काव्यखंड (संवत्
1975)
प्रकरण 4
नई धारा : तृतीय उत्थान : वर्तमान
काव्यधाराएँ
द्वितीय उत्थान के समाप्त होते होते खड़ी बोली में बहुत कुछ कविता हो चुकी
थी। इन 25-30 वर्षों के भीतर वह बहुत कुछ मँजी, इसमें संदेह नहीं, पर इतनी
नहीं जितनी उर्दू काव्य क्षेत्र के भीतर जाकर मँजी है। जैसा पहले कह चुके
हैं, हिन्दी में खड़ी बोली के पद्यप्रवाह के लिए तीन रास्ते खोले गए , उर्दू
या फारसी की बÐों का, संस्कृत के वृत्तों का और हिन्दी के छंदों का। इनमें
से प्रथम मार्ग का अवलंबन तो मैं नैराश्य या आलस्य समझता हूँ। वह हिन्दी
काव्य का निकालाहुआ अपना मार्ग नहीं। अत: शेष दो मार्गों का ही थोड़े में
विचार किया जाता है।
इसमें तो कोई संदेह नहीं कि संस्कृत के वर्णवृत्तों का माधुर्य अन्यत्रा
दुर्लभ है, पर उनमें भाषा इतनी जकड़ जाती है कि वह भावधारा के मेल में पूरी
तरह से स्वच्छंद होकर नहीं चल सकती। इसी से संस्कृत के लंबे समासों का बहुत
कुछ सहारा लेना पड़ता है। पर संस्कृत पदावली के अधिक समावेश से खड़ी बोली की
स्वाभाविक गति के प्रसार के लिए अवकाश कम रहता है। अत: वर्णवृत्तों का थोड़ा
बहुत उपयोग किसी बड़े प्रबंध के भीतर बीच में ही उपयुक्त हो सकता है।
तात्पर्य यह कि संस्कृत पदावली का अधिक आश्रय लेने से खड़ी बोली के मँजने की
संभावना दूर ही रहेगी।
हिन्दी के सब तरह के प्रचलित छंदों में खड़ी बोली की स्वाभाविक वाग्धारा का
अच्छी तरह खपने के योग्य हो जाना ही उनका मँजना कहा जाएगा। हिन्दी के
प्रचलित छंदों में दंडक और सवैया भी हैं। सवैया यद्यपि वर्णवृत्त है, पर लय
के अनुसार लघुगुरु का बंधान उसमें बहुत कुछ उसी प्रकार शिथिल हो जाता है
जिस प्रकार उर्दू के छंदों में। मात्रिाक छंदों में तो कोई अड़चन ही नहीं
है। प्रचलित मात्रिाक छंदों के अतिरिक्त कविजन इच्छानुसार नए छंदों का
विधान भी बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं।
खड़ी बोली की कविताओं की उत्तरोत्तर गति की ओर दृष्टिपात करने से यह पता चल
जाता है कि किस प्रकार ऊपर लिखी बातों की ओर लोगों का ध्यान क्रमश: गया है
और जा रहा है। बाबू मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में चलती हुई खड़ी बोली का
परिमार्जित और सुव्यवस्थित रूप गीतिका आदि हिन्दी के प्रचलित छंदों में तथा
नए गढ़े हुए छंदों में पूर्णतया देखने में आया। ठाकुर गोपालशरण सिंहजी
कवित्तों और सवैयों में खड़ी बोली का बहुत ही मँजा हुआ रूप सामने ला रहे
हैं। उनकी रचनाओं को देखकर खड़ी बोली के मँज जाने की पूरी आशा होती है।
खड़ी बोली का पूर्ण सौष्ठव के साथ मँजना तभी कहा जाएगा जबकि पद्यों में उसकी
अपनी गतिविधि का पूरा समावेश हो और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ
बैठेंं। भाषा का इस रूप में परिमार्जन उन्हीं के द्वारा हो सकता है जिनका
हिन्दी पर पूरा अधिकार है, जिन्हें उसकी प्रकृति की पूरी परख है। पर जिस
प्रकार बाबू मैथिलीशरण गुप्त और ठाकुर गोपालशरण सिंहजी ऐसे कवियों की लेखनी
से खड़ी बोली को मँजते देख आशा का पूर्ण संचार होता है उसी प्रकार कुछ ऐसे
लोगों को जिन्होंने अध्ययन या शिष्ट समागम द्वारा भाषा पर पूरा अधिकार नहीं
प्राप्त किया है, संस्कृत की विकीर्ण पदावली के भरोसे पर या अंग्रेजी
पद्यों के वाक्यखंडों के शब्दानुवाद जोड़ जोड़ कर, हिन्दी कविता के नए मैदान
में उतरते देख आशंका भी होती है। ऐसे लोग हिन्दी जानने या उसका अभ्यास करने
की जरूरत नहीं समझते। पर हिन्दी भी एक भाषा है, जो आते आते आती है। भाषा
बिना अच्छी तरह जाने वाक्यविन्यास, मुहावरे आदि कैसे ठीक हो सकते हैं?
नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने
बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि 'तुले हुए शब्दों में कविता करने और
तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचारस्वातंत्रय में बाधा आती है।'
नए नए छंदों की योजना के संबंध में हमें कुछ नहीं कहना है। यह बहुत अच्छी
बात है। 'तुक' भी कोई ऐसी अनिवार्य वस्तु नहीं। चरणों के भिन्न भिन्न
प्रकार के मेल चाहे जितने किए जायँ, ठीक हैं। पर इधर कुछ दिनों से बिना छंद
(मीटर) के पद्य भी , बिना तुकांत के होना तो बहुत ध्यान देने की बात नहीं ,
निरालाजी ऐसे नई रंगत के कवियों में देखने में आते हैं। यह अमेरिका के एक
कवि वाल्ट ह्निटमैन ;ँसज ॅीपजउंदद्ध की नकल है, जो पहले बँग्ला में थोड़ी
बहुत हुई। बिना किसी प्रकार की छंदोव्यवस्था की अपनी पहली रचना 'लीव्स ऑफ
ग्रास' उसने सन् 1855 ई. में प्रकाशित की। उसके उपरांत और भी बहुत सी
रचनाएँ इसी प्रकार की मुक्त या स्वच्छंद पंक्तियों में निकलीं, जिनके संबंध
में एक समालोचक ने लिखाहै ,
ष्ष्। बींवे व िपउचतमेपवदेए जीवनहीज व िमिमसपदहे जीतवूद जवहमजीमत ूपजीवनज
तीलउमए ूीपबी उंजजमते सपजजसमए ूपजीवनज उमजतमए ूीपबी उंजजमते उवतम ंदक वजिमद
ूपजीवनज तमेंवदए ूीपबी उंजजमते उनबीण्ष्ष्1
सारांश यह कि उसकी ऐसी रचनाओं में छंदोव्यवस्था का ही नहीं, बुद्धि तत्व का
भी प्राय: अभाव है। उसकी वे ही कविताएँ अच्छी मानी और पढ़ी गईं जिनमें छंद
और तुकांत की व्यवस्था थी।
पद्यव्यवस्था से मुक्त काव्यरचना वास्तव में पाश्चात्य ढंग के गीतकाव्यों
के अनुकरण का परिणाम है। हमारे यहाँ के संगीत में बँधी हुई राग रागनियाँ
हैं। पर योरप में संगीत के बड़े बड़े उस्ताद (कंपोजर्स) अपनी अलग अलग
नादयोजना या स्वरमैत्राी चलाया करते हैं। उस ढंग का अनुकरण पहले बंगाल में
हुआ। वहाँ की देखादेखी हिन्दी में भी चलाया गया। 'निरालाजी' का तो इनकी ओर
प्रधान लक्ष्य रहा। हमारा इस संबंध में यही कहना है कि काव्य का प्रभाव
केवल नाद पर अवलंबित नहीं।
