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काव्यखंड (संवत् 1900-1925)
प्रकरण 1

पुरानी धारा


गद्य के आविर्भाव और विकासकाल से लेकर अब तक कविता की वह परंपरा भी चलती आ रही है जिसका वर्णन भक्तिकाल और रीतिकाल के भीतर हुआ है। भक्तिभाव के भजनों, राजवंश के ऐतिहासिक चरितकाव्यों, अलंकार और नायिकाभेद के ग्रंथों तथा श्रृंगार और वीररस के कवित्त, सवैयों और दोहों की रचना बराबर होती आ रही है। नगरों के अतिरिक्त हमारे ग्रामों में भी न जाने कितने बहुत अच्छे कवि पुरानी परिपाटी के मिलेंगे। ब्रजभाषा काव्य की परंपरा गुजरात से लेकर बिहार तक और कुमायूँ, गढ़वाल से लेकर दक्षिण भारत की सीमा तक बराबर चलती आई है। कश्मीर के किसी ग्राम के रहनेवाले ब्रजभाषा के एक कवि का परिचय हमें जंबू में किसी महाशय ने दिया था और शायद उनके दो एक सवैये भी सुनाए थे।
गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार भोलाराम ब्रजभाषा के बहुत अच्छे कवि थे जिन्होंने अपने 'गढ़ राजवंश' काव्य में गढ़वाल के 52 राजाओं का वर्णन दोहा, चौपाइयों में किया है। वे श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा प्रद्युम्नसाह के समय में थे। कुमाऊँ गढ़वाल पर जब नेपाल का अधिकार हुआ तब नैपाली सूबेदार हस्तिदल चौतरिया के अनुरोध से इन्होंने उक्त काव्य लिखा था। भोलाराम का जन्म संवत् 1817 में और मृत्यु 1890 में हुई। उन्होंने अपने ग्रंथ में बहुत सी घटनाओं का ऑंखों देखा वर्णन लिखा है, इससे उसका ऐतिहासिक मूल्य भी है।
ब्रजभाषा काव्यपरंपरा के कुछ प्रसिद्ध कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख नीचे किया जाता है ,
1. सेवक , ये असनी वाले ठाकुर कवि के पौत्र थे और काशी के रईस बाबू देवकीनंदन के प्रपौत्र बाबू हरिशंकर के आश्रय में रहते थे। ये ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। इन्होंने 'वाग्विलास' नाम का एक बड़ा ग्रंथ नायिकाभेद का बनाया। इसके अतिरिक्त बरवा छंद में एक छोटा नखशिख भी इनका है। इनके सवैये सर्वसाधारण में प्रचलित हो गए थे। 'कवि सेवक बूढे भए तौ कहा पै हनोज है मौज मनोज ही की' कुछ बुङ्ढे रसिक अब तक कहते सुने जाते हैं। इनका जन्म संवत् 1872 में और मृत्यु संवत् 1938 में हुई।
2. महाराज रघुराज सिंह रीवाँनरेश , इनका जन्म संवत् 1880 में और मृत्यु संवत् 1936 में हुई। इन्होंने भक्ति और श्रृंगार के बहुत ग्रंथ रचे। इनका 'रामस्वयंवर' (संवत् 1926) नामक वर्णनात्मक प्रबंधकाव्य बहुत ही प्रसिद्ध है जिसमें अनेक छंदों में सीताराम के विवाह का बहुत ही विस्तृत वर्णन है। वर्णनों में इन्होंने वस्तुओं की गिनती (राजसी ठाठ बाट, घोड़ों, हाथियों के भेद आदि) गिनानेवाली प्रणाली का खूब अवलंबन किया है। 'रामस्वयंवर' के अतिरिक्त 'रुक्मिणी परिणय', 'आनंदांबुनिधि', 'रामाष्टयाम' इत्यादि इनके लिखे बहुत से अच्छे ग्रंथ हैं।
3. सरदार , ये काशीनरेश महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह के आश्रित थे। इनका कविताकाल संवत् 1902 से 1940 तक कहा जा सकता है। ये बहुत ही सिद्ध हस्त और साहित्यमर्मज्ञ कवि थे। 'साहित्यसरसी', 'वाग्विलास' 'षट् ऋतु', हनुमतभूषण', 'तुलसीभूषण', 'श्रृंगारसंग्रह', 'रामरत्नाकर', 'साहित्यसुधाकर', 'रामलीला प्रकाश' इत्यादि कई मनोहर काव्यग्रंथ इन्होंने रचे हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने हिन्दी के प्राचीन काव्यों पर बड़ी बड़ी टीकाएँ लिखी हैं। कविप्रिया, रसिकप्रिया, सूर के दृष्टिकूट और बिहारी सतसई पर बहुत अच्छी टीकाएँ इनकी हैं।
