैसे 'सूर्य 
        अस्त हुआ' का अर्थ साधारणतया 'साँझ का समय' व्यंजित करेगा।
 निमित्त - वाच्यार्थ की प्रतीति साधारण शब्द ज्ञान से ही हो जाती है। 
        किंतु व्यंग्यार्थ के लिए सहज प्रतिभा की आवश्यकता होती है।
 कार्य - वाच्यार्थ से केवल वस्तु का ज्ञान होता है। किंतु व्यंग्यार्थ 
        से चमत्कार उत्पन्न होता है।
 काल - व्यंग्यार्थ के अनंतर होता है। अत: कालभेद है।
 आश्रय - वाच्यार्थ केवल शब्द के आश्रित होता है। किंतु व्यंग्य शब्द 
        में, शब्द के अंश में, अर्थ में, वर्णों में अथवा रचना में भी रह सकता है।
 विषय - 'प्रिया' का व्रणयुक्त ओष्ठ देखकर किसके मन में क्षोभ न होगा। 
        हे भ्रमरयुक्त पद्म को सूँघनेवाली निवारित वामा अब तू सहन कर।1 यहाँ 
        वाच्यार्थ की दृष्टि से लक्ष्य या विषय नायिका जान पड़ती है, किंतु व्यंग्य 
        का विषय नायक है। क्योंकि उसके संदेहवारण  [ Satisfaction ]  के लिए यह बात 
        कही गई है।
 अभिधा और लक्षणा पहले से सिद्ध (विद्यमान) वस्तुओं का बोधन कराती हैं। 
        किंतु शब्द जब तक विशेष प्रकार से अपना कार्य संपन्न नहीं कर लेते तब तक रस 
        की सत्ता नहीं रहती। इस तात्त्विक भेद को सदा ध्यान में रखना चाहिए। 
        व्यंजित होने के पूर्व रस की सत्ता नहीं रहती। इसमें कोई पूर्वसिद्ध वस्तु 
        या तथ्य नहीं है जिसे अभिधा या लक्षणा बोध करावे। रस वस्तुत: आस्वाद या 
        आनंद की अनुभूति है जो श्रोता के मन में प्रकट होती है और व्यक्त होने के 
        पूर्व इसका कोई अस्तित्व नहीं होता।
 'व्यक्तिविवेक' (साहित्यशास्त्र पर एक प्रबंध) के कर्ता महिमभट्ट ने 
        व्यंजना का खंडन किया है। उनका कहना है कि व्यंग्यार्थ अनुमान के अतिरिक्त 
        और कुछ
 नहीं है। उनके तर्क निम्नलिखित हैं-
 जैसे एक वस्तु से हम दूसरी वस्तु का अनुमान करते हैं उसी प्रकार विभाव, 
        अनुभाव और संचारी भाव से जो भावों के क्रमश: कारण, कार्य और सहकारी होते 
        हैं हम रस का भी अनुमान करते हैं। पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट 
        अनुमान (कारण से कार्य का, कार्य से कारण का, सामान्य से विशेष का अनुमान 
        अर्थात्
 
 1. कस्य ण होइ रोसो दट्ठूण पिआए सब्बणं अहरम्।
 सब्भमरपउमग्घाइणि वारिअवामे सहसु एण्हिम्॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 210।
 एक वस्तु के ज्ञान से उस दूसरी वस्तु का ज्ञान जो उसके साथ देखी जाती है 
        जैसे अग्नि धुएँ के साथ।) के द्वारा विभाव, अनुभाव और संचारी रति इत्यादि 
        का अनुमान करते हैं जिससे रस की निष्पत्ति होती है। उदाहरणार्थ राम के 
        प्रति सीता के प्रेम को लीजिए। इसे अनुमान की प्रक्रिया के रूप में यों रख 
        सकते हैं-
 सीता में राम के प्रति रति है - प्रतिज्ञा ।
 क्योंकि वे राम के प्रति प्रेमभरी दृष्टियों से देखती हैं - हेतु ।
 जिसमें रति भाव नहीं होता वह इस प्रकार नहीं देखती जैसे-मंथरा - 
        दृष्टांत ।
 इसलिए सीता राम के प्रति अनुरागवती हैं - उपनय ।
 रति का यह अनुमान उत्कृष्ट आस्वाद कोटि (आस्वाद पदवी) में पहुँच कर 