छंदों के अतिरिक्त वस्तुविधान और अभिव्यंजनशैली में भी कई प्रकार की
प्रवृत्तियाँ इस तृतीय उत्थान में प्रकट हुईं जिससे अनेकरूपता की ओर हमारा
काव्य कुछ बढ़ता दिखाई पड़ा। किसी वस्तु में अनेकरूपता आना विकास का लक्षण
है, यदि अनेकता के भीतर एकता का कोई एक सूत्र बराबर बना रहे। इस समन्वय से
रहित जो अनेकरूपता होगी यह भिन्न भिन्न वस्तुओं की होगी, एक ही वस्तु की
नहीं। अत: काव्यत्व यदि बना रहे तो काव्य का अनेक रूप-धारण करके भिन्न
भिन्न शाखाओं में प्रवाहित होना उसका विकास ही कहा जाएगा। काव्य के भिन्न
भिन्न रूप एक दूसरे के आगे पीछे भी आविर्भूत हो सकते हैं और साथ साथ भी
निकल और चल सकते हैं। पीछे आविर्भूत होनेवाला रूप पहले से चले आते हुए रूप
से अवश्य ही श्रेष्ठ या समुन्नत हो, ऐसा कोई नियम काव्यक्षेत्र में नहीं
है। अनेक रूपों की धारणा करनेवाला तत्व यदि एक है तो शिक्षित जनता की बाह्य
और आभ्यंतर स्थिति के साथ सामंजस्य के लिए काव्य अपना रूप भी कुछ बदल सकता
है और रुचि की विभिन्नता का अनुसरण करता हुआ एक साथ कई रूपों में भी चल
सकता है।
प्रथम उत्थान के भीतर हम देख चुके हैं कि किस प्रकार काव्य को भी देश की
बदलती हुई स्थिति और मनोवृत्ति के मेल में लाने के लिए भारतेंदु मंडल ने
कुछ प्रयत्न किया पर यह प्रयत्न केवल सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की ओर
हृदय को थोड़ा प्रवृत्त करके रह गया। राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं को व्यक्त
करनेवाली वाणी भी दबी सी रही। उसमें न तो संकल्प की दृढ़ता और न्याय के
आग्रह का जोश था, न उलटफेर की प्रबल कामना का वेग। स्वदेश प्रेम व्यंजित
करनेवाला यह स्वर अवसाद और खिन्नता का स्वर था, आवेश और उत्साह का नहीं।
उसमें अतीत के गौरव का स्मरण और वर्तमान Ðास का वेदनापूर्ण अनुभव ही स्पष्ट
था। अभिप्राय यह कि यह प्रेम जगाया तो गया, पर कुछ नया नया सा होने के कारण
उस समय काव्यभूमि पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित न हो सका।
कुछ नूतन भावनाओं के समावेश के अतिरिक्त काव्य की परंपरागत पद्ध ति में
किसी प्रकार का परिवर्तन भारतेंदुकाल में न हुआ। भाषा ब्रजभाषा ही रहने दी
गई और उसकी अभिव्यंजनाशक्ति का कुछ विशेष प्रसार न हुआ। काव्य को बँधी हुई
प्रणालियों से बाहर निकाल कर जगत् और जीवन के विविधा पक्षों की मार्मिकता
झलकाने वाली धाराओं में प्रवाहित करने की प्रवृत्ति भी न दिखाई पड़ी।
द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ साथ चलकर खड़ी बोली क्रमश:
अग्रसर होने लगी; यहाँ तक कि नई पीढ़ी के कवियों को उसी का समय दिखाईपड़ा।
स्वदेशगौरव और स्वदेशप्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गई थी उसका
अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुआ और 'भारत भारती' ऐसी पुस्तक निकली। इस
भावना का प्रसार तो हुआ पर इसकी अभिव्यंजना में प्रातिभ प्रगल्भता न
दिखाईपड़ी।
शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो, पर काव्यभूमि का प्रसार
अवश्य हुआ। प्रसार और सुधार की जो चर्चा नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के
समय से ही रह रहकर थोड़ी बहुत होती आ रही थी वह 'सरस्वती' निकलने के साथ ही
कुछ अधिक ब्योरे के साथ हुई। उस पत्रिका के प्रथम दो तीन वर्षों के भीतर ही
ऐसे लेख निकले जिनमें साफ कहा गया है कि अब नायिका भेद और श्रृंगार में ही
बँधो रहने का जमाना नहीं है, संसार में न जाने कितनी बातें हैं जिन्हें
लेकर कवि चल सकते हैं। इस बात पर द्विवेदीजी बराबर जोर देते रहे और कहते
रहे कि 'कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी
आघात होता है।' द्विवेदीजी 'सरस्वती' के संपादन काल में कविता में नयापन
लाने के बराबर इच्छुक रहे। नयापन आने के लिए वे नएनए विषयोंका नयापन या
नानात्व प्रधान समझते रहे और छंद, पदावली, अलंकार आदि का नयापन उसका
अनुगामी। रीतिकाल की श्रृंगारी कविता की ओर लक्ष्य करके उन्होंने लिखा ,
इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके
जिन्हाेंने इस विषय पर न मालूम क्या क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि
अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं; वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही
उपमा, वही रूपक! इसपर भी लोग पुरानी लकीर बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त,
सवैये, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते।
द्वितीय उत्थान के भीतर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार काव्यक्षेत्र का
विस्तार बढ़ा, बहुत से नए नए विषय लिए गए और बहुत से कवि कवित्त, सवैये
लिखने से बाज आकर संस्कृत के अनेक वृत्तों में रचना करने लगे। रचनाएँ चाहे
अधिकतर साधारण गद्यनिबंधों के रूप में ही हुई हों, पर प्रवृत्ति अनेक
विषयों की ओर रही, इसमें संदेह नहीं। उसी द्वितीय उत्थान में स्वतंत्र
वर्णन के लिए मनुष्येतर प्रकृति को कवि लोग लेने लगे पर अधिकतर उसके ऊपरी
प्रभाव तक ही रहे। उसके रूप, व्यापार कैसे सुखद, सजीले और सुहावने लगते
हैं, अधिकतर यही देख दिखाकर उन्होंने संतोष किया। चिर साहचर्य से उत्पन्न
उनके प्रति हमारा राग व्यंजित न हुआ। उनके बीच मनुष्य जीवन को रखकर उसके
प्रकृत स्वरूप पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली गई। रहस्यमयी सत्ता के
अक्षरप्रसार के भीतर व्यंजित भावों और मार्मिक तथ्यों के साक्षात्कार तथा
प्रत्यक्षीकरण की ओर झुकाव न देखने में आया। इसी प्रकार विश्व के अत्यंत
सूक्ष्म और अत्यंत महान् विधानों के बीच जहाँ तक हमारा ज्ञान पहुँचा है
वहाँ तक हृदय को भी पहुँचाने का कुछ प्रयास होना चाहिए था, पर न हुआ।