4. बाबा रघुनाथदास रामसनेही , ये अयोध्या के एक साधु थे और अपने समय के बड़े भारी महात्मा माने जाते थे। संवत् 1911 में इन्होंने 'विश्रामसागर' नामक एक बड़ा ग्रंथ बनाया जिसमें अनेक पुराणों की कथाएँ संक्षेप में दी गई हैं। भक्तजन इस ग्रंथ का बड़ा आदर करते हैं।
5. ललितकिशोरी , इनका नाम शाह कुंदनलाल था। ये लखनऊ के एक समृद्ध वैश्य घराने में उत्पन्न हुए थे। पीछे वृंदावन में जाकर एक विरक्त भक्त की भाँति रहने लगे। इन्होंने भक्ति और प्रेमसंबंधी बहुत से पद और गजलें बनाई हैं। कविताकाल संवत् 1913 से 1930 तक समझना चाहिए। वृंदावन का प्रसिद्ध साहजी का मंदिर इन्हीं का बनवाया है।
6. राजा लक्ष्मणसिंह , ये हिन्दी के गद्यप्रवर्तकों में हैं। इनका उल्लेख गद्य के विकास के प्रकरण में हो चुका है। इनकी ब्रजभाषा की कविता भी बड़ी मधुर और सरस होती थी। ब्रजभाषा की सहज मिठास इनकी वाणी से टपकी पड़ती है। इनके शकुंतला के पहले अनुवाद में तो पद्य न था, पर पीछे जो संस्करण इन्होंने निकाला उसमें मूल श्लोकों के स्थान पर पद्य रखे गए। ये पद्य बड़े ही सरस हुए। इसके उपरांत संवत् 1938 औैर 1940 के बीच इन्होंने मेघदूत का बड़ा ही ललित और मनोहर अनुवाद निकाला। मेघदूत जैसे मनोहर काव्य के लिए ऐसा ही अनुवादक होना चाहिए था। इस अनुवाद के सवैये बहुत ही ललित और सुंदर हैं। जहाँ चौपाई, दोहे आए हैं, वे स्थल उतने सरस नहीं हैं।
7. लछिराम (ब्रह्मभट्ट) , इनका जन्म संवत् 1898 में अमोढ़ा (जिला , बस्ती) में हुआ था। ये कुछ दिन अयोध्या नरेश महाराज मानसिंह (प्रसिद्ध कवि द्विजदेव) के यहाँ रहे। पीछे बस्ती के राजा शीतलाबख्श सिंह से, जो एक अच्छे कवि थे, बहुत सी भूमि पाई। दरभंगा, पुरनिया आदि अनेक राजधाानियों में इनका सम्मान हुआ। प्रत्येक सम्मान करने वाले राजा के नाम पर इन्होंने कुछ न कुछ रचना की है, जैसे , मानसिंहाष्टक, प्रताप रत्नाकर, प्रेम रत्नाकर (राजा बस्ती के नाम पर), लक्ष्मीश्वर रत्नाकर, (दरभंगा नरेश के नाम पर), रावणेश्वर कल्पतरु (गिध्दौर नरेश के नाम पर), कमलानंद कल्पतरु (पुरनिया के राजा के नाम पर जो हिन्दी के अच्छे कवि और लेखक थे) इत्यादि। इन्होंने अनेक रसों पर कविता की है। समस्यापूर्तियाँ बहुत जल्दी करते थे। वर्तमानकाल में ब्रजभाषा की पुरानी परिपाटी पर कविता करनेवालों में ये बहुत प्रसिद्ध हुए हैं।
8. गोविंद गिल्लाभाई , कोई समय था जब गुजरात में ब्रजभाषा की कविता का बहुत प्रचार था। अब भी इसका चलन वैष्णवों में बहुत कुछ है। गोविंद गिल्लाभाई का जन्म संवत् 1905 में भावनगर रियासत के अंतर्गत सिहोई नामक स्थान में हुआ था। इनके पास ब्रजभाषा के काव्यों का बड़ा अच्छा संग्रह था। भूषण का एक बहुत शुद्ध संस्करण इन्होंने निकाला। ब्रजभाषा की कविता इनकी बहुत ही सुंदर और पुराने कवियों के टक्कर की होती थी। इन्होंने बहुत सी काव्य की पुस्तकें लिखी हैं जिनमें से कुछ के नाम ये हैं , नीतिविनोद, श्रृंगारसरोजिनी, षट्ऋतु, पावसपयोनिधि, समस्यापूर्ति प्रदीप, वक्रोक्तिविनोद, श्लेषचंद्रिका, प्रारब्धापचासा, प्रवीनसागर।