        श्रृंगार रस हो जाता है - उपनय ।
 इसका अभिप्राय यह है कि भाव का अनुमान रस की प्रतीति करता है। अर्थात् 
        हम पहले भाव का अनुमान करते हैं तब रस का आस्वाद लेते हैं। दूसरे शब्दों 
        में इन दोनों में कारण कार्य भाव है। हमें पहले विभाव इत्यादि की प्रतीति 
        होती है फिर हम भाव का अनुमान करते हैं और अंत में रस तक पहुँचते हैं-जो 
        अनुमान की प्रक्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किंतु यह पहले ही कहा जा 
        चुका है कि रस असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य है। महिमभट्ट इस आपत्ति का समाधान यह 
        कहकर करते हैं कि इसमें क्रम निस्संदेह होता है किंतु शीघ्रता के कारण वह 
        संलक्ष्य नहीं होता। हमारा प्रतिवाद यह है कि सीता में राम के प्रति रति 
        भाव है-केवल तथ्य का ज्ञान ही रस नहीं है। अनुमान ज्ञान का विषय है इसलिए 
        वह किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञान के रूप में ही परिणत हो सकता है। यदि हम 
        किसी अन्य मानसिक स्थिति के द्वारा रस तक पहुँचते हैं तो उसे दूसरी 
        प्रक्रिया मानना पड़ेगा।
 यह बात उठाई जा सकती है कि एक अनुमान के द्वारा हम सीता और राम के रति 
        भाव के ज्ञान तक पहुँचते हैं और दूसरे अनुमान के द्वारा हम उसके आस्वाद तक 
        पहुँच जाते हैं। अनुमान की प्रक्रिया वैसी होगी जैसे 'यत्र यत्र धूमस्तत्र 
        तत्र वह्नि:' में होती है। हम कह सकते हैं कि 'यत्र तत्र 
        रामादिगतानुरागज्ञानं तत्र तत्र रसोत्पत्ति:' किंतु यह हेत्वाभास मात्र है। 
        यहाँ व्याप्तिग्रह नहीं है। रस भाव के अनुमान के साथ-साथ अनिवार्य रूप से 
        नहीं रहता जैसा धूम के साथ वह्नि रहती है। क्योंकि नैयायिक, व्याकरण 
        इत्यादि इस बात का अनुमान तो कर सकते हैं कि अमुक व्यक्तियों के बीच रति 
        भाव है किंतु श्रृंगार रस का आस्वाद नहीं ले सकते, हेतु के व्यभिचारी होने 
        से यह हेत्वाभास हो गया। इसलिए अनुमान ठीक नहीं उतर सकता। इसके अतिरिक्त 
        अपनी ही मानसिक स्थिति की सत्ता का ज्ञान अनुमान प्रक्रिया द्वारा होना भी 
        बेतुका है।
 निदान, भाव की स्थिति का ज्ञान अनुमान की प्रक्रिया के द्वारा होता 
        है-इस सिद्धांत से रस अनुमेय सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि केवल भाव की 
        सत्ता के ज्ञान से रस सर्वथा पृथक् होता है।
 विचार
 आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से ऊपर के लंबे-चौड़े वाद-विवाद का अधिकांश 
        शब्दों का अपव्यय मात्र जान पड़ेगा। जो ज्ञान (कागनीशन) और अनुभूति (फीलिंग) 
        का पार्थक्य जानता है, उसके लिए ऐसे तर्क की कोई आवश्यकता नहीं कि रस एक 
        वस्तु है और भाव का ज्ञान दूसरी वस्तु। रस आनंद की विशेष स्वरूपवाली 
        अनुभूति है जो तर्क की किसी प्रक्रिया के द्वारा ग्राह्य नहीं है। भ्रांति 
        के अधिकांश का हेतु वस्तुत: व्यंजना शब्द के व्यवहार की असावधानी है जिसके 