द्वितीय उत्थानकाल का अधिकांश भाग खड़ी बोली को भिन्न भिन्न प्रकार के
पद्यों में ढालने में ही लगा।
तृतीय उत्थान में आकर खड़ी बोली के भीतर काव्यत्व का अच्छा स्फुरण हुआ। जिस
देशप्रेम को लेकर काव्य की नूतन धारा भारतेंदुकाल में चली थी वह उत्तरोत्तर
प्रबल और व्यापक रूप धारण करता आया। शासन की अव्यवस्था और अशांति के उपरांत
अंग्रेजी के शांतिमय और रक्षापूर्ण शासन की प्रति कृतज्ञता का भाव
भारतेंदुकाल में बना हुआ था। इससे उस समय की देशभक्ति संबंधी कविताओं में
राजभक्ति का स्वर भी प्राय: मिला पाया जाता है। देश की दुखदशा का प्रधान
कारण राजनीतिक समझते हुए भी उस दुखदशा में उध्दार के लिए कवि लोग दयामय
भगवान को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं कहीं उद्योग धांधाों को न बढ़ाने,
आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिए वे
देशवासियों को भी कोसते पाए जाते हैं। सरकार पर रोष या असंतोष की व्यंजना
उनमें नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरांत भी बहुत दिनों तक
देशभक्ति की वाणी में विशेष बल और वेग न दिखाई पड़ा। बात यह थी कि राजनीति
की लंबी चौड़ी चर्चा साल भर में एक बार धूमधाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े
आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव
नहीं देखने में आता था। अत: द्विवेदीकाल की देशभक्ति संबंधी रचनाओं में
शासनपद्ध ति के प्रति असंतोष तो व्यंजित होता था पर कर्म में तत्पर कराने
का, आत्मत्याग करनेवाला जोश और उत्साह न था। आंदोलन भी कड़ी याचना के आगे
नहीं बढ़े थे।
तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई। आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण
किया और गाँव गाँव में राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना
जगाई गई। सरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को
ही 'स्वतंत्रता देवी की वेदी पर बलिदान' होने को प्रोत्साहित करने लगी। अब
जो आंदोलन चले वे सामान्य जनसमुदायों को भी साथ लेकर चले। इससे उनके भीतर
अधिक आवेश और बल का संचार हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आंदोलन संसार के और
भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक
सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए। वर्तमान सभ्यता और लोक की घोर
आर्थिक विषमता से जो असंतोष का ऊँचा स्वर पच्छिम में उठा उसकी गूँज यहाँ भी
पहुँची। दूसरे देशों का धान खींचने के लिए योरप में महायंत्राप्रवर्तन का
जो क्रम चला उससे पूँजी लगाने वाले थोड़े से लोगों के पास तो अपार धानराशि
इकट्ठी होने लगी पर अधिकांश श्रमजीवी जनता के लिए भोजन, वस्त्र मिलना भी
कठिन हो गया। अत: एक ओर तो योरप में मशीन की सभ्यता के विरुद्ध टालस्टाय की
धर्मबुद्धि जगानेवाली वाणी सुनाई पड़ी जिसका भारतीय अनुवाद गाँधाीजी ने
किया; दूसरी ओर इस घोर आर्थिक विषमता की ओर प्रतिक्रिया के रूप में
साम्यवाद और समाजवाद नामक सिध्दांत चले जिन्होंने रूस में अत्यंत उग्र रूप
धारण करके भारी उलटफेर कर दिया।
अब संसार के प्राय: सारे सभ्य भाग एक दूसरे के लिए खुले हुए हैं। इससे एक
भूखंड में उठी हुई हवाएँ दूसरे भूखंड में शिक्षित वर्गों तक तो अवश्य ही
पहुँच जाती हैं। यदि उनका सामंजस्य दूसरे भूखंड की परिस्थिति के साथ हो
जाता है तो उस परिस्थिति के अनुरूप शक्तिशाली आंदोलन चल पड़ते हैं। इसी नियम
के अनुसार शोषक साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त यहाँ
भी किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलन, अछूत आंदोलन इत्यादि कई आंदोलन एक विराट्
परिवर्तनवाद के नाना व्यावहारिक अंगों के रूप में चले। श्री रामधाारीसिंह
'दिनकर', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी आदि कई कवियों की वाणी
द्वारा ये भिन्न भिन्न प्रकार के आंदोलन प्रतिध्वनित हुए। ऐसे समय में कुछ
ऐसे भी आंदोलन दूसरे देशों की देखादेखी खड़े होते हैं जिनकी नौबत वास्तव में
नहीं आई रहती। योरप में जब देश बड़े बड़े कल कारखानों से भर गए हैं और जनता
का बहुत सा भाग उसमें लग गया है तब मजदूर आंदोलन की नौबत आई है। यहाँ अभी
कल कारखाने केवल चल खड़े हुए हैं और उनमें काम करने वाले थोड़े से मजदूरों की
दशा खेत में काम करने वाले करोड़ों अच्छे अच्छे किसानों की दशा से कहीं
अच्छी है। पर मजदूर आंदोलन साथ लग गया। जो कुछ हो, इन आंदोलनों का तीव्र
स्वर हमारी काव्यवाणी में सम्मिलित हुआ।
जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिए पुकार सुनाई पड़ती है
तब परिवर्तन एक 'वाद' का व्यापक रूप धारण करता है और बहुतों के लिए सब
क्षेत्रों में स्वत: एक चरम साधय बन जाता है। 'क्रांति' के नाम से परिवर्तन
की प्रबल कामना हमारे हिन्दी काव्य क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के
साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के
दर्शन की उत्कंठा भी प्रकट हुई। सब बातों में परिवर्तन ही परिवर्तन की यह
कामना कहाँ तक वर्तमान परिस्थिति के स्वंतत्रा पर्यालोचन का परिणाम है और
कहाँ तक केवल अनुकृत है, नहीं कहा जा सकता है। इतना अवश्य दिखाई पड़ता है कि
इस परिवर्तनवाद के प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक हो जाने से जगत और जीवन के
स्वरूप की यह अनुभूति ऐसे कवियों में कम जग पाएगी जिसकी व्यंजना काव्य को
दीर्घायु प्रदान करती है।
यह तो हुई काल के प्रभाव की बात। थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि चली आती हुई
काव्यपरंपरा की शैली से अतृप्ति या असंतोष के कारण परिवर्तन की कामना कहाँ