9. नवनीत चौबे , पुरानी परिपाटी के आधुनिक कवियों में चौबेजी की बहुत ख्याति रही है। ये मथुरा के रहनेवाले थे। इनका जन्म संवत् 1915 और मृत्यु 1989 में हुई।
यहाँ तक संक्षेप में उन कवियों का उल्लेख हुआ जिन्होंने केवल पुरानी परिपाटी पर कविता की है। इसके आगे उन लोगों का समय आता है जिन्होंने एक ओर तो हिन्दी साहित्य की नवीन गति के प्रवर्तन में योग दिया, दूसरी ओर पुरानी परिपाटी की कविता के साथ भी अपना पूरा संबंध बनाए रखा। ऐसे लोगों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, पं. प्रताप नारायण मिश्र, उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी, ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. अंबिकादत्त व्यास और बाबू रामकृष्ण वर्मा मुख्य हैं।
पुरानी धारा के अन्य कवि
10. भारतेंदु हरिश्चंद्र , भारतेंदुजी ने जिस प्रकार हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार किया, उसी प्रकार काव्य की ब्रजभाषा का भी। उन्होंने देखा कि बहुत से शब्द जिन्हें बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए थे, कवित्तों और सवैयों में बराबर लाए जाते हैं। इसके कारण कविता जनसाधारण की भाषा से दूर पड़ती जाती है। बहुत से शब्द तो प्राकृत और अपभ्रंश काल की परंपरा के स्मारक के रूप में ही बने हुए थे। 'चक्कवै', 'भुवाल', 'ठायो', 'दीह', 'ऊनो', 'लोय' आदि के कारण बहुत से लोग ब्रजभाषा की कविता से किनारा खींचने लगे थे। दूसरा दोष जो बढ़ते बढ़ते बहुत बुरी हद को पहुँच गया था, वह शब्दों के तोड़मरोड़ और गढ़ंत के शब्दों का प्रयोग था। उन्होंने ऐसे शब्दों को भरसक अपनी कविता से दूर रखा और अपने रसीले सवैये में जहाँ तक हो सका, बोलचाल की ब्रजभाषा का व्यवहार किया। इसी से उनके जीवनकाल में ही उनके सवैये चारों ओर सुनाई देने लगे।
11. पं. अंबिकादत्त व्यास , भारतेंदुजी ने कवि समाज भी स्थापित किए थे जिनमें समस्यापूर्तियाँ बराबर हुआ करती थीं। दूर दूर से कवि लोग आकर उसमें सम्मिलित हुआ करते थे। पं. अंबिकादत्त व्यास ने अपनी प्रतिभा का चमत्कार पहले पहल ऐसे ही कवि समाज के बीच समास्यापूर्ति करके दिखाया था। भारतेंदु के श्रृंगाररस के कवित्त सवैये बड़े ही सरस मर्मस्पर्शी होते थे। 'प्रिय प्यारे तिहारे निहारे बिना दुखिया अंखियाँ नहिं मानति हैं', 'मरेहू पै ऑंखैं ये खुली ही रहि जायँगी' आदि उक्तियों का रसिक समाज में बड़ा आदर रहा। उनके श्रृंगाररस के कवित्त सवैयों का संग्रह 'प्रेममाधुरी' में मिलेगा। कवित्त सवैयों के अतिरिक्त भक्ति और श्रृंगार के न जाने कितने पद और गाने उन्होंने बनाए जो 'प्रेमफुलवारी', 'प्रेममालिका', 'प्रेमप्रलाप' आदि पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनकी अधिकतर कविता कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर रचे पदों के रूप में ही है।
12. प्रतापनारायण मिश्र , मिश्रजी समस्यापूर्ति और पुराने ढंग की श्रृंगारी कविता बहुत अच्छी करते थे। कानपुर के 'रसिकसमाज' में बड़े उत्साह से अपनी पूर्तियाँ सुनाया करते थे। देखिए 'पपीहा जब पूछिहै पीव कहाँ' की कैसी अच्छी पूर्ति उन्होंने की थी ,
बनि बैठी है मान की मूरति सी, मुख खोलत बोलै न 'नाही' न 'हाँ'।
तुमही मनुहारि कै हारि परे, सखियान की कौन चलाई तहाँ
बरषा है 'प्रतापजू' धाीर धारौ, अबलौ मनको समुझायो जहाँ।
यह ब्यारि तबै बदलैगी कछू, पपिहा जब पूछिहै पीव कहाँ?
