आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का
प्रवर्तन प्रथम उत्थान
( संवत्
1925 - 1950)
प्रकरण 1
सामान्य परिचय
भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा।
उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता,
मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को भी नए मार्ग पर
लाकर खड़ा कर दिया। उनके भाषासंस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्तकंठ से
स्वीकार किया और वे वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गए। मुंशी सदासुख
की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और
सदल मिश्र में पूरबीपन था। राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित
न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध और
मधुर तो अवश्य थी, पर आगरे की बोलचाल का पुट उसमें कम न था। भाषा का निखरा
हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र
ने पद्य की ब्रजभाषा का भी बहुत कुछ संस्कार किया। पुराने पड़े हुए शब्दों
को हटाकर काव्यभाषा में भी वे बहुत कुछ चलतापन और सफाई लाए।
इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और
वे उसे शिक्षित जनता के साहचर्य में ले आए। नई शिक्षा के प्रभाव से लोगों
की विचारधारा बदल चली थी। उनके मन में देशहित, समाजहित आदि की नई उमंगें
उत्पन्न हो रही थीं। काल की गति के साथ साथ उनके भाव और विचार तो बहुत आगे
बढ़ गए थे, पर साहित्य पीछे ही पड़ा था। भक्ति, शृंगारादि की पुराने ढंग की
कविताएँ ही होती चली आ रही थीं। बीच बीच में कुछ शिक्षासंबंधिनी
पुस्तकें अवश्य निकल जाती थीं, पर देशकाल के अनुकूल साहित्यनिर्माण का कोई
विस्तृत प्रयत्न तब तक नहीं हुआ था। बंग देश में नए ढंग के नाटकों और
उपन्यासोंकासूत्रपात हो चुका था जिनमें देश और समाज की नई रुचि और भावना का
प्रतिबिंब आने लगा था। पर हिन्दी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था।
भारतेंदु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर हमारे जीवन के साथ फिर से लगा
दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे
उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने
वाले हरिश्चंद्र ही हुए।
उर्दू के कारण अब तक हिन्दी गद्य की भाषा का स्वरूप ही झंझट में पड़ा
था। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह ने जो कुछ लिखा था वह एक प्रकार से
प्रस्ताव के रूप में था। जब भारतेंदु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने
लाए तब हिन्दी बोलनेवाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्रकृत साहित्यिक
रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। प्रस्तावकाल समाप्त हुआ
और भाषा का स्वरूप स्थिर हुआ।
भाषा का स्वरूप स्थिर हो जाने पर जब साहित्य की रचना कुछ परिमाण में हो
लेती है तभी शैलियों का भेद, लेखकों की व्यक्तिगत विशेषताएँ आदि लक्षित
होती हैं। भारतेंदु के प्रभाव से उनके अल्प जीवनकाल के बीच ही लेखकों का एक
खासा मंडल तैयार हो गया जिसके भीतर पं. प्रतापनारायण मिश्र, उपाधयाय
बदरीनारायण चौधारी, ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. बालकृष्ण भट्ट मुख्य रूप से
गिने जा सकते हैं। इन लेखकों की शैलियों में व्यक्तिगत विभिन्नता स्पष्ट
लक्षित हुई। भारतेंदु में ही हम दो प्रकार की शैलियों का व्यवहार पाते हैं।
उनकी भावावेश की शैली दूसरी है और तथ्यनिरूपण की दूसरी। भावावेश के कथनों
में वाक्य प्राय: बहुत छोटे छोटे होते हैं और पदावली सरल बोलचाल की होती है
जिसमें बहुत प्रचलित अरबीफारसी के शब्द भी कभी कभी, पर बहुत कम आ जाते हैं।
जहाँ किसी ऐसे प्रकृतिस्थ भाव की व्यंजना होती है, जो चिंतन का अवकाश भी
बीच बीच में छोड़ता है, वहाँ की भाषा कुछ अधिक साधु और गंभीर होती है, वाक्य
भी कुछ लंबे होते हैं, पर उनका अन्वय जटिल नहीं होता। तथ्यनिरूपण या
सिध्दांतकथन के भीतर संस्कृत शब्दों का कुछ अधिक मेल दिखाई पड़ता है। एक बात
विशेष रूप से ध्यान देने की है। वस्तुवर्णन या दृश्यवर्णन में विषयानुकूल
मधुर या कठोर वर्णवाले संस्कृत शब्दों की योजनाओं की, जो प्राय: समस्त और
सानुप्रास होती हैं, चाल सी चली आई है। भारतेंदु में यह प्रवृत्ति हम
सामान्यत: नहीं पाते।
पं. प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अत: उनकी भाषा बहुत
स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगिमा लिए चलती है। हास्य विनोद की
उमंग में वह कभी कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों
की बौछार भी छोड़ती चलती है। उपाधयाय बदरीनारायण चौधारी 'प्रेमघन' के लेखों
में गद्य काव्य के पुराने ढंग की झलक, रंगीन इमारत की चमक दमक बहुत कुछ
मिलती है। बहुत से वाक्यखंडों की लड़ियों से गँथे हुए उनके वाक्य अत्यंत
लंबे होते थे , इतने लंबे कि उनका अन्वय कठिन होता था। पदविन्यास में तथा
कहींकहीं वाक्यों के बीच विरामस्थलों पर भी, अनुप्रास देख इंशा और लल्लूलाल
का स्मरण होता है। इस दृष्टि से देखें तो 'प्रेमघन' में पुरानी परंपरा का
निर्वाह अधिक दिखाई पड़ता है।
पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी खरी सुनाने
में काम में लाई जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष
मनोरंजक हैं। नूतन पुरातन का वह संघर्षकाल था इसमें भट्टजी को चिढ़ाने की
पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी। समय के प्रतिकूल पुराने बद्ध मूल
विचारों को उखाड़ने और परिस्थिति के अनुकूल नए विचारों को जमाने में उनकी
लेखनी सदा तत्पर रहती थी। भाषा उनकी चटपटी, तीखी और चमत्कारपूर्ण होती थी।
ठाकुर जगमोहन सिंह की शैली शब्दशोधान और अनुप्रास की प्रवृत्ति के कारण
चौधारी बदरीनारायण की शैली से मिलती जुलती है पर उसमें लंबे वाक्यों की
जटिलता नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में जीवन की मधुर
रंगस्थलियों को मार्मिक ढंग से हृदय में जमाने वाले प्यारे शब्दों का चयन
अपनी अलगविशेषता रखता है।
हरिश्चंद्रकाल के सब लेखकों में अपनी भाषा की प्रकृति की पूरी परख थी।
संस्कृत के ऐसे शब्दों और रूपों का व्यवहार वे करते थे जो शिष्ट समाज के
बीच प्रचलित चले आते हैं। जिन शब्दों या उनके जिन रूपों से केवल
संस्कृतभाषी ही परिचित होते हैं और जो भाषा प्रवाह के साथ ठीक चलते नहीं,
उनका प्रयोग वे बहुत औचट में पड़कर ही करते थे। उनकी लिखावट में न
'उव्ीयमान' और 'अवसाद' ऐसे शब्द मिलते हैं, न 'औदार्य', 'सौकर्य' और
'मर्ौख्य' ऐसे रूप।
भारतेंदु के समय में ही देश के कोने कोने में हिन्दी लेखक तैयार हुए जो
उनके निधान के उपरांत भी बराबर साहित्य सेवा में लगे रहे। अपने अपने
विषयक्षेत्र के अनुकूल रूप हिन्दी को देने में सबका हाथ रहा। धर्म संबंधी
विषयों पर लिखनेवालों (जैसे पं. अंबिकादत्त व्यास) ने शास्त्रीय विषयों को
व्यक्त करने में, संवाद पत्रों में राजनीतिक बातों को सफाई के साथ सामने
रखने में हिन्दी को लगाया। सारांश यह कि उस काल में हिन्दी का शुद्ध
साहित्योपयोगी रूप ही नहीं, व्यवहारोपयोगी रूप भी निखरा।
यहाँ तक तो भाषा और शैली की बात हुई। अब लेखकों की दृष्टिक्षेत्र और
उनका मानसिक अवस्थान लीजिए। हरिश्चंद्र तथा उनके समसामयिक लेखकों में जो एक
सामान्य गुण लक्षित होता है वह है सजीवता या जिंदादिली। सब में हास्य या
विनोद की मात्रा थोड़ी या बहुत पाई जाती है। राजा शिवप्रसाद या राजा
लक्ष्मणसिंह भाषा पर अधिकार रखनेवाले पर झंझटों से दबे हुए स्थिर प्रकृति
के लेखक थे। उनमें वह चपलता, स्वच्छंदता और उमंग नहीं पाई जाती जो
हरिश्चंद्र मंडल के लेखकों में दिखाई पड़ती है। शिक्षित समाज में संचरित
भावों को भारतेंदु के सहयोगियों ने बड़े अनुरंजनकारी रूप में ग्रहण किया।
सबसे बड़ी बात स्मरण रखने की यह है कि उन पुराने लेखकों के हृदय का
मार्मिक संबंध भारतीय जीवन के विविधा रूपों के साथ पूरा पूरा बना था।
भिन्नभिन्न ऋतुओं में पड़नेवाले त्योहार उनके मन में उमंग उठाते, परंपरा से
चले आते हुए आमोद प्रमोद के मेले उनमें कुतूहल जगाते और प्रफुल्लता लाते
थे। आजकल के समान उनका जीवन देश के सामान्य जीवन से विच्छिन्न न था। विदेशी
अंधाड़ों ने उनकी ऑंखों में इतनी धूल नहीं झोंकी थी कि अपने देश का रूप रंग
उन्हें सुझाई ही न पड़ता। काल की गति वे देखते थे, सुधार के मार्ग भी उन्हें
सूझते थे, पर पश्चिम की एक एक बात के अभिनय को ही वे उन्नति का पर्याय नहीं
समझते थे। प्राचीन और नवीन संधिस्थल पर खड़े होकर वे दोनों का जोड़ इस प्रकार
मिलाना चाहते थे कि नवीन प्राचीन का प्रवर्धित रूप प्रतीत हो, न कि ऊपर
लपेटी हुई वस्तु।
विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन
नाटकों से हुआ। भारतेंदु के पहले 'नाटक' के नाम से जो दो-चार ग्रंथ
ब्रजभाषा में लिखे गए थे उनमें महाराज विश्वनाथ सिंह के 'आनंद रघुनंदन
नाटक' को छोड़ और किसी में नाटकत्व न था। हरिश्चंद्र ने सबसे पहले
'विद्यासुंदर नाटक' का बँग्ला से सुंदर हिन्दी में अनुवाद करके संवत् 1925
में प्रकाशित किया। उसके पहले वे 'प्रवास नाटक' लिख रहे थे पर वह पूरा न
हुआ। उन्होंने आगे चलकर भी अधिकतर नाटक ही लिखे। पं. प्रतापनाराण और
बदरीनारायण चौधारी ने भी उन्हीं का अनुसरण किया।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि भारतेंदु के समय में धूम से चली हुई नाटकों
की वह परंपरा आगे चलकर बहुत शिथिल पड़ गई। बा. रामकृष्ण वर्मा बंगभाषा के
नाटकों का, जैसे , वीर नारी पद्मावती, कृष्णकुमारी , अनुवाद करके नाटकों का
सिलसिला कुछ चलाते रहे। इस उदासीनता का कारण उपन्यासों की ओर दिनदिन बढ़ती
हुई रुचि के अतिरिक्त अभिनयशालाओं का अभाव भी कहा जा सकता है। अभिनय द्वारा
नाटकों की ओर रुचि बढ़ती है और उनका अच्छा प्रसार होता है। नाटक दृश्य काव्य
हैं। उनका बहुत कुछ आकर्षण अभिनय पर अवलंबित रहता है। उस समय नाटक
खेलनेवाली जो व्यवसायी पारसी कंपनियाँ थीं, वे उर्दू छोड़ हिन्दी नाटक खेलने
को तैयार न थीं। ऐसी दशा में नाटकों की ओर हिन्दी प्रेमियों का उत्साह कैसे
रह सकता था?
भारतेंदुजी, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधारी उद्योग करके अभिनय
का प्रबंध किया करते थे और कभी कभी स्वयं भी पार्ट लेते थे। पं.