तक जगी और उसकी अभिव्यक्ति किन किन रूपों में हुई। भक्तिकाल और रीतिकाल की
चली आती हुई परंपरा के अंत में किस प्रकार भारतेंदुमंडल के प्रभाव से
देशप्रेम और जातिगौरव की भावना को लेकर एक नूतन परंपरा की प्रतिष्ठा हुई,
इसका उल्लेख हो चुका है। द्वितीय उत्थान में काव्य की नूतन परंपरा का अनेक
विषयस्पर्शी प्रसार अवश्य हुआ पर द्विवेदीजी के प्रभाव से एक ओर उसमें भाषा
की सफाई आई, दूसरी ओर उसका स्वरूप गद्यवत, रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर
बाह्यार्थ निरूपक हो गया। अत: इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और
पीछे 'छायावाद' कहलाया वह उसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा
सकता है। उसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं।
अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल
भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा।
द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करनेवाली दोनों बातों की
कमी दिखाई पड़ती थी, कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीका रहता था और हृदय का
वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था। इन बातों की कमी परंपरागत ब्रजभाषा
काव्य का आनंद लेनेवालों को भी मालूम होती थी और बँग्ला या अंग्रेजी कविता
का परिचय करनेवालों को भी। अत: खड़ी बोली की कविता में पदलालित्य, कल्पना की
उड़ान, भाव की वेगवती व्यंजना, वेदना की विवृत्ति, शब्द प्रयोग की विचित्रता
इत्यादि अनेक बातें देखने की आकांक्षा बढ़ती गई।
सुधार चाहने वालों में कुछ लोग नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त खड़ी बोली की
कविता को ब्रजभाषा काव्य की सी ललित पदावली तथा रसात्मकता और मार्मिकता से
समन्वित देखना चाहते थे। जो अंग्रेजी या अंग्रेजी के ढंग पर चली हुई बँग्ला
की कविताओं से प्रभावित थे वे कुछ लाक्षणिक वैचित्रय, व्यंजक चित्रविन्यास
और रुचिर अन्योक्तियाँ देखना चाहते थे। श्री पारसनाथ सिंह के किए हुए
बँग्ला कविताओं के हिन्दी अनुवाद 'सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में संवत् 1967
(सन् 1910) से ही निकलने लगे थे। ग्रे, वड्र्सवर्थ आदि अंग्रेजी कवियों की
रचनाओं के कुछ अनुवाद भी (जैसे जीतन सिंह द्वारा अनूदित वड्र्सवर्थ का
'कोकिल') निकले। अत: खड़ी बोली की कविता जिस रूप में चल रही थी उससे संतुष्ट
न रहकर द्वितीय उत्थान के समाप्त होने से कुछ पहले ही कई कवि खड़ी बोली
काव्य को कल्पना का नया रूप रंग देने और उसे अधिक अंतर्भाव व्यंजक बनाने
में प्रवृत्त हुए जिनमें प्रधान थे सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधार
पांडेय और बदरीनाथ भट्ट। कुछ अंग्रेजी ढर्रा लिए हुए जिस प्रकार की फुटकल
कविताएँ और प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) बँग्ला में निकल रहे थे, उनके प्रभाव
से कुछ विशृंखल वस्तुविन्यास और अनूठे शीर्षकों के साथ चित्रमयी, कोमल और
व्यंजक भाषा में इनकी नए ढंग की रचनाएँ संवत्1970-71 से ही निकलने लगी थीं
जिनमें से कुछ के भीतर रहस्य भावना भी रहतीथी।
1. मैथिलीशरण गुप्त , गुप्तजी की 'नक्षत्रानिपात' (सन् 1914), अनुरोध
(सन्1915), पुष्पांजलि (सन् 1917), स्वयं आगत (सन् 1918) इत्यादि कविताएँ
ध्यान देने योग्य हैं। 'पुष्पांजलि' और 'स्वयं आगत' की कुछ पंक्तियाँ आगे
देखिए ,
(क) मेरे ऑंगन का एक फूल।
सौभाग्य भाव से मिला हुआ,
श्वासोच्छ्वासन से हिला हुआ,
संसार विटप से खिला हुआ,
झड़ पड़ा अचानक झूल झूल।
(ख) तेरे घर के द्वार बहुत हैं किससे होकर आऊँ मैं?
सब द्वारों पर भीड़ बड़ी है कैसे भीतर जाऊँ मैं!
इसी प्रकार गुप्तजी की और भी बहुत-सी गीतात्मक रचनाएँ हैं, जैसे ,
(ग) निकल रही है उर से आह,
ताक रहे सब तेरी राह।
चातक खड़ा चोंच खोले है, सम्पुट खोले सीप खड़ी,
मैं अपना घट लिये खड़ा हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी।
(घ) प्यारे! तेरे कहने से जो यहाँ अचानक मैं आया,
दीप्ति बढ़ी दीपों की सहसा, मैंने भी ली साँस कहा।
सो जाने के लिए जगत का यह प्रकाश है जाग रहा,
किंतु उसी बुझते प्रकाश में डूब उठा मैं और बहा।
निरुद्देश नख रेखाओं में देखी तेरी मूर्ति; अहा
2. मुकुटधर पांडेय , गुप्त जी तो, जैसा पहले कहा जा चुका है, किसी विशेष
पद्ध ति या 'वाद' में न बँधाकर कई पद्ध तियों पर अब तक चले आ रहे हैं। पर
मुकुटधार जी बराबर नूतन पद्ध ति ही पर चले। उनकी इस ढंग की प्रारंभिक
रचनाओं में 'ऑंसू', 'उद्गार' इत्यादि ध्यान देने योग्य हैं। कुछ नमूने
देखिए ,
(क) हुआ प्रकाश तमोमय मग में,
मिला मुझे तू तत्क्षण जग में,
दंपति के मधुमय विलास में,
शिशु के स्वप्नोत्पन्न हास में,
वन्य कुसुम के शुचि सुवास में,
था तव क्रीड़ा स्थान
(1917)
(ख) मेरे जीवन की लघु तरणी,
ऑंखों के पानी में तर जा।
मेरे उर का छिपा खजाना,
अहंकार का भाव पुराना,
बना आज तू मुझे दिवाना,
तप्त श्वेत बूँदों में ढर जा
(1917)
(ग) जब संधया को हट जावेगी भीड़ महान्,
तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगा निज गान।
शून्य कक्ष के अथवा कोने में ही एक,
बैठ तुम्हारा करूँ वहाँ नीरव अभिषेक
(1910)
3. पं. बदरीनाथ भट्ट , भट्टजी भी सन् 1911 के पहले से भी भावव्यंजक और
अनूठे गीत रचते आ रहे थे। दो पंक्तियाँ देखिए ,
दे रहा दीपक जलकर फूल,
रोपी उज्ज्वल प्रभा पताका अंधकार हिय हूल।
4. श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , बख्शीजी के भी इस ढंग के कुछ गीत सन्
1915-16 के आसपास मिलेंगे।
ये कवि जगत् और जीवन के विस्तृत क्षेत्र के बीच नई कविता का संचार चाहते
थे। ये प्रकृति के साधारण, असाधारण, सब रूपों पर प्रेमदृष्टि डालकर, उसके