        द्वारा रस को व्यंग्य कहा है। वस्तु व्यंजना और अलंकार व्यंजना में रस शब्द 
        का व्यवहार किसी तथ्य या वस्तु के ज्ञान की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया बतलाने 
        के लिए होता है। किंतु रस व्यंजना में व्यंजना से सर्वथा पृथक् प्रक्रिया 
        का बोध कराया जाता है। किसी विशेष भाव का रस के रूप में आस्वाद लेने की 
        अभिव्यक्ति का संकेत इस शब्द से मिलता है। वस्तुत: एक स्थिति में कुशाग्र 
        मति व्यक्ति तथ्य की प्रतीति करनेवाले होते हैं और दूसरी स्थिति में 
        हृदयसंपन्न (सहृदय) व्यक्ति होते हैं जो व्यंजना का ग्रहण करके रस का 
        आस्वाद लेते हैं। व्यंजना का शाब्दिक अर्थ है-प्रकट करना (प्रकाशन)। 
        'प्रकाशन' शब्द का अभिप्राय यह है कि जिस वस्तु का प्रकाशन होनेवाला है 
        उसकी सत्ता पहले से ही है किंतु यह पहले कहा जा चुका है कि अनुभूति के 
        पूर्व रस की सत्ता नहीं होती। श्रोता के मन में प्रसुप्त भावों का प्रकाश 
        रस के रूप में होता है। इसलिए 'प्रकट करना' का अर्थ होगा केवल अनुभूति 
        उत्पन्न करना। इसलिए इस व्यंजना में रस शब्द का व्यवहार बहुत प्रयुक्त नहीं 
        है। 'रसा प्रतीयंते' में 'प्रतीयंते' शब्द को परिष्कृत अर्थ में ग्रहण करना 
        चाहिए। वस्तुत: रस उत्पन्न होता है ज्ञान नहीं कराया जाता। यद्यपि 
        अलंकारशास्त्रियों के सिद्धांतानुसार रस न तो ज्ञाप्य (जिसका ज्ञान कराया 
        जाय) होता है न कार्य, जो उत्पन्न किया जा सके। किंतु रस के कार्यत्व के 
        संबंध में जो आपत्ति उठाई गई है वह आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से ग्राह्य 
        नहीं है। यह आपत्ति स्पष्ट इस नैयायिक सिद्धांत पर स्थित है कि युगपत् 
        ज्ञान असम्भव है। इस सिद्धांत का साहित्य के क्षेत्र में हाथ बढ़ाना वस्तुत: 
        आलंकारिकों के द्वारा ज्ञान (कागनीशन) और अनुभूति (फीलिंग) विषयक पारस्परिक 
        विवेक के अभाव से ही हुआ है। वे रस को ज्ञान और प्रतीति दोनों कहते हैं। 
        किंतु रस भाव की अनुभूति है। और चाहे तो भाव को प्रच्छन्न भाव कह सकते हैं। 
        ज्ञान और अनुभूति दोनों की युगपत् अनुभूति हो सकती है क्योंकि ये दोनों 
        विभिन्न मानसिक प्रक्रियाएँ हैं। भाव (इमोशन), ज्ञान (कागनीशन), अनुभूति 
        (फीलिंग) और इच्छा या संकल्प (कोनेशन) का संश्लेष होता है। इसलिए हम बड़े 
        मजे में कह सकते हैं कि विभाव अनुभाव के प्रदर्शन से ऐसे विभाव-प्रभाव के 
        ज्ञान की उत्पत्ति होती है जिसके साथ विशेष प्रच्छन्न या प्रसुप्त भाव की 
        अनुभूति लगी रहती है।
 डॉक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण अलंकारशास्त्र के साथ न्यायशास्त्र के 
        मिश्रण के संबंध में अपना दु:ख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं - 'यह बड़े 
        खेद की बात है कि गत 500 वर्षों से न्याय 'कानून-अलंकारशास्त्र इत्यादि में 
        घुस पड़ा है और इस प्रकार वह ज्ञान की उन शाखाओं के विकास में घातक हो रहा 