शीतलाप्रसाद त्रिपाठीकृत 'जानकीमंगल नाटक' का जो धूमधाम से अभिनय हुआ था
उसमें भारतेंदु जी ने पार्ट लिया था। यह अभिनय देखने काशीनरेश महाराजा
ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह भी पधाारे थे और इसका विवरण 8 मई, 1868 के इंडियन
मेल में प्रकाशित हुआ था। प्रतापनारायण मिश्र का अपने पिता से अभिनय के लिए
मूँछ मुड़ाने की आज्ञा माँगना प्रसिद्ध ही है।
'कश्मीरकुसुम' (राजतरंगिणी का कुछ अंश) और 'बादशाहदर्पण' लिखकर इतिहास
की पुस्तकों की ओर और जयदेव का जीवनवृत्त लिखकर जीवनचरित की पुस्तकों की ओर
भी हरिश्चंद्र ध्यान ले गए पर उस समय इन विषयों की ओर लेखकों की प्रवृत्ति
न दिखाई पड़ी।
पुस्तक रचना के अतिरिक्त पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक प्रकार के फुटकल
लेख और निबंध अनेक विषयों पर मिलते हैं, राजनीति, समाजदशा, देशदशा, ऋतुछटा,
पर्वत्योहार, जीवनचरित, ऐतिहासिक प्रसंग, जगत् और जीवन से संबंध रखनेवाले
सामान्य विषय (जैसे आत्मनिर्भरता, मनोयोग, कल्पना)। लेखों और निबंधों की
अनेकरूपता को देखते हुए उनका वर्गीकरण किया जा सकता है। समाजदशा और देशदशा
संबंधी लेख कुछ विचारात्मक पर अधिकांश भावात्मक मिलेंगे। जीवनचरितों और
ऐतिहासिक प्रसंगों में इतिवृत्ति के साथ भावव्यंजना भी गुंफित पाई जाएगी।
ऋतुछटा और पर्वत्योहारों पर अलंकृत भाषा में वर्णनात्मक प्रबंध सामने आते
हैं। जगत् और जीवन से संबंध रखनेवाले सामान्य विषयों के निरूपण में विरल
विचारखंड कुछ उक्तिवैचित्रय के साथ बिखरे मिलेंगे। पर शैली की व्यक्तिगत
विशेषताएँ थोड़ी बहुत लेखकों में पाई जाएँगी।
जैसा कि कहा जा चुका है हास्यविनोद की प्रवृत्ति इस काल के प्राय: सब
लेखकों में थी। प्राचीन और नवीन के संघर्ष के कारण उन्हें हास्य के अवलंबन
दोनोंपक्षोंमें मिलते थे। जिस प्रकार बात बात में बाप दादों की दुहाई
देनेवाले, धर्मकेआडंबर की आड़ में दुराचार छिपानेवाले पुराने खूसट उनके
विनोद के लक्ष्य थे, उसी प्रकार पश्चिमी चाल ढाल की ओर मुँह के बल
गिरनेवाले फैशन के गुलाम भी।
नाटकों और निबंधों की ओर विशेष झुकाव रहने पर भी बंगभाषा की देखादेखी
नए ढंग के उपन्यासों की ओर भी ध्यान जा चुका था। अंग्रेजी ढंग का मौलिक
उपन्यास पहले पहल हिन्दी में लाला श्रीनिवासदास का 'परीक्षागुरु' ही निकला
था। उसके पीछे बा. राधाकृष्णदास ने 'निस्सहाय हिंदू, और पं. बालकृष्ण भट्ट
ने 'नूतन ब्रह्मचारी' तथा 'सौ अजान और एक सुजान' नामक छोटे छोटे उपन्यास
लिखे। उस समय तक बंगभाषा में बहुत से अच्छे उपन्यास निकल चुके थे। अत:
साहित्य के इस विभाग की शून्यता शीघ्र हटाने के लिए अनुवाद आवश्यक प्रतीत
हुए। हरिश्चंद्र ने ही अपने पिछले जीवन में बंगभाषा के एक उपन्यास के
अनुवाद में हाथ लगाया था, पर पूरा न कर सके थे। पर उनके समय में ही
प्रतापनाराण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी ने कई उपन्यासों के अनुवाद किए।
तदनंतर बाबू गदाधार सिंह ने बंगविजेता और दुर्गेशनंदिनी का अनुवाद किया।
संस्कृत की कादंबरी की कथा भी उन्होंने बँग्ला के आधार पर लिखी। पीछे तो
बा. राधाकृष्णदास, बा. कार्तिकप्रसाद खत्री, बा. रामकृष्ण वर्मा आदि ने
बँग्ला के उपन्यासों के अनुवाद की जो परंपरा चलाई वह बहुत दिनों तक चलती
रही। इन उपन्यासों में देश के सर्वसामान्य जीवन के बड़े मार्मिक चित्र रहते
थे।
प्रथम उत्थान का अंत होते होते तो अनूदित उपन्यासों का ताँता बँधा गया।
पर पिछले अनुवादकों का अपनी भाषा पर वैसा अधिकार न हुआ था। अधिकांश अनुवादक
प्राय: भाषा का ठीक हिन्दी रूप देने में असमर्थ रहे। कहीं कहीं तो बँग्ला
के शब्द और मुहावरे तक ज्यों के त्यों रख दिए जाते थे, जैसे , 'काँदना',
'सिहरना', 'धाू धाू करके आग जलना', 'छल छल ऑंसू गिराना' इत्यादि। इन
अनुवादों से बड़ा भारी काम यह हुआ कि नए ढंग के सामाजिक और ऐतिहासिक
उपन्यासों के ढंग का अच्छा परिचय हो गया और स्वतंत्र उपन्यास लिखने की
प्रवृत्ति और योग्यता उत्पन्न हो गई।
हिन्दी गद्य की सर्वतोन्मुखी गति का अनुमान इसी से हो सकता है कि
पचीसों पत्र पत्रिकाएँ हरिश्चंद्रजी के जीवनकाल में निकलीं जिनके नाम नीचे
दिए जाते हैं ,
1. अल्मोड़ा अखबार (संवत् 1928, संपादक पं. सदानंद सलवास)
2. हिन्दी दीप्तिप्रकाश (कलकत्ता 1929, कार्तिक प्रसाद खत्री)
3. बिहार बंधु (संवत् 1929, केशवराम भट्ट)
4. सदादर्श (दिल्ली 1931, ला. श्रीनिवासदास)
5. काशीपत्रिका (1933, बा. बलदेव प्रसाद बी.ए. शिक्षासंबंधी मासिक)
6. भारतबंधु (1933, तोताराम, अलीगढ़)
7. भारतमित्र (कलकत्ता, संवत् 1934, रुद्रदत्ता)
8. मित्रविलास (लाहौर, 1934, कन्हैयालाल)
9. हिन्दी प्रदीप (प्रयाग, 1934, पं. बालकृष्ण भट्ट, मासिक)
10. आर्यदर्पण (शाहजहाँपुर, 1934, मुं. बख्तावरसिंह)
11. सार सुधानिधि (कलकत्ता, 1935, सदानंद मिश्र)
12. उचित वक्ता (कलकत्ता, 1935, दुर्गाप्रसाद मिश्र)
13. सज्जन कीर्ति सुधाकर (उदयपुर, 1936, वंशीधार)
14. भारत सुदशाप्रवर्तक (फर्रुखाबाद 1936, गणेशप्रसाद)
15. आनंदकादंबिनी (मिर्जापुर, 1938, उपाधयाय बदरीनारायण चौधारी,
मासिक)
16. देशहितैषी (अजमेर, 1936)
17. दिनकर प्रकाश (लखनऊ, 1940 रामदास वर्मा)
18. धर्मदिवाकर (कलकत्ता, 1940, देवीसहाय)
19. प्रयाग समाचार (1940, देवकीनंदन त्रिपाठी)
20. ब्राह्मण (कानपुर, 1940, प्रतापनारायण मिश्र)
21. शुभचिंतक (जबलपुर, 1940, सीताराम)
22. सदाचार मार्तंड (जयपुर, 1940, लालचंद शास्त्री)
23. हिंदोस्थान (इंगलैंड, 1940, राजा रामपाल सिंह, दैनिक)
24. पीयूष प्रवाह (काशी, 1941, अम्बिकादत्ता व्यास)
25. भारत जीवन (काशी, 1941, रामकृष्ण वर्मा)
26. भारतेंदु (वृंदावन, 1941, राधाचरण गोस्वामी)
27. कविकुलकंज दिवाकर (बस्ती, 1941, रामनाथ शुक्ल)
इनमें से अधिकांश पत्र पत्रिकाएँ तो थोड़े ही दिन चलकर बंद हो गईं, पर
कुछ ने लगातार बहुत दिनों तक लोकहितसाधन और हिन्दी की सेवा की है, जैसे ,
बिहारबंधु, भारतमित्र, भारतजीवन, उचितवक्ता, दैनिक हिंदोस्थान, आर्यदर्पण,
ब्राह्मण, हिन्दीप्रदीप। 'मित्रविलास' सनातन धर्म का समर्थक पत्र था जिसने
पंजाब में हिन्दी प्रचार का बहुत कुछ कार्य किया था। 'ब्राह्मण',
'हिन्दीप्रदीप' और 'आनंदकादंबिनी' साहित्यिक पत्र थे जिनमें बहुत सुंदर
मौलिक गद्य प्रबंध और कविताएँ निकला करती थीं। इन पत्र पत्रिकाओं को बराबर
आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। 'हिन्दी प्रदीप' को कई बार बंद
होना पड़ा था। 'ब्राह्मण' संपादक पं. प्रतापनारायण मिश्र को ग्राहकों से
चंदा माँगते माँगते थककर कभी कभी पत्र में इस प्रकार याचना करनी पड़ती थी ,
आठ मास बीते, जजमान! अब तौ करौ दच्छिना दान
बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री ने हिन्दी संवादपत्रों के प्रचार के लिए बहुत
उद्योग किया था, उन्होंने संवत् 1928 में 'हिन्दी दीप्ति प्रकाश' नाम का एक
संवादपत्र और 'प्रेमविलासिनी' नाम की एक पत्रिका निकाली थी। उस समय हिन्दी
संवादपत्र पढ़ने वाले थे ही नहीं। पाठक उत्पन्न करने के लिए बाबू
कार्तिकप्रसाद ने बहुत दौड़ धूप की थी। लोगों के घर जा जाकर वे पत्र सुना तक
आते थे। इतना सब करने पर भी उनका पत्र थोड़े दिन चलकर बंद हो गया। संवत्
1934 तक कोई अच्छा और स्थायी साप्ताहिक पत्र नहीं निकला था। अत: संवत् 1935
में पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र, पं. छोटूलाल मिश्र, पं. सदानंद मिश्र और बाबू
जगन्नाथप्रसाद खन्ना के उद्योग से कलकत्तो में 'भारतमित्र कमेटी' बनी और
'भारतमित्र' पत्र बड़ी धूमधाम से निकला जो बहुत दिनों तक हिन्दी संवाद
पत्रों में एक ऊँचा स्थान ग्रहण किए रहा। प्रारंभकाल में जब पं. छोटूलाल
मिश्र इसके संपादक थे तब भारतेंदुजी कभी कभी इसमें लेख दिया करते थे।
उसी संवत् में लाहौर से 'मित्रविलास' नामक पत्र पं. गोपीनाथ के उत्साह
से निकला। इसके पहले पंजाब में कोई हिन्दी का पत्र न था। केवल
'ज्ञानप्रदायनी' नाम की एक पत्रिका उर्दू हिन्दी में बाबू नवीनचंद्र द्वारा
निकलती थी जिसमें शिक्षा और सुधारसंबंधी लेखों के अतिरिक्त ब्राह्मोमत की
बातें रहा करती थीं। उसके पीछे जो 'हिन्दूबांधाव' निकला उसमें भी उर्दू और
हिन्दी दोनों रहती थीं। केवल हिन्दी का एक पत्र न था। 'कवि वचनसुधा' की
मनोहर लेखशैली और भाषा पर मुग्धा होकर ही पं. गोपीनाथ ने 'मित्रविलास'
निकाला था जिसकी भाषा बहुत सुष्ठु और ओजस्विनी होती थी। भारतेंदु के
गोलोकवास पर बड़ी ही मार्मिक भाषा में इस पत्र ने शोकप्रकाश किया था और उनके
नाम का संवत् चलाने का आंदोलन उठाया था।
इसके उपरांत संवत् 1935 में पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र के संपादन में
'उचितवक्ता' और पं. सदानंद मिश्र के संपादन में 'सारसुधानिधि' ये दो पत्र
कलकत्तो से निकले। इन दोनों महाशयों ने बड़े समय पर हिन्दी के एक बड़े अभाव
की पूर्ति में योग दिया था। पीछे कालाकाँकर के मनस्वी और देशभक्त राजा
रामपाल सिंहजी अपनी मातृभाषा की सेवा के लिए खड़े हुए और संवत् 1940 में
उन्होंने 'हिंदोस्थान' नामक पत्र इंगलैंड से निकाला जिसमें हिन्दी और
अंग्रेजी दोनों रहती थीं। भारतेंदु के गोलोकवास के पीछे संवत् 1942 में यह
हिन्दी दैनिक के रूप में निकला और बहुत दिनों तक चलता रहा। इसके संपादकों
में देशपूज्य पं. मदनमोहन मालवीय, पं. प्रतापनारायण
मिश्र, बाबू बालमुकुंद गुप्त ऐसे लोग रह चुके हैं। बाबू हरिश्चंद के
जीवनकाल में ही अर्थात् मार्च, सन् 1884 ई. में बाबू रामकृष्ण वर्मा ने
काशी से 'भारतीय जीवन' पत्र निकाला। इस पत्र का नामकरण भारतेंदु ने ही
किया।
प्रकरण 2
गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन : प्रथम उत्थान
1. भारतेंदु हरिश्चंद्र , इनका जन्म काशी के एक संपन्न वैश्यकुल में भाद्र
शुक्ल 5, संवत् 1907 को और मृत्यु 35 वर्ष की अवस्था में माघ कृष्ण 6,
संवत् 1941 को हुई।
संवत् 1922 में ये अपने परिवार के साथ जगन्नाथजी गए। उसी यात्रा में
उनका परिचय बंग देश की नवीन साहित्यिक प्रगति से हुआ। उन्होंने बँग्ला में
नये ढंग के सामाजिक, देश देशांतर संबंधी ऐतिहासिक और पौराण्0श्निाक नाटक,