रहस्यभरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को अधिक चित्रमय, सजीव और मार्मिक
रूप देकर कविता का एक अकृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाल रहे थे। भक्तिक्षेत्र
में उपास्य की एकदेशीय या धर्मविशेष में प्रतिष्ठित भावना के स्थान पर
सार्वभौम भावना की ओर बढ़ रहे थे जिसमें सुंदर रहयात्मक संकेत भी रहते थे।
अत: हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को , विशेषत: श्री
मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधार पांडेय को , समझना चाहिए। इस दृष्टि से
छायावाद का रूप रंग खड़ा करने वाले कवियों के संबंध में अंग्रेजी या बँग्ला
की समीक्षाओं से उठती हुई इस प्रकार की पदावली का कोई अर्थ नहीं कि 'इन
कवियों के मन में एक ऑंधाी उठ रही थी जिसमें आंदोलित होते हुए वे उड़े जा
रहे थे; एक नूतन वेदना की छटपटाहट थी जिसमें सुख की मीठी अनुभूति भी लुकी
हुई थी; रूढ़ियों के भार से दबी हुई युग की आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिए
हाथ पैर मार रही थी।' न कोई ऑंधाी थी, न तूफान, न कोई नई कसक थी, न वेदना,
न प्राप्त युग की नाना परिस्थितियों का हृदय पर कोई नया आघात था, न उसका
आहत नाद। इन बातों का कुछ अर्थ तब हो सकता था जब काव्य का प्रवाह ऐसी
भूमियों की ओर मुड़ता जिनपर ध्यान न दिया गया रहा होता। छायावाद के पहले नए
नए मार्मिक विषयों की ओर हिन्दी कविता प्रवृत्त होती आ रही थी। कसर थी तो
आवश्यक और व्यंजक शैली की, कल्पना और संवेदना के अधिक योग की। तात्पर्य यह
कि छायावाद जिस आकांक्षा का परिणाम था उसका लक्ष्य केवल अभिव्यंजना की रोचक
प्रणाली का विकास था जो धीरे धीरे अपने स्वतंत्र ढर्रे पर श्री मैथिलीशरण
गुप्त, श्री मुकुटधार पांडेय आदि के द्वारा हो रहा था।
गुप्तजी और मुकुटधार पांडेय आदि के द्वारा स्वच्छंद नूतन धारा चली ही थी कि
श्री रवींद्रनाथ ठाकुर की उन कविताओं की धूम हुई जो अधिकतर पाश्चात्य ढाँचे
का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थी। परंतु ईसाई संतों के छायाभास
(फैंटसमाटा) तथा योरोपीय काव्यक्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद
(सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बँग्ला में ऐसी कविताएँ
'छायावाद' कही जाने लगी थीं। यह 'वाद' क्या प्रकट हुआ, एक बने बनाए रास्ते
का दरवाजा सा खुल पड़ा और हिन्दी के कुछ नए कवि उधर एकबारगी झुक पड़े। यह
अपना क्रमश: बनाया हुआ रास्ता नहीं था। इसका दूसरे साहित्यक्षेत्र में
प्रकट होना, कई कवियों का इसपर एक साथ चल पड़ना और कुछ दिनों तक इसके भीतर
अंग्रेजी और बँग्ला की पदावली का जगह जगह ज्यों का त्यों अनुवाद रखा जाना,
ये बातें मार्ग की स्वतंत्र उद्भावना नहीं सूचित करतीं।
'छायावाद' नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता,
अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्रय, वस्तुविन्यास की विशृंखलता, चित्रमयी
भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साधय मानकर चले। शैली की इन विशेषताओं की
दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी
दृष्टि न रही। विभावपक्ष या तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया। इस प्रकार
प्रसारणोन्मुख काव्यक्षेत्र बहुत कुछ संकुचित हो गया। असीम और अज्ञात
प्रियतम के प्रति अत्यंत चित्रमयी भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों
तक ही काव्य की गतिविधि प्राय: बँधा गई। हृत्तांत्राी की झंकार, नीरव
संदेश, अभिसार, अनंत प्रतीक्षा, प्रियतम का दबे पाँव आना, ऑंखमिचौली, मद
में झूमना, विभोर होना इत्यादि के साथ साथ शराब, प्याला, साकी आदि सूफी
कवियों के पुराने सामान भी इकट्ठे किए गए। कुछ हेर फेर के साथ वही बँधी
पदावली, वेदना का वही प्रकांड प्रदर्शन, कुछ विशृंखलता के साथ प्राय: सब
कविताओं में मिलने लगा।
अज्ञेय और अव्यक्त को अज्ञेय और अव्यक्त ही रखकर कामवासना के शब्दों में
प्रेमव्यंजना भारतीय काव्यधारा में कभी नहीं चली, यह स्पष्ट बात 'हमारे
यहाँ यह भी था, वह भी था', की प्रवृत्तिवालों को अच्छी नहीं लगती। इससे
खिन्न होकर वे उपनिषद् से लेकर तंत्र और योगमार्ग तक की दौड़ लगाते हैं।
उपनिषद् में आए हुए आत्मा के पूर्ण आनंदस्वरूप के निर्देश, ब्रह्मानंद की
अपरिमेयता को समझाने के लिए स्त्री पुरुष संबंधवाले दृष्टांत या उपमाएँ,
योग के सहòदल कमल आदि की भावना को बीच बीच में वे बड़े संतोष के साथ उध्दृत
करते हैं। यह सब करने के पहले उन्हें समझना चाहिए कि जो बात ऊपर कही गई है
उसका तात्पर्य क्या है? यह कौन कहता है कि मत मतांतरों की साधना के क्षेत्र
में रहस्यमार्ग नहीं चले? योग रहस्यमार्ग है; तंत्र रहस्यमार्ग है; रसायन
भी रहस्यमार्ग है। पर ये सब साधनात्मक हैं; प्रकृत भावभूमि या काव्यभूमि के
भीतर चले हुए मार्ग नहीं। भारतीय परंपरा का कोई कवि मणिपूर, अनाहत आदि के
चक्रों को लेकर तरह तरह के रंगमहल बनाने में प्रवृत्त नहीं हुआ।
संहिताओं में तो अनेक प्रकार की बातों का संग्रह है। उपनिषदों में ब्रह्म
और जगत् आत्मा और परमात्मा के संबंध में कई प्रकार के मत हैं। वे
काव्यग्रंथ नहीं हैं। उनमें इधर उधर काव्य का जो स्वरूप मिलता है वह
ऐतिह्य, कर्मकांड, दार्शनिक चिंतन, सांप्रदायिक गुह्य साधना, मंत्रतंत्र,
जादू टोना इत्यादि बहुत सी बातों में उलझा हुआ है। विशुद्ध काव्य का निखरा
हुआ स्वरूप पीछे अलग हुआ। रामायण का आदिकाव्य कहलाना साफ यही सूचित करता
है। संहिताओं और उपनिषदों को कभी किसी ने काव्य नहीं कहा। अब सीधा सवाल यह
रह गया कि क्या वाल्मीकि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक कोई एक भी ऐसा कवि