        है; जिन शाखाओं के आश्रय में ही इसका आरोह और पोषण हुआ है।'
 इसलिए यदि व्यंजना किसी तथ्य की व्यंजना करती है तो यही कि व्यंजित भाव 
        की श्रोता या दर्शक के द्वारा रस रूप में अनुभूति होती है। इस प्रकार रस 
        व्यंजना के द्वारा उत्पन्न होता है। भाव की अवस्थिति नायक और नायिका में 
        होती है और रस की अनुभूति श्रोता या दर्शक द्वारा होती है। पात्र के मन में 
        रस नहीं होता जो व्यंजित किया जा सके। इसलिए व्यंजना की प्रक्रिया का 
        विवेचन करने का उचित मार्ग यह है कि इसके द्वारा इस बात की व्यंजना होती है 
        कि भाव श्रोता के द्वारा रस के रूप में अनुभव किया जानेवाला है।
 अब वस्तु व्यंजना और अलंकार व्यंजना पर विचार कीजिए। ये भी अनुमेय नहीं 
        हैं। अनुमान में तीन अवयव होते हैं-पक्ष (जिसके संबंध में कोई बात सिद्ध 
        करनी होती है), सपक्ष (उसके सदृश वस्तु) और विपक्ष (उससे पृथक् वस्तु), 
        'अग्नियुक्त पर्वत है' उदाहरण में पक्ष=पर्वत, सपक्ष=रसोईघर और 
        विपक्ष=सरोवर। अनुमितिवादी व्यंग्य वस्तु को अनुमेय सिद्ध करने के लिए जो 
        प्रयास करते हैं उसमें 'भगतजी बेधड़क घूमो' इत्यादि उदाहरण में व्यंग्य 
        वस्तु अनुमान की प्रक्रिया के द्वारा इस प्रकार सिद्ध करते हैं-भगतजी 
        (पक्ष), उनका गोदावरी के सिंहयुक्त तट पर न घूमना (काम्य), क्योंकि 
        घूमनेवाला भीरु है, तट पर सिंह है (हेतु) अन्य भीरु ऐसे स्थान पर नहीं घूमा 
        करते।
 यहाँ भी हेतु व्यभिचारी है अर्थात् साध्य के साथ-साथ अनिवार्य रूप से 
        रहनेवाला नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता कि भीरु व्यक्ति कभी भयप्रद पदार्थ 
        के समीप जाते ही नहीं। वे गुरुजन के आदेश अथवा उमंग से प्रेरित होकर 
        कभी-कभी ऐसा कर सकते हैं। भीरु व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक ऐसे स्थानों में 
        नहीं जायँगे-यह तर्क ग्राह्य नहीं है। यह कथन भी सत्य नहीं हो सकता कि सिंह 
        भी तट पर रहता है क्योंकि ऐसा कहनेवाली कुलटा है। इसलिए हेतु संदिग्ध है। 
        दूसरा उदाहरण लीजिए-'मैं अकेले तमाल के कुंजों से ढके नदी तट पर पानी लेने 
        जाती हूँ खरोंट लगे तो लगे।' इस उदाहरण में इस व्यंग्य वस्तु का अनुमान कि 
        कहनेवाली प्रिय से मिलने जा रही है ठीक नहीं है। क्योंकि एकांत स्थान में 
        अकेले जाना और इस संभावना से जाना कि 'शरीर में खरोंट लग जाएगी ' ऐसे 
        अनुमान के लिए पुष्ट तर्क नहीं है। यह संभव है कि वह वहाँ बड़े विचार से 
        अपने पति की सेवा करने जा रही हो।
 व्यंग्य अलंकार भी अनुमेय नहीं है। यह उदाहरण लीजिए-'जलक्रीड़ा के समय 
        चंचल हथेलियों से बार-बार राधा के मुख को ढाँककर खोलकर चक्रवाक के जोड़े का 
        संयोग और वियोग करनेवाले कौतुकी कृष्ण संसार की रक्षा करें।'1 यहाँ व्यंग्य 
        अलंकाररूपक (मुखचंद्र) है। इसको अनुमान से उपलब्ध करने के लिए कोई इस 
        प्रकार अनुमान की प्रक्रिया दिखाएगा-
 मुख चंद्रमा है - प्रतिज्ञा (मेजर टर्म या प्रॉपोजीशन)। क्योंकि जब यह 