प्रतापनारायण जी कैसे मनमौजी आदमी थे, यह कहा जा चुका है। लावनीबाजों के बीच बैठकर वे लावनियाँ बना बनाकर भी गाया करते थे।
13. उपाधयाय बदरीनारायण (प्रेमघनजी) , प्रेमघनजी भी इस प्रकार की पुरानी कविता किया करते थे। 'चरचा चलिबे की चलाइए ना' को लेकर बनाया हुआ उनका यह अनुप्रासपूर्ण सवैया देखिए ,
बगियान बसंत बसेरो कियो, बसिए तेहि त्यागि तपाइए ना।
दिन काम कुतूहल के जो बने, तिन बीच वियोग बुलाइए ना
'घन प्रेम' बढ़ाय कै प्रेम, अहो! बिथा-बारि बृथा बरसाइए ना।
चित चैत की चाँदनी चाह भरी, चरचा चलिबे की चलाइए ना
चौधारी साहब ने भी सर्वसाधारण में प्रचलित कजली, होली आदि गाने की चीजें बहुत बनाई हैं। 'कजली कादंबिनी' में उनकी बनाई कजलियों का संग्र्रह है।
14. ठाकुर जगमोहन सिंह , ठाकुर साहब के सवैये भी बहुत सरस होते थे। उनके श्रृंगारी कवित्त सवैयों का संग्रह कई पुस्तकों में है। ठाकुर साहब ने कवित्त सवैयों में 'मेघदूत' का भी बहुत सरस अनुवाद किया है। उनकी श्रृंगारी कविताएँ 'श्यामा' से ही संबंध रखती हैं और 'प्रेमसंपत्तिलता' (संवत् 1885), 'श्यामालता' और 'श्यामा सरोजिनी' (संवत् 1886) में संगृहीत हैं। 'प्रेमसंपत्तिलता' का एक सवैया दिया जाता है ,
अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाउँ गरे लगिकै छतियाँ।
मन की करि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिय री रस की बतियाँ
हम हारी अरी करि कोटि उपाय लिखी बहु नेहभरी पतियाँ।
जगमोहन मोहनि मूरति के बिना कैसे कटे दुख की रतियाँ
15-18. पं. अंबिकादत्त व्यास और बाबू रामकृष्ण वर्मा (बलवीर) के उत्साह से ही काशी कविसमाज चलता रहा। उसमें दूर दूर के कविजन भी कभी कभी आ जाया करते थे। समस्या कभी कभी बहुत टेढ़ी दी जाती थी, जैसे , सूरज देखि सकै नहिं घूग्घू', 'मोम के मंदिर माखन के मुनि बैठे हुतासन आसन मारे।' उक्त दोनों समस्याओं की पूर्ति व्यास जी ने बड़े विलक्षण ढंग से की थी। उक्त समाज की ओर से ही शायद 'समस्यापूर्ति प्रकाश' निकला था जिसमें 'व्यास जी' और 'बलवीर (रामकृष्ण वर्मा) की बहुत सी पूर्तियाँ हैं। व्यास जी का 'बिहारी बिहार' (बिहारी के सब दोहों पर कुंडलियाँ) बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें उन्होंने बिहारी के दोहों का भाव बड़ी मार्मिकता से पल्लवित किया है। डुमराँव निवासी पं. नकछेदी तिवारी (अजान) भी इस रसिकमंडल के बड़े उत्साही कार्यकर्ता थे। वे बड़ी सुंदर कविता करते थे और पढ़ने का ढंग तो उनका बड़ा ही अनूठा था। उन्होंने 'मनोमंजरी' आदि कई अच्छे संग्रह भी निकाले और कवियों का वृत्त भी बहुत कुछ संग्रह किया। बाबू रामकृष्ण की मंडली में पं. विजयानंद त्रिपाठी भी ब्रजभाषा की कविता बड़ी अच्छी करते थे।
19. लाला सीताराम , इस पुरानी धारा के भीतर लाला सीताराम बी. ए. के पद्यानुवादों को भी लेना चाहिए। ये कविता में अपना 'भूप' उपनाम रखते थे। रघुवंश का अनुवाद इन्होंने दोहा चौपाइयों में और 'मेघदूत' का घनाक्षरी में किया है।