उपन्यास आदि देखे और हिन्दी में वैसी पुस्तकों के अभाव का अनुभव किया।
संवत् 1925 में उन्होंने 'विद्यासुंदर नाटक' बँग्ला से अनुवाद करके
प्रकाशित किया। इस अनुवाद में ही उन्होंने हिन्दी गद्य के बहुत ही सुडौल
रूप का आभास दिया। इसी वर्ष उन्होंने 'कविवचनसुधा' नाम की एक पत्रिका
निकाली जिसमें पहले पुराने कवियों की कविताएँ छपा करती थीं पर पीछे गद्य
लेख भी रहने लगे। 1930 में उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' नाम की एक मासिक
पत्रिका निकाली जिसका नाम 8 संख्याओं के उपरांत 'हरिश्चंद्रचंद्रिका' हो
गया। हिन्दी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले पहल इसी 'चंद्रिका में प्रकट
हुआ। जिस प्यारी हिन्दी को देश ने अपनी विभूति समझा, जिसको जनता ने
उत्कंठापूर्वक दौड़कर अपनाया, उसका दर्शन इसी पत्रिका में हुआ। भारतेंदु ने
नई सुधारी हुई हिन्दी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने 'कालचक्र' नाम
की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि 'हिन्दी नए चाल में ढली, सन् 1873 ई.।'
इस 'हरिश्चंद्री हिन्दी' के आविर्भाव के साथ ही नए नए लेखक भी तैयार
होने लगे। 'चंद्रिका' में भारतेंदु आप तो लिखते ही थे बहुत से और लेखक भी
उन्होंने उत्साह दे देकर तैयार कर लिए थे। स्वर्गीय पं. बदरीनारायण चौधारी,
बाबू हरिश्चंद्र के संपादनकौशल की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। बड़ी तेजी के
साथ वे चंद्रिका के लिए लेख और नोट लिखते थे और मैटर को बड़े ढंग से सजाते
थे। हिन्दी गद्य साहित्य के इस आरंभकाल में ध्यान देने की बात है कि उस समय
जो थोड़े से गिनती के लेखक थे, उनमें विदग्धाता और मौलिकता थी और उनकी
हिन्दी हिन्दी होती थी। वे अपनी भाषा की प्रकृति को पहचानने वाले थे।
बँग्ला, मराठी, उर्दू, अंग्रेजी के अनुवाद का वह तूफान जो पचीस तीस वर्ष
पीछे चला और जिसके कारण हिन्दी का स्वरूप ही संकट में पड़ गया था, उस समय
नहीं था। उस समय ऐसे लेखक न थे जो बँग्ला की पदावली और वाक्य ज्यों के
त्यों रखते हों या अंग्रेजी वाक्यों और मुहावरों का शब्द प्रति शब्द अनुवाद
करके हिन्दी लिखने का दावा करते हों। उस समय की हिन्दी में न 'दिक्-दिक्
अशांति थी, न काँदना, सिहरना और छल छल अश्रुपात', न 'जीवन होड़' और 'कवि का
संदेश' था, न 'भाग लेना और स्वार्थ लेना'।
मैगजीन में प्रकाशित हरिश्चंद्र का 'पाँचवें पैगंबर' मुंशी
ज्वालाप्रसाद का 'कविराज की सभा' बाबू तोताराम का 'अद्भुत अपूर्व स्वप्न',
बाबू कार्तिक प्रसाद का 'रेल का विकट खेल' आदि लेख बहुत दिनों तक लोग बड़े
चाव से पढ़ते थे। संवत् 1931 में भारतेंदुजी ने स्त्री शिक्षा के लिए
'बालाबोधिानी' निकाली थी। इस प्रकार उन्होंने तीन पत्रिकाएँ निकालीं। इसके
पहले ही संवत् 1930 में उन्होंने अपना पहला मौलिक नाटक 'वैदिकी हिंसा हिंसा
न भवति' नाम का प्रहसन लिखा, जिसमें धर्म और उपासना नाम से समाज में
प्रचलित अनेक अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए उन्होंने राजा शिवप्रसाद को
लक्ष्य करके खुशामदियों और केवल अपनी मानवृद्धि की फिक्र में रहनेवालों पर
छींटे छोड़े। भारत के प्रेम में मतवाले, देशहित की चिंता में व्यग्र,
हरिश्चंद्रजी पर सरकार की जो कुदृष्टि हो गई थी उसके कारण बहुत कुछ राजा
साहब ही समझे जाते थे।
गद्य रचना के अंतर्गत भारतेंदु का ध्यान पहले नाटकों की ओर ही गया।
अपनी 'नाटक' नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हिन्दी में मौलिक नाटक
उनके पहले दो ही लिखे गए थे , महाराज विश्वनाथ सिंह का 'आनंदरघुनंदन' नाटक
और बाबू गोपालचंद्र का 'नहुष नाटक'। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों
ब्रजभाषा में थे। भारतेंदु प्रणीत नाटक ये हैं ,
मौलिक
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौषधाम्, भारतदुर्दशा,
नीलदेवी, अंधेरनगरी, प्रेमयोगिनी, सतीप्रताप (अधूरा )।
(अनुवाद)
विद्यासुंदर, पाखंडविडंबन, धानंजयविजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस,
सत्यहरिश्चंद्र, भारतजननी।
'सत्यहरिश्चंद्र' मौलिक समझा जाता है, पर हमने एक पुराना बँग्ला नाटक
देखा है जिसका वह अनुवाद कहा जा सकता है। कहते हैं कि 'भारतजननी' उनके एक
मित्र का किया हुआ बंगभाषा में लिखित 'भारतमाता' का अनुवाद था जिसे
उन्होंने सुधारते सुधारते सारा फिर से लिख डाला।
भारतेंदु के नाटकों में सबसे पहले ध्यान इस बात पर जाता है कि उन्होंने
सामग्री जीवन के कई क्षेत्रों से ली है। 'चंद्रावली' में प्रेम का आदर्श
है। 'नीलदेवी' पंजाब के एक हिंदू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई का ऐतिहासिक
वृत्त लेकर लिखा गया है। 'भारतदुर्दशा' में देशदशा बहुत ही मनोरंजक ढंग से
सामने लाई गई है, 'विषस्य विषमौषधाम्' देशी रजवाड़ों की कुचक्रपूर्ण
परिस्थिति दिखाने के लिए रचा गया है। 'प्रेमयोगिनी' में भारतेंदु ने
वर्तमान पाखंडमय धार्मिक और सामाजिक जीवन के बीच अपनी परिस्थिति का चित्रण
किया है, यही उसकी विशेषता है।
नाटकों की रचनाशैली में उन्होंने मध्यमार्ग का अवलंबन किया। न तो
बँग्ला के नाटकों की तरह प्राचीन भारतीय शैली को एकबारगी छोड़ वे अंग्रेजी
नाटकों की नकल पर चले और न प्राचीन नाटयशास्त्र की जटिलता में अपने को
फँसाया। उनके बड़े नाटकों में प्रस्तावना बराबर रहती थी। पताका, स्थानक आदि
का प्रयोग भी वे कहीं कहीं कर देते थे।
यद्यपि सबसे अधिक रचना उन्होंने नाटकों की ही की पर हिन्दी साहित्य के
सर्वतोन्मुखी विकास की ओर वे बराबर दत्ताचित्त रहे। 'कश्मीरकुसुम',
'बादशाहदर्पण' आदि लिखकर उन्होंने इतिहास रचना का मार्ग दिखाया। अपने पिछले
दिनों में वे उपन्यास लिखने की ओर प्रवृत्त हुए थे, पर चल बसे। वे सिद्ध
वाणी के अत्यंत सरस हृदय कवि थे। इससे एक ओर तो उनकी लेखनी से श्रृंगाररस
के ऐसे रसपूर्ण और मार्मिक कवित्त सवैये निकले कि उनके जीवनकाल में ही
चारों ओर लोगों के मुँह से सुनाई पड़ने लगे और दूसरी ओर स्वदेशप्रेम से भरी
हुई उनकी कविताएँ चारों ओर देश के मंगल का मंत्र सा फूँकने लगीं।
अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की
परंपरा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचंद्र की
श्रेणी में। एक ओर तो राधाकृष्ण की भक्ति में झूमते हुए नई भक्तमाल गूँथते
दिखाई देते थे, दूसरी ओर मंदिरों के अधिाकारियों और टीकाधाारी भक्तों के
चरित्र की हँसी उड़ाते और मंदिरों, स्त्रीशिक्षा, समाजसुधार आदि पर
व्याख्यान देते पाए जाते थे। प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य
भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है। साहित्य के एक नवीन युग के आदि में
प्रवर्तक के रूप में खड़े होकर उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि नए या
बाहरी भावों को पचाकर इस प्रकार मिलाना चाहिए कि अपने ही साहित्य के विकसित
अंग से लगें। प्राचीन नवीन के उस संधिकाल में जैसी शीतल कला का संचार
अपेक्षित था वैसी ही शीतल कला के साथ भारतेंदु का उदय हुआ, इसमें संदेह
नहीं।
हरिश्चंद्र के जीवनकाल में ही लेखकों और कवियों का एक खासा मंडल चारों
ओर तैयार हो गया। उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी, पं. प्रतापनारायण मिश्र,
बाबू तोताराम, ठाकुर जगमोहन सिंह, लाला श्रीनिवासदास, पं. बालकृष्ण भट्ट,
पं. केशवराम भट्ट, पं. अंबिकादत्त व्यास, पं. राधाचरण गोस्वामी इत्यादि कई
प्रौढ़ और प्रतिभाशाली लेखकों ने हिन्दी साहित्य के इस नूतन विकास में योग
दिया था। भारतेंदु का अस्त तो संवत् 1941 में ही हो गया पर उनका यह मंडल
बहुत दिनों तक साहित्य निर्माण करता रहा। अनेक प्रकार के गद्य प्रबंध,
नाटक, उपन्यास आदि इन लेखकों की लेखनी से निकलते रहे। जो मौलिकता इन लेखकों
में थी वह द्वितीय उत्थान के लेखकों में न दिखाई पड़ी। भारतेंदुजी में हम दो
प्रकार की शैलियों का व्यवहार पाते हैं। उनकी भावावेश की शैली दूसरी है और
तथ्यनिरूपण की शैली दूसरी। भावावेश की भाषा में प्राय: वाक्य बहुत छोटे
छोटे होते हैं और पदावली सरल बोलचाल की होती है जिसमें बहुत प्रचलित साधारण
फारसी अरबी के शब्द भी कभी कभी, पर बहुत कम आ जाते हैं। 'चंद्रावली नाटिका'
से उध्दृत अंश देखिए ,
झूठे झूठे झूठे! झूठे ही नहीं विश्वासघातक। क्यों इतनी छाती ठोंक और हाथ
उठा उठाकर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते, चाहे जहन्नुम में
पड़ते।...भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और जाल करने
को कहा था? कुछ न होता, तुम्हीं तुम रहते, बस चैन था, केवल आनंद था। फिर
क्यों यह विषमय संसार किया? बखेड़िए? और इतने बड़े कारखाने पर बेहयाई परले
सिरे की। नाम बिके, लोग झूठा कहें, अपने मारे फिरें, पर वाह रे शुद्ध
बेहयाई , पूरी निर्लज्जता! लाज को जूतों मार के, पीट पीट के निकाल दिया
है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं लाज की हवा भी नहीं जाती। हाय एक बार भी
मुँह दिखा दिया होता तो मत-वाले मतवाले बने क्यों लड़ लड़कर सिर फोड़ते? काहे
को ऐसे 'बेशरम' मिलेंगे? हुक्मी बेहया हो।
जहाँ चित्त की किसी स्थायी क्षोभ की व्यंजना है और चिंतन के लिए कुछ
अवकाश है वहाँ की भाषा कुछ अधिक साधु और गंभीर तथा वाक्य कुछ बड़े हैं, पर
अन्वय जटिल नहीं, जैसे 'प्रेमयोगिनी' में सूत्रधार के इस भाषण में ,
क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बंधु, पिता, मित्र,
पुत्र, सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सौजन्य का एकमात्र
पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिन्दी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का
एकमात्र जीवनदाता, 'हरिश्चंद्र' ही दुखी हो? (नेत्रा में जल भरकर) हा
सज्जनशिरोमणे! कुछ चिन्ता नहीं, तेरा तो बाना है कि कितना भी दुख हो उसे
सुख ही मानना। × × मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार और अपना उपकार दोनों भूल
जाते हो, तुम्हें इनकी निंदा से क्या? इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हो?
