रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
8
सृजन के विविध आयाम
अन्तिम
आकांक्षा
''लोगों ने मुझे बनारसी समझ लिया है, यह मेरे साथ अन्याय है। मैं मिर्जापुर
का हूँ और मिर्जापुर मुझे अत्यन्त प्रिय है। मैं मिर्जापुर की एक-एक झाड़ी,
एक-एक टीले से परिचित हूँ। बचपन मेरा इन्हीं झाड़ियों की छाया में पला है।
मैं इसे कैसे भूल सकता हूँ।''
''लोगों की अन्तिम कामना रहती है कि वे काशी में मोक्ष लाभ करें, किन्तु
मेरी अन्तिम कामना यही है कि अन्तिम समय मेरे सामने मिर्जापुर का वही
प्रकृति का दिव्य खंड हो, जो मेरे मन में भीतर-बाहर बसा हुआ है।''
''आपने कवि सम्मेलन का आयोजन पुस्तकालय भवन में किया है, यह ठीक नहीं।
दूसरी बार कवि सम्मेलन कीजिए, तब पहाड़ पर, झाड़ियों में कीजिए, जब पानी बरस
रहा हो, झरने झर रहे हों, तब मैं भी हूँगा और आप लोग भी। तब मिर्जापुर के
कवि-सम्मेलन का आनन्द रहेगा। यों तो कवि-सम्मेलन सर्वत्रा ही होते हैं।''
[ साहित्य सन्देश, अप्रैल-मई, 1941 से साभार ]
[ मृत्यु से कुछ दिनों पूर्व आचार्य शुक्ल मिर्जापुर गए थे। वहाँ 25-26
जनवरी 1941 को कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। आचार्य शुक्ल को कवि
सम्मेलन में सभापति के रूप में बुलाया गया था। आचार्य शुक्ल और सोहनलाल
द्विवेदी के मध्य हुई बातचीत का यह एक अंश है ]
आ.
रामचन्द्र शुक्ल का महाप्रयाण
आज
(काशी माघ सुदी 8 मंगलवार सौर 22 सं. 1997 वै. ता. 4 फरवरी सन् 1941ई )
आचार्य पंडित रामचन्द्र शुक्ल की मृत्यु
हिन्दी के विद्वान, कवि और सर्वश्रेष्ठ समालोचक
विश्वविद्यालय, नागरी-प्रचारिणी-सभा आदि बन्द
काशी में शोक-दिन में शव का जुलूस
काशी, सोमवार
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रधान, काशी
नागरीप्रचारिणी-सभा के अधयक्ष, हिन्दी के विद्वान, कवि और हिन्दी साहित्य
के सर्वश्रेष्ठ समालोचक आचार्य पंडित रामचन्द्र शुक्ल की कल रात को साढ़े नौ
बजे उनके दुर्गाकुंड वाले नए वासस्थान पर सहसा हृदय की गति रुक जाने से
मृत्यु हो गई।
इधार एक सप्ताह से आपका दमे का रोग कुछ अधिक उमड़ आया था और मित्रौ से आपने
अपने जीवन के सम्बन्ध में निराशा भी प्रकट कर दी थी। कल रात साढ़े सात बजे
आपकी हालत अधिक बिगड़ने लगी। आपके चिकित्सक डॉक्टर अचलबिहारी सेठ ने आकर
आपको दवा दी जिससे श्वास कष्ट कम हुआ पर रात साढ़े नौ बजे दवा देने के समय
मालूम हुआ कि आप चिर निद्रा में निमग्न हैं। मृत्यु के समय शुक्लजी के पास
उनकी पत्नी, सबसे छोटी पुत्री, सास, अनुज श्री कृष्णचन्द्र आदि कुटुम्बी
उपस्थित थे। श्री चन्द्रबली पांडे भी आपके वासस्थान पर थे जब जाने लगे तो
शुक्लजी ने कहला भेजा कि सब मित्रो से अन्तिम नमस्कार कह दीजिएगा। शुक्लजी
के पुत्र डिप्टी कलक्टर श्री केशवचन्द्र कानपुर में और श्री गोकुलचन्द्र
मझौली में हैं। उन्हें सूचना दे दी गई है, और वे आज यहाँ पहुँच जाएँगे। दिन
में एक बजे शुक्लजी के शव का जुलूस उनके वासस्थान से मणिकर्णिका घाट के लिए
रवाना हुआ।
काशी में शोक-विश्वविद्यालय बन्द
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मृत्यु का समाचार सुनकर काशी में शोक छा गया है।
नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दू विश्वविद्यालय के सभी विभाग, दयानन्द कालेज,
भगवानदीन साहित्य विद्यालय आदि संस्थाएँ आज बन्द है। सिटी बेसिक स्कूल के
अध्यापकों और छात्रौ, विश्वविद्यालय के प्राच्य तथा धर्म विद्या विभाग और
दयानन्द कालेज की अध्यापक समिति की सभाएँ हुईं और शोक तथा संवेदना के
प्रस्ताव पास हुए। काशी के साहित्यिक, विश्वविद्यालय के अधयापक तथा छात्र
आदि सबेरे से ही शुक्लजी के वास स्थान पर पहुँचने लगे।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का संक्षित जीवन परिचय
आचार्य पंडित रामचन्द्र शुक्ल का जन्म संवत 1941 की आश्विन पूर्णिमा को
बस्ती जिले के अगोना स्थान में हुआ। मिर्जापुर से एंट्रेस परीक्षा पास करने
के बाद वे गृहस्थी के झंझटों से आगे न पढ़ सके। एक बार आपने वकालत की
परीक्षा देने की कोशिश की थी पर साहित्य संसार ने आपको अपनी ओर खींच लिया।
कुछ समय तक मिर्जापुर के मिशन स्कूल में अध्यापक रहने के बाद आप
नागरीप्रचारिणी सभा के तत्तवावधान में प्रकाशित होने वाले 'हिन्दी
शब्दसागर' के सम्पादन के लिए काशी आ गए। 'शब्दसागर' के वर्तमान रूप का
अधिकांश श्रेय शुक्लजी को ही है। शुक्लजी ने कई वर्ष तक 'नागरी प्रचारिणी
पत्रिका' का भी सम्पादन किया। सन् 1929 में जब हिन्दू विश्वविद्यालय में
उपाधि परीक्षाओं के लिए हिन्दी साहित्य की शिक्षा की भी व्यवस्था हुई तब
उसमें शुक्लजी की नियुक्ति से हिन्दी विभाग का महत्व बढ़ा। प्रोफेसर
श्यामसुन्दरदासजी के अवसर [ अवकाश ] ग्रहण करने पर शुक्लजी उनके स्थान पर
जुलाई सन् 1937 में उक्त विभाग के अधयक्ष हो गए। शुक्लजी ने हिन्दी में
आलोचनात्मक कई ग्रन्थ लिखे हैं। 'काव्य में रहस्यवाद', 'हिन्दी साहित्य का
इतिहास', 'चिन्तामणि' आदि कई प्रामाणिक ग्रन्थों के आप निर्माता हैं।
संवत 1996 में शुक्लजी को उनके 'चिन्तामणि' नामक निबन्ध-संग्रह पर
मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला था।' हिन्दी साहित्य के इतिहास' पर प्रयाग की
हिन्दुस्तानी एकेडमी की ओर से आपको 500/-रुपए का पुरस्कार पहले भी मिल चुका
है।
साप्ताहिक आज
आचार्य शुक्लजी का निधन
गत रविवार को रात में लगभग नौ बजे हृदय की गति सहसा बन्द हो जाने से आचार्य
पंडित रामचन्द्र शुक्ल का देहावसान हो गया। यद्यपि इधर एक अरसे से आप दमा
रोग से पीड़ित थे, फिर भी ऐसी आशंका करने के लिए कोई कारण न था कि आप इस तरह
एकाएक इस नश्वर शरीर का परित्याग कर संसार से विदा हो जाएँगे। आपके निधन से
हिन्दी जगत की महती हानि हुई। आपने हिन्दी की जो अद्वितीय सेवा की है उसके
कारण आपका नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में अमर होकर रहेगा। आप अपनी
प्रतिभा और योग्यता के बल पर एक मामूली ड्राइंग मास्टर के पद से उन्नति
करते-करते हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रधान बन गए। आपकी
प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित हिन्दी के
अद्वितीय कोष हिन्दी शब्दसागर के सम्पादन में आपका प्रमुख हाथ था। उसके लिए