20. पं. अयोध्यासिंह उपाधयाय 'हरिऔधा' , यद्यपि उपाधयायजी इस समय खड़ी बोली के और आधुनिक विषयों के ही कवि प्रसिद्ध हैं, पर प्रारंभकाल में ये भी पुराने ढंग की श्रृंगारी कविता बहुत सुंदर और सरस करते थे। इनके निवासस्थान निजामाबादमेंसिख संप्रदाय के महंत बाबा सुमेरसिंहजी हिन्दी काव्य के बड़े प्रेमी थे। उनके यहाँ प्राय: कवि समाज एकत्र हुआ करता था जिसमें उपाधयायजी भी अपनी पूर्तियाँ पढ़ा करते थे। इनका 'हरिऔधा' उपनाम उसी समय का है। इनकी पुराने ढंग की कविताएँ 'रसकलश' में संगृहीत हैं जिसमें इन्होंने नायिकाओं के कुछ नए ढंग के भेद रखने का प्रयत्न किया है। ये भेद रससिध्दांत के अनुसार ठीक नहीं उतरते।
21. पं. श्रीधार पाठक , पाठकजी का संबंध भी लोग खड़ी बोली के साथ ही अकसर बताया करते हैं। पर खड़ी बोली की कविताओं की अपेक्षा पाठकजी की ब्रजभाषा की कविताएँ ही अधिक सरस, हृदयग्राहिणी और उनकी मधुर स्मृति को चिरकाल तक बनाए रखनेवाली हैं। यद्यपि उन्होंने समस्यापूर्ति नहीं की, नायिकाभेद के उदाहरणों के रूप में कविता नहीं की, पर जैसी मधुर और रसभरी ब्रजभाषा उनके 'ऋतुसंहार' के अनुवाद में है, वैसी पुरानी कवियों में किसी किसी की ही मिलती है। उनके सवैयों में हम ब्रजभाषा का जीता जागता रूप पाते हैं। वर्षाऋतु वर्णन का यह सवैया ही लीजिए ,
बारि फुहार भरे बदरा, सोइ सोहत कुंजर से मतवारे।
बीजुरी जोति धाुजा फहरै, घन गर्जन शब्द सोई हैं नगारे
रोर की घोर को ओर न छोर, नरेसन की सी छटा छबि धाारे।
कामिन के मन को प्रिय पावस, आयो, प्रिये! नव मोहिनी डारे
22. बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' , ब्रजभाषा की पुरानी परिपाटी के कवियों में 'रत्नाकरजी' का स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है। इनका जन्म काशी में भाद्र पद शुक्ल 6, संवत् 1923 और मृत्यु आषाढ़ कृष्ण 3, संवत् 1989 को हरद्वार में हुई। भारतेंदु के पीछे संवत् 1946 से ही ये ब्रजभाषा में कविता करने लगे थे। 'हिंडोला' आदि पुस्तकें इनकी बहुत पहले निकली थी। काव्यसंबंधिनी एक पत्रिका भी इन्होंने कुछ दिनों तक निकाली थी। इनकी कविता बड़े बड़े पुराने कवियों के टक्कर की होती थी। पुराने कवियों में भी इनकी सी सूझ और उक्तिवैचित्रय बहुत कम देखा जाता है। भाषा भी पुराने कवियों की भाषा से चुस्त और गठी हुई होती थी। ये साहित्य तथा ब्रजभाषा काव्य के बहुत बड़े मर्मज्ञ माने जाते थे।
इन्होंने 'हरिश्चंद्र', 'गंगावतरण' और 'उद्ध वशतक' नाम के तीन बहुत ही सुंदर प्रबंधकाव्य लिखे हैं। अंगरेज कवि पोप के समालोचना संबंधी प्रसिद्ध काव्य (ऐस्से आन क्रिटिसिज्म) का रोला छंदों में अच्छा अनुवाद इन्होंने किया है। फुटकल रचनाएँ तो इनकी बहुत अधिक हैं, श्रृंगार और वीर दोनों की। इनकी रचनाओं का बहुत बड़ा संग्रह 'रत्नाकर' के नाम से नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। 'गंगावतरण' में गंगा के आकाश से उतरने और शिव के उन्हें सँभालने के लिए सन्नद्ध होने का वर्णन बहुत ही ओजपूर्ण है। 'उद्ध वशतक' की मार्मिकता और रचनाकौशल भी अद्वितीय है। उसके दो कवित्व नीचे दिए जाते हैं ,