स्मरण रखो, ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोक बहिष्कृत होकर इनके सिर पर
पैर रख के विहार करोगे।
तथ्यनिरूपण या वस्तुवर्णन के समय कभी कभी उनकी भाषा में संस्कृत पदावली
का कुछ अधिक समावेश होता है। इसका सबसे बढ़ा चढ़ा उदाहरण 'नीलदेवी' के
वक्तव्य में मिलता है। देखिए ,
आज बड़ा दिन है, क्रिस्तान लोगों को इससे बढ़कर कोई आनंद का दिन नहीं है।
किंतु मुझको आज उलटा दुख है। इसका कारण मनुष्य स्वभावसुलभ ईर्षा मात्र है।
मैं कोई सिद्ध नहीं कि रागद्वेष से विहीन हूँ। जब मुझे अंगरेज रमणी लोग
मेद सिंचित केशराशि, कृत्रिम कुंतलजूट, मिथ्यारत्नाभरण, विविधा वर्ण, वसन
से भूषित, क्षीण कटिदेश कसे, निज निज पतिगण के साथ प्रसन्नवदन इधर से उधर
फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखाई पड़ती हैं तब इस देश की सीधी
सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है, और यही बात मेरे दुख का
कारण होती है।
पर यह भारतेंदु की असली भाषा नहीं। उनकी असली भाषा का रूप पहले दो
अवतरणों में ही समझना चाहिए। भाषा चाहे जिस ढंग की हो उनके वाक्यों का
अन्वय सरल होता है, उसमें जटिलता नहीं होती। उनके लेखों में भावों की
मार्मिकता पाई जाती है, वाग्वैचित्र्य या चमत्कार की प्रवृत्ति नहीं।
यह स्मरण रखना चाहिए कि अपने समय के सब लेखकों में भारतेंदु की भाषा
साफ सुथरी और व्यवस्थित होती थी। उसमें शब्दों के रूप भी एक प्रणाली पर
मिलते हैं और वाक्य भी सुसंबद्ध पाए जाते हैं। 'प्रेमघन' आदि और लेखकों की
भाषा में हम क्रमश: उन्नति और सुधार पाते हैं। संवत् 1938 की
'आनंदकादंबिनी' का कोई लेख लेकर दस वर्ष पश्चात् किसी लेख में मिलान किया
जाय जो बहुत अंतर दिखाई पड़ेगा। भारतेंदु के लेखों में इतना अंतर नहीं पाया
जाता। 'इच्छा किया', 'आज्ञा किया' व्याकरण विरुद्ध प्रयोग अवश्य कहीं कहीं
मिलते हैं।
2. प्रतापनारायण मिश्र , इनके पिता उन्नाव से आकर कानपुर में बस गए थे
जहाँ प्रतापनारायण जी का जन्म संवत् 1913 और मृत्यु संवत् 1951 में हुई। ये
इतने मनमौजी थे कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवाह करते थे। कभी
लावनीबाजों में जाकर शामिल हो जाते थे, कभी मेलों और तमाशों में बंद इक्के
पर बैठ जाते दिखाई पड़ते थे।
प्रतापनारायण मिश्र यद्यपि लेखनकला में भारतेंदु को ही आदर्श मानते थे
पर उनकी शैली में भारतेंदु की शैली से बहुत कुछ विभिन्नता भी लक्षित होती
है। प्रतापनारायण जी में विनोदप्रियता विशेष थी इससे उनकी वाणी में
व्यंग्यपूर्ण वक्रता की मात्रा प्राय: रहती है। इसके लिए वे पूरबीपन की
परवाह न करके अपने बैसवारे की ग्राम्य कहावतें और शब्द भी बेधाड़क रख दिया
करते थे। कैसा ही विषय हो, पर उसमें विनोद और मनोरंजन की सामग्री ढूँढ लेते
थे। अपना 'ब्राह्मण' पत्र उन्होंने विविध विषयों पर गद्यप्रबंध लिखने के
लिए ही निकाला था। लेख हर तरह के निकलते थे। देशदशा, समाजसुधार, नागरी
हिन्दी प्रचार, साधारण मनोरंजन आदि सब विषयों पर मिश्रजी की लेखनी चलती थी।
शीर्षकों के नामों से ही विषयों की अनेकरूपता का पता चलेगा; जैसे 'घूरे क
लत्ता बीनै, कनातन क डौल बाँधौ', 'समझदार की मौत है', 'बात', 'मनोयोग',
'वृद्ध ', 'भौं'। यद्यपि उनकी प्रवृत्ति हास्यविनोद की ओर ही अधिक रहती थी,
पर जब कभी कुछ गंभीर विषयों पर वे लिखते थे तब संयत और साधु भाषा का
व्यवहार करते थे। दोनों प्रकार की लिखावटों के नमूने नीचे दिए जाते हैं ,
समझदार की मौत है
सच है 'सब तें भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत गति'। मजे से पराई जमा गपक
बैठना, ... खुशामदियों से गप मारा करना, जो कोई तिथित्योहार आ पड़ा तो गंगा
में बदन धाो आना, ... गंगापुत्र को चार पैसे देकर सेंतमेत में धरममूरत,
धरमऔतार का खिताब पाना; संसार परमार्थ दोनों तो बन गए, अब काहे की है है और
काहे की खैखै? आफत तो बेचारे जिंदादिलों की है जिन्हें न यों कल न वों कल;
जब स्वदेशी भाषाका पूर्ण प्रचार था तब के विद्वान कहते 'गीर्वाणवाणीषु,
विशालबुद्धि स्तथान्यभाषा रसलोलुपोहम्'।अब आज अन्य भाषा वरंच अन्य भाषाओं
का करकट (उर्दू) छाती का पीपल हो रही है, अब यह चिंता खाए लेती है कि कैसे
इस चुड़ैल से पीछा छूटै।
मनोयोग
शरीर के द्वारा जितने काम किए जाते हैं, उन सब में मन का लगाव अवश्य रहता
है। जिनमें मन प्रसन्न रहता है वही उत्तमता के साथ होते हैं और जो उसकी
इच्छा अनुकूल नहीं होते वह वास्तव में चाहे अच्छे कार्य भी हों किंतु भले
प्रकार पूर्ण रीति से संपादित नहीं होते, न उनका कर्ता ही यथोचित आनंद लाभ
करता है। इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीररूपी नगर का राजा है, और स्वभाव
उसका चंचल है। यदि स्वच्छंद रहे तो बहुधाा कुत्सित ही मार्ग में धाावमान
रहता है। यदि रोका न जाय तो कुछ काल में आलस्य और अकृत्य का व्यसन उत्पन्न
करके जीवन को व्यर्थ एवं अनर्थपूर्ण कर देता है।
प्रतापनारायण जी ने फुटकल गद्यप्रबंधों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे।
'कलिकौतुक रूपक' में पाखंडियों और दुराचारियों का चित्र खींचकर उनसे सावधान
रहने का संकेत किया गया है। 'संगीत शाकुंतल' लावनी के ढंग पर गाने योग्य
खड़ी बोली में पद्यबद्ध शकुंतला नाटक है। भारतेंदु के अनुकरण पर मिश्रजी ने
'भारतदुर्दशा' नाम का नाटक भी लिखा था। 'हठी हम्मीर' रणथंभौर पर अलाउद्दीन
की चढ़ाई का वृत्त लेकर लिखा गया है। 'गोसंकट नाटक' और 'कलिप्रभाव' नाटक के
अतिरिक्त 'जुआरी खुआरी' नामक उनका एक प्रहसन भी है।
3. बालकृष्ण भट्ट , भट्टजी का जन्म प्रयाग में संवत् 1901 में और
परलोकवास संवत् 1971 में हुआ। ये प्रयाग के 'कायस्थ पाठशाला' कॉलेज में
संस्कृत के अध्यापकथे।
उन्होंने संवत् 1933 में अपना 'हिन्दी प्रदीप' गद्य साहित्य का ढर्रा
निकालने के लिए ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब
प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध ये अपने पत्र में तीस वर्ष तक निकालते
रहे। उनके लिखने का ढंग पं. प्रतापनारायण के ढंग से मिलता-जुलता है।
मिश्रजी के समान भट्टजी भी स्थान स्थान पर कहावतों का प्रयोग करते थे, पर
उनका झुकाव मुहावरों की ओर कुछ अधिक रहा है। व्यंग्य और वक्रता उनके लेखों
में भी भरी रहती है और वाक्य भी कुछ बड़े बड़े होते हैं। ठीक खड़ी बोली के
आदर्श का निर्वाह भट्ट जी ने भी नहीं किया है। पूरबी प्रयोग बराबर मिलते
हैं 'समझा बुझाकर' के स्थान पर 'समझाय बुझाय' वे प्राय: लिख जाते थे। उनके
लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अंग्रेजी पढ़े लिखे नवशिक्षित लोगों
को हिन्दी की ओर आकर्षित करने के लिए लिख रहे हैं। स्थान स्थान पर ब्रैकेट
में घिरे अंग्रेजी शब्द पाए जाते हैं। इसी
प्रकार फारसी अरबी के लफ्ज ही नहीं, बड़े बड़े फिकरे तक भट्टजी अपनी मौज में
आकर रखा करते थे। इस प्रकार उनकी शैली में एक निरालापन झलकता है।
प्रतापनारायण के हास्यविनोद से भट्टजी के हास्यविनोद में यह विशेषता है कि
वह कुछ चिड़चिड़ाहट लिए रहता था। पदविन्यास भी कभी उसका बहुत ही चोखा और
अनूठा होता था।
अनेक प्रकार के गद्य प्रबंध भट्टजी ने लिखे हैं, पर सब छोटे छोटे। वे
बराबर कहा करते थे कि न जाने कैसे लोग बड़े बड़े लेख लिख डालते हैं। मुहावरों
की सूझ उनकी बहुत अच्छी थी। 'ऑंख', 'कान', 'नाक' आदि शीर्षक देकर उन्होंने
कई लेखों में बड़े ढंग के साथ मुहावरों की झड़ी बाँधा दी है। एक बार वे मेरे
घर पधारे थे। मेरा छोटा भाई ऑंखों पर हाथ रखे उन्हें दिखाई पड़ा। उन्होंने
पूछा 'भैया! ऑंख में क्या हुआ है?' उत्तर मिला 'ऑंख आई है।' ये चट बोल उठे
'भैया! यह ऑंख बड़ी बला है, इसका आना, जाना, उठना, बैठना सब बुरा है।' अनेक
विषयों पर गद्य प्रबंध लिखने के अतिरिक्त 'हिन्दी प्रदीप' द्वारा भट्टजी
संस्कृत साहित्य और संस्कृत के कवियों का परिचय भी अपने पाठकों को समय समय
पर कराते रहे। पं. प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दी गद्य
साहित्य में वही काम किया है जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील
ने किया था। भट्टजी की लिखावट के दो नमूने देखिए ,
कल्पना
यावत मिथ्या और दरोग की किबलेगाह इस कल्पना पिशाचिनी का कहीं ओर छोर किसी
ने पाया है? अनुमान करते करते हैरान गौतम से मुनि 'गोतम' हो गए। कणाद तिनका
खा खाकर किनका बीनने लगे पर मन की मनभावनी कन्या कल्पना का पार न पाया।
कपिल बेचारे पचीस तत्वों की कल्पना करते करते 'कपिल' अर्थात् पीले पड़ गए।
व्यास ने इन तीनों दार्शनिकों की दुर्गति देख मन में सोचा, कौन इस भूतनी के
पीछे दौड़ता फिरे, यह संपूर्ण विश्व जिसे हम प्रत्यक्ष देख सुन सकते हैं, सब
कल्पना ही कल्पना, मिथ्या, नाशवान् और क्षणभंगुर है। अतएव हेय है।
आत्मनिर्भरता
इधर पचास साठ वर्षों से अंग्रेजी राज्य के अमन चैन का फायदा पाय हमारे
देशवाले किसी की भलाई की ओर न झुके वरन् दस वर्ष की गुड़ियों का ब्याह कर
पहले से डयोढ़ी दूनी सृष्टि अलबत्ता बढ़ाने लगे। हमारे देश की जनसंख्या अवश्य
घटनी चाहिए। ××× आत्मनिर्भरता में दृढ़, अपने कूवते बाजू पर भरोसा रखनेवाला,
पुष्टवीर्य, पुष्टबल, भाग्यवान, एक संतान अच्छा। 'कूकर सूकर से' निकम्मे,
रग रग में दास भाव से पूर्ण, परभाग्योपजीवी दस किस काम के?