        दृश्य रहता है तो चक्रवाक के जोड़े का वियोग और जब यह दृश्य नहीं रहता है तब 
        उनके संयोग का कारण होता है - हेतु (मिडिल टर्म) या रीजन हेतु अनैकांतिक 
        है। उनके वियोग के लिए चंद्रमा के अतिरिक्त और भी संभाव्य हेतु हो सकते हैं 
        (जैसे व्याघ्र को देखना)।
 विचार
 यह ध्यान देने योग्य है कि लेखक [ साहित्यदर्पणकार ]  ने वस्तु व्यंजना या 
        अलंकार व्यंजना के संबंध में जो दोनों ही वस्तुत: किसी तथ्य की व्यंजना 
        होती हैं, अनुमेयत्व को असिद्ध करने के लिए उचित मार्ग का अवलंबन नहीं किया 
        है। वस्तुत: पूर्वोक्त दोनों उदाहरणों में व्यंग्य अर्थ का पता देनेवाली 
        परंपरा है। इनकी परीक्षा की जाय। पहले उदाहरण में साध्य या प्रॉपोजीशन 
        'गोदावरी के तट पर घूमना' नहीं है, प्रत्युत नायिका की इच्छा कि 'भगतजी 
        गोदावरी तट पर न घूमें' है। काव्य परंपरा से परिचित व्यक्ति के लिए एकांत 
        नदी तट पर कुंज शब्द का संकेत ही पर्याप्त है। इसके द्वारा वह तुरंत इस बात 
        से अवगत हो जाता है कि कहनेवाली कुलटा या कम-से-कम परकीया है और इस 
        अभिप्राय को समझ लेने में पूरी सहायता मिलती है। हम प्रतिज्ञा को यों रख 
        सकते हैं-नायिका चाहती है कि 'भगतजी तट पर घूमना छोड़ दें।' इसे अनुमान चक्र 
        के रूप में यों रख सकते हैं-
 नायिका चाहती है आदि-प्रतिज्ञा।
 क्योंकि वह अपने प्रिय से वहाँ मिलती है-(हेतु)।
 जो अपने पति से मिलना चाहती है। वह यह चाहती है कि कोई बाधा न 
        हो-(अप्लिकेशन)।
 इसी से वह चाहती है इत्यादि-(उपसंहार)।
 'वह कुलटा या परकीया है' यह भी अनुमान से जाना जा सकता है।
 वह परकीया है-प्रतिज्ञा या साध्य।
 साहित्य में परकीया सहेट में प्रिय से मिलती है यह भी सहेट में मिलना 
        चाहती
 
 1. जलकेलितरलकरतलमुक्त: पुन: पिहित राधिकावदन:।
 जगदवतु  कोकयूनोर्विघटनसंघटनकौतुकी  कृष्ण:॥
 -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 216।
 है-अप्लिकेशन।
 इसलिए वह परकीया या कुलटा है-उपसंहार।
 यही बात दूसरे उदाहरण के संबंध में भी कही जा सकती है। यदि ये वाक्य 
        सीता के मुख से कहलाये जायँ तो उक्त व्यंग्य नहीं रह जाता। परंपरा 
        (आप्तोपदेश) से वक्ता के चरित्र, प्रकरण इत्यादि का पता चलता है जो मुक्तक 
        में अकथित हुआ करते हैं। इस प्रकार इनमें वही मानसिक प्रक्रिया दिखाई देती 
        है जो अनुमान की होती है। उस प्रक्रिया का परिणाम ठीक-ठीक अनुमान तक पहुँच 
        सकता है कि नहीं यह पृथक् ही विचारणीय प्रश्न है। यह वस्तुत: व्यावहारिक 
        अनुमान है चाहे सदा सैद्धांतिक शुद्ध  अनुभाव न हो।
 उदाहरण
 1-'इस समय एक पत्ती नहीं हिलती है।' इससे वायु का अभावातिशय व्यंजित 
        होता है। यह शेषवत् अनुमान का अच्छा उदाहरण होगा।
 2-'देखो मृग कैसे निर्द्वंद्व और निश्चेष्ट बैठे हैं'-यहाँ निर्जनत्व 
        का अतिशय व्यंजित होता है, जो व्यावहारिक अनुमान है। यह विशुद्ध अनुमान 
        नहीं है। क्योंकि यह संभव है कि मृगों ने झाड़ियों में छिपे व्याघ्र को न 