बताया जा सकता है जिसने अज्ञेय और अव्यक्त को अज्ञेय और अव्यक्त ही रखकर
प्रियतम बनाया हो और उसके प्रति कामुकता के शब्दों में प्रेमव्यंजना की हो।
कबीरदास किस प्रकार हमारे यहाँ की ज्ञानवाद और सूफियों के भावात्मक
रहस्यवाद को लेकर चले, यह हम पहले दिखा आए हैं। 2 उसी भावात्मक रहस्यपरंपरा
का यह नूतन भावभंगी और लाक्षणिकता के साथ आविर्भाव है। बहुत रमणीय है, कुछ
लोगों को अत्यंत रुचिकर है, यह और बात है।
प्रणयवासना का यह उद्गार आध्यात्मिक पर्दे में ही छिपा न रह सका। हृदय की
सारी कामवासनाएँ, इंद्रियों के सुखविलास की मधुर और रमणीय सामग्री के बीच
एक बँधी हुई रूढ़ि पर व्यक्त होने लगी। इस प्रकार रहस्यवाद से संबंध न
रखने-वाली कविताएँ भी छायावाद ही कही जाने लगीं। अत: 'छायावाद' शब्द का
प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्यशैली के संबंध में भी प्रतीकवाद
(सिंबालिज्म) के अर्थ में होने लगा।
छायावाद की इस धारा के आने के साथ ही साथ अनेक लेखक नवयुग के प्रतिनिधि
बनकर योरप के साहित्यक्षेत्र में प्रवर्तित काव्य और कला संबंधी अनेक नए
पुराने सिध्दांत सामने लाने लगे। कुछ दिन 'कलावाद' की धूम रही और कहा जाता
रहा 'कला का उद्देश्य कला ही है'। इस जीवन के साथ काव्य का कोई संबंध ही
नहीं, उसकी दुनिया ही और है। किसी काव्य के मूल्य का निर्धारण जीवन की किसी
वस्तु के मूल्य के रूप में नहीं हो सकता। काव्य तो एक लोकातीत वस्तु है।
कवि एक प्रकार का रहस्यदर्शी (सीयर) या पैगंबर है। 3 इसी प्रकार क्रोचे के
अभिव्यंजनावाद को लेकर बताया गया कि काव्य में वस्तु या वर्ण्य विषयक कुछ
नहीं; जो कुछ है वह अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन है। 4 इन दोनों वादों के
अनुसार काव्य का लक्ष्य उसी प्रकार सौंदर्य की सृष्टि या योजना कहा गया जिस
प्रकार बेलबूटे या नक्काशी का। कविकल्पना को प्रत्यक्षजगत से अलग एक
स्मरणीय स्वप्न घोषित किया जाने लगा और कवि सौंदर्य भावना के मद में
झूमनेवाला एक लोकातीत जीव। कला और काव्य की प्रेरणा का संबंध स्वप्न और
कामवासना से बतानेवाला मत भी इधर उधर उध्दृत हुआ। सारांश यह कि इस प्रकार
के अनेक वाद प्रवाद पत्र पत्रिकाओं में निकलते रहे।
छायावाद की कविता की पहली दौड़ तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले
और कोमल मार्ग पर हुई। पर उन कविताओं की बहुत कुछ गतिविधि अंग्रेजी
वाक्यखंडों के अनुवाद द्वारा संघटित देख, अंग्रेजी काव्यों से परिचित
हिन्दी कवि सीधे अंग्रेजी से ही तरह तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर उनके
ज्यों के त्यों अनुवाद जगह जगह अपनी रचनाओं में जड़ने लगे। 'कनक प्रभात',
'विचारों में बच्चों की साँस', 'स्वर्ण समय', 'प्रथम मधुबाल', 'तारिकाओं की
तान', 'स्वप्निल कांति' ऐसे प्रयोग अजायबघर के जानवरों की तरह उनकी रचनाओं
के भीतर इधर उधर मिलने लगे। निरालाजी की शैली कुछ अलग रही। उसमें लाक्षणिक
वैचित्रय का उतना आग्रह नहीं पाया जाता जितना पदावली की तड़क भड़क और पूरे
वाक्य के वैलक्षण्य का। केवल भाषा के प्रयोगवैचित्रय तक ही बात न रही। ऊपर
जिन अनेक योरोपीय वादों और प्रवादों का उल्लेख हुआ है उन सबका प्रभाव भी
छायावाद कही जानेवाली कविताओं के स्वरूप पर कुछ न कुछ पड़ता रहा।
कलावाद और अभिव्यंजनावाद का पहला प्रभाव यह दिखाई पड़ा कि काव्य में
भावानुभूति के स्थान पर कल्पना का विधान ही प्रधान समझा जाने लगा और कल्पना
अधिकतर अप्रस्तुतों की योजना करने तथा लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और विचित्रता
लाने में ही प्रवृत्त हुई। प्रकृति के नाना रूप और व्यापार इसी अप्रस्तुत
योजना के काम में लाए गए। सीधे उनके मर्म की ओर हृदय प्रवृत्त न दिखाई पड़ा।
पंतजी अलबत्ता प्रकृति के कमनीय रूपों की ओर कुछ रुककर हृदय रमाते पाए गए।
दूसरा प्रभाव यह देखने में आया कि अभिव्यंजना प्रणाली या शैली की विचित्रता
ही सब कुछ समझी गई। नाना अर्थभूमियों पर काव्य का प्रसार रुक सा गया।
प्रेमक्षेत्र (कहीं आध्यात्मिक, कहीं लौकिक) के भीतर ही कल्पना की
चित्रविधाायिनी क्रीड़ा के साथ प्रकांड वेदना, औत्सुक्य, उन्माद आदि की
व्यंजना तथा क्रीड़ा से दौड़ी हुई प्रिय के कपोलों पर की ललाई, हावभाव,
मधुस्राव, अश्रुप्रवाह इत्यादि के रँगीले वर्णन करके ही अनेक कवि अब तक
पूर्ण तृप्त दिखाई देते हैं। जगत और जीवन के नाना मार्मिक पक्षों की ओर
उनकी दृष्टि नहीं है। बहुत से नए रसिक प्रस्वेद, गंधायुक्त, चिपचिपाती और
भिनभिनाती भाषा को ही सब कुछ समझने लगे हैं। लक्षणाशक्ति के सहारे
अभिव्यंजना प्रणाली या काव्यशैली का अवश्य बहुत अच्छा विकास हुआ है पर अभी
तक कुछ बँधो हुए शब्दों की रूढ़ि चली चल रही है। रीतिकाल की श्रृंगारी कविता
की भरमार की तो इतनी निंदा की गई। पर वही श्रृंगारी कविता , कभी रहस्य का
पर्दा डालकर, कभी खुले मैदान , अपनी कुछ अदा बदलकर फिर प्राय: सारा
काव्यक्षेत्र छेंककर चल रही है।
'कलावाद' के प्रसंग में बार बार आनेवाले 'सौंदर्य' शब्द के कारण बहुत से
कवि बेचारी स्वर्ग की अप्सराओं को पर लगाकर कोहकाफ की परियों या बिहिश्त के
फरिश्तों की तरह उड़ाते हैं, सौंदर्य चयन के लिए इंद्रधानुषी बादल, उषा,
विकच कलिका, पराग, सौरभ, स्मित आनन, अधारपल्लव इत्यादि बहुत ही सुंदर और
मधुर सामग्री प्रत्येक कविता में जुटाना आवश्यक समझते हैं। स्त्री के नाना
अंगों के आरोप के बिना वे प्रकृति के किसी दृश्य के सौंदर्य की भावना ही
नहीं कर सकते। 'कला कला' की पुकार के कारण योरप में गीत मुक्तकों (लिरिक्स)
का ही अधिक चलन देखकर यहाँ भी उसी का जमाना यह बताकर कहा जाने लगा कि अब