निबंधों के अतिरिक्त भट्टजी ने कई छोटे मोटे नाटक भी लिखे हैं जो
क्रमश: उनके 'हिन्दी प्रदीप' में छपे हैं, जैसे , कलिराज की सभा, रेल का
विकट खेल, बालविवाह नाटक, चंद्रसेन नाटक। उन्होंने माइकेल मधुसूदन दत्ता के
'पद्मावती' और 'शर्मिष्ठा' नामक बंग भाषा के दो नाटकों के अनुवाद भी निकाले
थे।
संवत् 1943 में भट्टजी ने लाला श्रीनिवासदास के 'संयोगिता स्वयंवर'
नाटक की 'सच्ची समालोचना' भी, और पत्रों में उसकी प्रशंसा ही प्रशंसा देखकर
की थी। उसी वर्ष उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी ने बहुत ही विस्तृत
समालोचना अपनी पत्रिका में निकाली थी। इस दृष्टि से सम्यक् आलोचना का
हिन्दी में सूत्रपात करने वाले इन्हीं दो लेखकों को समझना चाहिए।
4. उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी , चौधारीजी का जन्म मिरजापुर के एक
अभिजात ब्राह्मणवंश में भाद्र कृष्ण 6, 1912 को और मृत्यु फाल्गुन शुक्ल,
14 संवत् 1979 को हुई। उनकी हर एक बात से रईसी टपकती थी। बातचीत का ढंग
उनका बहुत ही निराला और अनूठा था। कभी कभी बहुत ही सुंदर वक्रतापूर्ण वाक्य
उनके मुँह से निकलते थे। लेखनकला के उनके सिध्दांत के कारण उनके लेखों में
यह विशेषता नहीं पाई जाती। ये भारतेंदु के घनिष्ठ मित्रों में थे और वेश भी
उन्हीं का सा रखते थे।
उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी (प्रेमघन) की शैली सबसे विलक्षण थी। ये
गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करने वाले , कलम की कारीगरी समझने
वाले , लेखक थे और कभी कभी ऐसे पेचीले मजमून बाँधाते थे कि पाठक एक एक, डेढ़
डेढ़ कॉलम के लंबे वाक्य में उलझा रह जाता था। अनुप्रास और अनूठे पदविन्यास
की ओर भी उनका ध्यान रहता था। किसी बात को साधारण ढंग से कहे जाने को ही वे
लिखना नहीं कहते थे। वे कोई लेख लिखकर जब तक कई बार उसका परिष्कार और
मार्जन नहीं कर लेते थे तब तक छपने नहीं देते थे। भारतेंदु के वे घनिष्ठ
मित्र थे पर लिखने में उनके 'उतावलेपन' की शिकायत अकसर किया करते थे। वे
कहते थे कि बाबू हरिश्चंद्र अपनी उमंग में जो कुछ लिख जाते थे उसे यदि एक
बार और देखकर परिमार्जित कर लिया करते तो वह और भी सुडौल और सुंदर हो जाता।
एक बार उन्होंने मुझसे कांग्रेस के दो दल हो जाने पर एक नोट लिखने को कहा।
मैंने जब लिखकर दिया तब उसके वाक्य को पढ़कर ये कहने लगे इसे यों कर दीजिए ,
'दोनों दलों की दलादली में दलपति का विचार भी दलदल में फँसा रहा।' भाषा
अनुप्रासमयी और चुहचुहाती हुई होने पर भी उनका पदविन्यास व्यर्थ के आडंबर
के रूप में नहीं होता था। उनके लेख अर्थगर्भित और सूक्ष्म विचारपूर्ण होते
थे। लखनऊ की उर्दू का जो आदर्श था वही उनकी हिन्दी का था।
चौधारी साहब ने कई नाटक लिखे हैं। 'भारत सौभाग्य' कांग्रेस के अवसर पर
खेले जाने के लिए सन् 1888 में लिखा गया था। यह नाटक विलक्षण है। पात्र
इतने अधिक और इतने प्रकार के हैं कि अभिनय दुस्साधय ही समझिए। भाषा भी
रंगबिरंगी है , पात्रों के अनुरूप उर्दू, मारवाड़ी, बैसवाड़ी, भोजपुरी,
पंजाबी, मराठी, बंगाली, सब कुछ मिलेगी। नाटक की कथावस्तु है बद-एकबाल-हिंद
की प्रेरणा से सन् 1857 का गदर, अंग्रेजों के अधिकार की पुन:प्रतिष्ठा और
नेशनल कांग्रेस की स्थापना। नाटक के आरंभ के दृश्यों में लक्ष्मी, सरस्वती
और दुर्गा का भारत से प्रस्थान भारतेंदु के 'पै धान विदेश चलि जाय यहै अति
ख्वारी' से अधिक काव्योचित और मार्मिक है।
'प्रयाग रामागमन' नाटक में राम का भरद्वाज आश्रम में पहुँचकर आतिथ्य
ग्रहण है। इसमें सीता की भाषा ब्रज रखी गई है। 'वारांगना रहस्य महानाटक'
(अथवा वेश्याविनोद महानाटक) दुर्व्यसनग्रस्त समाज का चित्र खींचने के लिए
उन्होंने संवत् 1943 से ही उठाया और थोड़ा थोड़ा करके समय समय पर अपनी
'आनंदकादंबिनी' में निकालते रहे, पर पूरा न कर सके। इसमें जगह जगह
श्रृंगाररस के श्लोक, कवित्त, सवैये, गजल, शेर इत्यादि रखे गए हैं।
विनोदपूर्ण प्रहसन तो अनेक प्रकार के ये अपनी पत्रिका में बराबर
निकालते रहे।
सच पूछिए तो 'आनंदकादंबिनी' प्रेमघनजी ने अपने ही उमड़ते हुए विचारों और
भावों को अंकित करने के लिए निकाली थी। और लोगों के लेख उसमें नहीं के
बराबर रहा करते थे। इस पर भारतेंदुजी ने एक बार उनसे कहा था कि 'जनाब! यह
किताब नहीं कि जो आप अकेले ही हर काम फरमाया करते हैं, बल्कि अखबार है कि
जिसमें अनेक जन लिखित लेख होना आवश्यक है; और यह भी जरूरत नहीं कि सब एक
तरह के लिक्खाड़ हों।' अपनी पत्रिका में किस शैली की भाषा लेकर चौधरी साहब
मैदान में आए इसे दिखाने के लिए हम उसके प्रारंभ काल संवत् 1938 की एक
संख्या से कुछ अंश नीचे देते हैं ,
परिपूर्ण पावस
जैसे किसी देशाधीश के प्राप्त होने से देश का रंग ढंग बदल जाता है तद्रूप
पावस के आगमन से इस सारे संसार ने भी दूसरा रंग पकड़ा; भूमि हरी भरी होकर
नाना प्रकार की घासों से सुशोभित भई, मानो मारे मोद के रोमांच की अवस्था को
प्राप्त भई। सुंदर हरित पत्रावलियों से भरित तरुगनों की सुहावनी लताएँ लिपट
लिपट मानो मुग्धामयंकमुखियों को अपने प्रियतमों के अनुरागालिंगन की विधि
बतलातीं। इनसे युक्त पर्वतों के शृंगों के नीचे सुंदरी दरीसमूह के स्वच्छ
श्वेत जलप्रवाह ने मानो पारा की धारा और बिल्लौर की ढार को तुच्छ कर युगल
पार्श्व की हरी भरी भूमि के, कि जो मारे हरेपन के श्यामता की झलक दे अलक की
शोभा लाई है; बीचोबीच माँग सी काढ़ मन माँग लिया और पत्थर की चट्टानों पर
सुंबुल अर्थात् हंसराज की जटाओं का फैलना बिथरी हुई लटों के लावण्य का लाना
है।
कादंबिनी में समाचार तक कभी कभी बड़ी रंगीन भाषा में लिखे जाते थे।
संवत् 1942 की संख्या का एक 'स्थानिक संवाद' देखिए ,
दिव्यदेवी श्रीमहाराणी बड़हर लाख झंझट झेल और चिरकाल पर्यंत बड़े बड़े उद्योग
और मेल से दुख के दिन सकेल, अचल 'कोर्ट' का पहाड़ ढकेल फिर गद्दी पर बैठ
गईं। ईश्वर का भी क्या खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दु:ख की रेलपेल और कभी
उसी पर सुख की कुलेल है।
पीछे जो उनका साप्ताहिक पत्र 'नागरीनीरद' निकला उसके शीर्षक भी वर्षा
के खासे रूपक हुए; जैसे 'संपादकीयसम्मतिसमीर', 'प्रेरितकलापिकलरव',
'हास्यहरितांकुर', 'वृत्तांतवलाकावलि', 'काव्यामृतवर्षा',
'विज्ञापनवीरबहूटियाँ', 'नियमनिर्घोष'।
समालोचना का सूत्रपात हिन्दी में एक प्रकार से भट्टजी और चौधारी साहब
ने ही किया। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण
दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई। बाबू गदाधार सिंह ने
'बंगविजेता' का जो अनुवाद किया था उसकी आलोचना कादंबिनी में पाँच पृष्ठों
में हुई थी। लाला श्रीनिवासदास के 'संयोगिता स्वयंवर' की बड़ी विस्तृत और
कठोर समालोचना चौधारीजी ने कादंबिनी के इक्कीस पृष्ठों में निकाली थी। उसका
कुछ अंश नमूने के लिए नीचे दिया जाता है ,
यद्यपि इस पुस्तक की समालोचना करने के पूर्व इसके समालोचकों की समालोचनाओं
की समालोचना करने की आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि जब हम इस नाटक की
समालोचना अपने बहुतेरे सहयोगी और मित्रों को करते देखते हैं, तो अपनी ओर से
जहाँ तक खुशामद और चापलूसी का कोई दरजा पाते हैं, शेष छोड़ते नहीं दिखाते।
×
× ×
नाटयरचना के बहुतेरे दोष 'हिन्दी प्रदीप' ने अपनी 'सच्ची समालोचना' में
दिखलाए हैं। अतएव उसमें हम विस्तार नहीं देते, हम केवल यहाँ अलग अलग उन
दोषों को दिखलाना चाहते हैं जो प्रधान और विशेष हैं। तो जानना चाहिए कि यदि
यह संयोगिता स्वयंवर पर नाटक लिखा गया तो इसमें कोई दृश्य स्वयंवर का न
रखना मानो इस कविता का नाश कर डालना है; क्योंकि यही इसमें वर्णनीय विषय
है।
×
× ×
नाटक के प्रबंध का कुछ कहना ही नहीं, एक गँवार भी जानता होगा कि
स्थलपरिवर्तन के कारण गर्भांक की आवश्यकता होती है; अर्थात् स्थानके बदलने
में परदा बदला जाता है और इसी पर्दे को बदलने को दूसरा गर्भांक मानते हैं,
सो आपने एक ही गर्भांक में तीन स्थान बदल डाले।
×
× ×
गर्जे कि इस सफहे की कुल स्पीचें 'मर्चेंट ऑफ बेनिस' से ली गईं। पहले तो
मैं यह पूछता हूँ कि विवाह में मुद्रिका परिवर्तन की रीति इस देश की नहीं
बल्कि यूरोप की (है), मैंने माना कि आप शकुंतला को दुष्यंत के मुद्रिका
देने का प्रमाण देंगे पर वो तो परिवर्तन न था किंतु महाराज ने अपना स्मारक
चिह्न दिया था।
5. लाला श्रीनिवासदास , इनके पिता लाला मंगलीलाल मथुरा के प्रसिद्ध सेठ
लक्ष्मीचंद्र के मुनीम क्या, मैनेजर थे जो दिल्ली में रहा करते थे। वहाँ
श्रीनिवासदास का जन्म संवत् 1908 और मृत्यु संवत् 1944 में हुई।
भारतेंदु के समसामयिक लेखकों में उनका भी एक विशेष स्थान था। उन्होंने
कई नाटक लिखे हैं। 'प्रह्लादचरित' ग्यारह दृश्यों का एक बड़ा नाटक है, पर
उसके संवाद आदि रोचक नहीं, भाषा भी अच्छी नहीं। 'तप्तासंवरण नाटक' सन् 1874
के हरिश्चंद्र मैगजीन में छपा था, पीछे सन् 1883 ई. में पुस्तकाकार
प्रकाशित हुआ। इसमें तप्ता और संवरण की पौराणिक प्रेमकथा है। संवरण ने
तप्ता के ध्यान में लीन रहने के कारण गौतम मुनि को प्रणाम नहीं किया। इस
पर उन्होंने शाप दिया कि जिसके ध्यान में तुम मग्न हो वह तुम्हें भूल जाए।
फिर सदय होकर शाप का यह परिहार उन्होंने बताया कि अंगस्पर्श होते ही उसे
तुम्हारा स्मरण हो जायगा।
लालाजी के 'रणधीर और प्रेममोहिनी' नाटक की उस समय अधिक चर्चा हुई थी।
पहले पहल यह नाटक संवत् 1934 में प्रकाशित हुआ था और इसके साथ ही एक भूमिका
थी जिसमें नाटकों के संबंध में कई बातें अंग्रेजी नाटकों पर दृष्टि रखकर
लिखी गई थीं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि यह नाटक उन्होंने अंग्रेजी नाटकों
के ढंग पर लिखा था। 'रणधीर और प्रेममोहिनी' नाम ही 'रोमियो एेंड जूलियट'
की ओर ध्यान ले जाता है। कथावस्तु भी इनकी सामान्य प्रथानुसार पौराणिक या
ऐतिहासिक न होकर कल्पित है। पर यह वस्तुकल्पना मध्ययुग के राजकुमार
राजकुमारियों के क्षेत्र के भीतर ही हुई है , पाटन का राजकुमार है और सूरत
की राजकुमारी। पर दृश्यों में देशकालानुसार सामाजिक परिस्थिति का ध्यान
नहीं रखा गया है। कुछ दृश्य तो आजकल का समाज सामने लाते हैं, कुछ मध्य युग
का और कुछ उस प्राचीन काल का जब स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। पात्रों के
अनुरूप भाषा रखने के प्रयत्न में मुंशीजी की भाषा इतनी घोर उर्दू कर दी गई
है कि केवल हिन्दी पढ़ा व्यक्ति एक पंक्ति भी नहीं समझ सकता। कहाँ स्वयंवर,
कहाँ ये मुंशीजी!