        देखा हो। चाहे व्यावहारिक अनुमान हो चाहे विशुद्ध सैद्धांतिक अनुमान, 
        मानसिक प्रक्रिया दोनों में एक ही प्रकार की हुआ करती है। अनुमान और काव्य 
        की वस्तु व्यंजना में एक अंतर बहुत स्पष्ट है। वस्तु व्यंजना में वक्ता की 
        दृष्टि में रहनेवाला अर्थ प्रमुख होता है। न्याय की विशुद्ध पद्धति  से वह 
        अपनी बात नहीं कहता। दूसरे शब्द में काव्यगत व्यंजना में वक्ता का विचार ही 
        व्यंग्य हुआ करता है। वस्तु व्यंजना और अनुमान के असादृश्य का तात्पर्य यों 
        समझना चाहिए कि व्यावहारिक अनुमान से जिस व्यंग्य वस्तु की  उपलब्धि होती 
        है वह सामान्यतया घटित होनेवाली घटना पर आश्रित होती है। दूरारूढ़ 
        संभाव्यताओं का विचार करने वह नहीं जाती। शक्त्युद्भव ध्वनि में भी 
        व्यंजित सादृश्य तक एक प्रकार के अनुमान से ही हम पहुँचते हैं। वहाँ दूसरे 
        अर्थों के बीच तर्कगत संबंध ही हेतु हुआ करता है।
 जो यह कहते हैं कि रस ज्ञान स्मृति है-उनका कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि 
        उनका कथन इस बात पर आश्रित है कि स्मृति की भाँति रस ज्ञान भी वासनासंस्कार 
        की पूर्व सत्ता से होता है। चूँकि संस्कार प्रत्यभिज्ञा भी (अतीत में देखे 
        हुए पदार्थ का वर्तमान काल में देखे जानेवाले पदार्थ के सादृश्य का ज्ञान 
        अर्थात् यह वही वस्तु है) जगाता है, इसलिए हेतु व्यभिचारी है। जो लोग यह 
        मानते हैं कि प्रत्यभिज्ञा का उदय स्मृति से होता है, संस्कार या वासना से 
        नहीं, इसलिए वह संस्कार से भिन्न वस्तु है, उसके संबंध में यह आपत्ति नहीं 
        की जा सकती।
 
 रस निर्णय
 सहृदय पुरुषों के हृदय में वासना रूप में स्थित रति आदि स्थायी भाव ही 
        विभाव, अनुभाव और संचारी के द्वारा अभिव्यक्त होकर रस के स्वरूप को प्राप्त 
        होते हैं। 1
 इससे प्रकट है कि सहृदय पुरुषों के हृदय में प्रसुप्त भाव ही रस का रूप 
        धारण करते हैं, जब वे विभाव आदि के द्वारा व्यंजित किए जाते हैं, किसी के 
        हृदय में भाव का व्यक्त होना वस्तुत: उस भाव की अनुभूति के अतिरिक्त और कुछ 
        नहीं है। इसलिए इस बात को हम और स्पष्ट रूप में यों कह सकते हैं कि विभाव, 
        अनुभाव और संचारी भाव के प्रदर्शन द्वारा भाव की अनुभूति श्रोता या दर्शक 
        के हृदय में रस रूप में उत्पन्न होती है। रस विभाव, अनुभाव के संयोग से उसी 
        प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार दूध, मट्ठा या जमाव के मिश्रण से दही 
        उत्पन्न होता है (दधयादि न्याय)। अब यह प्रश्न उठता है कि संयोग की यह 
        प्रक्रिया कहाँ होती है। यह श्रोता या दर्शक के हृदय में होती है। किंतु 
        विभाव और अनुभाव श्रोता के मन में केवल ज्ञान के रूप में भी अवस्थित रहते 
        हैं। इसलिए और विशुद्ध रूप में हम यों कह सकते हैं कि विभाव, अनुभाव के 
        ज्ञान से रस नामक अनुभूति उत्पन्न होती है :
 रस की आनंदानुभूति उस समय होती है जब सत्व का उद्रेकसत्वोद्रेकात् होता 