ऐसी लंबी कविताएँ पढ़ने की किसी को फुरसत कहाँ जिनमें कुछ इतिवृत्त भी मिला
रहता हो। अब तो विशुद्ध काव्य की सामग्री जुटाकर सामने रख देनी चाहिए जो
छोटे छोटे प्रगीत मुक्तकों में ही संभव है। इस प्रकार काव्य में जीवन को
अनेक परिस्थितियों की ओर ले जानेवाले प्रसंगों या आख्यानों की उद्भावना बंद
सी हो गई।
खैरियत यह हुई कि कलावाद की उस रसवर्जिनी सीमा तक लोग नहीं बढ़े जहाँ यह कहा
जाता है कि रसानुभूति के रूप में किसी प्रकार का भाव जगाना तो वक्ताओं का
काम है, कलाकार का काम तो केवल कल्पना द्वारा बेलबूटे या बारात की फुलवारी
की तरह की शब्दमयी रचना खड़ी करके सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न कराना है।
हृदय और वेदना का पक्ष छोड़ा नहीं गया है, इससे काव्य के प्रकृतस्वरूप के
तिरोभाव की आशंका नहीं है। पर छायावाद और कलावाद के सहसा आ धामकने से
वर्तमान काव्य का बहुत सा अंश एक बँधी हुई लीक के भीतर सिमट गया, नाना
अर्थभूमियों पर न जाने पाया, यह अब अवश्य कहा जाएगा।
छायावाद की शाखा के भीतर धीरे धीरे काव्यशैली का बहुत अच्छा विकास हुआ,
इसमें संदेह नहीं। उसमें भावावेश की आकुल व्यंजना, लाक्षणिक वैचित्रय,
मूर्ति प्रत्यक्षीकरण, भाषा की वक्रता, विरोध चमत्कार, कोमल पदविन्यास
इत्यादि काव्य का स्वरूप संघटित करनेवाली प्रचुर सामग्री दिखाई पड़ी। भाषा
के परिमार्जनकाल में किस प्रकार खड़ी बोली की कविता के रूखेसूखे रूप से ऊबकर
कुछ कवि उसमें सरसता लाने के चिद्द दिखा रहे थे, यह कहा जा चुका है। 5 अत:
आध्यात्मिक रहस्यवाद का नूतन रूप हिन्दी में न आता तो भी शैली और
अभिव्यंजना पद्ध ति की उक्त विशेषताएँ क्रमश: स्फुरित होतीं और उनका
स्वतंत्र विकास होता। हमारी काव्यभाषा में लाक्षण्0श्निाकता का कैसा अनूठा
आभास घनानंद की रचनाओं में मिलता है, यह हम दिखा चुकेहैं। 6
छायावाद जहाँ तक आध्यात्मिक प्रेम लेकर चला है वहाँ तक तो रहस्यवाद के ही
अंतर्गत रहा है। उसके आगे प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद (सिंबालिज्म) नाम की
काव्यशैली के रूप में गृहीत होकर भी वह अधिकतर प्रेमगान ही करता रहा है।
हर्ष की बात है कि अब कई कवि उस संकीर्ण क्षेत्र से बाहर निकलकर जगत् और
जीवन के और और मार्मिक पक्षों की ओर भी बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। इसी के साथ
काव्यशैली में प्रतिक्रिया के प्रदर्शन व नएपन की नुमाइश का शौक भी घट रहा
है। अब अपनी शाखा की विशिष्टता को विभिन्नता की हद पर ले जाकर दिखाने की
प्रवृत्ति का वेग क्रमश: कम तथा रचनाओं को सुव्यवस्थित और अर्थगर्भित रूप
देने की रुचि क्रमश: अधिक होती दिखाई पड़ती है।
स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी अधिकतर तो विरहवेदना के नाना सजीले शब्दपथ
निकालते तथा लौकिक और अलौकिक प्रणय मधुगान ही करते रहे, पर इधर 'लहर' में
कुछ ऐतिहासिक वृत्त लेकर छायावाद की चित्रमयी शैली को विस्तृत अर्थभूमि पर
ले जाने का प्रयास भी उन्होंने किया और जगत के वर्तमान दुखद्वेषपूर्ण मानव
जीवन का अनुभव करके इस 'जले जगत के वृंदावन बन जाने' की आशा भी प्रकट की
तथा 'जीवन के प्रभात' को भी जगाया। इसी प्रकार श्री सुमित्रानंदन पंत ने
'गुंजन' में सौंदर्य चयन से आगे बढ़ जीवन के नित्य स्वरूप पर भी दृष्टि डाली
है; सुख दुख दोनों के साथ अपने हृदय का सामंजस्य किया है और जीवन की गति
में भी लय' का अनुभव किया है। बहुत अच्छा होता यदि पंतजी उसी प्रकार जीवन
कीअनेक परिस्थितियों को नित्य रूप में लेकर अपनी सुंदर, चित्रमयी प्रतिभा
को अग्रसर करते जिस प्रकार उन्होंने 'गुंजन' और 'युगांत' में किया है।
'युगवाणी' में उनकी वाणी बहुत कुछ वर्तमान आंदोलनों की प्रतिध्वनि के रूप
में परिणत होती दिखाई देती है।
निरालाजी की रचना का क्षेत्र तो पहले से ही कुछ विस्तृत रहा। उन्होंने जिस
प्रकार 'तुम और मैं' में उस रहस्य 'नाद वेग ओंकार सार' का गान किया, 'जूही
की कली' और 'शेफालिका' में उन्मद प्रणय चेष्टाओं के पुष्पचित्र खड़े किए उसी
प्रकार 'जागरण वीणा' बजाई; इस जगत् के बीच विधवा की विधुर और करुण मूर्ति
खड़ी की और इधर आकर 'इलाहाबाद के पथ पर' एक पत्थर तोड़ती दीन स्त्री के माथे
पर के श्रमसीकर दिखाए। सारांश यह कि अब शैली के वैलक्षण्य द्वारा
प्रतिक्रिया प्रदर्शन का वेग कम हो जाने से अर्थभूमि के रमणीय प्रसार के
चिद्द भी छायावादी कहे जानेवाले कवियों की रचनाओं में दिखाई पड़ रहे हैं।
इधर हमारे साहित्य क्षेत्र की प्रवृत्तियों का परिचालन बहुत कुछ पच्छिम से
होता है। कला में 'व्यक्तित्व' की चर्चा खूब फैलने से कुछ कवि लोक के साथ
अपना मेल न मिलने की अनुभूति की बड़ी लंबी चौड़ी व्यंजना, कुछ मार्मिकता और
कुछ फक्कड़पन के साथ करने लगे हैं। भावक्षेत्र में असामंजस्य की इस अनुभूति
का भी एक स्थान अवश्य है, पर यह कोई व्यापक या स्थायी मनोवृत्ति नहीं।
हमारा भारतीय काव्य उस भूमि की ओर प्रवृत्त रहा है जहाँ जाकर प्राय: सब
हृदयों का मेल हो जाता है। वह सामंजस्य को लेकर अनेकता में एकता को लेकर ,
चलता रहा है, असामंजस्य को लेकर नहीं।
उपर्युक्त परिवर्तनवाद और छायावाद को लेकर चलनेवाली कविताओं के साथ साथ
दूसरी धाराओं की कविताएँ भी विकसित होती हुई चल रही हैं। द्विवेदीकाल में
प्रवर्तित विविधा, वस्तुभूमियों पर प्रसन्न प्रवाह के साथ चलनेवाली
काव्यधारा सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, ठाकुर गोपालशरण सिंह, अनूप शर्मा,
श्यामनारायण पांडेय, पुरोहित प्रतापनारायण, तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' इत्यादि
अनेक कवियों की वाणी के प्रसाद से विविधा प्रसंग, आख्यान और विषय लेकर
निखरती तथा प्रौढ़ और प्रगल्भ होती चली आ रही है। उसकी अभिव्यंजना प्रणाली