जैसा ऊपर कहा गया है, यह नाटक अंग्रेजी नाटकों के ढंग पर लिखा गया है।
इसमें प्रस्तावना नहीं रखी गई है। दूसरी बात यह कि यह दुखांत है। भारतीय
रूपक क्षेत्र में दुखांत नाटकों का चलन न था। इसकी अधिक चर्चा का एक कारण
यह भी था।
लालाजी का 'संयोगिता स्वयंवर' नाटक सबसे पीछे का है। यह पृथ्वीराज
द्वारा संयोगिता हरण का प्रचलित प्रवाद लेकर लिखा गया है।
श्रीनिवासदास ने 'परीक्षागुरु' नाम का एक शिक्षाप्रद उपन्यास भी लिखा।
वे खड़ी बोली के बोलचाल के शब्द और मुहावरे अच्छे लाते थे। उपर्युक्त चारों
लेखकों में प्रतिभाशालियों का मनमौजीपन था, पर लाला श्रीनिवासदास व्यवहार
में दक्ष और संसार का ऊँचा नीचा समझने वाले पुरुष थे। अत: उनकी भाषा संयत
और साफ सुथरी तथा रचना बहुत कुछ सोद्देश्य होती थी। 'परीक्षागुरु' से कुछ
अंश नीचे दिया जाता है ,
'मुझे आपकी यह बात बिल्कुल अनोखी मालूम होती है, भला परोपकारादि शुभकामों
का परिणाम कैसे बुरा हो सकता है? पं. पुरुषोत्तमदास ने कहा।
'जैसे अन्न प्राणाधार है परंतु अतिभोजन से रोग उत्पन्न होता है' लाला
ब्रजकिशोर कहने लगे, 'देखिए परोपकार की इच्छा अत्यंत उपकारी है परंतु हद से
आगे बढ़ने पर वह भी फिजूलखर्ची समझी जायगी और अपने कुटुंब, परिवारादि का सुख
नष्ट हो जायगा। जो आलसी अथवा अधार्मियों की सहायता की तो उससे संसार में
आलस्य और पाप की वृद्धि होगी। इसी तरह कुपात्र में भक्ति होने से लोक
परलोक दोनों नष्ट हो जायँगे। न्यायपरता यद्यपि सब वृत्तियों को समान
रखनेवाली है, परंतु इसकी अधिकता से भी मनुष्य के स्वभाव में मिलनसारी नहीं
रहती, क्षमा नहीं रहती। जब बुद्धि वृत्ति के कारण किसी वस्तु के विचार में
मन अत्यंत लग जायगा, तो और जानने लायक पदार्थों की अज्ञानता बनी रहेगी।
आनुषंगिक प्रवृत्ति के प्रबल होने से जैसा संग होगा वैसा रंग तुरंत लग जाया
करेगा।'
ऊपर के उद्ध रण में अंग्रेजी उपन्यासों के ढंग पर भाषण के बीच में या
अंत में 'अमुक ने कहा', 'अमुक कहने लगे' ध्यान देने योग्य है। खैरियत हुई
कि इस प्रथा का अनुसरण हिन्दी के उपन्यासों में नहीं हुआ।
6. ठाकुर जगमोहन सिंह , भारतेंदुजी के मित्रों में कई बातों में उन्हीं
की सी तबीयत रखनेवाले विजयराघवगढ़ (मध्य प्रदेश) के राजकुमार ठाकुर जगमोहन
सिंहजी थे। उनका जन्म श्रावण शुक्ल 14, संवत् 1914 और मृत्यु संवत् 1956
(मार्च, सन् 1899) में हुई। वे शिक्षा के लिए कुछ दिन काशी में रखे गए थे
जहाँ उनका भारतेंदु के साथ मेलजोल हुआ। ये संस्कृत साहित्य और अंग्रेजी के
अच्छे जानकार तथा हिन्दी के एक प्रेमपथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक
थे। प्राचीन संस्कृत साहित्य के अभ्यास और विंधयाटवी के रमणीय प्रदेश में
निवास के कारण विविधा भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख,
जैसी सच्ची अनुभूति, उनमें थी वैसी उस काल के किसी हिन्दी कवि या लेखक में
नहीं पाई जाती। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई उनके हृदय में इस भूखंड की
रूपमाधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेमसंस्कार न था। परंपरा पालन के लिए चाहे
प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो, पर वहाँ उनका हृदय नहीं मिलता। अपने
हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर साहब ने
अपने 'श्यामास्वप्न' में व्यक्त किया है उसकी सरसता निराली है। बाबू
हरिश्चंद्र, पं. प्रतापनारायण आदि कवियों और लेखकों की दृष्टि और हृदय की
पहुँच मानवक्षेत्र तक ही थी; प्रकृति के अपर क्षेत्रों तक नहीं। पर ठाकुर
जगमोहन सिंहजी ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के
सौंदर्य के मेल में देखा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के रुचिसंस्कार के
साथ भारतभूमि की प्यारी रूपरेखा को मन में बसानेवाले वे पहले हिन्दी लेखक
थे, यहाँ पर बस इतना ही कहकर उनके 'श्यामास्वप्न' का एक दृश्यखंड नीचे देते
हैं ,
नर्मदा के दक्षिण दंडकारण्य का एक देश दक्षिण कोशल नाम से प्रसिद्ध है ,
याही मग ह्वै कै गए दंडकवन श्रीराम।
तासों पावन देस यह विंधयाटवी ललाम
मैं कहाँ तक इस सुंदर देश का वर्णन करूँ?...जहाँ की निर्झरिणी , जिनके तीर
वानीर से भिरे, मदकल कूजित विहंगमों से शोभित हैं, जिनके मूल से स्वच्छ और
शीतल जलधारा बहती है, और जिनके किनारे के श्याम जंबूके निकुंज फलभार से
नमित जनाते हैं , शब्दायमान होकर झरती हैं। × × × जहाँ के शल्लकी वृक्षों
की छाल में हाथी अपना बदन रगड़ रगड़कर खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला
क्षीर सब वन के शीतल समीर को सुरभित करता है। मंजुवंजुल की लता और नील
निचुल के निकुंज जिनके पत्तो ऐसे सघन जो सूर्य की किरनों को भी नहीं निकलने
देते, इस नदी के तट पर शोभित हैं।
ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला, जो नीलोत्पलों की
झोंपड़ियों और मनोहर पहाड़ियों के बीच होकर बहती है, कंकागृद्ध नामक पर्वत
से निकल अनेक दुर्गम, विषम और असम भूमि के ऊपर से, बहुत से तीर्थों और
नगरों को अपने पुण्यजल से पावन करती, पूर्व समुद्र में गिरती हैं।
इसी नदी के तीर अनेक जंगली गाँव बसे हैं। मेरा ग्राम इन सभों से उत्कृष्ट
और शिष्ट जनों से पूरित है। इसके नाम ही को सुनकर तुम जानोगे कि यह कैसा
सुंदर ग्राम है। × × × इस पावन अभिराम ग्राम का नाम श्यामापुरहै। यहाँ आम
के आराम पथिकों और पवित्र यात्रियों को विश्राम और आराम देते हैं। × × ×
पुराने टूटे फूटे देवाले इस ग्राम की प्राचीनता के साक्षी हैं। ग्राम के
सीमांत के झाड़ जहाँ झुंड के झुंड कौए और बगुले बसेरा लेते हैं, गँवई की
शोभा बताते हैं! पौ फटते और गोधूली के समय गैयों के खुरों से उड़ी धूल ऐसी
गलियों में छा जाती है मानो कुहिरा गिरता हो। × × × ऐसा सुंदर ग्राम,
जिसमें श्यामसुंदर स्वयं विराजमान हैं, मेरा जन्म स्थान था।
कवियों के पुराने प्यार की बोली में देश की दृश्यावली को सामने रखने का
मूक समर्थन तो इन्होंने किया ही है, साथ ही भाव की प्रबलता से प्रेरित
कल्पना के विप्लव और विक्षेप अंकित करनेवाली एक प्रकार की प्रलापशैली भी
इन्होंने निकाली जिसमें रूपविधान का वैलक्षण्य प्रधान था, न कि शब्दविधान
का। क्या अच्छा होता यदि इस शैली का स्वतंत्र रूप से विकास होता। तब तो बंग
साहित्य में प्रचलित इस शैली का शब्दप्रधानरूप, जो हिन्दी पर कुछ काल से
चढ़ाई कर रहा है और अब काव्य क्षेत्र का अतिक्रमण कर कभी कभी विषयनिरूपक
निबंधों तक का अर्थग्रास करने दौड़ता है, शायद जगह न पाता।
7. बाबू तोताराम , ये जाति के कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् 1804 में और
मृत्यु दिसंबर, 1902 ई. में हुई। बी. ए. पास करके ये हेडमास्टर हुए पर अंत
में नौकरी छोड़कर अलीगढ़ में प्रेस खोलकर 'भारतबंधु' पत्र निकालने लगे।
हिन्दी का हर एक प्रकार से हितसाधन करने के लिए जब भारतेंदुजी खड़े हुए थे
उस समय उनका साथ देनेवालों में ये भी थे। इन्होंने 'भाषासंर्वधिनी' नाम की
एक सभा स्थापित की थी। ये हरिश्चंद्रचंद्रिका के लेखकों में थे। उसमें
'कीर्तिकेतु' नाम का इनका एक नाटक भी निकला था। ये जब तक रहे हिन्दी के
प्रचार और उन्नति में लगे रहे। इन्होंने कई पुस्तकें लिखकर अपनी सभा के
सहायतार्थ अर्पित की थीं, जैसे , 'केटोकृतांत नाटक' (अंग्रेजी का अनुवाद),
'स्त्री सुबोधिनी'। भाषा इनकी साधारण अर्थात् विशेषतारहित है। इनके
'कीर्तिकेतु' नाटक का एक भाषण देखिए ,
यह कौन नहीं जानता? परंतु इस नीच संसार के आगे कीर्तिकेतु विचारे की क्या
चलती है। जो पराधाीन होने ही से प्रसन्न रहता है और सिसुमार की सरन जा
गिरने का जिसे चाव है, हमारा पिता अत्रिपुर में बैठा हुआ वृथा रमावती नगरी
की नाममात्र प्रतिष्ठा बनाए है। नवपुर की निबल सेना और एक रीती थोथी सभा,
जो निष्फल युध्दों से शेष रह गई है, वह उसके संग है। हे ईश्वर!
भारतेंदु के साथ हिन्दी की उन्नति में योग देनेवालों में नीचे लिखे
महानुभाव भी विशेष उल्लेख योग्य हैं ,
8. पं. केशवराम भट्ट , भट्टजी महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे जिनके पूर्वज
बिहार में बस गए थे। उनका जन्म संवत् 1911 में और मृत्यु संवत् 1961 में
हुई। उनका संबंध शिक्षाविभाग से था। कुछ स्कूली पुस्तकों के अतिरिक्त
उन्होंने 'सज्जादसंबुल' और 'शमशाद सौसन' नामक दो नाटक भी लिखे जिनकी भाषा
उर्दू ही समझिए। इन दोनों नाटकों की विशेषता यह है कि वे वर्तमान जीवन को
लेकर लिखे गए हैं। इनमें हिंदू, मुसलमान, अंगरेज, लुटेरे, लफंगे,
मुकदमेबाज, मारपीट करने वाले, रुपया हजम करने वाले इत्यादि अनेक ढंग के
पात्र आए हैं। संवत् 1929 में उन्होंने 'बिहारबंधु' निकाला था और 1931 में
'बिहारबंधु प्रेस' खोला था।
9. पं. राधाचरण गोस्वामी , इनका जन्म वृंदावन में संवत् 1915 में हुआ
औरमृत्यु संवत् 1982 (दिसंबर, सन् 1925) में हुई। ये संस्कृत के बहुत अच्छे
विद्वान्थे। 'हरिश्चंद्र मैगजीन' को देखते देखते इनमें देशभक्ति और
समाजसुधार के भाव जगे थे। साहित्य सेवा के विचार से इन्होंने 'भारतेंदु'
नाम का एक पत्र कुछ दिनों तक वृंदावन से निकाला था। अनेक सभा समाजों में
सम्मिलित होने और समाजसुधार का उत्साह रखने के कारण ये कुछ ब्रह्मसमाज की
ओर आकर्षित हुए थे और उसके पक्ष में 'हिन्दू बांधव' में कई लेख भी लिखे
थे। भाषा इनकी गठी हुई होती थी।
इन्होंने कई बहुत ही अच्छे मौलिक नाटक लिखे हैं, जैसे , सुदामा नाटक,
सती चंद्रावली, अमरसिंह राठौर, तन मन धान श्री गोसाईंजी के अर्पण। इनमें से
'सती चंद्रावली' और 'अमरसिंह राठौर' बड़े नाटक हैं। 'सती चंद्रावली' की
कथावस्तु औरंगजेब के समय हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचारों का चित्र खींचने
के लिए बड़ी निपुणता के साथ कल्पित की गई है। अमर सिंह राठौर ऐतिहासिक है।
नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने 'बिरजा', 'जावित्राी' और 'मृण्मयी' नामक
उपन्यासों के अनुवाद भी बंगभाषा से किए हैं।
10. पं. अंबिकादत्त व्यास , व्यास जी का जन्म संवत् 1915 और मृत्यु
संवत् 1957 में हुई। ये संस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान, हिन्दी के अच्छे
कवि और सनातन धर्म के बड़े उत्साही उपदेशक थे। इनके धर्मसंबंधी व्याख्यानों
की धूम रहा करती थी। 'अवतार मीमांसा' आदि धर्मसंबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त
इन्होंने बिहारी के दोहों के भाव को विस्तृत करने के लिए 'बिहारी बिहार'
नाम का एक बड़ा काव्यग्रंथ लिखा। गद्यरचना का भी विवेचन इन्होंने अच्छा किया
है। पुरानी चाल की कविता (जैसे पावसपचासा) के अतिरिक्त इन्होंने 'गद्यकाव्य
मीमांसा' आदि अनेक गद्यकी पुस्तकें भी लिखीं। 'इन्होंने' 'उन्होंने' के
स्थान पर ये 'इनने' 'उनने' लिखते थे।
ब्रजभाषा की अच्छी कविता ये बाल्यावस्था से ही करते थे जिससे बहुत
शीघ्र रचना करने का इन्हें अभ्यास हुआ। कृष्णलीला को लेकर इन्होंने
ब्रजभाषा में एक 'ललिता नाटिका' लिखी थी। भारतेंदु के कहने से इन्होंने
'गोसंकट नाटक' लिखा जिसमें हिंदुओं के बीच असंतोष फैलने पर अकबर द्वारा