कान्ह दूत कैधाों ब्रह्मदूत ह्वै पधाारे आप,
धाारे प्रन फेरन को मति ब्रजवारी की।
कहै रतनाकर पै प्रीति रीति जानत ना,
ठानत अनीति आनि नीति ले अनारी की
मान्यो हम, कान्ह ब्रह्म एक ही, कह्यो जो तुम,
तौ हू हमैं भावति न भावना अन्यारी की।
जैहैं बनि बिगरि न वारिधिाता वारिधिा की,
बूँदता बिलैहैं बूंद बिबस बिचारी की

धारि राखौ ज्ञान गुन गौरव गुमान गोइ,
गोपिन को आवत न भावत भड़ंग है।
कहै रतनाकर करत टाँय टाँय बृथा,
सुनत न कोऊ यहाँ यह मुहचंग है
और हू उपाय केते सहज सुढंग, ऊधाौ!
साँस रोकिबे को कहा जोग ही कुढंग है?
कुटिल कटारी है, अटारी है उतंग अति,
जमुनातरंग है, तिहारो सतसंग है
23. राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' , कानपुर के 'पूर्णजी' की कविता भी ब्रजभाषा के पुराने कवियों का स्मरण दिलानेवाली होती थी। जब तक ये कानपुर में रहे तब तक कविता की चर्चा की बड़ी धूम रही। वहाँ के 'रसिकसमाज' में पुरानी परिपाटी के कवियों की बड़ी चहल पहल रहा करती थी। 'पूर्णजी' ने कुछ दिनों तक 'रसिकवाटिका' नाम की एक पत्रिका भी चलाई, जिसमें समस्यापूर्तियाँ और पुराने ढंग की कविताएँ छपा करती थीं। खेद है कि केवल सैंतालीस वर्ष की अवस्था में ही संवत् 1977 में इनका देहांत हो गया। इनकी रचना कैसी सरस होती थी और ललित पदावली पर इनका कैसा अच्छा अधिकार था, इसका अनुमान इनके 'धाराधारधाावन' (मेघदूत का अनुवाद) से उध्दृत इस पद से हो सकता है ,
नव कलित केसर वलित हरित सुपीत नीप निहार कै।
करि असन दल कदलीन जो कलियाहिं प्रथम कछार पै
हे घन! विपिन थल अमल परिमल पाय भूतल की भली।
मधुकर मतंग कुरंग बृंद जनायहैं तेरी गली
24. श्रीवियोगी हरि , ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और ब्रजपति के वे अनन्य उपासक हैं। ऐसे प्रेमी रसिक जीव इस रूखे जमाने में कम दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने अधिकतर पुराने कृष्णभक्त कवियों की पद्ध ति पर बहुत से रसीले तथा भक्तिभावपूर्ण पदों की रचना की है जिन्हें सुनकर आजकल के रसिक भक्त भी 'बलिहारी' हैं! बिना कहे नहीं रह सकते। इनकी इस प्रकार की रचनाएँ 'प्रेमशतक', 'प्रेमपथिक', 'प्रेमांजलि' आदि में मिलेंगी। छतरपुर से प्रयाग आने पर राजनीतिक आंदोलनों की भी कुछ हवा इन्हें लगी थी और इन्होंने 'चरखे की गूँज', 'चरखास्त्रोत', 'असहयोगवीणा' ऐसी कुछ रचनाएँ भी की थीं, पर उनमें इनकी स्थायी मनोवृत्ति न थी। यह अवश्य है कि देश के लिए त्याग करने वाले वीरों के प्रति इनके मन में अपार श्रध्दा है। वियोगी हरिजी ने 'वीरसतसई' नामक एक बड़ा काव्य दोहों में लिखा है जिसमें भारत के प्रसिद्ध वीरों की प्रशस्तियाँ हैं। इस ग्रंथ पर इन्हें प्रयाग के हिन्दी साहित्य सम्मेलन से 1200 रुपये का पुरस्कार मिला था। इसके कुछ दोहे देखिए ,
पावस ही में धानुष अब, नदी तीर ही तीर।
रोदन ही में लाल दृग, नवरस ही में वीर
जोरि नाँव सँग 'सिंह' पद करत सिंह बदनाम।
ह्वैहो कैसे सिंह तुम करि सृगाल के काम?