में अब अच्छी सरसता और सजीवता तथा अपेक्षित वक्रता का भी विकास होता चल रहा
है।
यद्यपि कई वादों के कूद पड़ने और प्रेमगान की परिपाटी (लव लिरिक्स) का फैशन
चल पड़ने के कारण अर्थभूमि का बहुत कुछ संकोच हो गया और हमारे वर्तमान काव्य
का बहुत सा भाग कुछ रूढ़ियों को लेकर एक बँधी लीक पर बहुत दिनों तक चला, फिर
भी स्वाभाविक स्वच्छंदता (ट्रई रोमांटिसिज्म) के उस नूतन पथ को ग्रहण करके
कई कवि चले जिनका उल्लेख पहले हो चुका है। पं. रामनरेश त्रिपाठी के संबंध
में द्वितीय उत्थान के भीतर कहा जा चुका है। तृतीय उत्थान के आरंभ में
मुकुटधार पांडेय की रचनाएँ छायावाद के पहले किस प्रकार नूतन, स्वच्छंद
मार्ग निकाल रही थीं यह भी हम दिखा आए हैं। मुकुटधारजी की रचनाएँ नरेतर
प्राणियों की गतिविधि का भी रागरहस्यपूर्ण परिचय देती हुई स्वाभाविक
स्वच्छंदता की ओर झुकती मिलेंगी। प्रकृति प्रांगण के चर अचर प्राणियों का
रागपूर्ण परिचय उनकी गतिविधि पर आत्मीयताव्यंजक दृष्टिपात, सुख दुख में
उनके साहचर्य की भावना, ये सब बातें स्वाभाविक स्वच्छंदता के पथचिद्द हैं।
सर्वश्री सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, ठाकुर गुरुभक्त सिंह,
उदयशंकर भट्ट इत्यादि कई कवि विस्तृत अर्थभूमि पर स्वाभाविक स्वच्छंदता का
मर्मपथ ग्रहण करके चल रहे हैं। वे न तो केवल नवीनता के प्रदर्शन के लिए
पुराने छंदों का तिरस्कार करते हैं, न उन्हीं में एकबारगी बँधाकर चलते हैं।
वे प्रसंग के अनुकूल परंपरागत पुराने छंदों का व्यवहार और नये ढंग के छंदों
तथा चरण व्यवस्थाओं का विधान भी करते हैं। व्यंजक, चित्रविन्यास, लाक्षणिक
वक्रता और मूर्तिमत्ता, सरसपदावली आदि का भी सहारा लेते हैं, पर इन्हीं
बातों को सब कुछ नहीं समझते। एक छोटे से घेरे में इनके प्रदर्शनमात्र से वे
संतुष्ट नहीं दिखाई देते हैं। उनकी कल्पना इस व्यक्त जगत् और जीवन की अनंत
वीथियों में हृदय को साथ लेकर विचरने के लिए आकुल दिखाई देती है।
तृतीयोत्थान की प्रवृत्तियों के इस संक्षिप्त विवरण से ब्रजभाषा
काव्यपरंपरा के अतिरिक्त इस समय चलनेवाली खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराएँ
स्पष्ट हुई होंगी , द्विवेदीकाल की क्रमश: विस्तृत और परिष्कृत होती हुई
धारा, छायावाद कही जानेवाली धारा तथा स्वाभाविक स्वच्छंदता को लेकर चलती
हुई धारा जिसके अंतर्गत राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लालसा व्यक्त
करनेवाली शाखा भी हम ले सकते हैं। ये धाराएँ वर्तमानकाल में चल रही हैं और
अभी इतिहास की सामग्री नहीं बनी हैं। इसलिए इनके भीतर की कुछ कृतियों और
कुछ कवियों का थोड़ा सा विवरण देकर ही हम संतोष करेंगे। इनके बीच मुख्य भेद
वस्तुविधान और अभिव्यंजनकला के रूप और परिमाण में है। पर काव्य की भिन्न
भिन्न धाराओं के भेद इतने निर्दिष्ट नहीं हो सकते कि एक की कोई विशेषता
दूसरी में कहीं दिखाई ही न पड़े। जबकि धाराएँ साथ साथ चल रही हैं तब उनका
थोड़ा बहुत प्रभाव एक दूसरे पर पड़ेगा ही। एक धारा का कवि दूसरी धारा की किसी
विशेषता में भी अपनी कुछ निपुणता दिखाने की कभी कभी इच्छा कर सकता है।
धाराओं का विभाग सबसे अधिक सामान्य प्रवृत्ति देखकर ही किया जा सकता है फिर
भी दो चार कवि ऐसे रह जाएँगे जिनमें सब धाराओं की विशेषताएँ समान रूप से
पाई जाएँगी, जिनकी रचनाओं का स्वरूप मिलाजुला होगा। कुछ विशेष प्रवृत्ति
होगी भी तो व्यक्तिगत होगी।
ब्रजभाषा काव्यपरंपरा
जैसाकि द्वितीयोत्थान के अंत में कहा जा चुका है, ब्रजभाषा की काव्यपरंपरा
भी चल रही है। यद्यपि खड़ी बोली का चलन हो जाने से अब ब्रजभाषा की रचनाएँ
प्रकाशित बहुत कम होती हैं पर अभी देश में न जाने कितने कवि नगरों और
ग्रामों में बराबर ब्रजवाणी की रसधारा बहाते चल रहे हैं। जब कहीं किसी
स्थान पर कवि सम्मेलन होता है तब न जाने कितने अज्ञात कवि आकर अपनी रचनाओं
से लोगों को तृप्त कर जाते हैं। रत्नाकरजी की 'उद्ध वशतक' ऐसी उत्कृष्ट
रचनाएँ इस तृतीय उत्थान में ही निकली थीं। सर्गबद्ध प्रबंध काव्यों में
हमारा 'बुद्ध चरित'7 संवत् 1979 में प्रकाशित हुआ जिसमें भगवान बुद्ध का
लोकपावन चरित उसी परंपरागत काव्यभाषा में वर्णित है जिसमें राम कृष्ण की
लीला का अब भी घर घर गान होता है। श्री वियोगीहरिजी की 'वीरसतसई' पर
मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिले बहुत दिन नहीं हुए। देवपुरस्कार से पुरस्कृत
श्री दुलारे लालजी भार्गव के दोहे बिहारी के रास्ते पर चल ही रहे हैं।
अयोध्या के श्री रामनाथ ज्योतिषी को 'रामचंद्रोदय' काव्य के लिए
देवपुरस्कार थोड़े ही दिन हुए मिला है। मेवाड़ के श्री केसरीसिंह बारहठ का
'प्रतापचरित' वीररस का एक बहुत उत्कृष्ट काव्य है जो संवत् 1992 में
प्रकाशित हुआ है। पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' की सरस कविताओं की धूम
कवि-सम्मेलनों में बराबर रहा करती है। प्रसिद्ध कलाविद् रायकृष्णदासजी का
'ब्रजरज' इसी तृतीयोत्थान के भीतर प्रकाशित हुआ है। इधर श्री उमाशंकर
वाजपेयी 'उमेश' जी की 'ब्रजभारती' में ब्रजभाषा बिल्कुल नई सजधाज के साथ
दिखाई पड़ी है।
हम नहीं चाहते, और शायद कोई भी नहीं चाहेगा, कि ब्रजभाषा काव्य की धारा
लुप्त हो जाए। उसे यदि इस काल में भी चलना है तो वर्तमान भावों को ग्रहण
करने के साथ ही साथ भाषा का भी कुछ परिष्कार करना पड़ेगा। उसे चलती ब्रजभाषा
के अधिक मेल में लाना होगा। अप्रचलित संस्कृत शब्दों को भी अब बिगड़े रूपों
में रखने की आवश्यकता नहीं। 'बुद्ध चरित' काव्य में भाषा के संबंध में हमने
इसी पद्ध ति का अनुसरण किया था और कोई बाधा नहीं दिखाई पड़ी थी।
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