गोवधा बंद किए जाने की कथावस्तु रखी गई है।
11. पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया , इन्होंने गिरती दशा में
'हरिश्चंद्रचंद्रिका' को सँभाला था और उसमें अपना नाम भी जोड़ा था। इनके रंग
ढंग से लोग इन्हें इतिहास का अच्छा जानकार और विद्वान समझते थे। कविराजा
श्यामलदानजी ने जब अपने 'पृथ्वीराज चरित्र' ग्रंथ में 'पृथ्वीराज रासो' को
जाली ठहराया था तब इन्होंने 'रासो संरक्षा' लिखकर उसको असल सिद्ध करने का
प्रयत्न किया था।
12. पं. भीमसेन शर्मा , ये पहिले स्वामी दयानंदजी के दाहिने हाथ थे।
संवत् 1940 और 1942 के बीच इन्होंने धर्म संबंधी कई पुस्तकें हिन्दी में
लिखीं और कई संस्कृत ग्रंथों के हिन्दी भाष्य भी निकाले। इन्होंने
'आर्यसिध्दांत' नामक एक मासिक पत्र भी निकाला था। भाषा के संबंध में इनका
विलक्षण मत था। 'संस्कृत भाषा की अद्भुत शक्ति' नाम का एक लेख लिखकर
इन्होंने अरबी फारसी शब्दों को भी संस्कृत बना डालने की राय बड़े जोर शोर से
दी थी, जैसे , दुश्मन को 'दु:श्मन', सिफारिश को 'क्षिप्राशिष', चश्मा को
'चक्ष्मा', शिकायत को 'शिक्षायत्न' इत्यादि।
13. काशीनाथ खत्री , इनका जन्म संवत् 1906 में आगरा के माईथान मुहल्ले
में और परलोकवास सिरसा (जिला , इलाहाबाद) में, जहाँ ये पहले अध्यापक रह
चुके थे और अंतिम दिनों में आकर बस गए थे, संवत् 1948 (9 जनवरी, 1891) में
हुआ। कुछ दिन गवर्नमेंट वर्नाक्यूलर रिपोर्टर का काम करके पीछे ये लाट साहब
के दफ्तर के पुस्तकाधयक्ष नियुक्त हो गए थे। ये मातृभाषा के सच्चे सेवक थे।
नीति,र् कत्ताव्यपालन, स्वदेशहित ऐसे विषयों पर ही लेख और पुस्तक लिखने की
ओर उनकी रुचि थी। शुद्ध साहित्यकोटि में आनेवाली रचनाएँ इनकी बहुत कम हैं।
ये तीन पुस्तकें उल्लेख योग्य हैं , (1) ग्राम पाठशाला और निकृष्ट
नौकरी-नाटक, (2) तीन ऐतिहासिक रूपक और (3) बाल विधवा संताप नाटक।
तीन ऐतिहासिक रूपकों में पहला तो है 'सिंध देश की राजकुमारियाँ' जो
सिंध में अरबों की चढ़ाईवाली घटना लेकर लिखा गया है; दूसरा है 'गुन्नौर की
रानी' जिसमेंभूपाल के मुसलमानी राज्य के संस्थापक द्वारा पराजित गुन्नौर के
हिंदू राजा की विधवा रानी का वृत्त है। तीसरा है 'लव जी का स्वप्न' जो
रघुवंश की एक कथा के आधारपरहै।
काशीनाथ खत्री वास्तव में एक अत्यंत अभ्यस्त अनुवादक थे। इन्होंने कई
अंग्रेजी पुस्तकों, लेखों और व्याख्यानों के अनुवाद प्रस्तुत किए, जैसे ,
शेक्सपियर के मनोहर नाटकों के आख्यानों (लैंब कृत) का अनुवाद; नीत्युपदेश
(ब्लैकी के सेल्फ कल्चर का अनुवाद); देश की दरिद्रता और अंग्रेजी राजनीति
(दादाभाई नौरोजी के व्याख्यान का अनुवाद); भारत त्रिाकालिक दशा (कर्नल
अलकाट के व्याख्यान का अनुवाद) इत्यादि। अनुवादों के अतिरिक्त इन्होंने
'भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र' 'यूरोपियन धर्मशीला स्त्रियों
के चरित्र', 'मातृभाषा की उन्नति किस विधि करना योग्य है' इत्यादि अनेक
छोटी-छोटी पुस्तकें और लेख लिखे।
14. राधाकृष्णदास , ये भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई थे। इनका
जन्म संवत् 1922 और मृत्यु संवत् 1964 में हुई। इन्होंने भारतेंदु का अधूरा
छोड़ा हुआ नाटक 'सती प्रताप' पूरा किया था। इन्होंने पहले पहल 'दु:खिनी
बाला' नामक एक छोटा सा रूपक लिखा था जो 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' और 'मोहन
चंद्रिका' में प्रकाशित हुआ था। इसमें जन्मपत्री मिलान, बाल विवाह, अपव्यय
आदि कुरीतियों का दुष्परिणाम दिखाया गया है। इनका दूसरा नाटक है 'महारानी
पद्मावती अथवा मेवाड़ कमलिनी' जिसकी रचना चित्तौड़ पर अलाउद्दीन की चढ़ाई के
समय की पद्मिनीवाली घटना को लेकर हुई है। इनका सबसे उत्कृष्ट और बड़ा नाटक
'महाराणा प्रताप' (या राजस्थान केसरी) है जो संवत् 1954 में समाप्त हुआ था।
यह नाटक बहुत ही लोकप्रिय हुआ और इसका अभिनय कई बार कई जगह हुआ।
भारतीय प्रथा के अनुसार इसके सब पात्र भी आदर्श के साँचे में ढले हुए
हैं। कथोपकथन यद्यपि चमत्कारपूर्ण नहीं, पर पात्र और अवसर के सर्वथा
उपयुक्त है; उनमें कहीं कहीं ओज भी पूरा है। वस्तुयोजना बहुत ही व्यवस्थित
है। इस नाटक में अकबर का हिंदुओं के प्रति सद्भाव उनकी कूटनीति के रूप में
प्रदर्शित है। यह बातें चाहे कुछ लोगों को पसंद न हों।
नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने 'निस्सहाय हिंदू' नामक एक छोटा सा उपन्यास
भी लिखा था। बँग्ला के कई उपन्यासों के अनुवाद इन्होंने किए हैं, जैसे ,
स्वर्णलता, मरता क्या न करता।
15. कार्तिकप्रसाद खत्री , (जन्म संवत् 1908, मृत्यु 1961) ये आसाम,
बंगाल आदि कई स्थानों में रहे। हिन्दी का प्रेम इनमें इतना अधिक था कि बीस
वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने कलकत्ता से हिन्दी की पत्र पत्रिकाएँ
निकालने का उद्योग किया था। 'रेल का विकट खेल' नाम का एक नाटक 15 अप्रैल,
सन् 1874 ई. की संख्या से 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपने लगा था, पर पूरा न
हुआ। 'इला', 'प्रमिला', 'जया', 'मधुमालती' इत्यादि अनेक बँग्ला उपन्यासों
के इनके किए हुए अनुवाद काशी के 'भारत जीवन' प्रेस से निकले।
16. फ्रेडरिक पिन्काट , इनका उल्लेख पहले हो चुका है और यह कहा जा चुका
है कि इंगलैंड में बैठे-बैठे हिन्दी में लेख और पुस्तकें लिखते और हिन्दी
लेखकों के साथ पत्र व्यवहार भी हिन्दी में ही करते थे। उन्होंने दो
पुस्तकें हिन्दी में लिखी हैं ,
(1) बालदीपक 4 भाग (नागरी और कैथी अक्षरों में), (2) विक्टोरिया
चरित्र।
ये दोनों पुस्तकें खड्गविलास प्रेस, बाँकीपुर में छपी थीं। 'बालदीपक'
बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। उसके एक पाठ का कुछ अंश भाषा के नमूने
के लिए दिया जाता है ,
हे लड़को! तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत सँभालकर रक्खो। मैली न होने
पावे, बिगड़े नहीं, और जब उसे खोलो, चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना उँगली के
तले दबकर फट न जाए।
'विक्टोरिया चरित्र' 136 पृष्ठों
की पुस्तक है। इसकी भाषा उनके
पत्रों की भाषा की अपेक्षा अधिक मुहावरेदार है।
उनके विचार उनके लंबे लंबे पत्रों से मिलते हैं। बाबू कार्तिकप्रसाद
खत्री को संवत् 1943 के लगभग अपने एक पत्र में वे लिखते हैं ,
आपका सुखद पत्र मुझे मिला और उससे मुझको परम आनंद हुआ। आपकी समझ में हिन्दी
भाषा का प्रचलित होना उत्तर पश्चिमवासियों के लिए सबसे भारी बात है। मैं भी
संपूर्ण रूप से जानता हूँ कि जब तक किसी देश में निज भाषा और अक्षर सरकारी
और व्यवहार संबंधी कामों में नहीं प्रवृत्त होते हैं, तब तक उस देश का परम
सौभाग्य हो नहीं सकता। इसलिए मैंने बार बार हिन्दी भाषा के प्रचलित करने का
उद्योग किया है। देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी।
पहले पहल थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परंतु अब क्रम करके
सँवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित
लोग हिन्दी भाषा में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें। इस पर भी स्मरण
कीजिए कि उत्तर पश्चिम में हजार बरस तक फारसी बोलने वाले लोग राज करते थे।
इसी कारण उस देश के लोग बहुत फारसी बातों को जानते हैं; उन फारसी बातों को
भाषा से निकाल देना असंभव है। इसलिए उनको निकाल देने का उद्योग मूर्खता का
काम है।
हिंदुस्तानी पुलिस की करतूतों को सुनकर आपने बाबू कार्तिकप्रसाद को
लिखाथा ,
कुछ दिन हुए कि मेरे एक हिंदुस्तानी दोस्त ने हिंदुस्तान के पुलिस के जुल्म
की ऐसी तस्वीर खींची कि मैं हैरान हो गया। मैंने एक चिट्ठी लाहौर नगर के
'ट्रीब्यून' नामी समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत
से लोगों ने चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी
ज्यादा है जितना मैंने सुना था। अब मैंने पक्का इरादा कर लिया है कि जब तक
हिंदुस्तान की पुलिस वैसे ही न हो जावे जैसे कि हमारे इँगलिस्तान में है,
मैं इस बात का पीछा न छोड़ँन्नगा।
भारतेंदु हरिश्चंद्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में
लिखी थी जो नीचे दी जाती है ,
बैस बंस अवतंस, श्रीबाबू हरिचंद जू।
छीर नीर कलहंस, टुक उत्तर लिखि देव मोहिं
पर उपकार में उदार अवनी में एक,
भाषत अनेक यह राजा हरिचंद है।
विभव बड़ाई वपु वसन विलास लखि
कहत यहाँ के लोग बाबू हरिचंद है।
चंद वैसो अमिय अनंदकर आरत को
कहत कविंद यह भारत को चंद है।
कैसे अब देखैं, को बतावै, कहाँ पावैं? हाय,
कैसे वहाँ आवै हम कोई मतिमंद है
श्रीयुत् सकल कविंद कुल नुत बाबू हरिचंद।
भारत हृदय सतार नभ उदय रहो जनुचंद
प्रचारकार्य
भारतेंदु के समय से साहित्यनिर्माण का कार्य तो धूमधाम से चल पड़ा, पर
साहित्य के सम्यक् प्रचार में कई प्रकार की बाधाएँ थीं। अदालतों की भाषा
बहुत पहले से उर्दू चली आ रही थी इससे अधिकतर बालकों को अंग्रेजी के साथ या
अकेले उर्दू की ही शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का उद्देश्य अधिकतर सरकारी
नौकरियों के योग्य बनाना ही समझा जाता रहा है। इससे चारों ओर उर्दू पढ़े
लिखे लोग ही दिखाई पड़ते थे। ऐसी अवस्था में साहित्य निर्माण के साथ हिन्दी
के प्रचार का उद्योग भी बराबर चलता रहा। स्वयं बाबू हरिश्चंद्र को हिन्दी
भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता समझाने के लिए बहुत से नगरों में
व्याख्यान देने के लिए जाना पड़ता था। उन्होंने इस संबंध में कई पंफलेट भी
लिखे। हिन्दी प्रचार के लिए बलिया में बड़ी भारी सभा हुई थी जिसमें भारतेंदु
का बड़ा मार्मिक व्याख्यान हुआ था। वे जहाँ जाते अपना यह मूल मंत्र अवश्य
सुनाते थे ,
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल
इसी प्रकार पं. प्रतापनारायण मिश्र भी 'हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तानी' का
राग अलापते फिरते थे। कई स्थानों पर हिन्दी प्रचार के लिए सभाएँ स्थापित
हुईं। बाबू तोताराम द्वारा स्थापित अलीगढ़ की 'भाषा संवर्ध्दिनी सभा' का
उल्लेख हो चुका है। ऐसी ही एक सभा सन् 1884 में 'हिन्दी उध्दारिणी
प्रतिनिधि मध्य सभा' के नाम से प्रयाग में प्रतिष्ठित हुई थी। सरकारी
दफ्तरों में नागरी के प्रवेश के लिए बाबू हरिश्चंद्र ने कई बार उद्योग किया
था। सफलता न प्राप्त होने पर भी इस प्रकार का उद्योग बराबर चलता रहा। जब
लेखकों की दूसरी पीढ़ी तैयार हुई तब उसे बहुत कुछ अपनी शक्ति प्रचार के काम
में भी लगानी पड़ी।
भारतेंदु के अस्त होने के उपरांत ज्यों ज्यों हिन्दी गद्य साहित्य की
वृद्धि होती गई त्यों त्यों प्रचार की आवश्यकता भी अधिक दिखाई पड़ती गई।
अदालती भाषा उर्दू होने से नवशिक्षितों की अधिक संख्या उर्दू पढ़नेवालों की
थी जिससे हिन्दी पुस्तकों के प्रकाशन का उत्साह बढ़ने नहीं पाता था। इस
साहित्य संकट के अतिरिक्त नागरी का प्रवेश सरकारी दफ्तरों में न होने से
जनता का घोर संकट भी सामने था। अत: संवत् 1950 में कई उत्साही छात्रों के
उद्योग से, जिनमें बाबू श्यामसुंदरदास, पं. रामनारायण मिश्र और ठा.