        है और रजस् तमस् दब जाते हैं। रस वस्तुत: अनुभूति है, अनुभूति का विषय 
        नहीं।   [ देखिए पृष्ठ 337। ]
 यदि रस आनंद की अनुभूति है तो करुण बीभत्स को रस कैसे कहा जाये। इनके 
        लिए दिए गए तर्क संतोषप्रद नहीं हैं। मनोवैज्ञानिक अनुभूति को क्रीड़ा 
        वृत्ति मानते हैं। श्रम और जलक्रीड़ा की वृत्ति में स्वत: प्रवर्तित होते 
        हैं तब उनकी अनुभूति आनंदस्वरूप होती है।
 किसी पात्र के आलम्बन का प्रदर्शन भाव की अनुभूति को रस रूप में कैसे 
        उत्पन्न कर सकता है। सामान्यता की प्रक्रिया से जिसे साधारणीकरण कहते हैं, 
        श्रोता या दर्शक का पात्र के साथ तादात्म्य हो जाता है। भावों की अनुभूति 
        प्रदर्शित विशिष्ट विषयों के साथ नहीं होती, प्रत्युत साधारण रूप में होती 
        है। रसानुभूतिकाल में श्रोता इस बात का विचार करने नहीं जाता कि भाव मेरे 
        हैं या दूसरे के।
 
 रसचक्र
 (1) पूर्ण रस = श्रोता का आलम्बन वही जो आश्रय का (भावात्मक)
 (2) मध्यम रस = श्रोता का आलम्बन आश्रय स्वयं। श्रोता के औत्सुक्य का 
        (कल्पनात्मक)
 
 1. देखिए, साहित्यदर्पण, पृष्ठ 60।
 अनौचित्य को रसाभास माना है किंतु अनुपयुक्तता को नहीं।
 द्वितीय  [ दूसरा या बाद वाला ]  चरित्र-चित्रण में बड़े मजे में 
        प्रयुक्त हो सकता है। अधिकतर परंपराभुक्त रचनाओं में बेढंगा प्रयोग हुआ है 
        जिससे न तो उच्चकोटि की कोई अनुभूति ही होती है और न कल्पना को ही कोई 
        सहारा मिलता है। कल्पनात्मकविधान से भी राग की उत्पत्ति होती है पर 
        अप्रत्यक्ष रूप में।
 कुछ लोग कल्पनात्मक पक्ष पर ही जोर देते हैं और कुछ भावात्मक पक्ष पर। 
        इसका समाधान इस प्रश्न के उत्तर से हो सकता है कि नाना प्रकार के दृश्य 
        पदार्थ हमारी अनुभूति जगाया करते हैं या अपनी अनुभूति को चरितार्थ करने के 
        लिए हम ही उन्हें देखना चाहते हैं ।
 प्रश्न-कुरूप स्त्री के प्रति आत्मत्यागमूलक प्रेम के संबंध में क्या 
        कहा जायगा जैसा फारसी के आख्यानों में मजनूँ का लैला के प्रति था।
 उत्तर-पात्र में प्रदर्शित अनुभूति की गहराई अप्रत्यक्ष रूप से अपना 
        प्रभाव
 डालती है।
 साधारणीकरण की दो प्रकार की व्याख्याएँ संभव हो सकती हैं-(1) आश्रय के 
        साथ तादात्म्य, (2) आलम्बन का सामान्य रूप से कथन। आलंकारिक लोग कदाचित् 
        दूसरा मत मानते थे। उनकी दृष्टि रति भाव तक ही परिमित थी। क्योंकि इस 
        दृष्टि से उसका स्वरूप विशिष्ट होता है।
 प्रलय संचारी है, सात्त्विक नहीं।
 अनुभावों के भेदों (कायिक, मानसिक इत्यादि) में से मानसिक को पृथक् कर 
        देना चाहिए। प्राचीनों ने यह भेद नहीं माना है। उद्दीपन दो प्रकार के होते 
        हैं-आलम्बन और आलम्बन बाह्य।
 [ इसके अनंतर देखिए पृष्ठ 344 से 347 तक। ]
 अनुभाव -
 श्रृंगार - भृकुटिभंग, आलिंगन, चुंबन आदि।
 हास्य - ऑंखों का सुकड़ना, मुख का, दाँत का खुलना, ऑंसू।
 करुणा - भूपतन, रोदन, विवर्णता, उच्छ्वास, स्तंभ, प्रलाप, देवनिंदा।
 रौद्र - लाल ऑंखें, भृकुटी चढ़ाना, दाँत पीसना, ओठ चबाना, मुँह लाल 