आपने हिन्दी साहित्य का जो आलोचनात्मक इतिहास लिखा था, वह हिन्दी की
बहुमूल्य वस्तु है।
आपके लेखों की एक खास शैली थी और आपकी भाषा बड़ी परिष्कृत होती थी। विषय की
तह तक पहुँचकर उसे अच्छी तरह स्पष्ट कर देना आपका मुख्य लक्ष्य रहता था।
आपने विशेषकर मनोवैज्ञानिक एवं साहित्यिक विषयों पर बहुत से उच्च कोटि के
निबन्ध लिखे हैं। ऐसे निबन्धो का एक संग्रह 'विचारवीथी' और दूसरा
'चिन्तामणि' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। निबन्धौ का धरातल ऊपर उठाने का
बहुत कुछ श्रेय आपकी रचनाओं को ही प्राप्त है। आपके निबन्ध 'हिन्दी के ही
नहीं, किसी भी भाषा के साहित्य को गौरव प्रदान करने की क्षमता रखते हैं।
आपकी पुस्तक 'चिन्तामणि' पर हिन्दी का सबसे बड़ा पारितोषिक-मंगलाप्रसाद
पुरस्कार प्रदान कर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने भी आपकी प्रतिभा और प्रकांड
विद्वता का समादार किया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर प्रयाग की
हिन्दुस्तानी एकेडमी भी आपको पाँच सौ रुपए का पुरस्कार प्रदान कर चुकी है।
हिन्दी संसार आपको साहित्य सम्मेलन के अधयक्ष पद पर आसीन देखना चाहता था
किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी आपने इस पद का गौरव बढ़ाना स्वीकार नहीं
किया। हाँ, साहित्य परिषद का अध्यक्ष-पद आप अवश्य सुशोभित कर सके और इसी से
आज हमें सन्तोष करना पड़ रहा है।
[ साप्ताहिक आज, सोमवार, 28 माघ 1997 (10-2-1941) ]
पंडित रामचन्द्र शुक्ल का स्वर्गवास
पंडित रामचन्द्र शुक्ल के स्वर्गवास से हिन्दी के एक महान् विद्वान का अभाव
हो गया है। शुक्लजी हिन्दी के उन कुछ कर्मठ विद्वानों में थे जो हिन्दी के
ही होकर रहे। उनके सौभाग्य से उन्हें हिन्दी के महारथी बाबू श्यामसुन्दरदास
का सहयोग प्राप्त हो गया था और क्या नागरीप्रचारिणी सभा और क्या हिन्दू
विश्वविद्यालय दोनों स्थानों में वे बाबू साहब के दाहिने हाथ बने रहे। इसके
फलस्वरूप उन्हें अपनी प्रतिभा का परिचय देने का पूरा मौका मिला। विद्वान और
अध्ययनशील वे थे ही, सब तरह के साधन भी उन्हें अनायास ही प्राप्त हो गए थे,
फलत: वे आगे आ गए, यहाँ तक कि वे गद्य एवं पद्य दोनों के उच्च कोटि के
विद्वान माने गए। तुलसीदास और जायसी के काव्य की जो विवेचनात्मक समालोचनाएँ
उन्होंने लिखी हैं, उनसे उन्होंने हिन्दी में समालोचना का एक नया आदर्श
उपस्थित किया। शुक्लजी कवि भी थे, गद्य के प्रौढ़ लेखक तो थे ही। उनकी
रचनाएँ हमारे लिए मार्गदर्शक का काम देती थी। वे हिन्दी के पुराने लेखकों
की श्रेणी में थे ओर उनमें भी सबसे अधिक प्रतिभावान विद्वान थे। उनमें अपनी
मौलिक सूझ-बूझ थी और उसके प्रकट करने का उनका ढंग भी अधिकतर शास्त्रिय रहता
था। उनकी ऐसी ही शैली के कारण लोग उन्हें 'आचार्य' कहने लगे थे। परन्तु
हिन्दी के ये आचार्य महोदय हिन्दी की सेवा में अपना स्वास्थ्य खो बैठे थे
और एक जमाने से श्वास रोग से पीड़ित थे। दैव के कोप से एकाएक तीन [ दो ]
फरवरी को उनके हृदय की गति बन्द हो गई और वे स्वर्गवासी हो गए। इस समय उनकी
आयु अट्ठावन वर्ष की थी और वे हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के