शिवकुमार सिंह मुख्य थे, काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। सच
पूछिए तो इस सभा की सारी समृद्धि और कीर्ति बाबू श्यामसुंदर जी के त्याग
और सतत परिश्रम का फल है। वे ही आदि से अंत तक इसके प्राणस्वरूप स्थित होकर
बराबर इसे अनेक बड़े उद्योगों में तत्पर करते रहे। इसके प्रथम सभापति
भारतेंदु के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्णदास हुए। इसके सहायकों में भारतेंदु
के सहयोगियों में से कई सज्जन थे, जैसे , रायबहादुर पं. लक्ष्मीशंकर मिश्र
एम. ए., खड्गविलास प्रेस के स्वामी बाबू रामदीन सिंह, 'भारतजीवन' के अधयक्ष
बाबू राधाकृष्ण वर्मा, बाबू गदाधार सिंह, बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री
इत्यादि। इस सभा के उद्देश्य दो हुए , नागरी अक्षरों का प्रचार और हिन्दी
साहित्य की समृद्धि ।
उक्त दो उद्देश्यों में यद्यपि प्रथम का प्रत्यक्ष संबंध हिन्दी
साहित्य के इतिहास से नहीं जान पड़ता, पर परोक्ष संबंध अवश्य है। पहले कह आए
हैं कि सरकारी दफ्तरों आदि में नागरी का प्रवेश न होने से नवशिक्षितों में
हिन्दी पढ़नेवालों की पर्याप्त संख्या नहीं थी। इससे नूतन साहित्य के
निर्माण और प्रकाशन से पूरा उत्साह नहीं बना रहने पाता था। पुस्तकों का
प्रचार होते न देख प्रकाशक भी हतोत्साह हो जाते थे और लेखक भी। ऐसी
परिस्थिति में नागरी प्रचारिणी के आंदोलन का साहित्य की वृद्धि के साथ भी
संबंध मान हम संक्षेप में उसका उल्लेख कर देना आवश्यक समझते हैं।
बाबू हरिश्चंद्र किस प्रकार नागरी और हिन्दी के संबंध
में अपनी चंद्रिका में लेख छापा करते थे और जगह जगह घूमकर वक्तृता दिया
करते थे, यह हम पहले कह आए हैं। वे जब बलिया के हिन्दी प्रेमी कलक्टर के
निमंत्रण पर
वहाँ गए थे तब कई दिनों तक बड़ी धूम रही। हिन्दी भाषा और नागरी अक्षरों की
उपयोगिता पर उनका बहुत अच्छा व्याख्यान तो हुआ ही था, साथ ही 'सत्य
हरिश्चंद्र', 'अंधेर नगरी', और 'देवाक्षरचरित्र' के अभिनय भी हुए थे।
'देवाक्षरचरित्र' पं. रविदत्ता शुक्ल द्वारा लिखा हुआ एक प्रहसन था जिसमें
उर्दू लिपि की गड़बड़ी के बड़े ही विनोदपूर्ण दृश्य दिखाए गए थे।
भारतेंदु के अस्त होने के कुछ पहले ही नागरी प्रचार का झंडा पं.
गौरीदत्ताजी ने उठाया। ये मेरठ के रहनेवाले सारस्वत ब्राह्मण थे और
मुदर्रिसी करते थे। अपनी धाुन के ऐसे पक्के थे कि चालीस वर्ष की अवस्था हो
जाने पर इन्होंने अपनी सारी जायदाद 'नागरीप्रचार' के लिए लिखकर रजिस्टरी
करा दी और आप संन्यासी होकर 'नागरीप्रचार' का झंडा हाथ में लिए चारों ओर
घूमने लगे। इनके व्याख्यानों के प्रभाव से न जाने कितने देवनागरी स्कूल
मेरठ के आसपास खुले। शिक्षा संबंधिनी कई पुस्तकें भी इन्होंने लिखीं।
प्रसिद्ध 'गौरी नागरी कोश' इन्हीं का है। जहाँ कहीं कोई मेला तमाशा होता
वहाँ पं. गौरीदत्ता जी लड़कों की खासी भीड़ पीछे लगाए नागरी का झंडा हाथ में
लिए दिखाई देते थे। मिलने पर 'प्रणाम', 'जयराम' आदि के स्थान पर लोग इनसे
'जय नागरी की' कहा करते थे। इन्होंने संवत् 1951 में दफ्तरों में नागरी
जारी करने के लिए एक मेमोरियल भी भेजा था।
नागरीप्रचारिणी सभा अपने स्थापना के कुछ ही दिनों पीछे दबाई हुई नागरी
के उध्दार के उद्योग में लग गई। 1952 में जब इस प्रदेश के छोटे लाट सर
ऐंथनी (पीछे लार्ड) मैकडानल काशी में आए तब सभा ने एक आवेदन पत्र उनको दिया
और सरकारी दफ्तरों से नागरी को दूर रखने से जनता की जो कठिनाइयाँ हो रही
थीं और शिक्षा के सम्यक् प्रचार में जो बाधाएँ पड़ रही थीं, उन्हें सामने
रखा। जब उन्होंने इस विषय पर पूरा विचार करने का वचन दिया तब से बराबर सभा
व्याख्यानों और परचों द्वारा जनता के उत्साह को जागृत करती रही। न जाने
कितने स्थानों पर डेपुटेशन भेजे गए और हिन्दी भाषा और नागरी अक्षरों की
उपयोगिता की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। भिन्न भिन्न नगरों में सभा की
शाखाएँ स्थापित हुईं। संवत् 1955 में एक बड़ा प्रभावशाली डेपुटेशन , जिसमें
अयोध्यानरेश महाराज प्रतापनारायण सिंह, माँडा के राजा रामप्रसाद सिंह,
आवागढ़ के राजा बलवंत सिंह, डॉ. सुंदरलाल और पं. मदनमोहन मालवीय ऐसे मान्य
और प्रतिष्ठित लोग थे , लाट साहब से मिला और नागरी का मेमोरियल अर्पित
किया।
उक्त मेमोरियल की सफलता के लिए कितना भीषण उद्योग प्रांत भर में किया
गया था, यह बहुत लोगों को स्मरण होगा। सभा की ओर से न जाने कितने सज्जन सब
नगरों में जनता के हस्ताक्षर लेने के लिए भेजे गए जिन्होंने दिन को दिन और
रात को रात नहीं समझा। इस आंदोलन के प्रधान नायक देशपूज्य श्रीमान् पं.
मदनमोहन मालवीयजी थे। उन्होंने 'अदालती लिपि और प्राइमरी शिक्षा', नाम की
एक बड़ी अंग्रेजी पुस्तक, जिसमें नागरी को दूर रखने के दुष्परिणामों की बड़ी
ही विस्तृत और अनुसंधानपूर्ण मीमांसा थी, लिखकर प्रकाशित की। अंत में संवत्
1957 में भारतेंदु के समय से ही चले आते हुए इस उद्योग का फल प्रकट हुआ और
कचहरियों में नागरी के प्रवेश की घोषणा प्रकाशित हुई।
सभा के साहित्यिक आयोजनों के भीतर हम बराबर हिन्दी प्रेमियों की
सामान्य आकांक्षाओं और प्रवृत्तियों का परिचय पाते चले आ रहे हैं। पहले ही
वर्ष 'नागरीदास का जीवनचरित्र' नामक जो लेख पढ़ा गया वह कवियों के विषय में
बढ़ती हुई लोकजिज्ञासा का पता देता है। हिन्दी के पुराने कवियों का कुछ
इतिवृत्त संग्रह पहले पहल संवत् 1896 में गार्सां द तासी ने अपने
'हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास' में किया, फिर संवत् 1940 में ठाकुर
शिवसिंह सेंगर ने अपने 'शिवसिंहसरोज' में किया। उसके पीछे प्रसिद्ध
भाषावेत्ताा डॉ. (अब सर) ग्रियर्सन ने संवत् 1946 में 'मॉडर्न वर्नाक्यूलर
लिटरेचर ऑव नार्दर्न हिंदुस्तान' प्रकाशित किया। कवियों का वृत्त भी
साहित्य का एक अंग है। अत: सभा ने आगे चलकर हिन्दी पुस्तकों की खोज का काम
भी अपने हाथ में लिया जिससे बहुत से गुप्त और अप्रकाशित रत्नों के मिलने की
पूरी आशा के साथ साथ कवियों का बहुत कुछ वृत्तांत प्रकट होने की भी पूरी
संभावना थी। संवत् 1956 में सभा को गवर्नमेंट से 400 रुपये वार्षिक सहायता
इस काम के लिए प्राप्त हुई और खोज धूमधाम से आरंभ हुई। यह वार्षिक सहायता
ज्यों ज्यों बढ़ती गयी त्यों त्यों काम भी अधिक विस्तृत रूप में होता गया।
इसी खोज का फल है कि आज कई सौ कवियों की कृतियों का परिचय हमें प्राप्त है
जिनका पहले पता न था। कुछ कवियों के संबंध में बहुत सी बातों की नई जानकारी
भी हुई है। सभा की 'ग्रंथमाला' में कई पुराने कवियों के अच्छे अच्छे
प्रकाशित ग्रंथ छपे। सारांश यह कि इस खोज के द्वारा हिन्दी साहित्य का
इतिहास लिखने की खासी सामग्री उपस्थित हुई जिसकी सहायता से दो-एक अच्छे
कविवृत्त संग्रह भी हिन्दी में निकले।
हिन्दी भाषा के द्वारा ही सब प्रकार के वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा की
व्यवस्थाका विचार भी अब लोगों के चित्त में उठ रहा था। पर बड़ी भारी कठिनता
पारिभाषिकशब्दों के संबंध में थी। इससे अनेक विद्वानों के सहयोग और परामर्श
से (संवत् 1963) में सभा ने 'वैज्ञानिक कोश' प्रकाशित किया। भिन्न भिन्न
विषयों पर पुस्तकें लिखाकर प्रकाशित करने का काम तो तब से अब तक बराबर चल
ही रहा है। स्थापना के तीन वर्ष पीछे ही सभा ने अपनी पत्रिका (ना. प्र.
पत्रिका) निकाली जिसमें साहित्यिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक सब
प्रकार के लेख आरंभ ही से निकलने लगे थे और जो आज भी साहित्य से संबंध
रखनेवाले अनुसंधान और पर्यालोचन का उद्देश्य रखकर चल रही है।
'छत्राप्रकाश', 'सुजानचरित्र', 'पृथ्वीराज रासो', 'परमाल रासो' आदि पुराने
ऐतिहासिक काव्यों को प्रकाशित करने के अतिरिक्त तुलसी, जायसी, भूषण, देव
ऐसे प्रसिद्ध कवियों की ग्रंथावली के भी बहुत सुंदर संस्करण सभा ने निकाले
हैं। 'मनोरंजन पुस्तकमाला' में 50 से ऊपर भिन्नभिन्न विषयों पर उपयोगी
पुस्तकें निकल चुकी हैं। हिन्दी का सबसे बड़ा और प्रामाणिक व्याकरण तथा कोश
(हिन्दी शब्दसागर) इस सभा के चिरस्थायी कार्यों में गिने जायँगे।
इस सभा ने अपने 35 वर्ष के जीवन में हिन्दी साहित्य के 'वर्तमान काल'
की तीनों अवस्थाएँ देखी हैं। 1 जिस समय यह स्थापित हुई उस समय भारतेंदु
द्वारा प्रवर्तित प्रथम उत्थान की ही परंपरा चली आ रही थी। वह प्रचारकाल
था। नागरी अक्षरों और हिन्दी साहित्य के प्रचार के मार्ग में बड़ी बाधाएँ
थीं। 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' की प्रारंभिक संख्याओं को यदि हम निकाल कर
देखें तो उसमें अनेक विषयों के लेखों के अतिरिक्त कहीं कहीं ऐसी कविताएँ भी
मिल जायँगी जैसी श्रीयुत् पं. महावीरप्रसादजी द्विवेदी की 'नागरी तेरी यह
दशा!'
नूतन हिन्दी साहित्य का वह प्रथम उत्थान कैसा हँसता खेलता सामने आया
था, भारतेंदु के सहयोगी लेखकों का वह मंडल किस जोश और जिंदादिली के साथ और
कैसी चहल पहल के बीच अपना काम कर गया, इसका उल्लेख पहले हो चुका है। सभा की
स्थापना के पीछे घर सँभालने की चिंता और व्यग्रता के कुछ चिन्ह हिन्दी सेवक
मंडल के बीच दिखाई पड़ने लगे थे। भारतेंदुजी के सहयोगी अपने ढर्रे पर कुछ न
कुछ लिखते तो जा रहे थे, पर उनमें वह तत्परता और उत्साह नहीं रह गया था।
बाबू हरिश्चंद्र के गोलोकवास के कुछ आगे पीछे जिन लोगों ने साहित्य सेवा
ग्रहण की थी वे ही अब प्रौढ़ता प्राप्त करके काल की गति परखते हुए अपने
कार्य में तत्पर दिखाई देते थे। उनके अतिरिक्त कुछ नये लोग भी मैदान में
धीरे धीरे उतर रहे थे। यह नवीन हिन्दी साहित्य का द्वितीय उत्थान था जिसके
आरंभ में 'सरस्वती' पत्रिका के दर्शन हुए।
संदर्भ
1. संवत् 1985 तक।
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