या तेरी तरवार में नहिं कायर अब आब।
दिल हू तेरो बुझि गयो, वामें नेक न ताब
25. श्री दुलारेलालजी भार्गव , कविवर बिहारी लाल की परंपरा के वर्तमान प्रतिनिधि श्री भार्गव के दोहों की बारीकी साहित्य क्षेत्र में अपना कमाल खड़ी बोली के इस जमाने में भी दिखाती रहती है। बिहारी की प्रतिभा जिस ढाँचे की थी उसी ढाँचे की दुलारेलालजी की भी है, इसमें संदेह नहीं। एक एक दोहे में सफाई के साथ रस के स्निग्ध वाग्वैचित्रय से चमत्कृत कर देनेवाली, प्रचुर सामग्री भरने का गुण इनमें भी है। कुछ दोहों में देशभक्ति, अछूतोध्दार, राष्ट्रीय आंदोलन इत्यादि की भावना का अनूठेपन के साथ समावेश करके इन्होंने पुराने साँचे में नया मसाला ढालने की अच्छी कला दिखाई है। आधुनिक काव्यक्षेत्र में दुलारेलालजी ने ब्रजभाषाकाव्य चमत्कारपद्ध ति का एक प्रकार से पुनरुध्दार किया है। इनकी 'दुलारे दोहावली' पर टीकमगढ़ राज्य की ओर से 2000 रुपये का 'देवपुरस्कार' मिल चुका है। 'दोहावली' के कुछ दोहे देखिए ,
तन उपवन सहिहै कहा बिछुरन झंझावात।
उड़यो जात उर तरु जबै चलिबे ही की बात
दमकति दरपन दरप दरि दीपसिखा दुति देह।
वह दृढ़ इक दिसि दिपत यह मृदु दस दिसनि सनेह
झर सम दीजै देस हित झरझर जीवन दान।
रुकि रुकि यों चरसा सरिस दैबौ कहा, सुजान?
गाँधाी गुरु तें ज्ञान लै चरखा अनहद जोर।
भारत सबद तरंग पै बहत मुकुति की ओर
अभी थोड़े दिन हुए अयोध्या के पं. रामनाथ ज्योतिषी ने रामकथा लेकर अपना'रामचंद्रोदय काव्य' लिखा है जिसपर उन्हें 2000 रुपये का 'देवपुरस्कार' मिलाहै।
आधुनिक विषयों को लेकर कविता करने वाले कई कवि, जैसे , स्वर्गीय नाथूराम शंकर शर्मा, लाला भगवानदीन पुरानी परिपाटी की बड़ी सुंदर कविता करते थे। पं गयाप्रसादजी शुक्ल 'सनेही' के प्रभाव से कानपुर में ब्रजभाषा काव्य के मधुर स्रोतअभी बराबर वैसे ही चल रहे हैं, जैसे 'पूर्ण' जी के समय में चलते थे। नई -पुरानी दोनों परिपाटियों के कवियों का कानपुर अच्छा केंद्र है। ब्रजभाषा काव्य परंपरा किस प्रकार जीती जागती चल रही है, यह हमारे वर्तमान कवि सम्मेलनों में देखा जा सकता है।

 

 

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