प्रधान थे। रोगी होते हुए भी वे ऐसे नहीं थे कि स्वर्गवासी हो जाते। इसमें
सन्देह नहीं कि उनकी मृत्यु से हिन्दी के क्षेत्र से एक अनुभवी, प्रामाणिक
विद्वान का अभाव हो गया है और उसकी ऐसी क्षति हुई है जिसकी पूर्ति जल्दी
नहीं हो सकेगी।
[ सरस्वती, भाग 42, मार्च, 1941 ]
स्वर्गीय आचार्य का अन्तिम दर्शन
....सबके चले जाने पर शुक्लजी दाहिनी हथेली पर सिर रख उसी करवट लेट गए।
थोड़ी देर बाद जब माता जी (उनकी धार्मपत्नी) दवा पिलाने आईं तो मालूम पड़ा कि
हमारे साहित्यिक अमिताभ महानिद्रा में लीन हैं। कुछ देर में बिजली की तरह
यह समाचार समस्त काशी में फैल गया।
यह वज्रपात दो फरवरी की रात को नौ और साढ़े नौ (बजे) के बीच हुआ। ठीक नौ बजे
शाह साहब (श्री चंद्रबली पांडेय) गए थे और साढ़े नौ बजे माताजी दवा पिलाने
आई थीं।
प्रात:काल समस्त काशी महामानव के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी, हृदय में अत्यन्त
व्यथा, मूक वाणी तथा अजस्र नयनयुक्त। काशी के प्राय: सभी गणमान्य सज्जन तथा
साहित्यिक उपस्थिति थे। सात बजते बजते हजारों की भीड़ उनके घर पर इकट्ठी हो
गई। लोग दर्शनों के लिए व्यग्र हो रहे थे। लोगों की व्यग्रता बहुत बढ़ती
देखकर मैंने साहस कर उनके मुख से रजाई हटा दी। सिरहाने माताजी बैठी
हिचकियाँ भर रही थी, रजाई हटाते ही वे जोर से बिलख पड़ी। लोग अपने को न रोक
सके और सभी की ऑंखों में ऑंसू छलछला आए। लगभग दो घंटे तक दर्शनार्थियों का
ताँता ही न टूटा, फिर बड़ी मुश्किल से लोगों को रोका गया। जिन्होंने शुक्लजी
की उस समय की आकृति देखी है, वे उसे जन्मभर न भूल सकेंगे। उनके प्रशान्त
विशाल बदन पर मृत्यु का एक भी चिद्द नहीं था, जैसे गौतम की महाशान्ति, इतने
वर्षों बाद, बुध्द की दूसरी आभा देखकर उसी में विलीन हो गई है। लगता था
जैसे अभी सोकर उठने ही वाले हैं।
रात ही उनके बड़े पुत्र केशवचन्द्रजी को, जो कानपुर में सिटी मजिस्ट्रेट
हैं, फोन द्वारा सूचना दे दी गई थी, अर्थी ले जाने के लिए उन्हीं की
प्रतीक्षा थी। बारह बजे मोटर द्वारा वे भी आ पहुँचे, उन्हें देखते ही समस्त
कुटुम्ब शोक विह्नल हो उठा और अपने बछड़े को देखकर दौड़ पड़ने वाली निस्सहाय
गाय की भाँति माताजी का दौड़कर उन्हें पकड़ लेने तथा गिर पड़ने के दृश्य का
वर्णन करना तो मेरी शक्ति के सर्वथा बाहर की बात है। उसके बाद वही हुआ जो
होता चला आया है-अर्थी, जुलूस, मणिकर्णिका घाट, वैश्वानर की सर्वभक्षी
लपटें तथा अवशेष विभूति की गंगा में चिरशान्ति।
जुलूस लगभग डेढ़ मील का था और कैमरा वालों का तो जमघट सा जुड़ा हुआ था। अर्थी
लेकर जब हम लोग चलने को हुए तब एक विशेष मार्मिक घटना घट गई। अर्थीपर पुष्प
वर्षा हो रही थी, यह देखकर केशवचन्द्र जी के मुख से निकल गया कि, ''अरे
भइया यह फूल भी तोड़कर रख दो, यह उन्हें बहुत प्रिय था, अन्तिम समय उसे भी
साथ लेते जाय।
भर्राए गले से इतना कहकर वे जमीन पर बैठ गए। उपस्थिति-जन इस समय अपने
ऑंसुओं को न रोक सके। यह फूल बैजन्ती का था।
[ साहित्य-सन्देश, अप्रैल-मई 1941 से साभार ]
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