        होना, उग्र वचन, शस्त्र उठाना, झपटना, गर्जन, तर्जन, अपनी प्रशंसा।
 वीर - पुलक।
 भयानक - स्वेद, कंप, वैवर्ण्य, रोमांच, स्तंभ आदि।
 बीभत्स - थूकना, मुँह फेरना, नाक सुकोड़ना।
 अद्भुत - स्तंभ, स्वेद, रोमांच।
 अनुभाव - कायिक और सात्त्विक।
 सात्त्विक अनुभाव-स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कंप, अश्रु, 
        वैवर्ण्य, प्रलय (Voluntary and Involuntary)  [ ऐच्छिक और अनैच्छिक या 
        सात्त्विक। ]
 नायिकाओं के अलंकार-
 28 होते हैं-
 अंगज - भाव, हाव, हेला।
 अयत्नज - शोभा, कांति, दीप्त, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य, धैर्य।
 सयत्नजकृतिसाध्य - लीला, विलास, विच्छित्ति, विव्वोक, किलकिंचित्, 
        मोट्टायित, कुट्टमित, विभ्रम, ललित, मद, विहृत, तपन, मौग्धय, विक्षेप, 
        कुतूहल, हसित, चकित, केलि।
 उक्ता: स्त्रींणामलंकारा: अंक्ष्जाश्च स्वभावजा:।
 संचारी
 निर्वेद, आवेग, दैन्य, श्रम, मद, जड़ता, उग्रता, मोह, विवोध, स्वप्न, 
        अपस्मार, गर्व, मरण, अलसता, अमर्ष, निद्रा, अवहित्था, औत्सुक्य, उन्माद, 
        शंका, स्मृति, मति, व्याधि, संत्रास, लज्जा, हर्ष, असूया, विषाद, धृति, 
        चपलता, ग्लानि, चिंता, वितर्क।
 अंगज - भाव (प्रथम प्रेम विकार के लक्षण दिखाई देना)। यह वही कुमारी 
        है, किंतु इसका मन कुछ और ही दिखाई देता है।
 हाव - (भृकुटी, नेत्रादि के किंचित् या अल्प विकार से संभोगेच्छा 
        प्रकाश)।
 हेला - (भृकुटी, नेत्रादि के अधिक विकार से अभिलाषा का अधिक स्फुट 
        होना)।
 लीला - वेष, अलंकार, वचन आदि में प्रियतम का अनुकरण।
 विलास - प्रिय के दर्शन से गति, स्थिति आदि तथा मुख, नेत्रादि के 
        व्यापारों की विलक्षणता।
 विच्छित्ति - कांति को बढ़ानेवाली कुछ वेशरचना।
 विव्वोक - अति गर्व के कारण अभिलषित वस्तु का भी अनादर प्रकट करना।
 किलकिंचित् - अति प्रिय वस्तु के मिलने पर हर्ष, हास, अकारण रोदन, कुछ 
        त्रास, कुछ क्रोध, कुछ श्रमादि का विचित्र मिश्रण।
 मोट्टायित - प्रियतम की कथा में अनुराग दिखाई पड़ना।
 कुट्टमित - अंग स्पर्श के समय भीतर हर्ष होने पर भी बाहरी घबराहट प्रकट 
        करना, हाथ-पैर हिलाना आदि।
 विभ्रम - प्रिय के आगमन या मिल जाने के हर्षातिरेक से वस्त्राभूषण आदि 
        का और स्थान पर पहनना।
 ललित - अंगों को सुकुमारता से रखना (नजाकत)।
 मद - सौभाग्य, यौवन आदि का गर्वप्रदर्शन।
 कुट्ट - To abuse, to bruise, grind (कुट्ट=निंदा करना।)
 किल - Trifle to Play (किल=क्रीड़ा।)
 The distinction between करुण रस and करुण विप्रलंभ -
 In करुण विप्रलंभ there is a hope of the deceased beloved coming 
        into life by some agency : if where there is no such hope, there is करुण 
        रस।
 [ करुण रस और करुण विप्रलंभ में अंतर - करुण विप्रलंभ में किसी 
        शक्ति के द्वारा मृत प्रिय के फिर से जीवित होने की आशा रहती है। यदि कहीं 
        इस प्रकार की आशा न हो तो करुण रस हो जाता है। ]
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